________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [169 गोयमा ! सम्बत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले, तेयापोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मोरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मणपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तगाकाले अणंतगुणे, वइपोग्गलपरियट्टनिवत्तणाकाले अणंतगुणे, वेउवियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे / _[53 प्र.] भगवन् ! औदारिकपुद्गल-परिवर्त्त-निर्वर्तना (निष्पत्ति) काल, वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल यावत् प्रान-प्राण-पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तनाकाल, इन (सातों) में से कौन सा (निष्पत्ति-) काल, किस काल से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? 53 उ.] गौतम ! सबसे थोड़ा कार्मण-पुद्गल-परिवर्त का निवर्त्तना (-निष्पत्ति) काल है / उससे तैजसपुद्गल-परिवर्त्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा (अधिक) है / उससे औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तना-काल अनन्तगुणा है, और उससे आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है। उससे मन:पुद्गल-परिवर्त-निर्वत्तनाकाल अनन्तगुणा है तथा उससे मन:पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्तना काल अनन्तगुणा है, उससे वचन-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल अनन्तगुणा है और (इन सबसे) वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त का निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है। विवेचन-सप्तविध पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल में अन्तर का कारण कार्मणपुद्गल परिवर्त-निष्पत्तिकाल सबसे थोड़ा इसलिए है कि कार्मण पुद्गल सूक्ष्म होते हैं और बहुत-से परमागनों से निष्पन्न होते हैं। इसलिए वे एक ही बार में बहुत-से ग्रहण किये जाते हैं। तथा नारक आदि सभी गतियों में वर्तमान जीव प्रतिसमय उन्हें ग्रहण करता रहता है। इसलिए स्वल्प-काल में ही उन सभी पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है। उससे तेजसपुदगल परिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि तैजस पुद्गल स्थल होने के कारण एक बार में अल्प पुद्गलों का ग्रहण होता है। अल्पप्रदेशों से निष्पन्न होने के कारण उनके अल्प अणों का ग्रहण होता है। इसलिए कार्मण से तैजस पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है / उससे औदारिक पुद्गलपरिवर्त्तनिष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रौदारिकपुद्गल अत्यन्त स्थल होते हैं / इसलिए उनमें से एक बार में अल्प का ही ग्रहण होता है / और फिर उनके प्रदेश भी अल्पतर हैं / अतः उनके ग्रहण करने में, एक समय में अल्प अणु ही गृहीत होते हैं। तथा वे कामण और तैजस पुद्गलों की तरह सर्व-संसारी जीवों द्वारा निरन्तर गहीत नहीं होते, किन्तु केवल औदारिक शरीरधारियों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है / इसलिए बहुत लम्बे काल में उनका ग्रहण होता है। उससे प्रान-प्राण-पुद्गल परिवर्त-निष्पतिकाल अनन्तगुणा है / यद्यपि औदारिक पुद्गलों से आन-प्राणपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं. इसलिए उनका ग्रहण अल्पकाल में हो सकता है. तथापि अपर्याप्त-अवस्थ ग्रहण न होने से तथा पर्याप्त-अवस्था में भी औदारिकशरीर-पुद्गलों की अपेक्षा अल्प-परिमाण में उनका ग्रहण होने से, उनका शीघ्र ग्रहण नहीं होता। इसलिए औदारिकपुद्गल-परिवर्त-निष्पत्तिकाल से आन-प्राण-पुद्गल-परिवर्त -निष्पत्ति-काल अनन्तगुणा है। उससे मनःपुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है। यद्यपि पानप्राणपुद्गलों की अपेक्षा मनःपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं, इस कारण अल्पकाल में ही उनका ग्रहण सम्भव है, तथापि एकेन्द्रियादि की कायस्थिति बहुत दीर्घकालीन है। उनमें चले जाने पर मन की प्राप्ति चिरकाल के बाद होती है, इसलिए मनःपुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org