________________ पन्द्रहवां शतक] [445 पंच दिवाई पादुब्भूयाई, तं जहा—वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे घुट्ठ। तं धन्ने कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं लोया, सुलद्ध माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, विजयस्स गाहायतिस्स। [27] उस समय राजगह नगर में शृगाटक, त्रिक, चतुष्क मार्गों यावत् राजमार्गों में बहुतसे मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतपुण्य (पुण्यशाली) है, देवानुप्रियो / विजय गाथापति कृतलक्षण (उत्तम लक्षणों वाला) है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति के उभयलोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य जन्म और जीवन रूप फल सुलब्ध (प्रशंसनीय) है कि जिसके घर में तथारूप सौम्य रूप साधु (उत्तम श्रमण) को प्रतिलाभित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं / यथा-वसुधारा की वृष्टि यावत् 'अहोदान, अहोदान' की घोषणा हुई है / अंतः विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है / उसके दोनों लोक सार्थक हैं। विजय गाथापति का मानवजन्म एवं जीवन सफल हैं—प्रशंसनीय है। 28. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणरस अंतियं एयम? सोच्चा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावतिस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० उवा० 2 पासति विजयस्स गाहावतिस्स गिहंसि वसुधारं त्रुटुं, दसवण्णं कुसुमं निवडियं / ममं च णं विजयस्स गाहावतिस्स गिहाओ पडिनिवखममाणं पासति, पासित्ता हतद्र० जेणेव ममं अंतियं तेणेव उवागच्छति, उवा०२ ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति, कल 2 ममं वंदति नमसति, वं० 2 ममं एवं वयासीतुम्भे गं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहं णं तुभं धम्मंतेवासी। |28] उस अवसर पर मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत-से लोगों से यह बात (घटना) सुनी और समझी। इससे उसके मन में पहले संशय और फिर कुतूहल उत्पन्न हुआ। वह विजय गाथापति के घर आया। फिर उसने दिजय गाथा पति के घर में बरसी हुई वसुधारा तथा पांच वर्ण के निष्पन्न कुसुम भी देखे / उसने मुझे (श्रमण भ. महावीर को) भी विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए देखा। यह देख कर वह (गोशालक) हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। फिर मेरे पास प्राकर उसने तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। तदनन्तर वह मुझसे इस प्रकार बोला-'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्म-शिष्य हूँ।' 29. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम नो आदामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि / [26] हे गौतम ! इस पर मैंने मखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया, उसे स्वीकार नहीं किया / मैं मौन रहा / विवेचन - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 24 से 29 तक) में शास्त्रकार ने विजय गाथापति के यहाँ हए भगवान महावीर के प्रथम मासक्षमण के पारणे का, उसके प्रभाव से प्रकट हए पांच दिर तथा विजय गाथापति की उस निमित्त से हुई सार्वजनिक प्रशंसा से प्रभावित गोशालक द्वारा भगवान् का समर्थन न होते हुए भी उनके शिष्य बनने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है।' 1, वियाहपण्णत्तिसुतं, भा. 2 (मू. पा. टि.), पृ. 694.695 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org