________________ ‘पन्द्रहवीं शतक] [473 "तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंचाए नगरोए बहिया अंगमंदिरंसि चेतियंसि मल्लरामगस्स सरीरगं विष्पजहामि, मल्लरामगस्स सरीरगं विपन हित्ता मंडियस्स सरोरगं अणुप्पवि. सामि, मंडियस्त सरीरगं अगुप्पविसित्ता वीसं वासाइं तच्चं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तस्य णं जे से चउत्थे पउट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावर्णसि चेतियंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, मंडियस्स सरीरगं विप्पजहिता राहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, राहस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता एक्कूणवीसं वासाइं चउत्थं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से गं पालभियाए नगरीए बहिया पत्तकालगंसि चेतियंसि राहस्स सरीरगं विप्पजहामि, राहस्स सरीरगं विप्पजहित्ता भारद्दाइस्स सरोरगं अणुप्पविसामि, भारहाइस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता अट्ठारस वासाई पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तत्थ णं जे से छ? पउट्टपरिहारे से गं वेसालीए नगरीए बहिया कुडियायणियंसि चेतियंसि भारहाइ स्स सरीरगं विप्पजहामि, भारद्दाइस्स सरीरगं विप्पजहित्ता अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अज्जुणगस्स० सरोरगं अणुष्पविसित्ता सत्तरस वासाई छ8 पउट्टपरिहारं परिहरामि। "तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्टपरिहारे से णं इहैव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावर्णसि अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, अज्जुणयस्त० सरीरगं विष्वजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं सीयसहं उन्हसहं खुहासह विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्ट तं अणुप्पविसामि, तं अणुप्पविसित्ता सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपहिारं परिहरामि / "एवामेव आउसो ! कासवा! एएणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाता / तं सुकृ णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासि, साधु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासि गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मतेवासि' ति।" 68] जब प्रानन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान का प्रादेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक पाजीवकसंघ से परिवृत (युक्त) होकर हालाहला कुम्भकारी की दुकान से निकल कर अत्यन्त रोष धारण किये हुए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पाया। फिर श्रमण भगवान महावीर स्वामी से न अतिदूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर उन्हें इस प्रकार कहने लगा आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में अच्छा कहते हो ! हे आयुष्मन् ! तुम मेरे प्रति ठीक कहते हो कि मंलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, गोशालक मंखलिपुत्र मेरा धर्म-शिष्य है। (परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि) जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र परिणाम बाला) हो कर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चुका है। मैं तो कौण्डिन्यायन-गोत्रीय उदायी हूँ। मैंने गौतम पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org