________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कोष्ठक उद्यान में, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और श्रमण भगवान् महावीर को तीन वार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 116 से 120) में सिंह अनगार से सम्बन्धित पांच बातों का निरूपण है-- (1) मालुकाकच्छ के निकट आतापनासहित छठ-छठ तप करने वाले भ. महावीर के शिष्य सिंह अनगार थे। (2) भगवान् को छाद्मस्थिक अवस्था में मृत्यु हो जाएगो, यह बात सुन कर मनोदुःखपूर्वक सिंह अनगार का अत्यन्त रुदन / (3) श्रमणनिग्रन्थों को सिंह अनगार को बुला लाने का भगवान् का मादेश / (4) सिंह अनगार के पास जा कर निर्ग्रन्थों ने भगवान् का सन्देश सुनाया। (5) श्रमणों के साथ सिंह अनगार का भगवान् के समीप आगमन, वन्दन-नमन पर्युपासना / कठिन-शब्दार्थ-शाणंतरियाए-ध्यानान्तरिका-एक ध्यान की समाप्ति और दूसरे ध्यान का प्रारम्भ होने से पूर्व / कुहुकुहुस्स परुन्ने-कुहुकुहुशब्दपूर्वक (हृदय में दुःख न समाने से सिसकसिसक कर) रोए। मणो-माणसिएणं दुक्खेणं-मनोगत मानसिक दुःख से, अर्थात्-जो दुःख वचन आदि द्वारा अप्रकाशित होने से मन में ही रहे उस दुःख से / सद्दह-बुला लायो।। 121. 'सीहा !' दि समणे भगवं महावीरे सोहं अणगार एवं वयासि—से नणं ते सोहा! शाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव परुन्ने / से नूणं ते सोहा ! प्र? सम? ?' हंता, अस्थि ! 'तं नो खल अहं सीहा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेयेणं अन्नाइट्ठ समाणे अंतो छण्ह मासाणं जाव कालं करेस्सं / अहं णं अन्नाइं अखसोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि / तं गच्छ णं तुम सोहा ! में ढियगाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिह, तत्थ णं रेवतीए गाहापतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्न पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो'। [121] हे सिंह ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने सिंह अनगार से इस प्रकार कहा–'हे सिंह ! ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए तुम्हें इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न हई यावत् तुम फूट फूट कर रोने लगे, तो हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?' (सिंह का उत्तर---) 'हाँ, भगवन् ! सत्य है / ' (भगवान् सिंह अनगार को आश्वासन देते हुए---) हे सिंह ! मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज द्वारा पराभूत होकर मैं छह मास के अन्दर, यावत् (हर्गिज) काल नहीं करूंगा / मैं साढ़े पन्द्रह 1. वियाहपणत्तिसुतं (मु. पा. टि.) भा. 2 पृ. 728-729 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 690 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2464 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org