________________ पंन्द्रहवां शतक] [491 को फली, मैंग की फली, उड़द की फली अथवा सिम्बली (वक्ष विशेष) की फली यादि, तरुण (ताजी या नई) और अपक्व (कच्ची) हो, उसे कोई मुह में थोड़ा चबाता है या विशेष चबाता है, परन्तु उसका पानी नहीं पीता / वही सिम्बली-पानक होता है / 95. से कि तं सुद्धपाणए? सुद्धपाणए जे गं छम्मासे सुद्ध खादिम खाति - दो मासे पुढविसंथारोवगए, दो मासे कट्ठसंथारोवगए, दो मासे दब्भसंथारोवगए। तस्स गं बहुपडिपुण्णाणं छह मासांणं अंतिमराईए इमे दो देवा महिड्ढोया जाव महेसक्खा अंतियं पाउन्भवति, तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य / तए णं ते देवा सीतलएहि उल्लएहि हत्थेहि गायाई परामुसंति, जे णं ते देवे सातिज्जति से णं आसोधिसत्ताए कम्मं पकरेति, जे णं ते देवे नो सातिज्जति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति / से णं सएणं तेयेणं सरीरगं झामेति, सरीरगं झामेत्ता ततो पच्छा सिति जाव अंतं करेति / से त्तं सुद्धपाणए। [65 प्र. वह शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? [65 उ.] शुद्ध पानक वह होता है, जो व्यक्ति छह महीने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महोन तक पृथ्वी-संस्तारक पर सोता है. (फिर) दो महीने तक काष्ठ के संस्तारक पर सोता है, (तदनन्तर) दो महीने तक दर्भ (डाभ) के संस्तारक पर सोता है। इस प्रकार छह महीने परिपूर्ण हो जाने पर अन्तिम रात्रि में उसके पास ये (मागे कहे जाने वाले) दो महद्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव प्रकट होते हैं / यथा-पूर्ण भद्र और माणिभद्र / फिर वे दोनों देव शीतल और (पानी से भीगे) गीले हाथों से उसके शरीर के अवयवों का स्पर्श करते हैं। उन देवों का जो अनुमोदन करता है, वह आशीविष रूप से कर्म करता है, और जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है / वह अग्निकाय अपने तेज से उसके शरीर को जलाता है / इस प्रकार शरीर को जला देने के पश्चात् वह सिद्ध हो जाता है; यावत् सर्व दु:खों का अन्त कर देता है / यही वह शुद्ध पानक है / विवेचन--प्रस्तुत पाठ सूत्रों (88 से 15 तक) में गोशालक ने मद्यपान नृत्य-गान तथा शरीर पर शीतल जलसिंचन आदि तथा अपने आपको तीर्थकर स्वरूप से प्रसिद्ध करने एवं तेजोलेश्या से स्वयं के जल जाने आदि अपनी पाप चेष्टाओं पर पर्दा डालने और उन्हें धर्म रूप में मान्यता देकर लोगों को भ्रम में डालने के लिए अपने द्वारा आठ प्रकार के चरमों की प्ररूपणा को / इन्हें चरम इसलिए कहा कि 'ये फिर कभी नहीं होंगे।' इन पाठों में से मद्यपान, नाच, गान और अंजलि कर्म, ये चार चरम तो स्वयं गोशालक से सम्बन्धित हैं। पुष्कलसंवर्तक श्रादि तीन बातों का इस प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि स्वयं को अतिशयज्ञानी सिद्ध करने तथा जन मनोरंजन करने के लिए एवं पूर्वोक्त चरमों से इनकी समानता बता कर अपने दोषों को छिपाने के लिए इनको भी 'चरम' बता दिया है / पाठवें चरम में, उसने स्वयं को चरम तीर्थंकर बताया है / अपने चरमजिनत्व को सिद्ध करने के लिए उसने चार प्रकार के पानक और चार प्रकार के अपानक की कल्पना की है / लोगों को यह बताने के लिए कि मैं तेजोलेश्या जनित दाहोपशमन के लिए मद्यपान, पाम्रफल को चूसना तथा मिट्टी मिले शीतल जल से गासिंचन ग्रादि नहीं करता, मैं अपनी तेजोलेश्या से नहीं जलता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org