________________ 72 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देसभाए पंचवष्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुवकधूवमघमघंतगंधुद्धताभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधट्टिभूते तसि तारिसर्गसि सणिज्जसि सालिंगणवट्टोए उभयो बिब्बोयणे दुहओ उन्नए मज्झे णय-गंभीरे गंगापुलिणवालुयउद्दालसालिसए ओवियखोमियदुगुल्लपट्टपलिच्छायणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयगोवयारकलिए प्रद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहोरमागी ओहीरमाणी अयमेयारूवं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। हार-रयय. खीर-सागर-ससंककिरण-दगरय-रययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिज्जपेच्छणिज्ज थिरलट्ठपउद्ववट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिद्धतिक्खदादाविडंबितमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइयसोभंतल?उठें रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजोहं मूसागयपवर कणगतावितआवत्तायंतवट्टतडिविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरुपडिपुण्णविपुलखंधं मिउविसदसुहमलक्खणपसत्थविस्थिण्णकेसरसडोवसोभियं ऊसियसुनिमितसुजातअप्फोडितणंगूलं सोमं सोमाकारं लोलायंतं जंभायंतं नहलातो ओवयमाणं निययवदणकमलसरमतिवयंत सोहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। |23] किसी दिन वह प्रभावती देवी उस प्रकार के वासगृह के भीतर, उस प्रकार की अनुपम शय्या पर (सोई हुई थी।) (वह वासगृह) भीतर से चित्रकर्म से युक्त तथा बाहर से सफेदी किया हया, एवं घिस कर चिकना बनाया हुआ था। जिसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से देदीप्यमान था। मणियों और रत्नों के कारण उस (वासभवन) का अन्धकार नष्ट हो गया था। उसका भूभाग बहुतसम और सुविभक्त था। (फिर वह) पांच वर्ण के सरस और सुगन्धित पुष्पजों के उपचार से युक्त था। उत्तम कालागुरु (काला अगर), कुन्दरुक और तुरुष्क शिलारस) के धूप से वह वासभवन चारों ओर से महक रहा धा। उसकी सुगन्ध से वह अभिराम तथा सुगन्धित पदार्थों से सुवासित था। एक तरह से वह सुगन्धित द्रव्य की गुटिका के जैसा हो रहा था। ऐसे आवासभवन में जो शय्या थी, वह अपने आप में अद्वितीय थी, तथा शरीर से स्पर्श करते नए उपधान (पार्ववर्ती तकिये) से युक्त थी। फिर उस (शय्या) के दोनों (सिरहाने और पादतल की ओर तकिये रखे हुए थे। वह (शय्या) दोनों ओर से उन्नत थी, बीच में कुछ झुकी हुई एवं गहरी थी, एवं गंगानदी की तटवर्ती बालू के अवदाल (पैर रखते ही नीचे धस जाने) के समान (अत्यन्त कोमल) थी। वह परिकमित (मुलायम बनाए हुए) क्षौमिक (रेशमी) दुकूलपट (चादर) से आच्छादित तथा सुन्दर सुरचित रजस्त्राण से युक्त थी। रक्तांशुक (लाल रंग के सूक्ष्म वस्त्र) की मच्छरदानी उस पर लगी हुई थी। वह सुरम्य प्राजिनक (एक प्रकार के कोमल चर्मवस्त्र), रूई, बुर, नवनीत (मक्खन) तथा अर्कतूल (आर्क को रूई) के समान कोमल स्पर्श वाली थी; तथा सुगन्धित श्रेष्ठपुष्प, चूर्ण एवं शयनोपचार (शयनोपकरण) से युक्त थी। ऐसी शय्या पर सोती हुई प्रभावती रानी, जब अर्धरात्रिकाल के समय कुछ सोती-कुछ जागती अर्धनिद्रित अवस्था में थी, तब स्वप्न क्रिया में इस प्रकार का उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलकारक एवं शोभायुक्त (सश्रीक) महास्वप्न देखा और जागृत हुई। प्रभावती रानी ने स्वप्न में एक सिंह देखा, जो (मोतियों के) हार, रजत (चांदी), क्षीरसमुद्र, चन्द्रकिरण, जलकण, रजतमहाशैल के समान श्वेत वर्ण वाला था, (साथ ही,) वह विशाल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org