________________ 276] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {15 प्र.] भगवन् ! तिर्यक्लोक की लम्बाई का मध्यभाग कहाँ बताया गया है ? [15 उ.] गौतम ! इस जम्बुद्वीप के मन्दराचल (मेरुपर्वत) के बहुसम मध्यभाग (ठीक बीचोंबीच) में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर वाले और नीचले दोनों क्षुद्रप्रस्तटों (छोटे पाथड़ों) में, तिर्यग्लोक के मध्य भाग रूप आठ रुचक-प्रदेश कहे गए हैं, (वहीं तिर्यग्लोक की लम्बाई का मध्य भाग है)। उन (रुचक प्रदेशों) में से ये दश दिशाएँ निकली हैं / यथा-पूर्वदिशा, पूर्व-दक्षिण दिशा इत्यादि, (शेष समग्र वर्णन) दशवें शतक (के प्रथम उद्देशक के सूत्र 6-7) के अनुसार, यावत् दिशाओं के दश नाम ये हैं; (यहाँ तक) कहना चाहिए। विवेचन -प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 12 से 15 तक) में लोक, ऊर्व, अधो एवं तिर्यक लोक की लम्बाई के मध्यभाग का निरूपण लोक-मध्यद्वार के सन्दर्भ में किया गया है। लोक एवं ऊर्ध्व, अधो, तिर्यकलोक के मध्यभाग का निरूपण-लोक की कुल लम्बाई 14 रज्जू परिमित है। उसकी कुल लम्बाई का मध्यभाग रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशखण्ड के असंख्यातवें भाग का उल्लंघन करने के बाद है / तिर्यक्लोक की लम्बाई 1800 योजन है। तिर्यक्लोक के मध्य में जम्बूद्वीप है। उस जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के बहुमध्य देशभाग (बिलकुल मध्य) में, रत्नप्रभापृथ्वी के समतल भूमिभाग पर पाठ रुचक प्रदेश हैं, जो गोस्तन के आकार के हैं और चार ऊपर की पोर उठे हुए हैं तथा चार नीचे की ओर हैं। इन्हीं रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओं और विदिशाओं का ज्ञान होता है / इन रुचक प्रदेशों के 600 योजन ऊपर और 900 योजन नीचे तक तिर्यकलोक (मध्यलोक) है। तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक है और ऊपर ऊर्ध्व लोक है। ऊर्ध्वलोक की लम्बाई कुछ कम 7 रज्जू परिमाण है, जबकि अधोलोक की लम्बाई कुछ अधिक सात रज्ज परिमाण है / रुचक प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभापृथ्वी में चौदह रज्ज रूप लोक का मध्यभाग पाता है। यहाँ से ऊपर और नीचे लोक का परिमाण ठीक सात-सात रज्ज रह जाता है / चौथी और पांचवी नरकपृथ्वी के मध्य के जो अवकाशान्तर (आकाशखण्ड) हैं, उनके सातिरेक (कुछ अधिक) आधे भाग का उल्लंघन करने पर अधोलोक का मध्यभाग है / सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक से ऊपर और पांचवें ब्रह्मलोककल्प के नीचे रिष्ट नामक तृतीय प्रतर में ऊनलोक का मध्य भाग है / ' दश दिशाओं का उद्गम, गुणनिष्पन्न नाम–लोक का प्राकार वज्रमय है / इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकाण्ड में सबसे छोटे दो प्रतर हैं। उन दोनों लघुतम प्रतरों में से ऊपर के प्रतर से लोक की ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक की अधोमुखी वृद्धि होती है। यहीं तिर्यकलोक का मध्यभाग है, जहाँ 8 रुचक प्रदेश बताए हैं। इन्हीं से 10 दिशाएँ निकली हैं--(१) पूर्व, (2) दक्षिण, (3) पश्चिम, (4) उत्तर, ये चार दिशाएँ मुख्य हैं तथा (5) अग्निकोण, (6) नैऋत्यकोण, (7) वायव्यकोण और () ईशानकोण, (6) ऊर्ध्वदिशा और (10) अधोदिशा / पूर्व महाविदेह की ओर पूर्वदिशा है, पश्चिम महाविदेह की अोर पश्चिम दिशा है, भरतक्षेत्र की ओर दक्षिण दिशा है, और ऐरवतक्षेत्र की ओर उत्तरदिशा है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की 'अग्निकोण', दक्षिण और पश्चिम के मध्य की 'नैऋत्यकोण', पश्चिम और उत्तर के मध्य की 'वायव्य 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 607 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2153-2184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org