________________ 358 (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा बाहं आउंटेज्जा, विक्खिणं वा मुद्रि साहरेज्जा, साहरियं वा मुट्टि विविखरेज्जा, उम्मिसियं वा अच्छि निमिसेज्जा, निमिसितं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवेयारूवे ? णो तिण? सम। नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जति, नेरयाणं गोयमा ! तहा सोहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नत्ते। प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों को शीघ्र गति कैसी है ? और उनकी शीघ्रगति का विषय किस प्रकार का कहा गया है ? 6 उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण, बलवान् एवं युगवान् (सुषम-दुःषमादिकाल में उत्पन्न हुआ विशिष्ट बलशाली) यावत् निपुण एवं शिल्पशास्त्र का ज्ञाता हो, वह अपनी संकुचित बांह को शीव्रता से फैलाए और फैलाई हुई बांह को संकुचित करे; खुली हुई मुट्ठी बंद करे और बंद मुट्ठी खोले; खुली हुई आँख बन्द करे और बंद आँख खोले तो (हे गौतम !) क्या नैरयिक जीवो को इस प्रकार की शीघ्र गति तथा शीघ्र गति का विषय होता है ? (गौतम-) (भगवन् ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है / (भगवान-) (गौतम ! ) नैरयिक जीव एक समय की, दो समय की, अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! नयिकों की ऐसी शीव्र गति है और इस प्रकार का शीघ्र गति का विषय कहा गया है। 7. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियन्वे / सेसं तं चेव / [7] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (अर्थात्-चौवीस ही दण्डकों में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिए / शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन शीघ्रगति से तात्पर्य- एक भव से दूसरे भव में जाने को यहाँ ‘गति' कहा है। नैरयिक जीव, नरक गति में एक समय, दो समय या तीन समय की गति से उत्पन्न होते हैं / उसमें एक समय की गति 'ऋजुगति' होती है और दो या तीन समय की गति विग्रहगति होती है / इस गति को यहाँ 'शीगति' कहा गया है। हाथ को पसारने और सिकोड़ने यादि में असंख्यात समय लगते हैं, इसलिए उसे शीघ्रगति नहीं कहा है। जब जीव, समश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति-स्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तब एक समय की ऋजुगति होती है और जब विषमथेणी में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय को विग्रहणति होती है और एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति होती है।' जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह पहले समय में नीचे पाता है, दूसरे समय में तिरछे उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है / इस प्रकार उसकी दो समय की विग्रहगति होती है। जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में वायव्यकोण (विदिशा) में उत्पन्न होता है, तब एक समय में समश्रेणी द्वारा नीचे जाता है। दूसरे समय में पश्चिम दिशा में जाता है 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2279 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org