________________ 390] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नैरयिकों को दस अनिष्टस्थानों का अनुभव --नैरयिकों को अनिष्ट शब्द आदि 5 इन्द्रिय-विषयों का अनुभव प्रतिक्षण होता रहता है / उनको अप्रशस्त बिहायोगति या नरकगति रूप अनिष्ट गति होतो है / नरक में रहने रूप अथवा नरकायु रूप अनिष्ट स्थिति होती है। शरीर का बेडौल होना अनिष्ट लावण्य होता है / अपयश और अपकोनि के रूप में नारकों को अनिष्ट यशःकोति का अनुभव होता है / वोर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुप्रा नै रयिक जोवों का उत्यानादि वोर्य विशेष अनिष्ट-निन्दित होता है।' देवों का दस इष्ट स्थानों का अनुभव -चारों जाति के देवों का इष्ट शब्द प्रादि दसों स्थानों का अनुभव होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों को दस इष्टानिष्ट स्थानों का अनुभव -पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों को इष्ट एवं अनिष्ट दोनों प्रकार के दसों स्थानों का अनुभव होता है। एकेन्द्रिय जीवों को छह इष्टानिष्टस्थानों का अनुभव--एकेन्द्रिय जीवों को शब्द, रूप, रस और गन्ध का अनुभव नहीं होता क्योंकि उन्हें श्रोत्रादि द्रव्य इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं हैं। वे उपर्युक्त 10 स्थानों में से शेष 6 स्थानों का हो अनुभव करते हैं / वे शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के क्षेत्र में उत्पन्न हो सकते हैं और उनके साता और असाता दोनों का उदय सम्भव है। इसलिए उनमें इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पर्शादि होते हैं / यद्यपि एकेन्द्रिय जोव स्थावर हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविक रूप से गमन-गति सम्भव नहीं है; तथापि उनमें परप्रेरित गति होती है। वह शुभाशुभ रूप होने से इष्टानिष्ट गति कहलाती है। मणि में इष्ट लावण्य होता है और पत्थर में अनिष्ट लावण्य होता है / इस प्रकार एकेन्द्रिय जोवा में इष्टानिष्ट लावण्य होता है। स्थावर होने से एकेन्द्रिय जोवों में उत्थानादि प्रकट रूप में दिखाई नहीं देते, किन्तु सूक्ष्म रूप से उनमें उत्थानादि हैं / पूर्वभव में अनुभव किये हुए उत्थानादि के संस्कार के कारण भो उनमें उत्यानादि होते हैं और वे इष्टानिष्ट होते हैं / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों को क्रमश: जिह्वा, नासिका और नेत्र इन्द्रिय मिल जाने से उन्हें क्रमशः इष्टानिष्ट रस, गन्ध और रूप का अनुभव होता है / महद्धिक देव का तिर्यकपर्वतादि उल्लंघन-प्रलंबन-सामर्थ-असामर्थ्य 21. देवे गं भंते ! महिड्डोए जाव महेसखे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पमू तिरियपचतं वा तिरियभित्ति वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंधेत्तए वा? गोयमा ! णो इण? सम? / [21 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत को या तिरछो भोंत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार-बार उल्लंघन (प्रलंघन) करने में समर्थ है ? .. [21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 643 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) पृ. 670-671 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 643 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org