________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [265 23. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जविस्थडा य / [23 प्र.] भगवन् ! वे (अनुत्तरविमान) संख्यात योजन विस्तृत हैं या असंख्यात योजन विस्तृत हैं ? [23 उ. गौतम ! (उनमें से एक संख्यातयोजन विस्तृत है और (चार) असंख्यातयोजन विस्तृत हैं। 24. पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जविस्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववातिया देवा उववज्जति ? केवतिया सुक्कलेस्सा उववज्जति ? 0 पुच्छा तहेव / गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववातिया देवा उववज्जति / एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु, नवरं काहपक्खिया, अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जंति, न चयंति, न वि पन्नत्तएसु भाणियन्या, अचरिमा वि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पन्नत्ता। सेसं तं चेव / असंखेजवित्थडेसु वि एते न भण्णंति, नवरं अचरिमा अस्थि / सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेजवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता। {24 प्र.] भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानों में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमान में एक समय में कितने अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं, (उनमें से) कितने शुक्ललेश्यी उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] गौतम पांच अनुत्तरविमानों में से संख्यातयोजन विस्तृत ('सर्वार्थसिद्ध' नामक) अनुत्तर-विमान में एक समय में, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात्त अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं / जिस प्रकार संख्यातयोजन विस्तृत वेयक विमानों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि कृष्णपाक्षिक अभव्यसिद्धिक तथा तीन अज्ञान वाले जीव, यहाँ उत्पन्न नहीं होते, न ही च्यवते हैं और सत्ता में भी इनका कथन नहीं करना चाहिए / इसी प्रकार (तीनों पालापकों में) 'अचरम' का निषेध करना चाहिए, यावत् संख्यात चरम कहे गए हैं / शेष समस्त वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले चार अनुत्तर विमानों में ये (पूर्वोक्त कृष्णपाक्षिक आदि जीव पूर्वोक्त तीनों आलापकों में) नहीं कहे गए हैं। विशेषता इतनी ही है कि (इन असंख्यात योजन वाले अनुत्तर विमानों में) अचरम जीव भी होते हैं। जिस प्रकार असंख्यात योजन विस्तृत ग्रं वेयक विमानों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी अवशिष्ट सब कथन यावत् असंख्यात अचरम जीव कहे गये हैं, यहाँ तक करना चाहिए। विवेचन-वैमानिक देवलोकों में विमानावास-संख्या, विस्तार तथा उत्पाद प्रादि-प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 12 से 24 तक) में सौधर्मादि कल्प, अवेयक एवं अनुत्तर देवों के विमानावासों की संख्या, उनका विस्तार, उनमें उत्पादादि विषयक प्रश्नोत्तर अंकित हैं। सौधर्म और ईशानकल्प में विशेषता इन दोनों देवलोकों से तीर्थकर तथा कई अन्य भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org