________________ 442] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-विण्णायपरिणयमेत्ते-विज्ञान-कार्मिकज्ञान से परिणत--परिपक्व मति वाला। पाडिएक्कं--प्रत्येक अर्थात्-पिता के फलक से पृथक् व्यक्तिगत फलक / चित्तफलगहत्थएचित्रांकित फलक (पट या पटिया) हाथ में लेकर / मंखत्तणेण--मखपन से, चित्र बता कर आजीविका करने वाले भिक्षकों की वत्ति से।' गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृत्तान्त : भगवान के श्रीमुख से 21. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापितीहिं देवत्ते गतेहिं एवं जहा भावणाए जाव एवं देवदूसमुपादाय मुडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पवइए / [21] उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रह कर, माता-पिता के दिवंगत हो जाने पर (आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के 15 व) भावना नामक अध्ययन के अनुसार (माता-पिता के जीवित रहते मैं श्रमण नहीं बनूंगा,—इस प्रकार का अभिग्रह पूर्ण होने पर, मैं हिरण्य-सुवर्ण, सैन्य-वाहनादि का त्याग कर इत्यादि) यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण कर के मुण्डित हुअा और गृहस्थवास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रबजित हुआ। 22. तए णं अहं गोतमा ! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे अद्रियगामं निस्साए पढमं अंतरवास वासावासं उवागते / दोच्च वास मासंमासेणं खममाणे पुब्वाणुयुटिव चरमाणे गामाणुगामंते दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, ते० उवा० 2 प्रहापडिरूवं ओग्गहं प्रोगिण्हामि, अहा० ओ० 2 तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागते / तए णं अहं गोतमा ! पढम मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताण विहरामि / [22] तत्पश्चात हे गौतम ! मैं (दीक्षा ग्रहण करने के) प्रथम वर्ष में अर्द्ध मास-अर्द्धमास क्षमण (पाक्षिक तप) करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षाऋतु के अवसर (अन्तर) पर वर्षावास के लिए आया। दूसरे वर्ष में मैं मास-मास-क्षमण (एक मासिक तप) करता हुआ, क्रमशः विचरण करता और ग्रामानुग्राम विहार करता हुया राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर, जहाँ तन्तुवायशाला (जुलाहों की बुनकरशाला) थी, वहाँ आया। फिर उस तन्तुबायशाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके मैं वर्षावास के लिए रहा / तत्पश्चात्. हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण (तप) स्वीकार करके कालयापन करने लगा। 1. (क) 'विज्ञानं कार्मणे ज्ञाने'-हैमनाममाला (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 661 (ग) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2374 2. "एवं जहा भावणाए ति आचारद्वितीयश्र तस्कन्धत्य पञ्चदशेऽध्ययने / अनेन चेदं सूचितम-समत्तपइण्णे नाहं समणो होहं अम्मापियरम्मि जीवंते' त्ति समाप्ताभिग्रह इत्यर्थः / चिच्चा हिरण्णं चिच्चा सुवण्णं चिच्चा बलं इत्यादीति" अव / / 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org