________________ पन्द्रहवां शतक] [451 विहार के लिए प्रस्थान कर चुका था। उस समय सिद्धार्थ ग्राम और कूर्मग्राम के बीच में तिल का एक बड़ा पौधा था / जो पत्र-पुष्प युक्त था, हरीतिमा (हराभरा होने) की श्री (शोभा) से अतीव शोभायमान हो रहा था / गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा। फिर मेरे पास पाकर वन्दननमस्कार करके पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न (उत्पन्न) होगा या नहीं ? इन सात तिलपुष्पों के जीव मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? इस पर हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-गोशालक ! यह तिलस्तवक (तिल का पौधा) निष्पन्न होगा। नहीं निष्पन्न होगा, ऐसी बात नहीं है और ये सात तिल के फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में (पुनः) उत्पन्न होंगे। 47. तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयमटुं तो सद्दहति, नो पत्तियति, नो रोएइ; एतम असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु' त्ति कट्ट, ममं अंतियानो सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, स. 50 2 जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छति, उ० 2 तं तिलथंभगं सलेटु यायं चेव उप्पाडेइ, उ० 2 एगते एडेति, तक्खणमेत्तं च णं गोयमा! दिव्वे अब्भवद्दलए पाउन्भूए / तए णं से दिव्वे अभवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, खिप्पा० 2 खियामेव पविज्जुयाति, खि० 50 2 खिप्पामेव नच्चोदगं नातिमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति जेणं से तिलथंभए पासत्थे पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिट्टिए / ते य सत्त तिलयुप्फजीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता तस्सेव तिलथ भास्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता। [47] इस पर मेरे द्वारा कही गई इस बात पर मंलिपुत्र गोशालक ने न श्रद्धा की, न प्रतीति को और न ही रुचि की। इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ, 'मेरे निमित्त से यह मिथ्यावादी (सिद्ध) होजाएँ', ऐसा सोच कर गोशालक मेरे पास से धीरे-धीरे पीछे खिसका और उस तिल के पौधे के पास जाकर उस तिल के पौधे को मिट्टी सहित समूल उखाड़ कर एक ओर फेंक दिया / पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल प्राकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए। वे बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गर्जने लगे। तत्काल बिजली चमकने लगी और अधिक पानी और अधिक मिट्टी का कीचड़ न हो, इस प्रकार से कहीं-कहीं पानी की बूंदाबांदी होकर रज और धूल को शान्त करने वाली दिव्य जलवृष्टि हुई; जिससे तिल का पौधा वहीं जम गया / वह पुन: उगा और बद्धमूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मर कर पुनः उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए। विवेचन-भगवान को मिथ्यावादी सिद्ध करने की गोशालक को कुचेष्टा-प्रस्तुत दो सूत्रों (46-47) में भगवान ने बताया है कि गोशालक ने एक तिल के पौधे को लेकर उसकी निष्पत्ति के विषय में पूछा / मैंने यथातथ्य उत्तर दिया किन्तु मुझे झूठा सिद्ध करने हेतु उसने पौधा उखाड़ कर दूर फेंक दिया / किन्तु संयोगवश वृष्टि हुई, उससे वह तिल का पौधा पुनः जम गया, अादि वर्णन यहाँ किया गया है / यह कथन गोशालक की अयोग्यता सिद्ध करता है / ' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भा. 2, पृ. 699-700 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org