________________ मारहवां शतक : उद्देशक 10 [227 FE प्र.] भगवन ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा यावत वीर्यात्मा- इनमें से कौन-सी आत्मा, किससे अल्प, बहुत, यावत् विशेषाधिक है ? [उ.] गौतम '! सबसे थोड़ी चारित्रात्माएँ हैं, उनसे ज्ञानात्माएँ अनन्तगुणी हैं, उनसे कषायात्माएँ अनन्तगुणी हैं, उनसे योगात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे वीर्यात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों विशेषाधिक हैं और तीनों तुल्य हैं। विवेचन-- अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ?–अष्टविध आत्माओं का अल्पबहुत्व मूलपाठ में बताया है। उसका कारण यह है--सबसे कम चारित्रात्माएँ हैं, क्योंकि चारित्रवान् जीव संख्यात ही होते हैं / चारित्रात्मा से ज्ञानात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध और सम्यग्दष्टि जीव चारित्री जीवों से अनन्तगुणे हैं / ज्ञानात्मा से कषायात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध जीवों की अपेक्षा सकषायी जीव अनन्तगुण हैं / कषायात्मा से योगात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि योगात्मा में कषायात्मा जीव तो सम्मिलित हैं हो और कषायरहित योग वाले जीवों का भी इसमें समावेश हो जाता है। योगात्मा से वीर्यात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि वीर्यात्मा में अयोगी आत्माओं का भी समावेश हो जाता है। उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि तीनों विशिष्ट प्रात्माएं सभी जीवों में सामान्यरूप से पाई जाती हैं, किन्तु वीर्यात्मा से ये तीनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन तीनों आत्मानों में वीर्यात्मा वाले संसारी जीवों के अतिरिक्त सिद्ध जीवों का भी समावेश होता है।' 10. प्राया भंते ! नाणे, अनाणे? गोयमा ! प्राया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया। [10 प्र. भगवन् ! अात्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ? [10 उ.] गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से (अवश्य ही) प्रात्मस्वरूप है। विवेचन प्रश्न का आशय-याचारांग सूत्र में बताया गया है, 'जे आया से विनाणे जे विन्नाणे से आया' (जो प्रात्मा है, वह विज्ञान रूप है, जो विज्ञान है, वह प्रात्मरूप है), किन्तु यहाँ पूछा गया है कि 'प्रात्मा ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप?' और उसके उत्तर में भगवान् ने आत्मा को कदाचित् ज्ञानरूप कहने के साथ-साथ कदाचित अज्ञानरूप भी बता दिया है, इसका क्या रहस्य है ? क्या ज्ञान प्रात्मा से भिन्न है ? इसका उत्तर यह है कि वैसे तो आत्मा ज्ञान से अभिन्न है, वह त्रिकाल में भी ज्ञानरहित नहीं हो सकता, परन्तु यहाँ ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है और अज्ञान का अर्थ ज्ञान का प्रभाव नहीं, अपितु मिथ्याज्ञान है / सम्यक्त्व होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मति-श्रुतादिरूप हो जाता है और मिथ्यात्व होने पर ज्ञान, अज्ञान यानी मति–अज्ञानादि रूप हो जाता है। वैसे सामान्यतया ज्ञान प्रात्मा से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह अात्मा का धर्म है / धर्म धर्मी से कदापि भिन्न नहीं हो सकता / इस अभेदष्टि से 'ज्ञान को नियम से यात्मा' (प्रात्मस्वरूप) कहा गया है / अज्ञान भी है तो ज्ञान का ही विकृत रूप, किन्तु वह मिथ्यात्व के कारण विपरीत (मिथ्या ज्ञान) हो जाता है / इसलिए यहाँ आत्मा को कञ्चित् अज्ञान रूप कहा गया है। 1. (क) भगवती. अ. नानि, पब 591 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2115 2. पाठान्तर-..."नाणे ? अन्ने नाणं ? (अर्थात-पात्मा ज्ञानरूप है या अन्य ज्ञानरूप है ?) 3. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र 592 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org