________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आप को 'जिन' हो कर, 'जिन' कहता यावत् फिरता है; यह बात मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि उस मंलिपुत्र गोशालक का 'मंखली' नामक मंख (भिक्षाचर) पिता था। उस समय उस मंखली का......इत्यादि पूर्वोक्त समस्त वर्णन; यावत्-वह (गोशालक) जिन नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट करता है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है। वह 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ, यावत् विचरता है / अतएव वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन है, किन्तु जिन-प्रलापी हो कर यावत् विचरता है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी 'जिन' हैं, 'जिन' कहते हुए यावत् “जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं। 61. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमट्ठसोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे प्रातावणभूमितो पच्चोरुभति, आ० 50 2 सात्थि नगरि मझमझेणं जेणेत्र हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 हालाहलाए कुभकारोए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिबुडे महता अमरिसं वहमाणे एवं वा वि विहरति / [61] जब मंखलिपुत्र गोशालक ने बहुत-से लोगों से यह बात सुनी, तब उसे सुनकर और अवधारण करके वह अत्यन्त क्रुद्ध हुना, यावत् मिसमिसाहट करता (क्रोध से दांत पीसता) हुमा अातापनाभूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुअा हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर पाया / वह हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों को दूकान पर आजीविकसंघ से परिवृत हो (घिरा रह) कर अत्यन्त अमर्ष (रोष) धारण करता हुआ इसी प्रकार विचरने लगा। विवेचन-द्ध गोशालक भगवान को बदनाम करने की फिराक में प्रस्तुत दो सूत्रों (60-61) में भगवान् द्वारा गोशालक की वास्तविकता प्रकट किये जाने पर श्रावस्ती के लोगों के मुंह से सुनकर क्रुद्ध गोशालक द्वारा हालाहला कुभारिन की दुकान पर संघ-सहित, भगवान् को बदनाम करने हेतु पाने का वर्णन है।' गोशालक द्वारा अर्थलोलुप-वणिकवर्ग-विनाशदृष्टान्त-कथनपूर्वक आनन्द स्थविर को भगवद् विनाशकथनचेष्टा 62. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम थेरे पगतिभद्दए जाव विणीए छ8छ?णं अणिषिखत्तेणं तबोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / तए णं से आणंदे थेरे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी (स० 2 उ० 5 सु० 22-24) तहेव प्रापुच्छइ, तहेव जाव उच्च-नीय-मज्झिम जाव अडमाणे हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणस्स अदूरसामंतेणं बोतीवयति / [62] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी (शिष्य) आनन्द नामक स्थविर था। वह प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था और निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) का तपश्चरण 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (भूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 704 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org