________________ 426] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एक्कारसमासपरियाए० गेवेज्जगाणं देवाणं० / बारसमासपरियाए समणे निर्गथे अणुत्तरोववातियाणं देवाणं तेयलेस्सं बीतीवयति / तेण परं सुक्के सुक्कामिजातिए भवित्ता ततो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करोति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / // चोद्दसमे सए : नवमो उद्देसनो समत्तो // 14.9 / / [17 प्र. भगवन् ! जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ प्रार्यत्वयुक्त (पापरहित) होकर विचरण करते हैं, वे किस की तेजोलेश्या (तेज-सुख) का अतिक्रमण करते हैं ? (अर्थात्-इन श्रमण निर्ग्रन्थों का सुख, किनके सुख से बढ़कर-विशिष्ट या अधिक है ? ) [17 उ.] गौतम ! एक मास की दीक्षापर्याय वाला श्रगण-निर्ग्रन्थ वाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या (सुखासिका) का अतिक्रमण करता है; (अर्थात-वह वाणव्यन्तर देवों से भी अधिक सुखी है) / दो मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ असुरेन्द्र (चमरेन्द्र और बलीन्द्र) के सिवाय (समस्त) भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का प्रतिक्रमण करता है। इसी प्रकार इसी पाठ (अभिलाप) द्वारा तीन मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, (असुरेन्द्र-सहित) असुरकुमार देवों को तेजोलेश्या का प्रतिक्रमण करता है। चार मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ग्रहगण-नक्षत्रतारारूप ज्योतिष्क देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। पांच मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ज्योतिकेन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है / छह माम की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सौधर्म और ईशानकल्पवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। सात मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों की तेजोलेश्या का; ग्राठ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की तेजोलेश्या का: नौ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महाशुक्र और सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का; दस मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रन्थ ग्रानत, प्राणत, प्रारण और अच्युत देवों की तेजोलेश्या का; ग्यारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, ग्रेवेयक देवों की तेजोलेश्या का और बारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ अनुत्तरौपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है। इसके बाद शुक्ल ( शुद्धचारित्री ) एवं परम शुक्ल (निरतिचार-विशुद्धतरचारित्री) हो कर फिर वह सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है / ___ भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एक मास के दीक्षित साधु से लेकर बारह मास के दीक्षित श्रमणनिर्ग्रन्थ के सुख को अमुक-अमुक देवों के सुख से बढ़कर बताया गया है। तेजोलेश्या शब्द का अर्थ, भावार्थ, सुखासिका क्यों ?---यद्यपि तेजोले श्या का शब्दशः अर्थ होता है—तेज को प्रभा-द्युति प्रादि / परन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित नहीं है। यहाँ तेज:शब्द सुख के अर्थ में व्यवहृत है। इसी कारण तेजोलेश्या का वृत्तिकार ने 'सुखासिका' अर्थ किया है / सुखासिका अर्थात्-सुखपूर्वक रहने की वृत्ति (परिणाम-धारा) / सुखासिका का अर्थ यहाँ सुख इसलिए विवक्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org