________________ 394] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जोयगतयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई जाव' अद्धगुलं च किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते जाव' मणीणं फासो। तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झदेसभागे, तत्थ णं महंएगे पासायव.सगं विउविति, पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अभुग्गयमूसिय० वष्णनो जाव' पडिरूवं / तस्स णं पासायवडेंसगस्स उल्लोए पउमलयात्तिचित्ते जाव पडिरूवे / तस्स णं पासायव.सगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव मणोणं फासो / मणिपेढिया अट्ठजोय णिया जहा वेमाणियाणं / तोसे णं मणिढियाए उरि मई एगे देवसणिज्जे विउम्बति / सयणिज्जवष्णो ' जाव पडिरूवे / तत्थ णं से सक्के देविदे देवराया अहिं अग्गहिसोहि सपरिवाराहि, दोहि य अगिएहि-नट्टाणिएण य गंधवाणिएण य–सद्धि मयाहयनट्ट जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति / [6 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र भोग्य मनोज्ञ दिव्य स्वादि विषयभोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह किस प्रकार (उपभोग) करता है ? 6 उ.] गौतम ! उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के सदृश गोलाकार (नेमिप्रतिरूपक) स्थान की विकुर्वणा करता है, जो लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन होता है। उसकी परिधि (घेरा) तीन लाख (तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष्य और) यावत् कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल होती है। चक्र के समान गोलाकार उस स्थान के ऊपर अत्यन्त समतल एवं रमणीय भूभाग होता है, (उसका वर्णन समझ लेना चाहिए) यावत् मणियों का मनोज्ञ स्पर्श होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए / ) (फिर) वह उस चक्राकार स्थान के ठोक मध्यभाग में एक महान् प्रासादावतंसक (प्रासादों में आभूषण रूप श्रेष्ठ भवन) की विकुर्वणा करता है। जो ऊँचाई में पांच सौ योजन होता है। उसका विष्कम्भ (विस्तार) ढाई सौ योजन होता है। वह प्रासाद अभ्युदगत (अत्यन्त ऊँवा) और प्रभापूजसे व्याप्त होने से मानो वह हँस रहा हो, इत्यादि प्रासाद-वर्णन, (करना चाहिए) यावत्-वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है (तक जानना चाहिए।) उस प्रासादावतंसक का उपरितल (ऊपरी भाग) पद्म लताओं के 1. जाब पद सूचक पाठ-सोलस व जोषणसहस्साई दो य समाई सत्ताबोसाहियाई कोसतियं अट्ठावीसाहियं धणुस तेरस य अंगुलाई ति" अव० / / 2. जाब पद सूचक पाठ---'से जहानामए आलिगमोक्खरे इवा मुइंगपोक्खरे इ वा इत्यादि। "तथा सच्छाएहि सम्पभेहि समरोईहि सउज्जोएहि नाणाविहपंचवपणे हि मणोहि उवसोहिए, तं जहा-किण्हहिं 5 इत्यादि वर्ण गन्ध-रस-स्पर्शवर्णको मणीनां वाच्य इति" अव० / / 3. जाव पद सूचक पाठ-पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे ति" अव० // 4. मणिपीठिका का वर्णन तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस बहुमन्शदेसमाए एस्थ णं महं एग मणिपेदिवं विउव्वड, साणं मणिपेढिया अट्र जोयगाइं आयामविक्खभणं पन्नता, चत्तारि जोयगाई बाहल्लेणं सवरयणामई अच्छा जाव पडिरूव ति" 5. शय्यावर्णन तस्स पं देवसणिज्जस्स इमेयारूवे वपणावासे पण्णत्ते ..., तं जहा–नाणामणिमया पडिपाया, सोवपिणया पाया, नाणामणिमयाई पायसीसगाई इत्यादिरिति" प्रवृ०॥ 6. 'जाव' पद सूचक पाठ-मयाहयनदृगीयबाइयतंतीतलतालतुडियधणमुइंगपड़प्पबाइयरवेणं ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org