________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [303 असंख्येय प्रदेश कहने चाहिए; और पीछे के तीन द्रव्यों (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय) के अनन्त प्रदेश कहने चाहिए / यावत् -[प्र.] (एक अद्धाकाल द्रव्य में) कितने प्रद्धासमय अवगाढ होते हैं ?' [उ. एक भी अवगाढ नहीं होता; (इस प्रकार) 'अद्धासमय' तक कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 52 से 63 तक) में नौवें अवगाहनाद्वार के माध्यम से धर्मास्तिकाय आदि के एक, दो, यावत् दरा, संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश अवगाहित होने की स्थिति में परस्पर उन्हीं धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों को अवगाहना की प्ररूपणा की गई है / अन्त में धर्मास्तिकायादि प्रत्येक समग्न द्रव्य हो, वहाँ धर्मास्तिकायादि छह के प्रदेशों का भी निरूपण किया गया है। धर्मास्तिकायादि के एक प्रदेश पर धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों का अवगाहन-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान पर धर्मास्तिकाय का अन्य प्रदेश प्रवगाढ नहीं होता। अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय का वहाँ एक-एक प्रदेश प्रवगाढ होता है; तथा जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के अनन्त-अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं; क्योंकि धर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश उनके अनन्त प्रदेशों से व्याप्त है। धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी है और श्रद्धासमय केवल मनुष्यलोकव्यापी है / अतः धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर अद्धासमयों का क्वचित् अवगाह है और क्वचित्-कहीं नहीं भी है / जहाँ अवगाह होता है, वहाँ अनन्त का अवगाह है। धर्मास्तिकाय के समान ही अधर्मास्तिकाय के भी छह सूत्र कहने चाहिए / अाकाशास्तिकाय के विषय में धर्मास्तिकाय का प्रदेश कदाचित् अवगाढ है और नहीं भी है, क्योंकि आकाशास्तिकाय लोकालोकपरिमाण है जब कि धर्मास्तिकाय के प्रदेश लोकाकाश में ही हैं, अलोकाकाश में नहीं। वहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है।' पुदगलास्तिकाय के प्रदेशों की अवगाहना-जहाँ पुद्गलास्तिकाय का द्वयणुकस्कन्ध (द्विप्रदेशोस्कन्ध) एक प्राकाशप्रदेश में अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ही अवगाहता है; और जब वह प्राकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहता है, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश और दो प्रदेशों के अवगाहन की घटना स्वयं कर लेनी चाहिए। जब पूदगलास्तिकाय के तीन प्रदेश आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश को अवगाहते हैं तब धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है। जब आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। जब आकाशास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेश अब गाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिए। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय-सम्बन्धी तीन सूत्रों का कथन भी पूर्ववत् करना चाहिए / विशेष यह है कि पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों के स्थान पर जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 614 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2220 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org