________________ पन्द्रहवां शतक] [485 करो, इसके बाद अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण (व्याख्या) और कारणों के सम्बन्ध में (उत्तर न दे सके ऐसे) प्रश्न पूछ कर उसे निरुत्तर (निपृष्ट) कर दो।' / विवेचन—पहले (66 वें सूत्र में) भगवान् ने गोशालक के साथ धार्मिक चर्चा या वादविवाद करने के लिए श्रमण निर्ग्रन्थों को मना किया था, क्योंकि उस समय गोशालक पर तेजोलेश्या के अहंकार का भूत सवार था। किन्तु अब तेजोलेश्या का प्रभाव नष्ट हो जाने से गोशालक के साथ धर्मचर्चा एवं वादविवाद करने की श्रमणों को छुट दी, जिससे जनता एवं आजीवक मत के साधु और उपासकगण भ्रम में न रहें. सत्य को जान सकें।' कठिनशब्दार्थ-अगणि-झामिए --अग्नि से किंचित् दग्ध (जला हुआ), अगणिभूसिएअग्नि से अत्यन्त झलसा हुा / छंदेण–इच्छानुसार / हयतेए-जिसका तेज हत हो गया (फीका पड़ गया), गयतेए-गततेज / पडिचोयणा--प्रतिप्रेरणा / पडिसारणा-धर्म का स्मरण कराना / णिप्पट्ठपसिणवागरणं - प्रश्न का उत्तर न दे सकने योग्य / / भगवदादेश से निर्गन्थों को धर्मचर्चा में गोशालक निरुत्तर, पीड़ा देने में असमर्थ, प्राजीविक स्थविर भगवान् के निश्राय में 83. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 गोसालं मंलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोदणाए पडिचोदेंति ध० 102 धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेति, ध० प० 2 धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति, ध० 50 2 अठेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव निप्पट्टपसिणवागरणं करेंति / {83] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब उन श्रमण-निनन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर जहाँ मंलिपुत्र गोशालक था, वहाँ आए और उसे धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा (उसके मत के प्रतिकूल वचन) की, धर्मसम्बन्धी प्रतिस्मारणा (उसके मत के प्रतिकूल अर्थ का स्मरण कराना) की, तथा धार्मिक प्रत्युपचार से उसे तिरस्कृत किया, एवं अर्थ, हतु, प्रश्न, व्याकरण और कारणों से उसे निरुत्तर कर दिया। 84. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहि निग्गंथेहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइज्जमाणे जाव निप्पटुपसिणवागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए, छविच्छेयं वा करेत्तए।. [84] इसके बाद श्रमण-निर्ग्रन्थों द्वारा धार्मिक प्रतिप्रेरणा प्रादि से तथा अर्थ, हेतु, व्याकरण एवं प्रश्नों से यावत् निरुत्तर किये जाने पर गोशालक मंखलिपुत्र अत्यन्त कुपित हुआ यावत् 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2439 2. (क) बही, भा. 5, पृ. 2438 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 683-684 3. जाव शब्द सूचक पाठ—'वागरणं वागरति / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org