Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णदास संस्कृत सीरीज १७२ महाकविप्रवरसेनमहीपतिप्रणीतं सेतुबन्धमहाकाव्यम् काद 3णदास वाराणसी कृष्णदास अकादमी, वाराणसी Ponarcom Ronald-C nanesanelibra Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णदास संस्कृत सीरीज १७२ ***** महाकविप्रवरसेनमहीपतिप्रणीतं (दशमुखवधापरनामकं ) सतबन्धमहाकाव्यम् श्रीरामदासभूपतिप्रणीत-रामसेतुप्रदीपाख्यसंस्कृतव्याख्या समन्वितविमलाख्यहिन्दीटीकासंवलितम् हिन्दीटीकाकारः पं० रामनाथ त्रिपाठी शास्त्री जबाव कृष्णदास अकादमी, वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : कृष्णदास अकादमी, वाराणसी मुद्रक : चौखम्बा प्रेस, वाराणसी संस्करण : प्रथम, वि० संवत् २०५८, सन् २००२ ISBN : 81-218-0089-7 © कृष्णदास अकादमी के० ३७/११८, गोपाल मन्दिर लेन निकट गोलघर ( मैदागिन ) पो० बा० नं० १११८, बाराणसी-२२१००१ ( भारत ) फोन : ३३५०२. अपरं च प्राप्तिस्थानम् चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस के० ३७/६६, गोपाल मन्दिर लेन निकट गोलघर ( मैदागिन ) पो० बा० नं० १००८%, वाराणसी-२२१००१ (भारत) फोन आफिस : ३३३४५८ आवास : ३३४०३२ एवं ३३५०२० e. mail : cssoffice @ satyam. net.in Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KRISHNADAS SANSKRIT SERIES 172 ****** SETUBANDHA MAHAKAVYA OF PRAVARASENA with 'Ramasetupradip' Sanskrit Commentary by Sri Ramadas Bhupati and Vimala' Hindi Commentary By Pt. RAMNATH TRIPATHI SHASTRI किादमी PB310. VARER CRATORA Kirishnadas Academy VARANASI Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher : Krishnadas Acadomy, Varanasi. Printer : Chowkhamba Press, Varanasi. ISBN : 81-218-0089-7 © KRISHNADAS ACADEMY K. 37/118, Gopal Mandir Lane Near Golghar (Maidagin), Post Box No. 1118 Varanasi-221001 ( India ) Phone : 335020 Also can be had from : CHOWKHAMBA SANSKRIT SERIES OFFICE K. 37/99, Gopal Mandir Lane Near Golghar (Maidagin) Post Box No. 1008, Varanasi-221001 ( India ) Phone Office : 333458 Phone : Res. : 334039 & 335020 E-Mail : css office @ satyam. net. in Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण दिवङ्गता ममतामयी माता 'सरयू देवी' की पुण्य स्मृति में Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा को सर्वथा सम्पन्न बनाने के लिये जहाँ ज्ञान, विज्ञान, शिल्प, कला आदि विषयों के मूर्धन्य विद्वान् अपने-अपने विषय के मौलिक ग्रन्थों की रचना हिन्दी में करने का प्रयास कर रहे हैं तथा विश्व की विभिन्न भाषाओं के विद्वान् तत्तद् भाषाओं में रचित प्रमुख कृतियों को हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करने में संलग्न हैं, वहीं संस्कृतज्ञ हिन्दी-प्रेमियों के लिए भी इस महान् राष्ट्रिय अनुष्ठान में पूर्ण निष्ठा के साथ सहयोग देना अनिवार्य हो गया है। यह प्रसन्नता का विषय है कि संस्कृत के हमारे अनेक गण्यमान्य विद्वान् इस दिशा में कार्य आरम्भ कर चुके हैं, जिसके फलस्वरूप संस्कृत के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी में आ चुके हैं तथापि अभी बहुत कार्य करना शेष है। इसी कर्तव्यनिर्वाह के उद्देश्य से 'विमला' हिन्दी व्याख्योपेत आचार्य प्रवरसेनविरचित प्राकृत भाषा का 'सेतुबन्ध' महाकाव्य हिन्दीप्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत है । इसके दुरूह स्थलों पर श्रीरामदास भूपतिप्रणीत 'रामसेतुप्रदीप' संस्कृत व्याख्या से मुझे सतत प्रकाश मिला है, एतदर्थं उनके प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। मेरे पुत्र-निविशेष श्री वेदप्रकाश द्विवेदी 'प्रकाश' ने पाण्डुलिपि तैयार करने में मेरी जो सहायता की है उसके लिये उन्हें सस्नेह आशीर्वाद है। डॉ. रमाकान्त त्रिपाठी, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, डिग्री कालेज मठलार ( देवरिया ) ने भूमिका लिखने का जो कष्ट किया है, उसके लिये उन्हें क्या कहूँ, वे तो मेरे आत्मज ही हैं। अन्य जिन विद्वानों की कृतियों से मुझे तनिक भी सहायता मिली है, उनके प्रति सदा आभारी हूँ। प्रस्तुत महाकाव्य की इस हिन्दी व्याख्या से यदि हिन्दी के सांस्कृतिक चिन्तन-प्रवाह को अनुकूल गतिशील होने में तनिक भी सहायता मिली और हिन्दी-प्रेमियों को सन्तोष हुआ तो मैं अपने को कृतकृत्य समझंगा। राष्ट्रभाषा के अनन्य सेवाव्रती, चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी के सञ्चालकबन्धुओं के प्रति मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों के होते भी इसे प्रकाशित कर सबके लिये सुलभ बनाया । अन्त में अज्ञानवश अथवा प्रमादवथ हुई सकल त्रुटियों के लिये नतमस्तक हूँ । इति श्रीरामनवमी, २०२८ वैक्रमाब्द फैजाबाद विद्वद्विधेय :रामनाथ त्रिपाठी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इस प्रस्तुत महाकाव्य का नाम 'रावणवध' अथवा 'दशमुखवध' है, क्योंकि ग्रन्थसमाप्तिपरक स्कन्धक में 'रावणवध' और प्रत्येक आश्वास की समाप्ति पर 'दहमुहवह' ( दशमुखवध ) नाम निर्दिष्ट किया गया है 'एत्थ समप्पइ एअं सीतालम्भेण जणिअरामब्भुअअम् । रावणवह त्ति कव्वं अणुराअङ्कं समत्थजणणिव्वेसम् ॥ [ अत्र समाप्यत एतत् सीतालम्भेन जनितरामाभ्युदयम् । रावणवध इति काव्यमनुरागाङ्क समस्तजननिद्वेषम् ॥ ] ( सेतुबन्ध, १५- ६५ ) 'इअ सिरिपवरसेणविरइए दहमुहवहे (इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे )' t आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श नामक ग्रन्थ में इसी महाकाव्य का दूसरा नाम 'सेतुबन्ध' दिया है- 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ||' काव्य - जगत् में यह महाकाव्य 'सेतुबन्ध' नाम से ही प्रसिद्ध है । प्रस्तुत महाकाव्य के प्रथम और द्वितीय आश्वास के अन्त में समाप्तिपरक वाक्यांश है - 'इअ सिरिपवरसेणविरइए दहमुहवहे महाकव्वे ( इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे महाकाव्ये )' । शेष तीसरे आश्वास से अन्तिम पन्द्रहवें आश्वास तक के प्रत्येक आश्वास के समाप्तिपरक वाक्य में 'कालिदासकए ( कालिदासकृते ) ' इतना और यथास्थान जुड़ा हुआ है । इसलिये ग्रन्थकर्ता के विषय में दो पक्षों का उठ खड़ा होना स्वाभाविक है । ( काव्यादर्श, १ - ३४ ) प्रथम पक्ष - यह श्रीप्रवरसेन महाराज की कृति है । इस पक्ष के समर्थन में अनेक प्रमाण मिलते हैं 'कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला । सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना ।।' ( महाकवि बाणकृत हर्षचरित से उद्धृत ) 'यथा ( सेतुबन्धे १-२ ) प्रवरसेनस्य दणुइन्दरुहिरलग्गे जस्स फरन्ते णहप्पहाविच्छड्डे । गुप्पन्ती विवलाआ गलिभ व्व थणंसुए महासुरलच्छी ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ दनुजेन्द्ररुधिरलग्ने यस्य स्फुरति नखप्रभाविच्छ । व्याकुला विपलायिता गलित इव स्तनांशुके महासुरलक्ष्मीः ।।] । महाकवि क्षेमेन्द्रकृत 'औचित्यविचारचर्चा' से ) द्वितीय पक्ष-यह ( सेतुबन्ध ) काव्य श्रीप्रवरसेन महाराज द्वारा रचाया गया ( उसके निमित्त) कालिदास द्वारा रचा गया है । इस पक्ष में इसी महाकाव्य की 'रामसेतुप्रदीप' टीका के कर्ता रामदास भूपति के वचन प्रमाण हैं धीराणां काव्यचर्चाचतुरिमविधये विक्रमादित्यवाचा यं चक्र कालिदासः कविकुमुदविधुः सेतुनामप्रबन्धम् । तद्वयाख्या सौष्ठवार्थ परिषदि कुरुते रामदासः स एव । ग्रन्थं जल्लालदीन्द्रक्षितिपतिवचसा रामसेतुप्रदीपम् ॥' ('रामसेतुप्रदीप' टीका का उपक्रम ) 'इह तावन्महाराजप्रवरसेननिमित्तं महाराजाधिराजविक्रमादित्याज्ञया निखिलकविचक्रचूडामणिः कालिदासमहाशयः मेतुबन्धप्रबन्धं चिकीर्षुर्नि विघ्नसमाप्त्यर्थ रामचन्द्रात्मकमधुमथनरूपाभीष्टदेवतानमस्कारोपदेशमुखेन मङ्गलमाचरन्नाह' ('रामसेतुप्रदीप' टीका में प्रथम स्कन्धक की अवतरणिका) 'काव्यकथा कीदृशी । अभिनवेन राज्ञा प्रवरसेनेनारब्धा । कालिदासद्वारा तस्यैव कृतिरियमित्याशयः ।' ( सेतुबन्ध १-९ की 'रामसेतु प्रदीप' टीका का अंश) 'रामसेतुप्रदीप' टीका के कर्ता रामदास भूपति ने प्रथम आश्वास के नवें स्कन्धक की टीका में लिखा है-'प्रवरसेनो भोजदेव इति केचित् ।' इसके अनुसार प्रवरसेन से तात्पर्य भोजदेव का है, किन्तु यह कथन मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि भोजदेव से पहिले, सातवीं शतान्दी में उत्पन्न महाकवि बाण द्वारा हर्षचरित में प्रवरसेन का स्मरण किया जाना असंगत हो जाता है । __इतिहास में प्रवरसेन नाम के चार राजा मिलते हैं। दो काश्मीरी राजा हैं और दो वाकाटक वंश के हैं। __ दोनों कश्मीरी प्रवरसेन नामक राजाओं का वर्णन कह्नण ने राजतरङ्गिणी में किया है। राजतरङ्गिणी के अनुसार हिसाब लगाने पर ज्ञात होता है कि प्रवरसेन प्रथम ने काश्मीर मण्डल में ५८ ई० से ८८ ई० तक राज्य किया था। उसके दो पुत्र थे। ज्येष्ठ था हिरण्य और कनिष्ट था तोरमाण । इसी तोरमाण का पुत्र था प्रवरसेन द्वितीय । तोरमाण के मर जाने पर प्रवरसेन द्वितीय तीर्थयात्रा पर चला गया। प्रवरसेन प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हिरण्य सिंहासनारूढ हुआ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] और उसने ३१ वर्ष राज्य किया, अन्त में वह निःसन्तान ही मर गया । उस समय उज्जयिनी में हर्षोपनामक विक्रमादित्य चक्रवर्ती राजा थातत्रानेहस्युज्जयिन्यां श्रीमान् हर्षापराभिधः । एकच्छत्रश्चक्रवर्ती विक्रमादित्य इत्यभूत् ॥ ( राजतरंगिणी, ३ - १२५ ) विक्रमादित्य ने नृपविहीन काश्मीर के राजसिंहासन पर मातृगुप्त को बैठाया । विक्रमादित्य के मर जाने पर मातृगुप्त काश्मीर मण्डल छोड़ कर काशी में रहने लगा । प्रवरसेन द्वितीय ने तदनन्तर राज्यभार सँभाला । इस प्रकार द्वितीय प्रवरसेन का राज्यकाल द्वितीय शताब्दी ई० निश्चित होता है । इस प्रकार यद्यपि प्रवरसेन द्वितीय और विक्रमादित्य समकालीन थे, किन्तु उनका राज्य समकालक नहीं था । राजतरङ्गिणी में कालिदास और सेतुबन्ध काव्य का नाम तक भी नहीं है, अतः कहना पड़ता है कि प्रवरसेन द्वितीय ने न तो स्वयं सेतुबन्ध लिखा है और न ही विक्रमादित्य के राज्य करते समय वह राजा ही था कि विक्रमादित्य की आज्ञा से उसके निमित्त कालिदास सेतुबन्ध लिखता । यदि यह कहा जाय कि मातृगुप्त काश्मीर मण्डल छोड़ कर जब काशी में रहने लगा उस समय प्रवरसेन द्वितीय से उसकी मैत्री थी । मातृगुप्त का ही दूसरा नाम कालिदास था ओर ( कालिदास ) नाम से मातृगुप्त ने ही सेतुबन्ध की रचना प्रवरसेन द्वितीय के निमित्त की, तो यह कथन भी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि मातृगुप्त और कालिदास यदि एक ही व्यक्ति के दो नाम होते तो औचित्य विचारचर्चा आदि ग्रन्थों में 'यथा मातृगुप्तस्य यथा कालिदासस्य' यह पृथक्-पृथक् नाम क्यों मिलता । , अब वाकाटक वंश के दोनों प्रवरसेननामक राजाओं पर विचार किया जाता है । जिस समय उत्तर भारत में गुप्तनरेशों का गौरवपूर्ण एवम् आदरणीय स्थान था उसी समय सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, बरार एवं दक्षिण भारत में वाकाटकों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था | वाकाटक वंश का प्रथम शासक विन्ध्यशक्ति था । विन्ध्यशक्ति के पश्चात् उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम २७५ ई० में सिंहासनारूढ हुआ । प्रवरसेन प्रथम के पश्चात् उसका पोत्र रुद्रसेन प्रथम शासक हुआ । तत्पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम ३६० ई० में सिंहासन पर बैठा । २५ वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् ३८५ ई० में पृथ्वीषेण प्रथम का देहावसान हो गया । तत्पश्चात् उसका पुत्र रुद्रसेन द्वितीय सिंहासनारूढ हुआ । इसी रुद्रसेन द्वितीय १. जे ० डुब्रोल, 'Ancient History of the Deccan के आधार पर । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] से गुप्तसम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने अपनी कन्या प्रभावती गुप्त का विवाह किया था, जिसके दो पुत्र थे-दिवाकरसेन और दामोदरसेन । ३६० ई० में रुद्रसेन द्वितीय का आकस्मिक देहावसान हो जाने पर उसकी स्त्री प्रभावती गुप्त ने राजकाज सँभाला। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने शासनसम्बन्धी सहयोग देने के साथ-साथ राजकुमारों ( दिवाकरसेन और दामोदरसेन ) की शिक्षा-दीक्षा की भी व्यवस्था की और सम्भवतः महाकवि कालिदास इन कुमारों के शिक्षक रहे। राजकुमार दिवाकरसेन की असमय में ही मृत्यु हो जाने पर प्रभावती गुप्त ने कुछ दिन और संरक्षण कर ४१० ई० में राजकुमार दामोदर मेन को सिंहासनारूढ किया, जो प्रवरसेन द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रवरसेन द्वितीय में राज्य की अपेक्षा कला के लिए विशेष अनुराग था और कहा जाता है कि सेतुबन्ध नामक काव्य की रचना भी इसने की थी। उक्त कथन से वाकाटकवंशीय प्रवरसेन द्वितीय सेतुबन्ध का रचयिता प्रतीत होता है। किन्तु इस किंवदन्ती के अतिरिक्त अन्य कोई प्रबल प्रमाण न मिलने के कारण यह सन्देहास्पद ही रह जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि ऊपर दिखाया जा चुका है कि महाकवि कालिदास प्रवरसेन द्वितीय (जन्मनाम दामोदरसेन ) के शिक्षक रह चुके थे, अतः उसके राजा होने पर शिष्यवत्सल कवि कालिदास ने उसके निमित्तही सेतुबन्ध की रचना की होगी । इस कथन की मान्यता में अनेक आपत्तियाँ हैं। ऊपर प्रवरसेन द्वितीय का कालिदास के गुरु होने की संभावना ही 'सम्भवतः' शब्द से दिखायी गयी है, कोई प्रबल प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया है। दूसरे यह तभी मान्य होगा जब यह निश्चित रूप में मान लिया जाय कि महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के आश्रित थे। कालिदास के समय के विषय में विद्वानों में बड़ा विवाद है। अभी तक उनके उचित समयनिरूपण में इतिहासकार एकमत नहीं हो सके हैं। अतः प्रबल प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किस प्रवरसेन ने सेतुबन्ध की रचना की है और न यही कहा जा सकता है कि प्रवरसेन के निमित्त महाकवि कालिदास ने इसकी रचना की है। जो कुछ भी हो, यह प्राकृत भाषा का समस्त लक्षणसम्पन्न एक उत्कृष्ट महाकाव्य है, जिसका समादर विद्वत्समाज सदा से करता आया है और परवर्ती १. रतिभानु सिंह नाहर, एम० ए०, डी० फिल० के, 'प्राचीन भारत का राज नीतिक और सांस्कृतिक इतिहास' (किताब महल, इलाहाबाद से प्रकाशित ) के आधार पर। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] आचार्यों ने अपने लक्षणग्रन्थों में इसके पद्यों को उदाहरणस्वरूप निविष्ट कर इसके गौरव को मान्यता प्रदान की है। ____काव्यात्मकता की दृष्टि से संस्कृत और प्राकृत के महाकाव्यों में कोई भेद नहीं होता। संस्कृत में जहाँ सर्गबद्ध रचना होती है, वहीं प्राकृत में आश्वास - बद्ध ! उन आश्वासों में जो छन्द प्रयुक्त हुआ करते हैं वे अधिकतर 'स्कन्धक' अथवा 'गलितक' नाम के छन्द हआ करते हैं। इस भेद को भी कोई भेद नहीं समझा जाना चाहिये, क्योंकि यह प्राचीन निर्माण-परम्परा का अनुसरण मात्र है, न कि अन्य कुछ । इस (सेतुबन्ध) महाकाव्य में कुल पन्द्रह आश्वास हैं। इसके नायक दाशरथि राम हैं, जो धीरोदात्त एवं मधुमथन (विष्णु ) के अवतार हैं । रसाभिव्यञ्जन की दुष्टि से इस महाकाव्य में वीररस 'अङ्गी' (प्रधान) रूप से परिपुष्ट किया गया है और अन्य रस 'अङ्ग' अथवा 'अप्रधान' रूप से अभिव्यक्त किये गये हैं। इति वृत्त-योजना की दृष्टि से महापुरुष राम के जीवन से सम्बद्ध प्रसिद्ध वृत्त 'समुद्र पर सेतु की रचना कर समुद्र पार कर लंका पर चढ़ाई करना, निशाचरों समेत रावण का संहार कर सीता का उद्धार करना' वर्णित है। महाकाव्य की इन स्वरूप-संगत विशेषताओं के अतिरिक्त महाकाव्य की अन्यान्य विशेषतायें भी इसमें पायी जाती हैं। सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणाम् । आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् ।। इस भरत-वचन के अनुसार कवि ने मधुमथन के नमस्कारोपदेश से ग्रन्थ के आरम्भ में मानुषशरीर श्रीरामावतार का ही कथन कर वस्तुनिर्देश किया है अथवा 'मधुमथनं' पद में श्लेष के आधार से आगे वर्णनीय समुद्र और सेतु के नमस्कारात्मक मंगल से वस्तुनिर्देश की ही ओर संकेत किया है (देखिये १११) । आचार्य मम्मट द्वारा निर्दिष्ट काव्यप्रयोजन' ( काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहार विदे शिवेत रक्षतये। सद्यः परनिर्वत्तये कान्तासम्मितत योपदेशयुजे । ) यश प्राप्ति, अर्थलाभ, लोकव्यवहार-ज्ञान, अमङ्गल-नाश, रसास्वाद और सर. सोपदेश सर्वविदित ही है । 'सेतुबन्ध' के कवि ने अपने काव्य का प्रयोजन विशिष्ट ज्ञानवर्धन, यश प्राप्ति, विवेकादि गुणों का अर्जन, ( रामादि ) सत्पुरुषों का चरित श्रवण आदि बताया है ( देखिये १.१० ) १. 'महाकाव्यरूपः पुरुषार्थफलः समस्तवस्तुवर्णनाप्रबन्धः सर्गबन्धः संस्कृत एव ।' (ध्वन्यालोकलोचन तृतीय उद्योत ) २. 'प्राकृतनिर्मिते तस्मिन्सर्गा आश्वाससंज्ञकाः । छन्दसा स्कन्धकेनैतत्क्वचिद्गलितकैरपि ।।' ( साहित्यदर्पण, ६-३२६ ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] इस महाकाव्य का नामकरण-संस्कार वर्ण्य विषय के आधार पर (सेतुबन्ध अथवा दशमुखवध ) किया गया है। इस महाकाव्य के प्रथम आश्वास में यात्रा वर्णन, विन्ध्यगिरि तथा सह्याद्रि का वर्णन, नवम आश्वास में सुवेलगिरि का वर्णन मनोहर ढंग से किया गया है। द्वितीय आश्वास में समुद्र, पञ्चम आश्वास में विप्रलम्भ, प्रभात, दशम आश्वास में दिवसावसान, सन्ध्या, चन्द्र, सम्भोग, एकादश आश्वास में विप्रलम्भ, द्वादश आश्वास में प्रभात तथा त्रयोदश आश्वास तक युद्ध की वर्णन-योजना की गयी है। इस महाकाव्य के प्रथम आश्वास में शरद ऋतु का वर्णन मिलता है। कथावस्तु के आरम्भ और पर्यवसान के मध्य का समय लम्बा न होने के कारण अन्य ऋतुओं के वर्णन का प्रसङ्ग आ ही नहीं सका, अतः कवि ने शरद ऋतुवर्णन में ही अपनी पूरी शक्ति लगा दी है, जिससे ऐसा शरद् ऋतु-वर्णन अन्य काव्यों में दुर्लभ है। कवि ने इसमें कवि-परम्परागत वर्ण्य विषयों का ही अपने मौलिक ढंग से ऐसा वर्णन किया है कि पाठकों को वे चिरप्राचीन विषय भी नवीन विषय का-सा आनन्द देते हैं । नमूने के लिये इन्द्रधनुष का वर्णन देखिये-नायक वर्षा भर घर रह कर शरद् ऋतु में प्रिया के स्तर पर सतत स्मरणार्थ नखक्षत कर परदेश जाता है । आरम्भ में वह नखक्षत लाल रहता है, बाद में धीरे-धीरे म्लान होने लगता है। इन्द्रधनुष भी शरद ऋतु में पहिले तो लाल रहता है, फिर धीरे-धीरे म्लान होने लगता है। अतः कवि ने इन्द्र. धनुष को रखक्षत, वर्षाकाल को नायक, दिशाओं को नायिका, पयोधर ( मेव) को पयोधर ( स्तन ) का रूप देकर इन्द्रधनुष का मनोरम वर्णन किया है ( देखिये १-२४ )। शरद् ऋतु में सरोवरों का जल घट जाने पर लोग कमल, मृणालदण्ड आदि तोड़ते एवम् उखाड़ते हैं। मृणाल उखाड़ने पर शिथिल वलय वाली पद्मिनी को रतिकालीन कर-परामर्श से शिथिल वलयवाली पदिमनी ( प्रिया) समझ कर तथा मधुमय, अतएव थोड़ा लाल और भ्रमरी के मधुर ध्वनि से युक्त कमल को उसका मुख समझ कर लोग चुम्बनादि के लिये खींचते हैं ( देखिये १-३० ) ॥ कवि ने संभोग शृङ्गार-विप्रलम्भ शृङ्गारादि रसों के प्रकरण में तदनुकूल ही माधुर्यगुणपूर्ण, समास-रहित अथवा छोटे-छोटे समास वाले मधु रपदों की तथा वीररौद्रादि रसों के प्रकरण में तदनुकूल ही ओजगुणपूर्ण, दीर्घसमास वाले औद्धत्यपूर्ण पदों की योजना कर अपने काव्य-कौशल का अच्छा परिचय दिया है। काव्य में समान रूप से 'प्रसाद' गुण की विद्यमानता कवि की सशक्त एवम् उचित पदयोजना की परिचायिका है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] सामने विशाल एवं दुर्लङ्घय समुद्र को देख कर हतोत्साह एवं निराश वानरों के प्रति कवि ने पूरे तृतीय आश्वास भर में सुग्रीव के मुख से जो वचन कहलवाये हैं उनसे इस संसार के संकटग्रस्त मानवमात्र के हृदय में निःसन्देह उत्साह एवम् आशा का संचार हुये विना नहीं रह सकता और तदनुकूल आचरण कर मनुष्य जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है । 'न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम् ।' भामह की इस सूक्ति के अनुसार प्रस्तुत महाकाव्य में श्लेष, यमक, विरोधाभास, उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, विशेषोक्ति अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, निदर्शना आदि सर्वथा उपादेय अलङ्कारों की भी यथास्थान समुचित योजना की गयी है कवि को उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलङ्कार अत्यन्त प्रिय हैं । ग्रन्य में सर्वत्र इन तीनों अलंकारों के प्रयोग का कौशल दर्शनीय एवं प्रशंसनीय है । इन्हीं ( उपर्युक्त ) विशेषताओं के आधार पर विद्वानों इन महाकाव्य को उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है । 1 रमाकान्त त्रिपाठी स्वामी देवानन्द डिग्री कालेज, म० लार - देवरिया Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ | विषय पृष्ठ ३६३ विषय प्रथम आश्वास षष्ठ आश्वास मङ्गलाचरण ३ | समुद्र का राम की शरण में आना १६० शरद् ऋतु-वर्णन १६ । समुद्र द्वारा राम की स्तुति १६३ लङ्का से हनुमान का लौट कर समुद्र की प्रार्थना पर सेतु के आना और राम से वार्तालाप २६ लिए वानरों का पर्वतों राम का वानरसैन्य के साथ को ले आना २०० लंका-गमन सप्तम आश्वास । सेतुरचना का वर्णन २४४ विन्ध्य गिरि एवं सह्याद्रि दर्शन ४० अष्टम आश्वास राम का कपिसैन्य के साथ ४३ सेनासमेत राम का सेतु से मलयगिरि पर पहुँचना लंकाममन ३३२ राम का कपिसैन्य के साथ समुद्र- ४५ नवम आश्वाश तट पर पहुँचना वानरों का सुवेलदर्शन द्वितीय आश्वास दशम आश्वास समुद्र-वर्णन ४८ । राम-लक्ष्मण सहित वानरों का समुद्र को देखकर वानरों का सुवेल पर आवास हताश होना दिवसावसान वर्णन ३६५ तृतीय आश्वास सन्ध्या -वर्णन सुग्रीव का उत्साहवर्द्धक भाषण ७७ चन्द्रोदय वर्णन ४०८ चतुर्थ आश्वास निशाचर दम्पति-सम्भोग-वर्णन ४१६ वानरों का सोत्साह होना ११३ . एकादश आश्वास जाम्बवान का भाषण १२१ सीता विरहजन्य रावण की विभीषण का राम की शरण में अवस्था का वर्णन ४३५ आना १३६ राम का कटा मायानिमित सिर विभीषण के प्रति राम के सीता को दिखाने के लिए सान्त्वनापूर्ण वचन १४३ | रावण की योजना राम द्वारा विभीषण का अभिषेक १४६ सीता को राम का सिर दिखाने पञ्चम आश्वास हेतु राक्षसों का प्रमद-वनगमन ४५४ राम की विप्रलम्भावस्था का राक्षसों का सीता की दशा देखना ४५५ वर्णन १४७ राम का सिर देख कर सीता प्रभात-वर्णन का व्याकुल होना ४६२ राम-रोष का वर्णन सीता के प्रति त्रिजटा के श्रीराम का धनुर्धारण आश्वासन-वचन ४७७ श्रीराम का समुद्र पर बाण सीता का पुन: प्रलाप ४८४ छोड़ना राम के सिर को सीता द्वारा राम के शराभिधात से समुद्र पुनः देखना ४८८ की अवस्था सीता का मरणोद्यत होना ४८६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय त्रिजटा का पुनः सीता को समझाना सीता का आश्वस्त होना द्वादश आश्वास [ १६ ] पृष्ठ | विषय ४६१ ४६६ प्रभात-वर्णन ५०२ रामोत्थान और युद्ध की तैयारी५१४ ५१७ ५२२ कपिसैन्य का प्रयाण रावणोत्थान और राक्षसों का युद्धार्थ निकलना वानरों का लङ्का को घेरना ५३४ राक्षससेना का सम्मुख पहुँचना ५४१ दोनों सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध प्रारम्भ ५४६ त्रयोदश आश्वास द्वन्द्वयुद्ध वर्णन ५५० राक्षससेना का कभी भागना कभी लोटना ५८२ दोनों सेनाओं का पुनः द्वन्द्वयुद्ध ५८८ अङ्गद और इन्द्रजित् का युद्ध ५६१ इन्द्रजित् का तिरोहित होना ५६६ चतुर्दश आश्वास रावण की अप्राप्ति से खिन्न राम का निशाचरों को मारना ५६७ मेघनाद के द्वारा नागपाश से राम-लक्ष्मण का बाँधा जाना देवताओं और कपियों का निराश होना ६०४ ६११ ६१४ सुग्रीव का मेघनाद को देख कर पीछा करना निशाचरियों द्वारा सीता को राम का पतन दिखाना तथा सीता का मूर्च्छित होना संज्ञाप्राप्त राम का लक्ष्मण के प्रति विलाप ६१५ सुग्रीव के प्रति राम के वचन ६१७ सुग्रीव का प्रतिवचन ६१५ ६१८ अकम्पन का वध नील द्वारा प्रहस्त का वध पञ्चदश आश्वास युद्ध रावण का युद्धभूमि में आना ६३५ वानरों का पलायन ६३७ नील का वानरों के प्रति आश्वासन ६३७ ६३६ राम के बाणों से आहत रावण का भागना कुम्भकर्ण का युद्धभूमि में आना ६३९ राम के बाणों से कुम्भकर्ण वध ६४२ मेघनाद का रावण को युद्धभूमि में जाने से रोकना तथा स्वयम् आना वानरों और मेघनाद का युद्ध यज्ञ के लिए जाते हुए मेघनाद का विभीषण के परामर्श से पृष्ठ ६२७ ६२८ लक्ष्मण द्वारा वध ૪૨ रावण का युद्धभूमि में आगमन ६५१ रावण का लक्ष्मण पर शक्तिप्रहार तथा उसका उपचार राम के लिए मातलि द्वारा इन्द्र के कवच और रथ को लाकर दिया जाना राम-रावण का युद्ध रावण का वध विभीषण का विलाप ६४५ ६४६ ६५४ युद्धोद्यत राम को लक्ष्मण द्वारा रोकना राम का लक्ष्मण को उत्तर ६५४ ६७२ गरुड का आगमन और राम-लक्ष्मण रावण के अन्तिम संस्कार के लिए राम से विभीषण का अनुमति माँगना मातलि को रथ इन्द्र के पास ले जाने के लिए राम की आज्ञा ६७४ अग्निविशुद्धा सीता को लेकर ६२४ / राम का अयोध्यापुरी में पहुँचना ६७४ ६२२ का नागपाश से मुक्त होना धूम्राक्ष और हनुमान् का तथा धूम्राक्ष-वध ६५७ ६५६ ६६१ ६६६ ६७० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ महाकविश्रीप्रवरसेनमहीपतिप्रणोतं ( दशमुखवधापरनामकं ) सतबन्धम 'रामसेतुप्रदीपा'ख्यसंस्कृतव्याख्यासमन्वित "विमला'ख्यहिन्दीटीकया संवलितम् प्रथम आश्वासः असितमहसि सेतौ पट्टिकायामुदञ्चत्तटयुगधनमुक्तावर्णपङ् क्तिद्वयेन । अलिखदिव कठिन्या यत्प्रशस्ति समुद्रः स जयति रघुवंशग्रामणी रामचन्द्रः ।। गङ्गाम्बुस्तिमिताघ्रिमौलि दिनकृत्कन्याम्बुकम्बुप्रभं __ तत्त्वां पातु समुद्रजागिरिजयोरानन्दबीजं 'महः । नाभीपङ्कजनालमूलमिलनात्सव्यांसकूलस्थितो यत्र स्थूलमृणालवल्लितुलनामालम्बते भोगिराट् ।। अद्वैतदन्तकल्पितक रेणुमयवामभागमिभवदनम् । पितुरर्धनागरीकं वपुरनुकुर्वन्तमिव कलये ॥ आ मेरोरा समुद्रादवति वसुमतीं यः प्रतापेन ताव दुरे गाः पाति मृत्योरपि करममुचत्तीर्थवाणिज्यवृत्त्योः । अप्यश्रौषीत्पुराणं जपति च दिनकृन्नाम योगं विधत्ते गङ्गाम्भोभिन्नमम्भो न च पिबति जयत्येष जल्लालदीन्द्रः ।। अनं वङ्गं कलिङ्ग सिलहट-तिपुरा-२कामता-कामरूपा नान्धं कार्णाट-लाट-द्रविड-मरहठ-द्वारका-चोल-पाण्डयान् । भोटान्तं मारुवारोत्कल-मलय-खुरासान-गन्धार-जम्बू काशी-काश्मीर-ठट्ठा-बलख-बदकशा-काबिलान्यः प्रशास्ति ॥ १. हरिहरात्मकम् । २. 'कामता' इति चित्रकूटाचलस्य नामान्तरम् । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [प्रथम कलियुगमहिमापचीयमानश्रुतिसुरभिद्विजधर्मरक्षणाय । धृतसगुणतनुं तमप्रमेयं पुरुषमकब्बरशाहमानतोऽस्मि ।। अंशे रघोरुष्णकरस्य वंशे बभूव राजा कुलदेव एकः । श्रीमानसिंहप्रमुखा जयन्ति यदन्वये संप्रति कच्छवाहाः ।। सूनुस्तस्य विरोधिवारणमदाकूपारकालानलो जङ्घालो रणरङ्गभूमिषु बली यः क्षेमराजोऽभवत् । वीरो दीप्तयशःकदम्बतुलितक्षीरोदनीरोदर स्तस्याजायत पञ्चसायकरुचिर्माणिक्य रायः सुतः ।। एतस्यापि मुकुन्दवन्दनवलत्पुण्यो वदान्यो जग न्मान्यो मोकलरायभूपतिरभूदाक्रान्तभूपान्तरः । तस्मादप्यजनिष्ट बाहुजकुलक्षीराब्धिहीरायितो धीरारायमहीमहेन्द्रतिलको वीरावलीभिः स्तुतः ॥ नापारायनृपः कृपानिधिरभूदस्यापि सूनुर्महा नुद्दामप्रतिपक्षकुञ्जरघटासंघट्टकण्ठीरवः । एष प्रेदशेषशत्रुविजयव्यापारपारङ्गमं पुत्रं पातलरायमायतभुजादण्डोद्धरं लब्धवान् ॥ खानारायस्ततोऽभूदरिदहनधनः प्रौढनाराचधारा ___ पातासाराभिवर्षी समरभुवि लसत्कार्मुको गाढगर्जः । सूनुस्तेनारिसेनाम्बुधिकल शभवोऽलम्भि कन्दर्पकाय श्चन्दारायस्त्रिलोकीतलविशदयशोवीचिनीचीकृतेन्दुः ।। अभवदुदयराजः प्रौढभूभृत्समाजप्रथितगुणगरिष्ठस्तत्सुतो धर्मनिष्ठः । समरभुवि न' के वा निजिता येन देवाधिपतिपुरपुरंध्रीगीतदोविक्रमेण ।। दिनेशभक्त्या जगति प्रकाशस्ततः सुतोऽजायत रामदासः । आसेवते जिष्णुमिव क्षितीन्द्रं यः सर्वभावेन जलालदीन्द्रम् ॥ धीराणां काव्यचर्चाचतुरिमविधये विक्रमादित्यवाचा । यं चक्र कालिदासः कविकुमुदविधुः सेतुनामप्रबन्धम् । तयाख्या सौष्ठवार्थं परिषदि कुरुते रामदासः स एव ग्रन्थं जल्लालदीन्द्रक्षितिपतिवचसा रामसेतुप्रदीपम् ।। इह सविधे साधूनां भविता न कदापि दुर्जनप्रसरः । गरुडोद्गारसमीपे न भवति गरलोद्गमः क्वापि ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् व्याख्यानवसनमनघं दोषमषीम्लानमाचरन्ति खलाः । क्षालयति सपदि साधुः साधुसमाधानदुग्धेन ॥ उद्गिरति रसमुदारं दुर्जन दलितापि मामकी व्याख्या | इक्षुलता माधुर्यं शतश श्छिन्नाधिकं धत्ते ॥ सेतौ दुर्गे यदि विचरितुं वर्तते वः समीहा आश्वासः ] दत्तं स्नेहं तदिह कवयो रामसेतुप्रदीपे । मोहध्वान्ते सपदि शमिते यद्गताभिः शिखाभिः का वा भावानधिगमकथा का च भीः कण्टकेभ्यः ॥ राजाहमायुधविलासवशीकृतोऽहमित्यत्र मा कृतधियः कुरुतावहेलाम् । मद्गोत्र एव जगतीपतिरस्त्रशिक्षादक्षो मनीषिमुकुटं मनुराविरासीत् ॥ इह तावन्महाराज प्रवरसेननिमित्तं महाराजाधिराजविक्रमादित्येनाज्ञप्तो निखिलकविचक्रचूडामणिः कालिदासमहाशयः सेतुबन्धप्रबन्धं चिकीर्षु निविघ्न समाप्त्यर्थं रामचन्द्रात्मकमधुमथनरूपाभीष्ट देवतानमस्कारोपदेशमुखेन मङ्गलमाचरन्नाह - मह् प्रवदिश्रतुङ्ग अवसारिश्रवित्थमं प्रणोणप्रगहिरम् । अप्पलहुपरिसहं प्रणामपरमत्थपानडं महुमहणम् ||१|| [नमतार्वार्धततुङ्गमप्रसारितविस्तृतमनवनतगभीरम् । अप्रलघुकपरिश्लक्ष्णमज्ञातपरमार्थप्रकटं मधुमथनम् ॥ ] [ ३ हे जनाः ! मधुमथनं विष्णुं नमत नमस्कुरुत । तथा चाहमपि तं प्रत्यस्मि प्रणत इत्याक्षेपलभ्यम् । मधु मथ्नातीति मधुमथनस्तमिति कर्तरि ल्युट् । तेन तथाविधदुष्ट दैतेयदमन हेतुनामुना विष्णुना सुदमा विघ्नवराको इति ध्वनितम्। कीदृशं तम् । अवधितश्चासौ तुङ्गश्चेत्यवर्धिततुङ्गस्तम् । अत्रावर्धितस्योर्ध्वदेशावच्छिन्नतारूपतुङ्गताया असम्भवेनाभासमानो विरोधः परमेश्वरस्याजन्यतयेतरकर्तृ कर्वाधितत्वाभावेन परिह्रियते । तथा च विरोधवदाभासते न तु विरोध इति विरोधाभासनामायमलङ्कारः । किं चैतन्मूला विभावनापि संभाव्यते । तदुक्तं दण्डिना --- ' प्रसिद्ध - हेतुव्यावृत्त्या यत्किञ्चित्कारणान्तरम् । यत्र स्वाभाविकत्वं वा विभाव्यं सा विभावना ।।' तथा च तुङ्गत्वे कार्ये वर्धितत्वरूपप्रसिद्ध हेतु व्यावृत्त्या तत्स्वभावत्वं विभो - रवगम्यते । एवमन्यत्रापि विशेषणे । तथाहि पुनः कीदृशम् । अप्रसारितश्चासौ विस्तृतश्चेति तम् । एवमनवनतचासौ गभीरश्चेति तथाविधम् । तथा च तुङ्गत्वविस्तृतत्वगभीरत्वरूपविशेषणत्रयेणोर्ध्वमध्याधः सकलदेशव्यापकत्वमुक्तम् । नन्वीश्वरस्य व्यापकैकरूपत्वे 'ब्रह्मवेदं सर्वम्' इत्यादि प्रतिपन्नजगद्रूपत्वविरोध इत्यत आह - अप्रलघुको महांश्चासौ परिश्लक्ष्णः कृशश्चेति तथा । तथा च स्थूलघटाकाशा दिसूक्ष्मपरमाण्वादिसत्तारूपमित्यर्थः । तथा च श्रुतेरपि ब्रह्मसत्तैव सर्वेषां Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [प्रथम सत्तेत्यत्र तात्पर्यमिति भावः। एवं सति ब्रह्मणः स्थूलसूक्ष्मसकलसत्तात्मकत्वमेव सर्वात्मकत्वमिति स्थिते व्यक्ताव्यक्तत्वविरोधगन्धोऽपि नेत्याह-अज्ञातः परमार्थस्तत्त्वं यस्य तथाविधश्चासौ प्रकटश्चेति तथा। तथा चातीन्द्रियवर्गसत्तारूपत्वेनाप्रत्यक्षपरमार्थमप्यन्द्रिक घटपटादिसत्तारूपत्वेन प्रकटं प्रत्यक्षमित्यर्थः । यद्वा तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यब्रह्माकारवृत्तिरहितानां पूर्णानन्दरूपेण प्रत्यक्षपरमार्थमपि चैतन्यांशेन प्रकटमित्यर्थः। तद्वत्तिमतां तद्रूपेण प्रकटमिति वा । एवं पूर्ववद्विस्तृतत्वादीनामप्रसारितत्वादिभिर्विरोधस्य सत्त्वेऽप्यजन्यतया तत्तदर्थविशेषेण च परिहारश्चिन्तनीयः । 'श्लक्ष्णं दभ्रं कृशं तनु' तथा 'निम्नं गभीरं गम्भीरम्' इत्यमरः । गभीरं दुराकलनीयमिति केचित् । 'ओदवापयोः' इत्यवशब्दस्यौकारादेशेन 'अणो ण अ' इति । एवं च तुङ्गत्वविस्तृतत्वगभीरत्वश्लक्ष्णत्वप्रकटत्वैस्तत्तदर्थविशेषेणाकाशपृथिवीजलानिलतेजःस्वरूपोपस्थापकैस्तत्तद्रूपतया पञ्चभूतात्मक शरीरयोगित्वमप्यस्योक्तम् । तथा च भगवद्गीता---'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥' इति । प्रकृते कर्तव्यग्रन्थनाय को मानुषशरीरः श्रीरामावतार एवोक्त इति वस्तुनिर्देश: कृतः। तदुक्तं भरतेत'सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणम् । आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् ॥' इति संक्षेपः ।। ।। वयं तु-"मधुमथनपदश्लेषेणाग्रे वर्णनीययोः समुद्रसेत्वोर्नतिरूपमङ्गलमुखेन वस्तुनिर्देशमेव कटाक्षयति-तथा हि हे सखे ! मधुमथनं 'समुद्रं नम नमस्कुरु । मधुमथनं मधुजनकं मथनं यस्य तमिति मध्यमपदलोपी समास · । वारुण्याः समुद्रमथनादेवोत्पत्तरिति भावः । अथवा मधुना दानवेन चरणविक्षेपादिना मथनं यस्य तम् । तथा कीदृशम् । हतवधिकतुङ्गम् । हतं च तद्वधि वृद्धि शालि कं जलं कल्लोलरूपं भङ गुरत्वेन शश्वन्नाशवृद्धिशालित्वात्तेन तुङ्गमूर्ध्वाकाशव्यापकम् । पुनः कीदृशम् । अवशार्यविस्तृतम् । अपोऽश्नाति भक्षयतीत्यच्प्रत्ययेनावशो वडवानलः स एवारिः शत्रुस्तेनाविस्तृतमवृद्धिशीलम् । वेलानतिक्रामकत्वात् । अथवा अवसारितविस्तृतम् । अकारो विष्णुर्वकारो बरुणस्ताभ्यां सारितं सारीकृतमितरविलक्षणीकृतम् । तयोस्तत्राधिष्ठानात् । सारितमिति सारशब्दात् 'तत्करोति-' इति णिचि। विस्तृतमिति विभिः पक्षिभिः स्तृतं व्याप्तम् । जलपक्षिबहलत्वात् । अथवा अवसारिकविस्तृतम् । अकारवकारसारशब्दानां विष्णवरुगरत्नादिवाचकत्वात्तद्विशिष्टत्वेनावसारी चासौ कविस्तृतो जलपक्षिव्याप्तश्चेति तम् । यद्वा अपसारितविस्तकम् । अपसारित आकृष्टो विस्तः सुवर्णो यस्मात्तम् । तथा समुद्रस्य सुवर्णाद्याकरत्वेन बहुशस्तदाहरणात् । अ णो ग अ गहिरम् । च नो न १. समुद्रपक्षे छाया-'नम हतवधिकतुङ्गमवशार्यविस्तृतं च नो न च गभीरम् । अप्रलध्वपरिश्लक्ष्णमनाकपरमास्त्रप्रकटं मधुमथनम् ॥' Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५ च गभीरम् । अकारश्चकारविकारः समुच्चये। नो न च गभीरमादुक्तिविशेषेणातिगभीरम् । निषेधद्व यस्य प्रकृतार्थगमकत्वात् । एवमप्र लघ्वपरिश्लक्ष्णं कर्मधारयेण । यत एवाप्रलघुमतिमहान्तमत एवापरिश्लक्ष्णमकृशम् । एवमनाक परमास्त्रप्रकटम् । अनाके मर्त्य एव परमास्त्रेण रामस्याग्नेयशरेण प्रकटमध्यक्षीभूतमिति समुद्रपक्ष: ।। सेतुपक्षे तु हे जना: ! मधु जलं मथ्नात्यवष्टभ्नातीति मधुमथन: सेतुस्तं नमत । विशेषणमहिम्ना रामसेतो भात्तत्सम्बन्धेन च तस्य नमस्यत्वम् । 'मधु क्षौद्रे जले क्षीरे मद्ये पुष्परसेऽपि च' इति विश्वः । कीदृशम् । अवधिततुङ्गमखण्डितोच्चम् । अतिसाग्रमित्यर्थः । चौरादिकस्य वर्धधातोः खण्डनार्थत्वात् । एवमवशार्यविस्तृतम् । अवशोऽनधीनोऽरिः शत्रुर्द शकण्ठो यस्य तादगकारो विष्णुरूपो रामस्तेन विस्तृतं घटितम् । अथवा असारितापम् । प्राकृते पूर्वनिपातानियमादसारि ता अशबलीकृता आपो येन तं प्रतिरुद्ध जलमथ च विस्तृतम् । पर्वतपक्षिव्याप्तमित्यर्थः । अणोणअगहिरम् । अशब्दस्य निषेधवाचक त्वपक्षे अनोनिषेधद्वयेनोक्तिविशेषेण नगगभीरं नगैः पर्वतैर्गभीरम् । कुजादिबाहुल्येन दुराकलनीयमित्यर्थः । पर्वतमयत्वात् । निषेधावाचकत्वेऽकारश्चकारविकार एव । नो इति शिरश्चालनेन पूर्ववदेव नगगभीरमिति बोध्यम् । एवमप्रलघुकपरिश्लक्ष्णम् । अप्रलघुनि महति के समुद्र जले परिश्लक्ष्णं कृशम् । सूत्रायमाणत्वात् । तथा अज्ञातपरमस्तप्रकटम् । अज्ञातं परं परदिग्वति यस्मादेतादृशं यन्मस्तं मस्तकं तेन प्रकटं दूरत एव दृश्यम् ।" इति ब्रूमः । स्कन्धक नाम च्छन्दः । तदुक्तम्---'च उमत्ता' अठगणा पुव्वद्धे उत्तरद्ध होइ सरूआ । सो खन्ध आ विआण हु पिङ्गल पभणेइ मुद्धि बहुसंभेआ' ॥१॥ * विमला * भक्तभ्रमरसंसेव्यं, हेरम्बचरणाम्बुजम् । विघ्नराशिविनाशाय, भूयो भूयो नमाम्यहम् ।। वन्देऽहं पितरं भक्त्या , 'महादेवं' सदाशयम् । मातरं 'सरयं' चैव, श्रद्धयां दैवतं परम् ॥ १. 'चतुर्मात्रा अष्टगणा: पूर्वार्धे भवन्ति सरूपाः । तं स्कन्धकं विजानीत पिङ्गलः प्रभणति मुग्धे बहसंभेदम् ॥' इति च्छाया, 'स्कन्धकमपि तत्कथितं यत्र चतुष्कलगणाष्टकेनाधू स्यात् । तत्तुल्यमग्रिमदलं भवति चतुःषष्टिमात्रिकशरीरमिदम् ।।' एतदपि स्कन्धकलक्षणम् । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [प्रथम सेतुबन्धप्रबन्धस्य, व्याख्येयं क्रियते मया । बालानां सुखबोधाय, प्रीतिदा विमलाभिधा ॥ चिकीर्षित ग्रन्थ के निर्विघ्न समाप्त्यर्थ स्वाभीष्ट देवता के नमस्कारोपदेश के रूप में ग्रन्थकार का मङ्गलाचरण है हे सज्जनवृन्द ! उन [ मधुमथन ] विष्णु को नमस्कार करो ( मैं भी उन्हें प्रणाम कर रहा हूँ ), जो अवर्धित होते हुये भी तुङ्ग, अप्रसारित होते हुये भी विस्तृत, अनवनत होते हुये भी गभीर, स्थूल होते हुये भी सूक्ष्म तथा अज्ञात परमार्थ ( तत्त्व ) वाले होते हुये भी प्रकट हैं । विमर्श-यहाँ 'विरोधाभास' अलङ्कार है । वे ( मधुमथन ) अवर्धित इसलिये हैं; क्योंकि अजन्मा होने के कारण दूसरों से उनका वर्धन नहीं हुआ है और तुङ्ग इसलिये हैं; क्योंकि त्रैलोक्यव्यापक होने से उनकी ऊर्ध्वदेशव्यापकता स्वतःसिद्ध है। अप्रसारित इसलिये हैं; क्योंकि अजन्मा होने के कारण दूसरों से उनका प्रसारण नहीं हुआ है और विस्तृत इमलिये हैं; क्योंकि उनकी त्रैलोक्यव्यापकता से मध्यदेश व्यापकता स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार अन्य विशेषणों के विषय में भी समझना चाहिये। यहाँ 'स्कन्धक' छन्द है । इसका लक्षण है 'चउमत्ता अट ठगणा पुव्वद्धे उत्तरद्ध होइ सरुआ। सो खन्धआ विआणहु पिङ्गल पभणेइ मुद्धि बहुसंभेआ ॥' [ 'चतुर्मात्रा अष्टगणाः पूर्वार्धे उत्तरार्धे भवन्ति सरूपाः । तं स्कन्धकं विजानीत पिङ्गलः प्रभणति मुग्धे बहुसंभेदम् ॥'] इसके पूर्वार्ध में चार-चार मात्रा के आठ गण अर्थात् बत्तीस मात्रायें होती हैं। इसी प्रकार उत्तरार्ध में भी चार-चार मात्रा के आठ गण ( ३२ मात्रायें) होती हैं अर्थात् पूरा छन्द ६४ मात्राओं का होता है ॥१॥ मधुमथनस्य हिरण्यकशिपुविदारणवर्णनेन प्रकृतग्रन्थविघ्न विघातसामर्थ्यमाहदणुएन्दरुहिरलग्गे जस्स फुरन्ते णहप्पहाविच्छड्डे । गुप्पन्ती विवलामा गलिग्न व्व थणंसुए महासुरलच्छी ॥२॥ [दनुजेन्द्ररुधिरलग्ने यस्य स्फुरति नखप्रभाविच्छ । व्याकुला विपलायिता गलित इव स्तनांशुके महासुरलक्ष्मीः॥] यस्य नरसिंहरूपिणो मधुमथनस्य प्रभाया: स्वाभाविक्याः श्वेताया विच्छर्दः समूहो यत्र तथाभूते नखे स्फुरत्युरोविदारणसमये प्रकाशमाने सति महासुरस्य हिरण्यकशिपोः श्रीाकुला सती विपलायिता तस्योपमर्दै विपर्यास प्राप्ता । अप Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् गतेत्यर्थः । विकटनखदर्शनजन्यभयादिति भावः। यत्पदस्योत्तरवाक्यगतत्वान्न पूर्वस्कन्धके तत्पदापेक्षा। कथंभूते प्रभाविच्छर्दनखे। लग्नदनुजेन्द्ररुधिरे। उभयत्र प्राकृतत्वात्पूर्वनिपातानियमः । लग्नं दनुजेन्द्रस्य रुधिरं यत्र तादृशे । कस्मिन्निव सति। स्तनांशुके गलित इव स्खलित इव । नखानां महत्त्वादसृग्भिरव्यापनात्तदेकदेशलग्नरुधिरतया लक्ष्म्या अर्धरक्तश्वेतवस्त्रत्वेनोत्प्रेक्षा कृता। अन्यापि स्त्री स्तनवसनविपर्यासे सव्रीडा पलायत इति ध्वनिः । तथा च म्रियमाणो दानवेन्द्रो निःश्रीको वृत्त इति तात्पर्यम् । 'व्याकुलापि पलायिता' इत्यपि व्याख्यानम् । तत्र व्याकुलस्यापयानमशक्य मित्यपेरर्थः । 'विच्छर्दस्तु समूहे स्याद्वान्तौ विश्लेषभेदयोः ॥२॥ विमला-(हिरण्यकशिपु के हृदय को विदीर्ण करते समय ) नरसिंहरूपी मधुमथन के स्वभावतः श्वेत नख में जब उस दनुजेन्द्र का रुधिर लगा और वह प्रकाशमान हुआ उस समय उस महान् असुर की श्री मानो ( नरसिंह के नख में उलझ जाने से ) स्तनांशुक खिसक जाने पर ( लज्जित हो ) व्याकुल होती हुई भाग गयी ॥२॥ जन्मान्तरेऽपि दुष्टदैत्यनिबर्हणक्षमतां विभोराह पोणत्तणदुग्गेझं जस्स भुनाअन्तणि ठरपरिग्गहिनम् । रिट्ठस्स विसमवलिअं कण्ठं दुक्खेण जीविन बोलीणम् ॥३॥ [पीनत्वदुर्गाह्य यस्य भुजान्तनिष्ठुरपरिगृहीतम् । अरिष्टस्य विषमवलितं कण्ठं दुःखेन जीवितं व्यतिक्रान्तम् ॥] यस्य कृष्णरूपिणो मधुमथनस्य भुजान्तौ हस्तौ ताभ्यां निष्ठुरं यथा स्यादेवं परि सर्वतोभावेन गृहीतं धृतमरिष्टस्य वृषभरूपिणोऽसुरविशेषस्य कण्ठं कर्म जीवितं कर्तृ (दुःखेन) व्यतिक्रान्तम् । अपगतमित्यर्थः । 'भुजायन्त्र' इति प्रकृतौ मिथःसंबद्धभुजायुगलरूपयन्त्रपरिगृहीतमिति वा । कण्ठं कीदृशम् । पीनत्वेन दुर्गाह्यम् । अत एव विषमं विपर्यस्तं यथा स्यादेवं वलितं वक्रीकृतम् । आमोटितमिति यावत् । पीनत्वेन सम्यग्धर्तुमशक्यत्वात् । अत्र जीवितस्य दुःखव्यतिक्रमणे विषमवलनं हेतुः। तस्य च निष्ठुरपरिग्रहणम् । तस्य च दुर्गाह्यत्वम् । इत्युत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्य हेतुत्वमिति हेतुपरम्परालङ्कारः। कि च, विषमवलनादजुमार्गालाभेन जीवितस्य कण्ठाद्दुःखेन निर्गमो वृत्त इति वस्तुना निजमायतनमरिष्टशरीरं त्यक्तुमशक्नुवतोऽपि जीवितस्य परमेश्वरहस्तेन बहिर्गमनं पुण्यहेतुरित्याशयेनेव सदु:खं निष्क्रमणमासीदित्युत्प्रेक्षा व्यज्यते ॥३॥ विमला-वृषभरूपी अरिष्टासुर के कण्ठ को पीन होने के कारण दुर्ग्राह्य समझकर श्रीकृष्णरूपी मधुमथन ने दोनों हाथों से निष्ठुरतापूर्वक पकड़ कर ऐसा दबाया और मरोड़ दिया कि वह बुरी तरह टेढ़ा-मेढ़ा हो गया, जिससे ( सीधा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [प्रथम मार्ग न पाने के कारण ) उसका जीव कण्ठ के मार्ग से बड़ी कठिनाई के साथ निकला। विमर्श-हिरण्यकशिपु के वध की कथा श्रीमद्भागवतपुराण के सप्तम स्कन्ध, अध्याय ८ में तथा अरिष्टासुर के वध की कथा श्रीमद्भागवतपुराण के दशमस्कन्ध, अध्याय ३६ में विस्तार से पठनीय है ॥३॥ मधुमथनस्य रामावतारे सीतां प्रत्यनुरागातिशयवर्णनोपयोगित्वेन कृष्णावतारेऽपि सत्यभामा प्रत्यनुरागप्रकर्षमाह प्रोग्राहिममहिवेढो जेण परूढगुण मूललद्धत्थामो। उम्मूलन्तेण दुमं पारोहो व्व खुडिनो महेन्दस्स जसो।।४।। (प्राइकुलप्रम् ) [अवगाहितमहीवेष्टं येन प्ररूढगुणमूललब्धस्थाम । उन्मूलयता द्र मं प्ररोह इव खण्डितं महेन्द्रस्य यशः ॥] ( आदिकुलकम् ) येन कृष्णरूपिणा द्रुमं पारिजातमुन्मूलयतोत्पाटयता महेन्द्रस्य यशः खण्डितम् । कृष्णकृत्या पारिजातस्य मर्त्यलोकागमनेन महेन्द्रस्यैवायमिति प्रकर्षां गतो युद्धे च पराजयो वृत्त इति भावः । यशः कीदृशम् । अवगाहितं व्याप्तं महीवेष्टं येन तत्तथा। एवं प्ररूढा उपचिता ये गुणा दानशौर्यादयस्त एव मूलं कारणं तेन लब्धं स्थाम स्थैयं येन तत् । यशसो दानादिमूलकत्वात् । कीदृगिव । प्ररोह इव । प्ररोहः शिफा । तथा च पारिजातस्य महेन्द्रयश एव प्ररोह इति भावः । अन्येनापि द्रुमोत्पाटने प्ररोहः खण्डयते । प्ररोहोऽपि कीदक । अवगाहितमहीवेष्टः। भूमिनिष्ठत्वात् । एवं प्ररूढ़ा ये गुणाः प्ररोहतन्तवस्तैः ( मूले ) लब्धं स्थाम येन तत्तथा। वस्तुतस्तु यथा द्रुममुत्पाटयता कृष्णेन प्ररोहः खण्डितस्तथा महेन्द्रयशोऽपि खण्डितमित्यन्यत्समानमिति सहोपमा। चतुःस्कन्धकीयमादिकुलकरूपा। तदुक्तम्-'कुलक बहुभिः श्लोकैः साकाङ्क्षरेकवाक्यता। द्वाभ्यां तु युग्मकं नाम तुल्यार्थाभ्यां तु चुम्बकम् ।।' इति ॥४॥ विमला-जिस श्रीकृष्णरूपी मधुमथन ने पारिजात द्रुम को उखाड़ते समय जिस प्रकार उसके अत्यन्त बढ़े हुये ( गुण ) तन्तुओं से मूल में स्थिरता प्राप्त भूमिनिष्ठ प्ररोह (शिफा, जड़ ) को उखाड़ दिया, उसी प्रकार उसी के साथ इन्द्र के भूमिव्यापक एवम् उपचित गुणों (दान-शौर्यादि) के कारण स्थैर्यशाली यश का भी उत्पाटन कर दिया। उक्त स्कन्धकचतुष्टय की 'आदिकुलक' संज्ञा है। 'कुलकं बहुभिः श्लोक साकाङ्क्षरेकवाक्यता' ॥४॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६ अथ ज्ञानप्रदत्वेन शिवं स्तौति णमह अ जस्म फडरवं कण्ठच्छामाघडन्तणप्रण ग्गिसिहम् । कुरइ फुरिअट्टहासं उद्धपडित्ततिमिरं विप्र दिसाप्रक्कम् ॥५॥ [नमत च यस्य स्फुटरवं कण्ठच्छायाघटमाननयनाग्निशिखम् । स्फुरति स्फुरिताट्टहासमूलप्रदीप्ततिमिरमिव दिक्चक्रम् ॥] तं च शिवं नमत । विशेषणमहिम्ना तल्लाभः । यच्छब्दयोगात्तच्छब्दाध्याहारोऽपि । तं कम् । यस्य कण्ठच्छायया घटमाना संबध्यमाना नयनाग्ने: शिखा यत्र तथाभूतं दिक्चक्रं स्फुरति शोभते । विचित्ररूपवत्त्वात् । नृत्यकालीनभ्रमणेन कण्ठकान्तिलोचनाग्निसिखयोरभिवृद्धेरिति भावः । दिक्चक्रं कीदशम् ? यत्र तत् । कान्तिप्रसरणात् । एवं स्फुटो रवो हासकालीनः शब्दो यत्र तथा । उत्प्रेक्षते-की दशमिव । ऊर्ध्व उपरिभागे प्रदीप्तं दग्धं भवत्तिमिरं यत्र तादृशमिव । कण्ठच्छायाया: श्यामत्वेन तिमिरेण, अट्टहासस्य कण्ठच्छायासम्बन्धेन शबलतया धूमेन, रवस्य दाहकालीनशब्देन च साम्यं गम्यते। यद्वा ऊर्ध्वप्रदीप्ततिमिरमिव स्फुरति भासते । प्रेक्षकाणामर्थादिति समन्वयः । अर्थान्तरं समानमेव । केचित्तु-- 'दिशां चक्रं चक्राकारता यत्र तादृशं मण्डलीन त्यं यस्य स्फुरति । नृत्यस्य विशेषणमन्यत्सर्वम्' इति वदन्ति ।।५।। विमला-उस (शिव) को नमस्कार करो, जिसकी ( नृत्य के समय ) कण्ठकान्ति से संबद्ध नेत्राग्नि की लपट, स्फुरित अट्टहास तथा ( हासकालीन ) स्फुट शब्द से व्याप्त होने के कारण दिङमण्डल ऐसा शोभित हो रहा है जैसे उसमें ऊर्ध्व प्रदेश में अन्धकार ( अज्ञान ) जल रहा है। विमर्श-यहाँ कण्ठकान्ति के श्यामत्व को तिमिर, उसे जलाने वाली नयनाग्नि, कण्ठकान्ति से मिश्रित अट्टहास की शबलता धूम तथा हासकालीन शब्द को ही दाह के समय होने वाला 'चट-चट' शब्द समझना चाहिये ॥५॥ पुनस्तदेवाह-- वेवइ जस्स सविडिन वलिउ महइ पुलपाइप्रत्थणप्रलसम् । पेम्मसहावविमुहिन वीमावासगमणू सुन वामद्धम् ॥६॥ वेपते यस्य सनीडं वलितु महति पुलकाचितस्तनकलशम् । प्रेमस्वभावविमुषितं द्वितीयावकाशगमनोत्सुकं वामार्धम् ॥] यस्यार्धनारीश्वरमूर्तेर्वामाई गौरीशरीरं वामभागो वेपते । वलितु वक्रीभवितु महति वाञ्छति । नृत्यभ्रमि कुर्वति महेशे स्त्रीस्वभावेन भयादिति भावः । किंभूतं वामार्धम् । सव्रीडं सलज्जम् । एवं पुलकेनाचितः स्तनकलशो यत्र यत् । तथा च Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] सेतुबन्धम् [ प्रथम भयोत्पन्ने पुलके प्रेक्षकाणां सात्त्विकविकारशङ्का स्यादिति लज्जा । वक्रीभवनं प्रति हेतुमाह-- द्वितीयावकाशं दक्षिणाधं प्रति गमने उत्सुकमुत्कण्ठितम् । स्त्रीणां भयेन स्वामिपरिरम्भणमिति स्वभावः । पुनः कीदृशम् । प्रेमस्वभावेन प्रियं प्रत्यनुरागेण विमुषितं किंकर्तव्यतामूढम् । तत्र गमने लज्जा अगमने भयमिति दोलायमानम् । अत एव गमनेच्छामात्रं न तु कृतिरिति तात्पर्यम् । वस्तुतस्तु भर्तुर्नृत्यकालीनकटाक्षभुजक्षेपादिभिरुत्पन्नसात्त्विक विकारम् । अत एव सलज्जं कामोत्पत्त्या दक्षिणार्धमालिङ्गितुमुत्कण्ठितमपि लज्जया निवर्तमानं वेपते । पुरः पश्चात्सञ्चारशील मित्यर्थः । तदुक्तं प्रेमस्वभावेति । प्रियानुरागेण गन्तुकं लज्जया किंकर्तव्यताविमूढतया विमुषितम् । अत एवोक्तं वलितुमाकाङ्क्षति न तु वलते इति सारम् || ६ || विमला - जिस अर्धनारीश्वर ( शिव ) के शरीर का वामार्ध ( गौरीशरीर ), (उनके नृत्यकालीन कटाक्ष भुजक्षेपादि से ) जिसका स्तनकलश रोमाञ्चित हो उठा; दक्षिणार्ध ( शिवशरीर ) का आलिङ्गन करने के लिये उत्सुक हो उसकी ओर घूमना चाहता है किन्तु लज्जा वश ( हिचकिचा कर ) प्रेम के स्वभाव से किकर्त्तव्यतामूढ हो कम्पित होता रहता है— ज्योंही आलिङ्गनार्थ उत्सुक हो आगे बढ़ता है त्योंही लज्जा-वश पीछे लौट पड़ता है, यही क्रिया निरन्तर चला करती है || ६ || शिवस्याट्टहास मानन्दमूलकत्वेन वर्णयति- जस्स विलग्गन्ति जहं फुडपडिसद्दा दिसाल पडिक्खलिआ । जोहाकल्लोला विश्र समिधवलासु रमणीसु हसिमच्छेश्रा ॥७॥ [यस्य विलगन्ति नभः स्फुटप्रतिशब्दा दिक्तलप्रतिस्खलिताः । ज्योत्स्नाकल्लोला इव शशिधवलासु रजनीषु हसितच्छेदाः ॥ ] यस्य हसितैकदेशा ज्योत्स्नीषु रात्रिषु नभो विलगन्ति वियद्वचापका भवन्ति । अन्तरान्तरा विच्छिद्य विच्छिद्योत्पत्त्या खण्डा इत्युक्तमिति वा । कथम्भूताः । स्फुटः प्रतिरवो येषां ते । एवं दिक्तलेषु प्रतिस्खलिता घनीभूय परावृत्ताः । पुनः कथंभूता इव । ज्योत्स्नायाः कल्लोला इव । श्वेतत्वात् । शिरः स्थितचन्द्रकलाया वा । अन्येऽपि कल्लोलाः पर्वतादिषु स्खलिताः सन्तः ऊर्ध्वं दिशश्व व्याप्नुवन्ति प्रतिशब्दहेतुशालिनश्च भवन्ति । एतेन हसितस्य व्यापकत्वमुक्तम् । ज्योत्स्नाकल्लोला इवेति सहोपमा वा । यथा ते दिक्तलस्खलिता इव नभो विगलन्ति तथैतेऽपीत्युत्प्रेक्षामूलम् ॥७॥ बिमला - बीच-बीच में रुक-रुक कर किये गये जिन ( शिव ) के अट्टहास, जिनके प्रति शब्द स्फुट एवं दिशाओं में जो प्रतिस्खलित हैं, उजाली रात में ज्योत्स्ना के कल्लोल से आकाश को व्याप्त करते हैं || ७ | Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वासः ] नृत्ये सत्त्वोद्रेकमाह पट्टारम्भक्खु हिश्रा जस्स भडब्बन्तमच्छपहप्रजलरआ । होन्ति सलिलुद्ध माइग्रधूमा अन्तवडवामुहा मनरहरा ||८|| ( श्राकुलम् ) [नृत्यारम्भक्षुभिता यस्य भयोद्भ्रान्तमत्स्यप्रहृतजलरयाः । भवन्ति सलिलोद्मापितधूमायमानवडवामुखा मकरगृहाः ॥ ] ( आदिकुलकम् ) मकरगृहाः सप्तापि समुद्रा यस्य नृत्यारम्भ एव क्षुभिताः सन्त ईदृशा भवन्ति । कीदृशाः । भयेनोद्भ्रान्ता मूच्छिता इतस्ततश्चारिणो वा ये मत्स्यास्तैः प्रहतः प्रतिरुद्धो जलस्य रयो वेगो येषु ते । तथा मत्स्वानां महत्त्वेन सति संचारे समुद्रसेतुभावादिति भावः । पुनः कीदृशाः । सलिलेनोद्धमापितमुमापयितुं निर्वाणीकर्तुं मारब्धमत एव धमायमानं धूममुद्वमद्वडवामुखं वडवानलो येषु ते । चरणक्षेपेण धरणिक्षोभे जलधिजलक्षोभादार्द्रेन्धन संबन्धादनलस्य धूमायमानत्वम् । उद्धमपि इत्यादिकर्मणि क्तः । उच्छब्दोऽत्राभाववाची । तेनाग्निदीपनाभावो लभ्यते । उत्कृतिरुद्वास इत्यादौ दृष्टत्वात् । इत्यपि चतुभिरादिकुलकम् ||८|| विमला - जिस (शिव) का नृत्य आरम्भ होते ही सातो समुद्र ऐसे क्षुब्ध हो जाते हैं कि घबड़ाकर मछलियों के इधर-उधर चलने से उनमें जल का वेग प्रतिरुद्ध हो जाता है और वडवानल जलक्षोभ से बुझने लगता है, अतएव धुआँ देने लगता है । उक्त चार स्कन्धों की भी ' आदिकुलक' संज्ञा है ||८|| अथ स्वानवधानपरिजिहीर्षया काव्यस्य दुष्करत्वमाहश्रहिणवराश्राद्धा चक्क क्ख लिएसु विहडिग्रपरिट्ठविप्रा । मेत्ति व्व पमुहरसिश्रा णिव्वोढ होइ दुक्करं कव्वका ॥६॥ [ अभिनबराजारब्धा च्युतस्खलितेषु विघटितपरिस्थापिता । मैत्रीव प्रमुखरसिका निर्वोदु भवति दुष्करं काव्यकथा ॥ ] |৭৭ काव्यकथा निर्वोढुमाद्यन्तं यावत्तुल्यतया निष्पादयितुं दुष्करं यथा स्यादेव भवति । दुःख निर्वाह्य ेत्यर्थः । केव । मैत्रीव । साप्याद्योपान्तं यावत्समतया निर्वाहयितुं दुष्करं भवति । काव्यकथा कीदृशी । अभिनवेन राज्ञा प्रवरसेनेनारब्धा । कालिदासद्वारा तस्यैव कृतिरियमित्याशयः । प्रवरसेनो भोजदेव इति केचित् । पुनः कीदृशी । च्युतोऽनवहितः कविस्तस्य स्खलितेषु च्छन्दोभङ्गादिनानवधानेषु विषटिता सती परिस्थापिता परिष्कारं प्रापिता । एवं प्रमुखो रसिको यत्र तादृशी । मैत्र्यप्यभिनवेन रागेणानुबन्धेनारब्धा । एवं च्युतोऽनवहितो यो जनस्तस्य स्खलि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] सेतुबन्धम् [ प्रथम तेष्वपराधेषु विघटिता ततः पुनरपराधमार्जनादिना परिस्थापिता प्रथमावस्थां प्रापिता । एवं प्रमुखरसिका च । तथा च मैत्रीव काव्यं सहृदयनिर्वाह्यमिति भावः । काव्यकथापक्षे प्रमुखरसः शृङ्गारादिस्तद्युक्ता । 'चुक्कशब्दः प्रमादे देशी' इति केचित् ॥६॥ विमला - अभिनव राजा ( प्रवरसेन ) से आरब्ध की गई, अनवहित कवि की भूल (छन्दोभङ्गादि ) से विघटित होती हुई पुनः परिष्कृत की गई, प्रमुख रसों ( शृङ्गारादि ) से युक्त काव्यकथा, अभिनव राग से आरब्ध की गई, अनवहितजन के अपराध से विघटित होती हुई पुनः अपराधमार्जन से प्रथमावस्था को प्राप्त हुई प्रमुख रसिक वाली मंत्री के समान दुःख से निर्वाह्य होती है ॥ ६ ॥ काव्यानामुपादेयताप्रयोजकं रूपमाह परिवड्ढइ विष्णाणं संभाविज्जइ जसो विढप्पन्ति गुणा । सुव्वइ सुडरिसचरित्रं किं तं जेण ण हरन्ति कव्वालावा ॥१०॥ [परिवर्धते विज्ञानं संभाव्यते यशोऽन्ते गुणाः । श्रूयते सुपुरुषचरितं किं तद्येन न हरन्ति काव्यालापाः ॥ ] काव्यानामालापा येन न हरन्ति न मनोहारिणो भवन्ति । किं तत् । अपि तु न किमपीत्यर्थः । तदाह-यतः काव्याद्विज्ञानं विशिष्टज्ञानं वर्धते । तथा यशः संभाव्यते । गुणा विवेकादयोऽन्ते । सुपुरुषस्य रामादेश्वरितं श्रूयते । अत एतस्योपादेयत्वम् । तदुक्तम् — 'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये' इत्यादि । परिवर्ध्यत इति वा । 'अर्जेर्विढप्पि:' इति विढप्पिरादेशः ॥१०॥ विमला - काव्य से विशिष्ट ज्ञान बढ़ता है, यश होता है, गुणों का अर्जन होता है, सत्पुरुष चरित का श्रवण होता है । जिससे काव्यालाप मनोहारी नहीं होते हैं वह तो व्यर्थ ही है ॥ १० ॥ निर्दोष काव्यातिदुष्करत्वमाह इच्छाइ व धणरिद्धी जोव्वणलद्ध व्व श्राहिश्राई सिरी । दुःखं संभाविज्जइ बन्धच्छायाइ श्रहिणवा प्रत्थगई ॥११॥ [ इच्छ्येव धनऋद्धियौवनलब्धेवाभिजात्या श्रीः । दुःखं संभाव्यते बन्धच्छाययाभिनवार्थ गतिः ॥ ] बन्धः काव्यशरीरं छन्दो वा तस्य च्छाया कान्तिस्तया बन्धरम्यतया अभिनवा अथं गतिरर्थप्रकारो दुःखं यथा स्यादेवं संभाव्यते संबध्यते । गतिविधाप्रकारास्तुल्यार्थाः । कया केव । इच्छया धनऋद्धिरिव । यथेच्छया धनर्द्धिर्दुःखं संबध्यते । 1 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१३ इच्छानुरूपा धनसमृद्धिर्दुःखसाध्येत्यर्थः । अभिजात्या यौवनलब्धा श्रीरिव । यथा कुलीनतया यौवनलब्धा श्रीवुःखं सम्बध्यते । यौवनोद्भूतया श्रिया अकर्तव्यमपि क्रियते । तत्र कुलीनता न तिष्ठतीत्यर्थः । तथा चापूर्वार्थ घटनं बन्धच्छाया च द्वयमपि मिथो योजयितुं दुष्क रमिति तात्पर्यम् ॥११॥ विमला-जैसे इच्छा और धन-समृद्धि का सम्बन्ध कठिन होता है। इच्छा के अनुरूप धन-समृद्धि दुःखसाध्य होती है ), कुलीनता और यौवनलब्ध श्री का सम्बन्ध कठिन होता है ( यौवनलब्ध श्री के द्वारा अकर्तव्य भी किये जाते हैं, वहाँ कुलीनता रह नहीं पाती ), वैसे ही रम्य छन्दों तथा अभिनव एवम् अपूर्व अर्थों की योजना काव्य में दुष्कर होती है ।।१०।। कर्तव्यकाव्यमाह तं तिप्रसवन्दिमोक्खं समस्थतेल्लोक्कहिअग्रसल्लुद्धरणम् । सुणह अणुराग्राइण्हं सीप्रादुक्खक्खन दहमुहस्स वहम् ।।१२।। [तं त्रिदशबन्दिमोक्षं समस्तत्रैलोक्यहृदयशल्योद्धरणम् । शृणुतानुरागचिह्न सीतादुःखक्षयं दशमुखस्य वधम् ।।] तं प्रसिद्धं दशमुखवधं शृणुत । एतद्ग्रन्थश्रवणेनैव तच्छ्रवणोपपत्तेः । अत्र प्राधान्यतस्तस्यैव वर्णितत्वात् । शाब्दज्ञानविषयत्वेनार्थेऽपि श्रवणार्थक शब्दप्रयोगः 'युद्धं श्रुतम' इतिवत । प्रसिद्धार्थकत्वेन तच्छब्दस्य न यच्छब्दापेक्षा। तं कथंभूतम् । त्रिदशबन्दीनां मोक्षः परित्यागो यस्मात् । समस्तत्रैलोक्यस्य हृदयस्थशल्यानामुद्वारश्च यस्मात् । अनुरागस्य प्रेम्णचिह्न ज्ञापकं च यत् । सीतां प्रति रामानुरागस्य रावणवधावधिकत्वात । सीताया दुःखस्य क्षयश्च येन तथाभूतम् । रावणवधानन्तरं बन्दीकृतदेवस्त्रीणां परित्यागो लोकानां च रावणभयेनाप्रकाशनाद्धदयस्थानां च शल्यानामुद्धारः सीताया अशोकवनिकानिवासादिक्लेशनिवृत्तिरित्यर्थः । अथ च दशमुखवधनामानं ग्रन्थं शृणुत । तमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात्तन्नामकत्वम्। किंभूतम् । त्रिदशबन्दीनां मोक्षो वर्णितो यत्र तथाभूतम् । अनुरागचिह्नमित्यनुरागपदचिह्नितम् । प्रत्याश्वासकान्तस्कन्धकेऽनुरागपदसत्त्वादिति भावः ॥१२॥ विमला-मेरे दशमुखवध नामक ग्रन्थ का श्रवण करें, जिसमें प्राधान्यतः दशमुख-वध का वर्णन तो है ही, उसके साथ ही दशमुखवध के फलस्वरूप बन्दीकृत देवों के मोक्ष का, समस्त त्रैलोक्य के हृदयस्थ शल्य के उद्धार का तथा सीता की क्लेशनिवृत्ति का भी वर्णन है और जो प्रत्येक माश्वास के अन्त में 'अनुराग' शब्द से युक्त है ।।१२।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१४] सेतुबन्धम् [प्रथम अत्र प्रकृतग्रन्थकथां प्रस्तौति अह पडिवण्णविरोहे राहववम्महसरेग माणहिए। विद्धाइ वालिहिपए रासिरी अहिसारिए सुग्गोवे ।।१३।। ववसाअरइपमोसो रोसगइन्दविढसिङ्खलापडिबन्धो। कहं कह वि दासरहिणो जमकेसरिपञ्जरो गोधणसमग्रो ॥१४॥ (जुग्गमम् ) [अथ प्रतिपन्नविरोधे राघवमन्मथशरेण मानाभ्यधिके । विद्धया वालिहृदये राजश्रियाभिसारिते सुग्रीवे ।। व्यवसायरविप्रदोषो रोषराजेन्द्रदृढशृङ्खलाप्रतिबन्धः । कथंकथमपि दाशरथेर्जयकेसरिपञ्जरो गतो घनसमयः ॥] (युग्मकम् । अथ वर्ष प्रभूतसीता विरहदुःखानुभवानन्तरं कथंकथमपि सीतानुद्धारजन्ये सीतायाः स्वस्य च दुःखे सत्येव प्राणत्याग इत्यपौरुषमकीर्तिकरं चेति दुःसहविरहकष्टेऽपि प्राणधारणपूर्व दाशरथे रामस्य गतो घनसमयो वर्षा इत्युत्तरस्कन्धकेन समन्वयः। अथशब्दस्य ग्रन्थारम्भे मङ्गलत्वं वा। तदुक्तम् 'ॐकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तेन माङ्गलिकावुभौ।" कस्मिन्सति । राजश्रिया वालिलक्ष्म्या सुग्रीवेऽभिसारिते स्वपदमानीते सति । कथंभूतया । राघवो रामः स एव मन्मथस्तदीयशरेण वालिरूपे हृदये विद्धया जातप्रहारया। किंभूते वालिहृदये । प्रतिपन्नः प्राप्तो विरोधो यत्र तथाभूते । एवं मानेन चित्तसमुन्नत्याभ्यधिके । अयं भाव:-राजश्रियो नायिकाया नायकः सुग्रीवः । हृदयं वाली । परमप्रियत्वात् । तत्र राज्यादिनिमित्तं विरोधोत्पत्तावहङ्काराधिके वालिनि रामेण हते सुग्रीवेण राजलक्ष्मीलब्धा । तथा सतीत्यर्थः । एवं रागस्यानुरागस्य श्रीयंत्र सा रागश्रीर्नायिका तया प्रतिपन्नः प्राप्तो विरोधो नायकापराधजन्मा यत्र तादृशि । वलनं वक्रीभवनं वालस्तद्वति वालिनि हृदये मानाभ्यधिके महत्तरे च । राधं वैशाखं वसन्तं पातीति राधपो वसन्तसहचरो यो मन्मथस्तस्य शरेण विद्धया सत्या सुग्रीवः सुकण्टो नायकोऽभिसार्यते स्वपदमानीयत इति ध्वनिः । धनसमयः कीदृशः । व्यवसायः सीताप्रत्युद्धारहेतुापारः स एव रविः। असम्पद्यमानत्वेन संतापकत्वात् । तस्य प्रदोषस्तिरोधानकालः । एवं रोष एव गजेन्द्रः । परोपमर्दकत्वात् । तस्य दृढशृङ्खलया प्रतिबन्धो बन्धनं तद्रूपः । प्रसरणप्रतिबन्धकत्वात् । तथा जय एव केसरो । प्रतिपक्षशून्यत्वात् । तस्य पञ्जरो बन्धनस्थानम् । अवरोधकत्वादित्यर्थः । रूपकमत्रालङ्कारः । तथा च दण्डी-'उपमैव तिरोभूतभेदा रूपक मिष्यते' इति ।। युग्मकम् ॥