________________ 478] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणिलुक्के–जो लुप्त, अदृश्य नहीं हो। अपलाए-पलायनरहित / अणन्ने-दूसरा नहीं / उवलमसि-- उपलब्ध कराता-दिखाता है / नारिहसि-(ऐसा करना) योग्य -उचित नहीं / छाया–प्रकृति / ' भगवान के प्रति गोशालक द्वारा अवर्णवाद-मिथ्यावाद 70. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते 5 समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति, उच्चा० प्राओ० 2 उच्चावयाहिं उद्धसणाहि उद्धसेति, उच्चा० उ० 2 उच्चावधाहिं निभच्छणाहिं निम्भच्छेति, उच्चा० नि० 2 उच्चावयाहि निच्छोडणाहि निच्छोडेति, उच्चा० नि० 2 एवं वदासि-8 सि कदायि, विट्ठ सि कदायि, भट्ठसि कदायि, नट्टविणटुभ? सि कदायि, अज्ज न भवसि, ना हि ते ममाहितो सुहमस्थि / [70] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जब मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा तब वह तुरन्त अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा / क्रोध से तिलमिला कर वह श्रमण भगवान् महावीर की अनेक प्रकार के (असमंजस) ऊटपटांग (अनुचित) अाक्रोशवचनों से भर्त्सना करने लगा, उद्घर्षणायुक्त (दुष्कुलीन है, इत्यादि अपमानजनक) वचनों से अपमान करने लगा, अनेक प्रकार की अनर्गल निर्भर्सना द्वारा भर्त्सना करने लगा, अनेक प्रकार के दुर्वचनों से उन्हें तिरस्कृत करने लगा। यह सब करके फिर गोशालक बोला--(जान पड़ता है) कदाचित् तुम (अपने प्राचार से) नष्ट हो गए हो, कदाचित् प्राज तुम विनष्ट (मृत) हो गए हो, कदाचित् आज तुम (अपनी सम्पदा से) भ्रष्ट हो गए हो, कदाचित तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो चुके हो / अाज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ (सुख) होने वाला नहीं है / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (70) में भगवान द्वारा वास्तविक स्वरूप का भान कराने पर क्रुद्ध और उत्तेजित गोशालक द्वारा भगवान् के प्रति निकाले हुए अनर्गल भर्त्सना, अपमान, तिरस्कार से भरे विद्वेषसूचक उद्गार प्रस्तुत हैं। शब्दार्थ-उच्चावयाहि-ऊँचे-नीचे---भले-बुरे :प्राश्नोसणाहि--'तू मर गया' इत्यादि प्राक्रोशवचनों से / उद्धं सणाहि-तू दुष्कुलीन है इत्यादि अपमानजनक वचनों से / निम्भंछणाहि-निर्भर्सनामों द्वारा--'अब तेरा मुझसे कोई मतलब नहीं' इत्यादि कठोर वचनों से / निच्छोडणाहि-प्राप्त पदवी को छोड़ने के लिए दुष्ट वचनों से अर्थात्-तीर्थकर के चिह्नों को छोड़, इत्यादि दुर्वचनों से / न? सि कयाइ-तू तो कभी का अपने आचार से नष्ट हो गया है / गोशालक को स्वकर्तव्य समझाने वाले सर्वानुभूति अनगार का गोशालक द्वारा भस्मीकरण 71. तेणं कालेण तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी पायोणजाणवए सवाणुभूती णामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागेणं एयम असद्दहमाणे उदाए उति, उ०२ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गोसालं मंखलिपुत्तं एवं क्यासीजे वि ताव गोसाला! तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं 1. (क) भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 683 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5. पृ. 2429 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 683 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org