________________ पन्द्रहवाँ शतक] [443 23. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलमहत्थगए मखत्तणेण अप्पाणं भावेमाणे पुवाणुपुब्धि चरमाणे जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उवा० 2 तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेइ, भंड० क० 2 रायगिहे नगरे उच्च-नीय जाव अन्नत्थ कथयि वसहि अलभमाणे तोसे व तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागते जत्थेव णं अहं गोयमा ! / [23] उस समय वह पंखलिपुत्र गोशालक चित्रफलक हाथ में लिये हए मंखपन से (चित्रपट-अंकित चित्र दिखा कर) आजीविका करता हा क्रमश : विचरण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगह नगर में नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में, जहाँ तन्तुवायशाला थी, वहां पाया। फिर उस तन्तुवायशाला के एक भाग में उसने अपना भाण्डोपकरण (सामान) रखा / तत्पश्चात् राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाटन करते हुए उसने वर्षावास के लिए दूसरा स्थान ढुढने का बहुन प्रयत्न किया, किन्तु उसे अन्यत्र कहीं भी निवासस्थान नहीं मिला, तब उसो तन्तुवायशाला के एक भाग में, हे गौतम ! जहाँ मैं रहा हुआ था, वहीं, वह भी वर्षावास के लिए रहने लगा। विवेचन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सु. 21-22-23) में भगवान महावीर ने अपने श्रीमुख से गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। कठिनशब्दार्थ-देवत्तगतेहि.----देवलोक हो जाने पर। अणगारियं पब्वइए–अनगारधर्म में प्रवजित हुप्रा / प्रद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे--अर्द्धमास (पक्ष), अर्द्ध मास का तप करते हुए / पढमं अंतरवास----प्रथम वर्ष के अन्तर-अवसर पर। वासावासं वर्षावास ( चातुर्मास ) के लिए। हिस्साए-निश्रा से-पाश्रय ले कर / उवागए-पाया / तंतुवायसाला–बुनकर शाला / ' - प्रथम समागम-वृत्तान्त -(1) माता-पिता के दिवंगत हो जाने के बाद अनगार धर्म में प्रजित होने का वृत्तान्त / (2) दोक्षा लेने के बाद अर्द्ध मासक्षमण तप करते हुए प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम में बिताया। द्वितीय वर्षावास मास-मास क्षमण तप करते हुए राजगृह में नालन्दा पाड़ा के बाहर स्थित तन्तुवायशाला में बिता रहे थे। (3) उस समय मंखलीपुत्र गोशालक अपनी मंखवृत्ति से प्राजोविका करता हुआ घूमता-घामता राजगृह में, अन्यत्र कोई अच्छा स्थान न मिलने से उसी तन्तुबायशाला में आकर रह गया / यही भगवान् के साथ गोशालक का प्रथम समागम हुआ। विजय गाथापतिगृह में भगवत्पारणा, पंचदिव्यप्रादुर्भाव, गोशालक द्वारा प्रभावित होकर भगवान के शिष्य बनाने का वृत्तान्त 24. तए णं अहं गोयमा ! पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तंतु० प 2 णालंदं बाहिरियं मझमझेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, ते० उवा० 2 रायगिहे नगरे उच्च-नोय जाव अडमाणे विजयस्स गाहावतिस्स गिह अणुष्पविट्ठ। 1, (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 663 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2377 2. बिहायपण्णतिसुत्तं भा. 2, (मू. पा. 19) पृ. 693-694 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org