१३-१४॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१५ विमला-श्रीरामचन्द्ररूपी कामदेव के शर से विरोध-मान-युक्त वालिरूप हृदय में विद्ध होकर सुग्रीव के पास राजश्री के पहुँच जाने पर राम के अध्यवसायरूप सूर्य का प्रदोष काल, रोषरूप गजेन्द्र का दृढ़ शृङ्खलाबन्धन, जयरूप केसरी का पञ्जर, वर्षा वर्षाकाल राम ने किसी-किसी प्रकार सीताविरहजन्य दुःख को सहते हुए बिताया ॥१३-१४॥ अथ राघवस्यावस्थामाहगमिमा कलम्बवाया दिह्र मेहन्ध प्रारि गणप्रलम् । सहियो गज्जिप्रसहो तह वि हु से पत्थि जीविए प्रासङ्घो ॥१५॥ [गमिताः कदम्बवाता दृष्टं मेघान्धकारितं गगनतलम् । सोढो गजितशब्दस्तथापि 'खल्वस्य' नास्तिजीविते आसङ्गः ।।] सीताविरहविधुरेण रामेण वर्षतौ सीतामुद्धृत्य पुनर्द्रक्ष्यामीति प्रत्याशया कथंकथमपि धैर्यमवलम्ब्य कदम्बवाता गमिताः दुःखैकहेतवोऽप्यतिवाहिताः । मेघान्धकारितं गगनतलं च दृष्टम् । न तु चक्षुःसुखहेतुत्वेनावसितम् । गजितशब्दश्च सोढो न तु श्रुतिसुखमधिगतमिति यद्यपि तथाप्यस्य रामस्य शरदि कथं कुमुदवनवाता गमयितव्याः कथं च शरच्चन्द्रिकाधवलं नभो द्रष्टव्यं कथं वा कलहंसध्वनिः सोढव्य इति त्वक्चक्षुःश्रवणव्यापारेण वैक्लव्यशङ्कया पुनर्जीवितव्यं मयेत्यासङ्गोऽध्यवसायो नाभूदिति भाव इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु-कदम्बवातादिव्यतिकरे कथंचिन्मया जीवितमपि मद्वियोगिन्या सीतया कथं जीवितव्यं कथं च वा तद्विपत्तौ मया जीवितव्यमिति संदिहानस्य नाध्यवसायोऽभूदिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥१५॥ विमला-राम ने किसी-किसी प्रकार (धैर्य धारण कर ) वर्षाकालीन कदम्बवात को झेल लिया,मेघाच्छन्न अतएव अन्धकारपूर्ण गगनतल देखा, मेघों का गर्जन भी सह लिया तथापि { आगे शरत्कालीन कुमुदवात, चन्द्रिकाधवल गगन तथा कलहंस-ध्वनि से हुई विकलता के कारण कैसे जियूंगा, यह सोच कर) उन्हें जीवन के प्रति अनुराग नहीं रह गया ॥१५॥ अथ यात्रानुकूलत्वेन शरदं प्रस्तौति तो हरिवइजसवन्थो राहवजीअस्स पढमहत्थालम्बो। सीमाबाहविहानो दहमुहवज्झदिग्रहो उवगनो सरप्रो ॥ १६ ।। [ततो हरिपतियशःपथो राघवजीवस्य प्रथमहस्तालम्बः । सीताबाष्पविघातो दशमुखवध्यदिवस उपगता शरत् ।।] ततो वर्षानन्तरं शरदुपगता। कीदृशी। हरिपतेः सुग्रीवस्य यशोमार्ग. । शरदमालम्ब्य तस्य सेतुबन्धनादियशःप्रादुर्भावात् । एवं राघवजीवस्य प्रथमो हस्ता Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [प्रथम लम्बः । सेतुबन्धरावणवधसीतासमागमानां द्वितीयतृतीयचतुर्थानामपेक्षया शरदेव प्रथमो हस्तालम्बः । शरत्प्राप्तिरेव तस्य दुष्करासीत् । तस्यां तु सत्यां सर्वमिदमीषत्करमिति भावः । एवं सीताया बाष्पाणामश्रूणां विघातोऽवसानम् । रामसमागमाध्यवसायात । वधमहतीति यत्प्रत्ययेन वध्यमिति साधु । तथा च दशमुखस्य वधार्थी दिवस इति सर्वत्र रूपकम् । पूर्व निपातानियमाद्वध्यो दशमुखो यत्र एतादृशो दिवस इति वा । रावणवधस्य दिवस एव वृत्तत्वादित्यर्थः ।।१६।। विमला-वर्षा ऋतु के अनन्तर सुग्रीव का यशोमार्ग, रामचन्द्रजी का प्रथम हस्तालम्ब, सीता का बाष्पविधात तथा रावण के मारे जाने का दिन, शरद् ऋतु आ गयी। विमर्श--यहाँ कवि ने शरद को सुग्रीव का यशोमार्ग इसलिए कहा है क्योंकि बिना शरद् के आये सेतुबन्धन आदि कार्य करने का श्रेय सुग्रीव प्राप्त नहीं कर सकते थे । इसी प्रकार राम के सभी कार्य शरदागम पर ही निर्भर थे, अतः उसे राम का प्रथम हस्तालम्ब कहा गया। शरदागम से सीता को राम-समागम की दृढ़ आशा हो जाने से उसे सीता का अश्रुविघात कहा गया ॥१६॥ अथ सप्तदशभिः स्कन्धकै: शरदमाहरइअरकेसरणिवहं सोहइ धवलब्भवलसहस्सपरिगमम् । महुमहदंसणजोग्गं पिग्रामहुप्पत्तिपङ्कअं व णहमलम् ।। १७ ।। [रविकरकेसरनिवहं शोभते धवलाभ्रदलसहस्रपरिगतम् । मधुमथनदर्शनयोग्यं पितामहोत्पत्तिपङ्कजमिव नभस्तलम् ॥] नभस्तलं शोभते । कीदृशमिव । पितामहस्य ब्रह्मण उत्पत्तिपङ्कजमिव । नभः कीदृक् । केस रनिवह इव रविकरा यत्र तथाभूतम् । एवं दलसहस्राणीव सभङ्गिधवलाभ्राणि तैः परिगतं व्याप्तम् । एवं मधुमथनस्य नारायणस्य दर्शनयोग्यम् । उत्तानसुप्तस्य तस्योत्थाने सति तत्रैव दृष्टिपातसम्भावनासत्त्वात् । अथवा मधुमथनस्य रामस्य दर्शनयोग्यम् । जलदविगमेन मादकत्वाभावात्प्रयाणसमयलाभाच्च । कमलमपि रविकरसदृशकेसरनिवहं धवलाभ्रसदृशदलसहस्रपरिगतं मधु मथ्नातीति मधुमथनस्य भ्रमरस्य दंशनं दशनक्रिया तद्योग्यं भवति । यद्वा मधुमथनस्य नारायणस्य दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं चक्षुस्तद्योग्यम् । तस्य पुण्डरीकाक्षत्वात् । यद्वा मधुमहेन मधूत्सवेम दर्शनयोग्यम् । केचित्तु पङ्कजमिवेति पृथक्कुर्वते । प्रियायाः सीताया महोत्पत्तिरुत्सवोत्पत्तिर्यस्मात् । मेघाद्यपगमेन सुखदत्वादिति नभोविशेषणम् । पितामहस्योत्पत्तिर्योति पङ्कजविशेषणमिति व्याचक्षते। साधर्म्यमुपमा भेदें इत्युषमालङ्कारः ॥१७॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १७ विमला - केसर राशिसदृश रविकिरणों से युक्त, सहस्रदल के समान श्वेत मेघों से व्याप्त, ( चित्त लेटे हुए रामरूपी मधुमथन के उठने पर सर्वप्रथम उसी पर दृष्टि पड़ने से ) मधुमथन के दर्शनयोग्य गगनतल, ब्रह्मा के उत्पत्तिकमल के समान सुशोभित हो गया। विमर्श --- उपमा अलङ्कार है ||१७|| अथेन्द्रधनुराह - दिणमणिमोहकुरिन गलिश्रं घणलच्छिर प्रणरसणादामम् । उदुमप्रणवाणवतं महमन्दारणव केसरं इन्दधणुम् ॥ १८ ॥ [ दिनमणिमयूखस्फुरितं गलितं घनलक्ष्मीरत्नरशनादाम । ऋतुमदनबाणवक्त्रं नभोमन्दारनवकेसरमिन्द्रधनुः ॥] इन्द्रधनुर्गलितमपगतम् । कीदृशम् । दिनमणिः सूर्यस्तन्मयूखैः स्फुरितं प्रकाशितम् । मेघाद्यन्तरिततिर्यग्गतरविकिरणा एव शक्रधनुर्भवन्तीति प्रसिद्धिः । तथा च मेघाद्यपगमे धनुरप्यपगतमिति भावः । दिनमणिकिरणवत्स्फुरितमिति वा । नानारूपत्वात् । दिनमणिः सूर्यस्तस्य मोषे मेघाद्यन्तर्धाने सति स्फुरितमिति वा । दिनमेव मणिस्तन्मयूखैः स्फुरितमित्यन्ये । एवं घनलक्ष्म्या वर्षश्रियो गलितं पतितं रत्नघटितं रशनादामेति रूपकम् । धनुषो हरिल्लोहितत्वेन विचित्ररूपरशनासाम्यम् 1 तथा च घने गते तदनुगामिन्यास्तल्लक्ष्म्या अपि हठादपसरन्त्या मेखला स्खलनमिति भावः । पुनः कीदृशम् । ऋतुर्वर्षासमयः स एव मादकत्वान्मदनस्तदर्धचन्द्रबाणस्य वक्त्रं मुखम् । तस्य धनुराकारत्वात् । ऋतुमदनबाणपात्रं वा । ऋतोमंदनस्य बाणपात्रं तूणीरः । ऋतुमतनवाज्ञापत्त्रं वा । ऋतोर्वर्षाकालस्य मते संमते नवमाज्ञापत्त्रम् । आज्ञालिखनमित्यर्थः । वर्षर्तोरेव राजायमानत्वात् । ऋतुमतनवातपत्रं वा । वर्षर्ती राज्ञ इव मतं संमतं नवमातपत्रं छत्त्रम् । वस्तुतस्तु — ऋतुमदनपानपात्रम् । माद्यतीत्यर्थे ल्युट् । ऋतुरेव मदनो मत्तस्तस्य पानपात्रं चषकः । तथा च मत्तेन तेन जगदेव मादितमिति भावः । एवं नभ एवं मन्दारो वृक्षविशेषस्तस्य नवं केसरम् । वक्रलोहितत्वात् ॥ १८ ॥ विमला - सूर्य की किरणों से प्रकाशित इन्द्रधनुष जो ( वर्षाकाल में) मेघलक्ष्मी के रत्न जटित रशनादाम - ( करधनी ) - सा, वर्षाकालरूप मदन- सम्बन्धी (अर्धचन्द्राकार) बाण के मुख-सा, नभरूपी मन्दारवृक्ष के नव केसर-सा सुशोभित हो रहा था, ( शरत्काल के आ जाने पर ) तिरोहित हो गया || १८|| पुनस्तदेवाह धूमेहमनराम्रो हपाश्रवसाहा २ से० ब० घणसमझा ढिद्योगग्रविमुक्कानो । णिश्रट्ठाणं व पडिगनाम्रो दिसानों ||१६|| Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] सेतुबन्धम् [प्रथम [धुतमेघमधुकरा घनसमयाकृष्टावनतविमुक्ताः । नभःपादपशाखा निजकस्थानमिव प्रतिगता दिशः ॥] दिशो निजकस्थानमिव प्रतिगता व्याघुटय पूर्वस्थानं गता इवेत्युत्प्रेक्षा । किंभूताः । नभ एव पादपस्तस्य शाखा इति रूपकम् । पुनः किंभूताः । धुता इतस्ततो गता मेघा एव मधुकग याभ्यस्ताः । एवं धनसमयो वर्षर्तुस्तेनाकृष्टा अथावनता अथ विमुक्ताः । तथा च वर्षर्तोरुपक्रमे दिशो मेघसंभारेणाकृष्टा निकटवर्तिन्य इव, मध्ये गगनदिग्व्यापिमेघबाहुल्येनावनता अधो वर्तुलीकृता इव, वर्षान्ते मेघापगमेन विमुक्ताः प्रसारिण्य इव ज्ञाता इति भावः । शरदि तथाभूतमेघसंबन्धस्त्यक्त इति तात्पर्यम् । अन्या अपि पादपशाखाः केनचित्प्रथममाकृष्यन्ते । पश्चादवनमय्य विमुच्यन्ते तदानीमुपमर्दैन धुता इतस्ततः संचारिणो मेघतुल्या मधुकरा याभ्यस्तथाभूता भवन्ति । स्थितिस्थापकसंस्कारेण च निजकस्थानमेव प्रतिगच्छन्तीति ध्वनिः । यद्वा 'दिश अतिसर्जने' ( इति ) धातुमहिम्ना दिश्यन्तेऽतिसर्यन्त उपदिश्यन्ते वा सुरतकार्याण्याभिरिति दिशः प्रौढाङ्गनास्ता निजकस्थानं प्रति गता: शरदि रात्री नायकमभिसृत्य प्रभाते स्वं स्वं गृहं गता इत्यर्थः । कीदृश्यः । धुता विपर्यासिता मेधा बुद्धिर्येन तद्धतमेधं मधु । तत्करे यासां ताः । पीतावशिष्टं मधु करे कृत्वा प्रतिनिवर्तन्त इत्यभिसारिकासंप्रदायः । ता अपि घनो निबिडः समयः संकेतो यस्य तादृशेन घनं यथा स्यादेवं समदेन मदसहितेन वा नायकेन संभोगानन्तरं सम्भोगार्थमाकृष्टाः कराभ्यामङ्कमानीतास्तदुत्तरमवनमिता उपमर्दविषयीकृता अथोपभोगानन्तरं विमुक्तास्त्यक्ताः । एवमिवशब्दस्याकर्षणान्नखपातप्रसाधा इव नखपातो नखक्षतं तदेव प्रसाधा प्रसाधनमिव यांसां ताः। तथा च नखक्षतालंकृता इवेत्यर्थः ॥१६॥ विमला-नभरूपी वृक्ष की दिशारूपी शाखाय, मानों वर्षाकाल में (आरम्भ में मेघसंभार से) आकृष्ट की गयीं, (मध्य में गगनव्यापी मेघबाहुल्य से ) अवनत की गयीं और ( अन्त में मेघों में अपगत हो जाने से ) विमुक्त होकर पूर्ववत् पुनः अपने स्थान पर पहुँच गयीं एवं ( तात्कालिक झकझोरों से ) उनके मेघरूपी भ्रमर तितर-बितर हो गये ।।१६॥ अथ दिवसमाह अहिणवणिद्धालोमा उद्देसासारदीसमाणजललवा । गिम्माप्रमज्जणसुहा दरवसुअामच्छवि वहन्ति व दिनहा ॥२०॥ [अभिनवस्निग्धालोका उद्देशासारदृश्यमानजललवाः । निर्मितमज्जनसुखा दरशुष्कच्छवि वहन्तीव दिवसाः ॥] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १६ दिवसा ईषच्छकच्छवि वहन्ति धारयन्ति । वसुआअशब्दः शुष्कवाची । कीदृशाः । स्निग्ध आलोको रवितेजो येषु ते । आकस्मिकमेघापायादालोकानामभिनवचैक्कण्यप्रतिभासनात् । एवं चोद्देश एकदेशस्तत्रासारो वेगवर्षणं तेन दृश्यमाना जलखण्डा यत्र । अत्रोत्प्रेक्षते - निर्मितं मज्जनसुखमर्थाज्जलेषु यैस्ते कृतमज्जना इव । तथा च शरदि वासरे कदाचिद्वर्षणं कदाचिन्नेत्येकदेशे जलसम्बन्धः परत्र शुष्कता । अत एव कृतमज्जना इवेत्युक्तम् । अन्येऽपि कृतमज्जनाः स्निग्ध आलोको दर्शनं येषां तथाविधा दरशुष्कतादशायां क्वचित्क्वचिद्दृश्यमानजलबिन्दवश्च भवन्ति । 'आसार : स्यात्प्रसरणे वेगाद्वर्षे सुहृद्वले' इति कोषः ||२०| विमला - अभिनव स्निग्ध आलोक ( १ - रवितेज, २- दर्शन ) के कारण तथा किसी-किसी प्रदेश में वृष्टि होने से जलबिन्दुओं के दृश्यमान होने के कारण शरत्कालीन दिवस, जल में मज्जन करने के अनन्तर स्वल्प शुष्क से सुशोभित हो रहे हैं || भगवदुत्थानमाह सुहसंमाणिणिद्दो विरहाल सिमु विष्णुक्कण्ठो । प्रसुवन्तो विविबुद्धो पढमविबुद्धसिरिसेविप्रो महुमहणो ॥ २१ ॥ [ सुखसंमानितनिद्रो विरहस्पृष्टसमुद्रदत्तोत्कण्ठः । अस्वपनपि विबुद्धः प्रथमविबुद्धश्रीसेवितो मधुमथनः ॥ ] मधुमथनो विबुद्ध उत्थितः । उत्थानकादशी बभूवेत्यर्थः । अस्वपन्नपि निद्रामलभमानोऽपि । देवानामस्वप्नत्वात् । अतः सुखं यथा स्यादेवं संमानिता आदृता निद्रा येन तादृक् । आलस्यादिना निद्राया आदरमात्रं न तु पारमार्थिकत्वमपीति भावः । पुनः कीदृक् । विरहस्पृष्टाय समुद्राय दत्ता उत्कण्ठा येन तादृक् । जागरणोत्तरं परमेश्वरस्यान्यत्र गमनशङ्कया विरहिणः समुद्रस्य कदा पुनरयमत्रायास्यति लक्ष्म्या च समं मदङ्क शयिष्यत इत्युत्कण्ठादानं तदानीमेवेति सुभगत्वमुक्तम् । एवं प्रथमविबुद्धया श्रिया चरणसंवाहनादिना सेवितः । पञ्चम्यामेव लक्ष्म्युत्थानात् । अथ च नारायणे जाग्रति मधुमथनो रामरूपो विबुद्धः । तदात्मकत्वात् । वर्षामेघापगमे लब्धचेष्टो बभूवेत्यर्थः । कीदृक् । विरहवैक्लव्येनास्वपन्नपि निद्रामनासादयन्नपि । एवं च विरहस्पृष्टश्चासौ समुद्रेण मुद्रासहितेन हनूमता दत्ता उत्कण्ठा यस्मै तादृशश्च । जानकीवियोगिनोऽभिज्ञानमुद्रामादाय गतं हनूमन्तं प्रति जानकीवार्ता - लाभायोत्पत्तेरित्यर्थः । एवं प्रथमोबुद्धया श्रिया कान्त्या सेवित आश्रितः । शरदागमेनाग्रिमव्यापारं प्रति साध्यवसायत्वेन मुखादिश्री समृद्धेरिति भावः ॥ २१ ॥ विमला - ( देवताओं के अनिद्र होने के कारण ) न सोते हुए भी निद्रा का सुखपूर्वक आदर करने वाले, ( जागने के बाद उनके अन्यत्र गमन कीशङ्का से ) विरही Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] सेतुबन्धम् [ प्रथम समुद्र को (लक्ष्मीसहित अपने पुनरागमन के प्रति ) उत्कण्ठित करने वाले, पहिले ही ( पञ्चमी को ) जगी हुई लक्ष्मी से सेवित मधुमथन ( नारायण ) जाग गये ॥२१॥ तारामाह सोहइ विमुद्धकिरणो गअणसमुद्दम्मि रग्रणिवेला लग्गो । तारामुत्तावप्ररो फुडविहडिअमेहविप्पिस पुडमुक्की ।। २२ ।। [ शोभते विशुद्धकिरणो गगनसमुद्र रजनिवेलालग्नः । तारामुक्ताप्रकरः स्फुटविघटितमेघसुक्तिसंपुटमुक्तः ॥ ] गगनरूपे समुद्रे तारारूपमुक्ताप्रकरः शोभते । कीदृक् । विशुद्धः शुभ्रः किरणो यस्य तथा । एवं रजनिरेव वेला तीरं तत्र लग्नः । शर्वरीसमयलग्न इत्यपि । एवं स्फुटं यथा स्यात्तथा विघटिता ये मेघास्त एव शुक्तिसंपुटास्तेभ्यो मुक्त इतस्ततः प्रकीर्णः । शरदि मेघानां नानाखण्डत्वेन शुभ्रतया च विघटितशुक्तिसाम्यम् । अन्यत्रापि समुद्रे शुक्तिमुक्ता विशुद्धचाकचक्या मुक्तास्तीरलग्ना दीप्यन्त इति सर्वत्र रूपकम् ॥२२॥ विमला - गगनरूपी समुद्र में मेघरूपी विघटित सीपियों के सम्पुटों से मुक्त एवं प्रकीर्ण होकर शुभ्र किरणों वाली तारावलिरूपी मुक्ताराशि, रजनीरूप वेला (तीर) पर लगी हुई दीप्त हो रही हैं । विमर्श - सर्वत्र रूपक अलंकार है ॥२२॥ शरत्प्रौढिमाह सत्तच्छप्राणं गन्धो लग्गइ हिश्रए खलइ कलम्बामोश्रो । कलहंसाणं कलरम्रो ठाइ ण संठाइ परिणअं सिहिविरुम् ||२३|| [ सप्तच्छ्दानां गन्धो लगति हृदये स्खलति कदम्बामोदः । कलहंसानां कलरवस्तिष्ठति न संतिष्ठते परिणतं शिखिविरुतम् ॥ ] सप्तच्छदानां गन्धो हृदये लगति मनोहारीभवति । सामयिकत्वात् । कदम्बामोदः स्खलति हृदयग्राह्यो न भवति । असामयिकत्वादित्यर्थः । लगत्यपूर्वत्वादन्यतः संबध्यते स्खलत्यतिपरिचितत्वादस्वकालारमणीयत्वाच्च संबद्धोऽपि न स्वदत इति भावः । एवं कलहंसानां कलरवो हृदये तिष्ठति । सामयिकत्वादेव । न संतिष्ठते शिखिनां विरुतं ध्वनिः । असामयिकत्वादेवेत्यर्थः । अनवस्थाने हेतुमाह-परिणतं विरसम् । कदम्बामोदेऽपीदं विभक्तिविपरिणामेन योज्यम् । तथा च परिणाम - प्राप्तं सर्वमेव स्खलति न संतिष्ठते चेति ध्वनिः । समयजं सर्वमेव मनोहरमिति तात्पर्यम् ।।२३।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २१ विमला - (सामयिक, अतएव सरस होने के कारण ) सप्तच्छद ( छतिवन) की गन्ध एवं कलहंसों का कलरव मनोहर लग रहा है तथा ( असामयिक, अतएव विरस होने के कारण ) कदम्बगन्ध एवं मयूरध्वनि हृदय को अग्राह्य हो रही है ||२३|| पुनरपि सिंहावलोकितेनेन्द्रधनुराह - पीणपत्रोहरलग्गं दिसाणं पवसन्तजलअसम प्रविइण्णम् । सोहागपढमइण्हं पम्माअइ सरसणहवअं इन्दधणुम् ||२४|| [ पीनपयोधरलग्नं दिशां प्रवसज्जलदसमयवितीर्णम् । सौभाग्य प्रथमचिह्न प्रम्लायति सरसनखपदमिन्द्रधनुः ॥ ] इन्द्रधनुरेव सरसं तात्कालिकं नखपदमिति रूपकम् । प्रम्लायति प्रकर्षेण म्लानिमाप्नोति । विगलतीति यावत् । सरसत्वेन लौहित्यान्नखपदस्येन्द्रधनुस्तौल्यम् । कीदृशम् । दिक्षु पीनो यः पयोधरो मेघस्तत्र लग्नम् । पुनः कीदृक् । प्रवसता गच्छता जलदकालेन वितीर्णं दत्तम् । सौभाग्यस्य सौन्दर्यस्य प्रथमं चिह्न लक्षणम् । तथा च प्रावृषि दिशां मांसल मेघलग्नेन्द्रधनुषा सौन्दर्यमासीत् । अथ शरदि यथा यथा मेघापगमस्तथा तथा तदविनाभावेन तदप्यपगतमिति भावः । नखक्षतमपि दिशां प्रौढाङ्गनानां पीनस्तनलग्नं सत्क्रमेण म्लायति । नखक्षतं कीदृक् । प्रवसता प्रवासशीलेन कामचेष्टया जलं जाड्यं ददातीति व्युत्पत्त्या जलदेन नायकेन समये प्रस्थानकाले वितीर्णं दत्तम् । अत एव सौभाग्यस्यानुरागस्य प्रथमं ज्ञापकम् । वर्षासु गृहे स्थित्वा शरदि प्रवासीभवता नायकेन प्रियास्तने सततस्मरणाय नखक्षतं कृत्वा गम्यत इति कामशास्त्रम् ||२४|| विमला -- प्रवासशील जलद काल के द्वारा प्रस्थान करते समय दिशाओं के पीन पयोधर ( १-मेघ, २-स्तन ) पर सौभाग्य- ( १ - सौन्दर्य, २ - सुहाग ) - चिह्नस्वरूप प्रदत्त इन्द्रधनुषरूप सरस (लाल ) दृश्यमान नखक्षत क्रमशः अन्तर्हित हो रहा है ||२४|| चन्द्रमण्डलमाह पज्जत्तसलिलधोए दूरलोक्कन्तणिम्मले गणनले । अच्चासणं व ठिकं विमुक्कपरभाअपाअडं ससिबिम्बम् ।। २५ ।। दूरालोक्यमाननिर्मले गगनतले । [ पर्याप्तसलिलधौते अत्यासन्नमिव स्थितं विमुक्तपरभागप्रकटं शशिबिम्बम् ।। ] गगने शशिबिम्बमतिनिकटवर्तीय स्थितम् । किंभूतम् । विमुक्तः परभागोऽन्यभागो मेवादिसंबन्धस्तेन प्रकटमतिव्यक्तम् । गगने कीदृशि । पर्याप्तं बहुतरं यत्सलिलं वर्षर्तुसंभवं तेन धौते प्रक्षालिते । एवं दूरादालोक्यमानं सन्निर्मलं यत्तादृशि । अयं भावः यथा वस्त्रादी क्षालिते मालिन्यापगमेन स्थितं रूपान्तरवद्रव्यं स्फुटं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] सेतुबन्धम् [प्रथम प्रकाशते तथा वृष्टिजलक्षालिते विथति मेघरूपमालिन्यापगमादत्युज्ज्वले तथा स्वभावतः स्वच्छश्यामले धवलं विधुमण्डलमतिप्रकटमालोकितं लोकः । तदुक्तं श्रीहर्षेण–'सिते हि जायेत शितेः सुलक्ष्यता' इति । वस्तुतस्तु विशब्दस्याभाववाचितया विमुक्तोऽत्यक्तः परभागोऽन्यत: शोभा नीलाकाशकृतकान्तिविशेषस्तेन प्रकटं शुभ्रत्वादित्युन्नयामः । अत्रोत्प्रेक्षा ॥२५॥ विमला-वर्षाकालसम्भूत सलिल से पर्याप्त धुले हुए अतएव दूर से दृश्यमान एवं निर्मल गगनतल में मेघयुक्त अतएव अत्यन्त व्यक्त चन्द्रबिम्ब अतिनिकटबर्ती-सा दिखाई दे रहा है ॥२५॥ हंसागमनमाह चिरआलपडिणिउत्तं दिसासु घोलन्तकुमुअरअवेल्लविअम् । भमइ अलद्धासासं कमलाअरदसणू सुअं हंसउलम् ॥२६॥ [चिरकालप्रतिनिवृत्तं दिक्षु घूर्णमानकुमुदरजोविलिप्तम् । भ्रमत्यलब्धास्वादं कमलाकरदर्शनोत्सुकं हंसकुलम् ॥] दिक्षु हंसानां कुलं समूहो भ्रमति धूर्णते। किंभूतम् । चिरकालेन परावृत्तम् । प्रावृषि मानसं गता हंसाः शरदि पुनरागताः । कुत्र । कमनीये जलाशये स्थातव्यमित्युल्लासेनाभित उड्डयन्त इत्यर्थः । एवं घूर्णमानैर्निशिं मन्दानिलप्रेरितैः कुमुदरजोभिविलिप्तम् । सरसि सरसि स्थितेरित्यर्थात् । एवलमब्ध आस्वादस्तृप्तिर्येन तथा । अग्रिमाग्रिमवासनया क्वचिदपि स्थर्याभावात् । अलब्धाशाकं वा । अलब्धा आशा आकाङ्क्षा येन तत्तथा । नानासरःसौभाग्यसौकर्येणकत्र मनोवृत्त्यभावात् । एवं कमलाकरस्याभिप्रेतसरसो दर्शने उत्सुकम् । वस्तुतस्तु निशि कुमुदाकरे कुमुदसौभाग्यसौकर्येण कुमुदवनवासमनुभूय तदुपमर्दैन तत्परागानुलिप्तं सत्प्रभाते कमलाकरस्य कमलाधिष्ठानसरसो दिदृक्षया भ्रमति । तदुक्तमलब्धास्वादम् । कुमुदकोषभोजनजन्यतृप्तावपि कमलकोषभोजनजन्यतृप्त्यर्थित्वादित्युन्नयामः ।। ध्वनिपक्षे हंसः संन्यासिविशेषस्तत्कुलं भ्रमति । कीदृक् । चिरकालेन वर्षौ क्वचिदप्युषित्वा शरदि प्रतिनिवृत्तं पूर्वस्थानमागतम् । दिक्षु घूर्णमानम् । को पृथिव्यां मोदते कुमुदं तद्रजस्तेन विलिप्तम् । धूलीधूसरमित्यर्थः । यद्वा दिक्षु घूर्णमानं सत्कुत्सिता मुत्तीतिर्यस्मादेतादृशो यो रजोगुणस्तेन वेल्लितं प्रेरितम् । रजोगुणमहिम्ना भक्ष्याद्यर्थितया भ्रमतीति भावः । एवमलब्ध अशाकः शाक भिन्नो येन तत् । अत एव कमलाया लक्ष्म्या आकरस्य धनिकस्य दर्शने भोजनार्थितयोत्कण्ठितम् । तथा च स्वप्रयुक्त्या शाकमात्रलाभादतृप्ताः संन्यासिन: समीहितभिक्षार्थितया धनिक मन्विष्यन्तीति भावः ॥२६॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २३ विमला - बहुत समय बाद ( मानसरोवर से) लौटा हुआ हंससमूह ( रात भर विभिन्न सरोवरों में रहने के कारण) उड़े हुये कुमुदरजों से अनुलिप्त किन्तु ( अगले - अगले सरोवरों के प्रति वासना होने से कहीं भी स्थिर न रहने के कारण ) तृप्ति न पाकर ( अपने निवासार्थं सर्वोत्तम एवं कमनीय जलाशय चुनने के लिये ) कमलों वाले सरोवरों के दर्शन को उत्सुक हो ( प्रातः ) प्रत्येक दिशा में उड़ रहा है ।। २६ ।। अहोरात्रशोभामाह— चन्दाअवधवलाओ फुरन्तदिअसर अणन्तरिअसोहाओ । सोम्मे सरअस्स उरे मुत्तावलिविग्भमं वहन्ति निसा स्फुरद्दिवस रत्नान्तरितशोभाः । [ चन्द्रातपधवलाः सोम्ये शरद उरसि मुक्ताबलिविभ्रमं वहन्ति निशाः ॥ ] निशाः सौम्ये रमणीये शरद उरसि मुक्तावलिविभ्रमं वहन्ति । मुक्ताहारायन्त इत्यर्थः । हारतौल्यमाह — किंभूताः । चन्द्रातपेन ज्योत्स्नया धवलाः । स्फुरन्मेघादिशून्यतया दीप्यमानं दिवसमेव रत्नं पुष्परागादिकं पिञ्जरत्वात्तैरन्तरिता व्यवहिताः शोभा यासां ताः । स्फुरता दिवसरत्नेनादित्येनान्तरिता शोभा यासामिति ध्वन्यर्थः। दिवरूपरत्नान्तरप्राप्तशोभा इति वा । इतच् । अन्यस्या अपि नायिकाया उरस्यन्तरान्तरा रत्नान्तरविशिष्टो हारः शोभते । शरदस्तु निशादिवसरूपरत्नघटितो हारोऽभूदिति निगर्व: । सरअस्स सरतस्य रतासक्तस्य पुरुषस्योरसि या मुक्तावलिस्तस्या विशिष्टभ्रमं धारयन्ति निशा इत्यपि केचिद्वयाचक्षते ॥२७॥ ||२७|| विमला - चन्द्रिका के धवल तथा बीच-बीच में ( मेघादिशून्यता के कारण ) दीप्यमान दिवसरूपी अन्य रत्नों से परिवर्तित शोभा वाली रातें शरद् के रमणीय वक्षःस्थल पर मुक्तावली ( मोतियों का हार ) की शोभा धारण कर रही हैं ।। २७ ।। कमलमाह भमररुदिण्णसणं घणरोहविमक्कदिणअर अरा लिट्ठम् । फरिससुहाअन्तं विअ पडिबुज्झइ जलणिहितणालं गलिणम् ॥ २८ ॥ [ भ्रमररुतदत्तसंज्ञं घनरोधविमुक्तदिनकरकराश्लिष्टम् । स्पर्शसुखायमानमिव प्रतिबुध्यते जलनिहितनालं नलिनम् ॥ ] जले सरोवरादिपयसि निहितं नालं येन । शरदीषज्जलापगमात् । तादृशं नलिनं प्रतिबुध्यते विकसति । प्रभात इत्यर्थात् । भ्रमरै रुतेन दत्ता संज्ञा संकेतो यस्म तादृशमिव । कुमुदवनस्य मुद्रितत्वात्कमलमधुतृष्णया भ्रमरैः शब्दव्याजाज्जागृहीत्यु Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] सेतुबन्धम् [प्रथम क्तमिवेत्यर्थः । घनो मेघस्तदवरोधविमुक्ता ये दिनकरस्य करास्तै राश्लिष्टं स्पृष्टम् । अन्योऽपि निद्राणः केनचिद्रुतेन शब्देन दत्ता संज्ञा अमुक, जागृहीत्यादिरूपा यस्मै तथाभूतः करतलपरामृश्यमानश्च तत्स्पर्शसुखं लब्ध्वा जागति । जले जाड्ये निहिता नाला नाड्यो यस्य तादृशो भवति । निद्रया जडीकृतकलेवरत्वादित्यभिप्रायः ।।। ___ अत्र केचित्---'अन्योऽपि दुर्गतो धनरोधविमुक्तो दैन्यकरः करस्पृष्टश्चेति धनरोधविमुक्तदिनकरकराश्लिष्ट: सन् करो राजग्राह्यद्रम्मादिस्तत्पृष्टस्तदुत्तरं जडेन मूर्खेण निहितो नालो बन्धनरज्जुर्यस्मिन्नित्थंभूतश्च दैन्यं त्यागार्थ क्लैव्यं तत्करश्च मूर्खनिहितबन्धनदायेन मूच्छितत्वाद्धनावरोधाद्विमुक्तो भवति प्राणपीडाशङ्कया त्यज्यते । तदवस्थायां भ्रमरेण निजभृत्यप्रेषितदूतेन जिज्ञासुतया दत्तसंज्ञः संज्ञया किंचिद्वोध्यमानः प्रतिबुध्यतेऽवगच्छति' इति ध्वन्यर्थमाहुः ।। अपरे तु-'भ्रमरेण विदग्धमित्रेण रुतेन दत्तसंज्ञो निशि निरुद्ध एव प्रभाते त्यक्तनिरोधो दिने संचारीति दिनचरः कराश्लिष्टः प्रतिबुध्यते' इति व्याचक्षते ।।२८।। विमला-जल में नाल को निहित कर ( सुप्त ) कमल, (प्रातः कुमुदवन के मुद्रित हो जाने पर कमलमधु की तृष्णा से) भ्रमरों के द्वारा किये गये गुजार से ( जागने की) प्रेरणा पाकर तथा सूर्य के करों (१-किरण, २-करतल) से परामृष्ट होकर जाग उठा-विकसित हो गया ।। २८ ।। हंसध्वनिमाह मम्महधणुणिग्घोसो कमलवणक्खलिअलच्छिणे उरसहो । सुध्वइ कलहंसरओ महुअरिवाहित्तलिणिपडिसलाओ ॥२६॥ [ मन्मथधनुर्निर्घोषः कमलवनस्खलितलक्ष्मीनूपुरशब्दः । श्रूयते कलहंसरवो मधुकरीव्याहृतनलिनीप्रतिसंलापः ॥] कलहंसानां रवः श्रूयते । नक्तमित्यर्थात् । कलो हंसरव इति वा । कीदृक् । मन्मथधनुषो निर्घोषष्टांकारः। मादकत्वात् । ज्योत्स्नाधवलायां रजन्यां विश्वमेव जेतव्य मिति धनुषष्टांकारः । एवं कमलवनात्स्खलिताया लक्ष्म्या नूपरनादः । तथा च रात्रौ संकुचत्कमलवनमुपद्रुतं परित्यजन्त्या हठात्संचारः स्खलने बीजम् । तथा निमीलनरूपविपद्दशायां मधुकरीभिाहताया नलिनि, क्वासि किं करोषीत्येवं पृष्टाया नलिन्या इहास्मि संनिहिता भवत इत्येवंरूपः प्रतिसंलापः प्रत्युत्तरम् । लोकेऽप्येको विपद्ग्रस्तं वादयति स पुनः प्रत्युत्तरयतीति ।। दिवातनध्वनिपक्षे तु व्याख्या-कीदक्कलहंसरवः । मदनधनुर्वनिस्तथाभूतलक्ष्मीनपुरशब्दश्च । अत्र पक्षे कमलमुन्निद्रमुद्वीक्ष्य निजावासग्रहणायोल्लासेन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २५ हठाद्वजनं स्खलने बीजम् । मधुकरीभिर्नलिनि, जागर्षि मया मधुपानमागत्य कर्तव्यं न' वेति पृष्टाया नलिन्या मधुकरि, जागर्मि मधु समागत्य पीयतामित्येवंरूपः प्रतिसंलाप इति पक्षद्वयेऽपि रूपकम् ॥२६॥ विमला-( विश्वविजय के उद्देश्य से किया जाता हुआ) कामदेव के धनुष का टङ्कार-सा हंसों का कलरव, ( रात में ) कमलवन से हठात् प्रस्थान करती, (दिन में ) कमलवन की ओर सोल्लास गमन करती लक्ष्मी का नपुर-शब्दसा, अथवा ( रात में ) मधुकरी द्वारा कमलिनी के प्रति समवेदनासूचक और दिन में मधुपानार्थ अभ्यर्थनास्वरूप किया जाता संलाप-सा सुनाई पड़ रहा है ।। २६ ॥ नलिनीमाह खुडिडप्पइ अमणालं दण पिमं व सिडिलवल पलिणिम् । महुअरिमहुरुल्लावं महुमप्रतम्बं मुहं व घेप्पइ कमलम् ॥३०॥ [ खण्डितोत्पाटितमृणालां दृष्ट्वा प्रियामिव शिथिलवलयां नलिनीम् । मधुकरीमधुरोल्लापं मधुमयाताम्र मुखमिव गृह्यते कमलम् ।। ] कमलं गृह्यते हस्तेनादीयते । लोकरित्यर्थात् । अत्रोत्प्रेक्षते-खण्डितमथोत्पाटितमुत्थापितं मृणालं यस्यास्तां नलिनी शिथिला रतिकालीनकरपरामर्शन विपर्यस्ता वलया यस्यास्तां प्रियामिव दृष्ट्वा । अयं भाव:-शरदि लोका जलन्यूनतायां कमलमृणालाद्यचिन्वन्ति । तत्रोत्पाटितमृणाले विलुलितवलयभ्रमेण पद्मिन्यां पद्मिनीबुद्धया पद्ममपि मुखधिषणया चुम्बनाद्यर्थमिवाकृ ष्टवन्तः । कीदृक्कमलम् । मधुमयमत एवाताम्रम् । एवं मधुकरीणां मधुर उल्लापो यत्र तत्तथा। कमलोपमर्दैन मधुकरादिध्वनिसंभवात् । मुखमपि मधुमदेनाताम्रमीषल्लोहित मधुकरीवन्मधुर उल्लापो यत्र ( तादृशं च ) । चुम्बनादिसमये मधुकरादिध्वनिकरणात् । तदुक्तम्'हारीतपारावतकोकिलादिनादं विदध्यात्सुरतावतारे' इति । केचित्तु-'नलिनी प्रियामिव दृष्ट्वा कमलं मुखमिव गृह्यते ज्ञायते लोकै रिति सर्वमन्यत्तुल्यम्' इत्याहुः ॥३०॥ विमला-लोग, खण्डित एवम् उखाड़े गये मृणाल वाली पद्मिनी को शिथिल वलय (करधनी ) वाली पद्मिनी प्रिया-सी देखकर मुख के समान मधुमयाताम्र (१-मधुमय होने से कुछ लाल, २-मधुमद के कारण कुछ लाल) तथा १-मधुकरी के मधुर शब्दों से युक्त २-मधुकरी के समान मधुर शब्द वाले कमल को (चुम्बनाद्यर्थ ) आकृष्ट कर रहे हैं ।। ३० ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] सेतुबन्धम् [ प्रथम पवनमाह पज्जत्तकमलगन्धो महुतण्णाओसरन्तणवकुमुअरओ। भभिरभमरोअइव्वो संचरइ सदाणसीरो वणवाओ ।।३१।। [ पर्याप्तकमलगन्धो मध्वार्दापसरन्नवकुमुदरजाः । भ्रमभ्रमरोपजीव्यः संचरति सदानशीकरो वनवातः ॥] दानशीकरसहितो वनपवनः संचरति । करिणामुत्सर्गतः शरदि मदोद्भद इति प्रसिद्धि : । कीदृक् । चिरनिरुद्धस्यैकत्र संचितस्याकस्मिकबहिर्भावे बाहुल्यात्पर्याप्तः परिपूर्णः कमलगन्धो यत्र । एवं विकासप्रकर्षण मधुप्रकर्षादा सदपसरत्पवनसंबन्धादधःस्खलन्नवं कुमुदरजो यत्र । तथा च वायोरुषःकालीनत्वात्कमलकुमुदयोर्मुकुलरूपयोर्गन्धस्य रजसश्च संबन्ध इति भावः । पुनः कीदृक् । कमलकुमुदमदगजादिजिज्ञासया भ्रमणशीलानां भ्रमराणामुपजीव्यो गन्धरजोमदलोभात्सेव्यः । कमलकुमुदमदसंबन्धात्सौरभम् । मधुमदवनस रःसंबन्धाच्छैत्यम् । सामयिकत्वाच्च मान्द्यम् । एवं संध्याकालीनत्वेऽपि ।'तण्णापसरन्त' इति पाठे आर्द्रप्रसरदित्यर्थः ॥३१॥ विमला-पर्याप्त कमलगन्ध से संश्लिाट, मधुप्रकर्ष से आई एवं विकीणं कुमुदरजों से युक्त तथा { गजों के) मदसीकरों से संसिक्त अतएव भ्रमणशील भ्रमरों से सेव्य (त्रिविध ) वनवायु बह रहा है । ३१ ।। पुनर्नलिनीमाह कण्टइप्रणमिश्रजी थोप्रत्थोप्रोसरन्तमुद्धसहावा । रइपरचुम्बिज्जन्तं ण णि प्रत्तेइ पलिणी मुहं वित्र कमलम् ॥३२॥ [ कण्ट कितगोपिताङ्गी स्तोकस्तोकापसरन्मुग्धस्वभावा। रविकरचुम्ब्यमानं न निवर्तयति नलिनी मुखमिव कमलम् ॥] नलिनी कमलं न निवर्तयत्यूर्वं प्रापयति । प्रकाशयतीति यावत् । कीदृशम् । रविकरेण चुम्ब्यमानं संबध्यमानम् । प्रभातवशात् । नलिनी कीदशी। कण्टकितं जातकण्टकं गोपितं जलान्तःस्थापितमङ्गं नालो यया । जलस्य किंचिन्न्यूनतया नालं पयसि नभसि कमल मिति भावः । पुनः कीदृशी। स्तोकस्तोकमीषदीषदपसरन्मुग्धस्वभावः कलिकाभावो यस्याः । क्रमेण विकासादिति भावः । उत्प्रेक्षते-मुखमिव । यथा पद्मिनी नायिका रतिक रो नायकस्तेन चुम्ब्यमानं, रविणः संगमकाले कृतशब्दविशेषस्य नायकस्य करेण चुम्ब्यमानं वा मुखं न निवर्तयति किं तु संमुखमेव स्थापयति तथेयमपीत्यर्थः । सापि कीदृशी। कण्टकितं रोमाञ्चितं भावोदयात्, अथ च गोपितं लज्जया सिचयाञ्चलेनावृतमहं हृदयादि यया। एवं स्तोकस्तोकं क्रमेणापस रन्मुग्धस्वभावो बाल्यं लज्जा वा यस्यास्तथाभूता। यथा यथा नायकविस्रम्भस्तथा तथा लज्जाविगम इति भावः ॥३२॥ For private & Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामविलासमन्वितम् [ २७ विमला - नलिनी ( १ - कमलिनी २ - पद्मिनी नायिका) कुछ-कुछ अपने मुग्ध स्वभाव (१- कलिकाभाव, २ - भोलापन) को छोड़ती हुई अपने कण्टकित (१ - काँटे दार, २ - रोमाञ्चित ) अङ्ग ( १ - नाल, २ - शरीर ) को गोपित ( १ - जल के भीतर स्थापित, २ - वस्त्राञ्चल द्वारा आवृत्त ) करती हुई, मानों सूर्य के कर ( १ - किरण २ - करतल ) से परामृष्ट किये जाते कमलमुख को फेरती नहीं, अपितु सम्मुख ही किये रहती है || ३२ ।। पुनर्भ्रमरमाह परघोलन्तक्वलिअं सत्तच्छत्र कुसुमधवल रेणुक्ख इश्रम् | उप्पुसइ दाणवङ्क मुहुत्तगप्रकण्णचामरं भमरउलम् ||३३| [ परिघूर्णमानस्खलितं सप्तच्छदकुसुमधबलरेणूत्खचितम् । उत्प्रोञ्छति दानपङ्कं मुहूर्तगजकर्णचामरं भ्रमरकुलम् ॥ ] मुहूर्तं व्याप्य गजस्य कर्णचामरं भ्रमरकुलं दानपङ्कमर्थाद्गजस्यैवोत्प्रोञ्छति उड्डयन प्रयत्नेनोर्ध्वं प्रोञ्छति । दानपङ्कपातानन्तरमुड्डयन संभवान्मुहूर्तमित्युक्तम् । कीदृशं भ्रमरकुलम् । परिघूर्णमानं सत्स्खलितम् । प्रथमं गण्डयोरुपरि भ्रमित्वा पतितमित्यर्थः । चामरमपि परिघूर्णमानं सत्स्खलितं भवति । पुनः कीदृक् । सप्तच्छदकुसुमानां धवलरेणुभिरुत्खचितम् । अत एव श्वैत्याच्चामरतौल्यम् । तथा च सप्तच्छदकुसुमेभ्यो दानस्य पङ्कीभावान्माधुर्य मधिगत्यागतमिति भावः ॥ ३३॥ विमला - पहिले गण्डस्थल के ऊपर घूम-घूम कर तत्पश्चात् बैठकर, सप्तच्छद - ( छतिवन ) - कुसुम के धवलरजों से विलिप्त ( अतएव श्वेत ) भ्रमरसमूह थोड़ी देर तक गज के कान का चँवर बना हुआ ( अपने उड़ने के प्रयत्न से ) गज के मदपक को पोंछ रहा है ।। ३३ ।। अथ रामस्य विरहावस्थामाह इन पहसिनकुमुमसरे भडिमुहपङ्कग्रविरुद्धचन्दालोए । जाए फुरन्ततारे लच्छि समं गाहणवपप्रोसे सरए ||३४|| छिज्जइझिण्णावि तणू श्रट्ठप्रवाहं पुणो परुण्णं व मुहम् । रामस्स अईसन्ते श्रासाबन्धे or चिरगए हणुमन्ते ॥३५॥ ( जुग्गनम् ) [ इति प्रहसितकुमुदसरसि भटी मुखपङ्कजविरुद्धचन्द्रालोकायाम् । जातायां स्फुरत्तारायां लक्ष्मीस्वयंग्राहनवप्रदोषे शरदि ॥ क्षीयते क्षीणापि तनुरास्थितबाष्पं पुनः प्ररुदितमित मुखम् । रामस्यादृश्यमाने आशाबन्ध व चिरगते हनूमति ॥ ] ( युग्मकम् ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सेतुबन्धम् [प्रथम रामस्य क्षीणापि तनुः क्षीयत इत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः । सीताया विश्लेषाद्वार्तानुपलम्भाच्च । कस्यां सत्याम । इत्युक्तप्रकारेण शरदि जातायाम् । किरूपायाम् । लक्ष्म्याः स्वयंग्राहस्तस्य नवप्रदोषे रजनीमुख इति रूपकम् । शरत्पक्षे लक्ष्मी रिपु. राजश्रीस्तस्या स्वयंग्राहोऽतिक्रम्य ग्रहणम् । प्रदोषपक्षे लक्ष्मीर्नायिका तस्याः स्वयंग्राहो विवाहविशेषः। तस्य प्रदोषकर्तव्यत्वादित्यवसेयम् । शरदि किंभूतायाम् । प्रहसितं विकसितं कुमुदं यत्र तादृक्सरो यत्र तस्याम् । एवं भटी शूरवधूस्तन्मुखकमलस्य विरुद्धो मालिन्यहेतुश्चन्द्रस्यालोको ज्योत्स्ना दर्शनं वा यस्याम् । शरदि शूराणां रणयात्रया तद्वधूनां विरहोद्रेकादिति भावः । एवं स्फुरन्त्यस्तारा यस्यां तस्याम् । प्रदोषेऽपि कीदृशि । प्रहसितकुमुदसरसि भटीमुखतुल्यं यत्पङ्कजं तद्विरुद्धश्चन्द्रालोके स्फुरत्तारे चेति योज्यम् । केचित्तु-'शरदि कथंभूतायाम् । प्रहसितस्य कुमुदनाम्नो वानरस्य स्वरः शब्दविशेषो यत्र तथा प्रहसितकुमुदस्वरायाम् । एवं भटी राक्षसवधूस्तन्मुखपङ्कजविरुद्धश्चन्द्रस्य रामचन्द्रस्यालोको दर्शनं तेजो वा यत्र तथा तद्विरुद्धचन्द्रालोकायाम् । स्फुरन्ती तारा सुग्रीववधूर्यत्र । तारो वानरविशेषो वा । लक्ष्मीः सीता तत्स्वयं ग्राहस्य प्रदोषे' इति व्याचक्षते ।। ___ एवमास्थितो बाष्पो यत्रैवं सत्पुनः प्ररुदितमिव मुखम् । रोदनोन्मुखमित्यर्थः । अतिरोदनेन बाष्पशून्यतायामपि दैन्योद्रेकादिति भावः । धीरोदात्तत्वाद्वा । कस्मिन्सति । चिरगते हनूमत्यदृश्यमाने सति। कस्मिन्निव । आशाबन्ध इव । सीतां प्रति पुन : प्राप्तिप्रत्याशाबन्धोऽप्यदृश्यमान इत्यर्थः । तथा च यथा सीताप्राप्त्याशाबन्धो न दृश्यते तथा हनूमानपि न दृश्यत इति चिन्ताधिक्यादियमवस्थाभूदिति भावः । सहोपमा । यद्वा हनूमति कथंभूते । सीतां प्रत्याशाबन्ध इव । सीताप्राप्त्याशाबन्धस्य हनुमदागमनावधिकत्वादिति भावः । यद्वा परुण्णं व प्ररुदितं वा । पुनः प्रदितं चेत्यर्थः । वाशब्दः समुच्चये ॥३४-३५॥ विमला--शत्रु की राजश्रीरूप नायिका का स्वयं (बलात् ) ग्रहण कर उसके साथ स्वयंग्राह (विवाह-विशेष) करने के लिये (उपयुक्त एवं विहित) प्रदोष कालरूपा, विकसित कुमुदपूर्ण सरोवरों वाली, ( शूरों की रणयात्रा से ) शूर-वधुओं के मुख-कमलों को दुःखद चन्द्रज्योत्स्ना वाली तथा चमचमाते तारों वाली शरद् के इस प्रकार आ जाने पर चिरकाल से गये हुये हनुमान के, (सीताप्राप्ति के ) आशाबन्ध के समान लौटकर न दिखायी पड़ने पर ( सीता के वियोग से ) पहिले से ही राम का क्षीण शरीर ( समाचार भी न मिलने से ) और अधिक क्षीण हो गया तथा ( धीरोदात्त होते हुए भी) वे रुआंसे हो गये ॥ ३४-३५ ।। अथ हनूमदागमनमाह णवरि अजहासमस्थिमणियसिअकज्जणिन्वलन्तच्छाअम् । पेच्छइ मारुतण भणोरहं चेअ विन्तिसुहोवणम् ॥३६॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२६ [ अनन्तरं च यथासमर्थितनिर्वतितकार्यनिर्बलच्छायम् । प्रेक्षते मारुततनयं मनोरथमेव चिन्तितसुखोपनतम् ।।] णवर-णवरि केवलानन्तर्ये । एतदनन्तरं च स रामो मारुततनयं हनूमन्तं प्रेक्षते । कीदृशम् । यथा समथितं रामेण यथाध्यवसितं तथा निर्वतितं निष्पादितं यत्कार्य सीतावार्ताहरणादि तेन निर्बलन्ती इतरवानरापेक्षया पृथग्भवन्ती छाया मुखादिकान्तिर्यस्य तम् । दूतस्य मुखश्रीरेव सदसन्निवेदयतीति मुखश्रीसत्त्वासत्त्वाभ्यां कार्यसिद्धयसिद्धयनुमित्सया तदर्शनं कृतवानिति भावः । पुनः कीदृशम । चिन्तितः स्मृतः सन्सुखायोपनतस्तम् । चिन्तितः सन्यः समागच्छति स कार्यसिद्धि शंसितया सुखदो भवति । तदुक्तम्-'अव्याक्षेपो भविष्यन्त्या: कार्यसिद्धेहि लक्षणम्' इति । पुनः कीदशमेव । मनोरथमेव मनोरथस्वरूपमेव । सोऽपि चिन्तित: सन्सुखायोपनत उपगतो भवति । मनोरथेन सुखं लभ्यत इत्यर्थः ।।३६।। विमला-तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी हनुमान जी के विषय में सोच ही रहे थे कि मानों सुख देने के लिये हनुमान के रूप में मनोरथ ही सामने उपस्थित हो गया और राम ने देखा कि उनकी कल्पना के ही अनुसार सकल कार्य निष्पन्न करने के कारण अन्य वानरों की अपेक्षा हनुमान की मुखकान्ति ( प्रसन्नता से ) कुछ और ही प्रकार की है ( इससे उन्हें कार्य सिद्धि का अनुमान हो गया ) । ३६ ॥ अथ हनुमच्चेष्टामाहपढमं विन मारुइणा हरिसभरिजन्तलोअणेण महेण । जणतणआपउत्ती पच्छा वाआइ गिरवसेसं सिट्ठा ॥३७॥ [ प्रथममेव मारुतिना हर्षभ्रियमाणलोचनेन मुखेन । जनकतनयाप्रवृत्तिः पश्चाद्वाचा निरवशेष शिष्टा ॥ ] धीरोदात्तस्य जिज्ञासो रामस्य प्रेक्षणमेतत्प्रश्नार्थकमित्युन्नीय क्रमिकवर्णसमुदायरूपवाक्यतदर्थपर्यालोचनापर्यन्तं सीतावृत्तविषयकसंशयेन क्लेशः स्यादस्येति वचनापेक्षया चेष्टयैव हठाद्वार्ताप्रतिपत्तिर्भवेदित्यभिसंधाय परमचतुरेण मारुतिना सीता दृष्टा जीवति चेति वार्ता हर्षसूचकप्रसादविशेषविशिष्टचक्षुर्मुखचमत्कारेण प्रथममेव प्रेक्षणसमकाल एव शिष्टा निरगादि। पश्चात्पुनरस्य सीताकुशलसमधिगमसुस्थस्याका झाक्रमेण गतागतप्रपञ्चसंबद्धतदवस्थाकथनपर्यन्तमुक्ता। तथा च मुखदर्शनेन सीता कुशलवती दृष्टा चामुनेति रामस्तर्कयाञ्चकारेति भावः ॥३७॥ विमला-( वाणी द्वारा बताने में विलम्ब लगेगा इसलिये ) हनुमान ने (बोलने के)पहिले ही अपने हर्षनिर्भर नेत्र वाले मुख के चमत्कार से सीता का कुशल वृत्तान्त संक्षेप में बता दिया। (इस प्रकार से श्रीरामचन्द्र को सुस्थित कर) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] सेतुबन्धम् [प्रथम तत्पश्चात् (श्रीराम की आकाङ्क्षा के क्रम से ) वाणी द्वारा सम्पूर्ण समाचार विस्तार से कह सुनाया ।। ३७ ॥ अथ हनू कन्तं प्रति रामव्यापारमाहविट्ठ त्ति ण सद्दाहों झीण ति सबाहमन्थरं जीससिअम् । सोइ तुमं ति रुण्णं पहुणा जिअइ ति मारुई उवऊढो ॥३८।। [ दृष्टेति न श्रद्धितं क्षीणेति सबाष्पमन्थरं निःश्वसितम् । शोचति त्वामिति रुदितं प्रभुणा जीवतीति मारुतिरुपगूढः ।। अत्र रामः प्रश्नकर्ता हनूमानुत्तरयिता । तथा च सीता दृष्टेति प्रश्ने दृष्टेत्युत्तरम् । तत्र प्रभुणा रामेण न श्रद्धितं श्रद्धाप्रत्ययो न कृतः । रावणान्तःपुरवर्तिन्या राक्षसीलक्षपरिवृत्तायाः सीतायाः कथमस्य वान रस्य दर्शनं स्यादिति भावः । कीदृशीत्यवस्थाप्रश्ने क्षीणेत्युत्तरम् । तत्र सबाष्पं सोच्छ्वासं च तन्मन्थरं यथा स्यात् । अथ वा बाष्पोऽश्रु तन्मान्थर्यसहितं यथा स्यादेवं निःश्वसितम् । मद्विश्लेषेण क्षण्यमस्या युज्यत एवेति प्रतीतेन मयि जीवत्येव मत्प्रेयसी ईदृशीमवस्थामयासीदित्यन्तःखेदान्निःश्वास इति भावः। तन्मान्थर्यं च तथा कृत्वापि रावणो ध्रियत इत्यन्तमन्यूत्पीडात् । अश्रुपक्षे तु धीरोदात्तत्वात्सदसि तन्निर्गमनिरोधादिति भावः । कि करोती ति प्रश्ने रामो मां विना वने वसन्नेकाकी कीदृक् स्यादिति त्वां शोचतीत्युत्तरम् । तत्र प्रभुणा रुदितम् । निजदुःखमगणयित्वैव मामेव शोचतीत्यहो पातिव्रत्यमस्या राक्षसकरे संदिग्धमिति भावः । कुलकलङ्कशङ्कया धैर्यादप्यश्रुनिरोधो मा भूदिति तात्पर्यम् । शोचतीति लट्प्रत्ययेन सीतावर्तमानत्वमवधृत्य जीवतीति विहाय जीविष्यतीति प्रश्ने जीवतीत्युत्तरम् । तत्र वर्तमानसामीप्यार्थकलट्प्रत्ययमहिम्ना भवदागमनप्रत्याशया मदनुद्धारनिबन्धनः कलङ्कः प्रभोर्मा प्रसाङ्क्षीदिति किंचित्कालं प्राणान्धारयति । न तु चिरं जीविष्यतीत्यभिप्रायमस्य विदित्वा मारुतिरालिङ्गितः । कियत्कालमेव चेज्जीविष्यति तदा वार्ताज्ञानमेव दुःशकमासीदव तत्प्रत्युद्धारो हठादेव मया करिष्यत इत्युत्साहात् । अथवा यद्ययमसत्यमावेदयति तदा क्षोभतः सकम्पहृदयः स्यादिति जिज्ञासावशात् । यद्वा महत्कार्य मयमकार्षीत्तद्धनमस्त्येव न, परिरम्भणेनापि सक्रियतामित्याशयादिति भावः । उत्तरनामायमलंकारः । तथा च वामनः ( रुद्रट:)-'उत्तरवचनश्रवणादुन्नयनं प्रश्नवचनानाम् । उत्तरमिति तं प्राहुः प्रश्नादप्युत्तरं यत्र ॥' 'प्रश्न विनैव हनूमता दृष्टेत्यादि सीतावृत्तचतुष्टयमुदगारि । तत्र न अद्धितमित्यादि रामावस्थाचतुष्टयमुक्तं पूर्वोक्ततत्तदभिप्रायेण' इत्यपि केचिदाचक्षते । परे तु-'उत्तरालंकारमहिम्नैव दृष्टेत्युपनायकस्य सुग्रीवस्य प्रश्नः । तस्य तावन्मात्रप्रयोजनकत्वात् । कीदृशीत्यनुनायकस्य लक्ष्मणस्म Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३१ प्रश्नः । तस्य स्नेहवशादवस्थाजिज्ञासुत्वात् । किं करोतीति नायकस्य रामस्य प्रश्नः । तस्य वल्लभत्वेन वल्लभागतराक्षसोपकल्पितविभीषाहेतुकव्यभिचारशङ्कित्वात् । अत एव त्वामेव शोचतीति कुलस्त्रीत्वव्यञ्जकमुत्तरम् । जीवतीति नानापरिजनप्रश्नः । तेषां तावन्मात्रोद्देश्यकत्वात् । एषु दृष्टेत्याद्य त्तरेषु प्रभुणा न श्रद्धितमिति संबन्धानामवस्थाचतुष्टयं प्रभोरेव पूर्वोक्ततत्तदभिप्रायेणोक्तम्' इत्याहुः । इतरे तु–'हे क्षीणतृड्बाधमन्थ, क्षीणा तृट् तृषा येषां ते क्षीणतृषो देवास्तान्बाधन्ते पीडयन्तीति क्षीणतृड्बाधा राक्षसास्तान्मथ्नाती ति क्षीणतृड्बाधमन्थेति रामसंबोधनम् । 'क्षीणतृड्बाधमन्थ इति' वा। 'व्यध ताडने' धात्वनुसारात् । सीता मया दृष्टवेत्यर्थः । अरण्येशाश्रितं त्वामरण्येशः सुग्रीवस्तमाश्रितं त्वां पृथ्वीपतिस्तथाविधो रामः संप्रति मर्कटमाश्रित इति शोचतीति मारुतिनोक्त प्रभुणा रुदितम् । जीवतीत्युक्ते मारुतिरुपगूढ इत्युक्तिद्वयेऽपि रामस्य रोदनालिङ्गनोपवर्णनं पूर्वोक्ततत्तदभिप्रायद्वयेन' इति प्रश्नाप्रश्नसाधारणमर्थमुपवर्णयांचक्र: । अत्रैव 'त्वामित्यस्य विशेषणं दृष्टार्तिनशब्दहितं दृष्टा आतिर्येषां ते दृष्टार्त यस्तेषु न शब्दहितं किं त्वर्थहितमपि' इत्यपि वदन्ति ॥३८।। विमला-तुमने सीता को देखा ?-राम ने कहा । हनुमान्–हाँ, देखा। (रावण के अन्तःपुर में लाखों राक्षसियों से घिरी सीता का दर्शन' इसे कैसे हो सका होगा-यह सोच कर ) श्रीराम को हनुमान् के कथन पर विश्वास नहीं हुआ और पुन: पूछ बैठे-उसकी क्या दशा है ? हनुमान ने उत्तर दिया-सीता जी क्षीण हो गयी हैं। हनुमान के यह वचन सुनकर राम ने आंखों में आँसू भर कर ( किन्तु 'ऐसे दुष्ट रावण को जीवित नहीं छोड़ेगा'-ऐसा सोचकर क्रोधाविष्ट हो ) मन्द आह की । ( 'वह क्या करती है' राम के इस प्रश्न की सम्भावना पर हनुमान ने कहा-) तुम्हारे विषय में ही शोक करती रहती हैं ? हनुमान के इस उत्तर पर श्रीराम रो पड़े । ('क्या जीवित रहेगी ?' राम के इस संभावित प्रश्न के उत्तर में हनुमान् ने कहा-) जी रही है ( चिरकाल तक जीवित न रहेगी)। हनुमान के इस प्रकार कहने पर राम ने उन्हें गले से लगा लिया-महत्त्वपूर्ण कार्य करने से हनुमान का आलिङ्गन द्वारा सत्कार किया ।। ३८ ॥ अथ सीतामणिमाहचिन्ताहअप्पहं मिव तं च करे खेप्रणीसहं व णिसण्णम् । वेणीबन्धणमइलं सोअकिलन्तं व से पणामेइ मणिम् ॥३६॥ [चिन्ताहतप्रभमिव तं च करे खेदनिःसहमिव निषण्णम् । देणीबन्धमलिनं शोकक्लाम्यन्तमिवास्य प्रणयति मणिम् ।।] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] सेतुबन्धम् [प्रथम मारुति रस्य रामस्य तं च मणि प्रणयति । उपनीतवानित्यर्थः । किं भूतम् । वेणीबन्धने सति मलिनम् । पूर्वं प्रत्यहमेव चिकुरपरिष्कारसमये मार्जनादिनोज्ज्वलमासीत् । संप्रति तदभावाद्विरहिण्या वेणीबन्धः स्थिर इति भावः । मालिन्यमुत्प्रेक्षतेपुनः कीदृशमिव । शोकेन सीताविश्लेषदुःखेन क्लाम्यन्तमिव । अन्योऽपि विरहक्लान्तो वपुरपरिष्कारेण मालिन्यमासादयतीति भावः । मालिन्यहेतुकं तेजोविरहमप्युत्प्रेक्षतेराक्षसपरिवता सीता संप्रति किं स्यादित्यादिकया चिन्तया हतप्रभमिव । पुनः कीदृशम् । हनुमत: करे निषण्णं स्थिरम् । स्थैर्यमुत्प्रेक्षते-खेदेन विदूरागमनश्रमेण निःसहमिव । तथा च करे कृत्वा दर्शयामासेति भावः ॥३६॥ विमला-मानों दूर से चलकर आने के कारण निःशक्त हो कर में स्थिर, सतत वेणी बँधी रहने से कभी स्वच्छ न की जाने के कारण मलिन, सीता के वियोग दुःख से क्लान्त-सी, सीताविषयक चिन्ता से प्रभारहित-सी उस ( प्रसिद्ध ) सीता की मणि को हनुमान् ने राम के आगे रख दिया ॥ ३९ ।। अथ मणिग्रहणमाह सो करअलजलिगमो महत्थ बअपहरोसिहन्तमऊहो। णप्रणेहिं दासरहिणा दिछो पीसो णु पुच्छि प्रो शु पउत्तिम् ॥४०॥ [ स करतलाञ्जलिंगतो बाष्पस्तबकप्रहतावसीदन्मयूखः । नयनाभ्यां दाशरथिना दृष्टः पीतो नु पृष्टो नु प्रवृत्तिम् ।।] स मणिः करतलाद्ध नूमत्करात्स्वाञ्जलिगतो रामेण नयनाभ्यां दृष्ट: । कीदृक् । आनन्दबाष्पस्तबकेन प्रहतोऽत एवावसीदत्किरणः । विच्छविरित्यर्थः । दर्शनमुत्प्रेक्षते-पीतो नु नयनयोनिमेषराहित्येन मणेश्च सीतासंबन्धादतिप्रियत्वेन पीत इव । अञ्जलिगतवाष्पमग्नत्वेनादृश्यत्वात् । तदुक्तमञ्जलिगत इति । अन्यदप्यञ्जलिस्थं जलादि पीयत इति । नन्वन्तर्नयनरूपस्य पानस्य द्रवद्रव्यसाध्यत्वादत्र तदसंभव इत्यत आह-प्रवृत्ति पृष्टो नु सीतोदेशप्राप्तिजनितानन्दोत्फुल्लनयनत्वादिकया चेष्टया नित्यं तत्संनिहितत्वेन सीता क्वास्ति कीदृशीत्यादि वार्ता पृष्ट इव । तदुक्तमवसीदन्मयूख इति । अन्योऽपि केनचित्संगोप्य वृत्तं नयनादिचेप्दया पृष्टः स्वचेष्टयैव निवेदयति । प्रकृते कि रणावसादरूपमालिन्येन सीतावलेशमावेदयामासेवेत्यर्थः । नुशब्दो वितर्के ॥४०॥ विमला-वह मणि हनुमान के कर से जब श्रीराम की अञ्जलि में पहुंची तब राम के नेत्रों से उस मणि पर आसुओं की झड़ी लग गई, मानों उससे प्रताडित हो वह निष्प्रभ हो गई । तदनन्तर राम ने अपने ( निनिमेष ) नेत्रों से उसे देखा क्या, मानों पीया अथवा नयनचेष्टा से ही सीता की कुशल-वार्ता पूछी और मणि ने अपनी निष्प्रभत्वादिक चेष्टा से ही कुशल-वार्ता बता दी ॥४०॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३३ भय मणिशोचनमाहसोनइ प्रणं रहुवई विरलगलिगलिप्रकिरणधारावरम् । वप्रणे विमलुज्जो बररोत्तूण सलिललि व णिमेन्तो।।४।। [शोचति चैनं रघुपतिविरलागुलिगलितकिरणधाराप्रकरम् । वदने विमलोद्योतं दररुदित्वा सलिलाञ्जलिमिव नियोजयन् ॥] सीतामपहाय कुत्रागतः कीदृग्वा वृत्तोऽसीत्यादिक्रमेण रघुपतिरेनं मणि शोचति च । कीदृशम् । विरलागुलिभ्यो गलितकिरणधारासमूहम् । विरहदौर्बल्यहेतुकाङ्गुलिसंधिभ्यो धाराकारकिरणनिर्गमादिति भावः । 'महापुरुषलक्षणमङ्गुलिसंधिः' इत्यपि कधिचत् । किं कुर्वन् । दरेत्यव्ययम् । ईषद्रुदित्वा विमलमुद्योतं मणितेजः प्रक्षालनसलिलाञ्जलिमिव वदने निवेशयन् । अन्योऽपि रुदित्वा मुखं प्रक्षालयति । 'बहुव्रीहिणा विमलोद्योतं मणिमेव मुखे नियोजयन् प्रियं वस्तु मुखादावण्यंते' इत्यपि कश्चित् । तथा च रामस्य वार्ताज्ञानानन्तरमध्यवसायेन रोदनशेषो वृत्त इति मुखक्षालन मिति भावः ॥४१॥ विमला-श्रीराम ने किञ्चित् रोकर, विरल अङ्गुलियों के बीच से धाराकार निकलती किरणों वाली एवं विमल तेज वाली उस मणि को मुख पर (प्रक्षालनार्थ) सलिलाञ्जलि-सी निविष्ट करते हुए उसके प्रति शोक व्यक्त किया ॥४१॥ अथ रामावस्थामाह तं वइमाहिण्णाणं जम्मि वि अङ्गम्मि राहवेण ण णिमि प्रम् । सीआपरिमट्ठण व वढ़ो तेण वि गिरन्तरं रोमञ्चो॥४२॥ [तद्दयिताभिज्ञानं यस्मिन्नप्यङ्गे राघवेण न नियोजितम् । सीतापरिमृष्टेनेव व्यूढ़स्तेनापि निरन्तरं रोमाञ्चः ॥] अभिज्ञानं संदेशो मणिरूपः । दयितं प्रीतिपात्रम् । दयिताया इति वा । तद्राघवेण यस्मिन्नप्यङ्गन न निवेशितं तेनाप्यनेन सीतया परि सर्वतोभावेन मृष्टेनेव न तु स्पृष्टमात्रेण ) निरन्तरं रोमाञ्चो व्यूढः। तथा च यथा सीतापरिमृष्टेनाङ्गेन रोमाञ्चो ध्रियते तथा मणिस्पृष्टेनाप्यनेन विशेषतः ऊढः । सीतासंबन्धिमणिसंवन्धादिति भावः । तथा च नित्यसंनिहितसीतास्पर्शापेक्षया विरहकालीनसीतापर-म्परासंबन्धोऽप्यधिक इति तात्पर्यम् ।।४२॥ विमला-प्रिया सीता की निशानी उस मणि को श्रीराम ने अपने जिस मङ्ग पर नहीं भी निविष्ट किया वह भी मानों साक्षात् सीता से ही आलिङ्गित हो सतत रोमाञ्च से भर गया ॥४२॥ ३ से० ब० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] सेतुबन्धम् . [प्रथम अथ सीतापहारमूलकत्वेनाधिकबलमपि शृङ्गारमुपमृद्योत्पद्यमानं रामकोपमाह-- बाहमइल पि तो से वहमुहचिन्ताविप्रम्भमाणामरिसम् । जासं दुक्खालोरं जरढ़ाअन्तरविमण्डलं विअ वमणम् ।।४३।। [बाष्पमलिनमपि ततोऽस्य दशमुखचिन्ताविजृम्भमाणामर्षम् । जातं दुःखालोकं जरठायमानरविमण्डलमिव वदनम् ॥] ततो मणिमर्षणानन्तरमस्य रामस्य बाष्पेण मलिनमपि वदनं दुःखालोकं दुःखेन दर्शनीयं जातम् । तत्र हेतुमाह-कीदृक् । दशमुखविषयिणी या वधादिचिन्ता तया विजृम्भमाणोऽमर्षो यत्र तत् । यथा यथा चिन्तोदयस्तथा तथामर्षोदय इति भावः । तदभिव्यक्तिस्तु ताम्रत्वादिना। अत एव मलिनस्यापि दुःखालोकत्वम् । तथा च ताम्रत्वादिना मालिन्यमपहस्तितमेवेति भावः । अत एव जरठायमानं प्रौढं मध्याह्नकालीनं रविमण्डलमिवेत्युपमा तदपि दुनिरीक्षमेवेति भावः ।।४३॥ विमला-तदनन्तर दशमुखविषयक वधादि चिन्ता के साथ-साथ ईर्ष्याजन्य क्रोध के उदय से श्रीराम का अश्रुमलिन मुख भी मध्याह्नकालीन प्रौढ़ रविमण्डल के समान दुनिरीक्ष्य हो उठा ॥४३॥ अथ रामस्य धनुर्दर्शनमाह तो से चिरमज्झत्थे कुविअकमन्तभुममालआपडिहए। विट्ठी विद्वत्थामे कज्जपुरव्व णिनए धणुम्मि पिसण्णा ॥४४॥ [ततोऽस्य चिरमध्यस्थे कुपितकृतान्तभ्र लताप्रतिरूपे । दृष्टिदृष्टस्थाम्नि कार्यधुरेव निजके धनुषि निषण्णा ॥] ततः क्रोधानन्तरमस्य दृष्टिनिजे स्वायत्ते धनुषि निषण्णा। कीदृशे । वालिवधे दृष्टं स्थाम बलं दाढयं यस्य तस्मिन् । एवम्, चिरं व्याप्य मध्यस्थे उदासीने । कार्यानुद्युक्त इति यावत् । तथा च बहुदिनमारभ्य लब्धविश्राममसि वाली च त्वयैव हतस्तत्तदभिभूतो रावणस्ते कियानितीह निजस्य भवत एव प्रत्याशा ममेति रामेण धनुर्दष्टमिति भावः । तथा च तदुक्तकार्यधुरेव दृष्टि पिता किं तु रावणवधरूपस्य प्रकृतकार्यस्य भार एवार्पित इत्युत्प्रेक्षा। भारसमर्पणे हेतुमाह-कुपितस्य यमस्य धूलतायाः प्रतिरूपे। प्रतिबिम्बस्य प्रकृतिसमानशीलत्वात् । यथा कुपितयमभ्रूविषयो न जीवति तथैव धनुर्विषयोऽपीति भावः। प्रतिरूपे सदृश इति वा। 'णिहुअकअन्त' इति पाठे निभृता निर्व्यापारेत्यर्थः। धनुरपि तदानीं निर्व्यापारमेवेति तात्पर्यम् ॥४४॥ विमला-तदनन्तर इन (राम) ने (वालिवध के समय) आजमायी गई दृढ़ता वाले, बहुत दिनों से कार्य में नियुक्त न किये गये (अतएव शत्रुहनन के लिए अत्यन्त Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३५ लालायित), कुपित यम की भौंह के समान अपने धनुष पर दृष्टि क्या डाली, (संकेत से) मानों उसे (दशमुखवधरूप) कार्य का भार ही सौंप दिया ॥४४॥ तदेवाह खणमूलाबद्धाए णिवण्ण न्तमसिणं समारूढाए। सज्जीअं विअ जाअं अणोणमन्तं पि रामदिट्ठी धणम् ॥४५॥ [क्षणमूलाबद्धया निर्वर्ण्यमानमसृणं समारूढया। सजीवमिव जातमनवनतमपि रामदृष्टया धनुः ॥] क्षणं व्याप्य मूलात्संबद्धया निर्वर्ण्यमाने सति धनुर्गुणकार्यविचारे सति मसृणं मन्दं यथा स्यादेवं परामटनिमारूढया रामदृष्ट्या धनुर्जीवा ज्या तत्सहितमिव कृतम् । कीदृक् । अनवनतनम्रमपि । अन्यत्र ज्यासमर्पणे धनुर्नम्र भवति, प्रकृते धनुरनवनतमेव स्थितम् । दृष्टि: पतजिका भूत । तथा च मूलादग्रपर्यन्तं दृष्टमिति भावः । 'ज्या जीवा जीवनं जीवो जीवौ कर्णबृहस्पती' इति शाश्वतः । सज्जीवमिव सत्प्राणमिव । निधीयमानप्रोण मिवेति यावत् । तथा च रामदृष्टया सप्राणीकृतं धनुरिति रामदृष्टिरेव धनुषः प्राणा इव लग्नास्तेन चेतनतुल्यरिपुहननादिव्यापारयोगित्वमस्य व्यज्यत इति वयम् ॥४५॥ विमला-क्षणभर ( धनुष के ) मूलभाग पर ठहर, तदनन्तर सावधानी से (राम के द्वारा) देखे जाते हुए समूचे धनुष पर आदि से अन्त तक मन्दगति से जाकर राम की दृष्टि ने धनुष को विना अवनत किये ही मानों सजीव (१-अधिज्य, २-सप्राण) कर दिया। (दृष्टि ने ही डोरी बन कर उसे अधिज्य एवं सप्राण कर चेतन की तरह शत्रु के मारने में समर्थ एवं योग्य बना दिया) ॥४५।। अथ सुग्रीवहर्षमाह सुग्गीअस्स वि हिअ राहवसुकअपडिमोअणासत्तण्हम् । अगणिप्रबहमु हदप्पं णिव्यूढभरं व तक्खणं ऊससिमम् ॥४६॥ [सुग्रीवस्यापि हृदयं राघवसुकृतप्रतिमोचनासतृष्णम् । अगणितदशमुखदर्प नियूं ढभरमिव तत्क्षणमुच्छ्वसितम् ।।] अपिना रामस्य हृदयमुच्छ्वसितमेव । सुग्रीवस्यापि हृदयं राघवस्य सुकृतमुपकारो वालिवधरूपस्तत्प्रतिमोचना तत्प्रत्युपकारः सीतोद्धाररूपस्तत्र सतृष्णं साकाक्षं सन्निव्यूढो निष्पादितो रावणवधरूपो भरः कार्यगौरवं येन तादृशमिवोच्छ्वसितम् । रामप्रत्युपकारो दशमुखवधायत्तः। स चेषत्कर एवेत्यर्थः । अत्र हेतु:--अगणितो रावणदो येन तथा । रावणस्य तद्भातृकक्षानिक्षिप्तत्वादिति भावः । अन्यस्यापि गुरुद्रव्यभारापगमे उत्फुल्लतारूपः श्वासोद्गमरूपो वा उच्छ्वासो भवतीति ध्वनिः ॥४६॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] सेतुबन्धम् [प्रथम विमला-उसी समय सुग्रीव का भी हृदय रामचन्द्रकृत ( वालिवधरूप) उपकार का बदला चुकाने के लिए साकाङ्क्ष हो उठा और रावण के दर्प को कुछ भी न समझता हुआ ऐसा प्रफुल्ल हो उठा जैसे उसने रावणवध ऐसा महान् कार्य कर ही दिया है ॥४६॥ अथ रामस्य लङ्कागमनेच्छामाहचिन्तिअलद्धत्थं विम भुमआविक्खेवसूइमरिसरसम् । गमणं राहवहिए रक्खसजीविग्रहरं विसं व णिहित्तम् ॥४७॥ [चिन्तितलब्धार्थमिव भ्र विक्षेपसूचितामर्षरसम् । गमनं राघवहृदये राक्षसजीवितहरं विषमिव निहितम् ।।] राघवमनसि गमनं निहितं संबद्धम् । लङ्कागमनाभिमुखं राघवचित्तमासीदित्यर्थः । गमनं कीदृक् । भ्रूविक्षेपेण लङ्काभिमुखभ्रूसंचारेण सूचितोऽमर्षरसो यत्र तथा । तथा च रामस्य धीरोदात्तत्वाल्लङ्काभिमुखभ्रूविकारेणवाम! ज्ञात इत्यर्थः । उत्प्रेक्षते-चिन्तितः सल्लब्धोऽर्थः प्रकृतोपयुक्तो येन तादशमिव । गमनेन चिन्तितं यदि हनूमानायास्यति तदा मया राघवमनसि संबद्धव्यमिति तस्मिन्नागते तत्र संबद्धमित्युत्प्रेक्षाशरीरम् । पुनः कीदृक् । 'राक्षसजीवितहरं विषमिव । यथा विषं प्राणापहारकं तथा राक्षसानां प्राणापहारकं तदेव गमनमासीत् । तेनैव ते मृता इति भावः ॥४७॥ विमला-गमन, जिसमें लङ्का की ओर भ्रसंचार से राम का अमर्ष सूचित हो रहा था तथा जिसने मानों सोचे गये (हनुमदागमनरूप) अर्थ की प्राप्ति कर ली है,-राघव के हृदय में राक्षसों का प्राणापहारक विष-सा निहित हो गया (राघव का गमन ही राक्षसवध में समर्थ है) ॥४७॥ अथ रामस्य लक्ष्मणाद्यवलोकनमाह सोह व्व लक्खणमुहं वणमाल व्व विअडं हरिवइस्स उरम् । कित्ति व्व पवणतण आणव्व बलाई से विलग्गइ विट्ठी ॥४८॥ [शोभेव लक्ष्मणमुखं वनमालेव विकटं हरिपतेरुरः। कीर्तिरीव पवनतनयमाज्ञेव बलान्यस्य विलगति दृष्टिः ॥] अयं बालो दुर्दमशत्रुसंमुखगमनाय सोत्साहो न वेति प्रथममतिसंनिहितसंबन्धिनः प्रियतमस्य लक्ष्मणस्य मुखमस्य रामस्य दृष्टि: शोभेव लग्ना। यथा शोभा लग्ना तथेत्यर्थः । तथा च लक्ष्मणमुखं तदानीमतिसश्रीकमासीदिति भावः । एवमचिरादेवामुष्योपकारः कृतः स तूरसि वर्तते न वेति निरूपणाय तत्पश्चादुदासीनप्रियतरस्य सुग्रीवस्य विकटं विस्तारशालिहृदयं यथा वनमाला लग्ना तथेयमपीत्यर्थः। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३७ रक्तनीलश्वेताकारत्वान्मालासाम्यम् । सुग्रीवस्य माला स्वाभाविकमलङ्करण मिति प्रसिद्धिः । अयमिदानीमेव लङ्कातः समागतो राक्षसबलाबलज्ञो मद्गमने साध्यवसायो न वेति जिज्ञासया शरीरचेष्टया क्षोभाक्षोभनिरूपणाय तत्पश्चात्प्रियं पवनसुतं यथा समुद्रलङ्घनादि कीतिर्लग्ना तथेयमपि । एत एव संप्रति सहायास्तदमीषां चेष्टा कीदृशीति ततोऽपि पश्चात्परिवारतापन्नानि वानरबलानि । यथा तत्क्षण एव सुग्रीवद्वारा कृता लङ्कागमनाज्ञा लग्ना तथेयमपि दृष्टिलग्नेति सर्वत्र सहोपमा। तथा च रामेण सर्वेऽप्यालोकिता इत्यर्थः । वस्तुतस्तु पूर्वोक्ततत्तदभिप्रायेणैव । तत्र तत्र यथा शोभादिकं लगति तथा दष्टिरपि लग्नेति सर्वत्र साधोपमा। परमार्थतस्तु पूर्वोक्ततत्तदभिप्रायेणैव तत्र तत्र लग्ना दृष्टियथासंख्यं शोभादित्वेनोत्प्रेक्षिता। तथा हि प्रथमं लक्ष्मणमुखं रामदृष्टि: शोभेव लग्ना। दृष्टिरेव तत्र शोभाभूदित्यर्थः । एवं सुग्रीवहृदयं वनमालेव पवनतनयं कीतिरिवाज्ञेव बलानीत्युन्न यामः ॥४८॥ विमला-(यह बालक शत्रु के सम्मुख जाने के लिए: सोत्साह है अथवा नहींइस अभिप्राय से) इन (राम) की दृष्टि सर्वप्रथम लक्ष्मण के मुख पर शोभा-सी जा लगी (मुखमण्डल पर दृष्टि ही शोभा हुई), तदनन्तर ('अभी थोड़े ही दिन हुए मैंने वाली का वध कर इसका महान् उपकार किया है, यह इसके हृदय को याद है या नहीं'-- इस अभिप्राय से) राम की दृष्टि सुग्रीव के विशाल हृदय पर वनमाला-सी लगी (दृष्टि ही वहाँ वनमाला हुई), तदनन्तर ('यह अभी-अभी लङ्का से आया है, राक्षसों के बलाबल से अवगत है, यह मेरे गमन से सहमत है अथवा नहीं'---इस अभिप्राय से) पवनतनय पर कीति-सी जा लगी (दष्टि ही वहाँ कीर्ति हुई), तत्पश्चात् (वानरसैन्य की चेष्टा जानने के उद्देश्य से) राम की दृष्टि वानरसैन्य पर आज्ञा-सी लगी । दष्टि ही वहाँ आज्ञा हुई) ॥४८॥ रामप्रयाणमाहसंखोहिनमहिवेढो तो सो कइसेण्णविलुलिअवणाहोओ। खुहिअसमुद्दाहिमुहो महणारम्मम्मि मन्दरो विम चलिओ ॥