________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [317 उत्पन्न हया ...'धन्य हैं वे ग्राम, प्राकर (खान), नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमूख, पत्तन, पाश्रम, संवाह एवं सन्निवेश; जहाँ श्रमण भगवन् महावोर विचरण करते हैं ! धन्य हैं वे राजा, श्रेष्ठी, तलवर यावत् सार्थवाह-प्रति जन, जो श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, यावत् उनकी पर्युपासना करते हैं। यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरण करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम यावत् विहार करते हुए यहाँ पधारें, यहाँ उनका समवसरण हो और यहीं वीतिभय नगर के बाहर मृगवन नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए यावत् विचरण करें, तो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करू, यावत् उनकी पर्युपासना करू / विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में उदायन राजा को अपनी पौषधशाला में धर्मजागरणा करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् उनकी पर्युपासना करने का जो संकल्प हुग्रा, उसका वर्णन है / कठिन शब्दार्थ-पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंमि : तीन अर्थ--(१) पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर पिछली रात्रि के समय में, (2) रात्रि के पहले या पिछले पहर में, (3) पूर्वरात्रि और अपररात्रि के मध्य में / अयमेयास्वे-इस प्रकार का, (ऐसा) / अस्थिए-अध्यवसाय-संकल्प / समुपज्जित्थासमुत्पन्न हुआ / अहापडिरूवे प्रोग्गहं ओगिहित्ता-अपने अनुरूप अवग्रह (निवास के योग्य स्थान की याचना करके, उस) को ग्रहण करके / ' भगवान का वीतिभयनगर में पदार्पण, उदायन द्वारा प्रव्रज्याग्रहण का संकल्प 19. तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रणो अयमेयारूवं अज्झथियं जाव समुप्पन्न विजाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुण्णभदाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० 2 त्ता पुन्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणु० जाय विहरमाणे जेणेव सिधुसोवीरा जणवदा, जेणेव बीतीभये नगरे, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 जाय विहरति / [16] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, उदायन राजा के इस प्रकार के समुत्पन्न हुए प्रध्यवसाय यावत् संकल्प को जान कर चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य से निकले और क्रमश: विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम यावत् विहार करते हुए जहाँ सिन्धु-सौवीर जनपद था, जहाँ वीतिभय नगर था और उस में मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ पधारे यावत् विचरने लगे। 20. तए णं बीतीभ नगरे सिंघाडग जाव परिसा पज्जुवासइ / [20] वीतिभय नगर में शृंगाटक (तिराहे) आदि मार्गों में (भगवान् के पधारने की चर्चा होने लगी) यावत् परिषद् (भगवान् की सेवा में पहुँच कर) पर्युपासना करने लगी। 21. तए गं से उदायणे राया इमीसे कहाए लठ्ठ हट्टतुट्ट० कोडुबियपुरिसे सदावेति, को. स० 2 एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीयोभयं नगरं सब्मितरबाहिरियं जहा कृणिओ 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2235 भगवती.. वत्ति, पत्र 621 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org