________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] पदार्थों से उपचरित पाठ भद्रासन रखवाए। तत्पश्चात अपने से न अतिदुर और न अतिनिकट अनेक प्रकार के मणिरत्नों से सुशोभित, अत्यधिक दर्शनीय, बहुमूल्य श्रेष्ठ पट्टन में निर्मित सूक्ष्म पट पर सैकड़ों चित्रों की रचना से व्याप्त, ईहामृग, वृषभ आदि के यावत् पद्मलता के चित्र से युक्त, एक आभ्यन्तरिक (अंदर की) यवनिका (पी.) लगवाई। (उस पर्दे के अन्दर) अनेक प्रकार के मणिरत्नों से एवं चित्रों से रचित विचित्र खोली (अस्तर) वाले, कोमल वस्त्र (मसूरक) से आच्छादित, तथा श्वेत वस्त्र चढ़ाया हा, अंगों को सुखद स्पर्श वाला तथा सुकोमल गद्दीयुक्त एक भद्रासन रखवा दिया। फिर बलराजा ने क्षपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही अष्टांग महानिमित्त के सूत्र और अर्थ के ज्ञाता, विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्न-शास्त्र के पाठकों को बुला लायो / 30, तए णं ते कोड बियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति पडि० 2 सिग्घं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हस्थिणापुर नगरं मझमझेणं जेणेव तेसि सुविणलक्खणपाढ. गाणं गिहाई तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ ते सुविणलक्खणपाढए सहावेति / [30] इस पर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् राजा का आदेश स्वीकार किया और राजा के पास से निकले / फिर वे शीघ्र, चपलता युक्त, त्वरित, उग्र (चण्ड) एवं बेग बाली तीव्र गति से हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर जहाँ उन स्वप्नलक्षण-पाठकों के घर थे, वहाँ पहुँचे और उन्हें राजाज्ञा सूनाई। इस प्रकार स्वप्नलक्षणपाठकों को उन्होंने बुलाया। 31. तए गंते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रणो कोडुबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हट्ठतुट्ट० व्हाया कय० जाव सरोरा सिद्धत्थग-हरियालियकयमंगलमुद्धाणा सहि सएहि गिहेहितो निम्गच्छति, स०नि० 2 हथिणापुरं नयरं मज्भमझणं जेणेव बलस्स रण्णो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उ० 2 भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगतो मिलंति, ए० मि० 2 जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० 2 करयल० बलं रायं जएणं विजएणं बद्धाति / तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा बंदियपूइयसकारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुन्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति / / [31] वे स्वप्नलक्षण-पाठक भी बलराजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाए जाने पर अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने स्तानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत किया / फिर वे अपने मस्तक पर सरसों और हरी दूब से मंगल करके अपने-अपने घर से निकले, और हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर जहाँ बलराजा का उत्तम शिखररूप राज्य-प्रासाद था, वहाँ आए। उस उत्तम राजभवन के द्वार पर वे स्वप्नपाठक एकत्रित होकर मिले और जहाँ राजा की बाहरी उपस्थानशाला थी, वहाँ सभी मिल कर पाए। बलराजा के पास आ कर, उन्होंने हाथ जोड़ कर बलराजा को 'जय हो, विजय हो' आदि शब्दों से बधाया। बलराजा द्वारा वन्दित, पूजित, सत्कारित एवं सम्मानित किये गए वे स्वप्नलक्षण-पाठक प्रत्येक के लिए पहले से बिछाए किसे हुए उन भद्रासनों पर बैठे। विवेचन-सिंहासनस्थ बलराजा द्वारा उपस्थानशाला में भद्रासन स्थापित कराना / एवं स्वप्नपाठक आमंत्रित करना-प्रस्तुत तीन सूत्रों (26 से 31) में निम्नोक्त वृत्तान्त प्रस्तुत किये गए हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org