४६।। [ संक्षोभितमहीवेष्टस्ततः स कपिसैन्यविलुलितवनाभोगः । क्षुभितसमुद्राभिमुखो मथनारम्भे मन्दर इव चलितः ॥] ततः स रामश्चलितः । कीदृक्सन् । क्षुभितो यः समुद्रस्तदभिमुखः सन् । तथा च रामे चलति क पिसैन्यचङ क्रमेण परमार्थतो वृत्तः समुद्रक्षोभो भविष्यद्रामशरानलदाहसेतूपमर्दादिहेतुकत्वेनोत्प्रेक्षितः । क्षुभितपदेन इवार्थस्य गम्यमानत्वात् क इव । समुद्रमथनोपक्रमे मन्दरपर्वत इव । प्रकृतेऽपि समुद्र मथनोपक्रम एवायमिति भावः। रामः कीदृक । संक्षोभितं चालितं महीवेष्टं येन । एवम्, कपिसैन्यद्वारा विलुलितो वनाभोगश्च येन । एतावता वानराणां संख्याबलोल्बणत्वप्रकर्षः सूचितः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] सेतुबन्धम् [ प्रथम तथा । मन्दरोऽप्युत्पाटनसमये क्षोभितभूवलय: स्वभावादेव सेनाकारस्थितकपिविलुलितवनाभोगो जलप्रवेशसमये क्षुभितसमुद्राभिमुखश्चेति साम्यम् ||४१ ।। विमला - श्रीरामचन्द्रजी भूमण्डल को क्षुब्ध करते हुए तथा कपिसैन्य के द्वारा वनमण्डल को अव्यवस्थित करते हुए, समुद्रमथन के उपक्रम में मन्दराचल के समान, क्षुब्ध (१ - अशान्त, २ - भयभीत ) समुद्र की ओर मुँह किये चल पड़े ॥ ४६ ॥ अथ वानरबलसञ्चारमाह चलिभं च वाणरवलं चलिए तन्मि चलकेसर सडुज्जोग्रम् । गहिनदिसापरिणाहं मऊहजालं व दिण रस्स फुरन्तम् ||५०|| [ चलितं च वानरबलं चलिते तस्मिंश्चलके सरसटोयोतम् । गृहीतदिक्परिणाहं मयूखजालमिव दिनकरस्य स्फुरत् ॥ ] तस्मिन्रामे चलिते वानरबलं च चलितम् । कीदृक् । चलानां चञ्चलानां केसरसटानामुद्दघोतो यत्र । सूर्यकिरणसंबन्धादिति भाव । एवम् गृहीता आक्रान्ता दिशा परिणाहा येन तत्तथा । एवम् स्फुरणमुत्साहावस्था तद्वत् । किमिव । दिनकरस्य मयूखजालमिव । तदपि सकलदिग्व्यापि स्फुरत्सच्चलति । तथा च यथा दिनकरकिरणानामुदयतामेव शैघ्रयात्सकल दिग्व्यापकत्वं तथा कपीनां 'प्रस्थितानामेव तदासीदिति भावः । अत्र यद्यपि केसरशब्दस्यैव स्कन्धवालवाचकत्वमिति सटेत्यधिकं तथापि करिबृंहितादिपदवत्सार्थकत्वम् । वस्तुतस्तु किंचित्ताम्रत्वप्रतिपादनाय केसरवत्किञ्जल्क वत्सटेति व्युत्पत्तिमभिप्रेत्योक्तमिति सारम् ||५०॥ विमला - श्रीराम जी के चल पड़ने पर उनके पीछे, चञ्चल एवं केसर के समान किञ्चित् ताम्रवर्ण सटा (कन्धे के बाल ) की कान्ति वाला सकल दिग्व्यापी कपिल, केसर-सटा के समान चञ्चल प्रकाश वाले सूर्य के किरणजाल के समान चल पड़ा || ५० ॥ अथ कपीनां वृद्धिमाह - वेरारणिपज्जलिश्रो तो सो रोसपवणाहउद्धश्रमुहलो । वड्ढइ मग्गाणुगम्रो लङ्कावणराहवणवन कइलोनों ॥ ५१ ॥ [ वैरारणिप्रज्वलितस्ततः स रोषपवनाहतोद्धतमुखरः । वर्धते मार्गानुगतो लङ्कावनराजिवनदवः कपिलोकः ॥ ] ततः स कपिलोको वर्धते । स्वं स्वमाकारं गृहीतवानित्यर्थः । कीदृक् । मार्गों रामस्य पश्चात्तमनुगतः । मार्गशब्दः पश्चादर्थे निपातितः । पुनः कीदृक् । लङ्केव बनराजिस्तस्या वनदवः कपिशत्वा दाहकत्वादिति रूपकम् । एवं वैरमेवारणिर्यज्ञकाष्ठं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३६ तया प्रज्ज्वलितः । दीप्त इत्यर्थः । एवम्, रोष एव पवनस्तेनाहतः सन्नद्धतो मुखरः शब्दायमानः । तथा च वैरेण प्रदीप्ताः क्रोधेन कृतकोलाहलाः कपयो रामपृष्ठलग्नाश्चेलुरिति भावः । वह्निरपि काष्ठसंबन्धात्प्रज्ज्वलितो वायुसंबन्धादुद्धतं रसम्वर्धते गगनव्यापी च भवति ॥५॥ विमला-श्रीरामजी के पीछे चलता हुआ, लङ्कारूप वनराजि को भस्म करने के लिए कपिसमूहरूप दावानल, वैररूप काष्ठ से प्रज्ज्वलित एवं रोषरूप पवन से प्रचण्ड तथा शब्दायमान हो बढ़ा ॥५१॥ अथ रामप्रस्थानावस्थामाहवच्चइ अचडुलके सरसडुज्जलालोअवाणरपरिक्खित्तो। सव्वदिसामाप्रविप्रपलप्रपलित्तगिरिसंकुलो व्व समुद्दो ॥५२॥ [व्रजति च चटुलकेसरसटोज्ज्वलालोकवानरपरिक्षिप्तः । सर्वदिगाकृष्टप्रलयप्रदीप्तगिरिसंकुल इव समुद्रः ।।] व्रजति च राम इत्यर्थात् । किंभूतः । चटुलाः संचारे सति चञ्चला याः केसरसटास्तासामालोकस्तेजो यत्र तथाभूता ये वानरास्तैः परिक्षिप्तो वेष्टितः । संचारे सति रवितेज च्छटासंपर्कात्सटानामपि तेजोविशेषप्रतीतिरिति भावः । क इव । समुद्र इव । सोऽपि कीदृक । सर्वदिग्भ्य आकृष्टाः प्रचण्डानिलेन वर्तुलीकृता प्रलये दह्यमाना ये गिरयस्तैः संकुलो व्याप्तः । तथा स्वभावतो निश्चल एव समुद्रः प्रलयवशान्मर्यादामतिक्रम्य जगदाक्रम्यति तथा धीरोऽपि रामो रावणप्रलयमिव कर्तुमुत्पथचरो निखिलमाचक्रामेति भावः । कपीनां पिङ्गलत्वात्कोपवशादुष्णत्वाच्च दह्यमानगिरिसाम्यम् । यद्वा समुद्रश्चलतीति योजनीयम् । कोदृक् । तथाभूतवानरवेष्टितः । तेषु चलत्सु भूमेरवनमनात्समुद्रस्योत्पथगामित्वेन तज्जलानामवैवागमनाकपिवेष्टितत्वमिति भावः । एतदेवोत्प्रेक्षते-तथाभूतगिरिसंकुल इव । शेष समानम् ॥५२॥ विमला-चञ्चल केसरसटा के उज्ज्वल तेज वाले वानरों से परिवृत राम, सब दिशाओं से खींच-खींच कर एकत्र किये गये, प्रलयकाल के प्रज्ज्वलित पर्वतों से व्याप्त समुद्र के समान गमन कर रहे हैं ॥५२॥ अथ रामस्य दिङ्मोहमाह घोलन्ति णिम्मलामो फुरन्तदिनसमरपाअडिग्ररूआनो। बाविसमग्गम्मि वि से हिनए सोअन्धमारिअम्मि विसामो ॥५३॥ [ घूर्णन्ते निर्मलाः स्फुरद्दिवसकरप्रकटितरूपाः । दर्शितमार्ग इव यस्य हृदये शोकान्धकारिते दिशः ।। ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] सेतुबन्धम् [प्रथम यस्य रामस्य हृदये सीताविश्लेषजशोकरूपान्धकारविशिष्टे दिशो घूर्णन्ते इयं प्राचीयं प्रतीची ति स्थैयं न लभन्ते । भ्रमविषया भवन्तीति यावत् । किंभूता दिशः । निर्मला मेघाद्यच्छन्नाः । अत एव स्फुरता दिवसकरेण प्रकटितं व्यक्तीकृतं रूपं प्राचीप्रतीचीत्वनिर्णायकचिह्न यासां ताः । हृदये कीदृशे । दर्शित उपन्यस्तः कपिभिरर्थात्पन्था यस्मै तथाभूते। तथा च सूर्यप्रकाशमार्गोपदर्शनादिप्रभासामग्रीसत्त्वेऽपि . दिग्भ्रम इति शोकस्याधिक्यम् । विशेषोक्तिरलङ्कारः । तदुक्तम्-'विशेषोक्तिरखण्डेषु कारणेषु फलावचः' इति । अन्योऽपि दर्शितवमन्यपि तिमिरे चलन्भ्राम्यतीति ध्वनिः ॥५३॥ विमला-यद्यपि कपियों द्वारा मार्ग दिखाया जा रहा है और चमकते हुये सूर्य से दिशाओं का निर्णायक चिह्न स्पष्ट व्यक्त है एवं मेघादि के अभाव से दिशायें भी निर्मल हैं तथापि शोकतिमिर से आच्छन्न राम के हृदय में दिशायें घूम रही हैं अर्थात् यह प्राची अथवा यह प्रतीची है-यह निश्चित नहीं हो पाता है। विमर्श-मार्ग-दर्शन, सूर्यप्रकाश, दिशाओं की निर्मलता आदि कारण के सद्भाव में दिशा-ज्ञानरूप कार्य का अभाव वर्णन होने से 'विशेषोक्ति' अलंकार है-'सति हेतो फलाभावे विशेषोक्तिः ॥५३॥ अथ विन्ध्य प्राप्तिमाहमालोएइ प्रविञ्झं धणुसंठाणस्स सारस्स भरसहम् । संधिमणइसोत्तसरं अवहोवासघडि व जीमाबन्धम् ।।५४॥ [ आलोकते च विन्ध्यं धनुःसंस्थानस्य सागरस्य भरसहम् । संहितनदीस्रोतःशरमुभयावकाशघटितमिव जीवाबन्धम् ॥] रामो धनुराकारस्य सागरस्य भरसहं कल्लोलतटपाताद्यनुपमर्दनीयं विन्ध्यं नाम पर्वतमालोकते च । कमिव । संहितो नदीस्रोतोरूपः शरो यत्र तथाभूतमुभयावकाशः प्रान्तभागद्वयमटनी तत्र घटितमारोपितं जीवाबन्धमिव । जीवा ज्या । तथा च चक्राकारः समुद्रो धनुः । ऋजुः पर्वतस्तत्प्रान्तद्वयलग्नः पतञ्जी। विन्ध्यमध्यानिगम्य तत्र समुद्रे पतन्नदीप्रवाहः शर इति तात्पर्यम् ।।५४।। विमला-राम, धनुषाकार सागर के भार (लहरों के थपेड़े आदि) को सहने वाला, (पर्वत के मध्य से निकल कर समुद्र में गिरते हुए ) नदीप्रवाहरूप चढ़ाये गये बाण वाला, ( समुद्र के दोनों छोर पर आरोपित जीवाबन्ध-(डोरी )-सा विन्ध्यपर्वत देखते हैं ॥५४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् ४१ अथ वानराणामुल्बणत्वमाह मसिणि प्रसिहरुच्छङ्गो विअगिप्रम्बवगा प्रडिङ्गडो । विञ्झेण भरिप्रकुहरो हेलावाप्रो वि वाणराण ण सहिरो ।।५।। [ मसृणितशिखरोत्सङ्गो विधुतनितम्बवनप्रकटिततुङ्गतटः । विन्ध्येन भृतकुहरो हेलापातोऽपि वानराणां न सोढः ॥] विन्ध्येन वानराणां हेलयाऽनास्थयापि पातो गमनम्, पत्लु पतनगतो' इति धात्वनुसारादुत्फालादवपतनं वा न' सोढः। तदुपदितोऽभवदित्यर्थः । तदेवाहपातः कीदृक् । मसृणितो विलुलितः शिखरकोडो यस्मातादृक् । एवम्, विधुतै रुन्मूलितैनितम्बवनैः प्रकटितस्तुङ्गस्तटो यस्मात् । तथा च वनवृक्षाणामुन्मूलनेनावरकाभावात्तटतुङ्गिमा परं प्रकटोऽभूदिति भावः । पुनः कीदृक् । भृतं पूर्णमर्थातकपिभिरेव कुहरं कंदरादिप्रदेशो येन तत्तथा। तथा च मूलमध्यशिरःप्रदेशावच्छेदेन कपिभिस्तथोपमर्दः कृतो यथा कियानप्यवकाशो न स्थित इति भावः । 'हेलावातो हेलया वातः पवनो जङ्घादिसमुत्यो न सोडः । तद्विरोध गं सर्वम्' इत्यपि कश्चित्॥५५।। विमला-लीलापूर्वक छलाँग भरकर बानरों के कूदने को विन्ध्य पर्वत सह नहीं सका-वानरों ने उसे तहस-नहस कर दिया। उसके शिखर-प्रदेश को मसल डाला, नितम्ब (मध्यभाग) के वनों का उन्मूलन कर डाला, जिससे उसका ऊंचा तट (अनावृत हो) स्पष्ट दिखायी पड़ने लगा और कन्दरायें वानरों से भर गई ॥५५॥ अथ सह्यगमनमाह पत्ता अ सीपराइमघाउसिलालणिसग्गराइप्रजल अम् । सझं प्रोज्झरपहसिप्रदरिमुहणिक्कन्तब उलमहरामोप्रम् ।।५६॥ [प्राप्ताश्च शीकराहतधातुशिलातलनिषण्णराजितजलदम् । सह्य निर्झरप्रहसितदरीमुखनिष्क्रान्तबकुलमदिरामोदम् ॥] ने सह्य गिरि प्राप्ताश्च । कीदृशम् । शीकरैराहतं यद्गैरिका दिशिलातलं तत्र निषण्णा अत एव राजिताः शोभिता रागप्राप्तत्वाज्जलदा यत्र तथाभूतम् । निजशीकरेण धातूनां पङ्कीभावात्तत्संबन्धेन मेघानां लौहित्यमिति भावः । एतावता उच्चत्वमुक्तम् । एवम्, निर्झर एव प्रहसितं यत्र तादृशी या दरी सैव मुखं तस्मानिष्क्रान्तो बकुलमेव मदिरा तदामोदो यत्र तादृशम् , तथा च कंदरारूपमुखान्निझरस्वरूपहास्योद्गमसमये बकुलपुष्परूपमदिराणामामोदो निर्याति निरन्तरमित्यर्थः । इति विकटोदरत्वमुक्तम् । अन्यस्यापि हास्यसमये मदिरामोदो निर्यातीति ध्वनिः ॥५६॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] सेतुबन्धम् [प्रथम विमला-तत्पश्चात् वे सब सह्याद्रि नामक पर्वत पर पहुँचे; जहाँ (मेघों की) नलबूंदों से प्रताड़ित (अतएव पङ्किल) गेरू की शिलाओं पर स्थित (अतएव लाल) मेष सुशोभित हो रहे थे तथा जिसके कन्दरारूप मुख से निर्झर-स्वरूप हास्य के साथ बकुल-(मौलसिरी)-पुष्परूप मदिरा की सुगन्ध निरन्तर निकल रही थी॥५६॥ भथ गिरिनदीलङ्घनमाहबोलन्ति प्र पेच्छन्ता पडिमासकन्तधवलघणसंघाए। फुडफडिप्रसिलासंकुलख लिनोवरिपस्थिए विप्र ण इप्पवहे ॥५७।। [ व्यतिक्रामन्ति च पश्यन्तः प्रतिमासंक्रान्तधवलघनसंघातान् । स्फुटस्फटिकशिलासंकुलस्खलितोपरिप्रस्थितानिव नदीप्रवाहान् ॥] ते नदीनां प्रवाहान्पश्यन्तः सन्तो व्यतिक्रामन्ति । उल्लङ्घन्त इत्यर्थः । किंभूतान् । प्रतिमया प्रतिबिम्बेन संक्रान्ता धवलघनानां संघाता यत्र तथाभूतानिति नदीनामच्छत्वमतिमहत्त्वं चोक्तम् । उत्प्रेक्षते-स्फुटा व्यक्ता या स्फटिक शिला तत्संकुले । स्फटिकभूमावित्यर्थः । तत्र स्खलितान् । अत एवोपरि प्रस्थितानिव । जलानां क्वचित्स्खलनादुपरि प्रस्थानं भवति । तथा च शुभ्रशारदजलदानां प्रतिबिम्बाज्जलं स्फटिकोपरि तिष्ठतीति प्रतिभाति । तत एवोक्तं पश्यन्त इति । कपीनामपि स्फटिकादिसंदेहादिति भावः ।।५७।। विमला--नदियों के प्रवाह धवल मेघों के प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसे प्रतीत हो थे मानों वे व्यक्त स्फटिकभूमि पर स्खलित हो ऊपर को बढ़ रहे हैं (अतएव स्फटिक का सन्देह होने से) वानर उन नदी-प्रवाहों को (सम्यक्) देखते हुए लाँघ रहे थे॥७॥ अथ कपीनामुद्धतसञ्चारमाहतडपब्भारभरन्ता दलन्तपानालगलिग्रजलपइरिक्का । मावाए च्चिन जाआ पहप्रमहावहणि हा महाणइसोत्ता ॥५८।। [ तटप्राग्भारभ्रियमाणानि दलत्पातालगलितजलप्रतिरिक्तानि । आपात एव जातानि प्रहतमहापथनिभानि महानदीस्रोतांसि ।।] महानदीनामपि स्रोतांसि आपात एव तदानीमेव प्रहतो जनसंचारघृष्टो यो महापथः प्रसारी पन्थास्तत्संनिभानि जातानि । कीदृशानि । तटयोः प्राग्भारैरेकदेशै - तानि पूर्णानि । एवम्, दलस्पातालेषु गलितैर्जलैः प्रतिरिक्तानि तुच्छानि । तथा च जलानां दलत्पातालप्रविष्टत्वात्तटयो र पदाहत्या त्रुटित्वा खात एव निविष्टत्वात्सन्यसञ्चारेण समीकृतत्वाच्च नित्यसंचरत्पथिकः पन्था इव नदीनां प्रवाहोऽभूदिप्ति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् रामसतुप तात्पर्यम् । महापथशब्दस्य तु श्मशानवाचकत्वं न शङ्कनीयम् । प्रहतपदसंनिधा-. नात् । नहि श्मशानं जनसञ्चारघृष्टं भवतीति भावः ॥५८॥ विमला-बड़ी-बड़ी नदियों के भी प्रवाह तत्काल ही नित्य चालू मार्ग के समान' हो गये, क्योंकि वानरों ने दोनों तटों को अपने पैरों से ऐसा रौंदकर तोड़फोड़ डाला कि उनके सामने वाला थोड़ा-सा भाग आने-जाने भर को ही रह गया और नदियों का जल उनके पेटों में प्रविष्ट हो अत्यन्त कम हो गया एवं सैन्य- . संचार से समस्त ऊबड़ खाबड़ (प्रदेश) सम हो गया ॥५८।। अथ मलयप्राप्तिमाहजलहर णिद्दाअन्तं पाअवगहणेसु सिसिरणिद्दाअन्तम् । सइ दुद्दिणसामल पत्ता भग्गधुप्रचन्दणरसा मलग्रम् ॥५६॥ [ जलधरनिर्दावान्तं पादपगहनेषु शिशिरनिद्रायन्तम् । सदा दुर्दिनश्यामलतं प्राप्ता भग्नधुतचन्दनरसा मलयम् ॥] ते मलयं प्राप्ताः । किभूताः । भग्ना धुतस्य चन्द्रस्य रसा भमिस्ते । कपिभिः स्वभावाच्चन्दनान्दोलने कृते तत्तटभूमिर्भग्नेत्यर्थः । मलयं किंभूतम् । जलधरेण निर्दावोऽन्तः स्वरूपं यस्य तम् । नित्यं मेघाधिष्ठानात्तज्जलेन दावनाशादिति भावः । यद्वा जलगृहनिर्दावान्तं जलग्रहेण समुद्रेण निर्दावोऽन्तः प्रान्तो यस्य समुद्रसंनिहितदेशस्य नित्यं जलसंबन्धेन नष्टदावक वात् । यद्वा पूर्वनिपातानियमेन निद्रायमाणजलधरं निद्रायमाणा जलधरा यत्र । महोच्च वेन जनसञ्चाराभावात् । अथवा जलधरनिद्रावन्तं जलधराणां निद्राविशिष्टम् । एवं च मलयं प्राप्ता इति समन्वये जलधरणिद्रावम् । जलविशिष्टा या धरणिस्तां द्रावयतीत्यर्थः । जलसंबन्धाद्धरण्या द्रवीभावादिति भावः। एवं जल गहनियं जलग्रहेण दायशून्यम् । समुद्रकल्लोलेन खनिस्थरत्नादीनामाकर्षणात् । एवं जलधरनिद्राकं जलगृहनिद्राकं वा तयोनिद्रा यत्र तम् । अवष्टम्भभूतत्वात् । एवं निद्रातजल धरं निद्रातजलधरगृहं वा बहुव्रीहिः । जलधरनिर्दावं वा तृतीयातत्पुरुषः। एवं पादपगहनेषु शिशिरेण शैत्येन निद्रां कारयन्तम् । अर्थात्तत्रत्याजनान् । यद्वा शिशिरनिद्राकान्तम् । शिशिरेण निद्रया कान्तं शैत्यहेतुकनिद्राकारकत्वेन कमनीयमित्यर्थः । एवं सदा दुर्दिनेन मेघाच्छन्नतया श्यामलता यत्र तम् । आतपाभावेन जलसंबन्धेन च लतानां श्याम वमित्यर्थः । यद्वा सदा दुर्दिनश्यामलकम् । स्वार्थे कन् । सदा दुदिनेन मेघाच्छन्नत्वेन श्याममित्यर्थः । यद्वा सदा दुर्दिनेन श्यामलं कं जलं यत्र तत्तथा । यद्वा सदादुर्दिनसाम. लकम् । सदा दुर्दिन यति बहुव्रीहिणा सदा दुदिनं च तत्सामलकमामलकवृक्षसहितं चेत्यर्थः । एवं सदादुर्दिनं च तच्छयामालयं श्यामानां नारीणामालयं च । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] सेतुबन्धम् [ प्रथम श्यामा रात्रिस्तस्या लयो हीनता यत्र तमिति वा । सदा दुर्दिने कुञ्जमयप्रदेशे । दिनरात्रि विभागाभावादिति भावः । श्यामा सोमलता तदालयमिति वा । 'श्यामः स्यान्मेचके वृद्धदारके हरिते धने । श्यामा स्यादङ्गना रम्या तथा सोमल तौषधिः ॥' इति कोषः ।।५।। विमला-वृक्षों की झुरमुट में शीतलता से (वहाँ के लोगों को) सुलाने वाले, • सदा मेघाच्छन्न होने के कारण श्यामलता-सम्पन्न मलयगिरि पर उन वानरों ने पहुंच कर (स्वभाववश) चन्दन वृक्षों को हिलाकर उनके किनारे की भूमि को भग्न कर दिया ॥५॥ अथ चन्दनवृक्षालोकनमाह चन्दणपाअवलग्गे खुडिउज्वेलिमलमापरिमलच्छाए । संवाणिप्रणिम्मोए पेच्छन्ति महाभुङ्गवेढणमग्गे ॥६०॥ [ चन्दनपादपलग्नान्खण्डितोद्वेल्लितलतापरिमलच्छायान् । संदानितनिर्मोकान्पश्यन्ति महाभुजङ्गवेष्टनमार्गान् ॥ ] ते चन्दनवृक्षसंबद्धान्महाभुजङ्गानां वेष्टनस्य मार्गान्वलयाकारस्थितिर्येन यथासीत्तान्नित्यं सर्वसंबन्धान्निम्नीभूय स्थितान्पश्यन्ति । किंभूतान् । संदानितो मिश्रितो निर्मोको यत्र । लग्नकञ्चकानित्यर्थः । कपिसंक्षोभेण सणां पलायितत्वान्निर्मोकोऽत्रैव स्थित इति भावः । अहो एतादृशाः सर्पा इह स्थिता इत्याश्चर्येण पश्यन्तीति तात्पर्यम् । पुनः किंभूतान् । खण्डिता अथोद्वेल्लिता उद्घाटिता । स्फोटितेति यावत् । एवंभूता या लता तस्याः परिमलो विमर्दस्तच्छायान् । तदाकृतीनित्यर्थः । वृक्षसंबद्धल तोद्धाटनानन्तरं यथा तच्चिह्न निम्नं वलयाकृति जायते तथेदमपीत्यर्थः । तथा चेदृगगम्यस्थानं कपिभिराक्रान्तमिति भावः ॥६०॥ विमला-सभी वानरों ने साश्चर्य देखा कि उन वानरों के संक्षोभ से चन्दनवृक्ष में लिपटे हुए सर्पो के भाग जाने पर तनों में केवल उनकी केंचुलें लगी हैं और सर्पो के लिपटे हुए स्थानों पर उनकी लपेटों के वैसे ही गहरे चिह्न बन गये हैं जैसे वृक्ष के तने से लिपटी लताओं को तोड़-मरोड़ कर हटा देने पर उनकी लपेटों के गहरे चिह्न दिखाई देते हैं ॥६०॥ अथ गिरिनदीप्रवेशमाह सेवन्ति तीरवढिअणिमअभरोम्वत्तचन्दणलग्रालिद्धे । .रम्मत्तणदिपवहे वणगप्रदानकडुए गिरिणईप्पवहे ॥६१॥ [ सेवन्ते तीरवधितनिजकभरापवृत्तचन्दनलतालीढान् । रम्यतृणदीप्रपथान्वनगजदानकटून्गिरिनदीप्रवाहान् ॥] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४५ ते गिरिनदीप्रवाहान्सेवन्ते । दर्शनस्पर्शनमज्जनादिभिरित्यर्थः । 'शसए' इत्येकारादेशेन 'गिरिणइप्पवहे' इति द्वितीयाबहुवचनम् । किंभूतान् । तीरे वधिता अत एव निजकभरेणैवापवृत्ता विपरीत्य स्थिता याश्चन्दनलतास्ताभिराश्लिष्टानिति चन्दनसंबन्धात्सुरभितया पेयजलत्वमुक्तम् । एवं जलसंबन्धाद्रम्याणि तटयोर्यानि तृणानि तैर्दीप्रो दूरदश्यः पन्था निःसरणमार्गो येषां तान् । हरिद्वर्ण तृणैरेवोभयतटो द्भूतैर्दू रत एव ज्ञायते प्रवाहपथोऽयमिति भावः । तथा वनगजदानजलेन कटून् । एतावता तत्संबन्धेन स्यादस्य हृद्यत्वमुक्तम् ॥६१॥ विमला-बानरों ने तट पर प्ररूढ, अतएव अपने ही भार से जल की ओर मुड़ी चन्दन-लताओं से आश्लिष्ट, (दोनों तटों पर उत्पन्न) रम्य तृणों से दूर से ही ज्ञायमान पथ वाले तथा वनगज के मदजल से कटु गिरिनदी के प्रवाहों का दर्शनस्पर्शन और मज्जन से उपयोग किया ॥६१॥ अथ स्कन्धकचतुष्टयेन समुद्रतीरप्राप्तिमाह तो तरुणसिप्पिसंपुडवरवाविमजलणिहित्तमुत्तावपरम् । पत्ता पत्तलवउलं गदाणसुप्रन्धिरप्रणवेलं वेलम् ॥६२।। [ ततस्तरुणशुक्तिसंपुटदरदर्शितजलनिहितमुक्ताप्रकराम् । प्राप्ता पत्त्रलबकुलां गजदानसुगन्धिरजोनवैलां वेलाम् ॥] ततस्ते वेलां समुद्रस्य तीरं प्राप्ताः। कीदृशीम् । तरुणेषु भिदेलिमेषु शुक्तिसंपुटेषु दरशितः किंचित्प्रकाशितो जलनिहितो जलस्थितो मुक्ताप्रकरो यत्र ताम् । भिदुरशुक्तिनिर्गत्वरीणां मुक्तानां तीरजलेषु किंचिद्वयक्तीभूय स्थितत्वादित्यर्थः । एवं पत्त्रला बहुलपत्त्रयुक्ता बकुलवृक्षा यत्र ताम् । पुनः कीदृशीम् । गजानां दानं मदस्तद्वत्सुगन्धि रजः परागो यस्या एतादृशी नवा एला यत्र तादृशीम् । एतेन सैनिकान्प्रति हृद्यत्वमुक्तमिति भावः ॥६२।। विमला-तत्पश्चात् वे सब समुद्र-वेला (समुद्र की तटभूमि) पर पहुँचे । वहाँ भग्नप्राय सी पियों से कुछ-कुछ बाहर निकले मोती जल में दिखाई दे रहे थे। सधन दल वाले बकुल वृक्ष सुशोभित हो रहे थे। नव एला (इलायची) के पराग, गज के मदजल के समान सुगन्धित थे ॥६२॥ अथ स्कन्धकत्रयेण वेलामेव वर्णयतिविअसिनतमालणीलं पुणो पुणो चलतरङ्गकरपरिमट्ठम् । फुल्लेलावणसुरहिं उअहिगइन्दस्स वाणलेहं व ठियम् ॥६३॥ [विकसिततमालनीलां पुनः पुनश्चलतरङ्गकरपरिमृष्टाम् । फुल्ललावनसुरभिमुदधिगजेन्द्रस्य दानलेखामिव स्थिताम् ॥] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] सेतुबन्धम् - [प्रथम पुनः कीदृशीम् । उदधिरेव गजेन्द्र इति रूपकम् । तस्य दानलेखामिव मदधारामिव स्थितामित्युत्प्रेक्षा। मदलेखातौल्यमाह-पुनः कीदृशीम् । विकसितं यत्तमालपुष्पं तेन नीलाम् । तमालस्य श्यामत्वात् । एवं वारंवारं चञ्चलकल्लोलरूपेण करेण परिमृष्टाम् । भूयोभूयस्तरङ्गसंबन्धात् । एवं फुल्लं यदेलावनं तेन सुरभिम् । मदलेखापि तमालवच्छयामा चञ्चलतरङ्गवद्यः करः शुण्डा तया परामृष्टा फुल्लावनवत्सुरभिश्च भवतीत्यर्थः ॥६३॥ विमला-विकसित तमालों से नील, चञ्चल तरङ्गरूप कर (सूड़) से पोंछी जाती, फूले हुये एलावन से सुगन्धित वेला (समुद्रतटवर्तिनी भूमि), उदधि गजेन्द्र के तमालवत् श्याम, चञ्चल तरङ्गसदृश कर (सूड़) से परामृष्ट, फूले हुए एलावन के समान सुगन्धित मदलेखा (मदजल से बनने वाली लकीर) के समान सुशोभित थी ।।६३।। फेणविसमङ्गरासं विद्दुमदन्तव्वणाणिअमुहच्छाअम् । मलिअवणकेसकुसुमं परिहत्तसमुद्दपरिमलं व वहन्तिम् ॥६४॥ [ फेनविषमाङ्गरागां विद्रुमदन्तव्रणानीतमुखच्छायाम् । मृदितवनकेशकुसुमां परिभुक्तसमुद्रपरिमलमिव वहन्तीम् ॥'] एवं परिभुक्त उपभुक्तो यः समुद्रस्तस्य परिमल: संभोगरूपसबन्धस्य चिह्न तदिव धारयन्तीम् । तच्चिह्नमेवाह-कीदृशीम् । फेन एव विषमः परिरम्भणादिना क्वचित्क्वचिद्विलुलितोऽङ्गरागो यस्यास्ताम् । एवं विद्रुम एव दन्तवणः । लोहितत्वात् । तेनानीता प्रापितातीव प्रौढा वा मुखे नदीप्रवेशस्थाने छाया कान्तिर्यस्यास्ताम् । नदीसमुद्रयोः संघट्टेन विद्रुमाणां प्रकटत्वादिति भावः । एवं च मृदितानि वनान्येव केशास्तेषां कुसुमानि यत्र । तथा च समासोक्त्या समुद्रस्य नायकत्वं वेलायाश्च नायिकात्वं प्रतीयते । सापि नायकोपमर्दैन क्वचित्क्वचिद्विषमितफेनतुल्यचन्दनाद्यङ्गरागा विद्रुमप्रायरक्तदन्तक्षतानीताननकान्तिः कराकर्षणादिना मृदितकेशकुसुमा च भवतीति साम्यम् ॥६४।। विमला-आलिङ्गन आदि से कहीं-कहीं पोंछ उठे फेनरूप अङ्गराग वाली विद्रुमरूप दन्तक्षत से मुख (१-नदी-प्रवेशस्थान, २-मुह) की बढ़ायी गई कान्ति वाली, दलित वनरूप केश-कुसुम वाली वेला ( समुद्रतटभूमि ), रमित समुद्र के सम्भोग सम्बन्ध का चिह्न-सा धारण करती हुई सुशोभित हो रही थी। विमर्श-प्रस्तुत समुद्र पर अप्रस्तुत नायक के व्यवहार का तथा प्रस्तुत वेला पर अप्रस्तुत नायिका के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलंकार है। नायिका भी नायक के आलिङ्गन से फेनतुल्य कहीं-कहीं पोंछे गये अङ्गराग वाली Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् होती है तथा विद्रुम के समान लाल दन्तक्षत से उसके आनन्द की कान्ति बढ़ जाती है एवं हाथ से केश का आकर्षण आदि होने से उसके केश-कुसुम मसल उठते हैं ॥६४।। सिप्पिउडमउलिअच्छि लगाहरभन्तरेसु परिवड़ढन्तम् । मणराप्रपरिवि प्राअण्णन्ति व किंणरुग्गीअरवम् ॥६॥ इन सिरिपवरसेणविरइए दसमुहवहे महाकन्वे पढमो प्रासासो समत्तो। [शुक्तिपुटमुकुलिताक्षी लतागृहाभ्यन्तरेषु परिवर्धमानम् । अनुरागपरिस्थापितमाकर्णयन्तीमिव किन्नरोद्गीतरवम् ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे महाकाव्ये प्रथम आश्वासकः समाप्तः । किन्नराणामुद्गीतरूपं रवमाकर्णयन्तीमिव । पुनः कीदृशीम् । शुक्तिपुट एव मुकुनितमक्षि यस्यास्ताम् । पूर्वोक्तभिदुरशुक्तिपुटानां मुकुलितनयनतुल्यत्वादित्यर्थः । गीतरवं कीदृशम् । लतागृहाणामभ्यन्तरेषु परिवर्धमानम् । प्रतिशब्दोपचयादिति भावः । एवमनुरागं प्रति नाटकार्णाटादिराग परि सर्वतोभावेन स्थापितं मूछनां प्रापितम् । अनुरागण गीतप्रीत्या वा परिस्थापितं यथोचितश्रुतिग्रामादिषु प्रापितम् । भन्योऽपि गीतश्रवणकाले मुकुलितचक्षुर्भवतीति ध्वनिः । अथ चानुरागपदचिह्नितत्वादाश्वासक विच्छित्तिरप्युक्ता ॥६५॥ रामप्रस्थानदशया' रामदासप्रकाशिता। रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णाभूत्प्रथमा शिखा । विमला-अनुराग से परिस्थापित (सकल अङ्गों के साथ सब प्रकार यथोचित रोति से प्रस्तुत किये गये), लतागृह के भीतर (प्रतिध्वनि के कारण) परिवर्धमान, किनरों के उच्च स्वर से गाये गये गीत के रव को सुनती-सी (आनन्दविभोर हो जाने से ) उस समुद्र-वेला का ( आधा खुला और आधा मुदा ) शुक्ति-सम्पुटरूप नेत्र मुकुलित हो गया था ॥६५।। इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित वशमखवध महाकाव्य में प्रथम आश्वास को 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। १. दशा दीपवतिरपि। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आश्वासः अथ षत्रिंशता स्कन्धरादिकुलकेन समुद्रमाह अह पेच्छइ रहुतणो चडुलं दोससप्रदुषखबोलेप्रज्वम् । अमनरससारगरु कज्जारम्भस्स जोव्वणं व समुहम् ॥१॥ [अथ पश्यति रघुतनयश्चटुलं दोषशतदुःखव्यतिक्रमणीयम् । अमृतरससार गुरुकं कार्यारम्भस्य यौवनमिव समुद्रम् ।।] अथ वेलाप्राप्त्युत्तरं रघुतनयो रामः समुद्रं पश्यति । कीदृशम् । चटुलं चञ्चलम् । एवं दोषो मकर कल्लोलादिस्तद्वाहुल्येन दुःखलङ्घनीयम् । शतशब्दस्याधिक्यार्थत्वात् । दोःशतदुःखव्यतिक्रमणीयं वा। दोःशतेन बाहुशतेनापि दुर्लङ्घयमित्यर्थः । एवममृतरसेन सारेण रत्नादिना च गुरुक गौरवयुक्तम् । यद्वाऽमृतरस एव सारो धनं तेन गुरुकमतिशयितम् । उत्प्रेक्षते-किमिव । कार्यारम्भस्यारभ्यमाणकार्यस्य । कृदभिहित इति न्यायात् । यौवनं मध्यभागमिव । कार्ये आद्यन्तभागी सुकरी मध्यभागस्य परं दुष्करत्वमित्यर्थः । तदपि दोषशतेन विघ्नशतेन दु:खनिष्पादनीयम् । एवममृतर सप्रायं यत्सारं फल भागस्तेन गुरुकमादरणीयमिति साम्यम् । आश्चर्यरूपत्वमग्रिमकार्य प्रत्यूहत्वेन पारावारजिज्ञासा च दर्शने तात्पर्यम् ॥१॥ विमला-श्रीराम ने (समुद्र के आश्चर्यरूप तथा अगले कार्य में महान बाधक होने के कारण उसके आर-पार की जिज्ञासा से) चंचल समुद्र को (ध्यान से) देखा, जो (भयंकर जीव-जन्तु-तरङ्गादि) दोषाधिक्य के कारण दुर्लङ्घय है तथा अमृतरस एवं रत्नादि (सार) के कारण गौरवशाली भी है । वह (राम के) आरभ्यमाण कार्य (दशमुखवध) का मध्य-भाग-सा है, जो विघ्नाधिक्य के कारण दुष्कर है,किन्तु अमृतरसतुल्य (सीताप्राप्तिरूप) फल भाग से आदरणीय भी है। विमर्श-ज्ञातव्य है कि किसी कार्य का आदिम और अन्तिम भाग तो सुकर होता है, किन्तु उसका मध्य भाग अत्यन्त दुष्कर होता है; क्योंकि सकल विघ्नबाधायें वहीं आकर अड़ती हैं ॥१॥ गणस्स व पडिबिम्बं धरणीम्र व जिग्गमं दिसाण व णिलअम् । भुणस्स व मणितडिमं पलनस्स व सावसेसजलविच्छड्डम् ॥२॥ [गगनस्येव प्रतिबिम्बं धरण्या इव निर्गमं दिशामिव निलयम् । भुवनस्येव मणितडिमं प्रलयस्येव सावशेषजलविच्छर्दम् ।।] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ se पुनः कीदृशम् । गगनस्य प्रतिबिम्बमिव । एतेन प्रतिबिम्बस्य प्रकृतिसमानाकारत्वादाकाशतौल्यम् । धरण्या निर्गममिव । निर्गम्यतेऽनेनेति निर्गमो द्वारम् । येन धरणी निर्गता । तथा च निर्गमखातत्वेन गाम्भीर्यं भूम्यधिक परिमाणवत्त्वं च । दिशां निलयो गृहमिव । तथा च दिगपेक्षयाऽप्यतिव्यापकत्वम् । भुवनस्य मणिघटितभित्तिमिव । तडिममवच्छेदकभित्तिभागः । तथा च स्वभावान्मर्त्यपातालव्यापिनोऽपि कल्लोलद्वारा गगनव्यापकत्वं चतुर्दिगवस्थितस्य क्रोडीकृतत्रिभुवनत्वं च । 'डिमं कुट्टिममिवेति त्रिभुवनाश्रयप्राङ्गणत्वम्' इति कश्चित् । प्रलयस्य सावशेषजलविच्छर्दमिव । विच्छदः समूहः । तावता विश्वप्लावकत्वं समुद्रस्य प्रतीयते । सर्वत्रोत्प्रेक्षा । ' तडिमं कुट्टिमे भित्तौ' इति कोषः ॥२॥ विमला - वह समुद्र मानों गगन का प्रतिबिम्ब, धरणी का निकलने का द्वार, दिशाओं का गृह, भुवन का मणिनिर्मित कुट्टिम ( फर्श ) और प्रलय के समय का बचा हुआ जलसमूह है || २ || भमिरुम्भडकल्लोलं योरक राहग्रदिसा मुहोत्यप्रसलिलम् । सासमएण बहुसो लोहिज्जन्तं विसागएण व सरिणा ॥३॥ [भ्रमणशीलोद्भटकल्लोलं स्थूलकराहतदिङ्मुखावस्तृतसलिलम् । स्वाश्रयमृगेण (शाश्वतमदेन) बहुशः क्षोभ्यमाणं दिग्गजेनेव शशिना ।। ] पुनः कीदृशम् । स्वमाश्रयो यस्य स स्वाश्रयस्तादृशी मृगो यस्य तेन शशिना बहुशः क्षोभ्यमाणम् । चन्द्रोदयेन तरङ्गोत्थानात् । केनेव । दिग्गजेनेव । यथा दिग्गजेन श्वेतत्वादैरावतेन बहुधा क्षोभ्यते । दिग्गजेन कीदृशेन । शाश्वतः सावं fast मदो यस्य तेन । एवं भ्रमणशीला आवर्तीभूता उद्भटाः कल्लोला यस्य तम् । एवं स्थूलो विस्तीर्णः करः किरणस्तेनाहतानि स्पृष्टानि अत एव दिङ्मुखेष्ववस्तृतानि सलिलानि यस्य तम् । चन्द्रोदयेन सावर्त गगन दिग्व्यापिजल शालित्वादित्यर्थः । गजपक्षे करः शुण्डा तथाऽऽहतानि ताडितानीति व्याख्येयम् । अन्यत्तुल्यम् । शुण्डाहतजलानां भ्रमणशील त्वाद्दिग्गामित्वाच्वेति भावः || ३|| विमला —– जैसे शाश्वतिक मद वाले दिग्गज ( ऐरावत ) से बहुश: वह क्षुब्ध किया जाता है और उस (ऐरावत) के स्थूल कर (ड) से ताडित हो उसका जल गगन - दिग्व्यापी हो जाता है वैसे ही मृगाङ्क चन्द्रमा से क्षुब्ध किया जा रहा है और उसके स्थूल कर ( विस्तीर्ण किरण) से स्पृष्ट हो उसका जल गगन - दिग्व्यापी हो रहा है और वह सावर्त प्रचण्ड तरङ्गों से युक्त हो सुशोभित है ॥३॥ ४ से० ब० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] सेतुबन्धम् [द्वितीय कल्लोलानाह अप्फुण्णविद्दुमवणे गुप्पन्तपढित्थिरे सलिलकल्लोले । मन्दरगूढप्पहरे प्रज्ज वि संखालोहिए व्व वहन्तम् ॥४॥ [आक्रान्तविद्रुमवनान्व्याकुलपरिस्थिरान्सलिलकल्लोलान् । मन्दरगूढप्रहारानद्यापि संस्त्यानलोहितानिव वहन्तम् ॥] एवं सलिलकल्लोलान्वहन्तम् । कीदृशान् । आक्रान्तमाकृष्टमाच्छादितं वा विद्रुमवनं यैस्तान् । एवं व्याकुलानितस्ततोवर्तिनः सतः परिस्थिरान् । कदाचित्स्थिरतया भासमानानित्यर्थः । उत्प्रेक्षते-कानिव। अद्यापि संस्त्यानं विष्टब्धं लोहितं रुधिरं यत्र तान् । मन्दरस्य गूढानभ्यन्तरवर्तिनः प्रहारानिव । प्रहारस्तत्स्थानम् । तथा च लौहित्येन विद्रुमवनस्य रुधिरेणोच्छूनतया प्रसारितया च प्रहारस्थानस्य कल्लोलेन साम्यम् । व्याकुले पुरुषे परिस्थिरानित्यत्राप्यभ्यन्तरप्रहारे शोणितं वर्तुलीभूय तिष्ठतीति स्वभावः ॥४॥ विमला-विद्रुमवनों को आच्छादित की हुई, चञ्चल होकर भी कदाचित स्थिर भासित होती तरङ्गों को धारण किया हुआ समुद्र ऐसा प्रतीत होता है कि मानों मन्दराचल ने समुद्रमथन के समय) उसके जहाँ-जहाँ भीतरी भागों में चोट पहुँचाई थी वहाँ-वहाँ आज तक रुधिर जमा हुआ है ॥४॥ अथ नदीजलप्रवेशमाहमहलघणविष्पइण्णं जलणिवहं भरिअसमलणहमहिविवरम् । णइमुहपह्नत्थन्तं अप्पाण विणिग्गअं जसं व पिअन्तम् ।।५।। [मुखरघनविप्रकीणं जलनिवहं भृतसकलनभोमहीविवरम् । नदीमुखपर्यस्यन्तमात्मनो विनिर्गतं यश इव पिबन्तम् ।।] आत्मनो विनिर्गतं बहिर्भ तं जलसमूहं पिबन्तं क्रोडीकुर्वन्तम् । आत्मनिर्गतं पयः स्वेदप्रायमपेयमपीत्यपेरर्थः । यद्वा आत्मनिर्गतमपि पातालजलं पिबन्तमित्यपिना सूचितमनुक्तम् । तथा च सकलजलविश्रामभूमिमिति भावः । तदुक्तम्'पयसामर्णव इव' इति । जलनिवहं किंभूतम् । मुखराः शब्दायमाना ये घना मेघास्तविप्रकीर्णमितस्ततो विक्षिप्तम् । अत एव भृते व्याप्ते महीनभोविवरे येन । वष्टिकाले भूम्याकाशव्यापनादित्यर्थः । एवं नदीमुखेन नदीप्रवेशस्थानेन पर्यस्यन्तमितस्ततो गच्छन्तम् । समुद्रतरङ्गाभिघातादिति भावः । अथ च समासोक्त्या समुद्रस्य नायकत्वं नदीनां च नायिकात्वं प्रतीयते। यथा ह्यन्योऽपि नायको नायिकामुखेन विक्षिप्यमाणमात्मन एव निर्गतं जलं मधु तन्निवहं पिबति । तदपि मुखरेण रतिकालीनशब्दं कुर्वता नायकेनैव विप्रकीणं भवति । एवं पानकाले स्खल Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५१ नाद्भूम्याकाशव्यापि च । तथा च यथा नायको नायिकामुखे गण्डूषितं मधु दत्वा पुनस्तया दीयमानं पिबति तथा समुद्रोऽपि मेघद्वारा नदीमुखे समर्पितं निजं पयस्तेनैव प्रत्यर्प्यमाणं पुनर्गलातीत्यर्थः । तथा च जलव्ययलाभयोरपि ह्रासवृद्धिशून्यत्वमस्येति ध्वनितम् । उत्प्रेक्षते-जल निवहं किमिव । यश इव । समुद्रस्यैवेदं जलमिति कीर्तिरूपमिव । अन्योऽपि यशः पिबत्यास्वादयति। कीदृशम् । मुखरा मागधास्तैविप्रकीर्णमितस्ततः प्रकाशितम् । एवं व्याप्ताकाशमहीपातालम् । विवरं पातालम् । एवं नतिमुखेन याचकेन पर्यस्यद्दिशि दिशि गच्छत् । अथ चात्मन एव निर्गतम् । स्वयश: स्वस्मादेब निर्गच्छतीति भावः ॥५॥ विमला--समुद्र , अपने ही से निर्गत, मुखर मागधों से चारों ओर प्रकाशित, आकाश-मही-पातालव्यापी, याचकों से प्रत्येक दिशा में पहुँचाये जाते यश के समान, अपने ही से बहिर्भूत, शब्दायमान मेघों से चारों ओर विकीर्ण, आकाशमही-पातालव्यापी तथा नदियों के मुख (१-प्रवेशस्थान, २-मुह) से इधर-उधर पहुँचाये जाते अथवा प्रत्यर्पित किये जाते जलसमूह को पी रहा है--(१) अपने अङ्क में ले रहा है, (२) उसका आस्वाद ले रहा है। विमर्श-प्रस्तुत समुद्र पर अप्रस्तुत नायक के व्यवहार का तथा प्रस्तुत नदी पर अप्रस्तुत नायिका के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलङ्कार है। जिस प्रकार नायक नायिका के मुख में मधु देकर पुनः उसके द्वारा प्रत्यर्पित किये गये उसी मधु को पीता है उसी प्रकार समुद्र भी मेघ द्वारा नदी के मुख में दिये गये और पुन: उसके द्वारा प्रत्यर्पित किये गये अपने ही जल को ग्रहण करता है ॥५॥ अथ सदा शोभासंबन्धमाहजोलाए व्व मिअङ्क कित्तीन व सुउरिसं पहाए व्व रविम् । सेलं महाणईन व सिरीज चिरणिग्गआइ वि अमुच्चन्तम् ॥६॥ [ज्योत्स्नयेव मृगाङ्क कीर्येव सुपुरुषं प्रभयेव रविम् । शैलं महानद्येव श्रिया चिरनिर्गतयाप्यमुच्यमानम् ।।] अपिविरोधाभाससूचनाय । तथा च लक्ष्म्याश्चिरनिर्गतत्वादसंबन्धेन प्रसज्यमानो विरोधः श्रीशब्दश्लेषेण शोभया अमुच्यमानत्वेन परिह्रियते। यद्वा चिरं निर्गतया बहिर्भूतया कान्त्या अमुच्यमानम् । उभयपक्षेऽपि सश्रीकमित्यर्थः । उभयसाधारणीमुपमामाह-कया कमिव । ज्योत्स्नया मृगाङ्कमिव । कीर्त्या सुपुरुषमिव । प्रभया रविंमिव। महानद्या शैलमिव । तथा च यथा ज्योत्स्नाकीर्तिप्रभामहानदीभिस्ततस्ततश्चिरं निर्गताभिरपि मृगाङ्कसुपुरुषरविशैला न परित्यज्यन्ते मूलेऽविच्छेदातथा शोभया समुद्रोऽपीति भावः ।।६।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] सेतुबन्धम् [द्वितीय विमला--जैसे चिरनिर्गत होने पर भी (मूलतः अविच्छिन्न होने से) ज्योत्स्ना चन्द्र को, कीर्ति सत्पुरुष को, प्रभा रवि को तथा महानदी शैल को नहीं छोड़ा करती है उसी प्रकार चिरनिर्गत होने पर भी श्री (१ - लक्ष्मी, २-शोभा) समुद्र का परित्याग नहीं करती है ॥६॥ अथ वडवानलमाहकालन्तरजीप्रहरं गप्रोणिअत्तन्तपवणरअघट्टिज्जन्तम् । सल्लं व देहलग्गं वि वडवामु हाणलं वहमाणम् ॥७॥ [कालान्तरजीवहरं गतापनिवर्तमानपवनरयघटयमानम् । शल्यमिव देहलग्नं विकटं वडवामुखानलं वहमानम् ॥] पुनः किंभूतम् । विकटं वडवामुखानलं वहमानम् । मुखानलं कीदृशम् । देहे लग्नम् । अन्तःस्थितमित्यर्थः । पुनः कीदृशम् । कालान्तरे प्रलये जीवो जलं तस्य संहारकम् । प्रलये समुद्रजलं वाडवेन धक्ष्यत इति पुराणवार्ता । एवं गतप्रत्यागतस्य पवनस्य रयेण घटयमानं संबध्यमानम् । प्रलयवायुना वडवानलस्योद्दीपनमित्यर्थः। उत्प्रेक्षते-वडवानलं किमिव । शल्यमिव । यथा देहान्तर्लग्नं (शल्यं) कालान्तरे कतिपयसमयमपेक्ष्य प्राणहरम् । गतप्रत्यागतश्वासरूपपवनवेगेन घट्यमानं चाल्यमानं विकटं कणिकादिविशिष्टं च शल्यं शरफलादिरूपं ध्रियते तथा वाडवोऽपि दुःखदत्वादित्यर्थः ॥७॥ विमला-समुद्र अपने भीतर, कालान्तर (प्रलयकाल) में उसके जीव (जल) को हरने वाले, आते-जाते पवनवेग से उद्दीप्त होने वाले विकट बड़वानल को क्या धारण किये हुए है, मानों उसके देह के भीतर वह विकट शल्य चुभा हुआ है, जो कालान्तर में उसके जीव (प्राण) का ही हरण कर लेगा और जो उच्छ्वासनिश्वासरूप पवनवेग से हिलता हुआ निरन्तर करका करता है। विमर्श-पुराणावलोकन से यह ज्ञात होता है कि प्रलयकाल में बडवानल समुद्र के जल को जला देगा ॥७॥ भूम्युपमर्दकत्वमाहधुप्रवणराइकरअलं मलममहिन्वत्थणोरसोल्लणसुहिमम् । बेलालिङ्गनमुक्कं छिविमओसरिएहि वेलवन्तं व महिम् ॥८॥ [धुतवनराजिकरतलां मलयमहेन्द्रस्तनोरआर्द्राकरणसुखिताम् (सुहिताम्)। वेलालिङ्गनमुक्तां स्पृष्टापसृतकर्वेपयन्तमिव (व्याकुलयन्तमिव) महीम् ॥] स्पृष्टं स्पर्शः। अपसृतं स्पर्शान्तरमपसरणमस्पर्शः । प्रशंसायां कन् । तेन प्रौढः स्पृष्टापसृतकव्यापारर्वेला समुद्रतीरं तदवच्छेदेनालिङ्गने सति मुक्तां त्यक्तां महीं Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५३ कम्पयन्तम् । तथा च तरङ्गगतागताभ्यां स्पृष्टे सति वेलावच्छेदेनालिङ्गनमपसृते सति विमुक्तिर्मह्या इत्यर्थः । तेन भूम्यान्दोलनक्षमतरङ्गमहत्त्वेन सिन्धोरधिकपरिमाणवत्त्वमुक्तम् । एवं समासोक्त्या समुद्रस्य नायकत्वं भूमेर्नायिकात्वं च लभ्यते । नायिकापि नायकेन' स्पृष्टापसृतकैरालिङ्गनविशेषव्यापारैर्वेलायां सुरतसमये आलिनयालिङ्गय रभसेन' मुच्यमाना व्याकुलतामाप्नोतीति ध्वनिः । किंभूतां महीम् । धुतं स्वकम्पेन' कम्पितं वनराजिरूपं करतलं यया ताम् । एवं मलयमहेन्द्रावेव स्तनी यत्र तादृशं यदुरः स्वमध्यदेशस्तरङ्गेण तदार्टीकरणेन सुखितां शैत्यमासादयन्तीम् । नायिकापि नायकालिङ्गने हावेन विधुतपाणिः स्वेदेनाद्रितमलयमहेन्द्रप्रायस्तनहृदया सौहित्यमाप्नोतीति साम्यम् ॥८॥ विमला-तरङ्गे आकर वेला का स्पर्श करती हैं और हट कर उसे पुनः छोड़ देती हैं । समुद्र द्वारा किये गये आलिङ्गन के इस व्यापार से मही कम्पित की जा रही है और वह अपने इस कम्पन से वनराजिरूप करतल को कम्पित करती है तथा तरङ्गों द्वारा मलय महेन्द्रगिरिरूप स्तनों वाले उर (वक्षस्थल) के आर्द्र कर दिये जाने से सुखित (१-शीतल, २-सन्तुष्ट) होती है। विमर्श-समुद्र पर नायक के व्यवहार का और मही पर नायिका के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलंकार है। वेला (सुरत समय) में जब नायक बार-बार आलिङ्गन कर-कर के नायिका को छोड़ा करता है तो वह भी व्याकुल हुआ करती है तथा नायक के द्वारा आलिङ्गन किये जाने पर करतल को हावभाव से हिलाया करती है एवं स्वेद से मलय-महेन्द्र गिरिसदृश स्तनों के आर्द्र हो जाने पर परम सन्तोष का अनुभव करती है ॥८॥ धैर्यमाह ठाणे वि ठिइपहत्तं पलए महिमण्डलम्मि वि अमाअन्तम् । पण अन्तवामणतणुं कमन्तदेहभरभरिअलोअं व हरिम् ।।६।। [स्थानेऽपि स्थितिप्रभूतं प्रलये महीमण्डलेऽप्यमान्तम् । प्रणयद्वामनतनु क्रममाणदेहभरभृतलोकमिव हरिम् ।।] स्थाने खातेऽपि स्थित्या मर्यादया प्रभूतं मान्तम् । प्रलये महीमण्डलेऽप्यमान्नमुवृत्तजलम् । त्रिजगत्प्लावकत्वादित्यर्थः । कमिव । प्रणयन्ती बलिं याचमाना वामनरूपा तनुर्यस्य तम् । क्रममाणं पादविक्षेपशालि यद्देहं तस्य भरेण प्राचुर्येक भृता व्याप्ता लोका भुवनानि येन तथाविधं च हरिमिव । तथा च यथा हरिबलिहरणे कार्यवशाद्वामनीं तनुमास्थाय क्रमेण त्रैलोक्यमाचक्राम तथाऽयमपि मर्यादया प्रवाहप्रभूतः काले स्वां त्रैलोक्यप्लाविनी मूर्तिमादास्थत इति भावः । वामनः पादविक्षेपेण ब्रह्माण्डमस्फोटयदिति पुराणवार्ता ॥६॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सेतुबन्धम् [ द्वितीय विमला-जैसे हरि ने (बलि को छलते समय) कार्यवश बलि से याचना करते समय वामन शरीर धारण कर, डग भरते समय अपने विशाल शरीर से लौनों लोकों को व्याप्त कर दिया था, वैसे ही समुद्र, स्थिति (मर्यादा) से अपने स्थान में (पेट में) ही अमा जाता है, किन्तु प्रलय के समय महीमण्डल में भी नहीं भमाता | अथ लोकोत्तरत्वमाहदोसन्तं अहिराम सुन्वन्तं पि अविइलसो अवगणम् । सुक अस्स व परिणाम उअहुज्जन्तं पि सास प्रमुहप्फलप्रम् ।।१०॥ [दृश्यमानमभिरामं श्रूयमाणमप्यवितृष्णश्रोतव्यगुणम् । मुकृतस्येव परिणाममुपभुज्यमानमपि स्वाश्रयशुभ-(शाश्वतसुख)-फलदम्॥] दृग्विषयः सन्पोतमकरकम्बुकल्लोलादिभिरतिरमणीयः । श्रुतिविषयः सन्नवितृष्णं श्रोतव्या बृहत्त्वसूचकाः पूर्वोक्ता एव गुणा यस्य तादृक् । तथा स्नानपानावगाहनादिभिरुपभुज्यमानः सन्स्वमाश्रयो यस्य तादृक् शुभं श्वेतं फलं मुक्तादि तदाता यस्तमित्यर्थः । उत्प्रेक्षते-कमिव । सुकृतस्य पुण्यस्य परिणाममन्त्यभागमिव । सोऽपि करितुरगादिसमृद्धिद्वारा दृश्यमानो रमणीयः षष्टिवर्षाद्यवच्छिन्नफलजनकत्वेन भूयमाणः सन्सश्लाघश्रोतव्यतथाविधस्वर्गादिगुणः । एवमुपभोगविषयीक्रियमाणः सशाश्वतं सादिकं सुखस्वरूपं यत्फलं तत्प्रद इत्यर्थः । सुकृतपरिणामेनैव समुद्रदर्शनं भवतीति भावः ॥१०॥ विमला-समुद्र दृश्यमान होते हुए भी ( पोत-मकर-कम्बु-कल्लोलादि से) उत्तरोत्तर रमणीय लगता है, श्रूयमाण होते हुये भी(पूर्वोक्त महत्त्वसूचक) उसके गुण श्लाघा से श्रोतव्य ही बने रहते हैं, (स्नान-पान-अवगाहन आदि से) उसका उपभोग किया जा रहा है, तथापि शुभ फल (मुक्ता आदि) को देने वाला है। यह मानों सुकृत का वह परिणाम है जो (अश्व-गज आदि समृद्धि से) दृश्यमान होते हुए भी उत्तरोत्तर रमणीय लगा करता है, (कालान्तर में फलोत्पादक के रूप में) श्रूयमाण होने पर भी उसके स्वर्गादिगुण श्रोतव्य ही बने रहते हैं तथा जो उपभुज्यमान होते हुए भी शाश्वतिक सुखस्वरूप फल देता है ।।१०॥ मथ नानागुणानाह उक्खअदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कम् । पीअमइरं व चस बहुलपओसं व मुद्धचन्दविरहिअम् ॥११॥ [उत्खातद्रुममिव शैलं हिमहतकमलाकरमिव लक्ष्मीविमुक्तम् । पीतमदिरमिव चषकं बहुलप्रदोषमिव मुग्धचन्द्रविरहितम् ।।] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५५ उत्खात उत्पाटितो द्रुमो यस्य तं शैलमिव । शैले सामान्यद्रुमस्योच्छेदादितः पारिजातस्याकर्षणात् । हिमेन हतानां कमलानामाकरः सर इव लक्ष्म्या विमुक्तं त्यक्तम् । लक्ष्मीपदस्य श्लिष्टत्वेन सरसि शोभाया विगमादितस्तु हरिप्रियाया उद्धतत्वात् । पीता मदिरा यस्य तादृशं चषक मिव । मदिराशन्यमित्यर्थः । चषके मदिरायाः पीतत्वादितस्तूद्धारात । बहुलः कृष्णपक्षस्तत्प्रदोषमिव मुग्धचन्द्रेण विरहितं शून्यम् । तत्संध्याकाले मनोहरचन्द्रानुदयादितस्तु बालचन्द्रस्योत्थापनात्तुल्यत्वम् । तथा च पारिजातादीनामुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः । केचित्तूद्धृतसारत्वं दोषमुद्भाव्य प्रकारान्तरेण व्याचक्षते । तथा हि [उत्खातद्रुमं वशेलं हिमहयकमलाकरं बलच्छिद्विमुक्तम् । पीतमदिरं बचाशयं बहुलप्रदोष वमुग्धचन्द्रविरहितम् ॥] उत्खाता द्रुमा यस्मात्तम् । वशा आयत्ता इला पृथिवी यस्य तम् । समुद्रावृतत्वात् हिम चन्दनं श्रीखण्डम् , हय उच्चैःश्रवाः, कमला लक्ष्मीस्तेषामाकरम् । बलं सामर्थ्य छिनत्तीति बलच्छिद्विषं तेन विमुक्तम् । कालकूटस्योद्धारात् । पीता मदिरा यस्य तम् । वचा पृथिवी तत्र शेते यस्तम् । बहुलाः प्रकृष्टा दोषा ग्राहादयो यत्र तम् । इदमुत्कर्षरूपमेवेति भावः । वकारो वरुणः स एव मुग्धचन्द्रस्तेन विरहितं विशिष्टम् । विशब्दयोरहितशब्दयोरभाववाचकत्वेन निषेधद्व यस्य प्रकृतार्थगमकत्वादित्यर्थः । 'हिमश्चन्द्रे तुषारे च चन्दनेऽपि हिमं मतम् । एवं 'पृथिवी स्यादिला वचा' ॥११॥ विमला-(समुद्रमथन से) पारिजात वृक्ष के निकल जाने के कारण समुद्र उस पर्वत-सा लगता है जिसका वृक्ष उखाड़ कर उससे अलग कर दिया गया है। लक्ष्मी के निकल जाने से उससे रहित यह उस सरोवर-सा प्रतीत होता है जो हिम से कमलों के नष्ट हो जाने पर लक्ष्मी (शोभा) से वियुक्त हो गया है। मदिरा के निकल जाने से मदिरारहित यह उस चषक-(प्याला)-सा लगता है जिसकी मदिरा पी ली गई है। बालचन्द्र के निकल जाने से उससे वियुक्त यह कृष्ण पक्ष के सन्ध्याकाल-सा लगता है ।।११।। अथ रत्नान्याहणिफण्णसुहालो विमलजलभन्तरठिअं वहमाणम् । दरकढिअं व रइणा करावलम्बिअकरं रअणसंघाअम् ।।१२।। [निष्पन्नसुखालोकं विमलजलाभ्यन्तरस्थितं वहमानम् । दरकृष्टमिव रविणा करावलम्बितकरं रत्नसंघातम् ॥] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] सेतुबन्धम् [ द्वितीय एवं विमलानां जलानामभ्यन्तरे स्थितं रत्नसमूह वहमानम् । कीदृशम् । निष्पन्नं निष्पादितं सुखं यैस्तादृशा आलोकास्तेजांसि यस्य तम् । जलाभ्यन्तरवर्तिरत्नादिचाकचक्यं दृष्ट्वा लोकानामानन्दो जायत इति दृष्टमेव । सूर्यतेजःसंबन्धादत्यच्छजलाभ्यन्तरवर्तिरत्नादीनां व्यवहितानामपि सांनिध्यमधिगम्यते । तदुत्प्रेक्षते-किंभूतं रत्नसंघातम् । रविणा करेण तेजसावलम्बितः करस्तेजो यस्य तथाविधम् । अत एव दरकृष्टमीषदाकृष्टमिव । तथा च सूर्यतेजसा रत्नतेजःसंबन्धे सांनिध्यभानादाकृष्टमिव रत्नादि भासत इति भावः । अन्योऽपि लोको जलाभ्यन्तरे मज्जन्नन्येन समुत्पादितसुखदर्शन: करे करेणालम्ब्याकृष्यत इति ध्वनिः । एतेनाच्छजलत्वमुक्तम् ॥१२॥ विमला-समुद्र विमल जल के भीतर ऐसे रत्नसमूह को रखता है जो अपने आलोक (१-तेज, २-दर्शन) से सुख पैदा करता है तथा सूर्य ने अपने कर (१-तेज, २-हाथ) से उसके कर (१-तेज, २-हाथ) को अवलम्बित (1-सम्बद्ध, २-गृहीत) कर मानों उसे कुछ ऊपर उठा लिया है ॥१२॥ पुनर्वाडवानल माह -- महणासाप्रविमुक्कं उच्छित्तामविसङ्खलाणलणिवहम् । वासुइमुहणीसन्दं वडवामुहकुहरपुजिन वहमाणम् ।।१३।। [मथनायासविमुक्तमुत्क्षिप्तामृतविशृङ्खलानलनिवहम् । वासुकिमुखनिःस्यन्दं वडवामुखकुहरपुञ्जितं वहमानम् ॥] एवं वासुकिमुखस्य निःस्यन्दं विषक्षरणरूपम् । वडवामुखकुहरे पुञ्जितं वर्तुलीभूतं वडवानलतया व्यवस्थितं धारयन्तम् । कीदृशं मुखनिःस्यन्दम् । मथने आयासेन विमुक्तं त्यक्तम् । एमुत्क्षिप्तमुत्थितं यदमृतं तेन विशृङ्खल इतस्ततश्चारी अनलनिवहो यत्र तथाभूतम् । सुधानामुत्थितत्वेन तत्सांनिध्याभावाद्विषाग्नीनां विशृङ्खलत्वम् । सुधासंनिधौ गरलप्रादुर्भावाभावात् । तथा च समुद्रमथनकालीनमन्दरपरिघट्टनसमुत्थश्रमसमुद्गतनेत्रीभूतवासुकिमुखविषस्तोम इव वडवाग्निरित्युत्प्रेक्षितम् । इवार्थस्य व्यङ्गयत्वात् । यद्यपि विषस्य स्वभावतः श्यामत्वं तथापि ज्वलद्रूपस्य वह्निसाम्यमिति भावः ।।१३।। विमला-समुद्र के मथने की थकान से वासुकि के मुख से निकला हुआ विष तथा अमृत के निकल आने से (अमृत का सान्निध्य न रह जाने के कारण) अनियन्त्रित अनलपुञ्ज वडवामुखरूप कुहर में एकत्र हो गया, उसे समुद्र वडवानल के रूप में धारण किये हुए है ॥१३॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५७ अथ गुणान्तरमाहधीरं व जलसमूहं तिमिणिवहं विअ सपक्खपवलोअम् । गइसोत्ते व तरङ्ग रमणाइ व गरु अगुणसआईं वहन्तम् ।।१४।। [धैर्यमिव जलसमूहं तिमिनिवहमिव सपक्षपर्वतलोकम् । नदीस्रोतांसीव तरङ्गान्रत्नानीव गुरुकगुणशतानि बहन्तम् ॥] यथा धैर्यतिमिनिवहनदीस्रोतोरत्नानि वहन्तं तथैव जलसमूहपर्वतलोकतरङ्गपरोपकारित्वादिगुरुकगुणशतान्यपि वहन्तमित्यर्थः । तिमिवत्संचारित्वलाभाय सपक्षपदं पर्वते । धैर्यादीनामच्छत्वमहत्त्वप्रौढिदैर्घ्य निर्मलत्वैर्यथासंख्यं जलसमूहादिभिस्तौल्य मिति सहोपमालङ्कारः ॥१४॥ विमला-समुद्र जैसे धैर्य को वैसे ही जलसमूह को, जैसे तिमि-(दीर्घकाय मत्स्यविशेष)-समूह को वैसे ही पङ्खवाले पर्वतों को, जैसे नदीस्रोतों को वैसे ही तरङ्गों को तथा जैसे रत्नों को वैसे ही महत्त्वपूर्ण (परोपकारिता आदि) अनेक गुणों को रखता है ॥१४॥ अथ गाम्भीर्यादिगुणानाहपापालोअरगहिरे महिपइरिक्कविप्रडे णहणिरालम्बे । तेल्लोक्के व्व महुमहं अप्पाण च्चिन गमागमाई करेन्तम् ॥१५॥ [पातालोदरगभीरे महीप्रतिरिक्तविकटे नभोनिरालम्बे । त्रैलोक्य इव मधुमथनमात्मन्येव गतागतानि कुर्वन्तम् ॥] पातालोदरपर्यन्तं गभीरे महीप्रतिरिक्ते भूमिशून्ये खाते विकटे भयानके नभसि निरालम्बे । तरङ्गादिना नभःस्पर्शेऽपि स्थैर्याभावात् । अत एवालम्बशून्ये आत्मन्येव स्वखाताभ्यन्तर एव गतागतानि प्रवाहरूपेण कुर्वन्तम् । एतेन धैर्यमुक्तम् । कुत्र कमिव । त्रैलोक्ये मधुमथन मिव । यथा मधुमथनस्त्रैलोक्ये गतागतान्यात्मन्येव करोति तदुदरवर्तित्वाज्जगतस्तथा समुद्रोऽपीत्यर्थः । त्रीनपि लोकान्क्रमेणाह-कीदृशि त्रैलोक्ये । पातालोदरे गभीरे । महीप्रतिरिक्ते मह्या व्यतिरिक्ते । कंदरादौ विकटे शून्ये । नभसि निरालम्बे तदवच्छेदेनावलम्बशून्य इत्यर्थः ।।१।। विमला-पाताल के भीतर तक गहरा, महीशून्य अपने पेटे में भयानक, नभ में निरालम्ब, (इस प्रकार त्रैलोक्य के अपना उदरवर्ती होने से) समुद्र उसी प्रकार अपने में ही गमनागमन करता है जिस प्रकार मधुमथन (नारायण) (उनका उदरवर्ती होने से) त्रैलोक्यस्वरूप अपने में ही गमनागमन करते हैं ॥१५॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] सेतुबन्धम् [ द्वितीय अथ पुनर्नदीसङ्गममाह अहिलीन परमुहीहि छिविनोसरिएहि अणुसअविलोलाहिं। अणुणिज्जमाणमग्गं वेवन्तणिअत्तपत्थियाहि गईहिं ॥१६॥ [अभिलीय पराङ्मुखीभिः स्पृष्टापसृताभिरनुशयविलोलाभिः । अनुगम्य नीय)मानमार्ग वेपमाननिवृत्तप्रस्थिताभिनंदीभिः ।।] स्पृष्टापसृतक रूपव्यापारैरभिलीय मिलनं कृत्वा पराङ्मुखीभिर्नदीभिरनुगम्यमानमार्गम् । कीदशीभिर्नदीभिः । वेपमानाभिरथ च निवृत्तं समुद्राभिमुखीकृत प्रस्थितं प्रतीपगमनं याभिस्ताभिः । तथा चायमर्थः-समुद्रं प्रति प्रस्थाने तरङ्गाभिहता नद्यः प्रतीपं गत्वापि तरङ्गशान्तौ सकम्पसलिलाः पुनः परावृत्त्य समुद्रमेव निवृत्ततरङ्ग पश्चाल्लग्नाः प्रविशन्तीति । तत्रोत्प्रेक्षते-समासोक्त्या समुद्रेण समं नदीनां नायकनायिकावृत्तान्ते परावृत्त्य यन्मया गम्यते तदनुचितं क्रियत इत्येवंरूपानुशयेन चञ्चलाभिरिव । इवार्थस्य गम्यमानत्वात् । अन्यत्रापि नायिकाभिः स्पृष्टापमृतकेन नायकमालिङ्गच केनापि हेतुना पुनः पराङ्मुखीभिरथ किमित्येवं क्रियत इत्यनुशयेन गन्तव्यं न वेति दोलायमानाभिरनौचित्यप्रतिसंधानेन कम्पवतीभिरथ च निवर्तितविप्रतीपगमनाभिर्नायकोऽनुगम्यत इति ध्वनिः ॥१६॥ विमला-नदियाँ समुद्र से मिलन कर (तरङ्गाभिघात से) पराङ्मुखी हो माती हैं । तदनन्तर ही (अपने इस प्रतिकूल गमन को अनुचित समझ कर) पश्चात्ताप से चञ्चल हो जाती हैं और (अपने इस अनौचित्य का परिमार्जन करने के उद्देश्य से) काँपती हुई अपना प्रतिकूल गमन' समाप्त कर (शान्त) समुद्र का अनुगमन करती हैं (उसके पीछे-पीछे प्रवेश करती हैं)। विमर्श-प्रस्तुत समुद्र पर अप्रस्तुत नायक के व्यवहार का तथा प्रस्तुत नदियों पर अप्रस्तुत नायिकाओं के व्यवहार का समारोप होने से 'समासोक्ति' अलंकार है । नायिकायें भी नायक का अलिङ्गन कर किसी कारणवश पराङ्मुखी हो जाती हैं, तदनन्तर ही 'ऐसा हमने क्यों किया'-इस प्रकार पश्चात्ताप करती हुई 'नायक के पास पुनः चलें या नहीं'-इस प्रकार सोच-विचार में पड़ी चञ्चल हो उठती हैं और अपने अनौचित्य का परिमार्जन करने के लिए पुन: लौट कर काँपती हुई नायक का अनुगमन करती हैं ।।१६।। अथ मदिरादियोगमाह-- जीगरुईहि अज्ज वि इच्छापज्जत्तसुहरसाहि मदएन्तम् । धणरिद्धी सिरिअ अ सलिलुप्पण्णाइ वारुणीअ अ लोअम् ।।१७॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५६ [जीवगुर्वीभिरद्यापीच्छापर्याप्तसुखरसाभिर्मदयन्तम् । धनऋद्धया श्रिया च सलिलोत्पन्नया वारुण्या च लोकम् ।। प्राणेभ्योऽपि गुर्वीभिरादृताभिः । इच्छापर्याप्तो यावदिच्छं स्रक्चन्दनवनितादिसुखरसो याभ्यस्ताभिः । सलिलादुत्पन्नया रत्नादिधनसमृद्धया लक्ष्म्या मदिरया च लोकं मदयन्तम् । मत्तं कुर्वन्तमित्यर्थः । लोके रत्नादीनामतिमादकत्वात् । तथा चायमाकरो रत्नादीनामिति भावः । 'महणुप्पण्णाई' इति पाठे मथनोत्पन्नयेत्यर्थः ॥१७॥ विमला-प्राणों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण एवं यथेच्छ सुखरस की प्रापति कराने वाली, (अपने) जल से उत्पन्न रत्नादि धन-समृद्धि, श्री तथा वारुणी से समुद्र लोक को मत्त करता है ॥१७॥ भथ गुणान्तरमाह चडलं पि थिईअ थिरं तिप्रसुक्खित्तरअणं पिसारभहिअम् । महिअपि अणोलुग्गं प्रसाउसलिलं वि प्रमअरसणीसन्दम् ॥१८॥ [चटुलमपि स्थित्या स्थिरं त्रिदशोक्षिप्तरत्नमपि साराभ्यधिकम् । मथितमप्यनवरुग्णमस्वादुसलिलमप्यमृतरसनिःस्यन्दम् ॥] तरङ्गादिना चञ्चलमपि स्थित्या मर्यादया स्थिरं वेलानतिक्रामकम् । त्रिदर्श-- रुत्क्षिप्तं मथनादुद्धृतं रत्नं यस्मात्तादृशमपि सारेण धनेनाभ्यधिक पूर्णम् । नानारत्नानां सत्त्वादेव मन्दरेण मथितमप्यक्षीणम् । लवणाकर त्वादस्वादुसलिलमपि निःस्यन्दमानामृतरसम् । कृदभिहितत्वात् । अत्र चटुलत्वस्थिरत्वयोरेवमुत्क्षिप्तरत्नत्वादिभिः साराभ्यधिकत्वादीनां प्रतीयमानो विरोधस्तत्तदर्थेनापाक्रियते । अत एवापिविरोधाभाससूचनाय ।।१८।। विमला-(तरङ्ग आदि से) चंचल होता हुआ भी समुद्र (स्थित्या) मर्यादा से स्थिर है-वेला का अतिक्रमण नहीं करता है। देवों द्वारा (मथन कर) इसके रत्न ले लिये गये तथापि (नाना रत्नों की विद्यमानता से) सार (धन) से पूर्ण है । (मन्दराचल से) मथित होकर भी (अनवरुग्ण) अक्षीण है। (लावण्ययुक्त होने से): अस्वादु जल वाला होकर भी अमृतरस का निस्यन्द है ।।१८।। निधिशैलमाह पज्जत्तरमणगब्भे णहरुपल्हत्थचन्दअरपारोहे। उपरभन्तरसेले सुरवइडिम्बणिहिए णिहि व्व वहन्तम् ॥१९॥ [पर्याप्तरत्नगर्भान्नभस्तरुपर्यस्तचन्द्रकरप्ररोहान् । उदराभ्यन्तरशलान्सुरपतिडिम्बनिहितानिधीनिव वहन्तम् ॥] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] सेतुबन्धम् [ द्वितीय उदर राभ्यन्तरशैलान्वहन्तम् । कानिव । सुरपतेरिन्द्राड्डिम्बो भयं तेन नि हितानर्पिता निधीनिव । तथा च तद्भिया जलाभ्यन्तरे वर्तमाना मैनाकादयस्त्रासनिखातनिधित्वेनोत्प्रेक्षिता इत्याशयः । अन्योऽपीश्वरत्रासाद्धनानि गर्ते गोपयतीति ध्वनिः । निधिलक्षणमाह-किंभूतान् । पर्याप्तानि पूर्णानि रत्नानि गर्भे येषां तान् । रत्नशिखरत्वात् । एवं नभ एव तरुस्तस्मात्पर्यस्ता इतस्ततो वतिनश्चन्द्रकरा एव प्ररोहा यत्र तान् । एवं गर्तस्था निधयोऽपि पर्याप्तरत्नगर्भा उपरिरोपितचिह्ववृक्षप्ररोहपरिवृता भवन्ति । प्रकृते समुद्रो भूमिस्तदन्तर्गताः पर्वता निधयस्तदुपरि चिह्नवृक्षो गगनं तत्प्ररोहाश्चन्द्रकरा इति भावः । यद्वा असुरादिभिः (सह) सुरपतित्रासनिहितानिधीन्यथा वहति तथा शैलानपीति सहोपमा । विशेषणद्वयं तुल्यम् । वस्तुतस्तूदराभ्यन्तरशैलानिधीन्सुरपति डिम्बनिहितानिव वहन्त मित्यन्वयः । तथा च वस्तुतः पर्वता रत्नगर्भवान्निधय एव । इन्द्रत्रासनिहितत्वं परमुत्प्रेक्षितम् । अन्यत्समानम् । प्ररोहः शिफा। 'तत्र पद्ममहापद्मौ तथा मकरकच्छपौ। मुकुन्दकुन्दौ नीलश्च शङ्खश्चैवाष्टमो निधिः' ॥१६॥ विमला-अपने भीतर समुद्र, पर्याप्त रत्न भीतर रखने वाले पर्वतों को क्या रखता है, मानों इन्द्र के डर से भूमि के अत्यन्त गहरे गर्त में निधियाँ निहित कर दी गयी हैं जिनके ऊपर गगनरूप चिह्नवृक्ष है और उससे निकल कर छिटके हुये चन्द्र कररूप प्ररोह से वे परिवृत्त हैं ।।१९।। चन्द्रोदये स्वभावमाहपरिप्रम्भिअं उवगए बोलीमम्मिन णिअत्तचडुलसहावम् । वजोव्वणे व कामं दइ असमागमसुहम्मि चन्दुज्जोए ॥२०॥ [परिजम्भितमुपगते व्यतिक्रान्ते निवृत्तचटुलस्वभावम् । नवयौवन इव कामं दयितसमागमसुखे चन्द्रोड्योते ॥] चन्द्रोद्दयोत उपगते सति परिजृम्भितं वर्धितम् । व्यतिक्रान्तेऽपगते च सति निवृत्तचाञ्चल्यम् । तरङ्गवृद्धयवृद्धिभ्यामित्यर्थः । चन्द्रोड्योते कीदृशि । परितः प्रीतिविषयो यः समागमस्तेन सुखं यस्मात्तादृ शि। कस्मिन्कमिव । नवयौवने काममिव । यथा कामो नवयौवन' उपगते परिजृम्भते व्यतिक्रान्ते तु निवृत्तचाञ्चल्य-स्वभाव स्तथाऽयमपीत्यर्थः । नवयौवनेऽपि कीदृशि । वल्लभस्य दयितस्य समागमेन सुखं यत्र तादृशि ॥२०॥ विमला-जिस प्रकार प्रिय-समागम से सुख प्राप्त करने वाले नवयौवन के उपगत होने पर काम बढ़ता है और उसके बीत जाने पर चाञ्चल्य स्वभाव को Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् छोड़कर शान्त हो जाता है उसी प्रकार समुद्र प्रिय-समागम से सुख प्राप्त कराने वाले चन्द्र के प्रकाश के उपगत होने पर बढ़ता है और उसके समाप्त हो जाने पर चाञ्चल्य स्वभाव को छोड़कर शान्त हो जाता है ।।२०।। अथ शङ्खादिसत्तामाहदरफुडिसिप्पिसंपुडपलोट्टसङ्खमुहभरिप्रमुत्ताणियरम् । मारुप्रदूरुच्छालिमजलभरिअद्धवहपडिणिप्रत्तजलहरम् ॥२१॥ [दरस्फुटितशुक्तिसंपुटप्रलु ठितशङ्खमुखभृतमुक्तानिकरम् । मारुतदूरोच्छालितजलभृतार्धपथप्रतिनिवृत्तजलधरम् ॥] परिणतमुक्ताभरादीषत्फुटिते शुक्तिसंपुटे मुक्ताबुभुक्षया प्रलुठितं यच्छङ्खमुखं तेन भृतो धृतो मुक्तानिकरो यत्र तम् । शुक्तिपुटाच्छङ्घनाकृष्टा मुक्तास्तदभ्यन्तरे प्रविशन्तीत्यर्थः । एवं मारुतेन दूरं व्याप्योत्थापितैर्जलै ताः पूर्णा, अत एव कृतकार्यत्वादर्धपथान्नभस्त एव परावृत्ता जलधरा यस्मात्तमिति जलबाहुल्येन खातगगनयोरपि समानाकारत्वमुक्तम् ॥२१॥ विमला यहां समद्र में मोतियों के पक जाने पर जब सीपी का मह थोड़ाबोड़ा खुल गया तो (मोतियों की भूख से) लुढ़क कर समीप पहुंच शंख ने सीपी के सम्पुट से मोतियों को खींच कर अपने मुंख में धर लिया है। वायु द्वारा ऊपर बहुत दूर तक उछाले गये जल से बादल वहीं पूर्ण हो गये, अतएव (समुद्र तक आने की आवश्यकता न रह जाने से) आकाश के आधे मार्ग से ही वे लौट गये हैं ॥२१॥ मरकतादीनाह मरगअमणिप्पहाहप्रहरिमाअन्तजरढप्पवालकिसलअम् । सुरगमगन्धुद्धाइसकरिमअरासण्णदिण्णमेहमुहवडम् ॥२२॥ [मरकतमणिप्रभाहतहरितायमानजरठप्रवालकिसलयम् । सुरगजगन्धोद्धावितकरिमकरासन्नदत्तमेघमुखपटम् ॥] मरकतमणीनां प्रभाभिराहताः संबद्धाः अत एव हरितायमाना जरठाश्चिरन्तनाः प्रवालस्य विद्रुमस्य पल्लवा यत्र तम् । मरकतकान्तिसंबन्धात्प्रवालकिसलयानामपि हरिद्वर्णत्वमित्यर्थः । एवं जलमज्जनार्थमागच्छतां सुरगजानामरावतादीनां गन्धादर्थतो मदस्योद्धावितेभ्यो गगनमार्ग एवागच्छत एतानाकलय्योध्वं नभसि गच्छद्भयः करिमकरेभ्यो जलहस्तिभ्य आसन्ने निकट एव दत्ता मेघा एव मुखपटा येन तम् । तथा च सुरगजयुयुत्सयोद्धावितकरिमकराणामासन्नत्वेन जलपानार्थमागच्छन्तो नभसि वर्तमाना मेघा मुखपटत्वेनोत्प्रेक्षिताः । मुखपटो. मुखावरणपट: । अन्यत्रापि गजयोः संनिपाते दर्पोद्धताय मुखपटो दीयत इति समाचारः । तथा च करिम Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६२ ] सेतुबन्धम् [ द्वितीय कराणां युयुत्सया निरालम्बे व्योम्नि धावनेन तेजःशालित्वं सुरगजान्विहाय मुखपटदानेन तदपेक्षया दर्पोद्धतत्वं च सूचितम् । केचित्तु 'पूर्वनिपातानियमेनासन्न मेघदत्तमुखपटं निकटवर्तिभिर्मेधैर्दत्ता मुखपटा येन' इति योजयन्ति ॥२२॥ विमला-यहां समुद्र में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त विद्रुम के किसलय मरकतमणि की प्रभा पड़ने से हरिद्वर्ण के हो रहे हैं । (मज्जनार्थ) आते हुये ऐरावत आदि सुरगजों के गन्ध से (आकाशमार्ग में आते हुये उन्हें समझकर) ऊपर बाकाश में (युद्धार्थ) जाते हुए जलहस्तियों के मुख पर समुद्र (जलपानार्थ आते हुए) निकटवर्ती मेघों का आवरण-पट लगा दिया करता है। विमर्श-दो गजों के संघर्ष में दर्पोद्धत गज के मुख पर आवरणपट लगा देने की प्रथा है ।।२२।। अथ सर्पादिसंबन्धमाह मणिवाल तोरलाधरप्पहोहा सिनरम्मणिवालअम् । घणवारिन वेलालिङ्गणेण चडुलं महिलङ्घणवारिअम् ॥२३॥ [मणिपालयं तीरलतागृहप्रभावभासितरम्यनृपालयम् । घनवारिदं वेलालिङ्गनेन चटुलं महीलङ्घनबारितम् ॥] मणीन्पान्तीति मणिपाः सर्पा यक्षा वा तेषामालयं गृहम् । यद्वा मणिपालकं मणीनां पालकमित्यर्थः । मणिवालकं वा । मणीन्सं वृणोत्याश्रयत्वेन धार यतीत्यर्थः । 'वल वल्ल संवरणे' इति धातुः । ण्वुलप्रत्ययः । एवं तीरे लतागृहाणां प्रभाभिरवभासिता उपद्रावि(भासि)ता नृपालयाः सौधादयो येन तम् । सौधापेक्षया लतागृहाणामुत्तमत्वादित्यर्थः । एवं घना बहवो वारिदा यत्र तम् । घनेभ्यो वारिदं जलप्रदं वा । मेघानां समुद्रजलग्राहकत्वात् । यद्वा घनवारितं घनर्वारितं वेष्टितम् । अथवा धनवारिकं धनं वारि यत्र तम् । प्राशस्त्ये कन् । एवं वेलालिङ्गनेन वेलातिक्रमेण हेतुना यन्महीलङ्घनं तत्र वारितं निषिद्धम् । मर्यादाशीलत्वात् । महीलङ्घनेच्छुरिति कुतो ज्ञायते तत्राह-चटुलं चञ्चलम् । कल्लोलशालित्वात् । वस्तुतस्तु वेलालिङ्गनेन चटुलं चञ्चलम् । अत एव महीलङ्घने वारितम् । वेलयव निषिद्धप्रसरत्वात् । तथा च सखीरूपाया वेलाया आलिङ्गनेन तरलत्वान्मुख्यनायिकारूपाया मह्या लवनेऽतिक्रम्योपमर्दै वारितमिति समासोक्त्या लभ्यते । अन्यत्रापि सखीसंभोगशीनं नायक नायिका परिहरतीति ध्वनिः ॥२३॥ विमला-समुद्र मणियों के रक्षक (मणिप) सो अथवा यक्षों का आलय है अथवा ('मणिपालक' छायापाठ करने पर) मणियों का पालक है। समुद्र ने अपने तीर पर लतामण्डपों की प्रभा से नृपों के सदनों को अवभासित कर दिया है। यह Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६३ समुद्र (घनवारिद) जलदों का भी जलद है। यह वेला के आलिङ्गन (अतिक्रमण) से चञ्चल (मही तक पहुँचने का इच्छुक) हुआ किन्तु (वेला से) महीलङ्घन के प्रति रोक दिया गया। विमर्श-उत्तरार्ध में समासोक्ति' अलंकार है ॥२३॥ अथ चन्द्रोदये जलवृद्धि माह ससिमऊहपडिपेल्लणपक्खन्भन्त संचरन्तधरणीहरपक्खुब्भन्तमम् । धीर सइमुहलवणपअविज्जन्त अठिन च वलवाणलपविज्जन्तमम् ॥२४॥ [शशिमयूखपरिप्रेरणप्रक्षुभ्यत्कं संचरद्धरणीधरप्रक्षोभ्यमाणम् । धैर्यकं सदामुखरघनपीयमानमस्थितं च वडवानलप्रताप्यमानम् ॥] चन्द्रकिरणपरिप्रेरणेन' प्रक्षुभ्यद्वर्धमानं कं जलं यस्य तम् । एवं संचरद्भिर्धरणीधरैः प्रक्षोभ्यमाणमितस्ततश्चाल्यमानम् । पर्वते चलति जलक्षोभादिति पर्वतानां महत्त्वमुक्तम् । 'संचरद्धरणीधरपक्षोभ्रान्तम्' इति वा । तत्र संचरता धरणीधरपक्षेणोद्भ्रान्तम् । तथा चैकपक्षचलनेन समुद्रः क्षुभ्यतीति शैलानामतिमहत्त्वमुक्तम् । एवं धैर्यकं धैर्यस्वरूपम् । वेलानतिक्रमशीलत्वात् । तथा च धैर्यरूपधर्माभेदेनातिधीरत्वमुक्तम् । प्राशस्त्ये कन् । 'धीरकम्' इति वा । एवं सदा मुखरैः सशब्दैर्घनैः पीयमानम् । विहगादयोऽपि भक्ष्यादिलाभे शब्दायन्त इति ध्वनिः । अस्थितं च कल्लोलशालितया चञ्चलमित्यर्थः । एवं वडवानलेन प्रताप्यमानं न तु शोष्यमाणमिति जलबाहुल्यमुक्तम् । अत्र प्रथमेन द्वितीयेन च पादेन शशिरूपसुतस्नेहः शरणागतपर्वतादिवात्सल्यं च, तृतीयेन धैर्य जलदादिभिक्षुकोपकारित्वं च, तुर्येण भीषणत्वमङ्गीकृतवडवानलधारणजन्यदुःखसहिष्णुत्वं चोक्तम् । 'को ब्रह्मपवनार्केषु समरे सर्वनाम्नि च । पानीये च मयूरे च मुखशीर्षसुखेषु कम्' ॥२४॥ विमला--समुद्र का जल चन्द्रकिरण के (परिप्रेरण) संस्पर्श से बढ़ता है। वह पर्वतों के चलने पर संक्षुब्ध होता है तथा (वेला का अतिक्रमण न करने से) धैर्यस्वरूप है। (प्रसन्नता से) ध्वनि करते मेघ इसके जल को पीते हैं। यह तरङ्गों से युक्त होने के कारण अस्थिर है एवं वडवानल से प्रतप्त किया जाता है ॥२४॥ अथ सर्पसंचारमाहभिप्रअविसाणलपप्रविप्रमुत्ताणिप्ररपरिघोलमाणविसहरम् । मीणगइमगपापडसेआलोमइलमणिसिलासंघाप्रम् ॥२५॥ [निजकविषानलप्रतापितमुक्तानिकरपरिघूर्णमानविषधरम् । मीनगतिमार्गप्रकटशेवालावमलिनमणिशिलासंघातम् ॥] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] सेतुबन्धम् [द्वितीय निजकविषानलप्रतापित मुक्तानिकरैरर्थात्स्फुटित्वा देहे लग्न: परिघूर्णमाना विषधरा यत्र तम् । तथा च निजनिःश्वासविषानलसंबन्धस्फुटितवपुर्निपतितमुक्ताभितापहेतुक परिभ्रमणेन सर्वत्र मुक्तासत्त्वेन तथैव पुनस्तथाविधमुक्तासंबन्धनिबन्धनोऽभिताप इत्यस्थैर्येण भुजङ्गानां समुद्रस्य मुक्तानवच्छिन्न देशराहित्यमुक्तम् । वस्तुतस्तु निजकविषानल प्रतापिता अत एव शीतल तया मुक्तानिकरे परिघूर्णमाना विषधरा यत्र तमित्यर्थः । तेन तथाविधप्रौढविषमहासर्पसत्त्वं तदभितापनिवर्तनक्षममुक्तासत्त्वं च सूचितम् । एवं पूर्व निपातानियमेन प्रकटो व्यक्तो यो मीनानां गतिमार्गस्तत्र शेवालरादितस्ततः पतितैरवमलिनः श्यामीकृतः। छन्न इति यावत् । मणिरूपशिलानां संघातो यत्र तम् । अत्र समुद्रशेवालानां प्रान्तद्वये पातान्मत्स्यादीनां संचारपथस्य प्रकटत्वेनाकारस्य महत्त्वमुक्तम् ॥२५॥ विमला—यहाँ (समुद्र में) सर्प (अपने) विषानल से प्रतप्त हो (शीतलता प्राप्ति के लिए) मुक्तानिकर में घूम रहे हैं। दोनों पार्श्व में पड़े हुए सेवारों से मीनों का संचारपथ प्रकट है और उन ( सेवारों) से मणिरूप शिलाओं का समूह (अवमलिन) श्याम हो गया है ॥२५॥ लक्ष्मीसंबन्धमाहसरिसंकुलं महुमहवल्लहाइ लच्छीम सारसरिसं कुलम् । महिलाइ गइमुहपत्थिरोणिप्रत्तिअवेलामहिलाइमम् ।।२६।। [सरित्संकुलं मधुमथनवल्लभाया लक्ष्म्याः सारसदृशं कुलम् । महीलालितं नदीमुखप्रस्थितापनिवृत्तवेलामहिलायितम् ।।) सरिद्भिः संकुलं व्याप्तम् । नदीनां तत्रैव प्रवेशादित्यर्थः । एवं हरिप्रियाया लक्ष्म्याः सारं श्रेष्ठं सदृशं हरिप्रियायोग्यम् । अथवा सारो धनं तेन सदृशं योग्यम् । मक्षम्या धनवत्त्वेन तत्पितुरपि तथैवौचित्यादिति भावः । एवंभूतं कुलं वंशम् । पितृरूपत्वादित्यर्थः । एवं मह्यां लालितं घृष्टम् । तदधिष्ठितत्वात् । 'महीलागितं' इति वा । मह्यां लागितं योगितमर्थादीश्वरेण । एवं नदीमुखेन प्रस्थिता समुद्राभिमुखी अथापनि वृत्ता तत्तरङ्गाभिघातेन पश्चादभिमुखी वेला जलं महिलायिता महिलावदाचरन्ती यत्र तम् । तथा च स्पृष्टापसृतक व्यापारेण नायकमालिङ्गयापसरन्ती नायिकेव वेलापि समुद्रमभिलीयापसरतीति कल्लोलप्रकर्षः । यद्वा तथाभूतवेलामहिलाजितं तथाभूता वेलैव महिला तथा जितं पुनरतिक्रान्तम् । तत्रैव तज्जलप्रवेशादित्यर्थः । वेला तत्तीरनीरयोः' इति कोषः ॥२६॥ विमला-यह समुद्र नदियों से व्याप्त है तथा हरिप्रिया लक्ष्मी का श्रेष्ठ एवम् अनुरूप कुल है। यह मही का स्निग्ध प्रिय है । (वेला (जल) ('वेलातत्तीर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६५ नीरयोः' इति कोषे श्रूयमाणत्वात् ) यहाँ नदीमुख के द्वारा समुद्राभिमुखी होकर (तरङ्गभिघात) से पीछे लौटती हुई, नायिका के समान आचरण करती है ||२६|| पुनर्नदीसंघट्टमाह सहस्स पडिउम्त्रणणार सम्त पल अमेहसमदू सहणाअरसन्तअम् । पेलवेण पवणेण महरसंचारिअं मउअमग्रखलन्तं व महुरसं चारिअम् ॥ २७ ॥ [नदीसहस्रपरिचुम्बनज्ञातरसान्तरं प्रलयमेघसमदुःसहनादरसन्तम् । पेलवेन पवनेन मधुरसंचारितं मृदुमदस्खलन्तमिव मधुरसं चारितम् ॥] नदीसहस्रपरिचुम्बनेन ज्ञातं रसान्तरं जलान्तरं यत्र तम् । नदीसंगमेन ज्ञायते नद्या जलमिदमित्यर्थः । यद्वा नदीसहस्रस्य परिचुम्बने संगमे ज्ञातो रसो जलं यस्य तम् । इदं समुद्रस्य जलमिति बुद्धि विषय इत्यर्थः । एवं ततं विस्तीर्णम् । एवं प्रलयमेघसदृशेन नादेन रसन्तं शब्दायमानम् । 'सुवर्णेन धनी' इतिवत् । प्रलयमेघध्वनितुल्य जलध्वनि मित्यर्थः । यद्वा प्रलयमेघसमनादेन रसत्कं जलं यस्य तं प्रलयमेघ - समनादरसत्कम् । एवं कोमलेन पवनेन मधुरं यथा स्यात्तथा संचारितम् । कमिव । मधुरसं मदिरारसं चारितं भोजितं पुरुषमिव । पुरुषं किंभूतम् । मृदुना मदेन स्खलन्तं पतन्तम् । 'चर गतौ भक्षणे च' इति धातुः । तथा च यथा निपीतमद्य मदमार्दवे मन्दं स्खलति तथा समुद्रोऽपि मन्दानिले मन्दं चलतीत्युपमा । एवं मतोऽपि नदीसहस्रप्रायसतरङ्गकामिनीसहस्रपरिचुम्बनेन ज्ञातं शृङ्गारादिरसान्तरं येन तादृशः प्रलय मेघतुल्यशब्दा भवत्युच्चैः शब्दायमानत्वादिति भावः । वस्तुतस्तु मन्दसंचारे परमुत्प्रेक्षेयम् । तथा हि कमिव । मधुरसं भोजितमिव । अत एव मृदुमदेन स्खलन्त - मिव । काकाक्षिगोलकन्यायादिवशब्दस्योभयत्रान्वयः । तथा च पवनेन मधुरं चलतोति नार्थः । किं तु मदिरारसं पीतवानतो मृदुमदेन मन्दं स्खलतीति । सर्वमन्य त्समानम् । 'मधु क्षौद्रे जले क्षीरे मद्ये पुष्परसेऽपि च' इति विश्वः ||२७|| विमला - सहस्रों नदियों के परिचुम्बन ( सङ्गम) से रसान्तर ( नदीसम्बन्धी अन्य प्रकार का जल ) का अनुभव करता, प्रलयमेघ के समान दुःसह नाद से शब्दाय + मान यह समुद्र कोमल पवन से मन्द मन्द चलता हुआ उस पुरुष की समता कर रहा है, जो सहस्रों नदियों के समान नायिकाओं के परिचुम्बन से रसान्तर (शृङ्गाराबि रस) का अनुभव करता है, प्रलयमेघ के समान दुःसह नाद से शब्दायमान होता है तथा मदिरारस पीकर मत्त हो मृदु मद से मन्द मन्द लड़खड़ाता चलता है ॥२७॥ ५ से० ब० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] सेतुबन्धम् [द्वितीय शेषनागमाहकसणमणिच्छाप्रारसरज्जन्तोवरिपरिप्यवन्तप्फेणम् । हरिणाहिपङ्कअक्खलिअसेसणीसासजणिअविअडावत्तम् ॥२८॥ [कृष्णमणिच्छायारसरज्यमानोपरिप्लवमानफेनम् । हरिनाभिपङ्कजस्खलितशेषनिःश्वासजनितविकटावर्तम् ॥] कृष्णमणीनामिन्द्रनीलादीनां छाया कान्तिः सैव रसो नीलिकादिद्रवस्तेन रज्यमाना वर्णान्तरं प्राप्ता उपरिप्लवमानाः संचरन्तः फेना यत्र । तथा च गभीरजलमूल- , स्थमणिच्छायानामतिदूरोपरिस्थफेनसंबन्धेन मणीनामुद्दामतेजस्वित्वं जलस्य च स्वच्छत्वमिति भावः । एवं हरिनाभिपङ्कजे स्खलितेन शेषनिःश्वासेन जनितो विकटावर्तो यत्र तम् । तथा चाधोमुखस्य शेषस्य कोडेशयोत्तानहरिनाभिकमले तलवतिनि स्खलितो नि:श्वास ऊध्वं धावन्नुपरि जलावतं जनयतीत्यर्थः । तेनाशेषनिःश्वासावरोधकत्वेन कमलस्य मूले स्खलितस्योपरि विकटावर्तजनकत्वेन' निःश्वासस्य तादृशावर्ताधिकरणत्वेन समुद्रस्य च महत्त्वमुक्तम् ॥२८॥ विमला-यहाँ समुद्र में तैरते हुए फेन, (बहुत नीचे स्थित) इन्द्रनीलादि मणियों की कान्ति से नीले वर्ण के दिखायी देते हैं तथा शेषनाग का निःश्वास जो विष्ण के नाभिकमल से टकराकर ऊपर की ओर वेग से आता है तो समुद्र के जल में विकट आवर्त (भँवर) प्रादुर्भूत हो जाता है ॥२८॥ सभरङ्ग विद्दुमपल्लवप्पहाघोलिरसासभरङ्गमम् । रविराइ धरणिप्रलं व मन्दराअड्ढणदूरविराइप्रम् ॥२६॥ [सतरङ्गकं विद्रुमपल्लवप्रभाघूर्णमानशाश्वतरङ्गकम् । रविराजितं धरणितलमिव मन्दराकर्षणदूरविराविकम् ॥] सह तरङ्गेण वर्तते यस्तम् । यद्वा सगराङ्गकं सगरं विषसहितमङ्गकं यस्य तम् । सगराङ्गजं वा सगरस्याङ्गजं पुत्रमिव । तत्खानितत्वादित्यर्थः । एवं विद्रुमस्य पत्त्राणां प्रभाभिषूर्णमान शाश्वतं सार्वदिकं रङ्गकं लौहित्यं यत्र तम् । विद्रुमलौहित्यस्य जले संक्रमात् । यद्वा विद्रुमपल्लवेषु घूर्णमानप्रभाः संचरत्कान्तयः शाश्वता रङ्गका धातुविशेषा यत्र तम् । पूर्वानेपातानियमात् । एवं रवः शब्दस्तद्विशिष्टा रविणो हंसादयस्तै राजितं शोभितम् । एवं मन्दरपर्वतस्य मथनसमये आकर्षणेन परितवालनेन दूरं व्याप्य विरावि शब्दयुक्त कं जलं यस्य तम् । मन्दरभ्रमणेन ध्वनिगाम्भीर्यादस्य महत्त्वमुक्तम् । अथवा दूरविराजिकं मन्दरचालनेन दूरं व्याप्य विराजि समुच्छलत्कं जलं यस्येत्यर्थः । किमिव । धरणीतलमिव । कीदृशं भूतलम् । सकराङ्गक सह करेण राजग्राह्यण वर्ततेऽङ्गं शरीरं यस्य तत् । तथा भूमौ करसत्त्वात् । विशिष्टो द्रुमो Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६७ विद्रुमस्तत्पल्लवप्रभाभिघूर्णमान: संबध्यमानः स्वाश्रयः स्वनिष्ठो रङ्गो यत्र तत् । तल्लौहित्यसंक्रमात् । प्रशंसायां कन् । एवं रविणा सूर्येण राजितं दीपितम् । मन्दराकर्षणेन दूरं व्याप्य विदारितम् । तदुत्पाटनेन भूमेविदीर्णत्वादित्यर्थः ॥२६॥ विमला-तरङ्गों से युक्त, विद्रुमपल्लवों की प्रभा से शाश्वत प्रसरणशील रक्तिमा वाला, (रविराजितम् - रवविशिष्टा: रविणः हंसाः तैः राजितम्) हंसों से सुशोभित, (मथनकाल में) मन्दराचल के घूमने से दूर तक शब्दयुक्त जल वाला (दूर-विराबि-कम्) यह समुद्र उस धरणितल के समान सुशोभित है जो (राजा के द्वारा ग्राह्य) कर से युक्त अङ्ग वाला है, विशिष्ट द्रुम के पल्लवों की प्रभा से स्वनिष्ठ रक्तिमा वाला है (रविण सूर्येण राजितम्) सूर्य से सुशोभित एवं मन्दराचल के उत्पाटन से दूर तक विदीर्ण है। विमर्श-धरणितल के पक्ष में 'सअरङ्गअं' की संस्कृतच्छाया 'सकराङ्गम्', 'सासअरङ्गअम्' की स्वाश्रयरङ्ग कम्', 'दूरविराइअम्' की 'दूरविदारितम्' है ।।२।। मुत्ताल तिप्रसविइण्णजीविअसुहामअजम्मुत्तालग्नम् । विस्थिण्ण पल उज्वेलसलिलहेलामलिउवित्थिण्णम् ॥३०॥ [मुक्तालयं त्रिदशवितीर्णजीवितसुखामृतजन्मोत्तालकम् । विस्तीर्णकं प्रलयोद्वेलसलिलहेलामृदितोर्वीस्त्यानकम् ॥] मुक्तानां मौक्तिकानां जीवन्मुक्तानां वालयम् । त्रिदशेभ्यो वितीर्णं जीवितसुखं येन तादशस्यामृतस्य जन्मनोत्तालकमुद्भटम् । तथा च त्रिदशश्लाघ्यामृतस्याकरोऽयमित्यर्थः । एवं विस्तारशीलम् । प्रशंसायां कन् । विस्तीर्णजलं वा। एवं प्रलये उद्वेलमुच्छलितं यत्सलिलं तस्य हेलया संचारेण मृदितया उर्व्या स्त्यानं काठिण्यात्कर्दमीभूतम् । तथा च प्रलयहेतुत्वमस्येति सूचितम् ॥३०॥ विमला-यह समुद्र मुक्तालय (१-मौक्तिकों, २-जीवन्मुक्तों का आलय) है । देवों को जीवनसुख प्रदान करने वाले अमृत के जन्म से महान है। यह अत्यन्त विस्तारशील है तथा प्रलय में वेला का अतिक्रमण कर उमड़ कर बहे हुए जल के लीलापूर्वक संचार से क्षुण्ण मही से यह गाढ़ा हो गया है ॥३०॥ चिरपरूढसेआलसिलाहरिअन्तरं पवणभिण्णरवदारुणणोहरिमन्तमम् । महुमहस्स णिद्दासमए वोसामर्थ पलअडड्ढविज्झाअतलुव्वीसामग्रम् ॥३१॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] सेतुबन्धम् [द्वितीय [चिरप्ररूढशेवालशिलाहरितायितं पवनभिन्नरवदारुणनिह्रदत्कम् । मधुमथनस्य निद्रासमये विश्रामदं प्रलयदग्धविध्माततलोर्वीश्यामकम् ॥] चिरप्ररूढानि शेवालानि यत्र तादृशीभिः शिलाभिर्हरिद्वर्णम् । शेवालकान्तिसंक्रमात् । तथा च तादृशमपि स्थलं वर्तते यत्र मकराद्यगम्यत्वेन शेवालादीनामभगुरत्वमिति भावः । यद्वा तथाविधशिलाभिर्हरितं हरिद्वर्णम् । ततं विस्तीर्णम् । तान्तं ग्लानं वडवानलसंबन्धात्कं जलं यस्य तं शिलाहरितान्तकम् । एवं पवनेन भिन्नं क्षुभितमत एव क्षोभजेन रवेण दारुणं कठिनं निह दच्छब्दान्तरोत्पादि के जलं यस्य तम् । एवं मधुमथनस्य निद्रासमये विश्रामदम् । प्रलये दग्धं पञ्चाद्विध्मातं निर्वाणं यदुर्वीतलम् । पूर्वनिपातानियमात्तलशब्दस्योर्वीसंगतत्वम् । तद्वच्छयामम् । तथा च पृथ्वीसमानपरिमाणत्वमस्येति भावः ॥३१॥ विमला-चिरकाल से उगे एवं बढ़े सेवा र वाली शिलाओं से यह समुद्र हरिद्वर्ण है । वायु से क्षुब्ध किये जाने से ध्वनि उत्पन्न होने पर इसका जल कठोर प्रतिध्वनि करता है । यह विष्णु को शयनसमय में विश्राम देता है। यह प्रलपकाल में दग्ध हुई तदुपरान्त बुझी हुई पृथ्वी के समान श्याम वर्ण है ॥३१॥ असुरोवडणविहअिजलविवरुट्ठिअरसाअलुम्हाणिवहम् । महणवसभिण्णभामिअदीवन्तरलग्गमन्दरअडक्खण्डम् ॥३२॥ [असुरावपतनविघटितजलविवरोत्थितरसातलोष्मनिवहम् । मथनवशभिन्नभ्रामितद्वीपान्तरलग्नमन्दरतटखण्डम् ॥] असुराणां हिरण्याक्षप्रभृतीनामवपतनेन झम्पेन विघटितं द्विधाभूतं यज्जलं तस्य विवरेणोत्थितो रसातलोष्मनिवहो यस्मात्तम् । तथा च चिरसंचितानामपि पातालोष्मणामुत्थानप्रतिबन्धकत्वेनातिगभीरत्वमुक्तम् । एवं मथनवशेन भिन्नं त्रुटितमत एव तत्काले भ्रामितं मन्दरभ्रमणाकृष्टया चक्रवद्विधूणितं पश्चाद्वीपान्तरे लग्नं मन्दरतटस्य खण्डं यत्र तत् । तथा च तादृक्समुद्रस्य महत्त्वं येन मन्दरखण्डो द्वीपवद्भासत इति भावः ।।३२।। विमला-(इस समुद्र की गहराई और विस्तार का अनुमान यों भी लगा सकते हैं कि) बड़े-बड़े असुर हिरण्याक्ष आदि के कूदने से दो भागों में विभक्त जल के विवर द्वारा रसातल की भीषण गर्मी इसी समुद्र से निकली तथा जब मथते. मथते मन्दराचल टूट गया तब उसका खण्ड भी मन्दराचल के भ्रमण के आकर्षण से चक्रवत् घूमने लगा और वह एक अन्य द्वीप-सा इस समुद्र में भासित हुआ ॥३२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् एस अमअरससंभवो त्ति संभाविअं हणिहतमेण व चउद्दिसं भाविअम् । गुणमहग्घसारं वसुहारक्लाणिअं अमजसणिहाणं विअ सअरक्खाणिनम् ॥३३॥ [ एषोऽमृतरससंभव इति संभावितं नभोनिभतमसेव चतुर्दिशं भावितम् । गुणमहार्घसारं वसुधारक्षानीतं निजकयशोनिधानमिव सगरखानितम् ॥ ] एवमेष सुधारसोत्पत्तिस्थानमिति संभावनायुक्तम् । महत्त्वान्नीलत्वाच्च नभस - स्तुल्यम् । नीलिमानमस्योत्प्रेक्षते - किंभूतम् । चतुर्दिशं तमसा तिमिरेण भावितमु - त्पादितमिव । अत एव श्याममित्यर्थः । एव स्वस्य गुणैर्महार्घो बहुमूल्य: सारो रत्नादित्र तम् । एवं वसुधायाः पृथिव्या रक्षायै आनीतमुत्पादितम् । समुद्रावष्टब्धा पृथिवी तिष्ठतीति पुराणवार्ता । तथा च स्वाधिकात्स्वरक्षा भवतीति पृथिव्यधिकपरिमाणवत्त्वं समुद्रस्योक्तम् । एवं सत्युत्प्रेक्षते - कीदृशमिव । सगरेण राज्ञा खानितं निजक शोनिधानमिव । निधानं निधिधारणस्थानम् । तथा च यशोरूपद्रव्यं निधिस्तद्धारणगर्त: समुद्र एव । सगरस्य प्रतिष्ठा हेतुत्वादिति भावः । निधिस्थानमप्यमृतरसोत्पत्तिस्थानमिवादृतं विस्तीर्णत्वान्नभोनिभमावरणीयत्वाच्चतुर्दिशमन्धकारेण भावितमिव गुणमहार्घहिरण्यादिसारयुक्तं वसुधायां निधिरक्षायै आनीतमुत्पादितं भवति । निधिगर्तस्य क्षितावेवोत्पत्तेरिति साम्यम् ||३३|| विमला - यह (समुद्र) 'सुधारस का उत्पत्तिस्थान है'- - इस प्रकार से सम्मानित है । इसे मानों चतुर्दिक् गगनसदृश अन्धकार ने उत्पन्न किया है (अतएव श्याम है) । इसमें वे रत्न आदि हैं जो अपने गुणों के कारण अत्यधिक मूल्यवान् हैं । यह 'पृथ्वी की रक्षा के लिये उत्पन्न किया गया है । इसे राजा सगर ने खुदवाकर मानों अपने यशरूप निधि को धरने का स्थान बनाया है । [ ६६ विमर्श - पृथिवी की स्थिति चारों ओर से समुद्र द्वारा बँधी होने के कारण ही है - ऐसा पुराणों से विदित होता है ||३३॥ पग्गा हि अजललवणिवहपहम्मन्तम् हलती रसलवणम् । ससिसेलमऊहोज्झर परिवड्ढि असलिलमलि अपवणुच्छङ्गम् ॥३४॥ [पवनोद्ग्राहितजललवनिवह प्रहन्यमान मुखरतीरतलवनम् । शिशैलमयूख निर्झरपरिवर्धितसलिलमृदितपुलिनोत्सङ्गम् ॥] पवनोत्थापितेन जललवनिवहेन प्रहन्यमानान्यत एव मुखराणि शब्दायमानानि तीतले वनानि यस्य तम् । तीरे तालवनानि यस्येति केचित् । एवं शशिशैलश्चन्द्रकान्तमणिपर्वतस्तस्य मयूखप्रवाहेण परिवर्धितैः सलिलैर्मुदिताः पुलिनोत्सङ्गा यस्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ द्वितीय तम् । चन्द्रशैलानां चन्द्रकान्तमणिमयत्वेन तत्किरणेषु ज्योत्स्नाबुद्धया समुद्रजलवृद्धिर्वास्तव मयूखनिर्झरसंबन्धमूलकत्वेनोत्प्रेक्षिता । शश्येव शेलस्तस्य मयूखा एव निर्झरास्तैः परिवर्धितं यत्सलिलं तेन मृदितः पुलिनोत्सङ्गो यस्य तमिति वा । अन्यदपि जलं निर्झरान्तरसंबन्धेन वर्धत इति ध्वनिः ॥ ३४॥ सेतुबन्धम् विमला - वायु द्वारा उछाले गये जल से प्रताडित होने के कारण समुद्र के तटवर्ती वन शब्दायमान होते हैं तथा शशिरूप शैल के मयूखरूप निर्झर से परिवर्धित सलिल समुद्र के पुलिन प्रदेश का आलिङ्गन करता है ||३४|| मन्दरमेहक्वोहिअससिकल हंसपरिमुक्कसलिलुच्छङ्गम् । मरगअसेवालोवरि गिसग्गतुहिक्कमोणचक्का अजुअम् ॥३५॥ [मन्दर मेघक्षोभितशशिकलहंसपरिमुक्त सलिलोत्सङ्गम् । मरकतशेवालोपरि निषण्णतूष्णीकमीन चक्रवाकयुगम् ॥] मन्दर एव मेघस्तेन क्षोभित आन्दोलितः शश्येव कलहंसस्तेन परिभुक्तः सलिलोत्सङ्गो यस्य तम् । अन्यत्रापि मेघमालोक्य हंसा अपगच्छन्तीति ध्वनिः । तथा च मन्दरान्दोलनेन मुष्माच्चन्द्र उत्थित इत्यर्थः । एवं मरकत एव शेवालं तत्र निषण्णमुपविष्टं मीन एव चक्रवाकस्तद्युगं यत्र तम् । मन्दरपरिघट्टनभिया तूष्णींभूय मीनाः पातालमूले स्थितास्तेन तत्र मन्दरसंबन्धाभावादस्य गाम्भीर्यमुक्तम् । हंसपलायनं दृष्ट्वा भीतश्चक्रवाकस्तूष्णीं तिष्ठतीति ध्वनिः । चन्द्राभावेन चक्रयोमिलन मुचितमेवेति कश्चित् || ३५।। विमला - मन्दराचलरूप मेघ से क्षुब्ध शशिरूप कलहंस ने समुद्र के जलभाग को परिमुक्त कर दिया तथा (हंस का पलायन देखकर एवं मन्दराचल के अभिघात से भयभीत होने के कारण ) मीनरूप चक्रवाकयुगल मरकतरूप शेवाल पर चुपचाप बैठा है ||३५|| पुण्णणइसोत्तसंहिजलमज्झम् णिज्ज माण चल तिमिणिवहम् । वलयामुहमूलसमोसर न्तम सिरासिकज्जलि अपाआलम् ॥३६॥ [पुण्यनदी स्रोतः संनिभजलमध्यज्ञायमानचलतिमिनिवहम् । वडवामुखमूलसमव सरन्मषीराशिकज्जलितपातालम् ॥] ( आइकुलअम् ) ( आदिकुलकम् ) पुण्यनदीनां गङ्गादीनां प्रवाहस्य तुल्यं यज्जलमध्यं तेन ज्ञायमानश्चलश्चलितस्तिमिनिवहो यत्र तम् । तिमिषु चलितेषु जलमध्ये प्रवाहा भवन्ति तैरनुमीयते Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [७१ तिमयश्चलन्तीत्यर्थः । तेन प्रवाहाणां गङ्गादिप्रवाहतौल्येन तिमीनां जलमध्य एवोत्पत्त्या समुद्रस्य च महत्त्वमुक्तम् । अथवा पुण्यनदीस्रोतःसंनिभा जलमध्ये ज्ञायमानाचलिततिमिनिवहा यत्र । तथा च गङ्गादिप्रवाहतुल्यास्तिमय इति भावः । पूर्णनदीस्रोतःसंनिभेति वा। एवं वडवामुखमूलात्समवसरभिरधः पतद्भिर्मषीराशिभिः कज्जलितं पातालं येन तम् । अयमर्थः-अधोमुख्या वडवाया मुखानलस्योर्ध्व ज्वलनतया तन्मुख एव शिखासंबन्धादुत्पन्नः कज्जलैः कणशः कणशो निपत्य पातालं श्यामीकृतमिति पातालमालिन्यसमर्थकज्जलोत्पत्तिहेतुवडवानलमहत्त्वेन समुद्रस्य महत्त्वमिति भावः । वडवानलोऽप्यधोगत इति कश्चित् । कुलकम् ॥३६॥ विमला-इस (समुद्र) में जलमध्य में पुण्य नदियों (गङ्गा आदि) के तुल्य तिमि-समूह के चलने पर) जो प्रवाह होते हैं उनसे अनुमान लगता है कि जल के भीतर तिमिसमूह चल रहे हैं। इस ( समुद्र ) ने ( अधोमुखी ) वडवा के मुख से निकलते हुए कज्जलों से पाताल को श्याम कर दिया है ॥३६॥ अथ समुद्रदर्शने रामस्याध्यवसायमाह तो उग्घाडिअमूलो पवबलक्कन्तमहिअलुडुच्छलियो। विट्ठी दिसारो णज्जइ तुलियो त्ति राहवेण समुद्दो ॥३७॥ [तत उद्घाटितमूलः प्लवगबलाक्रान्तमहीतलोर्वोच्छलितः । दृष्टया दृष्टसारो ज्ञायते तुलित इति राघवेण समुद्रः ॥] ततस्तदनन्तरं राघवेण दृष्टया नयनेन समुद्रस्तुलित एतावदस्य बलं सुखेन' लङ्घनीय इत्यध्यवसित इति ज्ञायते । ज्ञातं सर्वरित्यर्थः । कीदृक् । प्लवगबलेन' वानरसैन्येनाक्रान्तान्महीतलादूर्ध्वमाकाशं प्रत्युच्छलितः । अत एवोद्घाटितं पयःशून्यत्वाद्वयक्तीकृतं तलं यस्य । तथा च प्लवेनोत्फालेन गच्छतां भारेण महीतलावनमने समुद्रस्य जलमाकाशे लग्नं मूलमुद्घाटितमित्यर्थः । तदुक्तं दृष्टं प्रत्यक्षीकृतं सारं बलं यस्य । तथा च प्लवगबलानामनास्थयैव चलने चेदस्य जातेयमवस्था तदा का कथा व्यवसाये सतीत्यवज्ञाविषयीकृत इति भावः । ३७।। विमला-समुद्र, बानरों की सेना से आक्रान्त महीतल से ऊपर आकाश की ओर उछल गया, जिससे उसका तल भाग (जनशून्य होने से) व्यक्त हो गया और राम ने अपनी दृष्टि से समुद्र को भलीभाँति तोल लिया और उसका बल देख लिया ।।३७।। अथ रामस्य लक्ष्मीविस्मरणमाहकालन्तरपरिहुत्तं दठूण वि अप्पणो महोअहिसअणम् । जणअसुमाबद्धमणो रामो पलअघरिणि ण संभरइ सिरिम् ॥३८॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] सेतुबन्धम् [ द्वितीय [ कालान्तरपरिभुक्तं दृष्ट्वाप्यात्मनो महोदधिशयनम् । जनकसुताबद्धमना रामः प्रलयगृहिणीं न स्मरति श्रियम् ॥] कालान्तरे देहान्तरेण परिभुक्तमुपभुक्तमात्मनः स्वस्य महोदधिरूपं तल्पं शयनं दृष्ट्वापि रामः प्रलये गृहिणीं प्रलयसहचरी श्रियं लक्ष्मी न संस्मरति । तत्र हेतुमाह-जन कसुतायां नूतनभार्यायां बद्ध मनाः । सानुराग इत्यर्थः । तथा च यद्येकसंबन्धिमहोदधिरूपसततोपभुक्तनिजशयनदर्शने रामस्यापरसंबन्धिन्याः सहशायिन्या लक्ष्म्याः स्मरणं स्यात्तदा तत्पितुः समुद्रस्य घर्षणं न स्यादिति भावः । अन्योऽपि नूतनभार्यानुरक्तः पुरातनभार्यां न स्मरतीति ध्वनिः ।।३।। विमला-कालान्तर में (अन्य देह से) जिसका उपभोग कर चुके हैं उस महोदधिरूप अपने तल्प को देख कर भी राम ने प्रलयसहचरी लक्ष्मी का स्मरण नहीं किया, क्योंकि उस समय तो उनका मन जनकसुता में लगा था ।३८।। अत्र लक्ष्मणधैर्यमाहईसिजलपेसिअच्छं विहसन्तविइण्णपवअवसलावम् । मद्दिठे व्व ण मुक्कं दिठे उअहिम्मि लक्खणेण वि धीरम् ।।३।। [ईषज्जलप्रेक्षिताक्षं विहसद्वितीर्णप्लवगपतिसंलापम् । अदृष्ट इव न मुक्तं दृष्टे उदधौ लक्ष्मणेनापि धैर्यम् ॥] भदृष्ट इव दृष्टेऽप्युदधौ सति लक्ष्मणेनापि धैर्य न मुक्तम् । पूर्वमदृष्ट उदधौ यथा धैर्य न त्यक्तं तथा दृष्टेऽपीत्यर्थः । यद्वा दृष्टेऽप्युदधावदृष्ट इव सत्यवज्ञावशादे॒यं न त्यक्तमित्यर्थः । धैर्य कीदक । ईषज्जले प्रेषितमक्षि यत्र तत् । भयाभावेन संपूर्ण दृष्टयनर्पणादित्यवज्ञा सूचिता क्षोभेऽपि संवरणं वा । तदेवाह-विहसता अर्थात्स्वेन वितीर्णो दत्त: वगपतये संलापः परस्परभाषणं यत्र तत् । सस्मितं सुग्रीवेण सह कथां कुर्वाणेन हृदि जागरूकः कदाचित्समुद्रोऽपि कटाक्षित इत्यवज्ञासंवरणसाधारणम् ।।३९।। विमला-लक्ष्मण ने भी समुद्र को देखकर धैर्य नहीं छोड़ा । उन्होंने (अवज्ञापूर्वक) समुद्र के जल की ओर तनिक भर दृष्टि डाली और उसे देख कर भी जैसे उसेदेखा ही नहीं एवं मुस्कराते हुए (प्लवगपति ) सुग्रीव के साथ वार्तालाप करते रहे ।।३।। अथ सुग्रीवस्य समुद्रदर्शनमाह हरिसणिराउण्णामिअपीणअरालो अपाबडोवरिभाअम् । पवआहिवो वि पेक्खइ अद्भुप्प अं व कम्भि (धि)ऊण सरीरम्॥४०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [७३ [हर्षनिरायतोनामितपीनतरालोकप्रकटोपरिभागम् । प्लवगाधिपोऽपि प्रेक्षते अर्थोत्पतितमिव रुद्वा शरीरम् ।।] हर्षेण समुद्रदर्शनोत्साहेन निरायतो दीर्घाकृतस्तथैवीन्नामित उत्थापितः पीनतरो मांसल: अत एवालोके शरीरदर्शने प्रकटो व्यक्त उपरिभागो हृदयाद्यङ्गं यस्य एतादृशं शरीरमर्धेनोपरिभागेनोत्पतितं समुद्रलङ्घनाय कृतोत्फालमिब रुवा अहो ममैव धाष्ट्यं प्रथमतः कथं स्यादित्युत्फालादिव निवर्त्य सुग्रीवोऽपि प्रेक्षते । समुद्र - मित्यर्थात् । कियदस्य मानं कथं वा लङ्घनीय इत्याशयादिति समुद्रदर्शनायोत्थापितपूर्वकायस्येयमुत्प्रेक्षा ।।४०॥ विमला-सुग्रीव ने भी अपने मांसल शरीर के अग्रभाग को विस्तृत एवम् ऊपर उठाकर उत्साह से समुद्र को देखा । उस समय उनके शरीर की उपस्थिति से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों वे समुद्र को लाँघने के लिए छत्रांग मारना चाहते हैं, किन्तु (राम की अनुमति के बिना ऐसा करना अपनी धृष्टता समझकर) रुक गये हैं ॥४०॥ अथ सुग्रीवस्य कपिसैन्यदर्शनमाह गरुडेण व जलणणि हं समुददलङ्घगमणेण वाणरवणा। अवहोवासपसरि पक्खविआणं व पुलइ कइसेण्णम् ॥४१॥ [गरुडेनेव ज्वलननिभं समुद्रलङ्घनमनसा वानरपतिना। उभयावकाशप्रसृतं पक्षवितान मिव प्रलोकितं कपिसैन्यम् ॥] गरुडेनेव सुग्रीवेण पक्षवितानमिव कपिसैन्यं प्रलोकितम्। कपीनां कीदृशी मुखश्रीः को वा व्यवसाय इति दर्शने तात्पर्यम् । समुद्रलङ्घनचित्तेनेति गरुडसुग्रीवयोविशेषणम् । ज्वलनो वह्निस्तत्संनिभं कपिशत्वादिति । उभयावकाशयोः पार्श्वयोः प्रसृतं विस्तीर्णमिति च पक्षवितानक पिसैन्ययोविशेषणम् । उड्डयनकाले पक्षिणः पक्षौ प्रसार्य पश्यन्तीति स्वभावः ॥४१॥ विमला-समुद्रलङ्घनोत्सुक सुग्रीव ने दोनों बगल फैले हुए कपिसैन्य को वैसे ही देखा जैसे समुद्र लंघनोत्सुक गरुड़ (उड़ने के समय) अपने फैले हुए पंखों को देख रहा हो ॥४१॥ अथ कपीनां क्षोभमाहसाअरदसहित्था अक्खित्तोसरिअवेवमाणसरोरा । सहसा लिहिअव्व ठिा गिप्पग्दगिरा अलेपणा कइणिवहा ॥४२॥ [सागरदर्शनत्रस्ता आक्षिप्तापसृतवेपमानशरीराः । सह सा लिखिता इव स्थिता निःस्पन्दनिरायतलोचनाः कपिनिवहाः ॥] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] सेतुबन्धम् [ द्वितीय ____समुद्रदर्शनत्रस्ता: कपिनिवहाः सहसा समुद्रं दृष्ट्वैव लिखिताश्चित्रन्यस्ता इव स्थिताः। त्रासाद्भुतयोरुत्पत्त्या जडीभावादिति भावः। तदेवाह--कीदृशाः । आक्षिप्तानि हठादेव लङ्घयतामयमित्याशया पारावारदर्शनायोत्तोलितानि अथापसृतानि अहो कष्टमलङ्घनीयोऽसाविति मामेव लङ्घनाय यदि प्रभुः प्रेरयेत्तदानर्थ आपतेदित्यप्रतिभयापसृतान्यधोगतानि सन्ति वेपमानानि लङ्घने समुद्रपतनमलङ्घने सुग्रीवस्ताडयेदित्युभयथापि संकटमिति कम्पमानानि शरीराणि येषां ते । एवं निरायते समुद्रदिदक्षया विस्फारिते पश्चादाश्चर्येण नि:स्पन्दे लोचने येषां ते । तथा च किंकर्तव्यविमूढा आसन्निति भावः ।।४२॥ विमला-वानरवन्द का शरीर समुद्र को देखने के लिये ऊपर उठा, किन्तु उसे दुर्लङ्घय देख पुन': नीचे दब गया और काँपने लगा। वानरों के नेत्र ( समुद्र को देखने की इच्छा से ) विस्फारित तो हये किन्तु (आश्चर्य से ) अचल हो गये। इस प्रकार समुद्र को देखते ही सभी त्रस्त हो चित्रलिखित-से हो गये ।।४२॥ अथ कपीनां हनूमद्दर्शनमाहपेच्छन्ताण समुदं चडुलो वि अउव्वत्रिम्हअरसस्थिमिओ। हणुमन्तम्मि णिवडिओ सगोरवं वाणराण लोअणणिवहो ॥४३।। [पश्यतां समुद्र चटुलोऽप्यपूर्व विस्मयरसस्तिमितः । हनूमति निपतितः सगौरवं वानराणां लोचननिवहः ॥] समुद्रं पश्यतां वानराणां तत्काल एव लोचननिविहो हनूमति सगौरवं पतितः । साधुस्त्वं धन्यजन्मा माता च ते पुत्रप्रसूर्भवतीत्याशयादिति भावः । लोचननिवहः कीदृक् । चटुलोऽपि मर्कटस्वाभाव्याच्चञ्चलोऽपि तदानीमपूर्वः प्राथमिको यो विस्मयरसो हनुमत्कृतसमुद्रलधनोत्थस्तेन स्तिमितो निश्चलः । समुद्रदर्शनाश्चर्येण वा । पश्यतामिति समुद्रदर्शनस्य वर्तमानत्वेऽपि हनूमति दृष्टिपातेन समुद्रापेक्षयापि तल्लंघनादाश्चर्यभूमित्वं हनूमत इति व्याजि ।।४३।। विमला-(ऐसे दुर्लङ्घय समुद्र को भी लाँघ जाने वाले ) हनुमान पर, समुद्र को देखते हुये वानरों ने अपनी दृष्टि बड़े गौरव के साथ डाली। उस समय उनके स्वभावतः चञ्चल नेत्र भी ( हनुमान् के आश्चर्यजनक समुद्रलङ्घनरूप कार्य का स्मरण कर ) आश्चर्य से निश्चल थे ।।४३।। अथ वानराणां मोहमाहउहि अलङ्कणिज्ज वठ्ठण गागअंच मारुअतण अम् । मोहन्धारिएसु वि गूढो भमइ हिअएसु सि उच्छाहो ।।४४।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [७५ः [उदधिमलङ्घनीयं दृष्ट्वा गतागतं च मारुततनयम् । मोहान्धकारितेष्वपि गूढो भ्रमति हृदयेष्वेषामुत्साहः ॥] अलङ्घय समुद्रं लवयित्वा गतमागतं च मारुततनयं दृष्ट्वा तत्र स्थिताना-- मेषां वानराणां हृदयेषूत्साहो गूढः सन्गुप्तो भ्रमति । अस्मज्जातीयेन हनूमता लङ्घितोऽयमिति हनूमद्दर्शनादुत्साह उद्भवति अस्माभिर्न लध्यत इति लज्जया न बहिर्भवतीति गूढभ्रमणपदयोस्तात्पर्यम् । भ्रमणबीजमुत्प्रेक्षते-कीदृशेषु । समुद्रं दृष्ट्वाऽज्ञानं मोहस्तद्रूपान्धकारविशिष्टेषु । तथा च मोहच्छन्नत्वादुत्साहो न प्रकाशित इति भावः । अन्योऽप्यन्ध कारे पतन्भ्राम्यतीति ध्वनिः । 'मूढः' इति पाठे जडीभूत' इत्यर्थः ॥४४॥ विमला-(समुद्र को लांघ कर ) गये आये हनुमान को देख कर ( उद्भूत ) वानरों का उत्साह, समुद्र को अलङ्घय देखकर (लज्जा से बाहर प्रकट न होकर ) उनके मोहान्धकार से आच्छन्न हृदय में छिपा-छिपा ही घुमड़ता रह गया ॥४४॥ अथ कपीनां जडीभावमाह तो ताण हाच्छाअं णिच्चललोअणसिहं पउत्थपआवम् । मालेक्खपईवाण व णि अअं पइइचडुलत्तणं पि विअलिअम् ॥४५॥ [ततस्तेषां हतच्छायं निश्चललोचनशिखं प्रोषितप्रतापम् । आलेख्यप्रदीपानामिव निजकं प्रकृतिचटुलत्वमपि विगलितम् ॥] ततस्तेषां वानराणां निजकं स्वाभाविकं प्रकृतीनामाकृतीनाम् । शरीराणामिति यावत् । चटुलत्वमपि विगलितम् । अप्रतिमया व्यवसायो गत एव शरीरचाञ्चल्यमपि न स्थितमित्यर्थः । एवं हता छाया कान्तिर्यत्र तत् । निश्चला लोचनरूपा शिखा यत्र तत् । कपिलोचनानामग्निशिखाकारत्वान्निश्चलदृष्ट्यग्रमिति वा। प्रोषितो नष्टः प्रतापस्तेजो यत्र तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणत्रयम् । तथा च तेषां देहकान्तिनयनचाञ्चल्यप्रतापानां चाञ्चल्यरूपस्वभावस्य चापगमः समकालमेव वृत्त इति तात्पर्यम् । केषामिव । आलेख्यानां प्रदीपानामिव । यथा चित्रलिखितानां दीपानां दीपस्वभावसिद्धमपि चाञ्चल्यं न तिष्ठति । तत्रापि कान्तिर्हता भवति । लोचनं ज्ञानम् । तथा च चञ्चलत्वज्ञानशून्या शिखा भवति । लिखितशिखाया निश्चलत्वात् । प्रतापश्च प्रोषितः स्वत एव निस्तेजस्त्वात्, तथा च वानराः प्रकृत्या चञ्चला अपि मोहादप्रतिभया च समुद्रं दृष्ट्वा निश्चला बभूवुरित्यर्थः । प्रकृतिशब्दः स्वभावार्थो वा । तेन चटुलत्वं स्वभाव इत्यर्थः ॥४५॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [द्वितीय विमला-तदनन्तर चित्रलिखित दीपों के समान उन वानरों की कान्ति नष्ट हो गयी, लोचनरूप शिखा निश्चल हो गयी, तेज दूर चला गया, इसके साथ ही साथ उनका अपना स्वाभाविक चाञ्चल्य भी विनष्ट हो गया ।।४५॥ अथ वानराणामाकारसंवरणमाहकह वि ठवेन्ति पवङ्गा समुहदसणविसाअविमुहिज्जन्तम् । गलिअगमणाणुराअं पडिवन्थणिअत्तलोअणं अप्पाणम् ॥४६॥ इअ सिरिपवरसेण विरइए दशमुहवहे महाकन्वे विइओ आसासओ समत्तो॥ [कथमपि स्थापयन्ति प्लवङ्गाः समुद्रदर्शनविषादविमुह्यमानम् । गलितगमनानुरागं प्रतिपथनिवृत्तलोचनमात्मानम् ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे महाकाव्ये द्वितीय आश्वासकः समाप्तः । -**प्लवङ्गाः कथमप्यात्मानं स्थापयन्ति । परावृत्त्य गमने सुग्रीवः शास्तिमाचरेदपकीर्तिश्च भवेदित्यालोच्य परावर्तनेच्छुमपि निवर्तयति । किंभूतमात्मानम् । समुद्रदर्शनजन्यविषादेन मोहमापन्न मिति परावृत्तौ हेतुः। एवं गलितः शास्तिदुष्कीतिभिया नष्टो गृहाभिमुखगमनेऽनुरागो यस्य तमिति स्थापने हेतुः। अत एव प्रतिप थादपसरणपथान्निवृत्ते लोचने यस्य तम् । तथा चापसरणेच्छया प्रतिपथगते अपि लोचने परामर्शदपवतिषातामिति भावः ॥४६।। समुद्रोत्कर्षदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य द्वितीयाभूदियं शिखा ॥ विमला-वानर समुद्र को देखकर विषाद से मोहग्रस्त हो भाग जाना चाहते थे किन्तु ( सुग्रीव के दण्ड के भय से अथवा अपनी अपकीति के भय से ) उन लोगों ने अपने को किसी-किसी तरह रोक दिया और प्रतिपथ ( लौटने का मार्ग ) पर गये हुये नेत्र को भी लौटा लिया एवं लौट चलने के विषय में अव उनका अनुराग जाता रहा ॥४६।। इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित वशमुखवध महाकाव्य में द्वितीय आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आश्वासः अथ कपीन्प्रति सुग्रीवस्योत्तेजनवचनमाहतो ते कइमाअङ्गे रूढविसाअमअभाविओमीलन्ते । आलाणक्खम्भेसु व बाहूसु सिलाअलठ्ठिएसु णिसणे ॥१॥ आहासइ सुग्गीवो णिअअरवाहि फडणिन्तजसणिग्योसम् । धोराहि सारगरु दन्तुज्जोआहि णिम्मलत्थं वअणम् ॥२॥ (जुग्गअम् ) [ततस्तान्कपिमाताङ्गान्रूढविषादमदभावितानवमीलतः । आलानस्तम्भेष्विव बाहुषु शिलातलस्थितेषु निषण्णान् ॥ आभाषते सुग्रीवो निजकरवात्स्फुटनिर्यद्यशोनिर्घोषम् । धैर्यात्सारगुरुकं दन्तोड्योतान्निर्मलाथं वचनम् ।। (युग्मकम् ) ततस्तेषामप्रतिभादर्शनानन्तरं तान्स्तम्भितान्कपीनेव मातङ्गान्हस्तिनः सुग्रीवो वचनमाभाषत इत्यग्रिमस्कन्धकेनान्वयः। कथंभूतान् । रूढः समुद्रलङ्घनं कथं स्यादिति विषाद एव मदस्तेन भावितान्संबद्धान् । अत एवावमीलतो मुकुलितलोचनान् एवं शिलातलस्थितेष्वालानस्तम्भेष्विव बाहुषु निषण्णान् । विषण्णाः कपयो बाहू पश्चादुद्दण्डयित्वा तदवष्टम्भेन दृष्टी मुकुलयित्वा तिष्ठन्तीति स्वभावः । तत्र बाह्वोः स्तम्भत्वमुत्प्रेक्ष्य कपीनां मातङ्गत्वमुक्तमिति रूपकम् । मातङ्गोऽपि मदोत्पत्तिदशायां मीलदृष्टिरालानस्तम्भे निषण्णः क्रियत इत्यर्थः। वचनं कीदृक् । वदतः सुग्रीवस्य निजको रव एव स्फुटस्ततोऽपि स्फुटं निर्यन् ‘साधु सुग्रीव ! स त्वं सम्यगभिधत्से' इतिरूपो निर्घोषो यत्र तत् । तथा च कपीन्प्रत्युत्तेजनवचने सुग्रीवस्यैव यशः प्रकाशत इत्यर्थः । एवं धैर्य मेव तस्य बलेन' सारेण गुरुकं यथा बलप्रकर्षस्तथानुद्ध तौ धैर्यस्यैव प्रकर्षः। तथा च ततोऽपि सारेण सत्त्वेन गुरुकमादरणीयम् । एवं च दन्तोद्दयोत एव तस्य निर्मलस्ततोऽपि निर्मलः सुश्लिष्टोऽर्थो वाच्यो यत्र तत् । तथा च गभीरं सधैर्यमतिव्यक्तमूचिवानित्यर्थः ।। युग्मकम् ॥२॥ विमला-तदनन्तर उत्पन्न' एवं प्रवृद्ध विषादरूप मद से परिपूर्ण अतएव नेत्रों को निमीलित किये, शिलातल पर स्थित आलान-स्तम्भ-से बाहुओं पर टेक दिये बैठे हुये कपिगजों के प्रति सुग्रीव ने अपने रव से भी स्फुट निर्गत यश-सम्बन्धी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [ तृतीय निर्घोष वाला, धैर्य से भी पराक्रमयुक्त, अतएव गौरवपूर्ण, दन्तकान्ति से भी निर्मल अर्थ वाला ( वक्ष्यमाण ) वचन कहा ॥१-२॥ प्रथमं कर्तव्यकार्यानुकूलां कपिस्तुतिमाह धरणिधरणे भुअ च्चिअ महणम्मि सुरासुरा खम्मि समद्दा । हन्तम्वम्भि दहमुहे एहि तुम्हे त्थ महुमहस्स सहाआ ॥३॥ [धरणिधरणे भुजा एव मथने सुरासुराः क्षये समुद्राः। हन्तव्ये दशमुखे इदानीं यूयं स्थ मधुमथनस्य सहायाः ॥] मधुमथनस्य वराहमूर्त्या भूमिधारणे बाहव एव सहाया वृत्ता न परापेक्षाभूत् । समुद्रमथने सुरा असुराश्च सर्व एव प्रलये कार्ये समुद्रा एव । जगत्प्लावकत्वात् । इदानीं सीतोद्धारे दशमुखे हन्तव्ये यूयमेव सहकारिणः स्थ वर्तध्वमित्यर्थः। तथा च तत्तत्कायं तत्तत्कार्ययोग्यसहकारिभिः साधितमिदं तु समुद्रबन्धनानुकलपर्वता. हरणसमर्थभवदायत्तमेवेति भावः। तथा च भवद्भिरौदास्यमाचरणीयं चेत्तदा तत्तत्कठिनकर्मज्ञातसारभुजादिद्वारव साधयेत् । भवतां लज्जामात्रं स्यात् । कार्यमपि तत्तत्सकलसाधारणमासीत् । इदं तु रावणवधरूपत्वेन साधारणमसाधारणं तु सीतालाभरूपत्वेन प्रभोरिति तात्पर्यम् ॥३॥ विमला-वानरों ! ( वराहरूपी ) मधुमथन के भूमिधारण के समय केवल उनके भुज, समुद्रमथन के समय सुर-असुर, प्रलय कार्य में समुद्र सहायक हुआ था किन्तु इस समय दशमुख वधरूप कार्य में तुम्हीं लोग उनके सहायक हो ॥३॥ वनेचराणामस्माकं किमत्र प्रयोजनमित्यमीषामुत्तरमाशय यशोयाचनं चावश्यरक्षणीयमित्याह मा सासनसोडोरं कह वि णि प्रत्तन्तसमुहसंठविअपप्रम् । प्रावित्थक्कन्तं पणअन्तं व सुअणं परुम्हाह जसम् ॥४॥ [मा शाश्वतशौटीयं कथमपि निवर्तमानसंमुखसंस्थापितपदम् । आगतवितिष्ठमानं प्रणयन्तमिव सुजनं प्रम्लापयत यशः ॥] हे कपयः ! यूयं यशो मा प्रम्लापयत मा मलिनयत । यशः कीदृक् । शाश्वतं सार्वदिकं शौटीर्यमहंकारो यस्मात् । तथा च यशश्च्युतावहंकारश्च्यवत इति भावः । ‘एवं भवतामौदास्येन निवर्तमानं सत्कष्टसृष्ट्या भवदीयोद्योगसंशयेन संमुखे संस्थापितं पदं स्थानं येन । अत एवागतं सद्वितिष्ठमानं स्थिरम् । तथा च भवद्भिः समीपति यशो नोपेक्षणीयमिति भावः । कमिव । प्रणयन्तं किमपि याचमानं सुजन मिव । यथा याचमानः सुजनो न म्लानीक्रियते कि तु तदभ्यथितं संपाद्यते तथा यशोऽ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ७६ प्युपस्थित कार्यापेक्षयान म्लापनीयमिति भावः । सुजनमपि कीदृशम् । स्वभावतः शाश्वताहंकारम् । एवं प्रार्थनाभङ्गभिया निवर्तमानं पुनर्लाभसंशयेन कथमपि संमुखसंस्थापितचरणम् । अथागते सति वितिष्ठमानमप्रतिभया किमपि न ब्रुवाणं तथा चैवंविधः सुजनः प्रकृते राम एवेति न म्लापनीय इति भावः । प्रणयं कुर्वन्तं सुजनमिवेति केचित् । वस्तुतस्तु प्रणयन्तमभ्यर्थयन्तं सुजनं राममिव यशो न म्लापयतेति सहोपमा । तथा चौदास्ये सति रामो यशश्च म्लायेदित्यनुचितमिति भावः || ४ || विमला - वानरों ! तुम सब, याच्या करते हुये सुजनसदृश शाश्वत अहंकार - युक्त, ( तुम्हारी उदासीनता से ) लौटते हुये पग को पुन: ( तुम्हारे उद्योग की आशा से ) सम्मुख स्थापित करने वाले आगत एवं स्थिर यश को किसी भी प्रकार म्लान मत करो ||४|| कर्मेदमस्मदन्येषामसाध्यमेव, राघवस्त्वेकाकी न शक्नुयादिति कथं यशो म्लायेदि - त्युत्तरमाशङ्कय युष्मानपि विना राम एव कर्तुं समर्थः कुर्यादित्याहरक्खसवहदुव्वोज्झो कज्जारम्भो समुद्दलङ्कणगरुओ | पढमं चिअ रहुवइणा उवर हिअअ तुलिओ भरो व्व बिलइओ ॥१५॥ [ राक्षसवधदुर्षात्यः (रक्ष्यशपथ दुर्वाह्यः) कार्यारम्भः समुद्रलङ्घनगुरुः । प्रथममेव रघुपतिना उपरि हृदये तुलितो भर इव विलंगितः ॥ रघुपतिना कार्यारम्भः प्रस्तुतमारभ्यमाणकार्य मुपर्यर्थात्स्वस्य प्रथममेव विगलितो नियोजितः । कीदृक् । हृदयेन तुलितो मयेदमित्थं कर्तव्यमित्यध्यवसितः । एवं राक्षसवधेन द्वारेण दुर्घात्यो दुःखनिर्घात्यः । राक्षसवधस्यैव दुःसाध्यत्वादिति भावः । एवं समुद्रलङ्घनेन गुरुरतिशयितः । तस्यातिदुष्करत्वात् । तथा च युष्माकमुपेक्षायामपि समुद्रलङ्घन राक्षसवधयोः स्वकर्तव्यतयाध्यवसितत्वेन सीतामप्युद्धरेत् । ततः सुतरां - भवतामपकीर्तिरिति भावः । क इव । भर इव । यथा केनापि प्रथमं हृदये तुलितो मयेदमित्यमुद्वहनीयमित्यध्यवसितो भारः पश्चादुपरि स्कन्धादावारोप्यते तथेदमपीत्यर्थः । भरोऽपि कीदृक् । रक्ष्येणालङ्घनीयेन राजादिशपथेन दुर्वहनीय: । शपथभङ्गस्य दोषावहत्वात् । यद्वा सरक्षपथदुर्वाह्यः सरक्षे दानग्राहकादियुक्ते पथि दुर्वहनीयः । पूर्वनिपातानियमात्सशब्दस्य परनिपातः । एवं समुद्रस्य मुद्रा राजचिह्न - विशेषस्तत्सहितस्य लङ्घने देशाद्देशान्तरप्रापणे गुरुगौरवयुक्तः । स्वयं हृदयेन तुलितः कार्यारम्भो योग्यत्वाद्भवतामुपरि नियोजित इत्यर्थ इति केचित् ॥५॥ विमला - वानरों ! रक्ष्य शपथ से दुर्वहनीय, ( राजा की ) मुद्रा ( मुहर ) से युक्त, अतएव देश-देशान्तर में पहुँचाने में गौरवयुक्त, हृदय में तोले गये भार के समान, राक्षसवध से दुर्घात्य, समुद्रलङ्घन से गुरु, हृदय में करने के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] सेतुबन्धम् [ तृतीय लिये ठान लिये गये इस प्रारभ्यमाण कार्य को राम पहिले ही अपने कन्धों पर ले चुके हैं ॥५॥ स्वयमेव चेदध्यवसितं रामेण तर्हि करोतु, भवानपि समर्थः किमस्मान्प्रेरयतीत्याशङ्कयाह तुम्ह चिम एस भरो आणामेत्तप्फलो पहत्तणसवदो। अरुणो छाआवहणो विसविअसन्ति अप्पणा कमलसरा ॥ [युष्माकमेवैष भर आज्ञामात्रफलः प्रभुत्वशब्दः । अरुणश्छायावहनो विशदं विकसन्त्यात्मना कमलसरांसि ।।] हे वानराः ! एष प्रस्तुतकार्यभरो युष्माकमेव । साध्य इत्यर्थः । परेषामसमर्थत्वात् । तहिं भवतो रामस्य च कुत्रोपयोग इत्यत आह-आज्ञामात्रं फलं यस्य तादृक्प्रभुशब्दः । तथा चाहं रामश्च प्रभुरित्याज्ञामात्रोपक्षीणो कार्य तु भवदधीनमेवेत्यर्थः । अर्थान्तरं न्यस्यति-अरुणः सूर्यश्छाया कान्तिस्तत्प्रापकः परं सरःकमलानि विशदं यथा स्यादेवमात्मनैव विकसन्ति । तथा च सूर्यप्रायः प्रभुः । छायाप्राया आज्ञा । कमलप्राया: प्रेष्या: । विकासप्रायं प्रेष्यकार्यमिति । अरुणः स्यात्स्फुटे रागे सूर्ये सूर्यस्य सारथी' ॥६॥ विमला-वानरों ! मैं अथवा राम तो प्रभु हैं-आज्ञा मात्र दे सकते हैं, कार्य तो तुम्हीं लोगों के अधीन है। ( देखिये ) सूर्य तो केवल कान्ति पहुँचाता है, विकास कार्य स्वयं कमल ही करते हैं ॥६॥ वयं तु समुद्रमेवोत्तरीतु न शक्नुमः किं पुनः कार्यान्तरं कर्तु मित्युत्त रमाशङ्कयाहतरिउं गहु गवर इमं वेलावण बउलकुसुमवासिअसुरहिम् । हत्थउडेहि समत्था तुम्हे पाउं पि फलरसं व समुदम् ॥७॥ [तरितुं न खलु केवलमिमं वेलावनबकुलकुसुमवासितसुरभिम् । हस्तपुटाभ्यां समर्था यूयं पातुमपि फलरसमिव समुद्रम् ।।] यूयमिमं समुद्र केवलं तरितुं न खलु समर्था अपि तु हस्तपुटाभ्यामञ्जलिना फलानामाम्रादीनां रसमिव पातुमपि समर्थाः । कीदृशम् । वेलावर्तिवनबकुलपुष्पैर्वासितमतः सुरभिम् । फलरसोऽपि कुसुमवासितः करपुटाभ्यां पीयते । तथा च समुद्रपानसमर्थत्वेन तदधिकपरिमाणवतां भवतामनायासलंघनीयोऽब्धिरिति भावः ॥७॥ विमला-वानरों ! तुम सब केवल लाँघने में ही नहीं, अपितु अपने करपुट से इस तटवर्ती वन वकुल कुसुमों से सुरभित समुद्र को आम आदि फलों के रस के समान' पीने में भी समर्थ हो ॥७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [८१ समर्थासमर्थसाधारणमुण्डमेलके कृतमपि कार्य न विशेषयेदिति यदि कश्चिद्भूयात्तत्राहचिरआलकविआणं धुआवमाणणि अलुण्णमन्तमुहाणम् । एसो णवर अवसरो असरिससमसीसबन्धणविमोक्खाणम् ॥८॥ [चिरकालकाङ्क्षितानां धुतापमाननिगलोन्नमन्मुखानाम् । एष केवलमवसरोऽसदृशसमशीर्षबन्धनविमोक्षाणाम् ।।] असदृशेनायोग्येन कृतं यत्समशीर्ष स्पर्धा तदेव बन्धनमवज्ञारूपत्वात्तस्य विमोक्षाणां त्यागानामेष केवलमवसर । अत्रासमर्थाः पलायिष्यन्ते समर्थाः साधयिष्यन्तीति तत्कृतसादृश्यरूपबन्धनत्यागो हठादेव स्यादिति भावः। कीदृशानाम् । तादृक्कार्य कदापि लप्स्येत यतोऽयमपकर्षो गच्छेदिति चिरकालं व्याप्य काङ्क्षितानाम् । एवं धुतस्त्यक्तोऽपमान एव निगलस्तेनोन्न मन्मुखं येभ्यस्तेषाम् । तथा च यावदयोग्यस्पर्धारूपनिबन्धनं तावदपमानरूपनिगलसत्त्वे लज्जया मुखं नमति तद्वन्धनत्यागे त्वपमाननिगलशान्तौ मुखमुन्नमतीत्यर्थः । तथा चासमर्थाः कतिकपयो न स्पर्धामाचरन्ति तेभ्यो विशेष प्रतिपादयितुमयमेव काल इति भावः । अयोग्येन सह समशीर्ष समानशिरस्कत्वेन सभायामुपवेशनं तद्रूपबन्धनत्यागानाम् । अन्यसमानम् । इति केचित् ॥८॥ विमला-असदृश द्वारा की गयी स्पर्धा ( अवज्ञा रूप होने से ) एक बन्धन है। यह बन्धन' जब तक रहता है तब तक अपमान' के कारण सिर नीचा रहता है और उस बन्धन के त्याग से सिर पुनः ऊँचा होता है, अतः ऐसे चिराकांक्षित बन्धनत्याग का केवल यही अवसर है ॥८॥ प्रेष्या वयं प्रभोराज्ञामपेक्षाम इत्याशङ्कयाह ते विरला सप्पूरिसा जे अभणन्ता घडेन्ति कज्जालावे। थोअच्चिअ ते वि दुमा जे अमुणिअकुसुमणिग्गमा देन्ति फलम् ।।६।। [ते विरलाः सत्पुरुषा येऽभण्यमाना घटयन्ति कार्यालापान् । स्तोका एव तेऽपि द्रुमा येऽज्ञातकुसुमनिर्गमा ददति फलम् ॥] कार्यालापानालपितकार्याणि । कृदभिहितत्वात् । तथा चाभण्यमाना उक्तिमनपेक्ष्य ये कार्याणि घटयन्ति ते सत्पुरुषा विरलास्त्रिचतुरा एव । भवन्तस्तूक्तिमपेक्षमाणाः कापुरुषा इति भावः । अर्थान्तरं न्यस्यति-अज्ञातः कुसुमनिर्गमो येषां तथाविधा ये द्रुमाः फलं ददति तेऽपि वनस्पतयः स्तोका एव । तथा च द्रुमप्रायाः सत्पुरुषाः कुसुमनिर्गमप्रायाणि वचनानि फलप्रायं कार्यमिति । अभणन्त इति केचित् 'कज्जअलावे' इति पाठे कार्यकलापान ॥९॥ ६ से० ब० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] सेतुबन्धम् [ तृतीय विमला-ऐसे सत्पुरुप विरले ही होते हैं जो बिना कहे गये ही कार्य कर डालते हैं। ऐसे द्रुम स्वल्प ही होते हैं जो विना पुष्प निकले ही फल देते हैं ॥६॥ व्यवसायं विना का क्षतिरस्माकमित्यत आहखिण्णं चावम्मि कर चिरकालुक्कण्ठि अमरिसम्मि मणम् । मा दा देउ रहुवई बाणाहिमुहि च बाहगाई विट्ठिम् ।।१०॥ [खिन्नं चापे करं चिरकालोत्कण्ठितममर्षे मनः । मा ताबद्ददातु रघुपतिर्बाणाभिमुखीं च बाष्पगुर्वी दृष्टिम् ॥] रघुपतिः खिन्नं सीताविश्लेषदुर्बलं करं चापे, सीतादर्शनाय चिरकालमुत्कण्ठितं मनोऽमर्षे विरहजन्यबाष्पच्छन्नां बाणाभिमुखीं दृष्टि च तावन्मा ददातु मा विधत्ताम् । यावद्भवद्भिर्व्यवसायो न क्रियत इत्यर्थः । तथा च प्रियानुरागप्रागल्भ्येन. तत्प्राप्तिप्रतिबन्धकसमुद्रजिघांसया रोषोत्कर्षेण धनुर्ग हीत्वा शरं संदधानो बाष्पच्छन्नदृष्टित्वेन रक्षणीयमपि न लक्षयेत् । अतस्त्रैलोक्यमपि निर्दहेत । तद्विशेषतः क्रोधबीजत्वेन भवन्तो न तिष्ठेयुरिति भावः । एवं च रामस्यातिखिन्नकरस्य चापापणे उत्कण्ठितमनसोऽमर्षसंबन्धे बाष्पगुा दृशो बाणाभिमुखीकरणे महद्वैक्लव्यं स्यादित्यधिकमनिष्ट मिति तात्पर्यम् ॥१०॥ विमला-ऐसा करो कि राम का ( सीतावियोग से ) दुर्बल कर धनुष की ओर, ( सीता के लिये ) चिर काल से उत्कण्ठित मन अमर्ष की ओर तथा ( विरहजात) अश्रु से पूर्ण दृष्टि बाण की ओर न जाय ।।१०।। अत्र व्यवसाये सति न केवलं भवतामनिष्टनिवृत्तिरपि त्वभीष्टोत्पत्तिरपीत्याह ओवग्गउ तुम्ह जसो वहवअणपावपत्थिवपरिम्महिमम् । विलुलिअसमुदरसणं गहभवणन्तेउरं दिसावहुणिवहम् ॥११॥ [अवक्रामत यूष्माकं यशो दशवदनप्रतापपार्थिवपरिगहीतम् । विलुलितसमुद्ररसनं नभोभवनान्तःपुरं दिग्वधूनिवहम् ॥] दिश एव वधूनिवहस्तं युष्माकं यशोऽवक्रामतु । किंभूतम् । रावणप्रताप एव । पाथिवो राजा तेन परिगृहीतमाक्रान्तम् । अथ च परिग्रहः करग्रहणं तद्विषयीकृतम् । एवं विलुलिता समुद्र एव मेखला यस्य तम् । नभ एव गृहं तदेवान्तःपुरमवस्थितिस्थानं यस्य तमिति रूपकरूपकम् । 'मुखपङ्कजरङ्गेऽस्मिन्धूलतानर्तकी तव' इतिवत् । प्रकृते रावणप्रतापो राजा तस्य वध्वो दिशस्तासामन्तःपुरं नभोगृहम् । समुद्रो रसना । तथा च भवद्भिर्व्यवसाये कृते समुद्रलमनादिसमुत्थं यशो रावणप्रतापमपहस्तयित्वा तदाक्रान्तानि दिङ्नभःसमुद्रादीनि व्याप्नुयादित्यर्थः । अन्योऽपि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् राजा शत्रुपरिग्रहस्त्रीनिवहमन्तःपुरमतिक्रम्य रसनादिविपर्यासं कृत्वा रमणं करोतीति ध्वनिः । नभोगृहस्यान्तःपुरं राजस्त्रीरूपमिति वा ।।११।। विमला-तुम लोगों का ( समुद्रलङ्घन से उत्पत्न' ) यश, रावणप्रतापरूप भूपाल से परिगृहीत, समुद्ररूप विलुलित मेखला वाली, नभरूप अन्तःपुर वाली दिगङ्गनाओं को अवक्रान्त करे ।।११॥ प्राणिनां प्राणाः सर्वतोऽपि रक्षणीया व्यवसाये क्रियमाणे तत्संशय इत्याशङ्कयाहजं साहसं ण कोरइ तं वअमाणेण जीविकं फिर बहसम् । जो अपडिमुक्कसुकओ सो वि गणज्जइ जगम्मि जोअन्तमओ ॥१२॥ [यत्साहसं न क्रियते तद्दयमानेन जीवितं किल दयितम् । योऽप्रतिमुक्तसुकृतः सोऽपि गण्यते जगति जीवन्मृतः ॥] किल निश्चये। यत्साहसं न क्रियत इति तज्जीवितं दयमानेन दयितं प्रीतिविषयीकृतम् । साहसकरणाभावः साहसकरणे प्राणानां कुश्लेषः स्यादिति शङ्कया दयापात्रीकृतजीवितस्य पुरुषस्य दयित इत्यर्थः । एवं योऽप्रतिमुक्तमप्रत्युद्धतं सुकृतमुपकारो येन तादृक् सोऽपि संसारे जीवन्नेव मृतो गण्यते । तथा च रामेण वालिवधरूप उपकारः कृतः । तत्प्रत्युपकारस्य प्राण विगमसंदेहादकरणेऽपि मरणमिति वास्तविकमरणापेक्षया जीवतो मरणगणनारूपं मरणं महत्कदर्थनमिति भावः ॥१२॥ विमला-जो साहस नहीं करते हो तो दया करते हुये जीवन को दयापात्र बनाते हो-साहस न करने का एकमात्र कारण है-जीवन के प्रति दयाभाव । किन्तु यह भी सोचो कि जिसने उपकार का बदला नहीं चुकाया, वह संसार में जीता हुआ भी मृत ही समझा जाता है ॥१२॥ कार्यमिदम तिस्वल्पं किं तु 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' इति बिचारः क्रियताम् । तथा सति यत्स्यात्तत्कर्तव्यमित्याशङ्कयाह कि व ण आणह एअं कज्जं परिपेलवं पि जह परिणामे । देइ परं संमोहं कुसुमं विसपाअवस्स व मलिज्जन्तम् ॥१३॥ [किं वा न जानीतैतत्कायं परिपेलवमपि यथा परिणामे । ददाति परं संमोहं कुसुमं विषपादपस्येव मृद्यमानम् ॥] कि वा पभाम्तरे। यूयमेतन्न जानीत यथा परिपेलवं सुकरमपि कार्य क्रियमाणं तत्परिणामे उत्तरकाले विघ्नसंतापे सति परं क्लेशं ददाति । दृष्टान्तयतिविषवृक्षस्य मृद्यमानं कुसुममिव । यथा विषपुष्पं पेलवत्वात्सुखस्पर्शमपि करतलष. व्यमाणं सत्पश्चान्मूर्च्छयति तथा सुकरमपि समुद्रबन्धनरूपं कार्यमवसाने रावणकृत Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] सेतुबन्धम् [ तृतीय प्रतिक्रियापराहृतं क्लेशयेदिति चिरं विचारो न घटते । तदुक्तम्---- क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम्' इति भावः ॥१३।। विमला-अथवा क्या तुम सब नहीं जानते हो कि सुकर कार्य भी उत्तरकाल में ( विघ्नों से सन्तप्त कर ) अत्यन्त क्लेश देता है । विषवृक्ष का कोमल पुष्प ( करतल से ) मृद्यमान होने के पश्चात् मूच्छित करता है ( अतः इस कार्य के विषय में अधिक आगा-पीछा सोचना एवं विलम्ब करना उचित नहीं है) ॥१३॥ रावणकृतप्रतिक्रियाविघटमानमिदमतिदुर्घटं स्यादिति शङ्कयैव नारभ्यत इत्याशङ्कयाह विहडन्तं पि समत्था ववसाअं पुरिसदुग्गम गेन्ति वहम् । भुवणन्तरविक्खम्भं दिअसअरो विहडिएक्कचक्कं व रहम् ॥१४॥ [विघटमानमपि समर्था व्यवसायं पुरुषदुर्गमं नयन्ति पन्थानम् । भुवनान्तरविष्कम्भं दिवसकरो विघटितैकचक्रमिव रथम् ॥] समर्था आरभ्यमाणं व्यवसायमन्तरा विघटमानमपि पुरुषैर्दुर्गमं दुःसंचारं पन्थानं प्रापयन्ति । सुघटितं कुर्वन्तीत्यर्थः। दृष्टान्तयति-यथा भुवनान्तरं नभस्तदेव विष्कम्भं विवरं विघटितमेकं चक्रं यस्य तादशं रथं दिवसकरः प्रापयति । तथा च द्विचक्रस्यापि दुःसंचारे नभसि यथा रविरेकचक्रमपि रथं सामर्थ्येन चारयति तथा भवन्तोऽपि विघटितमपि कर्म सामर्थ्येन' घटयिष्यन्तीति भावः। 'विष्कम्भो योगभेदे च विस्तारप्रतिबन्ध योः । विष्कम्भो विवरे देश्याम्' इत्यादि ॥१४॥ विमला-समर्थ पुरुष प्रारम्भ किये गये उद्योग को, बीच में विघ्नों के पड़ने पर भी, अन्य पुरुषों से दुर्गम मार्ग पर लगा देते हैं अपने सामर्थ्य से पूर्ण कर देते हैं। सूर्य अपने सामर्थ्य से, एक चक्र से रहित रथ को नभरूप (दुर्गम ) विवर में चलाता है। विमर्श-यहाँ समान धर्म से युक्त धर्मिद्वय में विम्बप्रति बिम्बभाव की झलक होने से 'दृष्टान्त' अलंकार है ।।१४।। समुद्रलङ्घनोत्तरमपि युद्धोपयुक्तखड्गादिविरहादन र्थकत्वं भवेदिति विलम्बिता वयमित्याशङ्कयाह-- क अकज्जे तालसमे अइरा पेच्छह भुए अणुत्तालसमे । णिहुओ राअसहाओ पडिवक्खस्स अ अवेउ राअसहाओ॥१५॥ [कृतकार्यास्तालसमानचिरात्पश्यत भुजाननुत्तालसमान् । . निभृतो राजस्वभावः प्रतिपक्षस्य चापैतु राजस्वभावः ॥] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [८५ कृतं कार्य युद्धादि यस्तान् गृहीतसहचारान् ताल वृक्षसमानांस्तदाकारान्भुजान्प्रेक्षध्वम् । कीदृशान् । अनुत्ता अप्रेरिता अलसैर्मा लक्ष्मीर्येषाम् । अथवा अनुत्ता अनुत्क्षिप्ता पररित्यर्थात् । अत एवालसा स्थिरा मा लक्ष्मीर्येषाम् । यद्वा न उत्ताला उद्भटा अपि समास्तुल्या येषां तान् । तथा सति भवतां निभृतः परैरगम्यो राजसो भावो रजोगुण विजृम्भितं मरणादिभयमपतु। ततः प्रतिपक्षस्य रावणस्य च राजस्वभावो राजत्वमपतु गच्छतु । तथा च भवतां भुजा एव सामग्री । तदवलोकने सति बलस्मृत्या मरण भयनिवृत्ती रावणवधः स्यादेवेति वृथा विलम्ब इति भावः ॥१५॥ विमला--अपने इन भुजों को देखो, जिन्होंने बड़े-बड़े ( युद्धादि ) कार्य किये हैं, जिनका आकार तालवृक्ष के समान है तथा बड़े-बड़े उद्भट भी जिनकी समता नहीं कर सकते। तुम लोगों का छिपा हुआ राजस्वभाव अर्थात् मरण आदि का भय निवृत्त हो और शत्रु रावण का राजस्वभाव अर्थात् राजत्व समाप्त हो जाय ॥१५॥ समुद्र लङ्घन मशक्यमेवेति तदकरणेनाप्रकर्ष इत्याशङ्कयाह संखोहिअमअरहरो संभन्तुन्वत्तविरक्खसलोओ। वेलाअडमुमन्ते अहणे हसइ हिअएण मारुअतणओ॥१६॥ [संक्षोभितमकरगृहः संभ्रान्तोवृत्तदृष्टराक्षसलोकः । वेलातटमुह्यतोऽथास्मान्हसति हृदयेन मारुततनयः ।।] लङ्घनसमये चरणसंक्रमणादिना संक्षोभितमान्दोलितं मकराणां गृहं समुद्रो येन । लङ्कादाहसमये संभ्रान्ताः कृत्यमूढा उद्वृत्ताः इतस्ततो गामिनो दृष्टा राक्षसलोका येन तादृशो मारुतिर्वेलातट एव मुह्यतो मोहापन्नानस्मान् अथ मोहोत्तरं हृदयेनोपहसति । तथा च मया समुद्र मुल्लध्य राक्षसानाकुलीकृत्य समागतम् । एते वेलाया एव तटे मुह्यन्ति न तु समुद्रस्य तटमप्यागता इति गूढाहंकारेण सगोत्रेण कृत उपहासो मरणादप्यतिरिच्यत इति भावः ॥१६॥ विमला-वेला के तट पर हमें व्याकुल देख यह हनुमान मन ही मन हँस रहा है, क्योंकि यह इस मकरालय ( समुद्र) को ( अपने चरणसङ्कमण से ) कुछ दिन पूर्व ही संक्षुब्ध कर चुका है और उन राक्षसों को भी देख चुका है जो ( लंका के जलते समय ) किंकर्तव्यविमूढ हो इधर-उधर भाग रहे थे ।।१६॥ भयहेतुसमुद्रप्रतिहतत्वादुत्साह एव नोदेति कुतस्तत्प्रकृतिको वीरो रस इत्याशङ्कयाह अव्वोच्छिण्णपसरिओ अहि उद्धाइ फुरिअसूरच्छाओ। उच्छाहों सुभडाणं विसभक्खलिओ महाणईण व सोत्तो ॥१७॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] सेतुबन्धम् [ तृतीय [अव्यवच्छिन्नप्रसरितोऽधिकमुद्धावति स्फुरितसूर(सूर्य)च्छायः । उत्साहः सुभटानां विषमस्खलितो महानदीनामिव स्रोतः ।।] सुभटानामुत्साहो वीररसस्थायी विषमे संकटे स्खलितः परैः प्रतिहतः सन्नधिकमुद्धावति वर्धते । कीदृक् । अव्यवच्छिन्नः सन्प्रसृतः । परैरनाक्रान्तत्वात् । एवं स्फुरिता शूरस्य छाया कान्तिर्यस्मात् । शूराणामेवोत्साह उत्पद्यत इति भावः । दृष्टान्तयति-यथा महानदीनां स्रोतोऽव्यवच्छिन्नप्रसृतं स्फुरिता सूरस्य सूर्यस्य च्छाया प्रतिबिम्बो यत्र तथाभूतं सत्पर्वतादिनिम्नोन्नतप्रदेशे स्खलितमधिक मुद्धावत्यूर्ध्वमुत्तिष्ठति । तथा वीराणामप्युत्साहो यथा यथा विषमभूमिलाभस्तथा तथा प्रौढिमालम्बत इति तात्पर्यम् । 'छाया स्यादातपाभावे प्रतिविम्बेऽर्कयोषिति ।' इति ॥१७॥ विमला-निरन्तर बढ़ा हुआ, वीरों की कान्ति को स्फुरित करने वाला वीरों का उत्साह संकट में शत्रुओं से प्रतिहत हो अधिक बढ़ता है-यह ठीक ही है, क्योंकि निरन्तर बढ़ा हुआ, स्फुरित सूर्य के प्रतिबिम्ब से सुशोभित महानदियों का प्रवाह, पर्वतादि ऊंचे-नीचे प्रदेश में स्खलित हो अधिक ऊपर को उठता है । विमर्श-'दृष्टान्त' अलंकार है ॥१७॥ गमनप्रतिबन्धकसमुद्राक्रान्ता भवतां शोभा समुद्र मुल्लङ्घ्य हनुमताप्याक्रम्यत इति नोचितमित्याह माणेण परिविआ कुलपरिवाडिघडिया अणोण अपुव्वा । चिन्तेउं पि ण तीरइ ओहप्पन्ती परेण णि अअच्छा ॥१८॥ [मानेन परिस्थापिता कुलपरिपाटिघटिता अनवनतपूर्वा । चिन्तयितुमपि न तीर्यते आक्रम्यमाणा परेण निजकच्छाया ।।] निजकच्छाया निजप्रतिष्ठा परेणाक्रम्यमाणा चिन्तयितुमपि न तीर्यते न शक्यते । किं पुनः सोढुमित्यर्थः । कीदृशी । मानेन मनस्वितया परिस्थापिता। एवं कुलपरिपाट्या वंशानुक्रमेण घटिता। यथा पूर्वपुरुषैरजिता तथेत्यर्थः । तदुक्तम्-'निजबंशोचितपौरुषग्रहः। एवमनवनतपूर्वा पूर्व नावनता। अक्षुण्णेत्यर्थः। तथा च भवतामीदृशप्रतिष्ठारक्षणं समुद्र लधनादेवेति भावः । अथ च निजकच्छाया आतपाभावः परेणोल्लङ्घ्यमाना चिन्तयितुमपि न शक्यते । छायालङ्घने दोषोत्पत्तेः । सापि कीदृशी। मानेन पुरुषपरिमाणेन स्थापिता। यावत्परिमाणं पुरुषस्य तदनुरूपा छायापीत्यर्थः । एवं कुपृथ्वीं लात्यादत्ते तत्र लीयत इति कुलं शरीरं तत्परिपाट्या तत्क्रमेण घटिता संबद्धा। शरीरोत्थापनोपवेशनचलनक्रमेणोत्तिष्ठन्ती उपविशन्ती चलन्ती लक्ष्यत इत्यर्थः । एवं न अवनतो नम्रः पूर्व: पूर्वभागो यस्याः सा तथा छाया। पूर्वभागस्य सदैवोच्छितत्वादिति भावः ।।१८।