________________ 438] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनतिक्रमणीय-जिन्हें टाला नहीं जा सकता, ऐसे अनिवार्य / बागरणाई वागरेति-पुरुषार्थोपयोगी 6 बातों के विषय में पूछने पर यथार्थरूप में उत्तर देता था।' बतलाता था / ' सम्वण्ण-सर्वज्ञ / ' गोशालक को वास्तविकता जानने की गौतमस्वामी को जिज्ञासा, भगवान द्वारा समाधान 10. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावो जाव पकासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं ? [10] इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृगाटक (सिंघाड़े के आकार वाले त्रिक-तिराहे) पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक-दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! (हमने) निश्चित ही (ऐसा सुना है) कि गोशालक मखलिपुत्र जिन' हो कर अपने आप को 'जिन' कहता हुअा, यावत् 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट (प्रकाश) करता हुमा विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना जाए? 11. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामो समोसढे / जाव परिसा पडिगता / [11] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे, यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर वापिस चली गई। 12. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमे गोतेणं जाव छटु छ?णं एवं जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स० 2 उ० 5 सु० 21-24) जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ.-"बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइकति ४–एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावो जाव पकासेमाणे विहरइ / से कहमेयं मन्ने एवं ?" / [12] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्ते वामो (शिष्य) मौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् छठ-छठ (बेले-वेले) धारणा करते थे; इत्यादि वर्णन दूसरे यानक के पांचवें निर्ग्रन्थ-उद्देशक (सू. 21 से 24) के अनुसार समझना / यावत् गोवरी के लिए भ्रमण (भिक्षाटन) करते हुए गौतमस्वामी ने बहुत-से लोगों के शब्द सुने, (वे) बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे कि देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन हो कर अपने आपको जिन कहता हग्रा, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुअा विचरता है। उसको यह वात कैसे मानी जाए? ___ 13. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयभट्ट सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जाव भत्त-पाणं पडियंसेति जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी--एवं खल अहं भंते ! 0, तं चेव जाब जिणसदं पगासेमाणे. विहरइ, से कहमेतं भंते ! एवं ? तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उढाणपारियाणियं परिकहियं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 659 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2370 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org