________________ पन्द्रहवां शतक] [455 [53] तदनन्तर मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझ से यों पूछा.-.-'भगवन् ! इस जुत्रों के शय्यातर ने आपको इस प्रकार क्या कहा कि-"भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् !' मैं समझ गया ? इस पर हे गौतम ! मंलिपुत्र गोशालक से मैंने यों कहा-हे गोशालक ! ज्यों ही तुमने बंश्यायन बालतपस्वी को देखा, त्यो ही तुम मेरे पास से शनैः शनैः खिसक गए और जहाँ बैश्यायन बालतपस्वी था, वहाँ पहुँच गए। फिर उसके निकट जा कर तुमने वैश्यायन बालतपस्वी से इस प्रकार कहा-क्या आप तत्त्वज्ञ मुनि हैं अथवा ज़ों के शय्यातर हैं ? उस समय वैश्यायन बालतपस्वी ने तुम्हारे उस कथन का आदर नहीं किया (सुना-अनसुना कर दिया) और न ही उसे स्वीकार किया, बल्कि वह मौन रहा। जब तुमने दूसरी और तीसरी बार भी वैश्यायन बालतपस्वी को उसी प्रकार कहा; तब वह एकदम कुपित हुआ. यावत् वह पीछे हटा और तुम्हारा वध करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाली। हे गोशालक ! तब मैंने तुझ पर अनुकम्पा करने के लिए वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए अपने अन्तर से शीतल तेजोलेश्या निकाली; यावत् उससे उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हा जान कर तथा तेरे शरीर को किचित भी बाधापीड़ा या अवयवक्षति नहीं हई, देख कर उसने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली। फिर मुभ इस प्रकार कहा–'भगवन् ! मैं जान गया, भगवन् ! मैंने भलीभांति समझ लिया।' 54. तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमह्र सोच्चा निसम्म भीए जाव संजायभये ममं वंदति नमसति, ममं वं० 2 एवं क्यासी-कहं णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंलिपुत्तं एवं क्यामि–जे गं गोसाला! एमाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठंछठेणं अनिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उड्डबाहाओ पगिप्रिय पगिज्मिय जाब विहरइ से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविलतेयलेस्से भवति / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमझें सम्मं विणएणं पडिस्सुणेति / [54] तत्पश्चात् मंलिपुत्र गोशालक मेरे (मुख) से यह (उपर्युक्त) बात सुन कर और अवधारण करके डरा; यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला'भगवन् ! संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त (उपलब्ध) होती है ?' हे गौतम ! तब मैंने मंलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा 'गोशालक ! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक विकटाशय (चुल्लू भर) जल (अचित्त पानी) से निरन्तर छठ-छठ (बेलेबेले के) तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर यावत् अातापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है।' यह सुन कर मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन को विनयपूर्वक सम्यक् रूप से स्वीकार किया। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (53-54) में दो तथ्यों का प्रतिपादन किया है—(१) गोशालक को ज्ञात हो गया कि मुझ पर वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा किये गए उष्णतेजोलेश्या के प्रहार को भगवान् ने अपनी शीततेजोलेश्या द्वारा शान्त कर दिया, (2) संक्षिप्तविपुल तेजोलेश्या की प्राप्ति की विधि बतला कर गोशालक की जिज्ञासा का समाधान किया / -- . .- - - . 1. वियाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 709-6021 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org