________________ 470] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भगवान द्वारा श्रमणों को दी गई चेतावनी का आशय-वादी भद्रं न पश्यति', इस न्याय से तथा 'माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ' इस सिद्धान्त के अनुसार थमणों के प्रति मिथ्याभाव (अनार्ययन) धारण किये हुए गोशालक को किसी भी रूप में न छेड़ने की भगवान की चेतावनी थी। इसके पीछे एक प्राशय यह भी सम्भव है कि यद्यपि भगवान ने गोशालक के तप-तेज के सामर्थ्य की अपेक्षा अनगार एवं स्थविर के तप-तेज का सामर्थ्य अनन्त-गुण-विशिष्ट बताया है, बशर्ते कि वे क्षान्तिक्षम (क्षमासमर्थ अथवा कष्टसहिष्णुतासमर्थ) हों। हो सकता है छदास्थ होने के कारण ग्रनगारों या स्थविरों में गोशालक के साथ विवाद करते समय या उसके मत का खण्डन करते समय उसके प्रति क्षमाशीलता, अकषायवृत्ति या अद्वेषवृत्ति न रहे और ऐसी स्थिति में गोशालक का दाव अनगारों या स्थविरों के प्रति लग जाए / इसलिए भगवान् की समस्त साधुओं को गोशालक के प्रति तटस्थ या मध्यस्थ रहने को यह चेतावनी थी।' कठिनशब्दार्थ-पारितावणियं—परितापना या पारितापनिकी क्रिया : खंतिक्खमा क्षान्तिकोनिग्रह करने में क्षम-समर्थ / थेराणं-वय, श्रुत, और पर्याय (दीक्षापर्याय) से स्थविरों का। धम्मियाए पडिचोयणाए-धर्मसम्बन्धी (गोशालक के मत सम्बन्धी) प्रतिनोदना, उसके मत के प्रतिकूल कर्तव्य-प्रोत्साहना रूप से प्रेरणा / धम्मियाए पडिसरणाए—(गोशालक के) धर्म मत के प्रतिकल रूप से विस्मृत अर्थ (बात) की स्मारणा द्वारा / धम्मिएण पडोयारेण-धार्मिक (धर्म सम्बन्धी) प्रत्युपचार (तिरस्कार) से अथवा प्रत्युपकार (भ. महावीर द्वारा कृत उपकार का बदला) से / मिच्छं विप्पडिवन्ने-मिथ्यात्व-(म्लेच्छत्व या अनार्यत्व) / विशेष तप से स्वीकार (अंगीकार) कर लिया है / / गोशालक के साथ धर्मचर्चा न करने का प्रानन्दस्थविर द्वारा भगवदादेशनिरूपण 67. तए णं से प्राणंदे थेरे समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति, ते उवागच्छित्ता गोतमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, प्रा० 2 एवं वयासि–एवं खलु अज्जो ! छटुक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अन्मणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय०, तं चेव सव्वं जाव नायपुत्तस्स एयम परिकहे हि०, तं चेव जाव मा गं अज्जो ! तुभं केयि गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ जाव मिच्छं विप्पडिवन्ने / [67] तत्पश्चात् वह अानन्द स्थविर श्रमण भगवान महावीर से यह सन्देश सुन कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहाँ पाए / फिर गौतमादि श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुला कर उन्हें इस प्रकार कहा---'हे आर्यो ! आज मैं छठक्षमण के पारणे के लिए श्रमण भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त करके श्रावस्ती नगरी में उच्च-नोचमध्यम कुलों में इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत्-(गोशालक का कथन) ज्ञातपुत्र को (जाकर मेरी) यह बात कहना (यहाँ तक कथन करना चाहिए / ) यावत् (भगवत्कथन) हे आर्यो ! तुम में से कोई भी गोशालक के साथ उसके धर्म, मत सम्बन्धी प्रतिकूल (कर्तव्य-) प्रेरणा मत करना, यावत् 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 709-710 2. भगवती. अ. बुत्ति, पत्र 675 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org