________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] [217 विवेचन-अन्तर : आशय-यहाँ पंचविध देवों के अन्तर से शास्त्रकार का यह प्राशय है कि एक देव को अपना एक भव पूर्ण करके पुन: उसी भव में उत्पन्न होने में जितने काल का जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर (व्यवधान) होता है वह अन्तर है। भव्यद्रव्यदेव के जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर का कारण-कोई भव्यद्रव्यदेव दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, व्यन्तरादि देवों में उत्पन्न हुआ, और वहाँ से च्यव कर शुभ पृथ्वीकायादि में चला गया। वहाँ अन्तमुहूर्त तक रहा, फिर तुरंत भव्यद्रव्यदेव में उत्पन्न हो गया। इस दृष्टि से भव्यद्रव्य देव का अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष होता है / कई लोग यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि दस हजार वर्ष का प्रायुष्य तो समझ में आता है, किन्तु वह जब आयूाज्य पूर्ण होने के तुरंत बाद ही उत्पन्न हो जाता है, शुभ पृथ्वी आदि में फिर अन्तर्मुहुर्त अधिक कैसे लग जाता है, यह समझ में नहीं पाता! इसका समाधान करते हुए कोई प्राचार्य कहते हैं जिसने देव का प्रायुष्य वांध लिया है, उसको यहाँ 'भव्यद्रव्यदेव' रूप से समझना चाहिए / इससे दस हजार वर्ष की स्थिति वाला देव, देवलोक से च्यव कर भव्यद्रव्यदेव रूप से उत्पन्न होता है, और अन्तर्मुहर्त के पश्चात् आयुष्य का वन्ध करता है। इसोलए अन्तमहत्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है / तथा अपयाप्त जीव देवगति में उत्पन्न नहीं हो सकता अत: पर्याप्त होने के बाद ही उसे भव्यद्रव्यदेव मानना चाहिए। ऐसा मानने से जघन्य अन्तर अन्तमहत अधिक दस हजार वर्ष का होता है। भव्यद्रव्यदेव मर कर देव होता है और वहाँ से च्यव कर वनस्पति आदि में अनन्तकाल तक रह सकता है, फिर भव्यद्रव्यदेव होता है। इस दृष्टि से उसका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का होता है।" नरदेव का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर-जिन नरदेवों (चक्रवत्तियों) ने कामभोगों की आसक्ति को नहीं छोड़ा, वे यहाँ से मर कर पहले नरक में उत्पन्न होते हैं। वहाँ एक सागरोपम की उत्कृष्ट ग्रायू भोग कर पून: नरदेव हो और जब तक चक्ररत्न उत्पन्न न हो, तब तक उनका जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ अधिक होता है। कोई सम्यग्दष्टि जीव चक्रवर्ती पद प्राप्त करे, फिर वह देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त्त काल तक संसार में परिभ्रमण करे, इसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त कर चक्रवतीपद प्राप्त करे और संयम पालन कर मोक्ष जाए, इस अपेक्षा से नरदेव का उत्कृष्ट ग्रन्तर देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त कहा गया है। धर्मदेव का जघन्य अन्तर--कोई धर्मदेव (चारित्रवान् साधु) सौधर्म देवलोक में पल्योपमपृथक्त्व आयुष्य वाला देव हो और वह वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्य भव प्राप्त करे / वहाँ वह साधिक अाठ वर्ष की आयु में चारित्र ग्रहण करे, इस अपेक्षा से धर्मदेव का जघन्य अन्तर पल्योपम पृथक्त्व कहा गया है। देवाधिदेव का अन्तर नहीं होता, क्योंकि वे (तीर्थकर भगवान्) आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर सीधे मोक्ष में जाते हैं। 1. (क) भगवती० ग्र० वृत्ति, पत्र 587 (व) भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2102 2. वही, अ० वृत्ति, पत्र 587 3. वही, पत्र 587 4. भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org