________________ पन्द्रहवां शतक] [459 58. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छद्दिसाचरा अंतियं पादुभवित्था, तं जहा-सोणे, तं चेव सवं जाव अजिणे जिणसह पगासेमाणे विहरति / तं नो खलु गोयमा ! गोसाले मंलिपुत्ते जिणे, जिणपलावी जाच जिणसई पगासेमाणे विहरति / गोसाले णं मखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति / [58 | इसके बाद मलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए / यथाशोण इत्यादि सब कथन पूर्ववत् . यावत्-जिन न होते हुए भी अपने प्रापको जिन शब्द से प्रकट करता या विचरण करने लगा है। अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, वह 'जिन शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध (प्रकट) करता हुमा वित्ररता है / वस्तुनः मलिपुत्र गोशालक अजिन (जिन नहीं) है; जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है। 59. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा जहा सिवे (स० 11 उ० 9 सु० 26) जाव पडिगया। [59] तदनन्तर वह अत्यन्त बड़ी परिषद् (ग्यारहवें शतक उद्देशक 9, सू. 26 में कथित) शिवराजर्षि के समान धर्मोपदेश सुन कर यावत् वन्दना-नमस्कार कर वापस लौट गई / विवेचन–प्रस्तुत तीन सूत्रों 57-58-56 में भगवान् / गोशालक के जीवनवृत्त का उपसंहार करते हए निम्नोक्त तथ्यों को उजागर करते हैं-(१) गोशालक ने विधिपूर्वक तप करके तेजोलेश्या प्राप्त कर ली। (2) अहंकारवश जिन न होते हुए भी स्वयं को जिन कहने लगा। (3) गोशालक दम्भी है, वह जिन नहीं है, किन्तु जिन-प्रलापी है। (4) एक विशाल परिषद् में भगवान् ने इस सत्य-तथ्य को उजागर किया।' भगवान द्वारा अपने अजिनत्व का प्रकाशन सुन कर कुभारिन को दूकान पर कुपित गोशालक को ससंघ जमघट 60. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स जाव परूवेइ --"ज णं देवाण प्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिथे जिणप्पलावी जाव विहरति तं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खति जाव परूवेति एवं खलु तस्स गोसालस्स मखलिपुत्तस्स मंखली नाम मंखे पिता होत्था / तए णं तस्स मंखलिस्स०, एवं चेव सव्वं भाणितन्वं जाव अजिणे जिणसई पकासेमाणे विहरति'।तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति, गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरति / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसह पगासेमाणे विहरति" / [601 तदनन्तर श्रावस्ती नगरी में शृगाटक (त्रिकोणमार्ग) यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से यावत् प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! जो यह गोशालक मखलि-पुत्र अपने 1. वियाहपत्तिसुतं भा. 2, (म्, पा. टि.) पृ. 704 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org