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्विासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [८७ विमला-अपनी छाया ( १-प्रतिष्ठा, २-शरीर की छाया ) जो मान (१मनस्विता, २-शरीर का परिमाण ) से परिस्थापित है, कुलपरिपाटी ( १-वंशानुक्रम, २-शरीर का क्रम ) से संबद्ध है और जो अनवनतपूर्वा (१-पूर्वकाल में अवनत नहीं हुई, २-सदैव उन्नत पूर्व भाग वाली ) है उसका कोई दूसरा उल्लधन करे-यह बात सोची भी नहीं जा सकती ( सहना तो दूर रहा) ॥१८॥ क्लेशविनाकृतमेव यशोऽपि श्लाघनीयं न तु क्लेशबहुलमित्याशङ्कयाहपरिवहन्तुच्छाहो विअलिअरणमच्छरेहि अप्पत्तगुणो। अअसक्कन्तोसरिओ कढिज्जइ दुक्करं भउत्तणसदो ॥१६॥ ..... [परिवर्धमानोत्साहो विगलितरणमात्सर्यैरप्राप्तगुणः । -- अयशःक्रान्तापसृतः कृष्यते दुष्करं भटत्वशब्दः ॥] भटत्वशब्दो भटोऽयमिति शब्दो दुष्करं कृष्यते दुःखेन परतः समानीयते । मटान्तरं जित्वा स्वनिष्ठः क्रियत इति यावत् । तथा चोत्कटसुखहेतुदुःखे द्वेषः कतुन युज्यत इति भावः । कीदृग्भटत्वशब्दः । परिवर्धमान उत्साहो यस्मात् । आभिमानिकसुखहेतुरित्यर्थः । एवं विगलितं रणमात्सर्य येषां तैरप्राप्तो गुणः पुलकादिव्यङ्गय आस्वादो यस्य । तथा च मात्सयं विना तत्तथाविधं साहसमेव नोदेतीति भवद्भिरपि मात्सर्यमवलम्ब्यतामिति भावः । एवमयशोभिः क्रान्तो यः पुरुषस्तस्मादपसृतः पृथग्भूतः । तथा च 'खड्गादिजनितं यशः' इति यशोविनाभूत इति तात्पर्यम् ।।१६।। - विमला-भट की उपाधि बड़े कष्ट से प्राप्त होती है। यह उत्साह-परिवर्धन' का अद्वितीय हेतु है। जिनका रण-मात्सर्य नष्ट हो च का वे इस भटत्व के महान् लाभ से वञ्चित रह जाते हैं तथा यह भटत्व की उपाधि अपकीर्तिप्राप्त पुरुष से तो बहुत ही दूर हो जाती है ॥१६॥ - अस्माकं वस्तुतोऽनध्यवसाय एव । स चेत्सुग्रीवादिभिरवगतस्तदावगत एवेति कंपयश्वेदीदास्यमालम्बेरंस्तदानर्थः स्यादिति मनसिकृत्य भवन्तो विचारेण विलम्बिता न त्वनध्यवसायेनेति प्रवृत्त्यौपयिकत्वेन प्रस्तुवन्नाह बाहिअसमराअमणा वसणम्मि अ उच्छवे असमरामणा । अवसाप्रअविसमत्था धीरच्चि होन्ति संसए वि समस्या ॥२०॥ आहितसमरागमना व्यसने चोत्सवे च समरागमनसः । अवशागतविषमार्था धीरा एव भवन्ति संशयेऽपि समर्थाः ।।] समर्थाः प्राणानां फलस्य वा संशयेऽपि धीरा एव भवन्ति । सामर्थ्यदत्तभरा विचार्य व्यवहरन्तीत्यर्थः । कीदृशाः । आहितं समर्पितमर्थात्स्वस्मिन्समरस्य सङ्ग्रा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] सेतुबन्धम् [ तृतीय मस्यागमनं यैः । सङ्ग्रामोऽपि कर्तव्य इति कृतनिश्चयाः। एवं विपत्तौ संपत्तौ च तुल्यो रागो यस्य तादृशं मनो येषां ते । व्यसनमिति न दुःखीयन्ति उत्सव इति न सुखीयन्तीति भावः । एवमवशोऽस्वायत्त आगत उपस्थितो विषमः संकटरूपोऽर्थों येषां ते । विषमदशायामप्यविमृश्यकारितां नाचरन्ति । तथा चेयकालं विचारितमतः परं यथोचितमाचरन्त्विति भावः। अवसादं द्यति खण्डयति विषमोऽर्थो येषां ते अवसाददविषमार्था इति वा । 'अवसाइअ' इति पाठे अवसादित विषमार्था इति बहुव्रीहिः ॥२०॥ विमला-प्राणों के संशय में अथवा फल-प्राप्ति के संशय में धीर पुरुष ही ( संशय को निवृत्त करने में ) समर्थ होते हैं, क्योंकि उनका यह दृढ़ निश्चय होता है कि संग्राम हमारा महान कर्त्तव्य है, उनके मन में विपत्ति और सम्पत्ति के प्रति समान राग होता है तथा उपस्थित संकटरूप अर्थ उनके अधीन होता हैविषम दशा में भी वे बिना सोचे-विचारे काम नहीं करते ॥२०॥ संप्रति व्यवसायेनापि फलनिर्णयो नेत्याशङ्कयाह ववसाअसप्पिवासा कह ते हत्थठिण पाहेन्ति जसम् । जे जीविअसंदेहे विसं भुजंग व्व उव्वमन्ति अमरिसम् ।।२१।। [व्यवसायसपिपासाः कथं ते हस्तस्थितं न पास्यन्ति यशः । ये जीवितसंदेहे विषं भुजंगा इवोद्वमन्त्यमषम् ॥] व्यवसायेन सपिपासा: पिपासासहितास्ते करवर्तियशः कथं न पास्यन्ति नास्वा. दयिष्यन्ति । अपि त्वास्वादयिष्यन्त्येव । तथा च यशःस्वादस्तेषामेवेति भावः । भन्योऽपि व्यवसायजन्यपिपासया करवर्तिजलादिकं पिबतीति ध्वनिः । ते के । वे जीवितसं देहे अमर्षमुद्वमन्ति । क इव । भुजंगा इव। यथा प्राणसंदेहे भुजंगा विषमुत्सृजन्ति तेन च प्रतीकारोऽपि जायते तथा ये संशयेऽमर्षमाचरन्ति तेन तेषां म्यवसायोत्पत्तो कार्यसिद्धिधं वायितेति भवन्तोऽप्यमर्षमाचरन्त्विति भावः ।।२१॥ विमला-जैसे प्राणों का सन्देह होने पर भुजंग विष उगलते हैं वैसे ही जो लोग प्राणसंशय में अमर्ष का उद्वमन (आचरण ) करते हैं वे व्यवसायजन्य पिपासा से मुक्त हो हस्तस्थित यश का पान कैसे नहीं करेंगे ? ॥२१॥ व्यवसायं विना यशो मास्तु क्षतिरपि नास्तीत्यत आह-- सीहा सहन्ति बन्धं उक्ख अदाढा चिरं धरेन्ति विसहरा। म उण जिअन्ति पडिहआ अक्खण्डिअवसिआ खणं पि समत्था ॥२२॥ [सिंहाः सहन्ते बन्धं उत्खातदंष्ट्राश्चिरं ध्रियन्ते विषधराः । न पुनर्जीवन्ति प्रतिहता अखण्डितव्यवसिताः क्षणमपि समर्थाः ॥] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप विमलासमन्वि तम् [८६ सिंहा अपि बन्धनं सहन्ते । उत्पाटितदंष्ट्रा अपि सर्पाश्चिरं ध्रियन्ते जीवन्ति । समर्था: पुन: परैः प्रतिहताः कृताभिवाता अबण्डितं व्यवसितं परेषामेव यैः । स्वव्यवसितेन परव्यवसितमखण्डितवन्तः सन्तो न जीवन्ति। जीवनमपि तेषां मरणमेवेति भावः । यद्वा व्यवसायखण्डनमे कदेश करणम् । तथा च किंचिदपि व्यवसितमकृतवन्तः सन्त इत्यर्थः । तदुक्तम्-'यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः' इति । प्रकृते समुद्रेण प्रतिहता भवन्तः कमपि व्यापारमाचरन्त्विति निगर्वः ॥२२॥ विमला-सिंह भी बन्धन सहते हैं, विषधर दाँतों के उखाड़ लेने पर भी जीते रहते हैं, किन्तु शत्रु के द्वारा प्रतिघात हो चुकने पर समर्थ पुरुष, शत्रु के व्यवसाय को बिना खण्डित किये क्षण भर भी नहीं जीते ॥२२॥ इदानीमुत्साहोद्दीपकत्वेनानिष्टापत्तिमुखेन तत्तद्भार्यामनुस्मारयन्नाह अक अत्थपडिणि अत्ता कह सँम्हालोअमेत्तपडिसंक्कन्तम् । दप्पण अलेसु व ठिअंणिअअं देच्छिह पिआमुहेसु विसाअम् ॥२३॥ [अकृतार्थप्रतिनिवृत्ताः कथं संमुखालोकमात्रप्रतिसंक्रान्तम् । दर्पणतलेष्विव स्थितं निजकं द्रक्ष्यथ प्रियामुखेषु विषादम् ।।] अकृतार्थाः सन्तः प्रतिनिवृत्ता यूयं स्थित विद्यमानं समुद्रालङ्घनसमुत्थं निजकं स्वनिष्ठं विषादं निर्मलत्वेन दर्पणतलेष्विव वधूमुखेषु संमुखालोकनमात्रादेव प्रनिसंक्रान्तं संबद्धं कथं द्रक्ष्यथ। अप्रतिभया द्रष्टुं न पारयिष्यथेत्यर्थः । अन्यत्राप्यादर्श मुखादिमालिन्यं संमुखदर्शनादेव प्रतिसंक्रामति प्रतिबिम्बात् । तथा चाकनकार्यत्वेन विषण्णेषु भवत्सु दर्पणवदम्लानं वधूमुखं विषादादतिम्लान भविष्यति । ततस्तु 'प्रायो वीररताः स्त्रियः' इति ता अपि विरज्येयुः । तदुक्तम्--'अकृतार्थो गृहं गच्छन्दारैरप्यवमन्यते' इति भावः ॥२३॥ विमला-बिना कार्य सम्पन्न किये यदि तुम लोग घर लौट जाते हो तो सामने आलोकन मात्र से जब तुम्हारा अपना विषाद प्रियाओं के दर्पणतुल्य मुख में संक्रान्त होगा तो उस समय उसे कैसे देखोगे ? ( प्रियायें तुम्हें अकृत-कार्य होने से विषण्ण देखकर म्लानमुखी हो तुम्हारा मुंह देखना और अपना मुंह दिखाना भी पसन्द नहीं करेंगी)॥२३॥ अत्र बहूनां बहवः क्षतिलाभभागिनस्ते निवर्तयन्तीति व्यवसायो न क्रिमन इत्यत आह णिज्जन्ति चिरपअत्ता समददगहिरा व पडिपहं णइसोता । तोरेन्ति णिअत्ते असमाणि अपेसण। ण उण सप्पुरिसा ॥२४॥ [नीयन्ते चिरप्रवृत्तानि समुद्रगम्भीराण्यपि प्रतिपथं नदीस्रोतांसि । तीर्यन्ते निवर्तयितुमसंमानितप्रेषणा न पुनः सत्पुरुषाः ।।] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] सेतुबन्धम् [ तृतीय ___ चिरं व्याप्य प्रवृत्तानि वहद्रूपाणीत्याभ्यसिक वेगवत्त्वम् । समुद्रवद्गभीराणीत्यसाध्यसेतुकत्वम् । एवंभूतान्यपि नदीस्रोतांसि प्रतिपथं विपरीतमार्ग पश्चान्नीयन्ते उपायेन नेतु शक्यन्ते । सत्पुरुषाः पुनरनिष्पादितप्रेषणाः सन्तः परावर्तयितु न शक्यन्ते । प्रेषणमीश्वराज्ञा । तथा च जलस्याचेतनस्य स्वाभाविकक्रमतः परावृत्तिरूपायसाध्या न त्वजडानां चेतनानामिति राजाज्ञानिष्पत्तिरेव पुरुषार्थ इति भावः ॥२४॥ विमला-चिरकाल से बहने वाले, समुद्रवत् गंभीर नदियों के प्रवाह उपायों द्वारा उलटे बहाये जा सकते हैं,किन्तु स्वामी की आज्ञा को बिना पूरी किये सत्पुरुष किसी भी उपाय से लौटाये नहीं जा सकते ॥२४॥ समुद्र विमर्दः कदापि केनापि न कृत इति कपिभिः कथं कतुं शक्यत इत्यत आह जो लधिज्जइ रइणा जो वि खविज्जइ खाणलेण वि बहुसो। कह सो उइअपरिहो दुत्तारो त्ति पवआण भण्णउ उही ॥२५॥ [यो लध्यते रविणा योऽपि क्षप्यते क्षयानलेनापि बहुशः । कथं स उदितपरिभवो दुस्तार इति प्लवगानां भण्यतामुदधिः ॥] रविलयितत्वात्क्षयानलेनापि बहुशः क्षपितत्वाच्चोदितो जातः पराभवो यस्य तादृगप्युदधिः प्लवगानां दुस्तरणीय इति कथं भण्यताम् । भणितुमप्ययोग्यमिदमित्यर्थः । प्लवेन' गच्छन्तीति प्लवगाः । उदकं निधीयतेऽत्युदधिरिति च समुद्रगञ्जनसामग्रीकथनम् । तथा च वान रा अलंध्यमपि लङ्घन्ते, अदाह्यमपि दहन्ति, किं पुनस्तरणिल ङ्घितमनलदग्धं वा समुद्रम् । यथादृष्टपरकृतकार्यानुकारित्वादिति भावः । उचितपरिभवो योग्यपरिभव इति वा ॥२५॥ विमला-यह कहना भी शोभा नहीं देता कि वानरों के लिये समुद्र दुस्तर है, जब कि सूर्य इसे लाँघा ही करता है, प्रलयानल भी इसे बहुत बार दग्ध कर चुका है और इस प्रकार इसका पराभव सर्वविदित है ॥२५॥ तथापि समुद्रलङघनमतिदुष्करमिति न तथा कर्तव्यमित्यत भाहचिन्तिज्जउ दाव इमं कुलवचएसक्खमं वहन्ताण असम् । लज्जाइ समुदस्स वि दोण्ह वि कि होइ दुष्करं बोलेउम ॥२६॥ [चिन्त्यतां तावदिदं कुलव्यपदेशक्षमं यशो वहताम् । लज्जायाः समुद्रस्यापि द्वयोरपि किं भवति दुष्करं व्यतिक्रमितुम् ।।] युष्माभिरिदं तावच्चिन्त्यताम् । किं तत् । कुलस्य वंशस्य व्यपदेशेऽस्मिन्कुले इदमनुरूपमिति कथने क्षमं योग्यं यशो वहताम् । युष्माकं लज्जायाः समुद्रस्यापि द्वयोरपि मध्ये किं वस्तु व्यतिक्रमितुं लघितु दुष्करं भवति । शतयोजनावच्छिन्नस्य स मुद्रस्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् लंघनं नुकरमनवच्छिन्नाया लज्जायास्तु दुष्करमत एवाभ्यहितत्वेन प्रथम तदुपन्यास इति भावः ।।२६॥ _ विमला-तुम सबको सर्वप्रथम इस बात पर विचार करना है कि 'इस वंश में यह अनुरूप है'-इस कथनयोग्य यश को रखते हुये तुम्हें ( असीम ) लज्जा और ( शतयोजन मात्र ) समुद्र, इन दोनों में किसका लाँघना दुष्कर है ( विवेक तो यही कहता है कि लज्जा के उल्लङ्घन की अपेक्षा समुद्र-लङ्घन अत्यन्त सुकर है) ॥२६॥ दुष्करमपि लज्जाया एव लंघनं कर्तव्यं न तु समुद्रस्येत्यत आहकिरणासणि रहसुए सुहस्स किर णाणि विमञ्चउ मा दा। सेलसप्तार अमे हो तुम्हे जेऊण चन्दसारअमेहो ॥२७॥ [किरणाशनि रघुसुते सुखस्य किल नाशनी विमुञ्चतु मा तावत् । शैलससारतमान्भो युष्माञ्जित्वा चन्द्रसारदमेघः ।।] __ भो इति संबोधनम्। किल संभावनायाम । शुभ्रतया चन्द्र इव शारदो मेघ इति रूपकम् । शरन्मेघा बहुधा वज्र त्यजन्तीत्याशयात् । रघुसुते किरणरूपामशनि वज्र मा तावद्विमुञ्चतु । किंभूताम् । सुखस्य नाशनी नाशिकाम् । कि कृत्वा । शैलादपि ससारतमान्बलवत्तमान् । यद्वा शैलं स्यति खण्ड यतीति शैलसं वज्र तद्वत्सारः स्थिरांशी येषां तेषु श्रेष्ठतमान वज्रसमस्थिरांशान्युष्माञ्जित्वा । रामरक्षोधुक्तानतिक्रम्येत्यर्थः । मेघो वज्रण शैलादीन तिक्रम्य तालादीन्प्रहरति । तथा च भवद्भिः समुद्रेऽनुल्लंघिते जानकी प्राप्त्यभावेन मया गृहाय न गन्तव्यमथ भवन्तोऽपि न गमिष्यन्तीति चन्द्र: कि रणवज्रपातेन विरहिणो युष्मानाभिभूयातिवियोगिनं रामचन्द्रमभिभविष्यतीति सर्वतोऽनुचितमिति भावः । 'सारो बले स्थिरांशे च' इति कोषः ॥२७॥ विमला-अरे वानरों ! कहीं ऐसा न हो कि ( राम की रक्षा में उद्युक्त ) पर्वत से भी अधिक बलवान तुम लोगों को जीतकर यह चन्द्ररूप शरत्कालीन मेघ (जो बहुधा वज्रपात किया करता है) रामचन्द्र पर सुखविनाशक किरणरूप वज्र का प्रहार करे ( यदि तुम सब समुद्र नहीं लांघोगे तो रामचन्द्र बिना सीता को प्राप्त किये घर नहीं जायेंगे और तत्परिणामस्वरूप तुम भी घर न जा सकोगे, ऐसी दशा में चन्द्व , किरणवज्र से तुम विरहियों पर प्रहार करता हुआ अति वियोगी राम को अपने किरणरूप वज्रपात से पीडित करेगा ही, इसमें सन्देह नहीं)॥२७॥ समुद्रस्य लङ्घने सत्यभीष्टमिति दर्शयन्नलंघने महदनिष्टमित्याह बन्धवणेहब्भहिओ होइ परो बि बिणएण सेविज्जन्तो। कि उण कोवआरो णिक्कारणणिबन्धवो वासरही ॥२८॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [ तृतीय किं [बान्धवस्नेहाभ्यधिको भबति परोऽपि विनयेन सेव्यमानः । पुनः कृतोपकारो निष्कारण स्निग्धबान्धवो दाशरथिः ॥ ] परोऽपि शत्रुरपि विनयेन सेव्यमानः सन्बान्धवादपि स्नेहेनाभ्यधिको भवति । बान्धवादप्यधिकं स्नेहमाचरतीत्यर्थः । कृतवालिबधरूपोपकारोऽत एव निरुपधिस्नेहविशिष्टो बान्धवो मित्रं दाशरथिः किं पुनः । तथा च स्वभावतो मित्रमेवायं सेव्यमानः सेव्यमानशत्रुकृतस्नेहादप्यधिकं स्नेहमाचरिष्यतीत्यभीष्टम् । अनभीष्टपक्षे तु बान्धवः सस्नेहाभ्यधिकोऽपि पुरुषो विगतनयेन दुर्नीत्या सेव्यमानः पर उदासीनो रिपुर्वा भवति । किं पुनरुक्तविशेषणविशिष्टो दाशरथिः । तथा च यत्र भ्रात्रादयोऽप्यन्यथा भवन्ति तत्र मित्रमयमन्यथा स्यादिति किमाश्चर्यम् । अतो महती क्षतिः स्यादित्यत्र वालिविरुद्धोऽहमेव निदर्शनमिति भावः । ' बान्धवो भ्रातृमित्रयो:' इति कोषः ||२८|| ६२ ] विमला - विनय के व्यवहार से शत्रु भी बन्धु से कहीं अधिक स्नेह करता है तो फिर ( वालिवधरूप) उपकार करने वाले अकारण स्नेहविशिष्ट मित्र रामचन्द्र की क्या बात ? ( ये तो उसमे भी अधिक स्नेह करेंगे ) और [ विनयेन विमलेन नयेन ] दुर्नीति का व्यवहार करने पर अत्यन्त अधिक स्नेह रखने वाला भी बान्धव यात्रु हो जाता है तो फिर उक्त विशेषणविशिष्ट राम की क्या बात ? ( ये हमारे विपरीत हो जायें तो इसमें क्या आश्चर्य ? ) ||२८|| रामानुरागवैराग्ययोरस्माकं को लाभः का च क्षतिरित्यत आहश्रइरपरूढ व्व लग्ना समरुच्छाहे उदुम्मि व विलम्बन्ते । प्रज्ज वि दाव मह इमा मउलेइ च्चि फलं ण वावेइ सिरो ॥२६॥ [ अचिरप्ररूदेव लता ममरोत्साहे ऋताविव विलम्बमाने । अद्यापि तावन्ममेयं मुकुलायत एव फलं न दर्शयति श्रीः ॥ ] अचिरप्ररूढा लतेव ममेयं राज्यश्रीः ऋताविव भवतां समरोत्साहे विलम्बमाने सत्यद्यापि तावन्मुकुलायत एव संकुचत्येव । न तु विकाससाध्यं राज्यभोगरूपं फलं दर्शयति । जनयतीत्यर्थः । यथा वसन्तादावनागच्छति लता मुकुलायत एव मुद्रणमेव धत्ते तत्तत्समयजपुष्पसाध्यं फलं न दर्शयति तथा भवदुत्साहे शिथिलीभवि 'राज्यलक्ष्मीरपीत्यर्थः : । अचिरप्ररूढेति लताविशेषणमुपमेयश्रियो नूतनत्वेनानुषभुक्तत्वं द्योतयति । तथा च मुकुलायत इति संकोचविकासोभयात्मक मुकुलनरूषमध्यावस्थाकथनेन भवद्वय वसायाधीनरामानुरागसंशयाद्राज्यश्रीरपि संशयदोलामारोहतीति फलतो ममैवोपकारापकाराविति भावः । लता नाम नायिकाविशेषस्लेनाचिरोढापि ऋतुविलम्बेन स्त्रीत्वव्यञ्जकशरीरविशेषे मुकुलायमाना सती गर्भात्मकं फलं न दर्शयतीति ध्वनिः ||२६|| Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६३ विमला-ऋतु ( वसन्तादि ) के समान तुम्हारा समरोत्साह जो आने में बिलम्ब कर रहा है, इससे मेरी नूतन राजश्री अचिर प्ररूढ़ लता के समान' अभी तक मुकुलित ( संकुचित ) ही है और फल ( राज्यभोग ) उत्पन्न नहीं कर रही है ।।२६॥ धीरोदात्तो रामः कथमस्मासु क्रोधं करिष्यतीत्यत आहकेच्चिरमेत्तं व ठिई एप विसंवाइमा ण मोच्छिहि रामम् । कमलम्मि समुप्पण्णा तं चिन रअणीसु कि ण मुञ्चइ लच्छी ॥३०॥ [कियच्चिरमात्रं वा स्थितिरेवं विसंवादिता न मोक्ष्यति रामम् । कमले समुत्पन्ना तदेव रजनीषु किं न मुञ्चति लक्ष्मीः ॥] स्थितिधैर्यमेवं भवतामव्यवसायेन विसंवादिता विचालिता सती कियच्चिरमात्रं वा कियदवधिक कालं वा। अयमेवाधिकः कालो वृत्त इत्यर्थः । रामं न मोक्ष्यति । अतःपरं मोक्ष्यत्येव । निदर्शयति-कमलोत्पन्नापि लक्ष्मी रजनीषु तदेव कमलं किं न मुञ्चति अपि तु मुञ्चत्येव । तत एव निशि कमलमश्रीकं भवतीत्यर्थः । तथा च कलमवत्कोमलत्वेन प्रतीयमानो रामो लक्ष्मीवच्चञ्चलया स्वोत्पन्नयापि स्थित्या रजनीवद्रागजनकविसंवाददशायामवश्यं मोक्तव्यः । तथा सत्यधीरो भवन्वालिवधदृष्टसारः सर्वानपि नो निहनिष्यतीति भावः । संवादो विचलत्वम् ।।३०॥ विमला-अथवा इस प्रकार ( तुम लोगों के अनुद्योग से ) विचलित की गयी राम की ( स्वोत्पन्न ) स्थिति (धैर्य ) उन्हें कब तक नहीं छोड़ेगी? क्या कमल में समुत्पन्न लक्ष्मी रात में उसी ( कमल ) को नहीं छोड़ती ? विमर्श-वाक्यार्थों के परस्परान्वयन में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव ( सादृश्य ) की झलक होने से यहाँ 'निदर्शना' अलंकार है ॥३०॥ यद्येवं समर्थो रामस्तत्कथमप्रतिभो लक्ष्यत इत्यत आह सअलज्जोइअवसूहे समत्थजिअलोप्रवित्थरन्तपआवे। ठाइ ण चिरं रविम्मि व विहाणपडिमा वि मइलदा सप्पुरिसे ॥३१॥ [सकलोढ्योतितवसुधे समस्तजीवलोकविस्तीर्यमाणप्रतापे । तिष्ठति न चिरं रवाविव विधान-(विभात)-पतितापि मलिनता सत्पुरुषे ॥] सकला उद्योतिता अर्थात्कीर्त्या वसुधा येन । समस्तजीवलोके विस्तीर्यमाणः प्रतापश्च येन । तादृशे कीर्तिप्रतापशालिनि सत्पुरुषे विधानं प्रकृतकार्यानुकूलः प्रकारस्तच्चिन्तापतितापि मलिनता चिरं न तिष्ठति । रवाविव । अत्र पक्षे उद्दयोतः किरणस्तच्छालित्वमुद्दघोतितत्वम् । प्रताप औष्ण्यम् । विहाणशब्दो देश्यां प्रभातवाची। तथा च यथोक्तविशेषणद्वयवति रवी विभातपतिता मलिनता प्रकाशविशेषाभावश्चिरं न तिष्ठति तथा सत्पुरुषेऽपि । तथा च विशेषणद्वयविशिष्टो रामः Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] सेतुबन्धम् । तृतीय प्रकारं चिन्तयन्नित्थमास्ते । तत्स्फूतौं मालिन्यमपि जह्यात्स्वकार्य च कुर्यादपकर्षमात्रमस्माकं स्यादिति भावः ।।३१।। विमला-जिस प्रकार समस्त वसुधा को उद्योतित करने वाले तथा समस्त जीवलोक में विस्तीर्यमाण प्रताप ( उष्णता ) वाले सूर्य में प्रभात वश आ पड़ी मलिनता ( प्रकाशाभाव ) अधिक देर नहीं ठहरती, उसी प्रकार अपनी कीति से समस्त वसुधा को उद्योतित करने वाले तथा समस्त जीवलोक में विस्तीर्यमाण प्रताप वाले सत्पुरुष में विधान ( प्रस्तुत कार्यानुकूल प्रकार ) के चिन्तन से आ पड़ी मलिनता अधिक देर नहीं ठहरती है ।।३१॥ उपकारिणामुपकार: कर्तव्य एवेत्याह सप्परिसपाडवहं पढमं जं राहवेण अम्हासु काम् । होज्ज व होज्ज व समं प्रम्हेहिं कपि कि उण प्रकीरन्तम् ।।३२।। [सत्पुरुषप्रकटपथं प्रथमं यद्राघवेणास्मासु कृतम् । भवेद्वा न भवेद्वा सममस्माभिः कृतमपि किं पुनरक्रियमाणम् ।। राघवेण प्रथमं यदुपकारस्वरूपमस्मासु कृतं तदस्माभी राघवे कृतमपि तत्कृतेन समं भवेद्वा न वा भवेत, किं पुनरक्रियमाणम् । तथा च राघवेण कृतो बालिवधरूप उपकारः कृतेनापि सीतोद्धारेणास्माभिः सदृशीकर्तुं न शक्यते, किं पुनरकृतेनेत्यर्थः । यत्किभूतम् । सत्पुरुष एव प्रकटः पन्था अवतरणमार्गो यस्य तत् । सत्पुरुषादेवोपकार आयातीत्यर्थः । यद्वा सत्पुरुषप्रकटपथ इत्यनुकरणीयम् । सत्पुरुषस्य प्रकटः पन्था यत्सत्पुरुषानुपकारस्वरूपेणैव पन्था चलतीत्यर्थः । प्राकृते लिङ्गवचनमतन्त्रमिति पथमिति नपुंसकनिर्देशः । राघवेण सत्पुरुषस्य वालिनः प्रकटो वधो यत्र तादृशं यत्कृतमित्यर्यो वा ॥३२॥ विमला-श्रीराम ने हम पर जो ( बालिवधरूप) उपकार किया है और उन जैसे सत्पुरुष का जो प्रकट मार्ग है अर्थात् हमारा अनुकरणीय है उसके बदले में हम सीता का उद्धार भी कर दें तो भी उस उपकार के बराबर हो या न हो ?-इसमें सन्देह ही है तो फिर पैसा नहीं करने के विषय में क्या कहा जाय ? ॥३२॥ रावणवधार्थमयमुपायः स तु दुष्कर इत्यत आह राहवपत्यिज्जन्तो उद्घो दीसिहइ केच्चिरं व बहमुहो। दूरन्तपेच्छिमन्वो सिहरपडन्तविप्रडासणि व्व वणदुमो ॥३३॥ [ राघवप्रार्थ्यमान ऊो द्रक्ष्यते कियच्चिरं वा दशमुखः । दूरान्तप्रेक्षितव्यः शिखरपतद्विकटानिरिव वनद्र मः॥] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६५ राघवेण प्रार्थ्यमानोऽवरुध्यमानो दशमुखः कियच्चिरं वा ऊर्ध्वो वृद्धिशीलो द्रक्ष्यते नातः परं द्रष्टव्यः । क एव । दूरान्तमतिदूरं ततः प्रेक्षितव्यः । ऊर्ध्वत्वात् । एवं शिखरे शिरसि पतन्विकटाश निर्यस्य तादृशो वनद्रुम इव । यथा द्रुमेषु सत्सु वज्र गोर्ध्वो वृक्षः पात्यत एवं राक्षसेषु सत्स्वपि रामेण रावणः पातनीय इति भाव: । 'प्रार्थितः शत्रुसंरुद्धे याचितेऽभिहितेऽपि च' इति विश्वः ॥ ३३ ॥ विमला -- ( ऊँचा होने के कारण ) बहुत दूर से द्रष्टव्य तथा जिसके अग्र - भाग पर विकट वज्रपात होने जा रहा है उस वनवृक्ष के समान [ ऊर्ध्व ] वृद्धि - शील एवं राघव से [ प्रार्थित ] घेरा जाता हुआ वह रावण कब तक दिखायी देता रहेगा ? ( उसका पतन होने में विलम्ब नहीं है ) ||३३|| राक्षसास्तावदतिबला वानरानभिभवेयुर्दूरे रावण इत्यत आहबालामवं व एतं धुअम्बालाश्रवं सुणिवच्छाश्रम् । कइसेणं रणिश्ररा तमरप्रणिअर व्व पेच्छिउं पि अश्रोग्गा ॥ ३४ ॥ | [बालातपमिवायद्धुताताम्रालातपांसुनिवहच्छायम् 1 कपिसैन्यं रजनिचरास्त मोरजोनिकरा इव प्रेक्षितुमप्ययोग्याः ॥] तमसोऽन्धकस्य रजो धूलि: । सूक्ष्मभाग इति यावत् । तत्समूहा इव रजनि - चराः श्यामत्वात् बालातपमिव कपिसैन्यं कपि त्वादागच्छत्सत्प्रेक्षितुमप्ययोग्याः किं पुनर्योद्धुम् । तथा च यथा बालातपेनान्धकारो नाश्यते तथा कपिसैन्येन राक्षसा नाशनीया इति भावः । कीदृशं कपिसैन्यम्, बालातपं वा । धुतस्य कम्पितस्य ताम्रालातस्य ज्वलदङ्गारस्य ये पांसव : स्फुलिङ्गास्तच्छायं तत्तुल्यरूपं पिङ्गल - त्वात् । कम्पने सत्यङ्गारात्स्फुलिङ्गा निर्गच्छन्ति । धुतस्फुलिङ्गसाम्येन कपीनां चाञ्चल्यं बाहुल्यं च सूचितम् ||३४|| विमला - अन्धकार के धूलि समूह के समान निशाचर, प्रातःकालीन धूप के समान जलते अंगारों के स्फुलिङ्गसमूहतुल्य आते कपिसैन्य को देखने में भी समर्थ नहीं होंगे ( लड़ना तो दूर रहा ) ||३४| राक्षसा यथा तथा सन्तु रावणस्तु गुरुः प्रतिपक्षस्तत्कथमिदमित्यत आह गुरुम्मि वि पडिवक्खे होन्ति भडा अहिश्रवारिअप्पडिऊला । पडिगअगन्धा इद्धा उद्धङकुसरुद्ध मत्थअ व्व गइन्दा ||३५| [गुरावपि प्रतिपक्षे भवन्ति भटा अधिकवारित प्रतिकूलाः । प्रतिगजगन्धाविद्धा ऊर्ध्वाङ्कुशरुद्धमस्तका इव गजेन्द्राः ॥ ] महत्यपि शत्री सति भटा अधिकं वारिताः प्रतिकूला विपक्षा यैस्तथा भवन्ति । यथा प्रतिगजगन्धेनाविद्धाः स्पृष्टा एवमूर्ध्वनोत्थापितेनाङ्कुशेन रुद्धं मस्तकं येषां तादृशा गजेन्द्राः | तथा च यथा यथा निवर्तनायाधिकमङ्कुश प्रहारस्तथातथाधिकं Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] सेतुबन्धम् [ तृतीय प्रतिगजाभिभवाय चलन्तीत्यर्थः । तेन गजेन्द्रप्राया भवन्तो वीरा गुरुप्रतिपक्षरावणसत्त्वेऽपि प्रतिगजप्राय राक्षसबलोपमर्दका अधिकं भविष्यथेति भावः । अधिकं वारिता अपि प्रतिकूला विपक्षसं मुखा भवन्तीत्यर्थो वा ॥३५॥ विमला-जिस प्रकार [ प्रति गज ] प्रतिद्वन्द्वी गज के गन्ध से स्पृष्ट गजेन्द्र के मस्तक पर ज्यों-ज्यों पीछे लौटने के लिये अंकुश से प्रहार किया जाता है त्योंत्यों वह प्रति गज को आक्रान्त करने के लिये आगे ही और अधिक बढ़ता जाता है, उसी प्रकार शत्रु के अधिक बलवान होने पर भी भट ज्यों-ज्यों रोके जाते हैं त्यों-त्यों वे और भी शत्रु को अभिभूत करने के लिये सम्मुख बढ़ते जाते हैं ॥३५॥ अस्मदतिरिक्ताः कति न सन्ति त एव सहायक माचरन्त्वित्यत आहविसमम्मि वि अविसण्णो धारेइ धुरंधुरंधरो चित्र णदरम् । कि दिणअरोवराए दिणस्स होइ अवलम्बणं ससिबिम्बम् ॥३६॥ [विषमेऽप्यविषण्णो धारयति धुरं धुरंधर एव केवलम् । किं दिनकरोपरागे दिनस्य भवत्यवलम्बनं शशिबिम्बम् ॥] प्राणसंकटरूपविषमेऽप्यविषण्णः साध्यवसायो धुरंधर एव भारसमर्थ एव केवलं धुरं धारयति । तथा च प्रकृतक मणि भवन्त व धुरंधरा नात्य इत्याशय: । एतदेव द्रढयति-दिनकरस्य ग्रासे दिनस्यावलम्बनं प्रकाशमयत्वादिसौभाग्य रक्षकं कि विद्यमानमपि विधुबिम्बं भवति । अपि तु न भवतीत्यर्थः । तथा च दिनकर प्रायाणां भवतामनध्यवसाय च्छन्नत्वरूपे ग्रासे उज्ज्वलत्वेन' दिनप्रायस्य प्रकृतकार्यस्यावलम्बनं निष्पादका: शीतलतेजस्त्वेन विधुबिम्बिप्राया भवदन्ये न भवेयुः । तेन यथोद्ग्रासदशायां रविरेवावलम्बनं दिनस्य तथा प्रकृतेऽप्यनध्यवसायमपहाय भवन्त एव भवेयुरिति भावः ॥३६।। विमला--(प्राणसङ्कटरूप ) विषम अवसर में भी विषण्ण न होने वाला भारसमर्थ ही केवल भार उठाता है । ( राहु द्वारा ) सूर्य के ग्रस्त होने पर क्या दिन का अवलम्बन चन्द्रबिम्ब होता है ? ॥३६॥ यावदेव कार्यासिद्धिस्तावदेव गौरवमस्मद्भुजानां तत्सिद्धौ तु लघुत्वमेव स्यादित्यत आह मुक्कसलिला जलहरा अहिणवदिण्णफला अ पामवणिवहा । लहुप्रा वि होन्ति गरुमा समरमुहोहरिअमण्डलग्गा अ भुमा ॥३७॥ [मुक्तसलिला जलधरा अभिनवदत्तफलाश्च पादपनिवहाः । लघवोऽपि भवन्ति गुरवः समरमुखावहृतमण्डलामाश्च भुजाः ॥] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप- विमलासमन्वितम् [ ६७ मुक्तं सलिलं स्तादृशा मेघाः, अभिनवानि दत्तानि फलानि ये, अथवा तत्कालदत्तानि फलानि यैस्तादृशा वृक्षसमूहाः, समरमुखादवहृता अवपातिता मण्डलाग्राः खड्गा येभ्यस्तादृशा भुजा लघवोऽपि गुरवो भवन्ति । अयं भावः:- मेघवृक्षभुजा जलखड्गसत्तादशायां गौरवयुक्ताः स्थिताः अथ जलादीनां मुक्तिदानत्यागदशायां लघुभूता अपि सन्तः सस्योत्पत्ति तृप्तिशत्रुक्षयादिरूपकार्यकारित्वेनादरणीयतारूपगौरवयुक्ता एव भवन्ति । तथा च भवद्भुजा अपि कृतकार्या गुरू भवेयुः, अन्यथा तु लघव एव स्युरिति भावः । विरोधाभाससूचनायापिशब्दः || ३७।। विमला - जलवृष्टि करने के अनन्तर [ लघु ] जलशून्य भी मेघ, अभिनव फल दे चुकने के अनन्तर [ लघु ] फलशून्य भी वृक्ष, समर में शत्रुक्षयादि कार्य कर चुकने पर [ लघु ] खड्गरहित भी भुज गौरवयुक्त होते हैं ||३७|| अस्माकं युद्धसामग्रये व नास्तीत्यत आह दपंण सहन्ति भुआ पहरणकज्जसुला घरेन्ति महिहरा । वित्थिष्णो गणवही गिज्जइ कीस गुरुअत्तणं पडिवक्खो ॥ ३८ ॥ ! [दपं न सहन्ते भुजाः प्रहरणकार्य सुलभा धियन्ते महीधराः । विस्तीर्णो गगनपथो नीयते किमिति गुरुत्वं प्रतिपक्षः ॥ ] युष्माकं भुजाः परेषां दर्पं न सहन्ते तथा च परानेत एव निघ्नन्ति न तु व्यापार्या इति शीघ्रकारिण इत्युक्तम् । एतद्वयापार्यानाह - प्रहरणमस्त्रं प्रहारक्रिया वा तत्कार्ये सुखलभ्या उत्पाटनोद्वहन दुःखनिरपेक्षा महीधरा धियन्ते तिष्ठन्ति । तथा च खड्गादिषु च्छेदभेदशङ्कापीति तच्छून्या इत्यर्थः । पर्वताहरणमार्गो नास्तीत्यत आह-- विस्तीर्णो गगनमेव पन्थाः । गतागतसंकोचशून्य इति भावः । तथापि विपक्ष: किमिति गुरुत्वं नीयते । स्वानध्यवसायेन सर्वेषामादरविषयीक्रियत इति भावः ||३८|| विमला - ( हमारे ) भुज ( शत्रु के ) दर्प को नहीं सहते हैं, अस्त्र का काम करने के लिये सुलभ पर्वत स्थित ही हैं, उनको लाने के लिये गगन का विस्तृत मार्ग है ही, फिर शत्रु को दुर्जेय क्यों समझ रहे हो ? ||३८|| तर्हि रामलक्ष्मणावप्यपहाय समुद्रमुल्लङ्घय गृहीतमहीधरा लङ्कामिदानीमेवावरोत्स्याम इत्याशङ्कय निवारयति - धीरं परिरक्खन्ता गरुअं पि भरं धरेन्ति णवर सुउरिसा । ठाणं चिम अमुअन्ता णोसेसं तिहुअणं खवेन्ति रविअरा ॥३६॥ [ धैर्यं परिरक्षन्तो गुरुमपि भरं धारयन्ति केवलं सुपुरुषाः । स्थानमेवामुञ्चन्तो निःशेषं त्रिभुवनं क्षपयन्ति रविकराः ॥] ७ से० ब० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] सेतुबन्धम् [ तृतीय धैर्यं रक्षन्तः सुपुरुषा गुरुमपि भरं धारयन्ति निर्वाहयन्ति । अर्थान्तरं न्यस्यति - स्थानं रविमण्डलममुञ्चन्त एव रविकरास्त्रिभुवनं क्षपयन्ति निर्दहन्ति । तथा च यथा रविकरा रविमण्डलत्यागेनोष्मादिरूपतया निशि व्यवच्छिद्य वर्तमाना अकिंचित्करास्तथा भवन्तोऽपि रविकरप्राया रविमण्डलप्राय धैर्यत्यागेन रामलक्ष्मणरूपनायकानवष्ठब्धा अकिंचित्करा एव स्युरिति धैर्यरक्षया तत्साचिव्येन सर्वं साधयन्त्विति भावः ॥ ३६॥ विमला - धैर्य रखने वाले केवल सुपुरुष ही भारी भार को भी उठाते हैं । रविमण्डल का त्याग न करने वाले रविकर समस्त त्रैलोक्य को सन्तप्त करते हैं । विमर्श - यहाँ पूर्वार्द्ध - प्रतिपाद्य 'सामान्य' रूप अर्थ, उत्तरार्ध - वर्णित 'विशेष' रूप अर्थ से समर्पित हो रहा है, जिसमें साधर्म्य का सम्बन्ध स्पष्ट है । अतः 'अर्धान्तरन्यास' अलंकार है ॥१३६॥ अत्रैतत्कार्यं केचिन्मन्यन्ते केचिन्नेति सकलसंमत्यभावान्न कुर्म इत्यत आहकामर पडिमुक्कधुरं जिणन्ति पत्थाणलग्गिन्धा । पढमं ता णिअअबलं पच्छा पहरेहि सुउरिसा पडिवक्खम् ||४० ॥ [कातरप्रतिमुक्तधुरं जयन्ति प्रस्थानलङ्घिताग्रस्कन्धाः । प्रथमं तावन्निजकबलं पश्चात्प्रहरणैः सुपुरुषाः प्रतिपक्षम् ॥] प्रस्थानेन लङ्घिताग्रस्कन्धा अग्रस्कन्धं सैन्याग्रं तदप्युल्लंघ्य गच्छन्तः सुपुरुषाः कातरेण प्रतिमुक्ता धुरा यत्र तादृशं निजकं बलं तावत्प्रथमं जयन्ति । पृष्ठतः पुरोगमनरूपलङ्घनेनेत्यर्थः । पश्चात्प्रहरणैरस्त्रं : प्रतिपक्षं जयन्तीत्यनुषङ्गः । तथा च यथा विपक्षजयेन यशोलाभस्तथा सजातीयादप्युत्कर्षेणेति शूराणामितरनैरपेक्ष्यमेव सम्यगिति ये न मन्यन्ते ते कातरा इति भावः ॥ ४० ॥ विमला — सेना में कार्यभार वहन करने के अनिच्छुक ( एक-दो ) कायर भी हो सकते हैं । सुपुरुष ( दूसरों की अपेक्षा न कर ) सेना से निकल अग्रगामी बनते हुये सबसे पहिले अपनी उस सेना को ही इस प्रकार जीतते हैं, शत्रु को तो तत्पश्चात् अस्त्रों से जीतते हैं ॥४०॥ भस्माकं दृष्टसामग्रीसाचिव्येऽप्यदृष्टसामग्री वैकल्यशङ्कया शैथिल्यमित्यत आहभण्णेन्ति मङ्गलाई श्रल्लिग्रह सिरी जसो पवड्ढइ पुरनो । पडिवण्णरणुच्छाहे पडिवक्खुद्धरणपत्थिग्रम्मि सुउरिसे ॥४१॥ [ अनुगच्छन्ति मङ्गलान्यालीयते श्रीयशः प्रवर्धते पुरतः । प्रतिपन्नरणोत्साहे प्रतिपक्षोद्धरणप्रस्थिते सुपुरुषे ॥] प्रतिपक्षस्योद्धरणं विनाशस्तदर्थं प्रस्थिते सुपुरुषे शत्रुनाशजन्यानि मङ्गलान्यनुगच्छन्ति संबध्यन्ते जयश्रीरालीयते मिलति यशश्च खड्गादिजनितं प्रवर्धते । तथा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६६ व सत्पुरुष एष रामस्तददृष्टेनैव सर्व संघटनीयमित्यर्थः । कुतो ज्ञायत इत्यत आह-कीदशे। पुरतः प्रस्थानपूर्व प्रतिपन्नः प्राप्तो रणोत्साहो येन, ज्ञातो रणोत्साहो पस्येति वा तादशि । तथा च मनोविशुद्धिरूपयात्रासाद्गुण्यसूचकरणोत्साहेनैव सर्वमिदमुन्नीतमिति भावः । अथ वा पुरतो नगरतः। प्रस्थानस्थानादिति यावत् । अमुगच्छन्ति मङ्गलानीत्यादि योज्यम् । तथा च रामेण सीतामुद्दिश्य चलितेन सीतावार्तालाभनिरङ्कुशहनूमत्समागमादिरूपमङ्गलं वालिवधेन जयलक्ष्मीरत एव प्रौढं यशश्च लब्धमित एवाग्रिमकार्य सिद्धिरपि ज्ञातव्ये ति भावः । 'पुरतो यशो वर्धते' इति केचित् ॥४१॥ विमला-रणोत्साह-सम्पन्न सुपुरुष जब शत्रु का विनाश करने के लिये चल पड़ता है तभी से और वहीं से मङ्गल उसका अनुगमन करते हैं, विजयश्री सामने आकर उससे मिलती है और यश उसके आगे बढ़ता चलता है ॥४१॥ रावणेन समं रामस्य वैरमस्तीति स तथा कुर्यादस्माभिस्तु निर्बीजं तत्कुतः कर्तव्यमित्यत आह वच्चन्ता अदभूमि कड्ढि असुहडासिवत्तवन्थावडिप्रा । णवर ण चलन्ति बी लुप्रवक्खा महिहर व्व वेराबन्धा ॥४२॥ [वजन्तोऽतिभूमि कृष्टसुभटासिपत्रपथापतिताः । केवलं न चलन्ति द्वितीयं लूनपक्षा महीधरा इव वैराबन्धाः ॥] केवलमाबध्यमानवैराणि द्वितीयं पुरुषं न चलन्ति तत्र न संक्रमन्ति। अन्यदन्यत्र निमित्तवशात्संक्रामत्यपि वैरं तु स्वासाधारणसंबन्धि पुरुष एव तिष्ठतीति केवलपदार्थः । कीदृशा वैराबन्धाः । अतिभूमि प्रकर्षकाष्ठां व्रजन्तः । यथा-यथा वरनिमित्तस्मरणं तथा-तथा तद्वृद्धिः । तथा च तथा तद्वर्धते यदुपरि प्रकर्षों न संभवतीत्य तिगौरवमेकमचलननिमित्तमित्यभिप्रायः । एवं पूर्वनिपातानियमात्सुभटेन वैरिणा मारणाय कोषादाकृष्टं यदसिपत्रं तदेव पन्था मार्गस्तेनापतिता आगताः । बड्गादिकमुद्यम्य जिघांसुना पुरुषेण सहोत्पन्नस्य वैरस्य खड्गरूपवगितत्वमुत्प्रेक्षितमनेन । तथा च खड्गेत्युपलक्षणम् । किं तु यदेव यत्र वैरनिमित्तं तदेव तत्र बैरपथ इति प्रकृते वधूहरणरूपं वैरवर्त्म रामसंबद्धमेवेति द्वितीयमचलनबीजमिति वैरं युष्मासु कथं गछेत्तथाप्येकस्य वैरे तदनुयायिनः सर्व एव परम्परासंबद्धवैरास्तत्प्रत्युद्धारमाचरन्तीति भवन्तोऽपि तथा कुर्वन्त्विति प्रघट्टकार्थः । अत्र दृष्टान्तमाह-महीधरा इव । यथा छिन्नपक्षाः शैला यत्र पतितास्ततो द्वितीयस्थानं न गच्छन्तीत्यर्थः । तेऽप्यतिशयितां वह्वीं भूमिमुड्डीय वजन्तः कृष्टसुभटासिपत्रेण पक्षच्छेदहेतुना पथ उड्डयनमार्गादापतिताः । भूमावित्यर्थात् । केचित्तु-'वैराबन्धा द्वितीयं न चलन्तीति प्रत्येकमेव वैरिणः प्रत्येकमेव तदु Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] सेतुबन्धम् [ तृतीय द्धारमाचरन्तीति रामसंबन्धेन रावणेन समं जातवैरा वयं सर्व एव तथा करवामेति भावः' इत्याहुः ॥४२।। विमला-(जिघांसु) सुभट वैरी के द्वारा म्यान से खींचे गये खड्गरूप मार्ग से वैर के आबन्ध आ जाते हैं-खड्ग खींचने के साथ ही वे उत्पन्न हो जाते हैं और ( वैर के निमित्त का पुन:-पुनः स्मरण होते रहने से ) वे वृद्धि की पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं एवं केवल उसी से सम्बन्ध रखते हैं दूसरे से नहीं; जैसे [ अतिभूमि ब्रजन्तः ] बहुत भूमि उड़कर जाते हुये [ कृष्टसुभटासिपत्रपथापतिताः ] सुभट शत्रु के खींचे गये खड्ग से छिन्न पक्षशैल उड़ने के मार्ग से नीचे भूमि पर आ जाते हैं और जहाँ पड़ गये उससे अन्यत्र दूसरे स्थान को नहीं जाते हैं । (एवम् राम का ही वैर रावण से है तथापि परम्परा सम्बन्ध से हम सब अनुयायियों का भी उससे वैर हो चुका, अतः राम के साथ हमारा सहयोग होना चाहिये) ॥४२॥ राघवेण यदि वैरं स्यात्तदा शोचनामपहाय कार्यमेव घटयेत्तत्कथमस्माभिरेव तथा कर्तव्यमित्यत आह ता सोअइ रहतणमो ताव अ सीमा वि हत्थपल्हत्थमूही। ताव अ धरइ दहमुहो जाव विसाएण वो तुलिज्जइ धोरम् ॥४३॥ [तावच्छोचते रघुतनयस्तावच्च सीतापि हस्तपर्यस्तमुखी। तावच्च ध्रियते दशमुखो यावद्विषादेन वस्तुल्यते धैर्यम् ॥] रामस्तावदेव सीतानि मित्तं शोचते तावत्सीतापि चिन्तया हस्तविन्यस्तमुखी। विरहिणी हस्ते मुखमारोप्य चिन्तयतीति समाचारः । तावच्च रावणो ध्रियते जीवति यावद्युष्माकं धैर्य सीतोद्धाराय स्थिरतारूपं विषादेनानध्यवसायमूलकमनस्तापेन तुल्यते सदृशीक्रियते । तथा च युष्मद्धय विषादाविदानी सत्प्रतिपक्षिताविति प्रवृत्तिनिवृत्त्योरेकमपि न जनयतः । यदेव त्वधिकबलं स्यात्तदेव स्वकार्य जनयेत् । तथा सति यदि विषादं जित्वा धैर्य वर्तेत तदा रामशोचनसीतासंतापरावणजीवि. तानामभावोऽपि भवेदिति भावः । तुल्यते उत्क्षिप्यते वा ॥४३॥ विमला-जब तक तुम लोगों के विषाद और धैर्य दोनों की मात्रा समान है तभी तक राम का शोक है, तभी तक सीता हाथ पर मुह रखकर चिन्ता निमग्न है और रावण भी तभी तक जी रहा है ( ज्यों ही तुम धैर्य से विषा को जीत लोगे त्यों ही राम का शोक, सीता का सन्ताप और रावण का जीवर समाप्त समझो ) ॥४३॥ प्रकृतकार्योन्मुखा अपि वयं यदि विषण्णत्वेन ज्ञातास्तदा तथैवास्तु दृश्यतामितर कतरस्तत्कुर्यादित्यत आह अण्णो अण्णस्स मणो तुम्ह ण आणे प्रणाहियो मह प्रप्पा । णिवपणन्तस्स इमं दररूढवणप्पसाहणं हनुमन्तम् ॥४४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१०१ [अन्यदन्यस्य मनो युष्माकं न जानेऽनाधिर्ममात्मा । निर्वर्णयत इमं दररूढवणप्रसाधनं हनूमन्तम् ।।] अन्यस्य मनोऽन्यत् स्वमनसो भिन्नम् । अतो युष्माकं मनो न जाने । स्वचितसाक्षिकमेव स्वयं ज्ञायते । ततो युद्धादिकं कर्तुमकतु वा युष्माकं चित्ते किमस्तीति न जानामि । किं तु भवन्त एव जानन्ति । मम पुनरात्मा अनाधिर्भवद्भिर्विना कार्य कथं सिद्धये दित्यन्तर्व्यथाशून्यः । कुत इत्यत आह-मम किंभूतस्य । दररूढः किंचित्संधुक्षितोऽक्षयुद्धकालीनो व्रण एव प्रसाधनमलङ्करणं यस्य निजितविपक्षत्वात् । एतादृशं हनुमन्तं निर्वर्ण यतः पश्यतः। तथा च भवतामौदास्येऽपि ज्ञातप्रकृतकायसामर्यो वचनस्थो हनूमानेव साधयेदित्यध्यवसायवानस्मि । ततस्तमेव मानयिज्यामीति भावः । भवन्तस्त्वकृतकार्यत्वादक्षतत्वाच्च निर्भूषणा एव स्युरिति तात्पर्यम् । यद्वा खड़गाद्यभिघातेन वपुरिदं वैक्लव्यमासादयेदित्यत आह-अण्णो अण्णस्सेति । अयमर्थ:-गुष्माकं मनो न जाने क्षतादिशङ्कया युद्धं प्रत्याधिविशिष्टमाधिशून्यं वेति विशिष्टं न जानामीत्यर्थः । अन्यदन्यस्य मनः । यतः मम पुनरात्मा युद्धं प्रत्यनाधिरन्तर्व्यथाशून्यः । किंभूतस्य । तथाभूतं हन मन्तं निर्वर्णयतः । तथा च युद्धे शौर्य चिह्न क्षतमदृष्टलभ्य मिति तदेवाकाङ्क्षामीति भावः ॥४४॥ विमला-दूसरे का मन दूसरा ही है, अतः तुम लोगों के मन को मैं नहीं जानता, किन्तु ( लंका में निशाचरों का संहार करते समय हुये ) किंचित् उद्दीप्त अणरूप अलङ्करण वाले हनुमान को देख कर मेरी आत्मा तो निश्चिन्त है ।।४४॥ तमु स्माकमसंमानेन का क्षतिरित्यत आहपडिवक्खस्स अ लच्छिअं आसाएन्तएणं णिअग्रकुलस्य अ कित्तिअं प्रासाएन्तएणम् । मरणं पि वरं लद्धअं णमणिम्माणएणं पुरिसेण चिरं जीविण प्रणिम्माणएणम् ॥४५॥ [प्रतिपक्षस्य च लक्ष्मीमास्वादयता निजककुलस्य च कीर्तिमासादयता । मरणमपि वरं लब्धकं नयनिर्मापकेण पुरुषेण चिरं जीवितं न च निर्मानकेन ।] - प्रतिपक्षस्य लक्ष्मीमास्वादयता हठादाच्छिद्योपभुजानेन । एतेन बाहुबलमुक्तम् । एवं निजकुलक्रमागतांजीतिमासादयता लभमानेन । एतेनाभिजनशालित्वम् । एवं नयस्य नीतेनिर्मापकेण । अनेनोत्पथगामित्वविरहः । एवं भूतबहुगुणेनापि पुरुषेण दैवानिनिकेन प्रशस्तमानशून्येन सता लब्धम् । स्वार्थे कन् । मरणमपि वरं श्लाघनीयम् । चस्त्वर्थे । न तु चिरं व्याप्य लब्धं जीवितं वरम् । न श्लाघनीयमित्यर्थः । तथाच तथाविधस्य पुरुषस्य मानविरहे जीवितान्मरणमेव गरिष्ठमिति अवन्तोऽपि तथाविधा मानरक्षणाय यतन्तामति भावः ।।४५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२] सेतुबन्धम् [ तृतीय विमला-णत्रु की लक्ष्मी के उपभोक्ता, निजकुलक्रमागत कीर्ति को प्राप्त करने वाले नीति निर्मापक पुरुष का प्राप्त मरण भी श्लाघ्य है, किन्तु मानरहित पुरुष का प्राप्त चिरजीवन श्लाघ्य नहीं ॥४५॥ भवदसंमानादनिष्टशङ्काशून्यैरस्माभिरुपेक्षयानपितचित्तरतिगम्भीरं भवदुक्तं न बुध्यत इत्यत आह एम वि सिरीन दिपा के सरलच्छिाए करकमलस्स अ छिक्कमा केसरलच्छिमाए। मुज्झन्ति सविण्णाणमा समरसंमाणअम्मि एम ममम्मि भणन्तए समरसामणम्मि ॥४६॥ [एवमपि श्रिया दृष्टकाः के सरलाक्ष्याः करकमलस्य च स्पृष्टया केसरलक्ष्म्या। मुह्यन्ति सविज्ञानकाः समरसंमानदे एवमपि भणति समरसमापके ॥] एवमनेन प्रकारेण मयि भणति सति के सविज्ञानकाः। प्रशंसायां कन् । के प्रशस्तविज्ञान विशिष्टाः पुरुषा मुह्यन्ति मोहं गच्छन्ति उक्तमर्थं नावगच्छन्ति । भपि तु न केपीत्यर्थः । तथा च तथा मया स्फुटीकृत्योक्तं यथा सर्व एवावगतवन्त इति भावः । सविज्ञानकाः कीदृशाः । सरले संमुखस्थे अक्षिणी यस्यास्तया सरलाक्ष्या श्रिया दृष्टा अपि । कीदृश्या। कर एव कमलं तस्य केशरवल्लक्ष्मीर्यस्य तेन केसरलक्ष्म्या करतलभागेन स्पृष्टया। करतलवर्तिन्येत्यर्थः । एतावता लक्ष्म्यनुराग उक्तः । तथा च मोहकारणलक्ष्मीसत्त्वेऽपि ज्ञानवन्तस्तल्लक्ष्मीहरणमस्मत्तः शङ्कमाना नोपेक्षां कुर्यः । किं तु मदुक्तमाचरेयुरिति भावः । मयि कीदृशे । समरे संमानं ददातीति समरसंमानदस्तस्मिन् । तथा च न केवलं पूर्वलक्ष्मीरक्षामात्रमेतत्कर्मणा किं त्वग्रे लक्ष्मीलब्धिरपीत्याशयः। पुनः कीदृशे । समरस्य समापके निर्वाहके। तथा चाक्षमयता मया नोच्यते किं तु निर्दोषतासूचनाय । यद्वा समरसमानके समरे साहंकारे। यद्वा समौ युद्ध रसमानौ यस्य तस्मिन्समरसमानके। मानोऽहंकारः । यद्वा समरश्रमानते समरश्रमेण अनतेऽनाकुले । तथा पानुजीविषु सत्सु स्वामिना कार्य क्रियत इत्यनौचित्येऽपि मयैव सर्व निर्वाहणीयमय च भवन्तः शासनीया इति भावः ।।४६॥ विमला-करकमल की केसरवत् लक्ष्मी से स्पृष्ट अर्थात् क रतलवर्तिनी सरलाक्षी विजयश्री तुम्हें देख रही है। मैं स्वयं समर में सम्मानप्रदाता और समर कार्य का पूर्ण रूप से निर्वाहक हूँ। मेरे ऐसा कहने पर भी कौन समझदार Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१०३ हैं जो अब भी मेरा अभिप्राय नहीं समझ रहे हैं अथवा मोह को प्राप्त हो रहे हैं ॥४६॥ रावणरणे परणजय औत्सर्गिक इति मयैव सर्व निर्वाह्यमिति कथमुच्यत इत्यत आह मा सोइज्जउ दुहिना सीमा लोपएणं गलिणि व्व समोलुग्गमा सोआलोपएणम् । दुहिए राहवहिपए कामइलन्तम्मि जीविअम्मि पहिलोहिमा का मइलन्तमम्मि ॥४७॥ [मा शोच्यतां दुःखिता सीता लोकेन नलिनीव समवरुग्णा शीतालोकेन । दुःखिते राघवहृदये कामक्लाम्यमाने जीवितकेऽभिलोभिका का मलिनायमाने ॥] सीता लोकेन राक्षसवसतौ कथं स्थास्यति किं वा भविष्यतीति मा शोच्यताम् । रावणो मया मारणीय एवेति भावः । किंभूता । 'राघवहृदये दुःखिते सति दुःखिता। मद्विश्लेषेण रामहदि दुःखं भवतीति कृत्वा दुःखवतीत्यर्थः । केव । शीत आलोक: किरणो यस्य तेन शीतालोकेन चन्द्रमसा। यद्वा शीतस्य हिमस्यालोको दर्शनं यस्मिस्तेन हिमतुना समवरुग्णा म्लानीकृता नलिनीव । यथेत्थंभूता पद्मिनी लोकेन शोच्यते तथा सीतापि मा शोच्यतामिति व्यतिरेके दृष्टान्तः । यद्वा नलिनीव दुःखितेत्यन्वयः । अथाग्रिमगलितके दुहिए राहवहिलए इति प्रतीकेन सह योजना। तथा हि सीतोद्धारव्यग्रतया राघवहृदये दुःखिते सत्यस्माकं जीविते काभिलोभिकाभिलोभः । भावे ण्वुल् । तथा च यदि राघवहृदयं दु:खितं तदास्माभिर्जीवितव्यमेव न । रणे तु यदि मरणं तदा परार्थमिति यशो रामदुःखदर्शनाभावश्च । यदि तु जयस्तदा रामदुःखत्यागः प्रत्युपकारः स्वजीवनं च सिद्धमेवेति तदेव कर्तुमुचितमिति भावः । राघवहृदये किंभूते । सीताविश्लेषात्कामक्लाम्यमाने कामेन क्लान्ति नीयमाने । अत एव मलिनायमाने प्रकाशाभावादिति भावः ॥४७॥ विमला-चन्द्रमा से म्लान की गयी नलिनी के समान सीता के प्रति लोग शोक न करें ( मैं शीघ्र ही उसका उद्धार तो करूंगा ही)। राम का हृदय दुःखित एवं सीतावियोग से काम द्वारा क्लान्त एवं मलिन रहने पर हमारा जीवन के प्रति कैसा अभिलोभ ? ॥४७॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] सेतुबन्धम् . [ तृतीय चन्दन व्व मेहमइलिए रमणीसारअम्मि ___ कमलमम्मि व हिमडड्ढए रअणीसारअम्मि । दुहिए राहवहिपए भमरोअत्तअम्मि कुसुमम्मि व पव्वाअए भमरोअत्तम्मि ॥४८॥ [चन्द्र इव मेघमलिनिते रजनीसारके कमल इव हिमदग्धे रजोनिःसारके । दुःखिते राघवहृदये भ्रमरोदितव्ये कुसुम इव प्रवाणे भ्रमरापवर्तितव्ये ॥] राघवहृदये पुनः किंभूते । भ्रमरोदितव्ये धीरोदात्तत्वेन रोदनाभावनिश्चयेऽपि मोहदशायामाकस्मिकेन भ्रमेण सीते क्वासीत्यादि रोदितव्यं रोदनं यत्र तादृशे । संकटोत्तीर्णविश्लिष्टबन्धुप्राप्तिकालीनरोदनवद्भावनावशोपस्थापितसीताप्राप्तिभ्रमेण रोदितव्यं यत्रेति वा । हृदये कस्मिन्निव । मेघमलिनिते मेघच्छन्ने चन्द्र इव । सीतापहारचिन्ताकलङ्कितत्वात् । चन्द्र कीदृशि। रजनीसारके रजनीं सारयति ज्योत्स्नया श्रेष्ठीकरोतीति रजनीसारकस्तस्मिन् । रजनीसारं सुरतं ददातीति रजनीसारदस्तस्मिन्वा । चन्द्रोदये सुरतोद्रेकात् । तथा च तथाविधोज्ज्वलं चन्द्रवन्निर्मलं राघवहृदयं सत्त्वप्रधानमपि मेघतुल्यचिन्तया तिरोहितमभूदिति भावः । एवं हिमेन दग्धे कमल इव सौरभादिवद्वैर्यादिगुण विरहाद्दिवसे यथाकथंचिल्लोकलज्जया प्रकृतकार्योद्योगेन च मनसः प्रकाशेऽपि निशि प्ररूढजानकीविरहेण निरुद्धवृत्तिकतया संकुचितत्वाच्च । कमले किंभूते । रजोनिःसारके रजः परागस्तन्निःसरणहेतौ । हिमदग्धतया पत्राद्यभावेन परागस्खलनात् । अथवा रजो धूलिस्तद्वनिःसारेऽप्रयोजने । मकरन्दादिशून्यत्वात् । निन्दायां कन् । एवं च प्रवाणे शुष्के कुसुम इव नीरसत्वादैन्येन म्लानत्वाच्च । किंभूते कुसुमे । भ्रमरापवर्तितव्ये भ्रमराणामपतितव्यमपवर्तनं यस्मात्तत्र । भ्रमरत्यक्तव्य इत्यर्थः ।। 'युग्मकम् ॥४८॥ विमला--मोहदशा में भ्रमवश रोदनयुक्त राम का हृदय, रजनी के शोभाधायक, किन्तु सम्प्रति मेघाच्छन्न चन्द्रमा के समान अथवा हिम से विनष्ट ( अतएव ) धूलि के समान निःसार कमल के समान अथवा शुष्क ( अतएव ) भ्रमरों से परित्याज्य कुसुम के समान हो रहा है ॥४८॥ यदि व्यवसायो न कर्तव्यस्तदा वीररताः स्त्रियोऽपि विरज्येयुरिति प्रवृत्तिहेतुत्वेन स्मारयितुं गृहगमन प्रस्तावेन भार्यावृत्तान्तमुपदर्शयन्प्रकृतमुपसंहरति कइया णु विरहविरइअदोब्बल्लपसाहणुज्झिमाहरणाई। णीसासवसपहोलिरलम्बालप्रमलिअपम्हलकमोलाइ ॥४६॥ पिलणिसम्बनलववलिअसिढिलवलअविवइण्णबाहुलपाई। वच्छाम परिप्रणत्थ अकलपेसणलज्जिआ पिनकलत्ताई।।५०॥ ( जुग्गअम् ) १. 'युग्मकम्' इति मूलपुस्तके नास्ति । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [कदा नु विरहविरचितदौर्बल्य प्रसाधनोज्झिताभरणानि । निःश्वासवशप्रघूर्णनशीललम्बालक मृदितपक्ष्मलकपोलानि ॥ पृथुलनितम्बतलस्खलितशिथिलवलयविप्रकीर्णबाहुलतानि । द्रक्ष्यामः परिजनस्तुतकृतप्रेषणलज्जिताः प्रियकलत्राणि ॥ |] ( जुग्गअम् ) संबोधने । हे वानराः ! यदि भवद्भिश्विरमत्रैव विलम्बः क्रियते तदा वयं प्रियकलत्राणि कदा द्रक्ष्याम इत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः । कीदृशानि । विरहेण विरचितं यद्दौर्बल्यमङ्गकार्थं तद्रूपं यत्प्रसाधनमलंकारस्तेनोज्झितानि त्यक्तान्याभरणानि स्तानि । दौर्बल्यनिबन्धने आभरणत्यागे स्वस्त्रीणां कार्य्याद्यवस्थान्तरप्राप्त्या शोभाविशेषो जायत इति दौर्बल्यरूपालंकरणकृतपुनरुक्तिनिबन्धनत्वेनोत्प्रेक्षाव्यञ्जितानेन । एवं निःश्वासस्यास्मदादिहेतुकेन प्राक्कालीन दुःखानुभव निबन्धनेनेदानीमप्येते दृष्टा इति मनः संवेगविशेषणजनितस्य वशा आयत्ता अनुवर्तिनः अत एव प्रघूर्णन - शीला दिशि दिशि गामिनोऽसंयतत्वेन लम्बा येऽलकाः कुन्तलास्तै मृदितो स्पृष्टी पक्ष्मली वल्लभागमनेन भावोदयाज्जातपुलको कपोलो येषां तानीति साध्वीत्वमासा - मुक्तम् । पुनः किंभूतानि । नितम्बे बाहू विष्टभ्य तिष्ठतीति वानरजा तस्वाभाव्यम् । तथा च पृथुलनितम्बतलात्स्खलिते दौर्बल्यात्प्रशिथिला विरलीभूता वलया यत्र तथाभूते । परिरम्भणाय विप्रकीर्णे उत्क्षिप्ते बाहुलते लताकारौ बाहू यैस्तानि । वयं किंभूताः । परिजनैः स्तुतं तासामग्रे प्रकाशितं कृतमस्माभिनिष्पादितं यत्प्रेषणमाज्ञा तेन लज्जिताः । स्वप्रकर्षस्तुतौ स्वस्य लज्जा भवतीति भावः । युग्मकम् ।।४६-५०॥ आश्वासः ] विमला - हम सबके वियोग में हमारी प्रियाओं ने आभरण का त्याग कर दिया होगा, उन आभरणों के स्थान पर विरह ने दौर्बल्यरूप अलङ्कार की रचना कर दी होगी । उनकी लम्बी अलकें निःश्वासवश झूम-झूम कर उनके ( प्रिय आगमन की आशा से ) पुलकित कपोलों को छू रही होंगी। उनकी बाहुलतायें पृथुल नितम्ब से हट गयी होंगी और दौर्बल्य के कारण उन बाहुओं में कङ्कण ढीला पड़ गया होगा एवं हमारे आलिङ्गन के लिये वे उठ चुकी होंगी । (तुम सब यहीं विलम्ब कर रहे हो ) भला अपनी इस अवस्था को प्राप्त प्रियाओं को कब देखेंगे और उनसे मिलते समय परिजन हमारे इस आज्ञापालन की प्रशंसा करेंगे एवं हम अपनी ही प्रशंसा स्वयं सुनकर लज्जित होंगे ।।४६ - ५० ।। अथ सुग्रीवप्रतिज्ञावर्णनाय प्रस्तौति इअ जाहे भण्णन्तं ण चलइ चिन्ता भरोसिश्रन्तसरीरम् । श्राश्रड् ढणणिच्चेट्ठ पङ्कक्खुत्तं व गअकुलं कइसेण्णम् ॥५१॥ [ १०५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] सेतुबन्धम् [तृतीय तो फुडसवुद्धाइअधणदवभरिमगिरिकंदराप्रारमुहो । रिउविक्कममसहन्तो जम्पइ वाणरबई पुणो वि हसन्तो ॥५२॥ (युग्गअम् ) [इति यदा प्रभण्यमानं न चलति चिन्ताभरावसीदच्छरीरम् । आकर्षणनिश्चेष्टं पङ्कमग्नमिव गजकुलं कपिसैन्यम् ।। ततः स्फुटशब्दोद्धावितवनदवभृतगिरिकंदराकारमुखः । रिपुविक्रममसहमानो जल्पति वानरपतिः पुनरपि हसन् ॥] (युग्मकम् ) इत्यनेन' प्रकारेण प्रभण्यमानं कपिसैन्यं यदा न चलति न स्पन्दतेऽपि तदा वानरपतिः सुग्रीवो हसन्नात्क्रोधेन पुनरपि जल्पतीत्यग्रिमस्कन्धकेन समन्वयः । कपिसन्यं कीदृक् । किं स्यादिति चिन्ताभरेणावसीदत्कृशीभवच्छरीरं यस्य तत् । एवमाकर्षणे समुद्रलङ्घनायाह्वाने निश्चेष्टं किं कर्तव्यविमूढम् । किमिव । गजकुलमिव । यथा पङ्कमग्नं गजकुलं न चलति तदपि चिन्तावसन्नवपुराकर्षणे सति निःस्पन्दं महाकायत्वादित्ययः । वानरपतिः कीदृक् । स्फुट: शब्दो यस्य तादृगुद्धावितः प्रसरणशीलो यो वनदवस्तेन भृता पूर्णा या गिरिकंदरा तदाकारमुखो मुखन्यादानाज्जल्पन् । पाकज(?)शब्दयोमुखाभ्यन्तरलौहित्यवनदवयोमुखकंदरयोश्च साम्यम् ।। युग्मकम् ।।५१-५२।।। विमला-इस प्रकार कहा जाता हुआ कपिसैन्य पङ्कमग्न गजसमूह के समान चिन्ता से कृश शरीर तथा आकर्षण ( समुद्रलकन के लिये आह्वान ) करने पर निश्चेष्ट हो टस से मस नहीं हुआ तो स्फुट शब्द करते प्रसरणशील वनाग्नि से पूर्ण गिरिकन्दरा के समान मुखवाला वानरपति सुग्रीव, शत्रु के विक्रम को न सहता हुआ हँसकर ( वक्ष्यमाण ) वचन पुनः बोला ।।५१-५२॥ अर्थकादशभिः कपीनामुत्तेजकं सुग्रीवप्रतिज्ञावचनमाहइम्र अस्थिरसामत्थे अण्णस्स वि परिअणम्मि को प्रासङ्गो। तत्थ विणाम दहमहो तस्स ठिमो एस पडिहडो मज्झ भुनौ॥५३॥ [इत्यस्थिरसामर्थेऽन्यस्यापि परिजने कोऽध्यवसायः (आसङ्गः)। तत्रापिनाम दशमुखस्तस्य स्थित एष प्रतिभटो मम भुजः ॥] इत्यनेन प्रकारेणास्थिरं सामर्थ्य यस्य तस्मिन्परिजनेऽन्यस्यापि शत्रोरपि कोऽध्यवसायः । अपि तु न कोऽपि । यथा मम परिजनो गृहं गत्वा सामर्थ्य प्रकाशयति युद्धभूमावनध्यवसायवांस्तथा रावणस्यापीत्यर्थः । तेन किं स्यादित्यत आहतत्रापि शत्रोः परि जनेष्वनध्यवसायेऽपिनाम संभाव्यते शङ्कयते । स रावणो मदान्धो दर्पशीलश्च । तथा च परिजनानस्मदृष्टान्तेनाध्यवसायादुपेक्ष्यास्मानु Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् पगतानवेत्य स्वयमागच्छेदतस्तस्य प्रतिभट एष मम भुज यति । तथा चातः परं भवन्तो मयाप्युपेक्षिताः तेन तु समं योद्धव्यमिति भावः ॥ ५३ ॥ विमला - इसी प्रकार शत्रु के भी परिजनों के अस्थिर सामर्थ्य वाले होने पर अध्यवसाय की आवश्यकता ही नहीं; उस पर भी ( अपने परिजनों की उपेक्षा कर ) स्वयं रावण आता है तो उसका सामना करने के लिये यह: मेरा भुज है ॥५३|| अथ च भवद्वयवसायं विनापि मद्वयवसायेनैव समुद्रलङ्घनं स्यादित्याहप्रवहोप्रासम्म महं हत्थ अलाह अदलन्तपस्थिअसलिलो । जाण णित्त उअही बोलीणं ताव होउ वाणरसेण्णम् ॥ ५४ ॥ [ उभयावकाशे मम हस्ततलाहतदलत्प्रस्थितसलिलः । यावन्न निवर्तते उदधिर्व्यतिक्रान्तं तावद्भवति वानरसैन्यम् ॥] उभयावकाशे उभयपार्श्वे मम हस्ततलेन चपेटेनाहतं ताडितं सद्दल द्विधा भवत् अत एव प्रस्थितं गतं सलिलं यस्य तादृश उदधिर्यावन्न निवर्तते भिन्नमुभयजलं न निमीलति तावद्वानरसैन्यं जलशून्यजलधिवर्त्मना व्यतिक्रान्तं पारमुत्तीर्णं भवतु । एतावता विलम्बसाध्यस्य पारगमनस्य द्विधाभूतजल मिलनपूर्वकालीनत्वोक्तिर्जलयोरतिदूरगमनं विना नोपपद्यत इति प्रहारप्रकर्षः किं वा कपीनामेव संचारशैप्रयमिति ध्येयम् ।।५४।। [ १०७ इति बाहुमुद्यम्य दर्श भुजमात्र सहायेन मयब: विमला --- ( अथवा ) अभी मैं अपनी चपेट से प्रताडित कर समुद्र का जल दोनों तरफ दो भागों में विभक्त कर पृथक् पृथक् बहुत दूर देता हूँ और जब तक पुनः वह जल एक में आकर नहीं मिलता तब तक वानरसेना जलशून्यः समुद्र मार्ग से पार उतर जाय ।। ५४ ।। प्रकारान्तरमाह श्रहिश्राणं तोहरे घरिअं मलग्रगिरिणो हसन्तो सिहरे । गुरुभर विसअंसेणं णेज्जामि भुएण जोणस सेणम् ॥५५॥ [ अहितानां तोषहरे धूतां मलयगिरेर्हसशिखरे । गुरु रविषमांसेन नयामि भुजेन योजनशतं सेनाम् ॥] अहं सेनां भुजेन योजनशतं नयामि । बाहुनैवोत्तोल्य समुद्रपारमुत्तारयामीत्यर्थः । भुजेन कीदृशेन । गुरुणा भरेण सेनोद्वहनगौरवेण विषम ईषन्नतोन्नतोंऽसो मूलं यस्य तेन । विषदो निर्मल इति विषदां सेनां वा । एतेन स्वबलाधिक्यमुक्तम् । सेनां कीदृशीम् | अहितानां रक्षसां तोषहरे भयहेतुवानरसद्भावात्संतोषहारिणि मलयगिरिशिखरे धृतां स्थापिताम् । अथवा मलयशिखरे धृतां पारनयनायः गृहीतामित्यर्थः || ५५ ।। → Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] सेतुबन्धम् [ तृतीय विमला - अथवा शत्रु के सन्तोष को नष्ट करने वाले मलयगिरि के शिखर "पर स्थापित सेना को मैं हँसता - हँसता ( सेना के ) भारी भार से नतोन्नत मूल भाग वाले भुज से ( अभी ) सौ योजन ( समुद्र पर ) पहुँचाता हूँ ||५५ || स्वकार्यं स्वेनैव साधयितुमर्हमित्याह समुहमिलिएकमेक्के को इर आसण्णसंसग्रम्मि सहाम्रो । जाव ण दिज्जइ दिट्ठी काव्वं दाव होइ चिरणिव्वूढम् ।। ५६ ।। किलासन्नसंशये सहायः । यावन्न दीयते दृष्टिः कर्तर्व्य तावद्भवति चिरनियू ढम् ||] [संमुखमिलितैकैकस्मिन्क: भयेन संमुखं मिलितमेकैकं परस्परं यत्र तादृशि प्राणसंशये कः किल सहायो द्वितीय : अपि । तु न कोऽपि । तत्र सर्वमात्मनैव प्रतिकर्तव्यमित्यर्थः । अत्रोपपतिमाह— यावत्कार्ये आत्मना दृष्टिर्न दीयते तावत्कर्तव्यं कार्यं चिरं व्याप्य निर्व्यूढं निर्वृत्तं भवति । अपि तु न भवतीति काक्वा लभ्यते । तथा च मत्कार्ये रावणवधे मयैव दृष्टिर्देया न भवन्तोऽभियोज्या इति भावः ॥ ५६।। विमला - जहाँ ( भय से अपने - अपने परित्राण की चिन्ता से ) परस्पर सम्मुख टकरा रहे हैं — लोग अपने-अपने बचाव में लगे हैं, ऐसे प्राणसंशय के निकट आने पर कौन दूसरा सहाय होता है ? ( सब प्रतिकार स्वयं करना पड़ता है ) । जब तक कार्य पर स्वयं दृष्टि नहीं डालते तब तक कार्य बिलम्ब से सम्पन्न होता है ( या यों कहिये कि नहीं होता है ) ।। ५६ ।। अथ प्रकारान्तरेण स्वपौरुषमाह - ग्रह व महण्णवहुत्त पत्थन्तस्स गअणं मह ण वहुत्तम् । रुहिरवसामिसवत्तं हन्तूण व णिव्वप्रो वसामि सवत्तम् ||५७ || [ अथवा महार्णवाभिमुखं प्रतिष्ठमानस्य गगनं मम न प्रभूतम् । रुधिरवसामिषपात्रं हत्वेव निवृतो वसामि सपत्नम् ॥ ] अथवा पक्षान्तरे । महार्णवः समुद्रस्तदभिमुखं प्रस्थितस्य मम गगनं न प्रभूतं न महत् । मत्संचारे तदपि स्वल्पमित्यर्थः । अथाहं सपत्नं रावणं हत्वा निर्वृत इव सुखित इव वसामि । कीदृशं रावणम् । रुधिरं च वसा चामिषं च तेषां पात्रमाश्रयम् । कोमलदेहं न तु वज्रदेहमित्यर्थः । यद्वा रुधिरवसामिषाणि पिवन्तीति रुधिरवसामिषपास्तांस्त्रायते रक्षति तं रुधिरवसामिषपात्रम् । केचित्तु — अथवा महावाभिमुखं प्रार्थयतो गमनं मम न प्रभुत्वमिति संस्कृत्य अपि तु प्रभुत्वमेवेत्यर्थमाहुः ।।५७|| Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १०६ विमला - अथवा समुद्र के अभिमुख मेरे प्रस्थान करने पर संचार के लिये गगन पर्याप्त नहीं है, अतः रुधिर - वसा - ( चर्वी ) - मांस के पुञ्जमात्र शत्रु रावण का ही वध कर सुखित-सा होकर रहूँ ॥५७॥ अथ शरीरस्य लाघवमुक्त्वा गौरवमाह - णि सुढिज्जन्तमुअंगं मा मुज्झह मह सरोसचलणक्कन्तम् । जत्तो णमइ महिश्रलं तत्तो णाम सअलो पट्टउ उग्रही ॥ ५८ ॥ [ निपात्यमानभुजंगं मा मुह्यत मम सरोषचरणाक्रान्तम् । यतो नमति महीतलं ततो नाम सकलः प्रवर्ततामुदधिः ॥ |] हे वानराः ! मा मुह्यत समुद्रः कथं संतरणीय इति मोहं मा गच्छत । यद्वा मदुक्तौ मोहं संशयं मा कुरुत । मयोच्यमानं सत्यमेवेति भावः । मम सरोषं यथा स्यादेवं चरणाभ्यां चलनेन संचारेण वा आक्रान्तं सत् यतो यत्र महीतलं नमत्यधो गच्छति । नाम संभावनायाम् । ततस्तत्र सकल : समुद्रः प्रवर्तताम् । नमने हेतु - माह - महीतलं कीदृक् । निपात्यमानो भुजंगः शेषो यस्मात्तम् । अयं भावः--- मयि सक्रोधं चलति चरणभरादवनमन्त्यां भूमौ शेषो महीमपहायाधो गच्छेदथ मही तदुपरि तेदेवमुत्तरोत्तरमिति वर्तमानार्थकशानच्प्रत्ययेन द्योत्यते । तथा च तथा पृथिवी नमेद्यथा निम्नतोत्कर्षेण सकलजल प्रवेशात्तत्रैव समुद्रः स्यात् । अथोन्नम्य तुच्छीभूतेन समुद्रखातेन कपयः पारमुत्तरन्त्विति भावः ॥ ५८ ॥ विमला - ( अथवा ) वानरों ! तुम सब मोह को न प्राप्त होओ। मेरे सक्रोध चलने पर शेषनाग पृथ्वी को छोड़ नीचे चला जायगा और पृथ्वी इतनी नीचे धँस जायगी कि सारा समुद्र उसी में आ जाय । तब सब वानर सूखे समुद्र मार्ग से उस पार चले जायँ ) ।। ५८ ।। शरीरबलमुक्त्वा भुजाबलमाह श्रो जमलक्खम्भेहिं व धरिएण भुहिए मह महोग्रहिमज्झे । उम्मूलिनाइएणं समइञ्छउ विञ्झसं कमेण कइबलम् ॥ ५६ ॥ [उत युगलस्तम्भाभ्यामिव धृतेन भुजाभ्यां मम महोदधिमध्ये | उन्मूलितानीतेन समतिक्रामतु विन्ध्य संक्रमेण कपिबलम् ||] उत पक्षान्तरे | उन्मूलितेनोत्पाटितेन अथानीतेन विन्ध्यरूपसंक्रमेण कपिबल समतिक्रामतु । समुद्रमित्यर्थात् । संक्रमघटनप्रकार माह- कथंभूतेन संक्रमेण । युगलस्तम्भाभ्यामिव मम भुजाभ्यां महोदधिमध्ये धृतेन । तथा च जलमध्य निखातस्तम्भद्वयाकारी मद्बाहू भविष्यतस्तदुपरि जलयन्त्रविशेषप्रायो विन्ध्यस्तेन समुद्रान किमान विन्ध्योत्पाटनधारणसमर्थत्वेन भृजयोरतिमहत्त्वमुक्तम् । 'महोदधिपृष्ठे (महो अहिवट्ठे ) ' इति पाठे मच्चरणद्वयावष्टब्धदक्षिणोत्तरती रद्वयोपरि तीर्थक्पातितः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] सेतुबन्धम् [तृतीय स्तम्भद्वयाकारी मबाहू तदुपरि तिर्यपातितो विन्ध्यः संक्रम इत्यर्थः। 'संक्रमः क्रमणे सम्यग्वारि संचारयन्त्रके' ।।५६ ।। विमला-अथवा विन्ध्य पर्वत को उखाड़ लाऊँ और स्तम्भसदृश अपने भुजयुग से महासागर के बीच में धारण किये रहूँ और इस प्रकार विन्ध्यरूप सेतु से कपिसेना समुद्र को पार करे ॥५६॥ अथ फूत्कारप्रकर्षमाहविवलाअन्तभुअंगं उव्वत्तिमजलअरं विहिण्णमहिहरम् । महमारुप्रविहुमजलं पेच्छह रमणापर करेमि थलवहम् ॥६०॥ [विपलायमानभुजंगमुर्तितजलचरं विभिन्नमहीधरम् । मुखमारुतविधुतजलं पश्यत रत्नाकरं करोमि स्थलपथम् ।।] हे कपयः ! पश्यत। तथा च शब्दमात्रेणोच्यत इति न कि त्वर्थतोऽपीति भावः । मुखमारुतेन फूत्कारेण विधुतं जलं यस्मात्तथाभूतं रत्नाकरं स्थलपथं करोमि । जलस्य विक्षिप्तत्वेन तुच्छीभावात्ततः पारमुत्तरतेति भावः । फूत्कारकृतामवस्थामाह। किंभूतम् । कुतः किं वृत्तमिति संभ्रमेण विपलायमाना इतस्ततो गामिनः शेषादयो भुजंगा यत्र एवमुर्तिता विपरीत्य स्थिताः। उपरिगतोदरभागा इति यावत् । तादृशा जलचरा मकरादयो यत्र । एवं विभिन्नाः खण्डखण्डीभूता महीधरा मैनाकादयो यत्र तम् ॥