________________ पन्द्रहवां शतक] [467 इच्छा-याकांक्षा वाले / अत्थपिवासिया-अप्राप्त अर्थविषयक तृष्णा वाले / पणिय भंडे–पणित अर्थात्-व्यापार के लिए भाण्ड-माल, किराना / भत्त-पाण-पत्थयणं भक्त-भोजन, पान-पानी रूप पाथेय (मार्ग के लिए भाता) / अगामियं : दो रूप (1) अग्रामिक- ग्रामरहित, अथवा (2) अकामिक-अनिष्ट / अणोहियं-अगाध जल-प्रवाह (ोघ) से रहित / छिन्नावायं- आवागमन से रहित / दोहमद्ध'-दीर्घ-लम्बे मार्ग या काल वाली / बप्पुओ—शरीर अर्थात् शिखर / अभिनिसढाओ-केसरीसिंह के स्कन्ध की सटा (केस राल) के समान जिसके चारों ओर ऊँची-ऊँची सटाएँ (केसराल) निकली हैं। सुसंपगहियाओ-सुसंवत-- अतिविस्तीर्ण नहीं / पणगद्धवानो-अर्द्धसर्परूप, अर्थात्---उदर कटे हुए सर्प को पूंछ से ऊंचा किया हुमा सर्प अर्द्ध सर्प होता है, जिसका अधोभाग विस्तीर्ण और ऊपर का भाग पतला होता है। तणुयं-हल्का / ओरालं-प्रधान / जच्चं-जात्य--उत्तम जाति का / उदगरयणं-उदक रत्न-जल की जाति में उत्कृष्ट / ' पज्जेतिपिलाया / तावणिज्जं तापनीय-ताप सहने योग्य / महरिह-महान् व्यक्तियों के योग्य / नित्तलं-निस्तल–अत्यन्त गोल / निस्सेयसिए-निःश्रेयस--कल्याण का इच्छुक / समुहियतुरियचबलं धमतं-कुत्ते के मुख को तरह अावाज करने में अति त्वरित और चपल शब्द करने वाला। एगाहच्चं--एक ही आहत-प्रहार या झटके में मार देने वाला / कडाहच्चं कूट-पाषाणमय यंत्र के आघात के समान / पुवंति–उछल रही-चल रही हैं। गुवंति--गाये जाते हैं / थुवंति-स्तुति की जाती है / तवेणं तेएणं तपोजन्य तेज से अथवा तप से प्राप्त तेज-तेजोलेश्या से / वालेणव्यालसर्प ने / सारक्खामि-जलने से वचाऊंगा / संगोवयामि--क्षेम–सुरक्षित स्थान में पहुँचा कर रक्षा करूंगा। गोशालक के साथ हुए वार्तालाप का निवेदन, गोशालक के तप-तेज के सामर्थ्य का प्ररूपण, श्रमणों को उसके साथ प्रतिवाद न करने का भगवत्सन्देश 66. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव संजायभये गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियानो हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणाओ पडिनिक्खमति, प० 2 सिग्धं तुरियं 5 सास्थि नर मज्झमझेणं निगच्छइ, नि० 2 जेणेव कोढए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क० 2. वंदति नमसति, वं० 2 एवं बयासी—"एवं खलु अहं भंते ! छद्रुक्खमणपारणपंसि तुहिं अम्भणुग्णाए समाणे सावस्थीए नगरीए उच्च-नीय जाव अङमाणे हालाहलाए कुंभकारीए जाव वीयोवयामि / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए जाव पासित्ता एवं वदासि-एहि ताव आणंदा! इओ एमं महं ओवमियं निसामेहि / तए णं अहं गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव वल्मीक में जल की संभावना-इस प्रकार के भूमि के गर्त में पानी होता है, अतः वत्मीक में अवश्य ही गर्त (गड्ढे) होने चाहिए / शिखर को तोड़ने से गर्त प्रकट हो जाएगा, और वहाँ जल अवश्य होगा, ऐसी मंभावना की गई। --भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 672 2. (क) भगवती, अ. वृति, पत्र 671 से 673 तंक। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2403 से 2412 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org