________________ पन्द्रहवाँ शतक] [457 तिला पच्चायाता" / तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलिपुत्तं एवं वदामि-"तुम णं गोसाला ! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्स नाव पल्वेमाणस्स एपम? नो सदहसि, नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयम? असदहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे म पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु' त्ति कटु ममं अंतियानो सणियं सणियं पच्चोसक्कसि, 50 2 जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, उ० 2 जाव एगंतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला! दिव्वे अन्भवलए पाउन्भूते / तए णं से दिवे अभवद्दलए खिप्पामेव०, तं चेव जाव तस्स चेव तिलभगस्स एगाए तिलंसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया / तं एस गं गोसाला ! से तिलशंभर निष्फन', मो अनिष्फनमेव, ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता / एवं खलु गोसाला! वणस्सतिकाइया पउट्टपरिहारं परिहरंति" / 55] हे गौतम ! इसके पश्चात किसी एक दिन मंखलिपुत्र गोशालक के साथ मैंने कर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्रामनगर की अोर विहार के लिए प्रस्थान किया। जब हम उस स्थान (प्रदेश) के निकट पाए, जहाँ बह तिल का पौधा था, तब गोशालक मंखलिपुत्र ने मुझ से इस प्रकार कहा'भगवन् ! आपने मुझे उस समय इस प्रकार कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा, यावत् तिलपुष्प के सप्त जीव मर कर सात तिल के रूप में पुनः उत्पन्न होंगे, किन्तु आपकी वह वात मिथ्या हुई, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा उगा ही नहीं और वे तिलपुष्प के सात जीव मर कर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न नहीं हुए।' हे गौतम ! तब मैंने मंलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-हे गोशालक ! जब मैंने तुझ से ऐसा कहा था, यावत् ऐसी प्ररूपणा की थी, तब तूने मेरी उस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की, न ही उस पर रुचि की, बल्कि उक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि न करके तु मुझे लक्ष्य करके कि 'यह मिथ्यावादी हो जाएँ' ऐसा विचार कर मेरे पास से धीरे-धीरे खिसक गया था और जहाँ वह तिल का पौधा था, वहाँ जा पहुँचा यावत् उस तिल के पौधे को तूने मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फेंक दिया। लेकिन हे गोशालक ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए यावत गर्जने लगे, इत्यादि यावत् वे तिलपुष्प तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए हैं। अत: हे गोशालक! यही वह तिल का पौधा है, जो निष्पन्न हया है, यनिष्पन्न नहीं रहा है और वे ही सात तिलपुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे को एक तिलफलो में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकायिक जीव मर-मर कर उसी वनस्पतिकाय के शरीर में पुन: उत्पन्न हो जाते हैं। 56. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयम नो सहति 3 / एतम असद्दहमाणे जाव अरोयेमाणे जेणेव से तिल भए तेणेव उवागच्छति, उ०२ ततो तिलशंभयाओ तं तिलसंगलियं खुडति, खुडित्ता करतलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ / तए णं तस्स गोसालम्स मखलिपुत्तस्स ते सत्त लिले गणेमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-'एवं खलु सम्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति' / एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्ट। एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलियुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए प्रवक्कमणे पन्नते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org