________________ पन्द्रहवां शतक] करता हुया और संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित करता हा विचरता था। उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण (बेले के तप) के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी (प्रहर) में स्वाध्याय किया. यावत्-(शतक 2, उ. 5 मू. 22-24 में कथित) गौतमस्वामी (की चर्या) के समान भगवान् से (भिक्षाचर्या की) आज्ञा मांगी और उसी प्रकार ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करता हुअा हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान के पास से गुजरा / 63. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणम्स प्रदूरसामंतेणं बीतीवयमाणं पासति, पासित्ता एवं बयासी-एहि ताव आणंदा ! इओ एगं महं ओवमियं निसामेहि / [63] जब मंखलिपुत्र गोशालक ने ग्रानन्द स्थविर को हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के निकट से जाते हुए देखा, तो इस प्रकार बोला-'अरे अानन्द ! यहाँ आओ, एक महान् (विशिष्ट या मेरा) दृष्टान्त सुन लो / ' 64. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुमकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति / / [64] गोशालक के द्वारा इस प्रकार कहने पर ग्रानन्द स्थविर, हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान में (बैठे) गोशालक के पास आया / 65. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वदासी— "एवं खलु पाणंदा! इतो चिरातीयाए अद्धाए केयी उच्चावया वणिया प्रत्थऽत्थी अस्थलुद्धा अस्थगवेसी अत्थकंखिया अत्यपिवासा प्रस्थगवेसणयाए नाणाविहविउलपणियभंडमायाए सगडी-सागडेणं सुबह मत्त-पाणपत्थयणं गहाय एग महं अगामियं अणोहियं छिन्नावायं दोहमद्ध अडवि अणुप्पविट्ठा / "तए णं तेसि वणियाणं तीसे अगामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए दोहमद्धाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुवहिए उदए अणुपुटवेणं परिभुज्जमाणे परिभुज्जमाणे खोणे / "तए णं ते वणिया खीणोदगा समाणा तहाए परिभवमाणा अन्नमन्न सद्दावेंति, अन० स० 2 एवं क्यासि-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमोसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुग्वहिते उदए अणुपुत्रेणं परिभुज्जमाणे परिभुज्जमाणे खोणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमोसे अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सध्यतो समंता मग्गणगवेसणं करेत्तए' त्ति कट्ट, अन्नमन्नस्स अंतियं एयम पडिसुणेति, अन्न० पडि० 2 तीसे णं अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति / उदगस्स सच्चतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एग महं वणसंड आसार्देति किण्हं किण्होमासं जाव' निकुरुंबभूयं पासादीयं जाव पडिरूबं / तस्स णं वणसंडस्स बहुमम्मदेसभाए एस्थ णं महेगं बम्मीयं प्रासादेति / तस्स णं यम्मीयस्स चत्तारि वप्पूम्रो प्रभग्गयाम्रो 1. 'जाव' पद सूचक पाठ...... 'नीलं नीलोभास हरियं हरिप्रोभास' इत्यादि / - भगवती. अ. ब. पत्र 672 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org