________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [313 निज्जाणियलेणा इ वा, धारवारियलेणा इ वा, तत्थ गं बहवे मणुस्सा य मणुस्सीसोय आसयंति सयंति जहा रायप्पसेणइज्जे जाव' कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति, अन्नत्थ पुण वसहि उर्वति, एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, अन्नत्थ पुण वसहि उवेति / से तेण?णं जाव आवासे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / [6-2 प्र.] भगवन् ! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का प्रावास 'चमरचच' आवास कहलाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार यहाँ मनुष्यलोक में औपकारिक लयन (प्रासादादि के पीठ-तुल्य घर), उद्यान में बनाये हुए घर, नगर-प्रदेश-गृह (नगर के निकटवर्ती बने हुए घर; अथवा नगर-निर्गम गृह-अर्थात् नगर से निकलने वाले द्वार के पास बने हुए घर), जिसमें पानी के फवारे लगे हों, ऐसे घर (धारावारिक लयन) होते हैं, वहाँ बहुत-से मनुष्य एवं स्त्रियाँ आदि बैठते हैं, सोते हैं, इत्यादि सब वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार, यावत् - कल्याणरूप फल और वृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए वहाँ विहरण (सैर) करते हैं, किन्तु (वहाँ वे लोग स्थायी निवास नहीं करते,) उनका (स्थायी) निवास अन्यत्र होता है / इसी प्रकार हे गौतम ! असुरेन्द्र असुर कुमारराज चमर का चमर चंच नामक आवास केवल क्रीड़ा और रति के लिए है, (वह स्थान उसका स्थायी आवास नहीं है; ) वह अन्यत्र (स्थायी रूप से) निवास करता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि चमरेन्द्र चमरचंच नामक प्रावास में निवास करके नहीं रहता। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 5-6) में चमरेन्द्र के चमरचंच नामक प्रावास के अतिदेश पूर्वक नियत स्थान का, उसकी लम्बाई-चौड़ाई, परिधि, उसके सौन्दर्य आदि का समग्र वर्णन एवं उसमें चमरेन्द्र का स्थायी निवास न होने का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दार्थ-छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडिनो-६५० करोड़, पणतीसं च सयसहस्साईपैतीस लाख, पन्नासं च सहस्साई- पचास हजार योजन / चउरासीति जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं-चौरासी हजार योजन लम्बाई-चौड़ाई (आयाम-विष्कम्भ) में / परिक्खेवेणं-परिक्षेप, परिधि / उड्डुउच्चत्तेणं-ऊँचाई में / पासाय-पंतीओ-प्रासादपंक्तियाँ / वहिं उबेति-स्थायी निवास के लिए पाता है / उवगारिलेणा-औपकारिक ग्रह (भवनों के नीचे बरामदा वगैरह घर)। उज्जाणियलेणाई-लोगों के उपकारार्थ उद्यानों में बने हुए घर) अथवा नगर की निकटवर्ती धर्मशालादि के मकान / गिज्जाणियलेणाई-नगर के निर्गम (बाहर निकलने) पर आराम के लिए बने हुए घर / धारवारियलेणाई-जिनमें पानी के फव्वारे (धारावारिक) छूट रहे हों, ऐसे मकान / किड्डा-रति - - - 1. 'जाब' पद से राजप्रश्नीय (पृ. 196-200 में उक्त) पाठ समझना चाहिए--...."चिट्ठति निसीयात तुयति हसंति रमंति ललंति कोलंति किड्डंति मोहयंति / पुरापोराणाणं सुचिन्नाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org