________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [173 करना (5) प्रक्षमा-दूसरे के द्वारा किए हुए अपराध को सहन नहीं करना / (6) संज्वलनबार बार क्रोध से प्रज्वलित होना / (7) कलह-वाक-युद्ध करना, परस्पर अनुचित शब्द बोलना / (5) चाण्डिक्य -रोद्ररूपधारण करना / (6) भण्डन-दण्ड आदि से परस्पर लड़ाई करना / (10) विवाद-परस्पर विरोधी बात कहकर झगड़ा या विवाद करना / क्रोधादि में पूर्ववत् वर्णादि पाए जाते हैं। मान और उसके समानार्थक बारह नामों के विशेषार्थ-(१) मान-अपने आपको दूसरों से उत्कृष्ट समझना अथवा अभिमान के परिणाम का जनक कषाय मान कहलाता है / (2) मद-जाति आदि का दर्प या अहंकार करना, हर्षावेश में उन्मत्त होना / (3) दर्प--(प्तता) घमण्ड में चूर होना / (4) स्तम्भ-नम्र न होना-स्तम्भवत् कठोर बने रहना / (5) गर्व---अहंकार (6) अत्युत्क्रोशस्वयं को दूसरों से उत्कृष्ट मानना या बताना (7) परपरिवाद-परनिन्दा करके अपनी ऊँचाई की डोंगे हाँकना, अथवा परपरिपात-दूसरों को लोगों की दृष्टि में गिराना या उच्चगुणों से पतित करना / (8) उत्कर्ष-क्रिया से अपने आपको उत्कृष्ट मानना; अथवा अभिमानपूर्वक अपनी समृद्धि, शक्ति, क्षमता, विभूति आदि प्रकट करना (8) अपकर्ष-अपने से दूसरे को तुच्छ बताना, अभिमान से अपना या दूसरों का अपकर्ष करना, (10) उन्नत-नमन से दूर रहना, अभिमानपूर्वक तने रहना-अक्खड़ रहना / अथवा उन्नय-अभिमान से नीति-न्याय का त्याग करना / (11) उन्नाय -वन्दनयोग्य पुरुष को भी वन्दन न करना, अथवा अपने को नमन करने वाले पुरुष के प्रति मदवश उपेक्षा करना-सद्भाव न रखना / और (12) दुर्नाम---बन्ध पुरुष को अभिमानवश बुरे ढंग से बन्दन-नमन करना / स्तम्भादि सभी मान के कार्य हैं अथवा मानवाचक शब्द हैं / माया और उसके एकार्थक शब्दों का विशेषार्थ-~-(१) माया-छल-कपट करना, (2) उपधि -~किसी को ठगने के लिए उसके समीप जाने का दुर्भाव करना, (3) निकृति किसी के प्रति आदरसम्मान बताकर फिर उसे ठगना; अथवा पूर्वकृत मायाचार को छिपाने के लिए दूसरी माया करना / (4) वलय-बलय की तरह गोल-गोल (वक्र) वचन कहना या अपने चक्कर में फंसाना, वाग्जाल में फंसाना / (5) गहन--दूसरे को मूढ़ बनाने के लिए गूढ (गहन) वचन का जाल रचना / अथवा दूसरे की समझ में न आए, ऐसे गहन (गूढ) अर्थ वाले शब्द-प्रयोग करना / (6) नूम-दूसर -दुसरों को ठगने के लिए नीचता का या निम्नस्थान का प्राश्रय लेना / (7) कल्क कल्क अर्थात् हिसारूप पाप, उस पाप के निमित्त से वंचना करने का अभिप्राय भी कल्क है / (8) कुरूपा-कुत्सित रूप से मोह उत्पन्न करके ठगने की प्रवृत्ति / (8) जिह्मता—कुटिलता दूसरे को ठगने की नीयत से क्रियामन्दता या वक्रता अपनाना / (10) किल्विष -माया विशेषपूर्वक किल्विषिता अपनाना, किल्बिषी जैसी प्रवृत्ति करना / (11) यावरणता-याचरणता)—मायाचार से किसी का आदर करना, अथवा किसी वस्तु या वेष को अपनाना, अथवा दूसरों को ठगने के लिए विविध क्रियाओं का आचरण करना / (12) गृहनताअपने स्वरूप को गूहन करना-छिपाना / (१३)वंचनता-~-दूसरों को ठगना / (14) प्रतिकुञ्चनतासरलभाव से कहे हुए वाक्य का खण्डन करना या विपरीत अर्थ लगाना और / (15) सातियोग-~अविश्वासपूर्ण सम्बन्ध, अथवा उत्कष्ट द्रव्य के साथ निकृष्ट द्रव्य का संयोग कर देना। ये सभी माया के पर्यायवाचक शब्द हैं। लोभ और उसके समानार्थक शब्दों का विशेषार्थ-(१) लोभ-यह लोभ कषाय का वाचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org