________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [357 5. एवं जाव थणियकुमारावासं, जोतिसियावासं / एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ / [5] इसी प्रकार यावत्-स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्काबास और वैमानिकावास पर्यन्त (यावत्) विचरते हैं; यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन चरम-परम के मध्य में गति, उत्पत्ति--उपर्यक्त प्रश्न का प्राशय यह है कि कोई भावितात्मा अनगार, जो लेश्या के उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय-स्थानों में वर्तमान है, वह यदि पूर्ववर्ती सौधर्मादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थितिबन्ध आदि का उल्लंघन कर गया हो, किन्तु अभी तक परम (ऊपर रहे हुए) सनत्कुमारादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थितिवन्ध प्रादि अध्यवसायों को प्राप्त नहीं हुआ और इसी मध्य (अवसर) में अगर उसकी मृत्यु हो जाए तो वह कहां जाता है, कहाँ उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर भगवान् ने यों दिया है कि वह चरमदेवावास और परमदेवावास के निकटवर्ती उस लेश्या वाले देवावासों में जाता है, वहीं उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि सौधर्मादि देवलोक और सनत्कुमारादि देवलोकों के पास में जो ईशान आदि देवलोक हैं, उनमें. अर्थात्-जिस लेश्या में वह अन गार काल करता है, उसी लेश्या वाले देवावासों में उत्पन्न होता है; क्योंकि यह सिद्धान्त वचन है 'जल्लेते मरद जोवे, तल्लेसे चेव उववज्जई'-अर्थात्-'जीव जिस लेश्या में मरण पाता है, उसी लेश्या (वाले जीवों) में उत्पन्न होता है।' अर्थात्-उन देवावासों में उस अनगार की गति होती लेश्या-परिणाम से वहाँ वह उत्पन्न होता है, यदि उस परिणाम की वह विराधना कर देता है तो द्रव्यलेश्या वही होते हुए भी कर्मलेश्या (भावलेश्या)—जीवरिणति से वह गिर जाता है / तात्पर्य यह है कि वह शुभ भावलेश्या से गिर कर अशुभ भावलेश्या में चला जाता है, क्योंकि देव और नै रयिक द्रव्यलेश्या से नहीं गिरते, वह तो पहले वाली ही रहती है, किन्तु भावलेश्या से गिर जाते हैं / द्रव्यलेश्या तो देवों की अवस्थित रहती है / यदि वह अनगार जिस लेश्यापरिणाम से वहाँ (चरमदेवावास और परमदेवावास के मध्यवर्ती देवावास में) उत्पन्न होता है, यदि वह उस लेश्यापरिणाम की विराधना नहीं करता, तो वह जिस लेश्या से वहाँ उत्पन्न हुया है, उसी लेश्या में जीवनयापन करता है / यह सामान्य देवाबासों को लेकर कहा गया है। विशेष देवावासों की अपेक्षा अगला मुत्र कहा गया है। शंका-समाधान–(प्र.) जो भावितात्मा अनगार है, वह असुरकुमारों में कैसे उत्पन्न होता है ? वहाँ तो संयम के विराधक जीव ही उत्पन्न होते हैं ? इसके समाधान में वृत्तिकार कहते हैंयहाँ भावितात्मापन पूर्वकाल की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्तिम समय में वे संयम के विराधक होने से असुर कुमारादि में उत्पन्न हो सकते हैं / अथवा यहाँ भावितात्मा का प्राशय 'बालतपस्वी भावितात्मा' समझना चाहिए।' चौबीस दण्डकों में शीघ्रगति-विषयक प्ररूपणा 6. नेरइयाणं भंते ! कह सोहा गती ? कहं सोहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जावर निउणसिप्पोवगए आउंटियं 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 630-631 (ख) भगवती. (हिन्दो विवेचन) भा. 5, पृ.,२२७७-२२७८ 'जाव' शब्द सूचक पाठ-जुवाणे...., अप्पातके...., थिरगहत्थे...., दढयाणि-पाय-पाल-पिट्टतरोरुपरिणए...., तलजमलजुयल-परिघ-निभबाह...., चम्मेद्व-दुहण-मुट्टियसमाहयनिचियगायकाए...., ओरसबलसमन्नागए...., लंघण-पवणजइणवायामसमत्थे...., छए...., दुक्खे...., पत्त?...., कुसले...., मेहावी...., निउणे"-ग्रव० पत्र 631 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org