________________ 114] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [12] तदनन्तर उस शंख श्रमणोपासक को एक ऐसा अध्यवसाय (विचार एवं अभीष्ट मनोगत संकल्प) यावत् उत्पन्न हुना--"उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन, विस्वादन, परिभाग और परिभोग करते हुए पाक्षिक पौषध (करके) धर्मजागरणा करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं प्रत्युत अपनी पौषध-शाला में, ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि, सुवर्ण आदि के त्यागरूप तथा माला, वर्णक एवं विलेपन से रहित, और शस्त्र-मूसल ग्रादि के त्यागरूप पौषध का ग्रहण करके दर्भ (डाभ) के संस्तारक (बिछौने) पर बैठ कर दूसरे किसी को साथ लिये बिना अकेले को ही पाक्षिक पौषध के रूप में (अहोरात्र) धर्मजागरणा करते हुए विचरण करना श्रेयस्कर है।" इस प्रकार विचार करके वह श्रावस्ती नगरी में जहाँ अपना घर था, वहाँ पाया, (और अपनी धर्मपत्नी) उत्पला श्रमणोपासिका से (इस विषय में) पूछा (परामर्श किया)। फिर जहाँ अपनी पौषधशाला थी, वहाँ प्राया, पौषधशाला में प्रवेश किया। फिर उसने पौषधशाला का प्रमार्जन किया (सफाई की); उच्चार-प्रस्रवण (मलमूत्रविसर्जन) की भूमि का प्रतिलेखन (भलीभांति निरीक्षण किया / तब उसमें डाभ का संस्तारक (बिछौना) बिछाया और उस पर बैठा / फिर (उसी) पौषधशाला में उसने ब्रह्मचर्य पूर्वक यावत् (पूर्वोक्तवत्) पाक्षिक पौषध (रूप धर्मजागरणा) पालन करते हुए, (अहोरात्र) यापन किया / विवेचन-शंख श्रावक द्वारा निराहार पौषध का संकल्प और अनुपालन–प्रस्तुत सूत्र में शंख श्रमणोपासक द्वारा किये गए संवेगयुक्त एक नये अध्यवसाय और तदनुसार पौषधशाला में निराहार पौषध के अनुपालन का वर्णन है। आहारत्यागपौषध : एकाकी या सामूहिक भी ?- भगवान के दर्शन करके वापिस लौटते समय शंख श्रावक को साहारपौषध सामूहिक रूप से करने का विचार सूझा और तदनुसार उसने अपने साथी श्रमणोपासकों को चतुर्विध प्राहार तयार कराने का निर्देश दिया था, किन्तु बाद में शंख के मन में अतिशयसंवेगभाव एवं उत्कृष्ट त्यागभाव के कारण निराहार रह कर एकाकी ही अपनी पौषधशाला में पाक्षिक पौषध के अनुपालन करने का विचार स्फुरित हुआ और तदनुसार उसने पत्नी से परामर्श करके पौषधशाला में जा कर अकेले ही निराहार पौषध अंगीकार करके धर्मजागरणा की / यहाँ प्रश्न होता है कि ग्राहारसहित पौषध जैसे सामूहिकरूप से किया जाता है, वैसे क्या निराहारपौषध सामूहिक रूप से नहीं हो सकता ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं---'एगस्स अविइयस्स' इस मूलपाठ पर से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि निराहार पौषध पौषधशाला में अकेले ही करना कल्पनीय है। यह तो चरितानवादरूप है, दूसरे शास्त्रों एवं ग्रन्थों में, पौषधशाला में बहुत-से श्रावकों द्वारा मिल कर सामूहिकरूप से पौषध करने का वर्णन है। ऐसा करने में कोई दोष भी नहीं है, बल्कि सामूहिकरूप से पौषध करने से सामूहिकरूप से स्वाध्याय करने बोल-थोकड़े आदि का स्मरण करने में सुविधा होती है, इससे विशेष लाभ ही है / इसलिए सामूहिक पौषध में विशिष्ट गुणों की सम्भावना है।' दूसरी बात–'एगस्स अबिइयस्स' का स्पष्ट आशय यह है कि बाह्य सहायता की अपेक्षा के बिना केवल एकाकी ही, अथवा दूसरे किसी तथाविध क्रोधादि की सहायता की अपेक्षा के बिना केवल आत्मनिर्भर हो कर / 1. भगवतीसूत्र, अभय. वत्ति, पत्र 555 2. वही, पत्र 555, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org