________________ 452] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-- अप्पट्टिकायंसि---- अल्प शब्द यहाँ अभावार्थक होने से वृष्टि का अभाव होने से, यह अर्थ उपयुक्त है। संपढिए विहाराए-बिहार के लिए प्रस्थान किया / तिलथंभए-तिल का स्तबक, पौधा ! पढमसरदकालसमयंसि-प्रथम शरत्काल के समय में / संद्धान्तिक परिभाषानुसार शरत्काल के दो मास माने जाते हैं—मार्गशीर्ष और पौष / इन दोनों में से प्रथम शरत्काल मार्गशीर्ष मास कहलाता है। हरियग-रेरिज्जमाणे-हरा या हरा-भरा होने से अत्यन्त सुशोभित / निष्फज्जिस्सतिनिपजेगा, उगेगा। तिलसंगलियाए-तिल की फली में। पविरल-पप्फुसियथोड़े या हलके स्पर्श वाले, अथवा थोड़े-से फुहारे। अभ-बद्दलए-आकाश के बादल / ममं पणिहाए—मेरे आश्रय-निमित्त से। पच्चोसक्कइ-पीछे हटा, या खिसका। सणियं सणियं-धीरे-धीरे / रयरेणुविणासणं-रज (वायु के द्वारा आकाश में उड़ कर छाई हुई धूल के कण) तथा रेणु (भूमिस्थित धूल के कण), दोनों का विनाशक-- शान्त करने वाला। पतणतणाति-प्रकर्ष रूप से --जोर से तनतनाया-गर्जा / आसत्थे-स्थित हुए। मौन का अभिग्रह, फिर प्रश्न का उत्तर क्यों ?- यद्यपि भगवान् ने मौन रहने का अभिग्रह किया था किन्तु एकाध प्रश्न का उत्तर देना उनके नियम के विरुद्ध न था / या चनी आदि भाषा बोलना खुला था। इसलिए गोशालक के प्रश्न का उत्तर दिया / वैश्यायन के साथ गोशालक की छेड़खानी, उसके द्वारा तेजोलेश्याप्रहार, गोशालकरक्षार्थ भगवान द्वारा शीतलेश्या द्वारा प्रतीकार 48. तए णं अहं गोयमा! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धि जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि / [48] तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया / 49. तए णं तस्स कुम्मगामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छटुंछट्टणं प्रणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उड्ड बाहाओ पगिझिया पगिझिया सूराभिमुहे पायावणभूमीए आयावेमाणे विहरति, प्रादिच्चतेयतवियानो य से छप्पदाप्रो सम्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पाण भूय-जीवसत्तदयट्ठयाए च णं पडियाओ पडियानो तत्थेव तत्येव भुज्जो भुज्जो पच्चोरुभेति / [46] उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपःकर्म करने के साथ-साथ दोनों भजाएं ऊँची रख कर सूर्य के सम्मुख खडा होकर अातापनभूमि में प्रातापना ले रहा था / सूर्य की गर्मी से तपी हुई जएँ (षट्पदिकाएँ) चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थी और वह तपस्वी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़तो (गिरती) हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं (मस्तक पर) रखता जाता था। 50. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतर्वास्स पासति, पा० 2 ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसक्कति, ममं० पा० 2 जेणेव वेसियायणे बालतबस्सी तेणेव उवागच्छति, उवा०२ 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 662 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2388 से 2390 तक -...-.- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org