________________ 396] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8] सनत्कुमार (देवेन्द्र) के समान यावत् प्राणत और अच्युत (देवेन्द्र तक के विषय में कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि जिसका जितना परिवार हो, उतना कहना चाहिए। अपने-अपने कल्प के विमानों को ऊँचाई के बराबर प्रासाद को ऊँचाई तथा उनके विस्तार से प्राधा विस्त चाहिए। यावत् अच्युत देवलोक (के इन्द्र) का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है / हे गौतम ! उसमें देवेन्द्र देवराज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् (विषय) भोगों का उपभोग करता हुमा विचरता है। शेष सभी वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है / भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-शक्नेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के विषयभोग की उपभोगपद्धति--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 6 से 1 तक) में शकेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की विषयभोग के उपभोग की प्रक्रिया का वर्णन है / परन्तु शकेन्द्र और ईशानेन्द्र को तरह सनत्कुमारेन्द्र और माहेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र और लान्तकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र और सहस्रारेन्द्र, प्रानत-प्राणत और पारण-अच्युत कल्प के इन्द्र, देवशय्या को विकुर्बणा नहीं करते, वे सिंहासन को विकुर्वणा करते हैं; क्योंकि वे दो-दो इन्द्र, क्रमश: केवल स्पर्श, रूप, शब्द एवं मन से ही विषयोपभोग करते हैं, कायप्रवीचार ईशान-देवलोक तक ही है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक के इन्द्र क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और मन से ही प्रवीचार कर लेते हैं / इसलिए इन सब इन्द्रों को शय्या का प्रयोजन नहीं है / सनत्कुमारेन्द्र का परिवार कार बतलाया गया है। माहेन्द्र के 70 हजार सामानिक देव और दो लाख अस्सो हजार आत्मरक्षक देव होते हैं। ब्रह्मलोकेन्द्र के 60 हजार, लान्तकेन्द्र के 50 हजार, महाशुक्रेन्द्र के 40 हजार, सहस्रारेन्द्र के 30 हजार, आनत-प्राणत कल्प के इन्द्र के 20 हजार प्रोर पारण-अच्युत कल्प के इन्द्र के 10 हजार सामानिक देव होते हैं। इनसे चार गुणे आत्मरक्षक देव होते हैं।' ___ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के विमान 600 योजन ऊँचे हैं। इसलिए उनके प्रासादों की ऊँचाई भी 600 योजन होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक में 700 योजन, महाशुक्र और सहस्रार में 800 योजन, प्रानत-प्राणत और प्रारण-अच्युत कल्प में प्रासाद 600 योजन ऊँचे होते हैं और इन सबका विस्तार प्रासाद से प्राधा होता है / यथा-अच्युतकल्प में प्रासाद 600 योजन ऊँचा होता है, तो उसका विस्तार 450 योजन होता है। अच्युतदेवलोक में अच्युतेन्द्र दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् विचरता है। चक्राकार स्थान को विकुर्वगा क्यों ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं कि सुधर्मा सभा जैसे भोगस्थान होते हुए भी शक्रेन्द्र चक्राकार स्थान को विकुर्वणा इसलिए करता है कि सुधर्मा सभा में जिन भगवान् को आराधना होने से उस स्थान में विषयभोग सेवन करना उनकी पाशातना करना है / इसीलिए शकेन्द्र, ईशानेन्द्र या सनत्कुमारेन्द्र प्रादि इन्द्र अपने सामानिकादि देवों के परिवार१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 646 (ख) स्पर्श-रूप-शब्द-मन: प्रवीचाराः योईयोः / परेप्रकीचाराः। -तत्त्वार्थ. 4 2. (क) भगवती. अ, वृत्ति. पत्र 646 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2325-2326 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org