________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [425 [14 प्र.] भगवन् ! 'सूर्य' क्या है और 'सूर्य को प्रभा' क्या है ? [14 उ. | गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 15. एवं छाया। [15] इसी प्रकार छाया (प्रतिबिम्ब) के विषय में जानना चाहिए / 16. एवं लेस्सा। [१६इसी प्रकार लेश्या (सूर्य का तेजःपुंज या प्रभा) के विषय में जानना चाहिए / विवेचन.. सूर्य शब्द का अन्वर्थ, प्रसिद्धार्थ एवं फलितार्थ-सूर्य क्या पदार्थ है और सूर्य शब्द का क्या अर्थ है ? इस प्रकार श्री गौतमस्वामी के पूछे जाने पर भगवान् ने सूर्य का अन्वर्थ 'शुभ' वस्तु बताया, अर्थात् सूर्य एक शुभस्वरूप वाला पदार्थ है, क्योंकि सूर्य के विमान पृथ्वी कायिक होते हैं, इन पृथ्वी कायिक जीवों के प्रातप-नामकर्म की पुण्यप्रकृति का उदय होता है। लोक में भी सूर्य प्रशस्त (उत्तम) रूप से प्रसिद्ध है तथा यह ज्योतिष्चक्र का केन्द्र है। सर्य का शब्दार्थ फलितार्थ के रूप में इस प्रकार है ___ 'सूरेभ्यो हितः सूर्यः' -- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो क्षमा, दान, तप और युद्ध आदि विषयक शूरवीरों के लिए हितकर (शुभ प्रेरणादायक) होता है, वह सूर्य है / अथवा 'तत्र साधुः' इस सूत्रानुसार 'शूरों में जो साधु हो' वह सूर्य है। इसलिए सूर्य का सभी प्रकार से 'शुभ' अर्थ घटित होता है। सूर्य की प्रभा, कान्ति और तेजोले श्या भी शुभ है, प्रशस्त है।' __कठिन शब्दार्थ अचिरुग्मयं तत्काल उदित / जासुमणाकुसुम-पुंजप्पगासं-जासूमन नामक वृक्ष के पुष्पपुञ्ज के समान / किमिदं क्या है ? पभा-प्रभा, दीप्ति / छाया--शोभा या प्रतिबिम्ब / लेश्या वर्ण अथवा प्रकाश का समह / 2 श्रामण्यपर्यायसुख की देवसुख के साथ तुलना 17. जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एते णं कस्स तेयलेस्सं वीतीवयंति ? गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं बीतीवयति / दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासोणं देवाणं तेयलेस्सं वीयोवति / एवं एतेणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे० असुरकुमाराणं देवाणं (? असुरिंदाणं) तेय० / चतुमासपरियाए स० गहनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेय० / पंचमासपरियाए स० चंदिम-सूरियाणं जोतिसिदाणं जोतिसराईणं तेय० / छम्मासपरियाए स० सोधम्मोसाणाणं देवाणं० / सत्तमासपरियाए० सणंकुमारमाहिदाणं देवाणं० / अट्टमासपरियाए बंभलोग-लंतगाणं देवाणं तेयले० / नवमासपरियाए समणे० महासुक्क-सहस्साराणं देवाणं तेय० / दसमासपरियाए सम० आणय-पाणय-आरण-अच्चयाणं देवाणं० / 1. (क) भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 408 (स) भगवती. अ. बनि, पत्र 656 2. वही पत्र 656 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org