६०॥ विमला-तुम सब देखो, अभी मेरे मुखवायु ( फूत्कार ) से समुद्र में बसने वाले भुजंग भाग जाते हैं, जलचर ( मर कर ) उलट जाते हैं, पर्वत खण्ड-खण्ड हो जाते हैं, उसका जल दूर हट जाता है और इस प्रकार समुद्र को स्थल मार्ग बना देता हूँ ॥६०॥ अथ स्वस्य रावणविहारभूमिसुवेलातिक्रमसामर्थ्यन लङ्कोपमर्दसामर्थ्य कटाक्षयन्नाह मज्झक्ख डिउम्मूलिप्रभाभमाइप्रविमुक्कसेसद्धन्तम् । एत्तोहुत्तसुवेलं तत्तोहुत्तमल करेमि समुहम् ॥६१॥ [मध्यखडितोन्मूलितभुजाभ्रामितविमुक्तशेषार्धान्तम् । इतोऽभिमुखसुवेलं ततोऽभिमुखमलयं करोमि समुद्रम् ॥] अहं समुद्रमीदृशं करोमि । एतदभिमुखः सुवेलो यत्रत्युत्तराभिमुखसुवेलम् । तदभिमुखो मलयो यत्रेति सुवेलाभिमुखमलयमित्यर्थः। तथा च मलयसुवेलाभ्यां संक्रमं बध्नामि तेन पारं गच्छतेति भावः । संक्रमप्रकारमाह-मध्ये खण्डितो उपरिशृङ्गादिविषमभागापसारणेन समतासिद्धयर्थमुत्सेध एवोपरि दलितो अथोन्मूलितावुत्पाटितौ ततश्च भुजाभ्यां भ्रामितो पूर्वपश्चिमाद्दक्षिणोत्तरायतीकृती तथा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १११ विमुक्तौ त्यक्तौ शेषो संक्रमोवृत्तभागौ य योस्तो। विमुक्तशेषावर्धान्तौ संक्रमघटकीभूतो मूलार्धभागौ यत्र तमिति समुद्रविशेषणम्, तद्यथा स्यादिति क्रियाविशेषणं वा। तथा च द्वयोरुत्सेधेनोपरिभागं दैर्येण शेषभागं च निरस्य संक्रमो घटनीय इत्यर्थः ।।६१॥ विमला-मैं ( सुग्रीव ) सुवेल गिरि और मलयगिरि को (ऊपर वाले शृङ्गादि भाग को हटा कर समता लाने के लिये) मध्य में काट कर, उन्हें उखाड़ कर, भुजाओं से घुमाकर--लम्बाई में पूर्व-पच्छिम के बजाय उत्तर-दक्षिण कर, ( लम्बे होने के कारण ) बढ़े हुए अन्तिम शेष भाग को निरस्त कर इधर के तट के ठीक सामने उधर से सुबेल गिरि को और उधर के तट के ठीक सामने इधर से मलयगिरि को अर्थात् दोनों को सामने-सामने रख कर समुद्र में सेतु बना देता हूँ ॥६१॥ अथाशयस्थं लङ्कोपमर्दमुद्धाटयन्नाह अह व सुवेलालग्गं पेच्छह प्रज्जेन भग्गरक्खसविडवम । सीआकिसलअसेसं मज्झ भुप्राठिअं लअं विन लङ्कम् ॥६२॥ [अथवा सुवेलालग्नां पश्यताद्यैव भग्नराक्षसविटपाम् । सीताकिसलयशेषां मम भुजाकृष्टां लतामिव लङ्काम् ॥] अथवा सुवेलालग्नां लतामिव लङ्कामद्यैव मम भुजाकृष्टां पश्यत । यथा सुवेलसंबद्धा काचिल्लता आकृष्यते तथा तत्सम्बद्धा लङ्कापि मया भुजेनैवात्राकर्षणीया ततः पारगमनव्यापृतिरपि न स्यादिति भावः । आकर्षणे सति लतायाः शाखापत्रभङ्गो भवतीत्याह-कीदृशीम् । भग्नाः पतिता राक्षसा एव विटपा यस्यास्ताम् । राक्षसा अपि हन्तव्या इत्यर्थः । एवं सीतारूपकिसलयावशेषाम् । पत्रान्तरप्रायराक्षसीनामपि निपातनादिति भावः । वस्तुतस्तु सुवेलमप्याकृष्यानयामि तदाकर्षणे तल्लग्नां लतामिव लङ्कामप्यानयामीति गूढो वाक्यार्थः ।।६२।। विमला-अथवा ( समुद्र पार करने की आवश्यकता ही नहीं) देखो, अभी राक्षसरूप पत्तों को भग्न करता, सीतारूप किसलय को ही अवशेष रखता हुआ मैं सुवेल गिरि से सम्बद्ध लंका को लता के समान खींच कर यहीं ला देता हूँ॥६२॥ अथाश्वासक विच्छित्तिमुखेन विशिष्य रावणवधमाहप्रोभग्गरक्खसदुमं गिहादसाणणमइन्दसुहसंचारम् । रामाणुराप्रमत्तो मलेमि लकं वणलि व वणगओ ॥६३।। इन सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकर वहम हवहे महाकव्वे तइभो आसासमओ परिसमत्तो। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] सेतुबन्धम् [ तृतीय [उत भग्न ('अवभग्न'वा) राक्षसद्रुमां निहतदशाननमृगेन्द्रसुखसंचाराम् । रामानुरागमत्तो मृद्नामि लड्कां वनस्थलीमिव वनगजः ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये तृतीय आश्वासः परिसमाप्तः ॥ उत पक्षान्तरे। रामानुरागेण मत्तः साहंकारोऽहं लङ्कां मृदनामि । तत्रैव गत्वा मर्दयामीत्यर्थः। क इव । वनस्थलीं वनभूमि मत्तो वनगज इव । लङ्कां कीदृशीम् । भग्ना हतत्वात्पातिता अवभग्ना इति वा राक्षसा एव द्रुमा यत्र । एवं निहतो दशानन एव मृगेन्द्रस्तेन सुखसंचाराम् । वनभूमावपि गजेन्द्रप्रवेशादद्रुमभङ्गो मृगेन्द्रहननाच्च संचारसौख्यं भवतीत्यर्थः । अत्र वनगजेन मृगेन्द्रहनने जातिविरोधदोष इति न देश्यम् । कालवशेन कदाचित्तथाभावादिति केचित् । दशाननवधस्य रामकर्तृकत्वादन्य कर्तृको मृगेन्द्रवध इत्यपरे । वस्तुतस्तु मइन्द इत्यत्र मदी इति प्रकृतिः। तथा च मदवि शिष्टो मदी मत्तगजस्तदिन्द्र इत्यर्थः । तेन मत्तगजयोः सङ्ग्रामे एकेनापरस्य हननं संभवत्येवेति न जातिविरोधः, न वा मृगेन्द्रापेक्षया बन गजस्य न्यूनजाति वा स्वस्य रावणादपकर्षः प्रतीयत इति दृषणमिति तु वयम् ॥६३॥ सुग्रीवप्रौढिदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य तृतीयाभूदियं शिखा ॥ विमला-अथवा मत्त वनगज के समान रामानुराग से मत्त ( साहंकार) वनस्थली के समान लङ्का को ऐसा रौंदता हूँ कि राक्षसरूप वृक्षों के गिरने, दशानन रूप मृगेन्द्र के विनष्ट होने से उसमें सब सुख से चल-फिर सकेगे। विमर्श-वनगज के द्वारा मृगेन्द्रहनन में जातिविरोध दोष है । इस दोष का परिहार इस प्रकार करना चाहिये-भी-कभी काल वश वैसा होता है। अथवा सुग्रीव अपने को वनगज और रावण को मृगेन्द्र क हक र रावण की अपेक्षा अपने को अपकृष्टतर प्रतीत करना चाहता है। अथवा 'मइन्द' की संस्कृतच्छाया 'महीन्द्र' कर दी जाय। मदवि शिष्टा: मदिन: गजाः तेषामिन्द्रः । दो मतगज के संग्राम में एक से दूसरे का हनन तो संभव ही है ॥६३।। इस प्रकार श्री प्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य __ में ततीय आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ आश्वासः अथ वानराणामुत्तेजनादवस्थान्तरमाह अह पढमवअणणिहुअं पच्छा उम्हइ अलज्जिअं क इसेग्णम् । ससिदसणपासुत्तं कमलवणं व दिप्रसागमेण विबुद्धम् ।।१।। [अथ प्रथमवचननिभृतं पश्चादूष्मायितलज्जितं कपिसैन्यम् । शशिदर्शनप्रसुप्तं कमलवनमिव दिवसागमेन विबुद्धम् ॥ ] अथ सुग्रीवस्याहंकारानन्तरं कपिसन्यं विबुद्धं सचेष्टमासीत् । कीदृशम् । प्रथमवचनेन सुग्रीवस्य प्रबोधवाक्येन निभृतं निश्चेष्टम् । प्रेरणामधिगत्य सचिन्तत्वात् । पश्चाद्वितीयवचनेनोष्मायितं पराहंकारासहिष्णुतया सतेजः । तत एव ममानध्यवसायः परैरवसितः सजातीयस्य च सुग्रीवस्याध्यवसाय इति लज्जितम् । अत्रोपमामाह-कमलवनमिव । यथा कमलवनं दिवसागमेन बुध्यते विकसति । कीदृक् । शशिदर्शनेन रात्री प्रसुप्तं मुद्रितम् । अत्र शशिदर्शनप्रायं सुग्रीवस्य प्रथमवचनम् । प्रभातप्रायं द्वितीयवचनम् । कमलवनप्रायं कपिसैन्यम् । अन्यदपि सुप्त जामति ध्वनिः ॥११॥ विमलातदनन्तर जैसे शशिदर्शन से प्रसुप्त (मुद्रित ) कमलवन दिवस के आगमन से विबुद्ध (विकसित ) हो जाता है वैसे ही सुग्रीव के प्रथम वचन से निश्चेष्ट एवं द्वितीय वचन से सतेज तथा लज्जित कपिसैन्य विबुद्ध ( सचेष्ट) हो गया ॥१॥ अथ कपीनामैकमत्यमाहणवरि अकई हिसआई धुप्रन्धमारविअडाई गमणुच्छाहो । एक्को बहुआइ समं गिरिसिहराई अरुणाप्रवो व्व विलग्गो ।।२।। [अनन्तरं च कपिहृदयानि धुतान्धकारविकटानि गमनोत्साहः।. एको बहूनि समं गिरिशिखराण्यरुणातप इव विलग्नः ॥] प्रबोधानन्तरं च एक एकाकारो लङ्कां प्रति गमनोत्साहो बहूनि कपीनां हृदयानि सममेकदैव विलग्नः । सर्वेऽपि लङ्कागमनसाभिलाषा बभूवुरित्यर्थः । हृदयानि किं भूतानि । धुतेनान्धकारेणानध्यवसायसमुत्थेन मोहेन विकटानि व्यक्तानि । उत्साहप्रकाशादिति भावः । दृष्टान्तमाह-यथैको बालातपस्तिमिरविरहेण प्रकटानि बहूनि गिरिशिखराण्येकदैव लगति । अत्रोत्साहस्य तदानीमुत्पन्नमात्रत्वेन कोमल त्वादने दुःसहीभविष्णुत्वाच्चारुणातपसाम्यम् ।।२।। ८ से० ब० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ विमला - प्रबुद्ध होने के अनन्तर एक ही गमनोत्साह, सभी कपियों के ( अनध्यवसाय रूप ) अन्धकार के हट जाने से सुव्यक्त हृदयों में एक साथ उसी प्रकार सम्बद्ध हो गया जिस प्रकार प्रातः कालीन आतप, अन्धकार के हट जाने से प्रकट सभी पर्वतशिखरों में एक साथ सम्बद्ध हो जाता है ॥२॥ | अथ तेषामुत्साहाधिक्यमाह तो दप्पमुहपसाओ प्राढतो ताण हिश्र प्रहसिउज्जोम्रो । रणविक्कमग्गहत्थो णिअसहाम्रो व्व पहरिसो विस्थरितम् ॥ ३॥ [ततो दर्पमुखप्रसाद आरब्धस्तेषां हृदयहसितोयोतः । रणविक्रमाग्रहस्तो निजकस्वभाव इव प्रहर्षो विस्तरितुम् ॥] तत उत्साहानन्तरं तेषां प्रहर्ष आनन्दो विस्तरितुं विस्तारं गन्तुमारब्धः । निजकस्वभाव इव प्रकृतिचाञ्चल्यमिवेति सहोपमा । चाञ्चल्यहर्षावुभावपि विस्तरितुमारधावित्यर्थः । प्रहर्षः कीदृक् । दर्पेण मुखस्य प्रसादो यस्मात्सः । पूर्वमप्रसादः स्थित इति भावः । एवं हृदयाद्यद्धसितं तेनोद्द्योतः प्रकाशो यस्य । हास्यवैलक्षण्येन हर्षस्य पारमार्थिकत्वं ज्ञातमिति भावः । एवं रणविक्रमस्याग्रहस्तो हस्तालम्बः । हर्षेण विक्रमो वर्धित इति भावः । चाञ्चल्यमपि दर्पस्य बलस्य मुखप्रसादो मुखप्रसन्नता तद्रूप इति रूपकम् । यथा मुखप्रसादेन हृदयं ज्ञायते तथा चाञ्चल्येन दर्प इति भावः । एवं हृदयहास्यस्योद्द्योतो यस्मादिति हास्य प्रकाशकारणम् । रणविक्रमस्य हस्तालम्बो वृद्धिहेतुत्वादित्यर्थः । 'मनः प्रसादो हर्षः स्यादभीष्टाप्तिस्तवादिभि:' । 'दर्पोऽहंarratiयो:' इति विश्वः ।। ३ ।। विमला — उत्साह के अनन्तर उन कपियों के के समान उनका प्रहर्ष बढ़ने लगा, जिससे दर्प के हो गये, हृदय से हर्षसूचक हास्य उद्गत हुआ बढ़ गया ॥ ३॥ अर्थकादशभिस्तेषां प्रत्येकमुत्साहचेष्टामाह बहुलुद्धअघाउरअं रिसहेण धुम्रोज्झराहक श्रोतग्रलम् । भिण्णं वामभूअसिरे उम्मूलिअवलिपण्णअं गिरिसिहरम् ॥। ४ ॥ [ बहुलोद्धतधातुरज ऋषभेण धुतनिर्झराहतकपोलतलम् । भिन्नं वामभुजशिरस्युन्मूलितवलितपन्नगं गिरिशिखरम् ॥ स्वभाव ( प्रकृतिचाश्वल्य ) कारण उनके मुख प्रसन्न और रणविषयक विक्रम ऋषभनाम्ना वानरेण गिरिशिखरमेकं दक्षिणहस्तेनोत्पाट्य वामभुजस्य शिरस्यं से भिन्नं विक्षिप्तं सच्चूर्णितमित्यर्थः । सुग्रीवो मदग्रे ऽप्यहंकारमाचरतीति क्रोधः । प्रभुत्वादस्य किमपि कर्तुं न शक्यते इति शिखरः प्रहारेण स्ववपुषि निपातित इति भावः । प्रकृतिचाञ्चल्यमेवेदमिति वा । कीदृक् शिखरम् । बहलान्युद्धतानि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ११५ धातोर्गैरिकस्य रजांसि यस्मात् । लघुत्वाद्धूलिरुत्थिता गुरुत्वाच्छिला निपतिता इति भावः । एवं धुतेनोच्छलितेन निर्झरेणाहतं क्षालितं कपोलतलं येन । प्रहारसमये ग्रीवावनेन वामकपोलस्य वामांसोपरिगतत्वादिति भावः । एवमुन्मूलिता स्थानादुत्थापिता अत एव वलिता वक्रीभूय स्थिताः पन्नगा यत्र तदिति प्रहारप्रकर्ष उक्तः । 'भूवादिरस रक्तादिश्लेष्मादिवसुधादिषु । वर्तते धातुशब्दोऽयं विशेषादरमगैरिके' ॥ ४ ॥ विमला - ( सुग्रीव के अहङ्कारपूर्ण वचन से क्रुद्ध होकर ) ऋषभ नामक ( दाहिने हाथ से उठाकर ) बायें भुज के मूल मारा कि वह शिखर चूर-चूर हो गया । उस गेरू की धूल उड़ी, तद्गत निर्झर के उछलने से गया तथा तद्गत सर्प उद्वासित होने से वानर ने पर्वत का एक शिखर भाग पर इतने जोर से पटक समय उस शिखर से अत्यधिक उसका बायाँ कपोल प्रदेश धुल कलमला उठे ॥४॥ नीलचेष्टामाह-पुल उभे आश्रम्बं नीलो परिपुसद्द विसमक सणच्छाअम् । हिअअणिहत्तपहरिसं ससिपडिभिण्ण घण संणिहं वच्छग्रडम् ॥ ५ ॥ [पुलकोद्भेदाताम्रं नीलः परिप्रोञ्छति विषमकृष्णच्छायम् । हृदयनिहितप्रहर्ष शशिप्रतिभिन्नघन संनिभं बक्षस्तम् ॥ ] नीलो वक्षस्तटं परिप्रोञ्छति वारंवारं पाणिनामृशति । पूर्ववदेव सुग्रीवोक्त्या क्रोधादुत्साहाच्चेति भावः । वक्षः कीदृशम् । पुलकोद्भेदेन रणोत्साहसमुत्थरोमाञ्चेन किंचित्ताम्रम् । वालानां नीलत्वेऽप्यये किं चिल्लोहित्यमेव तच्च पुलकोद्गमेन लक्ष्यते । तदुक्तम् - विषमं यथा स्यात्तथा कृष्णच्छायं श्यामम् । किचिल्लोहित्य सत्त्वेन कृष्णतायां वैषम्यमिति केचित् । वस्तुतस्तु लोम्नां श्यामत्वेऽप्यन्तस्त्वगवच्छिन्नदेशस्य लोहित्यमेव तदुत्फुल्लतया पुलकेन लक्ष्यते । विषमं निम्नोन्नतं कृष्णच्छायं चेत्यर्थः । एवं हृदये मनसि निहितः प्रहर्षो यत्र तत् । तदधिष्ठानत्वात्तस्य । तत एव वक्षोमर्शनम् । यथा मनसि वर्तते तथा करिष्याम्येवेति भावः । दृष्टान्तमाह -- पुनः कीदृक् । शशिना प्रतिभिन्नः संबद्धो यो घनस्तत्तुल्यम् । हृदयस्थप्रहर्षस्य सत्त्वसमुत्थत्वेन श्वेतत्वाच्चन्द्रतोत्यम् । वक्षसः कृष्णत्वान्मेघतौल्यम् । अन्योऽपि क्रुद्धो हृदयं मृशतीति ध्वनिः ॥ ५ ॥ बिमला - ( सुग्रीव के वचन से क्रुद्ध एवम् उत्साहसम्पन्न होकर ) नील नामक वानर ने पुलक से किंचित् ताम्रवर्ण, विषम श्यामवर्ण, हृदय में निहित ( श्वेतवर्ण ) प्रहषं के कारण शशि से सम्बद्ध मेघसदृश वक्षःस्थल को बार-बार हाथ से सहलाया ॥ ५॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] सेतुवन्धम् [चतुर्थ कुमुदस्य चेष्टामाहविहडन्तोट्ठरवलं फुरन्तवन्तमरबहलकेसरवनरम् । पहरिसचन्दालोए हसिकं कुमुएण सुरहिगन्धुगारम् ॥ ६ ॥ [विघटमानौष्ठपुटदलं स्फुरद्दन्तकरबहलकेसरप्रकरम् । प्रहर्षचन्द्रालोके हसितं कुमुदेन सुरभिगन्धोद्गारम् ॥] सुग्रीवोक्त्या क्रोधाच्चाञ्चल्याच्च कुमुदेन हसितं हास्यं कृतम् । विघटमानो विभिन्नावोष्ठपुटौ दलं यत्र तद्यथा स्यात्तथा स्फुरन्तो दन्तकरा एव केसरप्रकरो यत्र तद्यथा स्यात्तथा सुरभिगन्धस्योद्गारो यस्मात्तद्यथा स्यादिति च क्रियाविशेषणम् । तस्मिन्सति प्रहर्ष एव चन्द्रस्तस्यालोके प्रकाशे सति । तथा च प्रहर्षोद गमेन कुमुदस्यापि हास्योदगमादोष्ठपुटयोविभागो दन्तकान्तिप्रकाशो मुखात्ताम्बूलादिसौरभनिर्गमश्च बभूवेति वाक्यार्थः । ध्वन्यर्थतु-प्रकृष्टो हर्षो यस्मादेतादृशस्य चन्द्रस्यालोके तेजसि सति कुमुदं हसति विकसति । तेन तस्यौष्ठपुटप्रायदलानां विभागो दन्तरुचिप्रायकेसराणां स्फुरणं सौरभस्य चोद्गमो भवतीति सारम् ॥६॥ विमला-प्रहर्षरूप चन्द्र का प्रकाश होने पर कुमुद (१-कुमुदनामक वानर, २-कुमुद पुष्पविशेष ) हंस पड़ा (प्रफुल्ल हो गया)। उसका ओष्ठपुटदल (१-ओष्ठपुटरूप दल, २-ओष्ठपुट के समान दल ) खुल गया. स्फुरित दन्तकिरणरूप केसर ( पुष्प पक्ष में दन्तकिरण के समान केसर ) प्रकीर्ण हो गया और मुख से सुवासित गन्ध उद्गीर्ण हो गयी ।।६।। मैन्दस्य चेष्टामाह विहडन्तधरणिबन्धो उहमभुमक्खेवनहलवेविरविडवो। विसमपडन्तविसहरो वेलाचन्दणदुमो मइन्देण धुओ ॥७॥ [विघटमानधरणिबन्ध उभयभुजक्षेपमुखरवेपनशीलविटपः । विषमपतद्विषधरो वेलाचन्दन मो मैन्देन धुतः ॥] मैन्देन वेला समुद्रतीरं तद्वर्ती चन्दनवृक्षो धुतः कम्पितः । कीदृक् । विघटमानो धरणिबन्धो यस्य । आन्दोलनेन मूलशैथिल्यात् । एवमुभयभुजाभ्यां क्षेप उत्पाटनोद्यमनं तेन मुखराः परस्परसंघट्टेन शब्दायमाना अथ च वेपमानाः शाखा यस्य एवं कम्पनेन विषमाः स्थाने स्थाने पतन्तो विषधरा यस्मात्तादृक । क्रोधेन प्रहारायोत्पाटितुमारब्धोऽपि तरुः प्रहर्तव्याभावात्पुनरान्दोलित एव न तूत्पाटित इति भावः । चाञ्चल्येन वोत्पाटये वान्दोलित इति केचित् ॥७॥ विमला-मैन्द नामक वानर ने समुद्र तटवर्ती चन्दन द्रुम को ऐसा झकझोर दिया कि ( मूलभाग के शिथिल हो जाने से ) धरणी से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। दोनों भुजाओं से उखाड़ कर ऊपर उठाने पर परस्पर टकरा कर Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [११७ शाखायें शब्दायमान एवं कम्पमान हो गयीं तथा ( उसमें लिपटे ) सर्प स्थान-स्थान पर गिर गये ॥७॥ द्वि विदस्य चेष्टामाहदिप्पन्तदुरालोआ विवि अस्स सधूमसिहिसिहावत्तणिहा। सोम्मत्तणं ण पत्ता हरिसभरेन्ती विविसहरस्स व विट्ठी ॥८॥ [दीप्यमानदुरालोका द्विविदस्य सधूमशिखिशिखावर्तनिभा। सौम्यत्वं न प्राप्ता हर्षभ्रियमाणापि विषधरस्येव दृष्टिः ॥] द्विविदस्य दृष्टिहर्षेण भ्रियमाणापि सौम्यतासामग्रीसत्त्वेऽपि सौम्यत्वं न प्राप्ता। सुग्रीवोक्त्या रोषेण दुनिरीक्ष्यत्वात् । तदुक्तम्-दीप्यमाना रोषोद्गततेजोविशेषमयी मत एव दुरालोका दुनिरीक्ष्या। पुनः कीदृशी। मभूमशिखिनो यः शिखावतंस्तनिभा तत्तुल्या। अत्र वह्विप्राया दीप्ता दृष्टिधूमप्रायस्त्वसौम्यताहेतूदत्ततारकादिच्छवि विशेषः । केव । विषधरस्य दृष्टिरिव । यथा सर्पस्य दृष्टि: सौम्यत्वं न प्राप्नोति । अत्रापि दीप्यमानेत्यादि पूर्ववदेव योज्यम् । श्यामारुणयोर्विषतज्ज्वालयोदृष्टो संक्रमात्सधूमवह्नितुल्यत्वम् । यथा सापराधं द्रष्टुमुद्यतः कालसर्पः प्रतिबन्धकसद्भावे दूरादपि सक्रोधमालोकते तथायमपि सुग्रीवं प्रभुरिति किमप्यजल्पन्नुद्धतं ददर्शति भावः । उत्साहादेव दृष्टेरियं चेष्टति केचित् ॥८॥ विमला-( रोष से उत्पन्न तेज के कारण ) दीप्यमान अतएव दुनिरीक्ष्य, सधूम अग्नि की लपट के सुल्य, द्विविद नामक वानर की दृष्टि हर्षपूर्ण होकर भी विषधर ( सर्प ) की दृष्टि के समान सौम्यता को न प्राप्त कर सकी ॥८॥ शरभचेष्टामाहसरहो वि दरिम हग अपडिसहप्फुडिअमलप्रअड़पन्भारम् । मुञ्चइ विसणारं मलेइ अङ्गच रोसविसअण्णाप्रम् ॥६॥ [शरभोऽपि दरीमुखोद्गतप्रतिशब्दस्फुटितमलयतटप्राग्भारम् । मुञ्चति विशदं नादं मृनात्यङ्गं च रोषविषाम् ॥] शरभोऽपि विशदं नादं मुञ्चति । उच्चननादेत्यर्थः । अङ्गं च मृद्नाति । पाणिना दृढं ममर्दैत्यर्थः । नादं कीदृशम् । दरीमुखादुद्गत उत्थितो यः प्रतिशब्दस्तेन स्फुटितो भिन्नो मलयतटस्य प्राग्भार एकदेशो यस्मात् । प्रतिशब्दः कुहरगर्ने प्रविश्यावकाशेनोर्ध्वमुच्छलतीति मलयस्फुटनेन' शब्दोत्कर्ष उक्तः । अङ्गं च कीदृक् । रोष एव विषं व्याकुलीकारसमर्थत्वात्तेनाद्रं तदानीमेव व्याप्तम् । अन्योऽपि विषस्पृष्टं वपुः कण्डूयमानो मृनातीति प्रकृते सुग्रीवोक्त्या रोषात्कृतस्याङ्गमर्दनस्व रोषरूपविषस्पर्शजन्यक ण्डूयाकृतत्वमुत्प्रेक्षितम् ।।६।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ विमला -- शरभ नामक वानर ने भी ऐसी गर्जना की कि कन्दरा से निकली हुई उसकी प्रतिध्वनि से मलय पर्वत का शिखर टूट-फूट गया तथा उस वानर ने शेषरूप विष से व्याप्त अपने शरीर का अच्छी तरह मर्दन किया || || निषधस्य चेष्टामाह प्ररुणाअम्बच्छाए तक्खणमेत्तपडिबुद्धपङ्कअसोहे [अरुणाताम्रच्छाये फुरइ सिस्स वि फुडं दिग्रसस्त मुहम्मि दिणअरो व्व श्रमरिसो ॥१०॥ तत्क्षणमात्र प्रतिबुद्धपङ्कजशोभे । स्फुरति निषधस्यापि स्फुटं दिवसस्य मुखे दिनकर इवामर्षः ।। ] निषधस्यापि मुखे स्फुटममर्षः स्फुरति प्रकाशते । दिवसस्य मुखे प्रातदिनकर इव । कथम्भूते । अरुणः सूर्यसारथिस्तद्वदाताम्रा छाया कान्तिर्यस्य तत्र । पक्षे अरुणोद्गमेनाताम्रा छाया यस्य तादृशि । एवं तत्क्षणमात्रे प्रतिबुद्धं विकासि यत्पङ्कजं तत्तुल्यशोभे । तदानीमेव निश्चेष्टतापगमे सति प्रकाशोदयात् । पक्ष तत्काल प्रतिबुद्धा पङ्कजानां शोभा यत्रेत्यमर्षस्य प्रातः सूर्यसाम्येनोत्तरकाले दुःसत्वं सूच्यते ||१०|| विमला - 3 - अरुण ( सूर्य - सारथि ) के समान लाल, तत्काल खिले कमल के समान शोभित निषध नामक वानर के मुख पर अमर्ष, अरुण के उद्गत होने से लाल, तत्काल खिले कमल से शोभित दिवस के मुख ( प्रभात ) पर सूर्य के समान स्पष्ट प्रकाशित हुआ ||१०|| सुषेणस्य चेष्टामाह विअडाहरन्तरालं कथं सुसेणस्स रोसहसिएण फुडम् । उप्पाअरुहिरनम्बं मज्झष्फु डिश्रर इमण्डलं विश्र वअणम् ॥११॥ [विकटाधरान्तरालं कृतं सुषेणस्य रोषहसितेन स्फुटम् । उत्पातरुधिरातानं मध्यस्फुटितरविमण्डलमिव वदनम् ||] रोषहसितेन सुषेणस्य मुखं स्फुटं विकासि कृतम् । अत्युद्भटं जातमित्यर्थः । कीदृक् । विकटो भयानकोऽधरोष्ठस्यान्तरालो मध्यभागो यत्र । हास्यकृतविभागात् । एवमुत्पातरुधिरमाकाशादावकस्माद्दृश्यते तद्वदाता क्रोधात् । किमिव । मध्ये स्फुटितं द्विधाभूतं यद्रविमण्डलं तदिव । तदप्युत्पातरुधिरेणाताम्रम् | कदाचित्तत्रापि तद्दर्शनात् । उत्पातरूपरविमण्डलखण्डद्वयसाम्येनाधरोष्ठस्योत्पातरुधिरोपमया लौहित्यस्य च भयानकत्वेन दर्शकानामतिदुःखदत्वं सूचितम् ॥ ११ ॥ विमला — रोषजन्य हास्य ने स्फुट विकसित सुषेण नामक बानर के मुख को उत्पातरुधिराताम्र ( १ - आकाश आदि में अकस्मात् दिखाई पड़ने वाले उत्पात - रुधिर के समान लाल, २ - उत्पातरुधिर से लाल ) मध्य से दो खण्डों में विभाजित Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [११६ रवि-मण्डल-जैसा कर दिया। उस समय हास्य से पूरा खुल जाने पर उसके अधरोष्ठ का अत्यन्त भयानक मध्यभाग स्पष्ट दिखायी पड़ा ॥११॥ अङ्गदस्य चेष्टामाहहरिसपरिअम्भिएण प्र अदल्लपिअरइबिम्ब सम्बच्छविणा। पुरओहुत्तारम्भो मुहेण दिअमो व पापडो वालिसुमो ॥१२॥ [हर्षपरिजम्भितेन चा?ल्लसितरविबिम्बताम्रच्छविना। पुरतोऽभिमुखारम्भो मुखेन दिवस इव प्रकटो वालिसुतः ॥] वालिसुतोऽङ्गदो मुखेन प्रकटो व्यजितहृदय आसीत् । न तु चाञ्चल्येनेत्यर्थः । किंभूतेन' । हर्षेणोत्साहेन परिजृम्भितेन प्रौढिमागतेन । एवम|ल्लासितमोदितं यद्र विमण्डलं तद्वत्ताम्रच्छविना । क्रोधजन्यारुण्यप्रकर्षात् । तदेवाह-कीदृक् । पुरतोऽभिमुखोऽग्रतोवर्ती आरम्भ उद्यमो यस्य सः । तथा च पितृव्यस्य गुरोः सुग्रीवस्य वचसि किमपि कर्तुं न युज्यत इत्यनुद्ध त एव यन्मया कर्तव्यं तदने द्रष्टव्यमेव सर्वैरिति मुखारुण्येनैव प्रकाशितवानिति भावः । क इव । दिवस इव । यथा दिवसो मुखेन प्रभातेन तिमिरमपास्य प्रकटो भवति तद्वत् । मुखेनापि कीदृशेन । लोकानां हर्षाय जृम्भितेना|दितसूर्येण ताम्रच्छविना च । दिवसश्च कीदृक् । पुरतोऽभिमुखः प्राच्यभिमुख आरम्भ उपक्रमो यस्य तादृश इति । इदानीं कोमलत्वेऽप्यग्रे दिवसवदुःसहत्वं वालिसुतत्वेन रावणोपमर्दक्षमत्वं च तस्य सूचितम् ॥१२॥ विमला-( लोक के ) हर्ष के लिये [ परिजृम्भित ] परावर्तित, अर्कोदित सूर्यमण्डल से लाल [ मुख ] प्रभात से पूर्वाभिमुख आरम्भ वाले दिवस के समान, अग्रवर्ती उद्योग वाला वालिसुत (अङ्गद) सामने प्रकट हुआ-उसके अरुण मुख से ही 'जो कुछ करेगा'-विदित हो गया ॥१२॥ हनूमदवस्थामाह णेच्छइ णिवढभरो लहुरं दद्धप्रत्तणं पवणसुनो। कअपेसणस्स सोहइ धीरं चित्र महइ रविखउं वाणिज्जम् ।।१३।। [नेच्छति निव्यू ढभरो लघुकं दर्पोद्धतत्वं पवनसुतः । कृतप्रेषणस्य शोभते धैर्यमेव महति रक्षितुं वचनीयम् ॥] पवनसुतो दर्पणौद्धत्यं नेच्छति । लघुकं यत । अन्यवानरवच्चाञ्चल्यं न चकार किंतु यथास्थित एव तस्थावित्यर्थः । कीदक । निव्यू ढभरः । निर्वाहितकार्य इत्यर्थः । मया समुद्रलंघनादिगुरुकार्य कृतं सर्वे जानन्त्येव लघु हास्यादिकं किमिति कर्तव्यमित्याशयः । कृतकार्योऽपि तदानीं पुनः स्वबलाविष्कारं कुतो न कृतवानित्यत आह-कृतं प्रेषणमीश्वराज्ञा येन तस्य धैर्यमेव शोभते । तद्धयं तस्य पुरुषस्य Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ वचनीयं वाच्यतामयं स्वगुणाविष्कारं करोतीति लोकापवादरूपां रक्षितुमेतत्पुरुषं प्रत्यनागन्तु महति वाञ्छति । धैर्ये सति सा वाच्यता नायात्यधैर्ये सत्यायातीति भावः ॥१३॥ विमला-(समुद्रलंघन' आदि) भारी काम पहिले ही कर चुका था; अतः (अन्य वानरों के समान' ) हँसना, चञ्चल होना आदि छोटी बात करना हनुमान ने उचित नहीं समझा। जो स्वामी की आज्ञा का पहिले ही पालन कर चुका है उसको धैर्य ही शोभित होता है, क्योंकि धैर्य कृतकार्य 'पुरुष को स्वगुणाविष्काररूप दोष से बचाना चाहता है ।।१३।। सुग्रीवस्य चेष्टामाहणिभच्छिओअहिरवं फुडिआहरणियडन्तदाढाहीरम् । हसइ कइदप्पपसमिअरोसविरज्जन्तलोअणो सुग्गीवो ॥१४॥ [निर्भसिंतोदधिरवं स्फुरिताधरनिर्वलदंष्ट्राहीरम् । हसति कपिदपप्रशमितरोषविरज्यमानलोचनः सुग्रीवः ।।] सुग्रीवो हसति । कपिचेष्टादर्शनेनोत्साहात् । एतदर्थमेव मयोक्तमिति सिद्धकार्यत्वादिति भावः । किमित्यकृतकार्यरास्फोटः क्रियत इत्याशयाद्वा। एतेषां कोपेन मम किं स्यादित्याशयाद्वा। निर्भत्सितो हास्यशब्देन तिरोहितः समुद्ररवो येन तद्यथा स्यात् । एवं स्फुरिताधरोष्ठान्निवलत्पृथग्भवदंष्ट्राहीरक दंष्ट्राग्रं यत्र तद्यथा स्यादिति च क्रियाविशेषणम् । सुग्रीवः कीदृक् । कपिदर्पण प्रशमितो यो रोषस्तेन विरज्यमाने विशब्दस्याभाववाचकत्वेन रागो लौहित्यं तच्छून्ये लोचने यस्य तथाभूतः । 'सूच्यग्रसदृशं श्लक्ष्णं दंष्ट्राग्रं हीरकं विदुः'। दंष्ट्रारूपं हीरं रत्नविशेषो यत्रेति वा ॥१४॥ विमला-कपियों के दपे से रोष शान्त हो जाने के कारण अरुणिमा-शून्य नेत्र वाला सुग्रीव हंसा। उस समय उसके हास्य-शब्द में समुद्र का गर्जन-शब्द भन्तहित हो गया और उसकी दंष्ट्रा का अग्रभागरूप हीरक रत्न स्फुटित अधरोष्ठ से बाहर चमकता दिखायी पड़ा ॥१४॥ अथ लक्ष्मणस्यावस्थामाह वरि सुमित्तातणमो प्रासडन्तो गुरुस्स णिप्रअंच बलम् । ण प्रचिन्तेइ ण जम्पइ उहि सदसाणणं तर्ण व गणेन्तो ॥१५॥ [अनन्तरं सुमित्रातनयोऽध्यवस्यन्गुरोनिजकं च बलम् । न च चिन्तयति न जल्पत्युदधिं सदशाननं तृणमिव गणयन् ॥] अनन्तरं सुमित्रातनयो लक्ष्मणो न च चिन्तयति न च जल्पति । किं कुर्वन् । दशाननसहितमुधिं तृणमिव गणयन् । यथा तृणभङ्गे न श्रमस्तथा समुद्रतरण Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१२१ रावणवधयोरपीति मन्यमान इत्यर्थः । एवं गुरो रामस्य निजकं च बलमध्यवस्यन् । न तु वानराणामिति भावः । तथा च पराधीन कार्ये चिन्ता जल्पनव्यावृत्तिभवति स्वाधीनकार्ये स्वायत्तिरेवेति तात्पर्यम् ॥१५॥ विमला-तदनन्तर लक्ष्मण ने श्रीराम के तथा अपने बल को पर्याप्त समझ कर रावणसहित समुद्र को तृण-सा समझते हुये न तो चिन्ता व्यक्त की और न अपं-पूर्ण वचन ही कहा ॥१५॥ अथ रामस्य चेष्टामाहरहणाहस्स वि विट्ठी वाणरवइणो फरन्तविद्दुमअम्बम् । वनणं वप्रणाहि चला कमलं कमलाहि भमरपन्ति व्व गा॥१६॥ [रघुनाथस्यापि दृष्टिनिरपतेः स्फुरद्विद्रुमताम्रम् । वदनं वदनाच्चला कमलं कमलाभ्रमरपङ्क्तिरिव गता ॥] __ रघुनाथस्यापि मुखावृष्टिनिरपतेः सुग्रीवस्य मुखं गता। कपिचेष्टां दृष्ट्या कीदृशी मुखश्रीरस्येति जिज्ञासया रामेण सुग्रीवमुखं दृष्टमित्यर्थः । मुखं किंभूतम् । स्फुरद्विद्रुमवदाताम्रम् । स्वभावात्कोपाच्च । दृष्टिः कीदृशी। चला चञ्चला । केव । भ्रमरपङ्क्तिरिव । यथैकस्मात्कमलादपरं विद्रुमवत्तानं कमलं भ्रमरपङ्क्तिश्चपला सती गच्छतीति पङ्क्तिपदेन वारंवारं गतेत्यर्थो गम्यते । रामस्य मुखमेकं कमलमपरं सुग्रीवस्येत्यर्थः ॥१६॥ विमला-( अकस्मात ) एक कमल से दूसरे विद्रुम के समान लाल कमल की ओर जाती चञ्चल भ्रमर-पंक्ति के समान रघुनाथ की भी चञ्चल दृष्टि उनके मुख से सुग्रीव के स्फुरित विद्रुम के समान लाल मुख की ओर गयी ।।१६।। अथान्त्यकुलकीकृतस्कन्धकत्रयेण जाम्बवद्व वनं प्रस्तौतितो वनपरिणामोणअभमआवलिरुब्भमाणदिठिच्छेहो । आसण्णधवलमिहिआपरिक्खलन्तोसहिप्पहो व्व महिहरो ॥१७॥ करवारिक इलोओ सुग्गीवविइण्णभासुरच्छिच्छेहो । जालाहअदुमणिवहो फ लिङ्गपिङ्गलिअमहिहरो व्व वणदवो॥१८॥ जम्पइ रिच्छाहिवई उण्णामेऊण महिअलद्धन्तणि हम् । खलिअलिभङ्गदाविअवित्थ अबहलवणकंदरं वच्छअडम् ॥१६॥ (अन्त्यकुलअम् ) [ततो वयःपरिणामावनतभ्रवल्लिरुध्यमानदृष्टिक्षेपः । आसन्नधवलमेधिकापरिस्खलदोषधिप्रभ इव महीधरः ।। करवारितकपिलोकः सुग्रीववितीर्णभास्वराक्षिक्षेपः । ज्वालाहतद्रुमनिवहः स्फुलिङ्गपिङ्गलितमहीधर इव वनदवः ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् जल्पति ऋक्षाधिपतिरुन्नमय्य स्खलितव लिभङ्गदर्शितविस्तृतबहलव्रणकंदरं १२२ ] [ चतुर्थ महीतलार्धान्तनिभम् । ततस्तदनन्तरमृक्षाधिपतिर्जाम्बवान् जल्पतीति तृतीयस्कन्धकेन सह योज्यम् । कीदृक् । वयःपरिणामेन वार्धकेनावनताभ्यां भ्रूवल्लिभ्यां रुध्यमानो दृष्टिक्षेपो यस्य सः। वार्धकान्मांसलया ध्रुवा प्रच्छन्नदृष्टिपातः । तमुत्प्रेक्षते - क इव । महीधर इव । सोऽपि कीदृक् । आसन्नया निकटवर्तिन्या मेघिकया स्वल्पमेधेन परिस्वल - न्ती छन्नतया यथावदप्रकाशमाना औषधिप्रभा यत्र सः । वार्धकाल्लोमपाकेन धवलमेघिकासाम्यं ध्रुवो:, ओषधिप्रभासाम्यं पिङ्गतया दृशो:, उच्चत्वेन श्यामत्वेन चाचलसाम्यं जाम्बवतः । पुनः कीदृक् । कराभ्यां वारिता औद्धत्यान्निवर्तिताः कपिलोका येन । एवं सुग्रीवे वितीर्णोऽपितो भास्वरयोरक्ष्णोः क्षेपो येन तादृक् । तमेवंभूतं पुनरुत्प्रेक्षते - ज्वालया आहतः स्पृष्टो द्रुमनिवहो एवं स्फुलिङ्गः पिङ्गलीकृतो महीधरो येन । एवंभूतो वनदव इव । ज्वालाप्रायो हस्ती, वृक्षप्रायाः कपय:, स्फुलिङ्गप्राया दृष्टिक्षेपाः, महीधरप्रायः सुग्रीवः, क्रोधजन्यकरमुखावारुण्येन वृक्षादिसंबन्धनिबन्धनश्यामरक्तदावानलप्रायो जाम्बवान् । किं कृत्वा । महीतलस्यार्घान्त एकदेशस्तन्निभम् । महत्त्वात् । एवं स्खलिता उन्नमनेन विगलिता बलिभङ्गा वार्धकादधोलम्बिनो मांसभङ्गा यत्र एवंभूतम् । अत एव वलिभङ्गापगमेन दर्शिता नयनगोचरीकृता विस्तृता व्यापका बहला घनाः । निरन्तरा इति यावत् । व्रणा एव गभीरत्वात्कंदरा यत्र तादृशं वृक्षस्तटमुन्नमय्य । तथा च हृदयोन्नत्या तादृशहृदयव्रणोद्धाटनेन स्वस्य बाहुयुद्धकारित्वं शूरत्वं च प्रकाशितमग्रे बक्तव्योपयोगित्वेनेति भावः ।। १७- १६ ॥ विमला - वृद्धावस्था के कारण अवनत ( मांसल ) भौंहों से अवरुद्ध दृष्टिपात वाला ( अतएव ) निकटवर्तिनी मेघिका ( स्वल्प मेघ ) के कारण ठीक से न प्रकाशमान ओषधि प्रभा वाले महीधर के समान ऋक्षाधिपति जाम्बवान, दोनों करों के द्वारा कपिवृन्द को रोकता तथा सुग्रीव पर दृष्टिपात करता हुआ, लपटों से द्रुमसमूह का स्पर्श करने वाले एवं स्फुलिङ्गों से महीधर को पिङ्गल वर्ण बनाने बाले दावानल के समान सुशोभित हुआ और महीतल के अर्ध भागतुल्य वक्ष:स्थल को ऊँचा कर ( अतएव ) उसकी झुर्रियों को मिटाता एवम् उसके ( पुरातन ) विस्तृत तथा अविरल व्रणरूप कन्दराओं को दिखाता हुआ ( वक्ष्यमाण वचन ) बोला ॥१७- १६ ॥ वक्ष्यमाणोपयोगि वेन बहुदर्शित्वमात्मनः प्रकाशयन्नाह - वक्षस्तम् ||] ( अन्त्य कुलकम् ) सग्गं अपारिजाअं कोत्युहलच्छर हिअं महुमहस्स उरम् । सुमिरामि महणपुरओ अमुद्ध अन्दं च हरजडाप भारम् ॥२०॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १२३ [स्वर्गमपारिजातं कौस्तुभलक्ष्मीरहितं मधुमथनस्योरः । स्मरामि मथनपुरतोऽमुग्धचन्द्र च हरजटाप्राग्भारम् ॥] अहं समुद्रमथनपूर्व पारिजातशून्यं स्वर्गम् । कौस्तुभेन लक्ष्म्या च कौस्तुभस्य सक्षम्या वा रहितं मधुमथनस्योरः । मुग्धोः बाल । तथा च चन्द्रखण्डशून्यं च” हरजटायाः प्राग्भारमुपरिभागं समूह वा स्मरामि । तथा च पारिजाताद्युत्पादकसमुद्रमथनसंभ्रमेऽप्यहं स्थित इति भावः ॥२०॥ विमला-मैं समुद्रमथन से पूर्व पारिजातशून्य स्वर्ग, कौस्तुभ और लक्ष्मी से रहित विष्णु का हृदय तथा सुन्दर चन्द्र से शून्य हरजटा का अग्र भाग याद रखता हूँ ( समुद्रमथन मेरे जीवनकाल में ही हुआ है )॥२०॥ मथ नरसिंहावतारमपि दृष्टवानस्मीत्याह महुमहहत्थम्मि मए णवखुक्खुडिअसरसं महासुरहिननम् । दिट्ठा अन्धावन्ती अक्खित्तं णि प्रअहत्थकमलं व सिरी ॥२१॥ [ मधुमथनहस्ते मया नखोत्खण्डितसरसं महासुरहृदयम् । दृष्टा अनुधावती आक्षिप्तं निजकहस्तकमलमिव श्रीः ।।] मधुमथनस्य हस्ते मया श्रीदृष्टा । हिरण्यकशिपोरित्यर्थात् । किंभूता। नखैरुखण्डितमतः सरसं लोहितं महासुरस्य तस्यैव हृदयं बुक्करूपं मांसखण्डमनुधावती । हृदयमुत्प्रेक्षते-आक्षिप्तं परमेश्वरेणाक्रम्य गृहीतं निजकहस्तकमलमिव । तथा च यथा कोऽपि करात्केनापि गृहीतं किमप्याहतु पृष्ठलग्न एवानुगच्छति तथा हिरण्यकशिपोहृत्पुण्डरीकरूपं क्रव्यखण्डं हृदयस्थायास्तल्लक्ष्म्या लोहितं हस्तकमलमेव तन्न. रसिंहो नखेनोत्खायाकृष्टवानिति तत्प्रत्याहर्तुमनुगम्य संबद्धा दैत्यलक्ष्मीरेव तात्कालिकनृसिंहकरलक्ष्मीरित्युत्प्रेक्षालभ्यम् । तत्सर्वमपि मया दृष्टमिति स्वस्य तत्पूर्वका. लीनत्वमुक्तम् । 'हृदयं मानसे बुक्के' इति विश्वः ॥२१॥ विमला-नरसिंहरूप विष्णु के हाथ में गृहीत, नखों से उत्खण्डित (अतएव) नाल हिरण्यकशिपु के हृदय ( हृदयस्थ मांसपिण्ड ) से सम्बद्ध दैत्यलक्ष्मी मानों विष्णु द्वारा गृहीत अपने हस्तकमल का ( आहरण करने के लिये ) अनुगमन कर, रही थी-मैंने यह भी देखा है ॥२१॥ अथ सृष्ट्युपक्रममपि जानामीत्याहतं च हिरण्णक्खस्स वि सुमिरामि महावराहदाढ़ाभिण्णम् । महिमण्डलं व तुलिअं उक्खअहिअगिरिबन्धणं वच्छपडम् ॥२२॥ [तच्च हिरण्याक्षस्यापि स्मरामि महावराहदंष्ट्राभिन्नम् । महीमण्डलमिव तुलितमुत्खातहृदयगिरिबन्धनं वक्षस्तटम् ॥] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "१२४ ] सेतुबन्धम् [चतुर्थ अहं तच्च हिरण्याक्षस्यापि दैत्यस्य वक्षस्तटं महावराहदंष्ट्राभिन्नं विदारितं सत्तुलितमुत्तोलितं स्मरामि । महीमण्डलमिवेति सहोपमा । यथा तद्दष्ट्रया तुलितं महीमण्डलं स्मरामि तथेदमपीति । द्वयमपि मदग्ने वृत्तमिति भावः । वक्षस्तटं कीदृशम् । उत्खातमुन्मूलितं हृदयं बुक्करूपं वक्षोवति मांसखण्डं तदेव महत्त्वादगिरिस्तस्य बन्धनमवष्टम्भो यत्र । तद्वक्षसि दंष्ट्राभिन्ने हृत्पुण्डरीकखण्डमपि बहिर्गतमित्यर्थः । महिमण्डलमपि दंष्ट्रायोत्थापनदशायां गिरीणामितस्ततो विशीर्य पतितत्वादुत्खातगिरिवन्धनमभूदिति साम्यम् ॥२२॥ विमला-जैसे महावराह की दंष्ट्रा से उठाये गये, अतएव शिथिल पर्वतबन्ध वाले महीमण्डल को वैसे ही महावराह की दंष्ट्रा से विदीर्ण, अतएव उन्मूलित हृदय-(हृदयस्थ मांसखण्ड )-रूप पर्वतबन्ध वाले हिरण्याक्ष के वक्षःस्थल को भी याद रखता हूँ-( दोनों मेरे आगे हुआ है ) ॥२२॥ वृद्धोक्तं परिणामसुरसमतस्तदेवाचरणीय मित्याह धीरं हरइ विसाओ विण जोव्वणमओ अणको लज्जम् । एक्कन्तगहि अवक्खो कि सीसउ जंठवे वपरिणामो॥२३॥ [धैर्य हरति विषादो विनयं यौवनमदोऽनङ्गो लज्जाम् । एकान्तगृहीतपक्षः किं शिष्यतां यत्स्थापयति वयःपरिणामः ॥] एकान्ततस्तत्त्वतो गृहीतः पक्ष: सिद्धान्त इदमित्थमेवेति निर्णयरूपो येन तादृशो वयःपरिणामो वार्धकं कर्तृ विषादो धैर्य, यौवनमदो विनयमनङ्गो लज्जां हरतीत्येवमादिप्रकारेण यत्स्थापयति स्थिरीकरोति । निर्धारयतीति यावत् । तत्कि शिष्यतां कथ्यताम् । एतावदेवेत्यवशिष्यतां परिशिष्यतां वा। वार्ध के बहुविषयज्ञानेन बहुषु परिच्छेद इति बहुतरत्वादुपदेष्टुमशक्यत्वाच्चेति भावः । तथा च मम सर्वत्र परिच्छेदात्मकं ज्ञानमिति गच्छंस्तुणस्पर्शन्यायेन विषादस्य धैर्यनाशकत्वं परिशिंषन्भवतां विषादेन धैर्य नास्तीति कटाक्षयामास । केचित्तु-एकान्ततोऽसाधारण्येन गहीतः पक्षो येनेति विषादादित्रयविशेषणं किमपि न तिष्ठतीत्येवंरूपेण वयःपरि. गामविशेषणं वा । तथा च विषादो धैर्यमेव यौवनमदो विनयमेवानङ्गो लज्जामेव हरति वयःपरिणामस्तेषु यत्स्थापयति तत्कि शिष्यतां परिशिष्यतां वा। अपि तु न किमपि स्थापयति । तथा च विषादादित्रयमेकैकमेव धैर्यादिकं हरति वय:परिणामस्तु त्रितयमपि हरतीति गूढाभिसंधिरयमित्यर्थमाहुः ॥२३॥ विमला-निरपवाद रूप से सिद्धान्त को ही ग्रहण करने वाला वार्धक्य "विषाद धैर्य को, यौवनमद विनय को और अनङ्ग लज्जा को हरता है' इत्यादि 'प्रकार से जो निर्धारित करता है उसे क्या कहा जाय ? ( वार्धक्य के बहुविध अनुभवों को कहाँ तक कहा जा सकता है ? ) ॥२३॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १२५ वृद्धोपहासः क न युज्यत इत्याह अणहूअमुणेअग्व विहडिअविसमक्खरे वि संघडिअत्थे । जोवणमूढपहसिए मा अवमण्णह जरापरिण उल्लाणे ॥२४॥ [ अनुभूतज्ञातव्यान्विघटितविषमाक्षरानपि संघटितार्थान् । यौवनमूढप्रहसितान्मावमन्यध्वं जरापरिणतोल्लापान् ॥] जरया परिणतान् गलद्रूपत्वेनादृढान् । उपहसनीयताप्रयोजक रूपमिदम् । अथ च परिणतानूहापोहसमर्थानुल्लापान्मा अवमन्यध्वं मा अनास्थाविषयीकुरुत । जरापरिणतस्योल्लापानिति वा । कीदृशान् । भनुभूतो ज्ञातव्यभागो येषु तान् । मया सर्वमिदमनुभूयोच्यत इति भावः । अथ चानुभूते सति ज्ञातव्यान् । वृद्धवचनमनुभवानन्तरं ज्ञायत इति भवद्भिरप्यनुभूय ज्ञातव्यं यन्मयोक्तमिति तात्पर्यम् । एवं विघटितानि विषमाक्षराण्यपसिद्धान्तवचनानि येषु । सिद्धान्तसहितानीत्यर्थः । एवं संघटितोऽर्थों वाच्यो येषां तान् । यद्वा विघटितमेकदेशरहितमनभिव्यक्तं विषमाक्षरं कठिनाक्षरं येषु तथाभूतानपि संघटितार्थान् संघटितवक्तव्यान् । तथा च दन्तादिवेक्लव्येन विषमवर्णानां सम्यगुच्चारणाभावेऽपि वक्तव्यार्थसुश्लेषादवमानना कतुन युज्यत इत्यर्थः । अत एव यौवनमूढ रुपहसितान् । वृद्धवचनं वर्णविकलत्वेन' युवान एवोपहसन्तीत्यर्थः ॥२४॥ विमला-(दांतों की विकलता के कारण) कठिन वर्गों का सम्यक् उच्चारण न होने पर भी वृद्ध पुरुष का आक्षेपयुक्त भाषण जीवनोपयोगी ज्ञातव्य बातों से पूर्ण होता है, जिसका ज्ञान अनुभव के अनन्तर ही होता है । अतः मूर्ख युवक ही उसका उपहास करते हैं, तुम सब उसकी उपेक्षा मत करो-ध्यानपूर्वक सुनकर तदनुसार आचरण करो ॥२४॥ वानराणां जिगीषावृद्धये सुग्रीवोत्कर्षमुखेन तदपकर्षमाह तुज्झ भुआसु णिसण्यो हरिसत्थो पब्बलो सुराण वि समरे । मारुअलद्धत्थामो ओवग्गइ महिरओ वि ता दिअसअरम् । २५॥ [तव भुजयोनिषण्णो हरिसार्थः प्रबलः सुराणामपि समरे । मारुतलब्धस्थामोऽवक्रामति महीरजोऽपि तावद्दिवसकरम् ॥] तव भुजयोनिषण्णः कृताश्रयो हरिसार्थः सुराणामपि समरे प्रबलः । सुरानपि जेतुं समर्थ इत्यर्थः । अर्थान्तरं न्यस्यति-मारुताल्लब्धं स्थानं स्थैर्य येन तथाभूतं महीरजो धूलिरपि दिवसकरमवक्रामत्याच्छादयति । समर्थावलम्बेनासमर्था अप्यतिसमर्थान भिभवन्तीत्यर्थः । प्रकृते मारुतप्रायो भवान् धूलिप्राया: कपयः रवि Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२६ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ प्रायो रावणः । तथा चेत्थं चाञ्चल्यमाचरन्तु कपयः कार्य तु भवदवष्टम्भाधीनमेवेति भावः ॥२५॥ विमला-यह कपि-समूह तुम्हारी ( सुग्रीव की) भुजाओं का अवलम्बन प्राप्त कर युद्ध में सुरों को भी जीत सकता है। पृथिवी का रज भी वायु से शक्ति “पाकर सूर्य को आच्छादित करता है। विमर्श-अर्थान्तरन्यास अलंकार है ।।२।। येन प्रकारेण कार्य भवद्भिः कर्तुमारभ्यते तेन किमपि न सेत्स्यतीत्याह कि उण दुप्परिअल्ला मज्जाआइक्कमुप्पहवलिज्जन्ता । उअहि व्व सारगरुआ घडिया वि विसंघडन्ति कज्जालावा ॥२६॥ [किं पुनर्दुष्परिकलनीया मर्यादातिक्रमोत्पथवल्यमानाः। उदधय इव सारगुरवो घटिता अपि विसंघटन्ते कार्यालापाः ॥] किं पुनः । किमधिकं वाच्यमित्यर्थः । मर्यादातिक्रमेणासत्प्रकारेणोत्पथेन अवमंना वल्यमानाः साध्यमानाः कार्यालापा घटिता अपि सिद्धा अपि विसंघटन्ते असिद्धा भवन्ति । तथा चासिद्धाः सेत्स्यन्तीति का प्रत्याशेति भावः । किं भूताः । दुष्परिकलनीयाः विसंघटनानन्तरं दुर्घटनीयाः इत्थंकर्तव्यतया दुरवधारणीया वा। एवं सारेण प्रयोजनेन गुरवः । दृष्टान्तयति-उदधय इव । यथा समुद्रा मर्यादातिक्रमेण वेलालङ्घनेनोत्पथे वल्यमानाः प्राप्यमाणाः सन्तो घटिता ऋजुप्रवाहप्रवृत्ता अपि विसंघटन्ते इतस्ततश्चारिणो भवन्ति तेऽपि दुष्परिकलनीया दुरवपाहनीयाः । सारेण रत्नादिना गुरवः । तथा च 'सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यतवं इत्यनुसारेण न्यवहर्तव्यम् ॥२६॥ विमला-अधिक क्या कहूँ, कार्यविषयक सम्भाषण सप्रयोजन अतएव महत्त्वपूर्ण होते हैं, किन्तु वे जब मर्यादा का अतिक्रमण कर गलत ढंग से किये नाते हैं तो [ घटित ] सिद्ध होते-होते भी विसंघटित ( असिद्ध ) हो जाते हैं और तदनन्तर उनके करने के ढंग का अवधारण करना कठिन हो जाता है, जैसे समुद्र रत्नादि से गौरवशाली होते हुए भी मर्यादा का अतिक्रमण कर बुरे मार्ग पर बढ़ जाते हैं तो पहिले सरल प्रवाह में प्रवृत्त होकर भी इधर-उधर फैल जाते हैं और दुरव. गाहनीय हो जाते हैं ॥२६॥ युष्माकं ज्ञानान्मदीयं ज्ञानमधिकमिति मत्परामर्शेण व्यवहर्तव्यमित्याह परचक्खा हि परोक्खं कह वि तुलग्गघडिआहि आगमसुद्धम् । संचालिअणिक्कम्पं अणहाहि वि मह सुअं चिअ गरुअम् ॥२७॥ [प्रत्यक्षात्परोक्षं कथमपि तुलाग्रघटितादागमशुद्धम् । संचालितनिष्कम्पमनुभूतादपि मम श्रुतमेव गुरु ॥] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१२७ युष्माकमनुभूतादनुभवादपि । भावे क्तः । मम श्रुतमेव श्रुतमध्ययनं शास्त्रं वा तज्जन्यज्ञानमेव गुरु अधिकम् । अनुभूतात्कीदशात् । प्रत्यक्षात इन्द्रियप्रत्यासत्तिजन्यात् । श्रुतं कीदृशम् । परोक्षं इन्द्रियप्रत्यासत्यजन्यम् । एवं कथमपि कादाचिस्कतया तुलाग्रं काकतालीयसंवादस्तेन तन्न्यायेन घटितादुत्पन्नसंवादात् । आगमेन वेदपुराणादिना शुद्धमविसंवादिनिर्धारणरूपम् । तथा च संचालितम् । अहार्याप्रामाण्यशङ्कादोलायितमपि निष्कम्पमसकृत्संवादेन गृहीतप्रामाण्य मिति यथायोग्यमुभयविशेषणम् । तथा च तादृशानुभवस्यानुमानादिजन्यपरोक्षज्ञानापेक्षयान्तरङ्गेन्द्रिय प्रत्यासत्तिजन्यत्वेनौत्सर्गिकगौरवसामग्रीसत्त्वेऽपि सदोषपुरुषसंबन्धित्वेनौत्सर्गिकभ्रमत्वेन कादाचित्कसंवादित्वम् अतस्तदपेक्षया मदीश्रुतजन्यज्ञानस्य परोक्षरूपत्वेऽपि निर्दोषपुरुषप्रणीतागमसापेक्षत्वेन सर्वथासंवादित्वमिति मदुक्त्यनुसारेण व्यवहर्तव्यमिति समस्ताखण्डलकार्थः ॥२७॥ विमला-मेरा शास्त्रजन्य ज्ञान परोक्ष होता हुआ भी वेद-पुराणादि-सम्मत एवं शुद्ध है। यह संचालित है अर्थात इसके विषय में यह संशय हो सकता है कि यह स्थिर है अथवा अप्रामाणिक है, तथापि निष्कम्प ( अटल ) है। यह उस अनुभूत प्रत्यक्ष ज्ञान से कहीं गौरवशाली है जो काकतालीय न्याय से कभीकभी ही अनुकूल सिद्ध होता है ॥२७।। दशकन्धरे वैरिणि परस्परनिरपेक्षं सामर्थमप्रयोजकमिति 'संहतिः कार्यसाधिका' इति मदीयश्रुतानुसारेण सर्वे मिलित्वा व्यवहरन्तु न पृथक्पृथगित्याह जं साहेन्ति समत्था समसारपरक्कमा ण तं णिम्वडिआ। एको पअवेज्ज वढं मिलिआ उण विणअरा खवेन्ति तिहुअणम् ।।२८।। [ यत्साधयन्ति समस्ताः समसारपराक्रमा न 'तन्निर्वलिताः'। एकः प्रतपेढ्ढं मिलिताः पुनर्दिनकराः क्षपयन्ति त्रिभुवनम् ॥] समौ तुल्यौ बालपराक्रमी येषां ते समस्ता मिलिताः सन्तो यत्कार्य साधयन्ति निर्वाहयन्ति अत एव निर्वलिता: परस्परं पृथक्पृथग्भूता एकाकिनः सन्तस्तदेव कार्य न साधयन्ति । न साधयितुं शक्नुवन्तीत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तमाह-एको दिनकरस्त्रिभुवनं दृढं प्रतपेत् प्रतापयेत् परं मिलिताः पुनः समानशीला द्वादशदिनकराः प्रलये त्रैलोक्यमपि क्षपयन्ति भस्मसात्कुर्वन्ति । तथा चैकस्मात्संतापमात्रं मिलितेभ्यस्तु भस्मीभाव एवेत्येकाकिनैव मया साध्यमिति सुग्रीवोक्तमनुषङ्गेण दूषितवान् ॥२८॥ विमला-समान बल और पराक्रम वाले मिलकर जिस कार्य को सिद्ध कर लेते हैं, उसी को असंघटित होकर पृथक्-पृथक रूप से वे सिद्ध नहीं कर सकते । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] सेतुबन्धम् [चतुर्थ एक सूर्य तप भले ही ले ( भस्मसात् नहीं कर सकता ) किन्तु ( प्रलय में) बारह सूर्य मिलकर त्रैलोक्य को भी भस्मसात् करते हैं। विमर्श-'दृष्टान्त' अलंकार है ॥२८॥ उत्साहोऽपि देशकालानुसारी फलं जनयतीत्याह ओवग्गइ अहिमाणं पडिदक्खस्स वि ण तारिसं देइ भअम् । अमरिसगहिओ व्व सरो विदाइ अभाअसंधिओ उच्छाहो ॥२६॥ [ अवक्रामत्यभिमानं प्रतिपक्षस्यापि न तादृशं ददाति भयम् । अमर्षगृहीत इव शरो विद्रात्यभागसंहित उत्साहः ।।] अभागे अस्थाने संहितो नियोजित उत्साहो विद्राति कुत्सितो भवति । 'द्रा कुत्सायाम्' धातुः । एवमभिमानं गर्वमास्कन्दति । शत्रोरपि तादृशं भयं न जनयति । तथा च स्वाहंकारवर्धकः शत्रुभयजनकश्च फलाविसंवादी उत्साहो विधातव्य इत्यर्थः । क इव । शर इव । यथामर्षेण गृहीतः शरोऽभागेऽनपणीयस्थाने संहिता सन्विद्राति । लक्षं न विध्यतीत्यर्थः। सोऽपि लक्षमविध्यन्प्रहर्तुरभिमानास्कन्दी शत्रुभयाजनकश्च भवति । अत एव निष्फल इति भावः ॥२६॥ विमला-[ अस्थाने ] देशकालविरुद्ध नियोजित उत्साह कुत्सित होता है। वह अभियान को नष्ट करता है और शत्रु को भी जैसा चाहिये, भय नहीं दे पाता। है, जैसे अमर्ष से गृहीत बाण अस्थान पर संहित होने से (लक्ष्यवेध न कर सकने के कारण ) प्रहर्ता के अभिमान को नष्ट करता है तथा शत्रु को भी भय नहीं दे पाता ॥२६॥ अतःपरं स्फुटीकृत्य सुग्रीवं प्रत्याशयमुद्धाटयति अ तुमे मोत्त०वं सृढ़ वि तुरिएण धीर पस्थिवचरित्रम् । तुरवन्तस्स रविस्स वि मडइज्ज इ दविखणामणम्मि पाओ ॥३०॥ [ नैव त्वया मोक्तव्यं सुष्ठ्वपि त्वरितेन धीर पार्थिवचरितम् । त्वरमाणस्य रवेरपि मृदूयते दक्षिणायने प्रतापः ।।] हे धीर सुग्रीव ! इ तरजनवत्त्वरितेन त्वया सृष्ठ अपि शोभनमपि पार्थिवचरितं नैव मोक्तव्यम् । राजानः प्रकृत्या धीरा भवन्तीति राजनीतिन त्याज्या। त्वरामहं चेत्करोमि तदा किं स्यादित्याशङ्कयाह-दक्षिणायने त्वरमाणस्य त्वरितगमनस्य रवेरपि प्रतापस्तेजो मृदूयते मार्दवं याति । सहिष्णुताविषयो भवतीति यावत् । तथा च यत्र सत्वरतया भवत्पितुरेव गतिरीदृशी तत्र का वार्ता तवेति धीरतामवनम्बस्वेति भावः ॥३०॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१२६ विमला-बीर ! ( सुग्रीव ! ) शीघ्रता-वश तुम्हें नृपचरित ( राजनीति ) का परित्याग भी नहीं करना चाहिये । दक्षिणायन के प्रति त्वरित गमन करने वाले ( तुम्हारे पिता ) सूर्य का भी प्रताप मृदु हो जाता है ।।३०॥ शत्रुजिगीषया केवलमियमधीरतावलम्ब्यत इत्याशङ्कय निराकरोतिकि अइराएण इमा अमग्गसमरसुहचिन्तिप्रकहाहि का। पहरिसपणामिप्रमुही गोतक्खलणविमण व्व वे जअलच्छी ॥३१॥ [किमतिरागेणेयममार्गसमरसूखचिन्तितकथाभिः कृता । प्रहर्षप्रणामितमुखी गोत्रस्खलनविमना इव ते जयलक्ष्मीः ॥] कि वितर्के । राग इच्छा द्वेषो वा। तथा च ते त्वया इयं जयलक्ष्मीरतिरागेणात्यन्तयुद्धेच्छया शत्रावतिद्वेषेण वा निमित्तेन अमार्गेणावर्त्मना यदा यत्कर्तुन युज्यते तदा तदौद्धत्यकरणरूपेण समरसुखाय चिन्तिताभिर्बुद्धिविषयीकृताभिरिदानीमाचरिताहंकारप्रकाशरूपाभिः कथाभिः करणभूताभिर्गोत्रस्खलनेन विमना विमनस्का या कामिनी तादृशीव कृता सा यथा समीपमागच्छन्त्यपि नायकस्य प्रतीपनायिकायामत्यनुरागेणामार्गे आगन्तुकनायिकासांनिध्यादस्थाने सुरतसङ्ग्रामसुखात् पूर्वोत्पन्नाच्चिन्तिताभिस्तत्कथाभिः यद्वा अमार्गेण परस्त्रीविषयकत्वादवम॑ना यत्सुरतसुखं तेन चिन्तितकथाभिर्जातं गोत्रस्खलनं श्रुत्वा नायकदर्शनात्प्रणामितमुखी व्रीडया मुखनमनात् पुन याति तथेयमपि प्रहर्षेण भवदौद्धत्योत्साहरूपेण प्रणामितमवनतीकृतं मुखमुपक्रमो यस्यास्तथाभूता स्वल्पदिनसाध्यतया निकटवर्तिन्यपि नागमिष्यतीत्यर्थः । तस्माद्यदि जयश्रीरुद्देश्या तदासामेकमौद्धत्यं नाचरणीयमिति भावः ॥३१॥ विमला-जैसे कोई नायक परस्त्री में अत्यन्त अनुराग के कारण अनुचित मार्ग द्वारा लब्ध सुरत-सुख की बात मन में बसी रहने से अकस्मात् उस परकीया का नाम मुंह से निकाल कर समीप आती अभीष्ट नायिका को खिन्न कर अपने प्रहर्ष से अवनतमुखी बना देता है और वह फिर उस ( नायक ) के पास नहीं आती है उसी प्रकार तुमने [ अतिरागेण ] युद्ध की इच्छा से अथवा शत्रु के प्रति अत्यन्त द्वेष से क्यों अनुचित प्रकार से समरसुख के लिये औद्धत्य प्रकट कर (निकट आयी हुई ) जयलक्ष्मी को खिन्न और औद्धत्य एवम् उत्साहरूप प्रहर्ष से अवनतमुखी कर दिया ( वह अब तुमसे क्यों मिलेगी ?)॥३१॥ औद्धत्य मात्रेकरसता संप्रति न युज्यत इत्याह मा रज्जह रहस रिचा चन्वस्स वि दाव कुमुश्रवणणिप्फण्णो । दूरं णिवलिअगुणो एक्करसस्स कमलेसु विद्दाह जसो ॥३२॥ ६ से० ब० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] सेतुबन्धम् [चतुर्थ [मा रज्यत रभस एव चन्द्रस्यापि तावत्कुमुदवननिष्पन्नम् । दूरं निर्वलितगुणमेकरसस्य कमलेषु विद्राति यशः॥] हे वानराः ! रभस एव सङ्ग्रामोत्कलिकायामेव मानुरक्ता भवत तदुत्थामौद्धत्यैकरसतामपहाय विचारपरा भवतेति भावः । एकरसतया को दोष इत्यत आहचन्द्रस्याप्येकरसस्य कुमुदमात्रप्रकाशतकस्वभावस्य तावत्कुमुदवनेषु निष्पन्नं तत्प्रकाशकत्वेनाखण्डितम्, एवं दूरं व्याप्य निर्वलितः पृथग्भूय प्रकाशितः शैत्यश्वैत्यसुधामयत्वादिगुणो यत्र तथाभूतं यशो जगदालादत्वादिख्यातिः कमलेषु विद्राति कुत्सितं भवति । तदप्रकाशकत्वेन लोकनिन्दाविषयो भवतीत्यर्थः । तथा च भवतामप्योद्ध त्यैकरसताया अपरित्यागेऽविमृश्यकारितया रावणरणे यशो विद्रास्यतीति भावः ॥३२॥ विमला-आवेश में ही तुम सब ( औद्धत्य के प्रति ) अनुरक्त न हो जाओ-औद्धत्य में एकरस न हो जाओ। (कुमुदवन को विकसित करने में ) एकरस चन्द्रमा का भी, कुमुदवनों को विकसित करने से निष्पन्न एवम् दूर-दूर तक प्रकाशित गुण वाला यश कमल वन के विषय में ( उसे विकसित न करने के कारण ) कुत्सित-लोकनिन्दा का विषय होता है ।।३२।। रावणस्य परिजना बलीयांस इति स्वयमेव योद्धमयमुपक्रमः क्रियत इति सुग्रीववचनमाशङ्कयाह कि अप्पणा परिणो परस्स ओ परिप्रण दे पडिवक्खो । सोहइ पस्थिज्जन्तो जिआहिमाणस्स कि जअम्मि वि गहणम् ।।३३।। [किमात्मना परिजनः परस्य उत परिजनेन ते प्रतिपक्षः। शोभते प्रार्थ्यमानो जिताभिमानस्य किं जयेऽपि ग्रहणम् ॥] आत्मना स्वेन परस्य शत्रोः परिजनः प्रार्थ्यमानोऽवरुध्यमानः किं शोभते । उत पक्षान्तरे। तव परिजनेनानुचरेण प्राय॑मानोऽवरुध्यमानः प्रतिपक्षः शोभते । यदि शत्रुपरिजनो मयावरुद्धस्तदा को दोष इत्यत आह-जिताभिमानस्य असमेन समं साम्येनाधःकृताहंकारस्य पुरुषस्य जयेऽपि जाते किं ग्रहणं परेषां क आदरः । न्यूनकक्षजयेन प्रकर्षाभावात् । यद्वा जयेऽपि वस्तुनि क आदरः श्लाघा। स्वस्य यथाहंकारे उपेक्षा तथा जयेऽपीति जयोत्पत्तिर्न स्यादेवेति भावः । तथा च स्वेन शत्रुपरिजनावरोधे तेन जिते स्वस्य क्षतिरपकर्षश्च । स्वेन तु जिते उत्कर्षाभावस्तत्प्रभुसत्त्वे लाभाभावश्च । स्वपरिजने तु शत्रुसंरोधे शत्रुणा जिते परिजनभङ्गे. नापकर्षाभावः स्वसत्तया क्षत्यभावश्च । परिजनैस्तु जिते तैरेव प्रतिपक्षो जित इति महानुत्कर्षो लाभश्चेति स्वयमहंकारमवलम्ब्य स्थीयताम, परिजना एव सर्वं करिष्य Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १३१ न्तीति समस्तखण्डलकार्थं । 'प्रार्थितः शत्रुसंरुद्धे याचितेऽभिहितेऽपि च ।' 'ग्रहणं त्रयमिच्छन्ति ज्ञानमादानमादरम्' ॥३३॥ - विमला - क्या 'तुम ( कपिराज सुग्रीव ) स्वयं शत्रु के परिजन को अवरुद्ध करो' - यह अच्छा है अथवा 'तुम्हारा परिजन शत्रु को अवरुद्ध करे' – यह अच्छा है ? ( स्पष्ट है कि प्रथम पक्ष अच्छा नहीं है, क्योंकि शत्रुपरिजन के साथ समता करने से ) तुम्हारा अभिमान अपकृष्ट हो गया तो तुम्हारी जय के प्रति लोगों का क्या आदर ? ( शोभा तो इसी में है कि तुम साभिमान बैठे रहो और तुम्हारा परिजन शत्रु को अवरुद्ध कर विजय प्राप्त करे ) ॥३३॥ उत्कर्षमुखेनापकर्षं प्रदर्शयन्सुग्रीवं निवर्तयन्नाह - हणमन्ताइसएणं हणुमन्तमहाण वागराण अ वइणा । घीर अणिव्वलमजसं काअव्वं कि तुमे वि मारुइसरिसम् ॥ ३४॥ [ हनुमदतिशयितेन हनुमन्मुखानां वानराणां च पत्या । धीर अनिर्वलितयशः कर्तव्यं किं त्वयापि मारुतिसदृशम् ||] हे धीर पण्डित धैर्यशीलवन् ! त्वयापि किं मारुतिसदृशं कर्तव्यं समुद्रलङ्घनादि । हनुमत्सदृशं त्वया कर्तुं न युज्यत इत्यर्थः । कथं न युज्यत इत्यत आह— त्वया कीदृशेन । हनूमतोऽधिकेन । कुत इत्यत आह- हनूमत्प्रमुखानां कपीनामीश्वरेण । मारुतिसदृशं कीदृक् । अनिर्वलितमपृथग्भूतं यशो यस्मात् । तथा च प्रभोः परिजनकृतस्य करणे प्रकर्षाभावः । प्रत्युताकरणेऽपकर्ष एव । अत एव त्वया मारुतिसदृशं किंकर्तव्यम् । अपि तु न कर्तुं शकनीयम् अपृथग्भूतं यशोयस्मादिति । यतस्तत्कृतसमुद्रलङ्घनाद्यपेक्षया किमपि न प्रकर्षहेतुरिति समुद्रलङ्घनं त्वत्कृतमेव कर्मान्तरं तत्सदृशमेव नेति गूढोऽभिसंधिरिति सर्वथा स्वयमौद्धत्यान्निवर्तस्वेति भावः ||३४|| विमला - धीर ! ( सुग्रीव ! ) तुम्हें समुद्रलङ्घनादि हनुमान् के कार्य करना युक्त नहीं है, क्योंकि हनुमानादि वानरों के तुम स्वामी हो; अतएव हनुमान् से बहुत अधिक महान् हो, दूसरे वैसा करने से वही यश प्राप्त होगा जो हनुमान् को प्राप्त हुआ है, उससे पृथक कोई विशिष्ट यश मिलने को नहीं ( तो हनुमान् से तुम्हारी समता कोई अर्थ नहीं रखती है ) ||३४|| कार्यं तथा व्यवसीयते यथा सिध्यत्येवेत्याह- कह तम्मि विलाइज्जइ जम्मि अइण्णष्फला अदूरपसरिआ । पडिअम्मि दुमे व्व लग्ना स चिचम अण्णं पुणो वि लग्गइ आणा ॥३५॥ [ कथं तस्मिन्नपि लाग्यते यस्मिन्नदत्तफला अदूरप्रसृता । पतिते द्रुम इव लता सैवान्यं पुनरपि लगत्याज्ञा ( ' पुनर्विलगति' वा ) ॥] तस्मिन्नपि विषये आज्ञा कथं लाग्यते नियुज्यते । नियोजयितुं न युक्तेत्यर्थः । यस्मिन्नधिकरणे न दत्तं फलं कार्यसिद्धिर्यया तथाभूता सती न दूरं व्याप्य प्रसृता - Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२' ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ क्यातिमुपागता । एवं सति सैव पुनरन्यं पुरुषं लगति । केव । लतेव । यथा लता प्रथमाश्रयीभूतद्रुमे पतिते सति यस्मिन्दुमे आरोपिता अदत्तफला अदूरप्रसृता च सती पुनरन्यद्रुमे आरोपणीया भवति । तस्मिन्द्रमे प्रथमत एवं नारोप्यते । यद्वा यथा प्रथमं यस्मिन्नारोपिता अथ पतिते तस्मिन्नदत्तफला अप्रसरणशीला च भवति तथा सति पुनरन्यत्रारोपणीया भवतीत्यर्थः । तथा च यत्पुरुषेऽपिताज्ञा कार्यप्रसरणाद्यभावेन पुनरन्यत्रार्पणीया भवति तत्पुरुषे नार्यंत एवेति । त्वय्यध्येवम विमृश्यकारितया रामाज्ञा तथैव स्यादिति भावः ॥ ३५ ॥ गिर गया और विमला -- जिस वृक्ष पर लता आरोपित की गयी वह वृक्ष लतान फल दे सकी एवं न दूर तक फैल सकी । ऐसी स्थिति में वह लता अन्य वृक्ष पर आरोपित की जाती है, उसे प्रथम वृक्ष पर पुनः आरोपित करना युक्त नहीं होता । उसी प्रकार जिस पुरुष को अर्पित की गयी आज्ञा न कार्यसिद्धिरूप फल दे सके और न दूर तक ख्याति को ही प्राप्त कर सके उसे उस पुरुष को अर्पित ही नहीं करना चाहिये, वह आज्ञा दूसरे को अर्पित की जानी चाहिये ||३५|| रावणवधं प्रति निजसामथ्यं संदेहमपाकरिष्णुः पुनरयमौद्धत्यमाचरेदित्याशङ्कय प्रकारान्तरेण निवर्तयति - हन्तुं विमग्गमाणो हन्तुं तुरिअस्स अप्पणा दहवअणम् । कि इच्छसि काउं जे पवअवइ पिअं ति विष्पिअं रहुवइणो ॥ ३६ ॥ [हन्तुं विमृग्यन् हन्तुं त्वरितस्यात्मना दशवदनम् । किमिच्छसि कर्तुं यत्प्लवगपते प्रियमिति विप्रियं रघुपतेः ॥] हे प्लवगपते ! रघुपतेः प्रियमिदमिति कृत्वा विप्रियं कर्तुं किमिच्छसि । किं कुर्वन् । दशवदनं हन्तुं विमृग्यन्निच्छन् । रघुपतेः कीदृशस्य । आत्मना स्वयमेव दशवदनं हन्तु सत्वरस्य । तथा च त्वत्कर्तृ के रावणवधस्य प्रियत्वेऽपि मयैव रावणो हन्तव्य इति प्रतिज्ञाभङ्गरूपत्वेन विप्रियत्वम् । एवं च तव रावणवधे सामर्थ्य मेव किं तु रामप्रतिज्ञाभङ्गरूपत्वेन कर्तव्यमिति भावः ॥ ३६ ॥ विमला - हे कपिपते ! 'रघुपति को यह प्रिय है' - ऐसा समझकर रावण को मारने की इच्छा करके तुम राम का अप्रिय क्यों करना चाहते हो ! जबकि राम स्वयम् उस रावण का वध करने को उकताये हुए हैं ||३६|| अथ रामं प्रति जाम्बवद्वघापारेण प्रकृतमुपसंहरति इअ णिअमिअसुग्गीवो रामन्तेण वलिओ पिआमहतणओ । परिमठमेरुसिहरो सूराहिमहो व्व पल अधू मुप्पीडो ॥ ३७॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ इति नियमितसुग्रीवो रामान्तेन वलितः पितामहतनयः । परिमृष्टमेरुशिखरः सूर्याभिमुख इव प्रलयधूमोत्पीडः ॥ ] आश्वासः ] इत्यनेन प्रकारेण नियमितो नियन्त्रितः सुग्रीवो येन स पितामहतनयो ब्रह्मणः पुत्रो जाम्बवान् रामान्तेन वलितः । रामपार्श्वेन वक्रीभूयाभिमुखीभूत इत्यर्थः । प्रलयधूमोत्पीड इव यथा प्रलयधूमसमूहः परिमृष्टमास्फालितं मेरुशिखरं येन तथाभूतः सन्सूर्यस्याभिमुखो भवति । स्थिरत्वादुत्तुङ्गत्वात्कपिलत्वाच्च शिखरप्रायः सुग्रीवः । तेजोमयत्वात्सूर्य प्रायो रामः । श्यामत्वादुत्थितत्वाच्च धूमप्रायो जाम्ब वान् ॥ ३७॥ [ १३३ विमला - इस प्रकार सुग्रीव को नियन्त्रित कर ब्रह्मा का पुत्र जाम्बवान् राम की ओर मुँह कर ( कुछ वक्ष्यमाण वचन कहने के लिये ) स्थित हुआ; जैसे प्रलय - समूह मेरुशिखर को परामृष्ट कर सूर्याभिमुख होता है ||३७| अथ रामं प्रति जाम्बवद्वाक्यमाह जम्प अ किरणपम्हलफुरन्तदन्त पहाणिहा ओत्थइअम् । विपणअं वहन्तो समूहाग अधवलकेसरसडं व मुहम् ||३८|| [ जल्पति च किरणपक्ष्मलस्फुरद्दन्तप्रभानिघातावस्तृतम् । विनयप्रणतं वहन्संमुखागतधवलकेसरसटमिव मुखम् ॥] जाम्बवान् जल्पति च । रामं प्रतीत्यर्थात् । मुखं वहन् । कीदृशम् । किरणेन तेजसा पक्ष्मला जातपक्ष्मेव पुष्टा अत एव स्फुरन्ती या दन्तप्रभा तस्या निघा - तेन समूहेन व्याप्तम् । जल्पनसमये दन्तकान्तीनां प्रसरणादिति निःक्षोभत्वमुक्तम् । पुनः कीदृक् । विनयेन प्रणतं नम्रम् | अनुजीवित्वात् । संमुखागता वलनसमये विपर्यस्य पतिता धवला केसरसटा यत्र तादृशमिव । दन्तप्रभाणां शौक्ल्यात्केसरस - टात्वेनोत्प्रेक्षणम् ||३८|| विमला - जाम्बवान् ने विनय से प्रणतमुख हो राम से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा । उस समय किरणों से पक्ष्मल ( जातपक्ष्म ) सी ( अतएव पुष्ट ) स्फुरित दन्तप्रभा से उसका मुख व्याप्त हो रहा था और ऐसा लगता था कि प्रणत होने से मानों उसकी धवल केसरसटा ( गरदन के बाल ) उलट कर सम्मुख आ गयी ||३८ ॥ अथ त्रिभिर्वाक्यस्वरूपमाह रक्खज्जइ तेल्लोक्कं पलप्रसमुद्दविहरा घरिज्जइ वसुहा । उअर द्धन्तपत्ते विमुहज्जइ सागरे त्तिविम्हणिज्जम् ||३६|| [रक्ष्यते त्रैलोक्यं प्रलयसमुद्रविधुरा ध्रियते वसुधा । उदरार्धान्तप्रभूते विमुह्यते सागर इति विस्मयनीयम् ॥] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ हे राम ! त्वया त्रैलोक्यं रक्ष्यते । वराहमूर्त्या प्रलयोद्वेलसमुद्रमग्ना वसुधापि धियते । विश्वंभरमूर्तेः स्वस्योदरैकदेश एव प्रभूते सावकाशं स्थिते समुद्रे पारगमनं कथं स्यादिति मोहः प्राप्यत इति विस्मयविषयः । तथा च स्वापकृष्टपरिमाणस्य समुद्रस्य पारगमनमीषत्करमेव भवता किं त्वात्मा परं न स्मर्यंत इति भावः ॥ ३६ ॥ विमला - हे राम ! तुम त्रैलोक्य की रक्षा करते हो । ( वराह रूप से ) प्रलय में समुद्रमग्न वसुधा को धारण करते हो। तुम्हारे उदर के एक भाग में ही समा जाने वाले समुद्र के विषय में तुम मोह को प्राप्त हो – यह विस्मय का विषय है ||३१|| ईषत्करत्वमेव स्फुटयति षणुवावारस्स रणे कुविअक अन्तणिमिसन्तरणिहस्स तुहम् । फुड विज्जु विलसिस्स व आरम्भो चिचम ण होइ कि अवसाणम् ॥४०॥ [धनुर्व्यापारस्य रणे कुपितकृतान्तनिमेषान्तरनिभस्य तव । स्फुट विद्युद्विलसितस्येवारम्भ एव न भवति किमवसानम् ॥] तव धनुर्व्यापारस्य रणे आरम्भ उद्यम एव न भवति । प्रतिपक्षाभावात् । तदभ्यन्तर एवं शत्रुक्षयाद्वा । किं पुनरवसानं समाप्तिः । कीदृशस्य तव । क्रुद्धस्य यमस्य निमेषान्तरं द्वितीयनिमेषस्तत्तुल्यस्य । एक निमेषान्तरं यावत्परो निमेषो भवति तावदभ्यन्तर एव सकलशत्रुनाशादिकार्यनिर्वाहकत्वात् । शत्रुनाशावश्यंभाबलाभाय कुपितपदम् । कस्येव । स्फुटं यद्विद्युद्विलसितं तस्येव । शत्रुसाधने स्वल्प काले व्याप्यत्वात् । देवानां निमेषाभावात् । समाधिरलंकारः ॥ ४० ॥ विमला- तुम कुपित यम के द्वितीय बाद जब तक दूसरा निमेष होता है तव तक हो ) । रण में तुम्हारे स्फुरित विद्युद्विलासतुल्य ही नहीं होता है ( क्योंकि उसके पूर्व ही शत्रुओं का नाश हो जाता है ) अवसान ( समाप्ति ) की क्या बात ! ॥ ४०॥ अध्यवसायमुत्पादयति— निमेष-तुल्य हो ( एक निमेष के सकल शत्रुओं का नाश कर देते धनुर्व्यापार का आरम्भ ( उद्यम ) तो फिर णिव्वुब्भइ पलभरो तोरइ वडवामुहणलो वि विसहिउम् । दिण्णं जेणेअ तुमे कह काहिइ साओरो तह चिअ धीरम् ||४१|| [निरुह्यते प्रलयभरस्तीर्यते वडवामुखानलोऽपि विसोढुम् । दत्तं येनैव त्वया कथं करिष्यति सागरस्तस्मिन्नेव धैर्यम् ॥] यतो धैर्यात्सागरेण प्रलयभरो निःशेष उह्यते संपाद्यते । एवं वडवावह्निरपि विसोढुं शक्यते तद्धेयं येनैव त्वया सागराय दत्तं तस्मिन्नेव त्वयि रामे सागरः Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतूप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१३५ कथं करिष्यति येनागाधतया लऋितुं न शक्यते । तथा च यथा तुष्टे न त्कया धैर्य दत्तमिति सागरस्यैते गुणा वृत्तास्तथा धैर्यधारणतुष्टेन तदपहारोऽपि कर्तुं शक्ष्यत इति विपरीता दोषाः स्युरिति सर्वथा धैर्यमपहास्यतीति भावः ॥४१॥ विमला-जिस धैर्य से समुद्र प्रलयभार का निर्वहण करता है और वडवानल को सहन कर पाता है वह धैर्य तुम्हारा ही दिया हुआ है, तो तुम्हारे ही प्रति वह समुद्र कैसे धैर्य करेगा जो तुम उसे लांघ न सको ॥४१॥ अथ रामस्य कार्यानुकूलं विनयवचनमाह तो पा अडदोव्वल्लं पम्हपिनापहोहरप्फरिससुहम् । वच्छं तमालणीलं पुणो पुणो वामकर अलेन मलेन्तो ॥४२॥ उअहिस्स जसेण जसं धोरं धोरेण गरुप्राइ गरुअअम् । रामो वि थिईअ ठिई भणइ रवेण अ रवं समुप्फुन्दन्तो ॥४३॥ (जुग्गअम्) [ततः प्रकटदौर्बल्यं प्रस्मृतप्रियापयोधरस्पर्शसुखम् । वक्षस्तमालनीलं पुनः पुनर्वामकरतलेन मृदुनन् ।। उदधेयशसा यशो धयं धैर्येण गुरुतया गुरुताम् । रामोऽपि स्थित्या स्थिति भणति रवेण च रवं समाक्रामन् ॥] (युग्मकम्) ततो रामोऽपि भणतीत्युत्तरस्कन्धकेन समन्वयः । किं कुर्वन् । वारंवारं वामकरतलेन वक्षो मृनन्मृषन् । वक्षः कीदृशम् । प्रकटं दौर्बल्यं यत्र तत् । चिरविरहात् । एवं प्रस्मृतं विस्मृतं प्रभ्रष्टं वा प्रियापयोधरयोः स्पर्शसुखं यत्र तादृक । एवं तमालवन्नीलम् परिकाराभावात् । तथा च हे हृदय ! समाश्त्र सिहि जातप्रायस्तवापि दुःखोच्छेद इत्यामर्शने तात्पर्यम् । पुनः किं कुर्वन् । स्वीयेन धीरोदात्तत्वादिगुणप्रसूतेन यशसा उदधेस्तथाविधमेव यशः, स्वीयेन च मर्यादानतिक्रमलक्षणेन धैर्येण तथाविधमेव तस्य धैर्यम्, परानतिक्रमणीयतालक्षणया च निजया गुरुतया तादृशीमेव तस्य गुरुताम्, उच्चावचत्वशून्यतारूपयावस्थित्या तद्रूपामेव तस्य स्थिति समाक्रामल्लघूकुर्वन्नित्यर्थः । तथा चातीव धैर्यादिगुणसंवलितमुक्तवानिति भावः ।। युग्मकम् ॥४२-४३।। विमला-जाम्बवान् का वचन समाप्त होने पर अपने तमालसदृश (श्याम) वक्षःस्थल का, जिसमें (चिरविरह के कारण ) दौर्बल्य प्रकट है तथा जिसे प्रिया के पयोधरों का स्पर्शसुख विस्मृत हो चुका है-वाम करतल से बार-बार स्पर्श करते हुये एवम् अपने यश, धैर्य, गुरुता, स्थिति और रव से क्रमशः समुद्र के Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ यश, धैर्य, गुरुता, स्थिति और रव को लघु करते हुये श्रीराम ने ( वक्ष्यमाण वचन कहा ||४२-४३॥ किं तद्वाक्यं तदाह— दुत्तारस्मि समुद्दे कइलोए विमुहिए ममम्मि विसरणे । हरिवइ तुमे च्चि इमा दुग्बोज्झा वि अवलम्बिआ कज्जधुरा ॥ ४४ ॥ [दुस्तारे समुद्र कपिलोके विमुग्धे मयि विषण्णे । हरिपते त्वय्येवेयं दुर्वाह्याप्यवलम्बिता कार्यधुरा ॥] हे हरिपते सुग्रीव ! इयं समुद्रलङ्घनरूपा कार्यधुरा दुर्वाह्यापि वोढुमशक्याषि त्वय्येवावलम्बिता त्वत्साध्यैव । तदुद्यमः क्रियतामित्यर्थः । तदुपपादकमाहकस्मिन्सति । समुद्रे दुस्तरे दुस्तरणीये सति । अत एव कपिलोके विमुग्धे पारगमनं कथं स्यादिति मोहमापन्ने सति । तत एव च मयि विषण्णे कपिसाध्यमिदं कार्यं कथं स्यादिति विषण्णे सतीत्यर्थः ॥ ४४ ॥ विमला - हे कपिपते ( सुग्रीव ) ! समुद्र दुस्तर है, अतएव ( पारगमन के विषय में ) कपिवृन्द मोह को — किंकर्तव्यविमूढता को प्राप्त हो रहा है, अतएव मैं विषण्ण हो रहा हूँ, ऐसी स्थिति में यह समुद्र लांघने का दुर्वह कार्यभार तुम्हीं पर अवलम्बित है ॥४४॥ अथ पुनरपि जाम्बवानुक्तवानित्याह धीराहि सारगरुअं अलङ्गणिज्जाहि सासअसमुज्जो अम् । रिच्छाहिवाहि वश्रणं रअणं रश्रणाश्रराहि व समुच्छलिश्रम् ॥४५॥ [धीरात्सारगुरुकमलङ्कनीयाच्छाश्वतिकयश उद्दघोतम् । रत्नं रत्नाकरादिव समुच्छलितम् ॥] ऋक्षाधिपाद्वचनं ऋक्षाधिपाज्जाम्बवतो वचनं समुच्छलितमाविर्भूतम् । कीदृशात् । धीराद्धैर्य - शालिनः । एवमलङ्घनीयात्परानतिक्रमणीयात् । वचनं कीदृक् । सारेणार्थेन गुरु अतिशयितम । एवं शाश्वतिकः सार्वदिको यशस उद्द्योतः प्रकाशो यस्मात् । कस्मात्किमिव । रत्नाकराद्रत्नमिव । यथा समुद्राद्रत्नमुच्छलतीत्यर्थः । रत्नाकरादपि कीदृशात् । धीरादलङ्घनीयाच्च । रत्नमपि कीदृशम् | सारेभ्यो धनान्तरेभ्यो गुरुकं महत् । विशेषणान्तरं पूर्ववत् रत्नानामपि यशः प्रकाशकत्वात् । उपादेयत्वमहाशयत्वाभ्यां वचनजाम्बवतो रत्नसागराभ्यां साम्यम् ॥४५॥ विमला - जैसे धीर एवम् अलङ्घनीय रत्नाकर ( समुद्र ) से सार्वकालिक यश को प्रकाशित करनेवाले अन्य धनों से श्रेष्ठ रत्न उछलता है वैसे ही धीर एवम् अलङ्घनीय ( दूसरों से अनितक्रमणीय ) जाम्बवान् से सार्वकालिक यश का प्रकाशक (सार) अर्थ से गौरवपूर्ण वचन उछल पड़ा - आविर्भूत हो उठा ।। ४५ ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् अथ पञ्चभिरुच्छलितवचनस्वरूपमाह— जत्थ परमत्थगरुआ ण होन्ति तुम्हारिसा थिरववट्ठम्भा । महिहरमुक्क व्व मही अत्याअइ तत्थ वित्थरा कज्जधुरा ॥४६॥ यत्र परमार्थगुरवो न भवन्ति युष्मादृशाः स्थिरव्यवष्टम्भाः । महीधरमुक्तेव मही अस्तायते तत्र विस्तृता कार्यधुरा ॥] I परमार्थतः स्वरूपतो गुरवो महान्तो युष्मादृशा यत्र स्थले स्थिरव्यवष्टम्भाः स्थिराया न भवन्ति तत्र विस्तीर्णा कार्यधुरा अस्तायते । कार्यभारो नश्यतीत्युचितमित्यर्थः । महीव महीधरमुक्ता यथा महीधरेण मुक्ता त्यक्ता विसृता मही अस्तायते । वासुकिप्रभृतिनिःश्वासनिर्धूता दिग्गजचरणसंक्रमणतिर्यग्नता च क्वचि - द्गच्छतीत्यर्थः । तथा च तथा यतनीयं यथा कार्यं न नश्यति । प्रकृते भवन्तः स्थिरव्यवष्टम्भा एवेति भावः ॥ ४६ ॥ विमला - जहाँ आप लोगों जैसे स्वरूपतः महान् पुरुष स्थिर आश्रय नहीं होते हैं वही भूधरों से मुक्त पृथिवी की भांति कार्यधुरा नष्ट होती है (यहाँ तो आप जैसे स्थिर आश्रय के होते हुये कार्य बिगड़ जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती है ) ||४६॥ कार्यस्य सुखसाध्यतामाहपडिवत्तिमेत्तसारं [ १३७ कज्जं थोआवसेसिअं मारुणा । संपइ जो च्चेअ उरं देइ पवङ्गाण पिअइ सो च्चेअ जतम् ॥४७॥ [प्रतिपत्तिमात्रसारं कार्यं स्तोकावशेषितं मारुतिना । संप्रति य एव उरो ददाति प्लवगानां पिबति स एव यशः ॥ |] मारुतिना कार्यं स्तोकेनाल्पेनावशेषितमीषत्समाप्तव्यं कृतम् । कीदृशम् । प्रतिपत्तिः सीतावार्ताज्ञानं तन्मात्रं सारं मुख्यं प्रयोजनं यत्र । संप्रति वार्ताज्ञाने सति प्लवगानां मध्ये य एव उरो हृदयं ददाति कर्तव्यमिदमिति प्रतिसंधत्ते स एव यशः पिबत्यास्वादयति । यशोभाजनं भवतीत्यर्थः । तथा च वार्ताज्ञानमेव दुःशकमा - सीत् तत्प्रकृते हनूमता निष्पादितमेव । अतः परं वानराणां चिकीर्षामात्रमपेक्षितमिति भावः । य इत्यनिर्धारितविशेषनिर्देशेन सर्वेषामेव सामर्थ्यमुक्तम् । हृदयं भूमौ दत्त्वा जलं पीयत इति कपिस्वाभाव्यमुक्तम् । 'प्रतिपत्तिः पदप्राप्तो स्वीकारे गौरवेऽपि च । प्रारम्भे च प्रबोधे च प्रतिपत्तिः प्रयुज्यते ॥' इति विश्वः ॥ ४७ ॥ | विमला - हनुमान् ने काम को थोड़ा ही सा शेष रख छोड़ा है, क्योंकि सीता का पता लगाना ही काम का दुष्कर भाग था, उसे उसने कर ही लिया है । अब तो वानरों में जो ही हृदय देगा - इस काम में मन कर देगा वही यश का पान करेगा - यश का भाजन बनेगा । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ विमर्श - वानरों के हृदय देने और यश पीने की बात इसलिये कही गयी है क्योंकि वानर का यह स्वभाव है कि वह भूमि पर हृदय दे कर जल पीता है ॥४७॥ इतिकर्तव्यमाह ता सव्वे चित्र समअं दुत्तारं पि हणुमन्तसुहवोलीणम् । अब्भत्थेम्ह सुरासुरणिव्वू ढब्भत्थणारं मअरहरम् ||४८ ॥ [तावत्सर्व एव समं दुस्तारमपि हनूमत्सुखव्यतिक्रान्तम् । अभ्यर्थयामः सुरासुरनियूँ ढाभ्यर्थनादरं मकरगृहम् ॥] सर्व एव वयं सममेकदैव तावन्मकरगृहं समुद्रमभ्यर्थयामः । पारगमनोपायमर्थात् । नन्वलङ्घनीय एवायमिति कथमिदमित्यत आह-दुस्तारमपि हनूमता सुखेन व्यतिक्रान्तं लङ्घितम् । तथा चास्मज्जातिलङ्घयः स्यादेवेति भावः । नन्वस्माभिर्महद्भिः समुद्रस्याभ्यर्थना कर्तव्येत्ययुक्तमत आह- पुनः कीदृशम् । सुरासुराभ्यां निर्व्यूढो निष्पादितस्तत्तत्कार्यनिमित्तमभ्यर्थनारूप आदरो यस्य तम् । तथा चास्मदपेक्षयापि महत्तरैः कृत मिदमिति भावः । यद्वास्माभिरभ्यथितोऽपि कथं कुर्यादित्यत आह— सुरासुरयोनिव्यूँ ढो निष्पादितोऽभ्यर्थनाया आदरो येन तत् । तत्कार्यनिष्पादनात् । इदमपि तथैवेति भावः || ४८ || विमला - तो ( पार जाने के लिये ) सर्वप्रथम हम सब एक साथ समुद्र अभ्यर्थना करें। ( हमारा ऐसा करना अनुचित न होगा, क्योंकि हम सबसे बहुत बड़े ) सुरों और असुरों ने ( अपने कार्य के लिये ) इसका अभ्यर्थना के द्वारा आदर किया है और इसने भी उनका कार्य पूरा कर उनकी अभ्यर्थना का आदर किया है । ( हम सबके द्वारा लाँघे जाने को इसे अनुचित भी नहीं समझना चाहिये, जबकि ) हनुमान् ( जो हमारे ही परिवार का है ) इस दुस्तर समुद्र को ( एक बार ) लाँघ चुका है ॥ ४८ ॥ एतद्वैपरीत्ये वैपरीत्यमेव स्यादित्याह - ग्रह णिक्कारणगहिअं मए वि अम्भस्थिओ ण मोच्छिहि धीरम् । ता पेच्छह बोलीणं विहुओ नहिजन्तणं थलेग कइबलम् ॥ ४६ ॥ [ अथ निष्कारणगृहीतं मयाप्यभ्यथितो न मोक्ष्यति धैर्यम् । तत्पश्यत व्यतिक्रान्तं विधुतोदधियन्त्रणं स्थलेन कपिबलम् ||] अथ पक्षान्तरे । मयाप्यभ्यथितः समुद्रो निष्कारणं गृहीतं धैर्यं पारगमनव्यलोकरूपं न मोक्ष्यति ततः स्थलेन व्यतिक्रान्तं समुद्रमुत्तीर्णं कपिबलं पश्यत । कीदृशम् । विधुतमुदधिरूपं यन्त्रणं प्रतिरोधकं यस्य तत् । तथा च सत्यस्माभिरेव समुद्रः शोषणीयः क्षेपणीयो वेति भावः ॥ ४६॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १३६ विमला — अथवा हमारी अभ्यर्थना पर भी समुद्र ( हमारे पारगमन को अप्रिय समझ कर ) निष्कारण गृहीत धैर्य ( प्रतिरोध का आग्रह ) को नहीं छोड़ेगा तो ( तत्काल ) समुद्ररूप बन्धन को तोड़ कर ( इसे शुष्क कर ) कपि+ सैन्य को स्थल मार्ग से उस पार गया हुआ आप देखेंगे ||४६ || अवन्ध्यकोपतां दर्शयति- जत्थ महं पडिउत्थो वमिहिइ अण्णस्स कह तर्हि चित्र रोसो | दिठि पाडेह जहि विदिट्ठविसो तं पुणो ण पेच्छइ बिइग्रो ।। ५० । [ यत्र मम पर्युषितो वत्स्यत्यन्यस्य कथं तस्मिन्नेव रोषः । दृष्टि पातयति यत्र दृष्टिविषस्तं पुनर्न पश्यति द्वितीयः ॥ यत्र विषये मम रोषः परि सर्वतोभावेनोषितोऽवस्थितस्तत्रैवान्यस्य जनस्य रोषः कथं वत्स्यति । अपि तु न वत्स्यतीत्यर्थः । मयैव तस्य नाशनीयत्वादिति भावः। अर्थान्तरं न्यस्यति — यत्र जने दृष्टिविषो दृष्टावेव विषं यस्य तादृक्सप दृष्टि पातयति तं जनं पुनद्वितीयो दृष्टिविषो न पश्यति । प्रथमेनैव प्रथमदर्शनात्तस्य भस्मीकृतत्वादित्यर्थः । तथा च प्रतिकूलमाचरन्समुद्रो ममैव क्रोधान्नङ्क्षयनीति रामादिशेषापेक्षापि न स्यात् । तथा सति सुखेन पारमुत्तरिष्याम इति भावः ।। ५० ।। , विमला - जिस पर मेरा क्रोध हो गया उस पर दूसरे का क्रोध कैसे होगा ? ( क्योंकि मेरा ही क्रोध उसे विनष्ट कर देगा दूसरे को क्रोध करने की आवश्य-. कता ही नहीं रहेगी ) । जिस पर दृष्टिविष ( एक प्रकार का सर्प, जिसकी आँख में ही विष रहता है ) दृष्टि डाल देता है, उस मनुष्य को दूसरा दृष्टिविष नहीं देखता है ( क्योंकि पहिला ही अपनी दृष्टि से उसे भस्म कर देता है ॥५०॥ अथ विभीषणागमनेन प्रकृतमुपसंहरन्नाह ताव अ सहसुप्पण्णा णवाअबालिद्धक सणमिहिश्राअम्बा | मउलपहाणु विद्धा श्राढत्ता दीसिउं णिसिश्ररच्छाया ॥ ५१ ॥ [तावच्च सहसोत्पन्ना नवातपाश्लिष्टकृष्णमेधिकाताम्म्रा । मुकुट प्रभानुविद्धा आरब्धा द्रष्टुं निशिचरच्छाया ॥] तावदभ्यन्तरे सहसा अतर्कितमुत्पन्ना निशिचराणां विभीषणादीनां छाया नभःस्थितानामेव कान्तिविशेषस्तैर्द्रष्टुमारब्धा । यद्वा छाया समुद्रे प्रतिविम्बो भूमावातपाभावो वा किमेतदिति जिज्ञासावशादित्यर्थः । छाया कीदृशी । मुकुटस्य प्रभाभिरनुविद्धा संबद्धा । अत एव नवातपेन प्रातः कालीनरविकान्त्या आश्लिष्टा संबद्धाः Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१४०] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ या कृष्णमेधिका नीलमेघखण्डस्तद्वदाताम्रा। तथा च निशाचरच्छायायाः श्यामत्वेन पद्मरागादिविशिष्टमुकुटसंबन्धाल्लौहित्येन च बालातपसंबद्धनीलमेघतौल्यं प्रतिबिम्बातपाभावयोरपि तत एव मुकुटप्रभासंपर्कादिति भावः । 'छाया स्यादातपाभावे प्रतिबिम्बेऽर्कयोषिति' ॥५१।। विमला-उसी बीच में सहसा ( आकाशमार्ग से आते हुये ) निशाचरों की मुकुट-प्रभा से सम्बद्ध ( अतएव ) प्रातःकालीन आतप से सम्बद्ध नील मेघखण्ड के समान हलके लाल वर्ण वाली कान्ति दिखायी देने लगी ॥५१॥ अथ तेषामेव दर्शनमाह तो गमणवेअमारुअमुहलपडद्धन्तणहणिराइअजलए। पेच्छन्ति रविअरन्तरघोलाविअपिहलविज्जले रअणिअरे ॥५२॥ [ततो गमनवेगमारुतमुखरपटार्धान्तनभोनिरायतजलदान् । प्रेक्षन्ते रविकरान्तरघूर्णितपृथुलविद्युतो रजनीचरान् ।।] ततस्ते वानरा रजनीचरान्प्रेक्षन्ते । कीदृशान् । गमनवेगमारुतेन मुखरः सशब्दः पटार्धान्तनभसि निरायता दीर्धीकृता जलदा यस्तान् । मेघानामकठिनद्रव्यतया पवनदी(मृतपटार्धान्तानुस्यूतगतिकत्वा दिति भावः । यद्वा तादृशैः पटार्धान्तनभसि निराकृता बहिःस्फोटिता जलदा येभ्यस्तान् । वस्त्रैरेव मेघानामपाकतत्वादित्यर्थः । पुनः कीदृशान् । रविकरान्तरे रविकिरणमध्ये घूर्णिता: सजातीयसंवलनेन संसगिद्रब्यतया मिथो विमिश्रीकृताः पृथुला विद्युतो यैस्तान् । पटार्धान्तप्रेरितजलदपृथग्भावेन विद्युतां रविकिणमिश्रमित्यर्थः ॥५२॥ विमला-और तदनन्तर वानरों ने रजनीचरों को देखा कि उनके गमनवेग के कारण वायु से उनके वस्त्र फहर-फहर कर रहे हैं और जिससे बादल दीर्घ कर दिये गये हैं एवं विस्तीर्ण विद्युत् सूर्यकिरणों के मध्य में मिश्रित हो गयी है ॥५२।। अथ वानराणां संभ्रममाहतो महअलावडन्ते पलउप्पाअ व्व णिसिअरे अहिलेउम् । उण्णामिप्रगिरिसिहरं चलिरं मणिमण्डलं व वाणरसेण्णम् ॥५३॥ [ततो नभस्तलावपततः प्रलयोत्पातानिव निशिचरानभिलवितुम् ।। उन्नामितगिरिशिखरं चलितं महीमण्डलमिव वानरसैन्यम् ।।] ततो निशाचरदर्शनानन्तरं निशाचरान भिलवितुं च्छेत्तुं उन्नामितमुत्तोलितं गिरिशिखरं येन' तद्वानरसैन्यं चलितमुत्थितम् । किंभूतान् । नभस्तलादापततः । कानिव । प्रलयकालोत्पातानाकस्मिकधूमकेत्वादीनिव । तेऽपि नभस्तलादेवापतन्ति । प्रकृते चोत्पातायमान विभीषणादिभ्यो राक्षसक्षयः स्यादिति भावः । किमिव । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१४ महीमण्डलमिव । यथा कुतश्चित्कारणान्महीमण्डलं स्वचलनादुन्नामितगिरिशिखरं सच्चलतीत्यर्थः ॥५३॥ विमला-तदनन्तर प्रलयकाल के उत्पात (धूमकेतु आदि ) के समान आकाश से उतरते हुये निशाचरों का संहार करने के लिये पर्वतशिखर उठाकर महीमण्डल के समान वानरसैन्य चल पड़ा ।।५३।। अथ विभीषणादीनामवतरणमाह ओसम्मन्तजलहरं विसमटि अकइबलवलन्तालोअम् । दीसइ भमन्तविहडं थाणप्फिडिअसिढिलं पडन्तं व गहम् ॥५४॥ [अवपात्यमानजलधरं विषमस्थितकपिबलवलदालोकम् । दृश्यते भ्रमद्विह्वलं स्थानस्फेटितशिथिलं पतदिव नभः ॥] तदानी नभः पतदिव दृश्यते । तैरित्यर्थात् । कीदृशम् । अवपात्यमाना निशिचरावतरणानुसारेणाधःक्रियमाणा जलधरा यस्मात् । तथा चावपततोनिशाचरमेघयोः श्यामत्वेन बाहुल्येन च नभःपतनमिव लक्ष्यत इति भावः । एवं विषमस्थितमुपरिपतनभिया बहिर्बहिरवस्थितं यत्कपिबलं तस्य वलन्नालोको दर्शनं यत्र । एवं स्थानादवस्थितिप्रदेशात्स्फेटितमवक्षिप्तं सच्छिथिलमदृढमूलम् अत एव भ्रमत्सद्विह्वलं विपर्यस्तम् । सर्वमिदमौत्प्रेक्षिकम् । अन्यदपि स्थानात्प्रेरितं शिथिलमूलतया भ्रमित्वा पततीति ध्वनिः ॥५४॥ विमला-उस समय ऐसा दिखायी पड़ा कि मानों नभ ही स्थान से अवक्षिप्त, शिथिल, चकराता एवं विपर्यस्त होता गिर रहा है, जिससे जलधरों का अवपात हो रहा है और ऊपर गिरने के भय से अलग-अलग खड़े हुये वानरों की दृष्टि उसी ओर लगी हुई है ।।५४॥ अथ हनूमद्वयापारमाहणवरि प्र लङ्कादिठो दिसहाओ विडोसणो मारुइणा । णि अमेऊण कइबलं बोप्रोदन्तो व्व राहवस्स उणियो ।।५।। [अनन्तरं च लङ्कादृष्टो दृष्टस्वभावो विभीषणो मारुतिना। नियम्य कपिबलं द्वितीयोदन्त इव राघवस्योपनीतः।।] तेषामागमनोत्तरं मारुतिना विभीषणो राघवस्योपनीतश्च । कुलं नाम च निरु. च्य साधुरयं भवदीय इत्युक्त्वा निकटं प्रापित इत्यर्थः । कीदृक लङ्कायां दृष्टः । एवं दृष्टः स्वभावः प्रकृतिः स्वीयताभावो वा यस्य तथाभूतश्च । एतेन सम्यक ज्ञातरामभक्तिरित्युक्तम् । किं कृत्वा । राक्षस इति हन्तुमुद्यतं कपिबलं निवार्य । क इव। सीताया द्वितीय उदन्त इव । एक उदन्तः पूर्व प्रापितस्तस्मिन्नधिगते यथानन्दोऽभूत्तथामुष्मिन्नप्यधिगत इति भावः ॥५५॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म४२] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ विमला-उसके बाद हनुमान् (मारने के लिये उद्यत) कपिसमूह को रोककर "विभीषण को श्रीराम के पास ले गये, क्योंकि हनुमान् उसे लङ्का में देख चुके थे और उसके स्वभाव को समझ चुके थे। इस प्रकार मानों हनुमान् ने श्रीराम के पास खीता का यह दूसरा वृत्तान्त पहुंचा दिया ।।५।। अथ विभीषणस्य रामचरणप्रणाममाहचलणोणमणिहुअस्स अ माणेण व करअलेन से रहुवइणा। उण्णामि गणु सिरं जाअं रक्खसउलाहि दूरभहितम् ॥५६॥ [चरणावनतनिभृतस्य च मानेनेव करतलेनास्य रघुपतिना। उन्नामितं ननु शिरो जातं राक्षसकुलाद्राभ्यधिकम् ।। ] चरणावनतस्य निभृतस्य विनयशीलतयानुद्धतस्यास्य विभीषणस्य शिरो रघुपतिना मानेन संमानेनेव करतलेनोन्नामितं चरणद्वयादुत्थापितं सद्राक्षसकुलादूराभ्यधिक महोन्नतं जातम् । यद्वा मानेनाहंकारेणेव । तथा च यथा मानेनोन्नामितं तथा करतलेनापीति सहोपमा। सर्वराक्षसापेक्षया तस्यैव तथाविधरामादरविषयत्वादिति भावः । ननुशब्दोऽवधारणे । अन्यदपि परिमाणेनोन्नामितमभ्यधिकमेव भवतीति ध्वनिः ।।५६।। विमला-चरणावनत एवम् अनुद्धत विभीषण के सिर को श्रीराम ने अपने करतल से ऊपर उठाया, मानों उसे मान से उठाकर राक्षसकुल से महोन्नत बना दिया ॥५६॥ अथ सुग्रीवस्य विभीषणालिङ्गनमाह ववसिप्रणिवेइजत्थो सो मारुइलद्धपच्चआगमहरिसम् । सुग्गीवेण उरत्थलवणमालामलिममहुअरं उवऊढो ॥५७॥ [व्यवसितनिवेदितार्थः स मारुतिलब्धप्रत्ययागतहर्षम् । सुग्रीवेणोरःस्थलवनमालामृदितमधुकरमुपगूढः ॥] स विभीषणः सुग्रीवेण मारुतेर्हनूमत्तो लब्धो यः प्रत्ययो रावणात्पृथग्भूतः स्वीयोऽयमिति विश्वासस्तेनागतहर्ष यथा स्यादेवमुपगूढ आलिङ्गितः । शत्रुगृहभेदेन कार्यसिद्धिनिर्णयादिति भावः । उरःस्थलवनमालायां मिथो वपुर्मिलनान्मृदिताः पीडिता मधुकरा यत्र तद्यथा स्यादित्यपि क्रियाविशेषणम् । विभीषणः किंभूतः । व्यवसितेनागमनेन निवेदितोऽर्थः प्रयोजनं येन । यद्वा व्यवसितस्य रामागमनरूपस्य निवेदितोऽर्थो लङ्काग्रहणोपायो येन तथाभूतः ॥५७।।। विमला-सुग्रीव ने हनुमान् के द्वारा विभीषण का परिचय प्राप्त कर उत्पन्न हर्ष से, आगमन-मात्र के द्वारा प्रयोजन निवेदित करने वाले विभीषण का ऐसा दृढ आलिङ्गन किया कि दोनों के शरीर के मिलने से उरप्रदेश की वनमाला में मधुकर दब कर पीडित हो गये ।।५७ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १४३ अथ वाचिकं प्रसादमाह तो जम्पइ रहुतणमो समयं दससु वि दिसामुहेसु किरन्तो। पप्राइसकस्स धवलं णोसन्दं व हिअअस्स दन्तुज्जोनम् ॥५॥ [ततो जल्पति रघुतनयः समकं दशस्वपि दिङ्मुखेषु किरन् । प्रकृतिसुकृतस्य धवलं निःस्यन्दमिव हृदयस्य दन्तोड्योतम् ॥] ततस्तदनन्तरं रघुतनयो जल्पति । किं कुर्वन् । समकमेकदैव दशस्वपि दिङ्मुखेषु दन्तानामुद्दयोतं किरणं किरन्प्रसारयन् । किंभूतमिव । प्रकृतिशुद्धस्य हृदयस्य धवलं निःस्यन्दमभिप्रायप्रवाहमिव । हृदयस्य शुद्ध तया तदुद्भवाभिप्रायस्याप्युज्ज्वलत्वेन धवलत्वम् । कारणगुणाः कार्यगुणानारभन्त इत्यभिप्रायः ।।५८।। विमला-तदनन्तर श्रीराम ने प्रकृति शुद्ध हृदय के धवल अभिप्राय प्रवाह-सी दाँतों की कन्ति को दसो दिशाओं में एक साथ विकीर्ण करते हुये ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥५८। अथ तद्वचनस्वरूपमाह-- ठावं दवग्गिभीमा वणम्मि वणहस्थिणि व्व परिमग्गन्ती । पेच्छह लद्धासामा मोत्तुं रक्खत उलं ण इच्छह लच्छी ॥५६॥ [स्थानं दवाग्निभीता वने वनहस्तिनीव परिमृग्यन्ती । __पश्यत लब्धास्वादा मोक्तुं राक्षसकुलं नेच्छति लक्ष्मीः॥] हे लोकाः ! पश्यत । राजलक्ष्मी राक्षसवंशं मोक्तुं नेच्छति । अत्र हेतुमाहकीदृशी । लब्धः प्राप्त आस्वादो वाससुखानुभवो यया। तथा च विभीषणश्चेदिहागतस्तदा रावगं हत्वा राज्यमस्मै समर्पणीयमिति भावः । केव । वनहस्तिनीव । वने दवानलभीता वनहस्तिनी दावानतिक्रमणीयं स्थानं परिमृग्यन्ती वन मोक्तुं नेच्छति किं तु वन एव तथाभूतस्थाने तिष्ठति तथेयमपीत्यर्थः । वनहस्तिनी कीदृशी । लब्धः स्वेच्छालभ्यतृणाद्याहारजन्य आस्वादो यया सा । तथा च दावाग्निप्रायो रावणो लोकतापकत्वात् तद्भीता वनहस्तिनीप्राया लक्ष्मीर्वनप्राये राक्षसकुले सुखहेतुस्थानान्तरप्रायं विभीषणमाश्रयिष्यतीत्याशयः ॥६०॥ विमला-देखिये, दावाग्नि से डरी हुई ( अतएव ) उसी वन में ही सुरक्षा हेतु स्थान ढूढती हुई वनहस्तिनी के समान राजलक्ष्मी वाससुख का अनुभव कर चुकने के कारण राक्षसकुल को त्यागना नहीं चाह रही है ( रावण को मारकर राज्य इसी विभीषण को दूंगा ) ॥५६॥ अथ विभीषणाश्वासनमाह णज्जइ विहीसण तुहं सोम्मसहावपरिवडिअं विण्णाणम् । विठिविसेहि व अमअं उमहिस्स णिसापरेहि वि अविद्दविनम्॥६०॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ [ज्ञायते विभीषण तव सौम्यस्वभावपरिवधितं विज्ञानम् । दृष्टिविषैरिवामृतमुदधेनिशाचरैरप्यविद्रावितम् ॥] हे विभीषण ! तव सौम्यस्वभावेन सत्त्वप्रकृत्या परिवर्धितं विज्ञानं विशिष्टज्ञानं निशाचरैरतमोगुणप्रधानैरप्य विद्रावितं सहवासादिनापि न विप्लावितमिति विज्ञायते । तथा च नाम्ना जात्या च विभीषणः स्वभावेन सौम्यो यन्मामुपागतोऽसीति भावः। किमिव । उदधेरमृतमिव । यथा सौम्यस्वभावपरिवधितमुदधेरमृतं दृष्टिविषैः सर्ने विद्राव्यते सहस्थित्यापि न कालकूटी क्रियते न वा दह्यते किं त्वमृतमेव तिष्ठतीत्यर्थः । तथा चामृतप्रायं तव ज्ञानमतः सुखमवाप्स्यसि दृष्टिविषप्राया अन्ये राक्षसा धर्मद्वेषाद्दुःखं लप्स्यन्त इति भावः ।।६।। बिमला-विभीषण ! ( जो तुम मेरे पास आये हो इसी से ) ज्ञात होता है कि तुम्हारा सौम्य स्वभाव से परिवधित विशिष्ट ज्ञान निशाचरों के साथ रहने से भी उसी प्रकार अक्षुण्ण बना हुआ है जिस प्रकार समुद्र का सौम्य स्वभाव परिवधित अमृत दृष्टिविष सर्पो के साथ स्थित होकर भी दग्ध नहीं होता, अमृत ही बना रहता है ॥६०॥ विभीषणस्तुतिमाहसुद्धसहावेण फुडं फुरन्तपज्जत्तगुणमऊहेण तुमे । चन्देण व णि अअमओ कलसो वि पसाहिओ णिसापरवंसो ॥६१॥ [शद्धस्वभावेन स्फुटं स्फुरत्पर्याप्तगुणमयूखेन त्वया। चन्द्रेणेव निजकमृगः कलुषोऽपि प्रसाधितो निशाचरवंशः ॥] हे विभीषण ! त्वया कलुषोऽपि कालुष्य युक्तोऽपि निशाचरवशः स्फुटं व्यक्तं प्रसाधितोऽलंकृत: चन्द्रेण निजक मृग इव । यथा चन्द्रण कलुषोऽपि कलङ्क रूपोऽपि निजको मृगः प्रसाध्यते । आश्रयसौन्दर्येण मृगस्यैव शोभा भवतीत्यर्थः । तथा राक्षस कुले भवानुत्पन्न इति भवदुः कर्षेण तस्योत्कर्ष इति भावः । त्वया चन्द्रेण वा किं भूतेन । शुद्धो निर्मलः स्वभावः प्रकृतिर्यस्य । पक्षे शुद्ध : श्वेतः स्वभावः स्वरूपं यस्य तेन । एवं स्फुरन्तः पर्याप्ता बहवो गुणा: शौर्यादयस्त एव मयूखा यस्य प्रकाशकत्वात् । तेन । मयूख: प्रतापो वा । पक्षे स्फुरन्तो बहवः शैत्यादयो गुणा येषामेतादृशा मयूखा यस्य तेन ॥६१॥ विमला-विभीषण ! जैसे श्वेत स्वरूप वाला तथा शैत्यादि पर्याप्त गुणपूर्ण किरणों वाला चन्द्रमा, कलङ्करूप अपने मृग को सुशोभित करता है, वैसे ही शौर्यादि पर्याप्त गुणरूप किरण वाले तथा निर्मल स्वभाव वाले तुमने अपने कलुषित निशाचर वंश को अलंकृत कर दिया ॥६॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् रामत [१४५ अथ विभीषणस्य कृत्यकौशलमाहकह इर सकज्जकुसला कज्जगई मइगुणे हि अवलम्बन्ता । कुजमाणववठ्ठम्भा ण होन्ति रा असिरिभाणं सप्पुरिसा ॥६२॥ [कथं किल स्वकार्यकुशलाः कार्यगति मतिगुणैरवलम्बमानाः । कुलमानव्यवष्टम्भा न भवन्ति राजश्रीभाजनं सत्पुरुषाः ॥ ] किल निर्णये । सत्पुरुषाः कथं राजश्रियो भाजनं न भवन्ति अपि तु भवन्त्येव । स्वकार्ये कुशला दक्षाः । मतिर्बुद्धिस्तद्गुणैः शुश्रूषादिभिः कार्यगति कर्तव्यकर्मप्रकारमवलम्बमानाः । बुद्धया कार्यसौष्टवं चिन्तयन्त इत्यर्थः । एवं कुलमभिजनो मानोऽहंकारस्तौ व्यवष्टम्भ आश्रयो येषां ते । तदनुसारेण व्यवहरन्त इत्यर्थः । तथा च पुलस्त्यसंततिस्तव कुलं तदनुसारेण वर्तसे भ्रातरमपि मुक्तवानसीति मानी च मन्निकटमागतोऽसीति कार्यानुकूल बुद्धि रसीत्युचितमेव राजश्रीभाजनं भवसि । रावणस्तु पुलस्त्य कुलविरुद्धचरित्र इति विनङक्षयतीति भावः । 'शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं षड्गुणा धीः प्रकीर्तिता' ॥६२॥ विमला-अपने कार्य में कुशल, बुद्धिगुण से कार्य को उचित एवं सत् साधनों से सम्पन्न करने की बात सोचने वाले तथा कुल एवं मान के अनुसार व्यवहार करने वाले सत्पुरुष राजश्री के भाजन होते ही हैं ।।६२॥ रावणानिष्टं व्यञ्जयति लद्धासाएणं चिरं सुरबन्विपरिग्गहे णिसाअरवणा। सीमा रक्खसवसहि विठिविसधरं विसोसहि व्व उवणिआ॥६३॥ [लब्धास्वादेन चिरं सुरबन्दिपरिग्रहे निशाचरपतिना। सीता राक्षसवसतिं दृष्टिविषगृहं विषौषधिरिवोपनीता ॥] निशाचरपतिना रावणेन दृष्टिविषाः सस्तेषां गृहं पातालं विवरं वा विषौषधिरिव विषनाशक मौषधमिव सीता राक्षसवसति लङ्कामुपनीता । यथा सर्पगृहे गद्य(?) रूपविषौषधनिधानेन सर्पा विनश्यन्ति तथा लङ्कायां सीतोपनयनेन राक्षसा विनङ्क्षयन्तीति भावः । रावणेन कीदृशेन । चिरं व्याप्य बन्दीकृतदेवस्त्रीणां परिग्रहे लब्धास्वादेन । तथा च कामोन्मत्तचित्ततया सीतामप्यपहृतवानतो न स्थास्यतीति भावः ।।६३।। विमला-चिरकाल से बन्दी बनायी गयी देवाङ्गनाओं में स्वाद पाकर ( अतएव कामोन्मत्त हो) निशाचरपति रावण लङ्का में सीता को, दृष्ठिविष (सर्प-विशेष ) सो के विवर में विषौषधि के समान ले गया है ( जैसे सर्पगृह में विषौषधि रखने से सपं विनष्ट हो जाते हैं वैसे ही लङ्का में सीता को ले जाने मे भब राक्षस नष्ट होंगे) ॥६३॥ दुष्फलयोगेनोपसंहरन्नाहफिडिआ सुरसंखोहा बन्दिअणक्कन्दिअं गर्भ परिणामम् । जाआ दहमुहगहिआ तिहुवणडिम्बस्स जाणई अवसाणम् ॥६४॥ १० से० ब० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] सेतुबन्धम् [ चतुर्थ [स्फेटिताः सुरसंक्षोभा बन्दीजनाक्रन्दितं गतं परिणामम् । जाता दशमुखगृहीता त्रिभुवनडिम्बस्य जानकी अवसानम् ।।] अतः परं सुराणां संक्षोभाः स्फेटिता अपगताः । सुरबन्दीजनानामावन्दितमपि परिणाममन्त्यदशां गतं प्राप्तम् । अतः परं न भविष्यति । दशमुखेन गृहीता अपहृता जानकी त्रिभुवन डिम्बस्य त्रैलोक्यत्रासस्यावसानमन्तभागो विरामो वा जाता। यतः सीताया रावणावरोध एव त्रिभुवनडिम्बस्यावधिरित्यर्थः । रावणनाशस्य सिद्धप्रायत्वादिति भावः । 'डिम्बौ भये कलकले पुप्फुसेऽपि च कीर्त्यते' ।।६४॥ विमला-रावण ने जो जानकी का हरण किया है, त्रैलोक्य के त्रास का अब अन्त हुआ ही समझिये और यह भी समझिये कि देवताओं का संक्षोभ दूर हो चुका और बन्दीजनों का आक्रन्दन अन्त्य दशा को प्राप्त हो चुका ॥६४॥ अथ विभीषणस्याभिषेकमाह अह अणेसु पहरिसं कण्णेसु पवङ्गवढिअं जअसद्दम् । सीसम्मि अ अहिसेअं पल्हत्थइ अ हिसअम्मि से अणुराअम् ॥६५॥ इस सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकर वहमुहवहे महाकव्वे च उट्ठो आसासो परिसमतो। [अथ नयनयोः प्रहर्ष कर्णयोः प्लवंगवर्धितं जयशब्दम् । शीर्षे चाभिषेकं पर्यस्यति च हृदयेऽस्यानुरागम् ।।] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये चतुर्थ आश्वासः परिसमाप्तः ॥ अथ पूर्वोक्तानन्तरं रामोऽस्य विभीषणस्य नयनयोः प्रहर्षमानन्दं पर्यस्यति विस्तारयति । अभिषेकसामग्रीदर्शनात । अथ कर्णयोः प्लवंगैर्वधितं जयशब्दम् । ततश्च शीर्षे शिरस्यभिषेकं पश्चाद्धदयेऽनुरागं प्रेम पर्यस्यतीति सर्वत्र संबन्धाक्रियादीपकमिदम् । विभीषणोऽत्यन्तमनुरक्तोऽभूदिति वाक्यार्थः ।।६।। रामपाडगुण्यदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य तुरीयाभूदियं शिखा ॥ विमला-तदनन्तर श्रीराम ने विभीषण के नेत्रों में ( अभिषेक-सामग्री के दर्शन से ) प्रहर्ष, कानों में वानरों द्वारा किया गया जयशब्द, सिर पर अभिषेक भोर हृदय में अनुराग का विस्तार किया ॥६५॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमखवध महाकाव्य में चतुर्थ आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम आश्वासः अथ रामस्य विप्रलम्भावस्था प्रस्तौति अह जलणिहिम्मि अहि मअणे अमिमदंसणविसम्भन्ते । विरहविहुरस्स णज्जइ पिसा बि रामस्स व ढिउं पाढत्ता ॥१॥ [अथ जलनिधावधिकं मदने च मृगाङ्कदर्शनविजृम्भमाणे । विरहविधुरस्य ज्ञायते निशापि रामस्य वर्धितुमारब्धा ।।] अथ विभीषणाभिषेकोत्तरं सीताविरहेण विधुरः क्लेशो यस्य तस्य रामस्य निशापि वधितुमारब्धा इति ज्ञायते । कस्मिन्सति । जलनिधौ मदने चाधिकं यथा स्यादेवं विजृम्भमाणे वर्धमाने सति । तथा च मृगाकोदयेन स्वभावतः समुद्रवृद्धिर्मादकत्वेन रामस्य कामवृद्धिरित्युभयथापि वेदनानुभवादुज्जागरेण रजनिवृद्धिराभासत इत्यर्थः । यद्वा चन्द्रोदयेन समुद्रवृद्धिस्तया च सर्वथा पारगमनव्यतिरेकज्ञानं तेन च विरहिणस्तस्य कामवृद्धिस्तया च वेदनाधिक्यं तस्मादुज्जागरणं तेन च रजनिवृद्धिभ्रम इति हेतुपरम्परालंकारः । निद्राच्छेदः कामावस्था। तदुक्तम्-'निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिस्त्रपानाशः' इति । अथ च शरदवसाने निशावृदयुपक्रम इत्यप्युक्तम् ॥११॥ विमला-विभीषण का अभिषेक हो चुकने पर तदनन्तर चन्द्रोदय से (स्वभावतः) समुद्र की, तथा ( मादक होने के कारण ) राम के काम की अत्यन्त अधिक वृद्धि होने पर विरहविधुर राम को ( रात में निद्रा न आने के कारण ) रात भी बढ़ने लगी-ऐसा आभास हुआ ॥१॥ अथ रामस्य प्रायोपवेशनमाह---- उइअमिप्रकच णहं णिप्रमठिअराहवं च सामरपुलिणम् । न्ति परं परिवढि आलिङ्गिअचन्दियं महोअहिसलिलम् ॥२॥ [उदितमृगाकं च नभो नियमस्थितराघवं च सागरपुलिनम् । नयतः परां परिवृद्धिमालिङ्गितचन्द्रिकं महोदधिसलिलम् ॥] उदितश्चन्द्रो यत्र तन्नभः, नियमे प्रायोपवेशने स्थितो राघवो यत्र तच्च सागरपुलिनं द्वावप्याश्लिष्टचन्द्रिकं महोदधिसलिलं परां परिवृद्धि महत्त्वं नयतः प्रापयतः । गगनस्योदितमृगाङ्कत्वेन स्वभावादेव वृद्धिजनकत्वाज्जलस्य महत्त्वे हेतुत्वम्, पुलिनस्य तु नियमस्थित राघवत्वेन । एतावज्जलस्य महत्त्वं यदुद्दिश्य राघवोऽपि प्रायोपवेशनमाचरतीत्यर्थापत्त्या गौरवप्रयोजकत्वात् , कल्ये रामः किं करिष्यतीति क्षोभजन्यान्दोलनतो वृद्धिमेव प्रति निदानत्वाद्वेत्यर्थः । 'चन्द्रिकायां मः' ।।२।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] सेतुबन्धम् [ पञ्चम विमला-उधर आकाश में चन्द्रोदय हुआ और इधर सागर के पूलिन पर श्रीराम प्रायोपवेशन' (वह अनशन व्रत, जो मरने के लिये किया जाता है) में स्थित हुये, जिससे आकाश और सागरपुलिन ये दोनों, चन्द्रिका का स्पर्श करने वाले समुद्र जल को महत्त्व प्रदान करने वाले हुये ।।२।। अथ रामस्योत्कण्ठामाह तो से विनोअसुलहा णिग्रमविइण्ण हिमक्खिवणसोडीरा । खउरेन्ति धिइग्गहणं जाअं जारं विसरणाविक्खेवा ॥३॥ [ततस्तस्य वियोगसुलभा नियमवितीर्णहृदयक्षेपणशौटीर्याः । कलुषयन्ति धृतिग्रहणं जातं जातं खेदविक्षेपाः ॥] तदनन्तरं तस्य रामस्य खेदविरहजन्यदुःखैर्ये विक्षेपा उच्चाटनास्ते जातं जातं धीरोदात्तत्वादुत्पन्नमुत्पन्नं धृति ग्रहणं धैर्यादानं कलुषयन्ति । मध्ये मध्ये विच्छेदादनुज्वलयन्तीत्यर्थः । कीदृशाः । नियमे प्रायोपवेशने वितीर्णस्यापितस्य हृदयस्य क्षेपणे इतस्ततः संचारणे शोटीयं गर्वो बलवत्त्वं वा येषां ते । एवं वियोगे सति सुलभा निरन्तरमुत्पद्यमाना इति विषय निवृत्तिरूपा कामावस्था । 'ग्रहणं त्रयमिच्छन्ति ज्ञानमादानमादरम्' । 'स्विदेर्जूर विसूरी' ॥३॥ विमला-प्रायोपवेशन में लगाये गये हृदय को विक्षिप्त करने में समर्थ, खेद के कारण वियोगसुलभ उच्चाटन बीच-बीच में उत्पन्न होकर राम के धैर्यग्रहण की प्रवृत्ति को विच्छिन्न कर दे रहे थे ॥३॥ अथ रामस्य चिन्तावस्थामाहकाहि पि समुद्दो गलिहिह चन्दाप्रवो समपिहिइ णिसा। अवि णाम धरेज्ज पिमा प्रोणे विरहेज्ज जीविअंतिविसण्णो ।॥४॥ [करिष्यति प्रियं समुद्रो गलिष्यति चन्द्रातपः समाप्स्यति निशा। अपि नाम ध्रियेत प्रिया उत नो विरहयेज्जीवितमिति विषण्णः ।।] अपिः प्रश्ने । हनुमन्तं प्रतीत्यर्थात् । नाम संभावनायाम् । समुद्रः पारगमनाचुकलं मे मम प्रियं करिष्यति । संतापकश्चन्द्रातपो गलिष्यति । विरहवेदनाहेतुर्निशा च समाप्स्यति समाप्ति गमिष्यति । प्रिया सीता ध्रियेत जीवेत । उत पक्षान्तरे। प्रियव नोऽस्मान जीवितं विरहृयेत्त्याजयेत् । चन्द्रातपादिव्यतिकरे विरहवैक्लव्येन तज्जीवनत्यागे सति मज्जीवनत्यागादि नानावितर्कमाचरन् रामो विषण्णः । इतिधन्दो हेतौ । सीताजीवनत्यागस्तु साक्षादमङ्गलत्वान्नोक्तः किं तु स्वजीवनत्याजनप्रश्नमुखेनेति भावः । 'अपिः संभावनाप्रश्नगर्दाशङ्कासमुच्चये' इति विश्वः ।।४।। विमला-क्या समुद्र मेरा प्रिय करेगा-पारगमन की सुविधा देगा ? चन्द्रमा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१४६ की यह ज्योत्स्ना नष्ट होगी ? ( विरहवेदनाविधायिनी ) रात्रि का अवसान होगा ? प्रिया जीवित रहे अथवा जीवन त्याग कर हमारे भी जीवन का हमसे त्याग करा दे-ऐसा सोचकर श्रीराम अत्यन्त दु:खी हुये ।।४॥ अथ रामस्योन्मादावस्थामाहजिन्दइ मिअङ्ककिरणे खिज्जइ कुसुमाउहे जुउच्छइ रमणिम् । झोणो वि णवर झिज्जइ जीवेज्ज पिएत्ति मारुई पुच्छन्तो ॥५॥ [निन्दति मृगाङ्ककिरणान्खिद्यते कुमुमायुधे जुगुप्सते रजनीम् । क्षीणोऽपि केवलं क्षीयते जीवेत् प्रियेति मारुति पृच्छन् । ] रामो मृगाङ्गकिरणान् कलङ्किसंबन्धितया निन्दति । कुसुमायुधे खिद्यते कुसुमबाणोऽपि कुलिशेनेव निहन्तीति मनोदुःखं लभते । रागजनिकेयमिति रजनी जुगुप्सते निन्दति । अथ प्रिया सीता जीवेदिति मारुति पृच्छन विरहजन्यवैक्लव्येन सहजतः क्षीणोऽपि केवलमत्यर्थन क्षीयते। सीताजीवनसंदेहादिति भावः। अत्राप्यमङ्गलपरिहाराय जीवेदिति भावमुखेन प्रश्नः। 'झीणो णवर धरिज्झइ' इति पाठे क्षीणोऽपि केवलं ध्रियते जीवति । प्रिया जीवेदिति मारुति पृच्छन् । तथा च प्रिया यदि जीवेत्तदा मम जीवनत्यागस्तदुःखाय स्यादिति जीवतीत्यभिप्रायः ।।५॥ विमला-श्रीराम चन्द्रकिरणों की तथा रात्रि की निन्दा करते, कामदेव के प्रति खेद करते थे। क्या प्रिया जीवित है-ऐसा हनुमान् से पूछते हुये क्षीण होते हुये भी और अधिक क्षीण होते जा रहे थे ॥५॥ पुनस्तामेवावस्थामाह एत्तो वसइत्ति दिसा एणं सा णण णिन्दइ त्ति मिअङ्को। एत्त णिसण्णेत्ति मही एएण णि त्ति से णहं पि बहुमत्रम् ॥६॥ [इतो वसतीति दिक् एनं सा नूनं निन्दतीति मृगाङ्कः। अत्र निषण्णेति मही एतेन नीतेत्यस्य नभोऽपि बहुमतम् ॥ ] अस्य रामस्य इतः सीता वसतीति दिशां मध्ये दक्षिणा दिक् बहुमता सीताधिष्ठानतया धन्या त्वमसीत्यादृता। तामेव भूयो रामः पश्यतीति भावः । एवं सा दुःखहेतुमेनं निन्दतीति मृगाको बहुमतः । धन्योऽयं यः सीतानिन्दाया अपि विषय इति निन्दाकालीनतद्दष्टि विषयं चन्द्रं स्वदृष्टेस्तदृष्टिसामानाधिकरण्याय पुनः-पुनरीक्षते । अत्र सीता निषण्णेति मही धन्या त्वमसीति बहुमता । तथा च तत्र परम्परासंबन्धविशेषाय शतशः परामर्शमाचरति । एतेन सा नीतेति नभोऽपि बहुमतम् । गगन ! धन्यमसि येन त्वया सीताशरीरम्पर्शो लब्ध इति नभः समालिङ्गतीति भावः । बहुमतमिति यथायोग्यं लिङ्गविपरिणामः । वस्तुतस्तु 'नपुंसकः मनपुंसकेन' इति नानालिङ्गक शेषेणैकवद्भाव इति सारम् ।।६।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] सेतुबन्धम् [ पश्वम बिमला - सीता इधर रहती है, अतः दक्षिण दिशा को राम आदर की दृष्टि से देखते । सीता ( देख-देखकर ) चन्द्रमा की निन्दा करती है, अतः ( सीता के दृष्टिपात का विषय होने से ) चन्द्रमा को धन्य मानते । इस पर सीता स्थित है, अतः पृथिवी का आदर करते तथा नभमार्ग से सीता को रावण ले गया, अतः ( सीता के स्पर्श का आनन्द पाने वाले ) आकाश का भी बहुत आदर करते ।। ६ ।। अथोद्वेगावस्थामाह धीरेण णिसाश्रामा हिअएण समं प्रणिट्ठि उवएसा । उच्छाहेण सह भुना बाहेण समं गलन्ति से उल्लावा ||७|| [धैर्येण निशायामा हृदयेन सममनिष्ठिता उपदेशाः । उत्साहेन सह भुजो बाष्पेण समं गलन्त्यस्योल्लापाः ॥ ] अस्य रामस्य धैर्येण समं निशायामा गलन्ति । धैर्यमपि व्यतिक्रामति निशायामा अपि व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः । एवमनिष्ठिता अस्थिरा उपदेशा बन्धुजनवचांसि हृदयेन समं गलन्ति । हृदयोपदेशयोः स्थैर्यं न भवतीत्यर्थः । उत्साहेन सह भुजी गलतः । उत्साहो हसते भुजावपि दिशि दिशि स्खलतः । बाष्पेण समं उल्लापा गलन्ति प्रलापा अपि मुखाद्वहिर्भवन्तीत्यर्थः । सहोक्तिरलंकारः ॥ ७tt विमला - श्रीराम के धैर्य के साथ रात्रि के प्रहर भी नष्ट हो रहे थे, हृदय के साथ उपदेश भी ( बन्धुजनों के सान्त्वनाप्रदानार्थ कहे गये वचन ) स्थिर नहीं रह पा रहे थे, उत्साह के साथ भुज भी चञ्चल हो रहे थे तथा आँखों से आँसू के साथ मुख से प्रलाप भी निकल रहे थे ॥ ७ ॥ अथ स्मृतिगुणकथनतनुतारूपमवस्थात्रयमाह - धीरेत्ति संठविज्जइ मुचिछज्जइ मअणपेलवेत्ति गणेन्तो । धरs पिr त्ति धरिज्जइ विओश्रतणुए त्ति प्रमुअइ अङ्गाई ॥८॥ [धीरेति संस्थाप्यते मूर्च्छते मदनपेलवेति गणयन् । धियते प्रियेति ध्रियते वियोगतनुकेत्यामुञ्चत्यङ्गानि ॥] सीता धीरा मदागमं जानती नाकस्माज्जीवितं त्यजेदिति गणयन्रामः संस्थाप्यते । स्वपमित्यर्थात् । आत्मनैवाश्वास्यत इत्यर्थः । एवं मदने सति पेलवा मृद्वीति मदनवेदनां सोढुं न शक्नुयादिति गणयन् विनाशमाशङ्कमानः स्वयमेव पुनर्मू च्छंते । मूर्च्छितश्चेत्तदा कथं जीवतीत्यत आह- प्रिया ध्रियते यदि मृता स्यात्तदा रामोऽपि प्राणांस्त्यजेदिति जीवति । यदि न जीवति तदा मम प्राणाः स्वयमेव गच्छेयुरिति गणयन्ध्रियते जीवति । स्वयं प्राणान्न त्यजति । मत्प्राणत्यागे सीतायाः प्राणत्यागः Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१५१ स्यादित्य निष्टशङ्कित्वादित्यर्थः। प्रिया वियोगेन तनुका दुर्बलेति गणयन्नङ्गान्यामुञ्चति दुर्बलो भवतीत्यर्थः । तथा च संगीतसारे-'अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंलापाः । उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मृतिरिति दशात्र कामदशाः ॥८॥ विमला-सीता धीरा है ( अकस्मात् जीवन-त्याग नहीं करेगी) अतः राम स्वयम् आश्वस्त होते । सीता मदनपेलवा है-मदनवेदना सह नहीं सकती हैऐसा सोच कर स्वयं मूच्छित होते। प्रिया जीवित है, ऐसा सोचकर स्वयं जीवन धारण करते । वह वियोग से क्षीण हो गयी होगी-ऐसा सोच कर स्वयं दुर्बल हो रहे थे ॥८॥ अथ प्रभातकालोपक्रममाह उब्भडहरिणकलङ्को मलप्रलपापल्लवुव्वमन्तमऊहो । अरुणाहअविच्छाओ जाओ सुहदसणो णवर तस्स ससी ॥६॥ [उद्भटहरिणकलको मलयलतापल्लवोद्वमन्मयूखः । अरुणाहतविच्छायो जातः सुखदर्शनः केवलं तस्य शशी ॥] तस्य रामस्य केवलं शशी चन्द्र एव सुखदर्शनो जातः । विरहिणां शत्रुश्चन्द्रस्तस्य विपद्दर्शनं सुखहेतुरभूदन्येषां तु मादकत्वमेव स्थितमिति भावः । चन्द्रविपत्तिमेव प्रकटयति-कीदक । उद्भटो हरिणरूपः कलङ्को यस्य । प्रातःकालोपक्रमेण कान्तीनामभावात् । तहिं कान्तयः क्व गता इत्यत आह--मलयलतापल्लवेषूद्वमन्नुद्वान्तो भवन्मयूखो यस्य स तथा। प्रभाते विधुरोषधीषु कान्तिमर्पयतीति प्रसिद्धिः । वस्तुतस्तु मलयलतापल्लवेषूद्व म्यमान' उद्गीर्यमाणो मयूखो येन स तथेत्यर्थः । केचित्त निस्तेजस्त्वेन रात्रिनाशकालीनतया च मादकत्वाभावात्सुखदर्शनोऽभूदित्यर्थमाहुः ।। विमला-(प्रात:काल का आगम होने से ) श्रीराम को केवल चन्द्रमा को ही देख कर सुख प्राप्त हुआ (अन्य सभी उद्दीपक सामग्रियाँ पूर्ववत् ही विरहवेदनोत्तेजक रहीं) क्योंकि (विरहियों का शत्रु ) चन्द्रमा का कलङ्क अब ( कान्ति के अभाव से) अधिक स्पष्ट व्यक्त हो रहा था, उसकी किरणें मलयलता के पल्लवों में निहित हो रही थी तथा अरुण से आहत हो वह स्वयं मलिन हो रहा था ॥६॥ अथ प्रभातोपक्रमेण समुद्रक्षोभमाह जह जह णिसा समप्पा तह तह वेविरतरङ्गपडिमावडिअम् । किंकाव्यविमूढ़ घोडइ हिप्रअं क्व उग्रहिणो ससिबिम्बम् ॥१०॥ [यथा यथा निशा समाप्यते तथा तथा वेपमानतरङ्गप्रतिमापतितम् । किंकर्तव्यविमूढं घूर्णते हृदयमिवोदधेः शशिबिम्बम् ॥] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] सेतुबन्धम् [पञ्चम वेपमानेषु तरङ्गेषु प्रतिमया प्रतिबिम्बेन पतितं संक्रान्तं शशिबिम्बं धूर्णते वेपते । समुद्रे चन्द्रबिम्बस्तरङ्ग कम्पेन कम्पित इव भासते। किमिव । उदधेर्ह दयमिव । चन्द्रस्य प्रतिबिम्बो न भवति किं तु समुद्रस्य हृदयं तत्कम्पत इर्थः। कम्पे हेतुमाह-हृदयं कीदृक् । यथा यथा निशा समाप्यते समाप्ति गच्छति तथा तथा अनिष्टकालसांनिध्येन किंकर्तव्यविमूढं उपोषितो रामः क्रुध्यन प्रातः किं करिष्यतीति क्षोभादेकतो रामप्रायोपवेशनमात्मोपमर्दः परतो लाघवं तन्मया कि कर्तव्यमिति कर्तव्यतामूढमित्युत्प्रेक्षा ।।१०॥ विमला-समुद्र के जल में सङ्क्रान्त चन्द्रबिम्ब तरङ्गों के कम्पन से काँपता हुआ ऐसा प्रतीत होता था मानों ज्यों-ज्यों रात समाप्त हो रही है त्यों-त्यों समुद्र का किंकर्तव्यविमूढ हृदय काँप रहा है ॥१०॥ अथ प्राभातिकं पवनमाहणवरि अमलअगुहामुहरिउव्वरिप्रफुडणीहरन्तपडिरवम् । पवणेण उपहिसलिलं पहाअतूरं व पाहअं रहुवइणो॥११॥ [अनन्तरं च मलयगुहामुखभृतोद्वत्तस्फुटनिर्बादत्प्रतिरवम् । पवनेनोदधिसलिलं प्रभाततूर्यमिवाहतं रघुपतेः ।।] पवनेन उदधिसलिलमाहतं रघुपतेः प्रातःकालीनवाद्यरूपतूर्यमिव । राज्ञः प्रभाते वाद्यं ध्वनतीति प्रकृते रामस्य तदभावात्पवनाहतसमुद्रसलिलशब्द एव प्रभातसूचकस्तूर्यध्वनिरासीदित्युत्प्रेक्षा । उदधिसलिलं तूयं वा कीदृक् । मलयगुहामुखमृतात्तदन्तःसंमितात्प्रतिरवादुद्वत्तो बहिर्भूय स्थितः स्फुटस्तारोऽत एव निह दन् शब्दान्तरोत्पादी प्रतिरवो यस्य तादृक् । यथा च प्रतिरवस्यापि प्रतिरवजनकत्वेन मूलशब्दस्यातिगभीरत्वमुक्तम् ॥११॥ विमला-समुद्र का जल पवन से प्रताडित हो मानों श्रीराम जी का प्रातःकालीन तूर्य वाद्य बज रहा था, जिसका निनाद मलयपर्वत की कन्दरा में पहुँच, उसके मुख से बाहर निकल जोर की प्रतिध्वनि कर रहा था ॥११॥ अथ प्रभातकालमाहहंस उलसहमहलं उग्घाडिज्जन्तदसदिसावित्थारम् । ओसरिअतिमिरसाललं जा पुलिणं व पाअडं दिनसमुहम् ॥१२॥ [हंसकुल शब्दमुखरमुद्धाट्यमानदशदिग्विस्तारम् अपसृततिमिरसलिलं जातं पुलिनमिव प्रकटं दिवसमुखम् ॥] दिवसमुखं प्रभातं पुलिनमिव प्रकटं जातमिति सहोपमा। प्रभातं पुलिनं च द्वयमपि व्यक्तं जातमित्यर्थः। प्रकटत्वे हेतुमाह-पुलिनं कीदृक् । अपसृतं तिमिर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १५३ मिव सलिलं यस्मात् । चन्द्रज्योत्स्नाविरहेण समुद्रजलानां प्रतिनिवृत्त्य गतत्वात् । प्रभातपक्षे तु तिमिरं सलिलमेव तिमिरसलिलं तदपसृतं यत्रेत्यर्थः । यद्वा अपसृतं तिमिरमिव सलिलं यत्र । समुद्रजलस्य श्यामत्वादिति भावः । एवं हंसकुलस्य मरालसमूहस्य स्तोत्रादिपाठशील सिस्तासुसंन्यासिकुलस्य वा शब्देन मुखरमित्युभयत्र प्रातः पुलिने च सशब्दहंस भ्रमणात् । एवमुद्धाट्यमानो व्यक्तीक्रियमाणो दर्शादिविस्तारो यत्रेत्युभयत्र तुल्यम् ||१२|| विमला - प्रभात पुलिन- प्रदेश के समान ही प्रकट दिखायी पड़ने लगा । पुलिन प्रदेश से तिमिर सदृश ( श्याम ) जल ( चन्द्रज्योत्स्ना के अभाव में ) दूर हट गया और प्रभात के समय में भी सलिलसदृश ( श्याम ) तिमिर दूर चला गया। दोनों हंससमूह के शब्द से मुखर हैं तथा दसो दिशायें स्पष्ट व्यक्त होने लगीं ।।१२।। अथ रामस्य रोषमाह - अह गमि अणिसासमअं गम्भीरत्तणदढट्ठि अम्मि समुद्वे । रोसो राहववप्रणं उप्पाओ चन्दमण्डलं व विलग्गो ॥१३॥ [ अथ गमितनिशा समयं गम्भीरत्वदृढ स्थिते समुद्र े । विलग्नः ॥ ] रोषो राघववदनमुत्पातश्चन्द्रमण्डलमिव अथ प्रभातानन्तरं गमितः समापितो निशैव समयोऽवधिर्यत्रेति क्रियाविशेषणं गमित निशाकालं वा । समुद्रे गम्भीरत्वे दृढस्थिते गाधतामनागच्छति सति रोषो राघववदनं विलग्नः । एतन्निशायामप्यगाध एव समुद्रः स्थित इति क्रोधसूचकविच्छायत्वादिधर्मविशिष्टं राघवमुखमासीदित्यर्थः । क इव । चन्द्रमण्डलमुत्पातो राहुरिव । यथोत्पातश्चन्द्रमण्डलं लगति । राक्षसनाशसूचकत्वेन रोषस्य प्रजानाशसूचकचन्द्रोत्पाततुल्यत्वम् ॥१३॥ विमला -- प्रभात हो चुकने पर रात्रि की अवधि बीत जाने पर भी समुद्र मैं गाम्भीर्य पूर्ववत् ज्यों का त्यों बना रह गया तो चन्द्रमण्डल पर उत्पात ( राहु ) के समान श्रीराम के मुख पर रोष छा गया ॥ १३ ॥ अथ रोषस्य प्रादुर्भावमाह - तो से तमालणीलं णिडालवटं पलोट्टसे अजललअम् । भिउडी थिरवित्थिण्णं कडअं विञ्झस्स विसलन व्व विलग्गा || १४ || [ततोऽस्य तमालनीलं ललाटपट्टे प्रलुठितस्वेदजललवम् । भ्रकुटी स्थिरविस्तीर्ण कटकं विन्ध्यस्त विषलतेव विलग्ना || ] ततः क्रोधानन्तरं रामस्य तमालवन्नीलं ललाटपट्टे भ्रुकुटी लग्ना । रामललाटे भ्रुकुटिरासीदित्यर्थः । कीदृशम् । प्रलुठितं संचारि स्वेदजलं यत्र । एवं स्थिरं च Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] सेतुबन्धम् [पञ्चम तद्विस्तीर्णं च क्रोधेन स्तम्भितत्वात् । दृष्टान्तयति-विषलतेव । यथा विन्ध्यस्य कटकं मूलदेशं विषलता लगति । 'राक्षसनाशकत्वेन विषलतासाम्यं भ्रुकुटयाः । विन्ध्यकटकमपि तमालेन नीलं प्रलुठितस्वेदप्राय निर्झरादिजललवं स्थिरं विस्तीर्ण च भवति ॥१४॥ बिमला-तदनन्तर स्थिर, विस्तीर्ण एवं संचरणशील जलबिन्दुओं वाले राम के तमालसदृश नील ललाट पर उनकी भौंह, विन्ध्यपर्वत के मूलदेश पर विषमता के समान जा लगी ॥१४॥ भथ रामस्य धनुर्दर्शनमाह मह जणिअभिउडिभङ्ग जाधणहत्तवलिअलोअणजमलम् । अमरिसविइण्णकम्प सिढिलज डाभारबंधणं तस्स मुहम् ॥१५॥ [अथ जनितभ्र कुटीभङ्ग जातं धनुरभिमुखवलितलोचनयुगलम् । अमर्षवितीर्णकम्पं शिथिलजटाभारबन्धनं तस्य मुखम् ॥] भथानन्तरं जनितो भृकुटीभङ्गो यत्र तादृशं रामस्य मुखं धनुरभिमुखं वलितं बक्रीभूय वलितं लोचनयुगलं यत्र तथा जातम् । समुद्रजिघांसया रामेण धनुर्दष्टमित्यर्थः । मुखं कीदृक् । अमर्षेण वितीर्णो दत्तः कम्पो यस्मै । सकम्पमित्यर्थः । मत एव शिथिलं जटाभारस्य बन्धनं यत्र । शरसंधानाय कृतेऽपि नियमनिमुक्तजटाबन्धने कम्पाद्दाढय नाभूदित्यर्थः ॥१५॥ विमला-श्रीराम का टेढी भौंहों से युक्त मुख क्रोध से सकम्प हो मया, अतएव जटाबन्धन शिथिल हो गया तथा उनके नेत्र धनुष पर गये ।।१५।। अथ रामस्य दुनिरीक्ष्यतामाह पणप्रपडिभङ्गविमणो थोप्रत्थोअपडिड्ढि प्रामरिसरसो। तह सोम्मो वि रहुमुमो जामो पलअरइमण्डलदुरालोमो ॥१६॥ [प्रणयप्रतिभङ्गविमनाः स्तोकस्तोकप्रतिवधितामर्षरसः । तथा सौम्योऽपि रघुसुतो जातः प्रलयरविमण्डलदुरालोकः ॥] ततो जटाबन्धनोत्तरं प्रणयस्य प्रतिभङ्गेन समुद्रकृतेन विमना विरुद्धचित्तः स्तोकस्तोकं धीरोदात्तत्वेन समुद्रस्य गाधताशङ्कया लघुलघुपरिवधितः क्रोधरसो यस्य । तथा सौम्योऽपि शीतलप्रकृतिरपि रामः प्रलय रविमण्डलवदुनिरीक्ष्यो जातः । समुद्रोपप्लावितत्वेन' रामस्य प्रलय र वितौल्यम् ।।१६॥ विमला-( समुद्रकृत ) प्रणयभङ्ग से श्रीराम का चित्त विरुद्ध हो गया और थोड़ा-थोड़ा क्रोध बढ़ने लगा। उस समय सौम्य होते हुए भी वे प्रलयकालीन रविमण्डल के समान दुनिरीक्ष्य हो गये ॥१६॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१५५ अथ धनुर्ग्रहणमाह तो साहसणिम्माणं अमित्तदीसन्तलच्छिसंकेप्रहरम् । संठिअरोसालाणं गेण्हइ भुप्रदप्पबीअलक्खं चापम् ॥१७॥ [ततः साहसनिर्माणममित्रदृश्यमानलक्ष्मीसंकेतगृहम् । संस्थितरोषालानं गृह्णाति भुजदर्पद्वितीयलक्ष्यं चापम् ॥] ततः । राम इत्यर्थात् । चापं गृह्णाति । कीदृशम् । साहसस्य प्राणानपेक्षकर्मणो निर्माणं यस्मात् । निर्मीयते अनेनेति साहसस्य निर्माणं करणमिति वा। तद्धनुरध्यवसायेन साहसमपि क्रियत इत्यर्थः । एवममित्रेण शत्रुणा दृश्यमाना या स्वलक्ष्मीस्तस्याः संकेतगृहम् । रिपोरध्यक्ष एव तल्लक्ष्म्या नायिकाया रामस्य च नायकस्य समागमस्थानकत्वात् । एवं संस्थितस्य रोषस्यालानमवष्टम्भस्तम्भः । एवं भुजदर्षस्य द्वितीयं लक्ष्यम् । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्ष्यं लक्षणं प्रकाशकम् । एको भुज एव द्वितीयं धनुरित्यर्थः ।।१७।। विमला-तदनन्तर श्रीराम ने अपने साहस के साधनरूप उस धनुष को ग्रहण किया जो शत्रु की आँखों के सामने ही उसकी लक्ष्मी (नायिका) और उन ( राम ) के समागम का संकेतस्थल है, संत्थित रोष का स्तम्भ है तथा भुजदर्प का दूसरा लक्षण (प्रकाशक ) है ( क्योंकि पहिला लक्षण तो भुज स्वयं है)।॥१७॥ अथ धनुषि ज्यारोपणमाह अक्कन्डधणुभरोणप्रधरणि प्रलस्थलपलोट्टजलपम्भारो। थोपि अणारुढे उअही चावम्मि संसों आरूढो ॥१८॥ [आक्रान्तधनुर्भरावनतधरणितलस्थलप्रवृत्तजलप्रारभारः । स्तोकमप्यनारूढे उदधिश्चापे संशयमारूढः ॥] स्तोकमपि किंचिदप्यनारूढेऽसज्जीकृते चापे । सज्जीकर्तुमारब्ध एव सतीत्यर्थः । उदधिः संशयमारूढः रामः किं करिष्यतीति दोलायितचित्तोऽभूत् । अथवा स्थास्यति नवेति लोकानां संशय विषयोऽभूदित्यर्थः । कीदृक् । आक्रान्तं सज्जीकर्तुमवष्टब्धमर्थाद्भूमौ यद्धनुस्तस्य भरेणावनतं यद्धरणितलं तस्य यत्स्थलं फलभूमिस्तत्र प्रवृत्तः संगतः प्रलुठितो वा जलप्राग्भारो जलाधं यस्य धनुरवष्टम्भेन भूमेरवनतो तिर्यगुन्नतखातस्य कियज्जलानां स्थलभूमिप्रसृतत्वात् । अत एवारम्भ एवेयमवस्था पर्याप्तौ कि स्यादिति संशय इत्यर्थः ॥१८॥ विमला-श्रीराम ने धनुष पर डोरी चढाने के लिये उसे ज्यों ही पृथिवीपर रक्खा, उसके भार से भूतल अवनत हो गया और समुद्र का आधा जल Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१५६ ] सेतुबन्धम् [ पञ्चम स्थल पर चला आया। अभी धनुष थोड़ा भी नहीं चढ़ा कि समुद्र भयभीत हो गया ॥१८॥ अथ धनुषि सधूमानलोद्गममाहधूमाइ धूमकलुसे जलइ. जलन्तानहन्त जोपाबन्धे । पडिरवपडिउण्णदिसं रसइ रसन्तसिहरे धणुम्मि णहअलम् ॥१६॥ [धूमायते धूमकलुषे ज्वलति ज्वलन्नारोहज्जीवाबन्धे । प्रतिरवप्रतिपूर्णदिग्रसति रसच्छिखरे धनुषि नभस्तलम् ॥] धनुषि अर्थाद्रामस्य धूमेन' कलुषे धूम्र सति नभस्तलं धूमायते । एवं ज्वलन्नारोहज्जीवाबन्धो यत्र तथाभूते वह्निमयपतञ्जिकारोपणशालिनी सति ज्वलति । तथा रसच्छब्दायमानं शिखरं यस्य तथाभूते सति प्रतिरवेण प्रतिपूर्णा दिशो यत्र तथाभूतं सद्रसति शब्दायते । तथा च त्यक्तव्याग्नेयशरोपकरणत्वेन धनुरप्याग्नेयमिति ततो गगनव्यापिनी धूमधोरणिरुदतिष्ठत् । पतञ्जिकाप्याग्नेयीति तदुत्थितो वह्नियोमाजिज्वलत्पराटनौ ज्याप्रान्तनिवेशनादुत्तिष्ठन्वाकजः शब्दो विश्वं व्यानश इत्यर्थः । केचित्तु भविष्यत्समुद्रोपमर्दसूचको रामरोषाग्निजन्मायमुत्पात एव जात इत्यभिप्रायमाहुः ॥१६॥ विमला-श्रीराम का धनुष (आग्नेय शर का उपकरण होने से सधूम अनल का उद्गम होने पर) धुयें से कृष्ण-लोहित वर्ण का हो गया; जिससे नभस्तल भी धूमायित हो उठा। धनुष पर जब देदीप्यमान मौर्वी चढ़ी तब आकाश भी देदीप्यमान हो गया और मौर्वी के चढ़ते समय धनुष का अग्रभाग (जहाँ मौर्वी बाँधने के लिये गड्ढा बना होता है ) जब शब्दायमान हुआ तब उसकी प्रतिध्वनि से दिशायें प्रतिपूर्ण एवम् आकाश भी शब्दायमान हो उठा ।।१६।। अथ धनुर्धारणमाहभिज्जउ महि त्ति व फुडं णस्थि समुद्दो त्ति दारुणं व पइण्णम् । णासउ जति व मणे चिरं तुलेऊण विल इअंणेण धणुम् ॥२०॥ [भिद्यतां मही इतीव स्फुटं नास्ति समुद्र इति दारुणामिव प्रतिज्ञाम् । नश्यतु जगदितीव मनसि चिरं तुलयित्वा विगलितमनेन धनुः ॥] अनेन रामेण धनुर्विगलितमुत्तोल्य धृतम् । कि कृत्वा । सर्वाधारभूतापि महीभिद्यतामितीव, नास्ति समुद्र इतीव, जगन्नश्यत्वितीव दारुणां प्रतिज्ञां मनसि चिरं तुलयित्वा सदृशीकृत्य । तथा च मनसि प्रतिज्ञा करे धनुरुभयमपि तुल्यतया विगलितमित्यर्थः । तेन क्रोधान्निखिलनिरपेक्षता कृतेति भावः । अन्यत्र लोटादिनिर्देशादाशंसामात्रम् समुद्रे तु क्रोधप्रतियोगितया नास्तीति सिद्धवदभावनिर्देशादवश्यनाश्यत्वमभिप्रेतमित्यवधेयम् । यद्वा मन्ये स्फुटं तर्कयामि । मही Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्व रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१५७भिद्यतामिति वा तुलयित्वा विचार्य नास्ति समुद्र इति वा दारुणं प्रकीर्ण विश्वव्यापि जातमिति वा जगन्नश्यत्विति वा विचार्य रामेण धनुर्विगलितम् । रामधनु रारोहणे सर्वमिदं संभावितमित्यभिप्रायादिति कश्चिदर्थमाह ॥२०॥ विमला-'पृथिवी विदीर्ण हो जाय, संसार नष्ट हो जाय किन्तु समुद्र का अस्तित्व नहीं रहने पायेगा'-मानों मन में ऐसी प्रतिज्ञा धारण करने के साथ ही श्रीराम ने धनुष उठा कर धारण कर लिया ॥२०॥ अथ वीररसाविर्भावमाह तो चिरविप्रोअतणुओ सह बाहोममउ अजीआघायो। जाओ अण्णो च्चिअ से विलइअधणुमेत्तवावडो वामभुप्रो॥२१॥ [ततश्चिरवियोगतनुकः सदा बाष्पावमृष्टमृदुकजीवाघातः । जातोऽन्य एवास्य विगलितधनुर्मात्रव्यापृतो वामभुजः ॥] ततस्तदनन्तरमस्य रामस्य विगलितं धृतं यद्ध नुस्तन्मात्रे व्यापृतः कृतमुष्टिपी. डनादिव्यापारो वामभुजोऽन्य एव जातः । स्वाभाविकरूपातिरिक्तरौद्ररूपोदयात् । कीदृक् । चिरवियोगेण तनुकः कृशः। एवं सदा बाष्पेणावमृष्टस्तत एव मृदुकः कोमलो जीवा ज्या तदाघातस्तद्धर्षणकिणो यत्र । धीरोदात्तत्वादात्री वामपावन शयानस्य रामस्योपधानाभावादुष्णसंतापाश्रुसंबन्धान्मृदूकृतज्याकिण इत्यर्थः। तथा: च तनुत्वमृदुत्वाभ्यामनुकम्पनीयोऽपि वीर रसोद्रेकादुत्पुलकत्वेन पुष्टः कठिन श्च वृत्त इति भावः ॥२१॥ विमला-श्रीराम का वाम भुज, जो चिरवियोग से कृश एवं सदा आंसुओं से प्रक्षालित होते रहने से जिसमें मौर्वी के घर्षण का घट्ठा मृदु हो गया था, उस समय धनुष को मुट्ठी में पकड़ने पर (रौद्ररूप हो जाने से ) और ही हो गया ॥२१॥ अथ धनुरास्फालनमाह मह वामभुअप्फालणपडिरवपडिउणदसदिसावित्थारम् । संभरइ जाअसङ्क पलअघणब्भहिअपेल्लणं तेल्लोक्कम् ॥२२॥ [अथ वामभुजास्फालनप्रतिरवप्रतिपूर्णदशदिग्विस्तारम् । संस्मरति जातशत प्रलयघनाभ्यधिकप्रेरणं त्रैलोक्यम् ॥] अथ धनुर्ग्रहणानन्तरं त्रैलोक्यं कर्तृ जातशङ्कं सत्प्रलयघनानामर्थाद्गर्जतामभ्यधिकं यत्प्रेरणं संघट्टस्तत्संस्मरति । कथंभूतं त्रैलोक्यम् । वामभुजेन मदास्फालनमितस्ततश्चालनं तेन यः प्रतिरवोऽट्टिकारस्तेन प्रतिपूर्णो दशदिग्विस्तारो यत्र । तथा चास्फालनध्वनी धनगजिबुद्धया सर्वेषां प्रलयशङ्का जातेत्यर्थ. ॥२२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१५८] सेतुबन्धम् [पञ्चम विमला-तदनन्तर वाम भुज ने धनुष का जो आस्फालन ( इधर-उधर संचालन) किया उससे उत्पन्न टङ्कार से दसो दिशायें प्रतिपूर्ण हो गयीं और त्रैलोक्य ने यह समझा कि प्रलय के घन गरज रहे हैं, अब प्रलय होने वाला है ।।२२।। अथ शरग्रहणमाहगेण्हइ प्र सो अणाअरपरम्मुहपसारिअग्गहत्थावडिअम् । खअसूरमऊहाण व एक्कं उअहिपरिवत्तणसहं वाणम् ॥२३॥ [गृह्णाति च सोऽनादरपराङ्मुखप्रसारिताग्रहस्तापतितम् । क्षयसूर्यमयूखानामिवैकमुदधिपरिवर्तनसहं बाणम् ॥] स रामो बाणं गृह्णाति च । किंभूतम् । अनादरेणानास्थया पराङ्मुखप्रसारित. शरग्रहणाय पश्चात्कृतो योऽग्रहस्तो हस्ताग्रमगुल्यौ तत्रापतितम् । उत्प्रेक्षतेक्षयसूर्य मयूखानामेक मिव । समुद्रदाहकत्वात् । अत एवोदधेः परिवर्तने पार्श्वशयने सहं योग्यम् । शराघातेन जलानामुच्छलनेनावशिष्टजलेन पार्वायितत्वात् । अत्र सर्व एव शरा उदधिपरिवर्तनसहाः । अथवाधमोऽपि हस्ते यः पतिष्यति स एव समुद्रं परिवर्तयेदिति विशेषजिज्ञासां विनैव य एवाग्रहस्ते पतितः स एव गृहीत इत्यनादरपदद्योत्यं वस्तु । ,सहः शक्ते क्षमायुक्ते तुल्यार्थे च सहाव्ययम्' ॥२३॥ विमला-श्रीराम ने कोई बाण-विशेष निकालने की इच्छा के विना ही हाथ (तरकस की ओर ) पीछे किया और जो भी एक, हाथ में आ गया, उसी को ग्रहण किया, क्योंकि वह ( सामान्य ) भी उदधि की स्थिति बदलने में पूर्ण समर्थ था और मानों प्रलयकालीन सूर्य के मयूखों में से ग्रहण किया गया एक - मयूख था ॥२३॥ अथ लक्ष्यसमुद्रप्रेक्षणमाह तो संधन्तेण सरं रसन्तरोलुग्गभिउडिभङ्गेण चिरम् । णीससिऊण पुलइओ अणुअम्पादूमिआणणेण समुद्दो ॥२४॥ [ततः संदधता शरं रसान्तरावरुग्णभ्र कुटिभङ्गेन चिरम् । निःश्वस्य प्रलोकितोऽनुकम्पादुःखिताननेन समुद्रः ।।] ततो बाणग्रहणोत्तरं मम शरत्यागेन समुद्रस्य महती दुरवस्था स्यादथ च दुर्यशः प्रसरेदिति कृत्वा चिरं निःश्वस्य समुद्रः प्रलोकितः। रामेणेत्यर्थात् । महानयं कि वा क्रियतामित्याशयात्तदुक्तम् । अनुकम्पया दुःखितमप्रसादमानीतमाननं यस्य लेन । एकत्र समुद्रोपप्लवः परत्र स्वकार्यहानिरित्युभयथापि क्षतिरिति परामर्शात् । किंभूतेन । धनुषि शरं संदधता। एवं रसान्तरेणानुकम्पासमुत्थेनावरुग्णो निवतनोन्मुखीकृतो भ्रुकुटिभङ्गो यस्येति धृत्यमर्शभावयोः संधिः ।।