________________ 332] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) प्रौदारिकमिश्र, (3) वैक्रिय, (4) वैक्रियमिश्र, (5) प्राहारक, (6) आहारकमिश्र और (7) कार्मण। विवेचन-प्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 15 से 22 तक) में विभिन्न पहलुओं से काया के सम्बन्ध में शंका-समाधान प्रस्तुत किये गए हैं। काय आत्मा भी और आत्मा से भिन्न भी काय कथंचित् आत्मरूप भी है, क्योंकि काय के द्वारा कृत कर्मों का अनभव (फलभोग) प्रात्मा को होता है। दूसरे के द्वारा किये हए कर्म का अनुभव दूमरा नहीं कर सकता / यदि ऐसा होगा तो अकृतागम (नहीं किये हुए कर्म के अनुभव-भोग) का प्रसंग पाएगा। किन्तु यदि काया को आत्मा से एकान्ततः अभिन्न माना जाएगा तो काया का एक अंश से छेदन करने पर आत्मा के छेदन होने का प्रसंग पाएगा, जो कभी सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त आत्मा को काया से अभिन्न मानने पर शरीर के जल जाने पर आत्मा भी जल कर भस्म हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में परलोकगमन करने वाला कोई प्रात्मा नहीं रहेगा / परलोक के प्रभाव का प्रसंग होगा। इसलिए काया को प्रात्मा से कथंचित भिन्न माना गया। काया का प्रांशिक छेदन करने पर आत्मा को उसका पूर्ण संवेदन होता है, इस दृष्टि से काया कथंचित् प्रात्मरूप भी माना जाता है। जैसे सोना और मिट्टी, लोहे का पिण्ड और अग्नि, अथवा दूध और पानी दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी मिल जाने पर दोनों अभिन्न-से प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी काया के साथ संयोग होने से भिन्न होते हुए भी कथंचित् अभिन्न माना जाता है। यही कारण है कि काया को छूने पर आत्मा को उसका संवेदन होता है / काया द्वारा किये गए कार्यों का फल भवान्तर में आत्मा को भोगना (वेदन करना पड़ता है। इसलिए काया को प्रात्मा से कथंचित् अभिन्न माना गया है। कुछ प्राचार्यों ने माना है कि कार्मणकाय की अपेक्षा से प्रात्मा काया है, क्योंकि कार्मणशरीर और संसारी आत्मा परस्पर एकरूप होकर रहते हैं तथा औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा से काया आत्मा से भिन्न है, क्योंकि शरीर के छूटते ही आत्मा पृथक हो जाती है, इस दष्टि से काया से आत्मा की भिन्नता सिद्ध होती है। काया रूपी भी है, अरूपी भी है—प्रौदारिक आदि शरीरों की स्थलरूपता दृश्यमान होने से काया रूपी है और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म एवं अदृश्यमान होने से उसकी अपेक्षा से अरूपित्व की विवक्षा करने पर काया कञ्चित् अरूपी भी मानी जाती है। काया सचित्त भी है, अचित्त भी जीवित अवस्था में काया चैतन्य से युक्त होने के कारण सचित्त है और मृतावस्था में उसमें चैतन्य का अभाव होने से अचित्त भी है। काया जीव भी है, अजीव भी–विवक्षित उच्छ्वास आदि प्राणों से युक्त होने से प्रौदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से काया जीव है और मृत होने पर उच्छ्वासादि प्राणों से रहित हो जाने से वह अजीव भी है। .. ... --- - - - - ---- -- -- - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 623 2. वही, पत्र 623 3. वहीं, पत्र 623 4. वही, पत्र 623 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org