________________ पन्द्रहवां शतक] (भगवान्----) (उ.] 'हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ है / हे प्रानन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह विषय है / हे प्रानन्द ! गोशालक ऐसा करने में भी समर्थ है; परन्तु अरिहन्त भगवन्तों को (जला कर भस्म करने में समर्थ) नहीं है / तथापि वह उन्हें परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है। हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का जितना तप-तेज है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अनगार भगवन्तों का है, (क्योंकि) अनगार भगवन्त क्षान्तिक्षम (क्षमा करने में समर्थ) होते हैं। हे आनन्द ! अनगार भगवन्तों का जितना तप-तेज है. उससे अनन गुण विशिष्टतर तप-तेज स्थविर भगवन्तों का है, क्योंकि स्थविर भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं और हे आनन्द ! स्थविर भगवन्तों का जितना तप-तेज होता है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अर्हन्त भगवन्तों का होता है, क्योंकि अर्हन्त भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं। अत: हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है। हे आनन्द ! यह उसका (कर्तृत्व) विषय (शक्ति) है और हे आनन्द ! वह वैसा करने में समर्थ भी है; परन्तु अर्हन्त भगवन्तों को भस्म करने में समर्थ नहीं, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है।' (भगवान्—) 'इसलिए हे अानन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह बात (मेरा यह सन्देश) कह कि -हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ (तुम में से) कोई भी (श्रमण) धार्मिक (उसके धर्ममत के प्रतिकूल धर्मसम्बन्धी) प्रतिप्रेरणा (चर्चा) न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा (उसके मत के विरुद्ध अर्थ रूप स्मरण) न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार (तिरस्कार) पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न करे। क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेष रूप से मिथ्यात्व भाव (म्लेच्छत्व या अनार्यत्व) धारण कर लिया है।' . विवेचन–प्रस्तुत सूत्र (66) के पूर्वार्द्ध में गोशालक के साथ हुए प्रानन्द स्थविर के वार्तालाप तथा गोशालक के द्वारा भगवान् को दी गई धमकी का प्रानन्द द्वारा किया गया निवेदन प्रस्तुत किया गया है। उत्तरार्द्ध में प्रानन्द द्वारा गोशालक की भस्म करने की शक्ति के सम्बन्ध में उठाया गया प्रश्न तथा भगवान द्वारा ग्रानन्द स्थविर का भीति निवारण रूप मन:समाधान तथा उसके साथ-साथ भगवान् द्वारा समस्त श्रमण-निर्ग्रन्थों को गोशालक को न छेड़ने को चेतावनी भी प्रस्तुत की गई है। गोशालक के तप-तेज की शक्ति प्रानन्द स्थविर ने गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से दूसरों को भस्म करने के सामर्थ्य (प्रभुत्व) के विषय में प्रश्न किया है। इसी प्रश्न में दो प्रश्न गभित हैं, क्योंकि प्रभुत्व (सामर्थ्य) दो प्रकार का होता है—(१)विषयमात्र की अपेक्षा से और (2) सम्प्राप्ति रूप (कार्यरूप में परिणत कर देने) की अपेक्षा से। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है---योग्यता से अथवा कर्तृत्वक्षमता से / अर्थात्-गोशालक केवल विषयमात्र से दूसरों को भस्म करने में समर्थ है अथवा कार्यरूप में परिणत करने में भी समर्थ है ? भगवान् ने उपसंहार करते हुए उत्तर दिया है कि गोशालक विषयमात्र से भस्म करने में समर्थ है और करणतः भी समर्थ है / साथ ही उन्होंने क्षमाशील अनगार भगवन्तों, स्थविर भगवन्तों और अरिहन्त भगवन्तों के तप-तेज का सामर्थ्य उत्तरोत्तर अनन्त-गुणविशिष्टतर बताया है / हाँ, इतना अवश्य है कि वह इन्हें पीड़ित कर सकता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 675 / (ख) भगवतीमूत्र (प्रमेयचन्द्रिकाटीका) भा. 11, पृ. 597 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org