________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [193 जहन्न णं एक्कं वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं प्रयासहस्सं पक्खिवेज्जा; ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्ने णं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अस्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जेणं तासि अयाणं उच्चारेण बा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा तेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोगिएण वा चम्मेहि वा रोमेहि वा सिगेहि वा खुरेहि वा नहेहि वा अणोक्कंतपुब्वे भवति ? 'गो इगट्ठ सम?' / होज्जा विणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासि अयाणं उच्चारेण वा जाव नहेहि वा अणोक्कंतपुग्वे नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभावं, संसारस्स य अणादिभावं, जीवस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण-मरणाबाहुल्लं च पडुच्च नस्थि केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएमे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि / सेतेणढणं तं चेव जाव न मए वा वि। [3-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि इतने बड़े लोक में परमाणपुद्गल जितना कोई भी प्राकाशप्रदेश ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो? [3-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष सौ बकरियों के लिए एक बड़ा अजाब्रज (बकरियों का बाड़ा) बनाए / उसमें वह एक, दो या तीन और अधिक से अधिक एक हजार बकरियों को रखे / वहाँ उनके लिए घास-चारा चरने की प्रचुर भूभि और प्रचुर पानी हो / यदि बे बकरियां वहाँ कम से कम एक, दो या तीन दिन और अधिक से अधिक छह महीने तक रहें, तो हे गौतम ! क्या उस अजाब्रज (बाडे) का कोई भी परमाण-पुदगलमात्र प्रदेश ऐसा रह सकता है, जो उन बकरियों के मल. श्लेष्म (कफ), नाक के मैल (लीट), वमन, पित्त, शुक्र, रुधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नखों से (पूर्व में अनाक्रान्त) अस्पृष्ट न रहा हो ? (गौतम--) (भगवन् ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (भगवान् ने कहा-) हे गौतम ! कदाचित् उस बाड़े में कोई एक परमाण-पुद्गलमात्र प्रदेश ऐसा भी रह सकता है, जो उन बकरियों के मल-मूल यावत् नखों से स्पृष्ट न हुग्रा हो, किन्तु इतने बड़े इस लोक में, लोक के शाश्वतभाव की दृष्टि से, संसार के अनादि होने के कारण, जीव की नित्यता, कर्मबहुलता तथा जन्म-मरण की बहुलता की अपेक्षा से कोई परमाणु-पुद्गल-मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो / हे गौतम ! इसी कारण उपर्युक्त कथन किया गया है कि यावत् जन्म-मरण न किया हो।। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (सं. 3) में बकरियों के बाड़े में उनके मलमूत्रादि से एक परमाणपुद्गलमात्र प्रदेश भो अछूता न रहने का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि लोक में ऐसा कोई परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश अछूता नहीं है जहाँ जीव ने जन्ममरण न किया हो। परमाणुषुदगलमात्र प्रदेश अस्पृष्ट न रहने के कारण (1) लोक शाश्वत है, यदि लोक विनाशी होता तो यह बातघटित नहीं हो सकती थी। लोक के शाश्वत होने पर भी यदि वह सादि (आदिसहित) हो तो भी उपर्युक्त बात घटित नहीं हो सकती, इसलिए कहा गया--(२) लोक अनादि है। अनन्त जीवों की अपेक्षा से प्रवाहरूप से संसार अनादि हो, किन्तु विवक्षित जीव अनित्य हो तो भी उपर्युक्त अर्थ घटित नहीं हो सकता, इसलिए कहा गया—(३) जीव (आत्मा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org