________________ 286] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 33 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवास्तिकाय के एक प्रदेश के (विषय में कथन किया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए।) विवेचन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 26 से 33 तक) में एक-एक धर्मास्तिकाय आदि पांचों के एक-एक प्रदेश का अन्यान्य अस्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पर्श होता है, इसकी प्ररूपणा अष्टम अस्तिकाय-स्पर्शनाद्वार के माध्यम से की गई है। धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश का अन्य अस्तिकाय-प्रदेशों से स्पर्श धर्मास्तिकाय प्रादि के (एक) प्रदेश की जघन्य (सब से थोड़े) अन्य प्रदेशों के साथ स्पर्शना तब होती है, जब वह लोकान्त के एक कोने में होता है / उसकी स्थिति भूमि के निकटवर्ती घर के कोने के समान होती है / उस समय जघन्य पद में वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, ऊपर के एक प्रदेश से और पास के दो प्रदेशों से एक विवक्षित प्रदेश स्पृष्ट होता है, उसकी स्थापना इस प्रकार होती है. इस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जघन्यतः धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / तथा उत्कृष्टतः वह चारों दिशाओं के चार प्रदेशों से, और ऊर्ध्व तथा अधोदिशा के एक-एक प्रदेश से, इस छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / स्थापना- 0 इस प्रकार होती है। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अधर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से तो उसी प्रकार स्पृष्ट होता है, जिस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तथा धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के चौथे एक प्रदेश से भी वह स्पृष्ट होता है / इस प्रकार जघन्य पद में वह चार अधर्मास्तिकायिक प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / उत्कृष्ट पद में छह दिशाओं के छह प्रदेशों से और सातवें धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्ति काय के एक प्रदेश से, यो सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / आकाशास्तिकाय के भी पूर्वोक्त सात प्रदेशों को स्पर्शना-होती है, क्योंकि लोकान्त में भी अलोकाकाश होता है। जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से-धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश स्पृष्ट होता है, क्योंकि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश पर और उसके पास अनन्त जीवों के अनन्तप्रदेश विद्यमान होते हैं। इसी प्रकार वह पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। अद्धाकाल के समयों को स्पर्शना-प्रद्धाकाल केवल समय क्षेत्र (ढाई द्वीप और दो समुद्र) में ही होता है, बाहर नहीं; क्योंकि समय, घड़ी, घंटा आदि काल सूर्य की गति से ही निष्पन्न होता है / उससे धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है तो अनन्त अद्धा-समयों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे अनादि हैं, इसलिए उनकी अनन्त समयों को स्पर्शना होती है / अथवा वर्तमान समय विशिष्ट अनन्त द्रव्य उपचार से अनन्त समय कहलाते हैं / इसलिए अद्धाकाल अनन्त समयों से स्पष्ट हया कहलाता है।। अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों से स्पर्शना—धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की स्पर्शना के समान समझना चाहिए।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 611 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा, 5, पृ. 2205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org