________________ पन्द्रहवां शतक] [439 [13] तदनन्तर भगवान् गौतम को बहुत-से लोगों से यह बात सुन कर एवं मन में अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछनें की श्रद्धा (मन में) उत्पन्न हुई, यावत् (भगवान् के निकट पहुंच कर उन्होंने) भगवान को आहार-पानी दिखाया। फिर पावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले'भगवन् ! मैं ट्ट (बेले के तप) के पारणे में भिक्षाटन""इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए, यावत् गोशालक 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका यह कथन कैसा है ? अतः भगवन् ! मैं मखलिपुत्र गोशालक का जन्म से लेकर अन्त तक का वृत्तान्त (अापके श्रीमुख से ) सुनना चाहता हूँ / विवेचन--मखलिपुत्र गोशालक के चरित की जिज्ञासा--प्रस्तुत 4 सूत्रों (सू. 10 से 13 तक) में मंखलिपुत्र गोशालक के विषय में बहुत-से लोगों से सुनकर श्री मौतमस्वामी के मन में भगवान से इसका समाधान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रादुर्भूत हुई, जिसकी संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत है। जिज्ञासा के कारण ये हैं--(१) श्रावस्ती नगरी में तिराहे-चौराहे प्रादि पर बहत-से लोगों का परस्पर गोशालक के जिन आदि होने के सम्बन्ध में वार्तालाप / (2) राजगृह में विराजमान भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम ने छठ नप के पारण के लिए नगर में भिक्षाटन करते हुए बहुत-से लोगों से गोशालक के विषय में वही चर्चा सुनी। (3) भगवान् की सेवा में पहुँचकर भगवान के समक्ष अपनी गोशालक चरितविषयक जिज्ञासा प्रस्तुत की और भगवान् से समाधान मांगा।' कठिन शब्दों के अर्थ-जिणालावी-जिन न होते हुए भी जिन कहने वाला / पडिदंसेतिदिखलाता है / उट्ठाणपारियाणियं-उत्थान- जन्म से लेकर पर्यवसान-अन्त तक का चरित / गोशालक के माता-पिता का परिचय तथा भद्रा माता के गर्भ में प्रागमन 14. 'गोतमा !' दो समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-जं गं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइवखति 4 ‘एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति' तं गंमिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि---एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंलिपुत्तस्स मखली णाम मखे पिता होत्था / तस्स णं मखलिस्स मंखस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, सुकुमाल जाव पडिरूवा / तए णं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदायि गुच्चिणी यावि होत्था / [14] --- (भगवन् ने कहा) हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा--गौतम ! बहत-से लोग, जो परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' हो कर तथा अपने आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुअा विचरता है, यह बात मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि मंलिपुत्र गोशालक का, मंख जाति .-. ...---- 1. वियाहपणत्तिसतं (मूलपाठ-टिपणयुक्त) भा. 2, पृ. 691 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 661 'उद्राण-पारियाणियं' ति परियान--विविधव्य तिकरपरिगमनं, तदेव पारिया निक- चरितम् / उत्थानातजन्मन प्रारभ्य पारियानिकम उत्थानपारियानिक तत परिकथितं भगवद्भिरिति गम्यते / --प. बत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org