________________ 446] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ---अडमाणे-भिक्षाटन करते हए / एज्जमाणं--पाते हए। अम्मुटठेति-उठा / पच्चोरुभति-उतरा। पाउयाओ ओमुयइ-पादुकाएँ निकाली। अंजलिमउलियहत्थे--दोनों हाथ जोड़ कर / दम्वसुद्धणं-द्रव्य---प्रोदनादि के शुद्ध-उद्गमादिदोषरहित होने से / दायगसुद्धणं-दाता के शुद्ध प्राशंसा प्रादि दोषों से रहित होने से / पडिगाहगसुद्धणं--प्रतिग्राहक-आदाता (पात्र) के शुद्ध-किसी प्रकार के प्रतिफल या स्पृहा से रहित होने से / तिविहेणं तिकरणसुद्धणं-त्रिविधमन-वचन-काया को लथा तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदित की शुद्धि से / दसवण्णे कुसुमे-दस के आधे-पांच वर्ण के फल / चेलुक्खेवे कए--ध्वजारूप वस्त्रों को वृष्टि की / घुठे-उदघोष किया / कयलक्खणे उत्तमलक्षणों वाला। णो प्राढामि-यादर नहीं दिया / णो परिजाणामि--स्वीकार नहीं किया / तुसिणोए संचिट्ठामि-मौन रहा / ' द्वितीय से चतुर्थ मासखमण के पारणे तक का वृत्तान्त, भगवान् के अतिशय से पुनः प्रभावित गोशालक द्वारा शिष्यताग्रहरण 30. तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ नगराम्रो पडिनिक्खमामि, प० 2 णालंद बाहिरियं मझमझेणं जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, उवा० 2 दोच्चं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / [30] इसके पश्चात्, हे गौतम ! मैं राजगह नगर से निकला और नालन्दा पाड़ा से बाहर मध्य में होता हुअा उस तन्तुवायशाला में पाया। वहाँ मैं द्वितीय मासक्षमण स्वीकार करके रहने लगा। 31. तए णं अहं गोयमा! दोच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तं० प० 2 नालंदं बाहिरियं मज्झमझेग जेणेव रायगिहे नगरे जाव अडमाणे आणंदस्स पाहावतिस्स मिहं अणुप्पविटु / [31] फिर, हे गौतम ! मैं दूसरे माससमण के पारणे के समय तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होता हुआ राजगह नगर में यावत् भिक्षाटन करता हया आनन्द गाथापति के घर में प्रविष्ट हुआ / 32. तए णं से आणंदे गाहावती ममं एज्जमाणं पासति, एवं जहेव विजयस्स, नवरं ममं विउलाए खजगविहीए 'पडिलाभेस्सामो' ति तु? / सेसं तं चेव जाव तच्चं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / [32] उस समय प्रानन्द गाथापति ने मुझे प्राते हुए देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि-'मैं विपुल खण्ड-खाद्यादि (खाजा ग्रादि) भोजन-सामग्रो से (भगवान् महावोर को) प्रतिलाभूगा'; यों विचार कर (वह आनन्द गाथापति) सन्तुष्ट (प्रसन्न) हुआ। शेष समग्र वृत्तान्त (यहाँ से लेकर) यावत्-'मैं तृतीय मासक्षमण स्वीकार करके रहा'; (यहाँ तक) पूर्ववत् (कहना चाहिए / ) 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 663-664 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2379-2380 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org