________________ पन्द्रहवां शतक] [481 गोशालक, श्रमण भगवान महावीर को अनेक प्रकार के प्राक्रोशपूर्ण वचनों से तिरस्कृत करने लगा; इत्यादि पूर्ववत् ; यावत्-'अाज मुझ से तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।' विवेचन--सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि के जलने में अन्तर----सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र अनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रहार किया, किन्तु सर्वानुभूति अनगार को कूटाघात के समान एक ही प्रहार में जलाकर राख का ढेर कर दिया था. जब कि सनक्षत्र अनगार को इस तरह भस्म नहीं कर सका। इसके लिए शास्त्रकार ने 'परिताविए' (परितापित किया जला दिया) शब्द-प्रयोग किया है। अर्थात्-सुनक्षत्र अनगार तुरन्त भस्म नहीं हुए किन्तु जलने से घायल हो गए थे। सर्वानुभूति अनगार का शरीर तुरन्त ही भस्म हो गया था, इसलिए उन्हें क्षमापना आलोचना-प्रतिक्रमण आदि का समय नहीं मिला, जब कि सुनक्षत्र अनगार को क्षमापना, पालोचनाप्रतिक्रमणपूर्वक समाधिमरण का अवसर प्राप्त हो गया था। कठिन शब्दार्थ---आरुति-पारोपित किया, नये सिरे से पंच महाव्रत का उच्चारण करके स्वीकार किया / समाहिपत्ते-समाधिमरण को प्राप्त हुए। परिताविए-पीडित कर दिया, जला दिया। गोशालक को भगवान का सदुपदेश, क्रुद्ध गोशालक द्वारा भगवान पर फेंकी हुई तेजोलेश्या से स्वयं का दहन 77. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासि–जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स०, वा तं चेव जाव पज्जुवासति किमंग पुण गोसाला! तुम मए चेव पचालिए जाव मए चेव बहुस्सुतीकते मम चेव मिच्छ विष्पडिवन्ने ?, तं मा एवं गोसाला ! जाव नो प्रना। [77) तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने, मखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा'गोशालक ! जो तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि पूर्ववत्, वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या? मैंने तुझे प्रजित किया, यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत बनाया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार का मिथ्यात्व (अनार्यत्व) अपनाया है। गोशालक ! ऐसा मत कर / ऐमा करना तुझे योग्य नहीं है। यावत्-तू वही है , अन्य नहीं है / तेरी वही प्रकृति है, अन्य नहीं / / 78. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुते 5 तेधासमुग्धातेणं समोहनइ, तया० स०२ सत्तटुपयाई पच्चोसक्काइ, स० प० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स बहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति / से जहानामए बाउक्कलिया इ वा वायमंडलिया इ वा 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2433 (ख) वियाहपण्णत्तिमुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त). पृ. 717 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2433 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 659 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org