________________ 416 // [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [22 उ.] हाँ गौतम ! यह सत्य है; इत्यादि औपपातिकसूत्र में कथित अम्बड सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत्-महद्धिक दृढप्रतिज्ञ होकर सर्व दुःखों का अन्त करेगा (यहाँ तक कहना चाहिए / ) विवेचन-श्री गौतमस्वामी ने जब यह सूना कि कम्पिलपूर में अम्बड परिव्राजक एक साथएक ही समय में सौ घरों में रहता हुआ, सौ घरों में भोजन करता है, तब उन्होंने भगवान् से इस विषय में पूछा कि क्या यह सत्य है ? भगवान ने कहा हाँ, गौतम ! अम्बड को वैक्रियलब्धि प्राप्त है / उसी के प्रभाव से वह जनता को विस्मित चकित करने के लिए एक साथ सौ घरों में रहता है और भोजन भी करता है / तत्पश्चात् गौतमस्वामी ने पूछा - भगवन् ! क्या अम्बड परिव्राजक अापके पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा ? भगवान् ने कहा--ऐसा सम्भव नहीं है / यह केवल जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता (सम्यक्त्वी) होकर अन्तिम समय में यावज्जीवन अनशन करेगा और काल करके ब्रह्मलोककल्प में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में दढप्रतिज्ञ नामक महद्धिक के रूप जन्म लेगा और चारित्र-पालन करके अन्त समय में अनशनपूर्वक मर कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा / यह प्रोपपातिकसूत्रोक्त वक्तव्यता का प्राशय है।' अव्याबाध देवों को अव्याबाधता का निरूपण 23. [1] अस्थि णं भंते ! अन्दाबाहा देवा, अन्वाबाहा देवा ? हंता अस्थि। [23-1 प्र.] भगवन् ! क्या किसी को बाधा-पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले अव्याबाध देव हैं ? [23-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे हैं / [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'अव्वाबाहा देवा, अन्याबाहा देवा' ? गोयमा ! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविट्टि दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसतिविहं नट्टविहि उवदंसेत्तए, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति, छविच्छेयं वा करेति, एसुहमं च णं उवदंसेज्जा / से तेण?णं जाव अव्वाबाहा देवा, अम्बाबाहा देवा। [23-2 प्र. भगवन् ! अव्याबाधदेव, अव्याबाधदेव किस कारण से कहे जाते हैं ? [23-2 उ. गौतम ! प्रत्येक अध्यावाधदेव, प्रत्येक पुरुष की, प्रत्येक अाँख को पपनी (पलक) पर दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (प्रभाव) और बत्तीस प्रकार को दिव्य नाट्यविधि दिखलाने में समर्थ है। ऐसा करके वह देव उस पुरुष को किचित् मात्र भी आबाधा या व्याबाधा (थोड़ी या अधिक पीड़ा) नहीं पहुँचाता और न उसके अवयव का छेदन करता है / इतनी सूक्ष्मता से वह (अव्याबाध) देव नाट्यविधि दिखला सकता है। इस कारण, हे गौतम ! किसी को जरा भी बाधा न पहुँचाने के कारण वे अव्याबाधदेव कहलाते हैं। विवेचन-प्रव्याबाधदेव कौन और किस जाति के ? -जो दूसरों को व्याबाधा-पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं, वे अव्याबाध कहलाते हैं। ये लोकान्तिक देवों को जाति के होते हैं। लोकान्तिक 1. (क) प्रौपपातिक सूत्र मू. 40, पत्र 96-19 (ग्रामोदय समिति) (ख) भगवतो, अ. वृनि, पत्र 653 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org