१४।। विमला-बाण-ग्रहण के अनन्तर श्रीराम ने उसे धनुष पर चढ़ाया किन्तु ऐसा करते हुये उनका चेहरा अनुकम्पा से उदास हो गया और रसान्तर से Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १५६ भ्रुकुटिभङ्ग निवृत्त-सा हो गया एवं निःश्वास छोड़ते हुये चिरकाल तक समुद्र की ओर देखा ॥२४॥ अथ धनुराकर्षणमाह ग्रह कड्दिउ पउत्तो णिक्कम्पणिराज विट्ठिसचचत्रिअसरम् । वलिप्रभु अरुद्धमयं वढणिपीडिअगुणं धणुं रहुणाहो || २५।। [ अथ क्रष्टुं प्रवृत्तो निष्कम्प निरायतदृष्टि सत्यापितशरम् । वलितभुजरुद्ध मध्यं दृढ निष्पीडितगुणं धनू रघुनाथः ॥ ] अथ लक्ष्यदर्शनानन्तरं सीतास्मरणोद्दीप्तरोषो रघुनाथो धनुः क्रष्टुं प्रवृत्तः । कीदृशम् । निष्कम्पा स्थिरा निरायता शरानुसारेण दीर्घीकृता या दृष्टिस्तया सत्यापितो लक्ष्याभिमुख्येन स्थिरीकृतः शरो यत्र तत् । तादृशसंधानस्य लक्ष्याव्यभिचारित्वादिति भावः । एवं वलितेन किंचित्तिर्यक्कृतेन भुजेन रुद्धं मध्यं यस्य । एवम् दृढं निष्पीडितो दक्षिणहस्ताङ्गुलिभ्यां यन्त्रितो गुणः पतञ्जी यस्येति विशेषणाभ्यां प्रहारदाढ्र्यं सूचितम् ||२५|| से विमला - समुद्र को देखने के पश्चात् श्रीराम ने आगे बढ़ाकर वास भुज धनुष का मध्य भाग पकड़ कर, दाहिने हाथ की अंगुलियों से नियन्त्रित किया, साथ ही दृष्टि को स्थिर और आगे बढ़ा वेधार्थ साधा एवं धनुष खींचने में वे प्रवृत्त हुये ।। २५|| धनुष की डोरी को कर बाण को लक्ष्य अथ शराकर्षणमाह सरमुहविसमध्फलिआ णमन्तधणुको डिविष्फुरन्तच्छात्रा । इ कटिज्जन्ता जीश्रासद्दगहिरं रसन्ति रविवरा ॥ २६ ॥ [ शरमुखविषमफलिता नमद्धनुः कोटिविस्फुरच्छायाः । ज्ञायते कृष्यमाणा जीवाशब्दगभीरं रसन्ति रविकराः ॥ ] शराकर्षणे वह्निमयशरज्याशब्दोऽभूत् । तदुत्प्रेक्ष्यते - ज्याशब्दवद्गभीरं यथा स्यादेवं कृष्यमाणा रविकरा इव रसन्ति शब्दायन्ते इति ज्ञायते । किंभूताः । शरमुखे फलभागे विषमं दुर्निरीक्ष्यं यथा स्यादेवं फलिताः प्रतिबिम्बिता: । एवं नमन्त्यो धनुष्कोटयोर्विस्फुरन्त्यश्छायाः कान्तयो येषां ते । अयं भावः - फलभागप्रतिबिम्बेन शराकर्षणेऽनिद्वयसंक्रान्तकान्तितया च ज्यासमानाकारत्वेन ज्याकर्षणे रविकराकर्षणमिव प्रतीयते । अतः शब्दोऽपि तेषामयमिति प्रतीतिः ॥२६॥ विमला — श्रीराम ने धनुष पर बाण चढ़ाकर जब खींचा, उस समय मौर्वी का जो शब्द हुआ उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों खींची जाती सूर्य की किरणें शर के मुख भाग पर विषम प्रतिबिम्बित हो गयीं और उनकी कान्ति झुकती हुई Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] सेतुबन्धम् [पञ्चम धनुष की कोटि पर विस्फुरित हो उठी एवं मौर्वी शब्द के समान गम्भीर बश उनसे उत्पन्न हो उठा ॥२६॥ अथाकणं धनुःकर्षणमाह फ डजीआरवमुहल तज्जेइ व बाणमुहज लन्तग्गिसिहम् । जलणि हिवह पडिउद्ध आअण्णाअड्ढि विअम्भइ व धणम् ।।२७॥ [स्फुटजीवारवमुखरं तर्जयतीव बाणमुखज्वलदग्निशिखम् । जलनिधिवधप्रतिबुद्धमाकर्णाकृष्टं विजृम्भत इव धनुः ।।] आ कर्णमाकृष्टं तद्धनुर्जल निधिवधाय प्रतिबुद्धं सप्रकाशं सद्विजृम्भत इव जृम्भां करोतीव । आकर्षणे सति ज्याया धनुषश्च व्यवहितविश्लेषान्मुखच्यादान मिव प्रतीयत इत्यर्थः । अन्योऽपि प्रतिबुद्धो जाग्रज्जृम्भां करोतीति ध्वनिः । एवं स्फुटज्यारवेण मुखरं सत्तर्जयतीव त्रासयतीव । अत्र हेतुमाह-बाणमुखे ज्वलन्ती अग्निशिखा यत्र । तदाग्नेयशरसंधानात् । अन्योऽपि तर्जनकाले विभीषिकावचनमाचरतीति ध्वनिः । प्रकृते तु समुद्र ! तिष्ठ क्व गमिष्यसीत्यादि तर्जनशब्दो ज्यारव एवेत्युभयत्रोत्प्रेक्षा ॥२७॥ विमला-श्रीराम ने बाण के अग्रभाग पर जलती अग्निशिखा वाले धनुष की डोरी को कान तक खींचा, उस समय (धनुष और डोरी के मध्य गोलाकार समवकाश होने से ) ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों धनुष समुद्रवधार्थ जागकर जम्हाई ले रहा है और मौर्वी के शब्द से मुखर होता हुआ, समुद्र को त्रस्त कर रहा है ॥२७॥ मथ शर विस्फूर्तिमाह खुहिअज लसिट सारो मुहणिद्धाविअपसारि उक्काणिवहो। आअड्ढिज्जन्तो च्चिअ णज्जइ पडिओ त्ति सापरे रामसरो॥२८॥ [क्षुभितजलशिष्टसारो मुखनिर्धावितप्रसारितोल्कानिवहः । आकृष्यमाण एव ज्ञायते पतित इति सागरे रामशरः॥] आकृष्यमाण एव रामशरः सागरे पतित इति ज्ञायते । अत्र हेतुमाह-कीदृक् । मुखात्फलान्निर्धावितो बहिःप्रसृत उल्कानिवहो यस्मात् । तथा च शिखानिवहनिर्गमद्वारा समुद्रसंबन्धाद्बाण : सागरे पतित इति प्रतीतिरिति भावः। एवं पतनपूर्वमेव क्षुभितेन जलेन शिष्ट: सारो बलं यस्य । तथा च महाशयस्यापि समुद्रस्य क्षोभोऽस्मादेवेत्यर्थापत्त्यापीति भावः ॥२८।। विमला-श्रीराम के द्वारा खींचे जाते बाण के अग्रभाग से उहकाओं का समूह निकल कर बाहर फैल गया और समुद्र का जल क्षुब्ध हो गया, जिससे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१६१ बाण के बल का पता चल गया। इस प्रकार बाण खींचने के समय में ही ऐसा प्रतीत हुआ कि बाण समुद्र पर गिर चुका है ॥२८॥ अथ शराग्निप्रसरणमाहघुअविज्जपिङ्गलाई सरमुहागि ग्गिण्णहुअवहपलित्ताई। उप्पाप्रलोप्राइव फुटन्ति दिसामहाण घणविन्दाइ ॥२६॥ [ धुतविद्युत्पिङ्गलानि शरमुखनिगीर्णहुतवहप्रदीप्तानि । उत्पातलोचनानीव स्फुटन्ति दिङ्मुखानां घनवृन्दानि ॥ ] दिङ्मुखानां मेघवृन्दानि शरमुखेण रामशराग्रेण निगीर्णा उद्वान्ता ये हुतवहास्तैः प्रदीप्तानि ज्वलितानि सन्ति स्फुटन्ति उत्पातलोचनानीव । यथा राहुप्रभृतीनामुत्पातानां लोचनानि वह्निसंबन्धात्स्फुटन्तीत्युपमा । वस्तुतस्तु मुखे लोचनं भवति उत्पाता दिक्षु दृश्यन्त इति दिङ्मुखानि तेषां मुखान्येव । तत्रत्यानि धनवन्दान्येव लोचनानि । तानि स्फुटन्तीत्युत्प्रेक्षा। तथा चोत्पातनयनस्फुटनमप्युत्पात एवेति भाविसमुद्रोपमर्दः सूचितः। घनवृन्दानि किंभूतानि । धुता उदरस्फुटनाच्चञ्चलीभूता या विद्युत्तया पिङ्गलानि । उत्पातलोचनान्यपि स्वभावादेव धुतविद्युतुल्य पिङ्गलानीति साम्यम् ॥२६॥ विमला-दिशाओं के मुखों के घनवृन्द, श्रीराम के शर के अग्रभाग द्वारा उगले अनल से प्रदीप्त एवं चञ्चल बिजली से पिङ्गल वर्ण होकर राहु-आदि उत्पातों के लोचनों के समान व्यक्त हो गये ॥२६॥ अथ शरत्यागमाह तो भुमरहसाअढिअधणुवठ्ठप्फुलियबहलधूमप्पीडम् । ममइ मणिग्गआणलसिहासमोलग्गसूरकिरण बाणम् ॥३०॥ [ततो भुजरभसाकृष्टधनुःपृष्ठस्फुटितबहलधूमोत्पीडम् । मुञ्चति मुखनिर्गतानलशिखासमरुग्णसूरकिरणं बाणम् ।। ] ततो बाणं मुञ्चति । राम इत्यर्थात् । कीदृशम् । भुजरभसेनाकृष्टं यद्धनुः । अनायासकृष्टमित्यर्थः । तत्पृष्ठात्स्फुटितो व्यक्तीकृतः । 'स्फिडिअ' इति पाठे स्फोटितो निष्कासितो बहुलो घनो धूमोत्पीडो येन तम् । एवं मुखान्निर्गता या बनल शिखा तया समवरुग्णा निस्तेजसः कृताः सूरकिरणा येन तथाभूतम् । तथा च प्रथमं धूमायितस्तदनु ज्वलित इति दहनस्वभाव उक्तः । सूरकिरणाभिभाबकत्वेन व्यापकत्वमतिदारुणत्वं च सूचितम् ॥३०॥ विमला-तदनन्तर श्रीराम ने अपने उस बाण को छोड़ा। उस समय बाण ने भुज द्वारा अनायास खींचे गये धनुष के पृष्ठ भाग से अत्यधिक धूमराशि व्यक्त ११ से० ब० Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] सेतुबन्धम् [पञ्चम की एवम् अपने मुख से वह अग्निशिखा निकाली कि जिससे सूर्य की किरणें भी निस्तेज (फीकी ) हो गयीं ॥३०॥ अथ शरपतनमाह सो जलिऊण णहमले सलिलद्धथमिअहुप्रवहा अम्बमुहो। पढमोइण्णविणअरो दोहो दिहनो व्य साअरम्मि णिवडिओ ॥३१॥ [ स ज्वलित्वा नभस्तले सलिलार्धास्तमितहुतवहाताम्रमुखः । प्रथमावतीर्णदिनकरो दीर्घो दिवस इव सागरे निपतितः ॥] स रामशरो नभसस्तले ज्वलित्वा सागरे निपतितः। ऊर्ध्वं गत्वाधोमुखीभूय पततीति शरस्वभावः । तदेव स्फुटयतिकीदृक् । सलिलार्धेऽस्तमितं हुतवहेनाताम्र मुखं यस्य तथाभूतः। तेनातिगभीरसमुद्रसलिलार्धनिष्पाद्यास्तमनतया उल्कामयस्य शरमुखस्य महत्त्वं लभ्यते । यद्वा सलिलेऽर्धास्तमितोऽर्धमग्न इति महत्त्वमुक्तम् । हुतवहेनाताम्रमुखश्चेत्यर्थः । दी? दिवस इव । यथा ऋज्वाकारो दिवसो नभसि ज्वलित्वा सागरे पतति । शरसाम्यलाभाय दिवसे दीर्घत्वमुक्तम् । दिवसः कीदृक् । प्रथममवतीर्णः पातितो दिनकरो येन । तथा आकाशात्प्रथमं सूर्यः पतति पश्चादिवसो यथा तथा । प्रथमं शरमुखं पतितं पश्चाच्छर इत्यरुणमण्डलाकारत्वेन शरमुखसूर्ययोः, तेजोमयत्वेन शरदिवयोश्च तौल्यम् ॥३१।। विमला-जिस प्रकार दीर्घ दिवस आकाश में ज्वलित होकर आकाश से पहिले सूर्य को गिरा कर तत्पश्चात् स्वयं सागर में गिरता है उसी प्रकार राम का दीर्घ शर आकाश में प्रज्ज्वलित होकर आकाश से पहिले अपने अग्नि से रक्तिम मुख भाग को समुद्र के जल में भर्धमग्न कर स्वयं सागर में गिरा । ३१।। अथ शरस्य त्रैलोक्यव्यापकत्वमाहगणे विज्जुगिहाओ सअन्तकालाणलो समुद्दुच्छङ्ग । महिअम्पो पाबाले होइ पडन्तपडिअ ट्ठिओ रामसरो॥३२॥ [ गगने विद्युन्निधातः क्षयान्तकालानलः समुद्रोत्सङ्गे। महीकम्पः पाताले भवति पतन्पतितः स्थितो रामशरः ।।] स रामशरो गगने पतन्नवतरन्विद्युन्निधातो विद्युत्समूहो वा भवति । व्यापकते. जोमयत्वात् । समुद्रोत्सङ्गे पतितः सन् क्षयः प्रलयस्तद्रूपोऽन्तकालो नाशकालस्तदीयोऽनलः कालानलः। शोषकत्वात् । यद्वा क्षयो नाशोऽन्तः पर्यन्तोऽवसानं यस्य तादृशः कालः । प्रलय इत्यर्थः । क्षयान्तः क्षयावधिः कालः प्रलयकाल इत्यर्थो वा । एवं पाताले स्थितः सन् महीकम्पो भवति । तस्य तत्रैवोत्पत्तेः। इत्युत्पातरूपत्वेन तत्तल्लोकवर्तितत्तल्लोकानां क्षोभजनकतया स्थानत्रयेऽपि प्रतिभानत्रयमुक्तम् ॥३२॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१६३ विमला--श्रीराम का वह शर गगन में अवतीर्ण होता हुआ विद्युत्समूह तथा समुद्र के भीतर प्रलयकाल का अनल हो गया, तदनन्तर पाताल में स्थित हो भूकम्प हो गया ॥३२।। अथ शरे शरान्तरनिर्गमनमाहतस्स अ मग्गालग्गा अइन्ति णिद्धमजलणअम्बच्छा। उअहिं बाणणिहाआ अद्धथमिअस्स दिणअरस्स व किरणा ॥३३॥ [ तस्य च मार्गालग्ना आयान्ति निधू मज्वलनाताम्रच्छायाः । उदधि बाणनिधाता अर्धास्तमितस्य दिनकरस्येव किरणाः ।।] समुद्रेऽर्धास्तमितस्य रामशरस्य । मार्गालग्नाः पश्चादालग्ना बाणानां निघाता उदधिमायान्ति च । समुद्रे प्रविशन्तीत्यर्थः। मार्गशब्दः पश्चादर्थे निपातितः। कीदृशाः । निधू मेन ज्वलनेनाताम्रा छाया कान्तिर्येषां ते । दिनकरस्य किरणा इव । यथार्धास्तमितस्य दिनकरस्य किरणास्तत्पश्चाल्लग्नाः सन्तः समुद्रमायान्ति । तेऽपि सायं निर्धमज्वलनवत्ताम्रद्युतयः । तथा च समुद्रे पतन्रविरिव रामशरः । किरणा इव तदनुवर्तिनः शराः ॥३३॥ विमला--जिस प्रकार अर्ध अस्तंगत सूर्य के पीछे लगी हुई, नि म अग्नि के समान लाल कान्ति वाली किरणें, उसी प्रकार समुद्र में अर्धमग्न रामशर के पीछे लगे हये, निर्धम अनल से लाल कान्ति वाले बाण समुद्र में प्रवेश करने लगे ॥३३॥ अथ समुद्रस्य शराभिघातमाह-- णवरि अ सरणिभिण्णो वलामुहविहुअकेसरसड ग्याओ। उद्धाइओ रसन्तो वीसत्थपसुत्तकेसरि व्व समुददो ॥३४॥ [अनन्तरं शरनिभिन्नो वडवामुखविधुतकेसरसटोद्धातः। उद्घावितो रसन् विश्वस्तप्रसुप्तकेसरीव समुद्रः ॥ ] शरपातादनन्तरं च रामशरेण निभिन्नो विद्धः समुद्रो रसन् शब्दायमानः सन्नुद्वावितः । शराभिघातेन समुद्रजलमूर्ध्वमुच्छलितमित्यर्थः । केसरीव । यथा विश्वस्तः प्रसुप्तः केसरी कस्यचिच्छरेण निभिन्न स्ताडितः सन्नुभूतकेसरसटोद्धातो रसन्नुद्धावति सिंहनादं कुर्वन्नुत्फालमाचरति तथेत्यर्थः । समुद्रः कीदृक् । वडवामुखं वडवानलस्तदेव विधुतः कम्पितः केसरसटासमूहो यस्य तथा । तथा च प्रथमं समुद्रस्य निश्चलत्वात्प्रसुप्तसिंहेन, शराभिहत्या विपर्यस्तस्य वडवानलस्योत्फालकालीनकम्पविशिष्टसटोद्धातेन, जलक्षोभजन्यशब्दस्य च सिंहनादेन साम्यम् ॥३४॥ विमला--तदनन्तर श्रीराम के शर से विद्ध समुद्र, निर्भय सोये हुये सिंह के समान वडवानलरूप केसरसटा ( गर्दन के बाल ) को झरझराता एवं गरजता हूआ उछल पड़ा ।।३४॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् १६४ ] अथ समुद्रक देशस्योच्छलनमाहदूराइद्वणिश्रत्ते समु हा गज बहल सर गिहा आक्खुडिए । दोहा इज्जइ व णहं टङ्कच्छे प्ररहट्ठश्रम्मि समुद्दे ||३५|| [ दूराविद्धनिवृत्ते संमुखागतबहुलशरनिधातोत्खण्डिते । द्विधा क्रियत इव नभष्टङ्कच्छेदरभसोत्थिते समुद्र ।। ] संमुखागतेन बहलेन शरनिघातेनोत्खण्डिते । मध्य इत्यर्थात् । अत एव टकच्छेदरभसेन टङ्कच्छिन्नस्य वेगेनोत्थिते यथा टङ्कादिच्छिन्नं काष्ठादि हठादू गच्छति तथैवोच्छलिते । टङ्कः पाषाणदारणः । यद्वा टङ्कः कुठारः । तस्मिन्निव च्छेदाय खण्डनाय रभसेनोत्थिते । यथा छेदनाय कुठार ऊर्ध्वमुत्तिष्ठतीत्यर्थः । तेन समुद्रजलमेव कुठारप्रायमभूदित्यर्थी लभ्यते । एवंभूते समुद्रे दूरं व्याप्याविद्धे प्रेरिते दूरमूध्वं गतेऽप्यनिवृत्ते पुनः खातमागच्छति सति नभो द्विधा क्रियत इव । समुद्रेणैवेत्यर्थात् । यद्वा नभो द्विधायत इव द्विखण्डायत इव । शराभिघातोच्छलितजलस्य निवृत्त्या तिरोहितमध्यभागस्य गगनस्य प्रान्तभागद्वयं खण्डद्वयमिव लक्ष्यत इत्यर्थः । तथा च पतनदशायां जलस्य लक्ष्यमाणत्वेन गगनस्य द्विधाभावः प्रतीयते न तूच्छलनदशायामिति । नभस्तिरोधायक महत्त्वोत्कर्ष सहचरस्य गुरुत्वोस्कर्षस्य वैपरीत्यहेतोः सत्त्वेऽपि पतनादप्युच्छलने शैघ्रथमभूदिति प्रहारप्रकर्ष उक्तः । कुठारोऽपि दूरप्रेरितनिवृत्तो भवतीत्याशयः ॥ ३५ ॥ विमला — सम्मुख आगत शरसमूह से उत्खण्डित; अतएव कुठार के समान प्रहार करने के लिये वेग से ऊपर उठा समुद्र ऊपर दूर तक जाकर पुनः जब नीचे अपने खात (पेटा) वापस आ रहा था उस समय आकाश दो खण्डों में विभक्तसा प्रतीत हो रहा था ॥ ३५ ॥ अनुत्थितजलावस्थामाह [ रत्नाकरपरभागे अणाअरपरभाए मज्झच्छिण्णम्मि बाणघाउक्खित्ते । frass वीश्रद्धन्तो फुडिग्रोसरिथ्रो व्व मलअडपब्भारो ॥ ३६ ॥ मध्य छिन्ने बाणघातोत्क्षिप्ते । निपतति द्वितीयार्धान्तः स्फुटितापसृत इव मलयतटप्राग्भारः ॥ ] रत्नाकरस्य परभागे दक्षिणतटसंनिहितार्धे मध्यच्छिन्ने बाणघातेनोत्क्षिप्ते ऊर्ध्वं नीते सति द्वितीयाधन्ति उत्तरतटसंनिहितार्धभागजलं निपतति । अयं भावः यथा खनित्रादिना तिर्यग्दार्यमाणा भूमिरुत्तरभागेणोत्तिष्ठति न तु पूर्वभागेण तथा रामशरेण मध्यच्छिन्नस्य समुद्रस्य द्वितीयार्धभागजलं तिर्यक्प्रहारातिशयादूर्ध्वमुच्छलतम् । अथ निःशेषशून्ये तज्जलस्थाने पूर्वार्धभागजलं वर्तुलीभूय हठात्प्रविशती - त्यर्थः । क इव । प्रथमं स्फुटितस्ततो गुरुत्वादपसृतः पतितो मलयतटस्य प्राग्भार [ पञ्चम Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १६५ एकदेश इव । एतज्जलार्धस्य मलयसंनिहितत्वान्मलयखण्डस्त्रुटित्वा पततीति प्रतिभानमित्युत्प्रेक्षा ॥ ३६ ॥ विमला - समुद्र का दक्षिण वाला भाग राम के बाणों से मध्यभाग में विदीर्ण होकर जब ऊपर को उठ गया तब दूसरे ( उत्तर वाला ) भाग का जल उसमें हठात् प्रविष्ट हो गया । उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानों (सन्निहित होने के कारण ) मलयपर्वत का खण्ड टूटकर समुद्र में गिर रहा है ॥ ३६ ॥ समुद्रोपमर्दमाह– भिण्णगिरिषाउअम्बा विसमच्छिण्णप्पवन्तमहिहरवक्खा । खुम्भन्ति खुहिअमअरा आवाआलगहिरा समुद्बुद्धेसा ||३७|| [ भिन्नगिरिधात्वाताम्रा विषमच्छिन्नप्लवमानमहीधरपक्षाः । क्षुभ्यन्ति क्षुभितमकरा आपातालगभीराः समुद्रोद्देशाः ॥ ] आपातालगभीरा अपि समुद्रप्रदेशाः क्षुभ्यन्ति । कीदृशाः । शरेण भिन्नै गिरिधातुभिरुदरवर्तिगिरीणां गैरिकैराताम्राः एवम् । विषमं तिर्यग्यथा भवति तथा छिन्ना अत एव प्लवमाना महीधराणां पक्षा यत्र । तथा च शरच्छेदेन गुरुणामप्युच्छलतां गिरिपक्षाणां निजाभिघातोच्छलितजलावर्तपतितानामुपर्येव परिभ्रमणादावप्रकर्षेण प्रहारदाढर्य मुक्तम् । पुनः कीदृशाः । क्षुभिता मकरा येषु ते तथा तेषामयुच्छलनादिति भावः ||३७|| विमला - श्रीराम के बाणों से समुद्र के भीतर वर्तमान पर्वतों के गेरू आदि धातुओं के विदीर्ण हो जाने से समुद्र लाल वर्ण का हो गया, पर्वतों के पङ्ख अत्यन्त कट कर जल में ऊपर तैरने लगे, मकरादि सभी जलचर क्षुब्ध हो गये - इस प्रकार पातालपर्यन्त गम्भीर समुद्र- प्रदेश क्षुब्ध हो गया ||३७|| शङ्खानां स्फुटनमाह- आअम्बरविअराह अदर विहडिअ धवलकमलमउलच्छाअम् । भमइ सरपूरिअमुहं उग्घाडि अपण्डुरोअरं सङ्खउलम् ॥३८॥ [ आताम्ररविकराहतदरविघटितधवल कमलमुकुलच्छायम् 1 भ्रमति शरपूरितमुखमुद्धाटितपाण्डुरोदरं शङ्खकुलम् ॥ ] शङ्खकुलं भ्रमति सर्वत्र शरानलदर्शनादितस्ततो गच्छति । कीदृक् । शरैः पूरिलं मुखं यस्य । अत एवोद्घाटितं ज्वालाभिरन्तः स्फुटित्वा बहिर्भूय प्रकाशितम् । अत एव पाण्डुरमुदरं यस्य । सतुषलाजवदित्यर्थः । उपमामाह – पुनः कीदृक् । प्रातःकालीनत्वादाताम्र रविकरैराहतं स्पृष्टम् । अत एव दरविघटितं लब्धद्वित्रपत्रविकासं यद्धवलकमलमुकुलं तद्वच्छाया शोभा यस्य तथाभूतम् । अत्र कमलमुकुलप्रायं शङ्खकुलं ताम्ररविकरप्रायाः सानलाः शरा विघटितपत्रप्रायं बहिर्भूतभुदरम् ||३८|| Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] सेतुबन्धम् [ पञ्चम विमला - उस समय शङ्खों के मुख शरों से परिपूर्ण थे, उनका पाण्डुर (पीलाबन लिये सफेद ) उदर भाग बाहर निकल आया था और वे लाल सूर्य की किरणों से स्पृष्ट अतएव स्वल्प विकसित श्वेत कमल के मुकुल के समान समुद्रजल में बोल रहे थे ||३८|| सर्पाणां फणत्रुटिमाह - वेवन्ति विभ्रमच्छा सरघाउक्खुडिअम अरदाढाधवला । मणिभर विसमोणामिमलु अविसहर घोलिरफणा जलविहा ॥३६॥ [ वेपन्ते विधुतमत्स्याः शरघातोत्खण्डितमकरदंष्ट्राधवलाः । मणिभरविषमावनामितलून विषध रघूर्णितफणा जलनिवहाः ॥ ] जलवा वेपन्ते । शरवेगादावर्तमाना भवन्तीत्यर्थः । कीदृशाः । विधुताः स्वावर्तपातादिघूर्णिता मत्स्या यैस्ते । एवं शरघातेनोत्खण्डिता या मकरदंष्ट्रास्ताभिर्धवलाः उत्क्षेपणात् । एवं मणिभरेण विषममवनामितास्तिर्यक्पातिता लूनाः कृत्ता विषधराणां घूर्णमानाः फणा येषु ते । तथा च शरनिकृत्तजलमूलवर्तिमकरभुजंगदंष्ट्राफणानां स्वाभिघातोच्छलित जलावर्त पतितानामुपरि परिभ्रमणात्प्रहारप्रकर्षः । अथवा जलनिवहाः शरानलसंबन्धादावर्तमाना भवन्ति । आवत्यं मानदुग्धादिवदित्यर्थः । तथा च निजनिजस्थान एव त्रुटितानां मत्स्य - ( भुजंग ) - दंष्ट्राफणानां जलावर्तानुसारेणोपर्यंधस्तिर्यग्भ्रमणाज्जलावर्तन हेतुशरानलप्रकर्षः ॥३६॥ विमला - -उस समय समुद्र की जलराशि आवर्ती ( भँवर ) से युक्त हो गयी । मत्स्य विक्षुब्ध हो गये, सर्पों के कटे हुये फन मणियों के भार से बुरी तरह झुके बोल रहे थे और समुद्र का सारा जल शरों के प्रहार से छिन्न-भिन्न मकरों की दंष्ट्रामों से धवल हो रहा था ||३६|| क्वाथप्रकर्षमाहफुटतविदुमवणं संखोहब्बत्तणिन्तर अणमऊहम् । घोलइ वेलावडिअ फेणणिहुच्छलिअमोत्तिअं उवहिजलम् ॥४०॥ [ स्फुटद्विमवनं संक्षोभोदवृत्तनिर्यद्रत्नमयूखम् । घूर्णते वेलापतितं फेननिभोच्छलित मौक्तिकमुदधिजलम् ॥ ] उदधिजलं वेलापतितं वेलामतिक्रम्य गतं सद्भूर्णते । समविषमभूमी दिशि दिशि गच्छतीत्यर्थः : । कीदृशम् । स्फुटद्भिद्यमानं विद्रुमवनं यस्मात् । एतेन जलानामौष्ण्यप्रकर्षः । एवम् संक्षोभात्प्रहारवेगादुद्वृत्तानामुपरिकृतभूमिष्ठभागानां नियंतां मूलस्थानाज्जलोपरि गच्छतां रत्नानां मयूखा दीप्तयो येषु । जलान्तर्वर्तिवस्तुनामुपरि मालिन्यमापततीति तलभागस्योज्ज्वलत्वादुद्वृत्त तथा मयूखोद्गम इत्यर्थः । एतेन शराणामतिदूर वेधेऽपि वेगप्रकर्ष उक्तः । संक्षोभोद् वृत्तरत्नानां निर्यन्तो मयूखाः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १६७ यस्मादिति वा । एवम् फेननिभानि फेनतुल्यान्युच्छलितान्युपरिस्थितानि मौक्तिकानि यत्र तथाभूतम् । यथा फेना उपरि तिष्ठन्ति तथा मौक्तिकान्यपीत्यर्थः। उच्छलितमौक्तिकान्येव फेनायन्त इत्यर्थ इति केचित् ॥४०॥ विमला-( जल की उष्णता से ) विद्रुम स्फुटित हो गये, प्रहार के वेग से ऊपर उठे रत्नों की कान्ति जल में ऊपर दिखायी पड़ने लगी, मोती फेन के समान ऊपर तैरते हुये दिखायी पड़े और समुद्र का जल, वेला का अतिक्रमण कर समविषम भूमि में इधर-उधर फैल गया ॥४०॥ आवर्तानामवस्थामाह जलपवाडिप्रमूक्का खणमेत्तत्थइअपाअडिअवित्थारा । होन्ति पसण्णक्खु हिआ मूअल्लइअमुहला समुद्दावत्ता ॥४१॥ [ जलप्लावितमुक्ताः क्षणमात्रस्थगितप्रकटितविस्ताराः । भवन्ति प्रसन्नक्षुभिता मूकायितमुखराः समुद्रावर्ताः ॥ ] समुद्रावर्ताः कंदराकारभ्रमत्समुद्रसलिलोत्पीडाः शराभिघातोच्छलितेन प्लाविता अतिक्रान्ता अथ मुक्ताः पुनरन्यत्रगतेन तेन त्यक्ता भवन्ति । अत एव क्षणमात्रं स्थगिताः प्लावनदशायां छन्ना लुप्ता अथ प्रकटितविस्तारास्त्यागदशायां यथापूर्व प्रवृत्ताः । प्राचीनसंस्कारवशादित्यर्थः । एवं प्रथमं प्रसन्ना जलान्तरसमानाकारत्वादथ क्षुभिताः । निम्नोन्नतीभूय भ्रमणशीलत्वात् । एवं च प्रथमं मूकायिता जलान्तरेणावतंगतपूरणे निःशब्दा अथ तदपगमे भ्रमणप्रवृत्तौ मुखराः सशब्दाः । कल्लोलबाहुल्यात् । यद्वा मूकायिताः सन्तो मुखराः । यथा मूको वक्तुमुद्यतो गुंगुकरोति तथा निम्नप्रदेशे जलान्तरप्रदेशात्कुम्भादिवदव्यक्तं ध्वनन्तीत्यर्थः। एतेनावर्तानां क्षणादेव पूर्ववत्प्रवृत्ती प्लावकजलवेगोत्कर्षेण प्रवाहोत्कर्ष उक्तः ॥४१॥ विमला-समुद्र के आवतं ( भँवर ) शराभिघात से उछले हुये जल के द्वारा [प्लावित ] अतिक्रान्त हो गये और कभी अन्यत्र चले गये जल से परित्यक्त हो गये, अतएव प्रथम दशा में क्षण भर के लिये वे आवर्त [ स्थगित ] लुप्त हो गये और द्वितीय दशा में पुनः पूर्ववत् प्रवृत्त हो गये एवं प्रथम दशा में प्रसन्न, द्वितीय दशा में क्षुब्ध, प्रथम दशा में निःशब्द, द्वितीय दशा में शब्दायमान हो गये ॥४॥ समुद्र परिवर्तनमाह वलमाणुव्वतन्तो एक्कं चिरपालपीडिअं सिढिलेन्तो। बीएण व पापाले पासेण णिसम्मिउ पउत्तो उवही ॥४२।। [ वलमानोद्वर्तमान एक चिरकालपीडितं शिथिलयन् । द्वितीयेनेव पाताले पाइँन निषत्तु प्रवृत्त उदधिः ॥ ] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] सेतुबन्धम् [पञ्चम शराभिघातेन समुद्रस्य तलवति जलमुपरिगतम् उपरिष्ठं च तले निविष्टम् । अत्रोत्प्रेक्षते-उदधिः पातालेऽर्थाच्छयनीकृते द्वितीयेन पावेन निषत्तुं शयितु. मिव प्रवृत्तः । किं कुर्वन् । एकं पावं चिरकालपीडितमिव शिथिलयन् विश्राम प्रापयन् । उपरिकुर्वन्निति यावत् । उपरिकरोतीति कुतो ज्ञायते तत्राह-वलमानो वक्रीभूतः सन्नुद्वर्तमानः । अन्योऽपि चिरं शयानः पावन्तिरेण यितुं परिवर्तत इति ध्वनिः ॥४२॥ विमला-[ राम के शराभिघात से ] समुद्र का नीचे वाला जल ऊपर और ऊपर वाला नीचे निविष्ट हो गया, मानों समुद्र पाताल में एक पार्श्व भाग को, जो एक ही करवट चिरकाल तक सोने से पीड़ित हो गया था, विश्राम देने के लिये दूसरे पार्श्व भाग से सोने में प्रवृत्त हुआ-एक करवट से दूसरी करवट हो गया ॥४२॥ समुद्रस्य सुवेलसंघट्टमाह सरवेअगलत्थल्लिअसुवेलरुब्भन्तसाअरद्धत्थइअम् ओसरिअदाहिणदिसं दोसइ उक्खण्डिएक्कपास व णहम् ॥४३॥ [ शरवेगगलहस्तितसुवेलरुध्यमानसागरार्धस्थगितम् । अपसृतदक्षिणदिग्दृश्यते उत्खण्डितैकपार्श्वमिव नभः ॥] शरवेगेण गलहस्तितं प्रेरितमथ सुवेलेन रुध्यमानं यत्सागराधं तेन स्थगितं छन्नं यद्वा तथाभूतसागरेणार्धावच्छेदेन स्थगितं छन्नम् । अतएवापसृता दूरीकृता दक्षिणा दिग्यत्र एतादृशं नभ उत्खण्डितमेकं पावं यस्य तथाभूतमिव दृश्यते । अयमाशय:-उत्तरतटस्थितरामशरप्रहारात्समुद्रस्य दक्षिणभागजलं वेलामतिक्रम्य गच्छत्सुवेलसंघटेनोर्ध्वमुच्छलितं गगनमाचक्रामेति दक्षिणाशातिरोधानात्खण्डितदक्षिणपार्श्वताप्रतीतिरित्युत्प्रेक्षा ॥४३॥ विमला-[ उत्तर तटस्थित राम के ] शरवेग से प्रेरित समुद्र का दक्षिण भाग वाला जल, आगे सुवेलगिरि से अवरुद्ध हो ( अतएव उछलकर ) आकाश को आच्छादित कर चुका, जिससे दक्षिण दिशा का अस्तित्व ही गायब हो गया और मानों आकाश का एक (दक्षिण) पार्श्व खण्डित हो गया ॥४३॥ समुद्रमूलोपमर्दमाह आइवराहेण वि जे अदिदा मन्दरेण वि अणालिद्धा। खुहिआ ते वि भअबरा आवाआलगहिरा समुद्दुदेसा ।।४४॥ [ आदिवराहेणापि येऽदृष्टा मन्दरेणाप्यनाश्लिष्टाः । क्षुभितास्तेऽपि भयकरा आपातालगभीराः समुद्रोद्देशाः ।।] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१६६ __ आदिवराहेणापि ये भयकरत्वेनादृष्टा इति विकटत्वमुक्तम् । एवमापातालगभीरत्वेन मन्दरेणाप्यस्पृष्टा इति देवप्रेरणयाप्यगम्यत्वम् । एवंभूता अपि ते समुद्रप्रदेशाः क्षुभिता: । रामशररित्यर्थात् । इति विदूरवेधित्वमुक्तम् ॥४४॥ विमला-समुद्र के भयंकर एवं पातालपर्यन्त गहरे वे प्रदेश भी क्षुब्ध हो गये, जिन्हें ( भयंकर होने से ) आदि वराह ने भी नहीं देखा और ( पातालपर्यन्त गहरे होने से ) मन्दराचल ने भी स्पर्श नहीं किया था ॥४४॥ अथ पालालवेधमाह-- एक्केक्कम्मि वलन्तो बाणप्पहरविवरे णहणिरालम्बे । खअकालाणलभीम पडइ रसन्तो रसानले व्व समुददो ॥४५॥ [ एककस्मिन्वलन्बाणप्रहारविवरे नभोनिरालम्बे । क्षयकालानलभीतः पतति रसन्रसातल इव समुद्रः ॥] समुद्रस्य तलभूमौ यत्र-यत्र रामशरा निपतन्ति तत्र-तत्रैवाकाशतुल्यानि विवराणि भवन्ति निम्नप्रवेशवशाच्छब्दं कुर्वाणानि तेनतेनैव जलानि गलन्ति । तत्रोत्प्रेक्षा-- क्षयकालानलाद्भीत इव समुद्रो रसन् शब्दायमानो रसातले पतति । शरानलेषु प्रलयाग्निभ्रमादित्यर्थः । किंभूते । नभोवनिरालम्बे शून्ये । एकैकस्मिन्बाणप्रहारविवरे वलन् वक्रीभूय पतन्नित्यर्थः। अन्योऽप्यग्रतो भयमालोक्य रसित्वा वक्रीभूय पश्चादपसरतीति ध्वनिः । इति विवरोत्कर्षेण शरोत्कर्ष : ॥४५॥ विमला-समुद्र के तलप्रदेश में जहाँ-जहाँ राम के बाण लगे वहाँ-वहाँ आकाश के तुल्य छिद्र बन गये और शब्द करता हुआ जल उनमें प्रविष्ट होने लगा, मानों प्रलयकालाग्नि से भयभीत समुद्र क्रन्दन करता हुआ, रसातल में (बाणार्थ) भाग रहा था ॥४॥ मत्स्यानां विप्लवमाह-- वीसन्ति दिमहणा पुपिडिठ्ठि अपलोट्टमन्दरसिहरा । आसाइमामअरसा बाणदढप्पहरमच्छिा तिमिमच्छा ॥४६॥ [ दृश्यन्ते दृष्टमथनाः पृष्ठपरिस्थितप्रलुठितमन्दरशिखराः । आस्वादितामृतरसा बाणदृढप्रहारमूच्छितास्तिमिमत्स्याः ॥] तिमिनामानो मत्स्या बाणस्य दृढप्रहारेण मूच्छिता दृश्यन्ते । किंभूताः । दृष्टं मथनमर्थात्समुद्रस्य यैः। तदानींतनसंभ्रमेऽपि न भीता इत्यर्थः । एवं पृष्ठोपरिस्थितानि प्रलुठितानि मन्दरशिखराणि येषामिति । महान्तो बलवन्तश्चेत्यर्थः । एवं चास्वादितोऽमृतरसो यस्ते । तथा चामृतनिर्गमपूर्वकालीनाः । अथवा आस्वादितामृतरसत्वेन मूच्छिता न तु मृता इति भावः ॥४६॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] सेतुबन्धम् [पञ्चम विमला-समुद्र के वे तिमिनामक मत्स्य भी राम के बाणों के दृढ़ प्रहारों से मूच्छित हो गये, जिन्होंने समुद्रमथन का दृश्य देखा था ( उस समय भी नहीं भयभीत हुये थे ), जिनकी पीठ पर मन्दराचल के शिखर स्थित रहकर ( मथानी की तरह ) घूम चुके थे ( उस समय भी कष्ट का अनुभव जिन्हें नहीं हुआ ) और जो अमृतरस का आस्वादन कर चुके थे ( अतएव मरे नहीं ) ॥४६॥ भुजंगानां श्वासमाह उक्खित्तमहावत्ता वरदविषण्णविद्दुमर अक्ख उरा। मावाआलवलन्ता दोसन्ति महाभुअंगणीसासवहा ॥४७॥ [ उत्क्षिप्तमहावर्ता दरदग्धविवर्णविद् मरजःकलुषाः । आपातालवलमाना दृम्तन्ते महाभुजंगनिःश्वासपथाः ॥] महाभुजंगानां निःश्वासपथा दृश्यन्ते । किंभूताः। आपातालाद्वलमाना उत्पद्यमानाः । अत एवोत्क्षिप्ता जलमूलतो नभःपर्यन्तमुत्थापिता महावर्ता यस्ते । एवं प्रथमतस्तप्तजलसंबन्धादीषद्दग्धा अत एव विवर्णा ये विद्रुमास्तेषां रजोभिः कलुषा धूम्राः। पश्चात्स विषसनि:श्वसितसंबम्धेन भस्मीभावादित्यर्थः । तथा च पातालावधि नभःपर्यन्तावर्त प्रकर्षेण जलप्रकर्षः । तेन नि:श्वासप्रकर्षः । तेन भुजंगप्रकर्षः । तेन श्वासहेतुदाहदुःखप्रकर्षः । तेनानलप्रकर्षः । तेन रामशरप्रकर्ष इत्यवधेयम् ॥४७॥ विमला-( राम के बाणों से व्याकुल ) महाभुजंगों के निःश्वास-मागं पाताल से उत्पन्न होते हुये ( स्पष्ट ) दिखायी दिये, जिनके द्वारा (पाताल से आकाश तक ) बड़े-बड़े आवर्त ( भंवर ) उठे और जो, स्वल्पविदग्ध अतएव विवर्ण (किन्तु बाद में विषप्रभाव से भस्म हुये ) मूगों के रज से धूम्र वर्ण के हो रहे थे ॥४७॥ सर्पमिथुनवैक्लव्यमाह देवह पेम्मणिलिम सरसंवठ्ठधणिओवऊहणसुहिमम् । जीएण एकमेक्क परिरक्खन्तवलिभं भुगममिहुणम् ॥४८॥ [ वेपते प्रेमनिगडितं शरसंदष्टधन्योपगृहनसुखितम् । जीवेनैकैकं परिरक्षद्वलितं भुजंगममिथुनम् ॥] एके नैव शरेण विद्धं भुजंगममिथुनं भोगाभ्यां मिथो मिलदुत्प्रेक्ष्यते-भुजंगम. मिथुनं वेपते । कीदृशम् । प्रेमरूपनिगड विशिष्टम् । अत एव विश्लिष्य गन्तुमपार. यत् । एवं शरेण संदष्टं सद्धन्योपगृहनेन दृढालिङ्गनेन सुखितम् । अलब्धपूर्वमालिङ्गनं लन्धं मरणमपि सहैव स्यादिति वेधदुःखमप्यगणयत् । एवं जीवेनैकैकं परिरक्षद्वलितं मिथो वेष्टयत् । स्वस्वजीवितं दत्त्वापि स्वस्वदेहेन प्रहारान्तरवारणाय पर. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप- विमलासमन्वितम् [ १७१ स्परवधानं कुर्वत् । यद्वा परस्परं मरणमाशङ्कघ तत्तद्वपुषि स्वस्व देह समर्प स्वस्वजीवनसमर्पणं कुर्वदिति भावः ॥ ४८ ॥ विमला -- प्रेम की बेड़ी से जकड़ा सर्पों का जोड़ा, राम के बाण से विद्ध होने पर एक-दूसरे से कस कर लिपट कर सुखी हुआ और अपना-अपना जीवन देकर भी अपने- अपने शरीर से एक-दूसरे की रक्षा करता हुआ परस्पर परिवेष्टित हो गया ||४८ ॥ शराणां प्रसरणमाह रामसरा ॥४६॥ मोडिअविदुमविडवा धावन्ति जलम्मि मणिणिहंसणनिसिया | सिप्पि उडमज्झणिग्गअमुहलग्गत्थोरमुत्ति आ [ मोटितविद्र ुमविटपा धावन्ति जले मणिनिघर्षण निशिताः । शुक्तिपुटमध्यनिर्गतमुखलग्नस्थूलमौक्तिका रामशराः ॥ ] रामशरा जले धावन्ति । निष्प्रत्यूहं संचरन्तीत्यर्थः । किंभूताः । मोटितानि विद्रुमविटपानि यैः । अग्निसंबन्धात् । एवं मणिषु निघर्षणेन निशिताः शिताग्राः । अतएव शुक्तिपुटमध्यनिर्गताः सन्तो मुखे लग्नं विद्धत्वात्संबद्धं स्थूलं मौक्तिकं येषां ते ||४|| 2 विमला - ( इस प्रकार ) समुद्र के जल में राम के बाणों का निर्वाध संचार होता रहा। उन्होंने विद्रुम विटपों को चूर्ण कर दिया, मणियों पर पड़ने से रगड़ खाकर वे और चोखे हो गये तथा सीपियों को छेद कर भीतर पहुँचने से उनके मुख भाग पर ( बिंधे हुये ) बड़े - बड़े मोती लग गये ॥ ४६ ॥ जलसंबन्धादुत्पम्नो धूमः प्रवालेषु लग्नस्तमुत्प्रेक्षते - विसवेप्रो व्व पसरिओ जं जं महिलेइ बहलघू मुप्पीडो । कज्जलइज्जइ तं तं रुहिरं व महोन हिस्स विदुमवेढम् ||५०|| [ विषवेग इव प्रसृतो यं यमभिलीयते बहलधू मोत्पीडः । कज्जलयति तं तं रुधिरमिव महोदधेर्विद्रुमवेष्टम् ॥ ] विषवेग इव प्रसृतो बहलो धूमोत्पीडो यं यं महोदधे रुधिरमिव विद्रुमवेष्टी प्रवालमण्डलमभिलीयते मीलति तं तमेव कज्जलयति कज्जलमिव करोति । श्यामजयतीत्यर्थः । तथा च धूमो न भवति किं तु श्यामत्वाद्दुःखहेतुत्वाच्च विषम् । विद्रुममण्डलं न भवति किं तु रक्तत्वात्समुद्रस्य रुधिरमित्याशयः । अन्यत्रापि सर्पादिविषं वपुषि प्रविशद्रुधिरं व्याप्य श्यामीकरोतीति ध्वनिः ॥ ५० ॥ विमला - ( राम के आग्नेय शर का ) विषवेगसदृश प्रबल धूम-प्रसार - समुद्र के रुधिरसदृश जिस-जिस प्रवालमण्डल से संश्लिष्ट हुआ उसी उसी को उसने श्यामल कर दिया ॥५०॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] सेतुबन्धम् [ पञ्चम पर्वतानां दौःस्थ्यमाह खुहिअसमुद्दुप्पइआ बाणुक्कित्तपडिएक्कवित्थ प्रवक्ता। विसमभरोणप्रसिहरा णहद्धवन्थवलिआ पडन्ति महिहरा ॥५१॥ [क्षुभितसमुद्रोत्पतिता बाणोत्कृत्तपतितकविस्तृतपक्षाः। विषमभरावनतशिखरा नभोधपथवलिताः पतन्ति महीधराः ॥] महीधरा नभोर्धपथादलिता वक्रीभूताः सन्तः पतन्ति। अर्थात्समुद्र एव । पतने हेतुमाह-कीदृशाः । क्षुभितात्समुद्रादुत्पतिता उड्डीनाः । अथ बाणेनोत्कृत्तः सन्प. तित एको विस्तृतः पक्षो येषां ते। एवं विषमभरेणाधिकगौरवेण विषमं वक्र सद्भरेण चावनतमेकं शिखरं येषां ते । अयमर्थ:-समुद्र होताशनी विपत्तिमधिगम्य -गगनममुड्डीय गतानां महीधराणां विस्तीर्यमाण एवैकस्मिन्पक्षे रामशरेणोत्कृत्य "पतिते विद्यमानतदपरपक्षगौरवेण तत्संनिहितशिखरावनतावर्धनमस्त एव ते निपेतुरिति नभस्यपि शरप्रसरणमिति सूचितम् ॥५१॥ विमला-( अपने त्राण के लिये ) क्षुब्ध समुद्र से आकाश को उड़े हुये पर्वत, राम के बाण से कट कर फैले हुये एक पंख के गिर जाने पर, दूसरे पक्ष के एकाङ्गी भार से करवट ले, आकाश के आधे मार्ग से (पुनः ) समुद्र में गिर गये ॥५१॥ सर्पाणां विपत्तिमाह छिण्णविव इण्णभोआ कण्ठपडिट्ठविधजीविमागअरोसा। दिट्ठोहि बाणणिवहे डहिऊग मुमन्ति जीविआई भुरंगा ।। ५२।। [छिन्नविप्रकीर्णभोगाः कण्ठपरिस्थापितजीवितागतरोषाः। दृष्टिभ्यां बाणनिवहान्दग्ध्वा मुञ्चन्ति जीवितानि भुजंगाः॥] भुजंगा जीवितानि मुञ्चन्ति । अत्र प्रकारमाह-कीदृशाः । छिन्ना अथ विप्रकीर्णा दिशि दिशि विक्षिप्ता भोगा येषाम् । एवं भोगानां छिन्नत्वादवस्थानाभावात्कण्ठ एव परिस्थापितजीविता अत एव केनेदं वपुः कृत्तमित्यागतक्रोधाः । अथ कि कृत्वा । दृष्टिभ्यां बाणनिवहान्दग्ध्वा प्रदीप्य । दृष्टिविषज्वालाशरज्वालयोः संबन्धात् । संकटपतिताः सर्पा दग्भ्यां विषज्वालामुद्वमन्तीति प्रसिद्धि : । तथा च यथायथा दृग्भ्यां विषज्वालामुज्झन्ति तथा तथा शरानलोपचयान्मृता इति भावः । दृष्टिभ्यां बाणनिवहान्दग्ध्वा मृता इत्यर्थ इति केचित् । 'उहिऊण' इति पाठे दृष्टिभ्यां शरनिवहानूहित्वा तर्कयित्वा । तथा च शरज्ञानानन्तरं मृता इत्यर्थः ॥५२॥ विमला-सौ के भोग ( शरीर ) राम के शर से छिन्न-भिन्न हो इधरउधर बिखर गये, अतएव कण्ठ में ही उनके प्राण स्थित रहे, अतएव क्रोधाविष्ट हो वे अपनी दृष्टि द्वारा (विषज्वाला से सम्बद्ध कर ) बाणों को प्रदीप्त करते हुये प्राण-विहीन हो गये ॥५२।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] गर्ते शरानलोपचयमाह - चाऊरेड रसन्तो उक्खडिख भुअंगभो अपभाराई । सरमूहगलत्थणुक्ख असेलट्ठाणविवरोअराइ हुश्रवहों ।। ५३ ।। [ आपूरयति रसन्नुत्खण्डितभुजंगभोगप्राग्भाराणि । शरमुख गलहस्तोत्खातशैलस्थानविवरोदराणि हुतवहः ॥ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् हुतवहः शराणां मुखं शराग्रं तस्य गलहस्तः प्रेरणं तेनोत्खाता उत्थापिता ये शैलास्तेषां स्थानान्येव शून्यत्वाद्विवराणि तेषामुदराणि पूरयति । उत्खातसमुद्रमध्यस्थशैलस्थानानि यावत्परितोवर्तीनि जलानि पूरयन्ति तावच्छराग्निभिरेव पूरितानीति जलवेगापेक्षयानलवेगप्रकर्षः । तदुत्तरमपि शराग्नेः प्रौढत्वाज्जलप्रवेशो न वृत्त इति भावः । अत एवोक्तं रसन् । प्रान्तावच्छेदेन तज्जलदाहजन्य शब्दवानित्यर्थः । स्वभावतो वा । तानि किंभूतानि । उत्खण्डिता भुजंगानां भोगप्राग्भारा यत्र तानि । फणावष्टब्धपर्वतरक्षणाय पुच्छावष्टब्धभूमित्वेन बलरोषप्रकर्षादनुत्थितपुच्छ त्वेन च शैलोत्थापनेन मध्य एव त्रुटिता भुजंगा इत्यर्थः ॥ ५३ ॥ विमला - अग्नि ने बाणों के अग्रभाग का अर्धचन्द्र देकर ( समुद्रमध्यस्थ ) शैलों को उखाड़ दिया और ( उन पर्वतों की रक्षा के लिये उन पर फण टिकाये गये ) सर्पों के शरीर का पूर्वार्ध भाग तोड़-ताड़ दिया एवम् उखाड़े गये पर्वतों के स्थान पर हो गये विवरों को ( समुद्रजल के पहुँचने के पूर्व ही ) उसने धू-धू करते हुये व्याप्त कर दिया ॥५३॥ करिमकरदन्तानाह— भिण्णुव्वूढजलअरा दरदिष्णमहात रंगगिरिअडघाआ । छिण्णपडिउद्धविद्धा फुडन्ति माश्रङ्गमश्ररदन्तप्फडिहा ॥५४॥ [ भिन्नोद्वघू ढजलचरा दरदत्तमहातरङ्गगिरितटघाताः । छिन्नपतितोर्ध्वविद्धाः स्फुटन्ति मातङ्गमकरदन्तपरिघाः ॥ ] मातङ्गमकराणां दन्ता एव परिधास्तदाकारत्वात् । ते रामशरेण च्छिन्नाः सन्तः पतिताः । अथोर्ध्वविद्धाः T: शरानलज्वालासंबन्धादूर्ध्वं गतास्तत्रैव स्फुटन्ति । द्विधा भवन्तीत्यर्थः । यथा गृहादिदाहे वंशादयो नभो गत्वा स्फुटन्ति । किंभूताः । भिन्नाः स्यूता अथोद्वढा ऊर्ध्वं नीता जलचराः करिमकरादयो यैः । स्वशिखाप्रोतजलचरसहिता एवोच्छलिता इत्यर्थः । एवं दरदत्तो महातरङ्गेण गिरिताघातो यैस्ते । तथा च मलय सुवेलाभिघातक्षमतरङ्गोत्थापकतया नक्रभेदकतया च दन्तानां प्रकर्षः । तेन च तदुच्छलनसमर्थशरानलस्य करिमकराणां चेत्यवधेयम् । दरदत्तो महातरङ्गा एव गिरयस्तेषां तटघातो यैरिति वा ॥ ५४ ॥ [ १७३ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] सेतुबन्धम् [ पश्चम विमला - मातङ्ग मकरों ( मगर जो डील-डौल में हाथी के समान हों ) के दन्तपरिघ ( शरानल की ज्वाला से ) ऊपर आकाश में चले गये और छिन्नभिन्न एवं फूट-फाट कर पुनः नीचे गिर गये । वे ऊपर जाते समय अपने साथ अपने से संलग्न मातङ्ग मकर आदि जलचरों को भी ऊपर आकाश में ले गये और उनकी इस स्थिति से समुद्र में ऐसी लहरें उठीं, जो उत्तर में मलय और दक्षिण में सुवेल पर्वत से जा टकरायीं ॥ ५४ ॥ मीनानां संभ्रममाह- जालालोग्रविमुहिअं सलिलतरङ्ग परिसक्कणपरिक्वलिअम । परिहरइ विदुमवणं धूमाहअश्रम्बलो अगं मीणउलम् ।। ५५॥ [ ज्वालालोकविमुग्धं सलिलतरङ्गपरिसर्पणपरिस्खलितम् । परिहरति विद्रुमवनं धूमाहतताम्रलोचनं मीनकुलम् ॥ ] मीनकुलं कर्तृ विद्रुमवनं परिहरति त्यजति । किंभूतम् । ज्वालानामालोकेन विमुग्धं मोहमापन्नम् । एवं सलितरङ्गेषु परिसर्पणेन परिभ्रमणेन परिस्खलितं स्थानान्तरं गतम् । एवं च धूमेनाहते स्पृष्टे अत एवाताम्र लोचने यस्य । तथा 'च मीनाः समुद्रमध्ये शरानलज्वालामवलोक्य भयात्क्वचिदन्यत्र गताः । तत्रापि धूमाकुल दृष्टितया सम्यगनिभालयन्तो ज्वालाबुद्धचा विद्रुमवनमपि त्यजन्तीति भयप्रकर्षः । भ्रान्तिमानलंकारः ॥५५॥ बिमला - शरानल की ज्वाला देख कर मत्स्यसमूह घबरा गया और सलिल-तरङ्गों में परिभ्रमित हो अन्य स्थान को पहुँच गया, किन्तु वहाँ भी घुमें से रक्तनेत्र हो ( ठीक से देख न सकने के कारण ) उसने विद्रुमवन को समझ कर ) छोड़ दिया ।। ५५ ।। ज्वाला सर्पाणां वैक्लव्यमाहउवत्तोअरघवला संघेति उप्पबन्ता दरणिग्गअडड्ढजमलजीहाणिवहा । थोरतरङ्गविअडन्तराइ भुअंगा ||५६ || [ उद्वृत्तोदरधवला दरनिर्गतदग्धयमलजिह्वानिवहाः । सं दधत्युत्प्लवमानाः स्थूलतरङ्गविकटान्तराणि भुजंगाः ॥ ] भुजंगाः स्थूलानां समुद्रक्षोभेण महतां तरङ्गाणां विकटानि महान्ति अन्तराणि = अन्तराल प्रदेशान्सं दधति । स्वशरीरेण पूरयित्वा समीकुर्वन्तीत्यर्थः । अत्र हेतुमाह - उत्प्लवमाना उपरि संचरन्तः । एवं उद्वृत्तं शरानल दाहतो विपरीत्य स्थितं यदुदरं तेन धवलाः । तेन वीचीनां श्वैत्येन संधानयोग्यत्वमुक्तम् । पुनः कीदृशाः । दग्धा अत एव दरनिर्गताः किंचिद्बहिर्भूता जिह्वायुगल निवहा येषाम् । यमलं युग-लपर्यायः । तथा च समुद्रस्य क्षोभप्रकर्षेण तरङ्गस्थौल्यप्रकर्षः । तेन तदन्तराल - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १७५ प्रकर्षः । तेन तत्पूरक सर्पप्रकर्षः । तेन तदुद्वर्तनसमर्थतया दाहप्रकर्षः । तेन च शरानलप्रकर्षः । इत्यवधेयम् ॥ ५६ ॥ विमला - सर्प शरानल से दग्ध हो गये, उनकी दोनों जीभें थोड़ा-सा मुख से बाहर निकल आयीं, उनका शरीर उलट गया, पेट वाला भाग ऊपर हो गया; अतएव अब वे धवल दिखायी दे रहे थे, इस प्रकार जल के ऊपर तैरते हुये वे स्थूल तरङ्गों के विकट अन्तराल प्रदेशों को अपने शरीर से पूर्ण कर बराबर कर रहे थे || ५६ ॥ करिमकराणां दौस्थ्यमाहदरुत्तिण्णा हुआ सत्तत्तवा अमअणी सन्दा । पक्कग्गाहणहङकुसविसमसमक्कन्तमत्थमा करिमरा ॥ ५७॥ दीसन्ति दरोत्तीर्णाहुताशनोत्तप्तवानमदनिःस्यन्दाः । करिमकराः ॥ ] [ दृश्यन्ते प्रग्रानखाङ्कुशविषमसमाक्रान्तमस्तकाः करिमकरा जलहस्तिनो दरोत्तीर्णाः समुद्रादर्धनिर्गताः सन्तः प्रग्राहो जल सिंहस्तस्याङ्कुशाकारत वैविषमं यथा स्वादेवं समाक्रान्तं मस्तकं येषामेवंभूता दृश्यन्ते । किंभूताः । हुताशनेनोत्तप्ता अत एव वानाः शुष्का मदनिःस्यन्दा येषां ते । बहिर्भावे जलसिंहातिक्रमं जानन्तोऽपि करिमकरा बहिर्भूता इति ज्वालाप्रकर्षः । किचिन्नितानामेव तेषामतिक्रमेण तज्ज्वालाविह्वलानामपि जलसिंहानां तेजःप्रकर्ष इत्युन्नेयम् । पक्कग्गाहो जलसिंहे देशी वा । वान इति 'औ वै शोषणे' धातुः ||५७|| विमला - करिमकर ( जलहस्ती ) शरानल से उत्तप्त हो गये, अतएव उनके मद की धारा शुष्क हो गयी तया ( व्याकुल होकर ) समुद्र से आधे ही निकले थे कि जलसिंह के अङ्कुशाकार नखों से उनका मस्तक बुरी तरह दबोच लिया गया ।। ५७॥ शङ्खानां वैक्लव्यमाह घोलइ गोणित्तं विसमट्ठिप्रमणिसिला अलपलोट्टन्तम् । झिज्जन्त सलिलविहलं वेलापुलिगगमणूसुअं सङ्खउलम् ||५८ || [ घूर्णते गतापनिवृत्तं विषमस्थित मणिशिलातलप्रलुठत् । क्षीयमाणसलिलविह्वलं वेलापुलिनगमनोत्सुकं शङ्खकुलम् ॥ ] शङ्खकुलं घूर्णते । कीदृक् । क्षीयमाणे ज्वालया शोष्यमागे सलिले विह्वल ब्याकुल मौष्ण्यातिशयात् । अत एव वेला च पुलिनं च तत्र गमने उत्सुकं जलशून्यत्वात् । एवं प्रस्थानोत्तरं विषमस्थितेषु नीचोच्चतया व्यवस्थितेषु मणिशिलातलेषु प्रलुठत् । अत एव जले तापोदयाद्गतम् । अथ मणिशिलानां वैषम्यादृजुमार्गाला Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] सेतुबन्धम् [पञ्चम भेन पतदुत्पतत् । अपनिवृत्तं परावृत्तम् । एवमन्यत्रापीति । दिशि दिशि भ्रमतीत्यर्थः ॥५॥ विमला-श्रीराम के शर की ज्वाला से जब समुद्र का जल शुष्क किया जा रहा था, उस समय ( जल के उष्ण हो जाने से ) शङ्खसमूह व्याकुल हो गया और वेला एवं पुलिन प्रदेश की ओर जाने के लिये उत्सुक हो ऊबड़-खाबड़ मणि शिलाओं पर लुढ़क ता हुआ गया किन्तु ( आगे सरल मार्ग न पाने से ) लौट पड़ा, इसी प्रकार प्रत्येक दिशा में घूमता रहा ॥५॥ पर्वतानामुत्पतनमाह मुक्कसमुद्दुच्छङ्गा पक्खक्खेवेहि संभमसमुष्पहआ। अभुत्तेन्ति महिहरा एक्कक्कमसिहरसठिअं सिहिणिवहम् ।।५।। [ मुक्तसमुद्रोत्सङ्गाः पक्षक्षेपैः संभ्रमसमुत्पतिताः । __ अभ्युत्तेजयन्ति महीधरा एकैकशिखरसंस्थितं शिखिनिवहम् ॥ ] महीधराः परस्पर शिखरसंस्थितमग्निसमूहं पक्षक्षेपैरड्डयनकालीन पक्षचालनैरभ्युत्तेजयन्ति उद्दीपयन्ति । वायुसंबन्धादित्यर्थः । किंभूताः । संभ्रमेण शराग्निजन्यक्षोभेणोत्पतिताः। अत एव मुक्तः समुद्रोत्सङ्गो यरेवंभूताः । तथा च दाहभिया समुद्रादुड्डीय गगनं गताः। तत्रापि परस्परपक्षपवनेनोत्तेजितशिखरानलाद्वैक्लव्यमेव प्रापूरिति विपदि क्वापि न सोमन रय मिति भावः । अन्यत्रापि वनादिदा पक्षिभिरुड्डीय गगनमाश्रीयत इति ध्वनिः ॥५६॥ । विमला-(श राग्निजन्य ) संक्षोभ से पर्वत समुद्र के अङ्क को त्याग कर ( ऊपर आकाश में ) उड़ गये, किन्तु वहाँ भी उनके प्रत्येक शिखर पर शरानल स्थित रहा और वे उड़ते समय पक्षसञ्चालन से उस ( अग्नि ) को उद्दीप्त हो करते रहे ( उन्हें वहाँ भी शान्ति नही मिल सकी ) ॥५६॥ पातालजलोत्थानमाहविलम्वत्तभुअंगा छिण्णमहासुरसिहप्पअणगम्भीरा। मूलुस्थविअरअणा णेन्ति रसन्ता रसाअलजलप्पीडा ॥६०॥ [ विहलोत्तभुजंगाश्छिन्नमहासुरशिर उत्प्लवगम्भीराः । मूलत्तम्भितरत्ना निर्यन्ति रसन्तो रसातल जलोत्पीडाः ॥] रसातलस्य जलोत्पीडा नि यन्ति । रामशरेण पातालपर्यतभेदनात्तेनैव रम्घेण तत्रत्यजलानि बहिर्भवन्तीत्यर्थः । वहिसंबन्धात्पाताल भूमेरार्द्धत्वेन वा । कीदृशाः । रसन्तः शब्दायमानाः जल नामाकरिमकोद गमने शब्दो जायत इति स्वभावात् । एवं विह्वला: सन्त उ वृत्ता उत्ताना भुजंगा येषु ते । वं हिन्नानि यानि महासुराणां मधुकैटभप्रभृतीनां शिरांसि तेषामुत्प्ल वनेन गम्भीरा भयानकाः । एवं मूलादुत्तम्भि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ १७७ तान्युत्थापितानि रत्नानि यः । तथा च जलवेगपतितानां पातालसर्पमहासुरमस्तकरत्नानामागच्छतामाकुली करणेन जलानामाधिक्यं तेन च विवराणां तेन + शराणां शरानलानां वा ।।६।। विमला-( रसातल तक राम के शर के पहुंचने से ) रसातल का जल हाहाकार करता निकल पड़ा। उसके वेग में पड़, र पाताल के सर्प उलट गये, बड़े-बड़े असुरों के सिर छिन्न होकर उसमें बैरने लगे, जिससे जल अत्यन्त भयानक दिखायी देने लगा एवम् रत्न' अपने मूलप्रदेश से उखड़ गये ।।६।। कल्लोलानां शोषणमाह बाणलिहा उच्छित्ता हप्रवह जालाह उपवन्तफणा। ॐटत णले किन माम अभिल हे पाललललाला ॥६॥ [बाणनिधातोत्क्षिप्ता हतबहज्यावहतोत्र वमानसेनाः । शुष्यन्ति नभस्तल एव मास्तभिन्नलघकाः सलिलकल्लोलाः ।।] बाणनिघातेनोत्क्षिप्ता उत्थापिताः सलिलकल्लोला नभस्तल एव शुष्यन्ति । अत्र हेतुमाह-हुतवहज्वालाभिराहता: स्पृष्टा: । अत एवोद्गतफेना एवं मारुतेन भिन्ना अत एव लघुका: कणीभूताः । अब गगन एवोच्छलितजलशोषकत्वेन ज्वालानामाधिकाम् ।।६१॥ विमला-बाणों के प्रहार से ऊपर उछाली गयीं सलिल की लहरें अग्निज्वालाओं से आहत हुई और उनमें फेन उद्गत हो गये एवम् वायु से छिन्न-भिन्न होकर कणों के रूप में होने से वे आकाश में ही सूख गयीं ।।६।। पुनः सणां वैक्लव्यमाहगिवढ' बारस्थवी भाडढगगनलगपण दाहा। तुङ्गतरङ्गक्वल । विसमरतः मसलस्ति च ।। ।। ६२ । [निव्यू ढविषस्तबका भोगाकर्षणग उद्गमनोत्साहाः । __ तुगतरङ्गस्खलिता विसमोदृत्तोदरा दलन्ति भुजंगाः ॥] रामशरोत्था पनत्वेन तुङ्गैस्तरङ्गः स्ख लता: समुद्रात्मा बताः । तीरभूमावानीता इति यावत । एवं भूता भुजङ्गा वन्ति संचारा वक्रीभवन्ति । भूताः । विषमं यथा स्यादेवमुद्वत्तान्युत्तानानि उदराण येषाम् । तरङ्गाभिघातादेव । एवं नियूंढो वान्तो विषस्तब को यैः। क्रोधहेतूनालोक्य विषमुद्वमन्तीति सर्पस्वभावः । प्रकृते ज्वालामेव दृष्ट्वा तदुपरि विषं त्यक्तवन्त इत्यर्थः । ज्वालाजन्याभिभवेन वा । एवं भोगाव र्षणे शरीरसंचारणे गलन गमनोत्माहो येषां ते । निविषतया बलाभावात् । तथा च रामशरोत्थकल्लोलसंस्कारेण तीरे पतिता भजंगा निजमपि वपुराक्रष्टुं न पारयन्तीति भुजंगाभिभवाधिक्येन क्षुब्धतरङ्गाधिक्यं तेन शरवेगसमुद्रयोः तेन संधानस्य तेन च रघुनाथबलस्येत्युक्तम् ॥६२॥ १२ से० ब० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] सेतुबन्धम् [पञ्चम विमला-( राम के शराभिघात से उठी ) तुङ्ग तरङ्गों के द्वारा समुद्र से दूर तीरभूमि पर फेंक दिये गये एवं ( तरङ्गाभिघात से ) उलटे पड़े हुये सो ने ( क्रोधवश अग्निज्वाला पर ही) अपना विष छोड़ दिया, अतएव (निविष एवं बलहीन होकर ) शरीर-संचारण में गमनोत्साह से रहित हो किसी प्रकार संचार के लिये वक्र होने का प्रयत्न कर रहे थे ॥६२॥ नदीनामवस्थामाहवेवन्ति णिण्णआणं सरणिबहच्छिण्णसङ्घविडि अबलआ। हत्थ व्व उअहिणिमिआ मुक्करवक्कन्दणिवडिआण तरङ्गा ॥६३॥ [ वेपन्ते निम्नगानां शरनिवहच्छिन्नशङ्खविघटितवलयाः । . हस्ता इवोदधिनियोजिता मुत्त रवाक्रन्दनिपतितानां तरङ्गाः ॥] निम्नगानां तरङ्गा बेपन्ते । समुद्रक्षोभेण तत्र प्रवेशे दिशि-दिशि गच्छन्तीत्यर्थः । उत्प्रेक्षते-हस्ता इव । नदीनामेते तरङ्गा न भवन्ति किं तूदधौ नियोजिताः समासोक्त्या स्वामिनस्तस्य रामशराभिघातवारणार्थमन्तरायीकर्तुमुपरि समर्पिताः समद्रवधूनाममूषां हस्ता भवन्तीत्यर्थः । किंभूतानाम् । मुक्तस्त्यक्तः । उच्चरित्यर्थः । तथाभूतो यो रवस्तरङ्गसंघट्टशब्दः स एवाक्रन्दो रोदनं तेन निपतितानाम् । समुद्रोपरि सशब्दं पतितानामित्यर्थः । अन्या अपि स्त्रियः स्वामिनस्ताडनवारणाय हस्तौ प्रसार्य साक्रन्दमुपरि पतन्तीति ध्वनिः । तरङ्गाः कीदृशाः। शरनिबहेन च्छिन्नाः खण्डखण्डीकृताः शङ्खा एव विघटिता विपर्यस्ता वलया येषु ते । हस्तेष्वपि तदानीं शङ्खवलया विपर्यस्य दिशि-दिशि चलन्तीत्याशयः ॥६३।। विमला-शब्दरूप आक्रन्दन के साथ समुद्र के ऊपर गिरती हुई नदियों के तरङ्ग मानों समुद्र पर राम के शराभिघात को रोकने के लिये समर्पित किये गये थे एवं शरसमूह से छिन्न शंखरूप पृथक किये गये वलय वाले हाथ इधर-उधर चल रहे थे ॥६३॥ पुनः पर्वतानामुत्पतनमाह हअवहभरिप्रणिअम्बा जलअर संवदक्ख उडपम्भारा। चिरसंगिरोहमसिणा दुक्खेण णहं समुप्पन्ति महिहरा ॥६४॥ [हुतवहभृतनितम्बा जलचरसंदष्टपक्षपुटप्रारभाराः। चिरसंनिरोधमसृणा दुःखेन नभः समुत्पतन्ति महीधराः ॥] महीधरा दुःखेन नभः समुत्पतन्ति दुःखेनोड्डीयन्ते । उत्पनने हेतुमाह-हुतबहेन भृतः पूर्णो नितम्बो येषां ते । तथा च दहनुमामिला उत्पतिता इत्यर्थः । दुःखेनेत्यत्र हेतुमाह-चिरसंनिरोधेन चरं : संचार निरोधेन मसृणा मन्द गतयः । सत्वरसंचारेऽनभ्यासात् । अत एव युगाणे क्लेशः । एवं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१७६ : जलचरैः संदष्टौ पक्षपुटयोः प्राग्भारो येषां ते । दाहवारणाय मकरादयः पक्षपुटेषु निलीना इत्यर्थः । एतावता पर्वतानां महत्त्वम् । इदमपि देहगौरवहेतुत्वेनोत्पतनदुःखे बीजम् ॥६४॥ विमला-अग्नि से तटप्रदेशों के पूर्ण हो जाने से ( दाह-दुःख को न सह सकने के कारण ) पर्वत बड़ी कठिनाई से आकाश को उड़ सके, क्योंकि एक तो वे स्वभावत: शरीर से गुरुतर थे दूसरे अग्नि से बचने के लिये तमाम मकर आदि जलचर उनके पंखों में आकर निलीन हो गये थे, तीसरे चिरकाल से एक ही जगह पड़े रहने से ( सवेग संचरण का अभ्यास न होने के कारण ) उनकी गति मन्द हो गयी थी ॥६४॥ समुद्रस्योपमर्दप्रकर्षमाह जलइ जलन्तजलपरं भमइ भमन्तमणिविन्दुमलआजालम् । रसइ रसन्तावतं भिज्जइ भिज्जन्तपव्यों उअहिजलम् ॥६५॥ [ ज्वलति ज्वलज्जलचरं भ्रमति भ्रमन्मणिविद्रुमलताजालम् । रसति रसदावर्त भिद्यते भिद्यमानपर्वतमुदधिजलम् ॥] उदधिजलं ज्वलन्तो जलचरा मकरादयो यत्र तथाभूतं सज्ज्वलति । एवं भ्रमन्मणि विद्रुमलतयोलिं पत्र तथा सद्भ्रमति । रसन्नावों यत्र तथा सदसति शब्दायते । भिद्यमानाः पर्वता यत्र तथा सद्भिद्येत द्विधा भवति । उच्छलितपर्वतखण्डेनाभिघातात् । अत्र सर्वत्र जलजलचरदायोर्जलमणिविद्रुमभ्रमणयोर्जलशब्दावर्तशब्दयोजलपर्वतभेदयोः कार्यकारणयोरेककालत्वं शतप्रत्ययेन बोध्यते । तेन च वह्निप्रकर्षाधीनक्वाथप्रकर्षो गम्यते ॥६५॥ विमला-उदधि का सारा जल जल रहा था, चक्कर काट रहा था, शब्द कर रहा था एवं छिन्न-भिन्न हो रहा था और उसके साथ-साथ सारे जलचर जल रहे थे, मणियों एवं विद्रुमों का समूह चक्कर काट रहा था, आवर्त शब्द कर रहा था एवम् पर्वत छिन्न-भिन्न हो रहे थे ॥६५।। पुनस्तदेवाह आवत्तविवरभनिरो मलमणिशिलाअलक्खलि प्रसंचारो। . घोलिरतरङ्गविलमो ह दोसइ सारो तहे हुअवहो ॥६६।। [ आवर्तविवरभ्रमणशीलो मलयमणिशिलातलस्खलितसंचारः । घूर्णमानतर विषमो यथा दृश्यते सागरस्तथैव हतकहः ।।] आवर्त विवरेगु ब्रमणशील आवर्तगत्यानुसारित्वात् । एवं मलामणि गलातलेषु स्खलित चारः । भूमिसम्मानुसारित्वात् । एवं घूर्णमानतरङ्ग दिनस्तिर्थ गूर्ध्वगतिः तदनुसारित्वात् । समुदो हुत बहोऽपीति । यथा सागरस्तथा हुरहोऽपि दृश्यत इति सागरतुल्का तातो हुावहस्य निखिलजलात्मकत्वमुक्तम् ।।६६।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] सेतुबन्धम् [पञ्चम विमला-समुद्र और अनल दोनों, आवर्त के विवरों में भ्रमणशील थे, मलय के मणिशिलाओं पर ( भूमि की विषमता के कारण ) वाधित गति से संचरणशील थे, चञ्चल तरङ्गों में टेढ़े-मेढ़े ऊपर को जा रहे थे, इस प्रकार जैसा सागर दिखायी पड़ रहा था वैसा ही अग्नि भी ॥६६॥ मलयवनविप्लवमाह रहसपलित्तुच्छलिओ जे च्चिअ पडि वेइ मल श्रवणवित्थारे। विज्झाप्रणि प्रत्तन्तो ते च्चे अ पुणो वि विज्झवेइ समुद्दो ॥६७॥ [ रभसप्रदीप्तोच्छलितो यानेव प्रदोपयति मलयवनविस्तारान् । विध्मातनिवर्तमानस्तानेव पुनरपि विध्मापयति समुद्रः ॥ ] रभसेन वेगेन प्रदीप्तो ज्वलित: सन्नुच्छलितः शराभिघातात् । एवंभूतः समुद्रो यानेव मलयवनसमूहान्प्रदीपयति स्वनिष्ठवह्निना ज्वलयति । विध्मातो वह्निशून्यः । शीतल इति यावत् । तथाभूतः सन्निवर्तमानस्तेनैव पथा समागच्छन् । तानेव पुनरपि विध्मापयति । स्वजलैरग्निशून्यान्करोतीत्यर्थः । तथा च जलस्योच्छलनदशायामियान्वेगो यद्वनेषु स्थितिः क्षणमपि नाभूत् । वनस्य तु स्पर्शमात्रेणैव ज्वलनमिति वह्निप्रकर्षः । पुनरावृत्तिदशायां तदग्निनिर्वापकत्वेन तथाविध पावकानुच्छेद्यतया च बाहुल्यं तथाविधजलस्य । तथाविधवेगजनकत्वेन शराभिधातप्रकर्षस्तेन च संधानप्रकर्षस्तेन च रामस्य बलप्रकर्षः सूचितः । स्वविपत्तावपि परोपकारित्वेन'समुद्रस्य च महाशयत्वमुक्तम् ॥६७।। विमला-समुद्र राम के शराभिघात से तत्काल जलता हुआ उछला और मलय गिरि तक पहुँच कर उसके वनसमूह को उसने प्रज्वलित कर दिया, किन्तु तदनन्तर वह्निशून्य एवं शीतल हो जब पीछे को लौटा तब उस वनसमूह को पुनः अपने जल से उसने बुझाकर अग्निशून्य एवं शीतल कर दिया ।। ६७॥ ज्वालाधिकममाह -~ उत्थम्भिग्रार पर हरो मअरवपातिविसङ्खलसिहाणिवहो। णिवहणि धर्माहरो महिहरकडविडो विअम्भइ जल णो ॥६८॥ [ ऊत्तम्भितमकरगृहो मकरवसामिषविशृङ्खल शिखानिवहः । - निवहनिपातितमहीधरो महीधरकुटविकटो विजृम्भते ज्वलनः ॥] एवंभूतो ज्वलनो विजृम्भते वर्धते । कीदृक् । उत्तम्भित उत्थापितो मकराणां गृहं यत्र स मकर गृहः समुद्रो येन । ज्वालाप्रकर्षेण जलोत्फुल्लीभावात् । मकराणां वसाभिरामिषश्च विशृङ्खलो वर्धमानः शिखानिवहो यस्य । घृतादिवत्स्नेहाधिक्यात् । निवहेन समूहेन निपातिता नाशिता महीधरा येन । इन्धनानामिव तेषामपि ज्वल Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप- विमलासमन्वितम् नात् । निपातितमहीधरनिवहो वा । महीधराणां कूटेषु विकटस्तेषामुच्चत्वादयमप्युच्चः । महीधरकूटव द्विकट उच्चत्वाद्गिरिशृङ्गाकार इति वा ॥ ६८|| विमला - राम का शरानल ऐसा बढ़ा कि उसने मकरालय ( समुद्र ) को ऊपर उठा दिया, ( घृतादिसदृश ) मकरों की चर्बी और मांस से उसकी लपटें अनियन्त्रित हो गयीं, ( इन्धनसदृश ) पर्वतसमूहों को जलाकर उसने विनष्ट कर दिया और वह पर्वतशृङ्ग के समान ऊँचा एवं भयङ्कर दिखायी पड़ "रहा था ॥ ६८ ॥ जलस्योद्धतिमाहजलत्थङ्घि अमूला • पतिणणिसुम्भन्ता । णिवडन्ति जलुप्पीडा पडिलोमाग पडन्तविश्रावत्ता ॥ ६९ ॥ [ ज्वलनोत्तम्भितमूला बाणोत्क्षिप्तपरिवर्तननिपात्यमानाः । निपतन्ति जलोत्पीडाः प्रतिलोमागतपतद्विकटावर्ताः ॥ ] जलोत्पीडा निपतन्ति । आकाशादित्यर्थात् । किंभूताः । ज्वलनोत्तम्भितमुत्थापितं मूलं येषां ते । दहन प्रेरितमूर्ध्वं गच्छतीति वनदाहादौ दृष्टत्वादिति वह्निप्रकर्षः । एवं बाणेनोत्क्षिप्ताः सन्तः परिवर्तनेनाधोमुखीभावेन निपात्यमानाः । प्रथमं वह्निभिरुत्थापितमूलाः पश्चाद्बाणेनोध्वं नीताः । अनन्तरं यथोर्ध्वक्षिप्तं काण्डादिफलभागेनाधः पतति गुरुद्रव्यस्वाभाव्यात्तथा तद्बाणस्यामीभिर्मु खलग्नतया फलस्थानीयत्वेन परिवर्तने कृते स्वयमप्यधोमुखीभूय पतन्तीत्यर्थः । अत एव प्रतिलोमागता विपरीतक्रमेणागताः । अधोमुखा इति यावत् । एवंभूताः पतन्तो विकटावर्ता "यत्र । तथा च जलस्योच्छलनकाले आवर्तस्तथैव स्थित इति शरवेगप्रकर्षः । पत्लनकालेऽपि तथैव स्थित इति जलबाहुल्यम् । पातालं गता अपि शरा उत्थिता इति रामप्रभावप्रकर्षः । शरेणोत्क्षिप्ताः शरं विनैव नभो गत्वा पतन्तीति केचित् ॥६६॥ - विमला - ( राम का शर पाताल तक जा कर पुनः जब वेग से ऊपर को चला उस समय उसके ) अग्निज्वाला से समुद्र के जल का नीचे वाला भाग ऊपर उठा दिया गया और आकाश को वेग से जाते हुये बाण ने सारें जल को इतने वेग से ऊपर आकाश को पहुँचा दिया कि जल के विकट आवर्त ( भँवर ) पूर्ववत् बने रहे । पुनः बाण अधोमुख हो जब नीचे को आने लगा तो उसके वेग से सारा जल विपरीतक्रम से ( अधोमुख ) आकाश से गिरने लगा और इस बार भी विकट आवर्त ज्यों के त्यों बने ही रहे ॥ ६६ ॥ सागरस्य महत्त्वमाह धूमा जलइ बिडइ ठाणं सिढिलेइ मलइ मलउच्छङ्गम् । धीरस्स पढमइण्हं तह विहु रक्षणाअरो ण भञ्जइ पसरम् ॥७०॥ [ १८१ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] सेतुबन्धम् [ पश्चम [ धूमायते ज्वलति विघटते स्थानं शिथिलयति मृद्नाति मलयोत्सङ्गम् । धैर्यस्य प्रथमचिह्नं तथापि हि रत्नाकरो न भिनत्ति प्रसरम् ॥ ] रत्नाकरः प्रथमं शरानलसंबन्धाद्धूमायते धूममुद्वमति । अथ ज्वलति । अथ विघटते कोटिधा स्फुटति । अथ स्थानं मूलं शिथिलयति त्यजति । जलस्योच्छलनाज्ज्वलनाद्वा । अथ मलयक्रोडं मृद्नात्याक्रामति । दाहस्वभावोक्तिरियम् । एवं यद्यपि भवति तथापि धैर्यस्य प्रथमज्ञापकं प्रसरं जल विस्तारगाम्भीर्य लक्षणं न भिनत्ति । न त्यजतीत्यर्थं इति मर्यादाधिक्यमुक्तम् ॥७०॥ विमला - रत्नाकर क्रमशः धूमायित, प्रज्वलित, विघटित हुआ और स्थान ( मूलप्रदेश ) को छोड़ कर मलयगिरि के क्रोड को आक्रान्त कर चुका तथापि उसने धैर्य के प्रथम चिह्नस्वरूप जल विस्तार का परित्याग नहीं किया ॥ ७० ॥ पाकजशब्दप्रागल्भ्य माह भुवइन्दलोअणाणं फुट्ठन्ताण प्र तिमीण साअरमज्झे । संवत्तजलहराण व रामसराणलहाण णीहरइ र ॥ ७१ ॥ [ भुजगेन्द्रलोचनानां स्फुटतां च तिमीनां सागरमध्ये | संवर्तजलधराणामिव रामशरानलहतानां च निर्हृदति वः ॥ ] रामशरानलेनाहतानामत एव सागरमध्ये स्फुटतां भुजगेन्द्रलोचनानां तिमीन च रवः स्फुटनजन्यः शब्दो निर्ह्रादति त्रैलोक्येऽपि प्रतिशब्दं जनयति । यथा संवर्त : प्रलयस्तत्कालीनमेघानां रवो निर्ह्रादी भवतीत्यर्थः । अत्र सागरे स्फुटनमतिदूरे प्रतिरव इति तत्प्रकर्षेण मूलशब्दप्रकर्षस्तेन लोचनप्रकर्षस्तेन भुजंगप्रकर्षस्तेन तद्दाहकशरानलप्रकर्षः ॥ ७१ ॥ + विमला -- राम के शरानल से आहत अतएव सागर के बीच में फटते- फूटते सर्पों के नेत्रों तथा तिमिमत्स्यों का प्रलयकालीन मेघों के समान स्फुटनजन्य शब्द हुआ, जिसकी प्रतिध्वनि से त्रैलोक्य व्याप्त हो गया ।।७१ ॥ नदीप्रवाहानाह— मुहपुजिगणिवा धूमसिहाणिहणिराग्रडिग्रसलिला । णिवन्ति हुक्सित्ता पलउक्कादण्डसगिहा णःसोत्ता ॥७२॥ [मुखपुञ्जिताग्निनिवहानि धूमशिखानिभनिरायत कृष्टस लिलानि । निपतन्ति नभ उत्क्षिप्तानि प्रलयोल्कादण्डसंनिभानि नदीस्रोतांसि ॥ ] नभस्युत्क्षिप्तानि रामशरेण प्रेरितानि नदीस्रोतांसि निपतन्ति । आकाशात्समुद्र इत्यर्थात् । कीदृशानि । मुखे पुञ्जितो वर्तुलीभूतोऽग्निनिवहो येषु तानि । एवं धूमशिखातुल्यानि निरायतानि दीर्घाण्याकृष्टानि सलिलानि यैः । अत एव प्रलयकालीना Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् आश्वासः ] [ १८३ ये उल्कादण्डास्तत्संनिभानि । उल्कादण्डा मुखप्रज्वलिताग्नयः सधूमा नभसः पतन्ति । अत्रोत्काप्रायो वह्निः ऊर्ध्वगतिर्धूमप्राया वह्निपृष्ठलग्ना विपर्यस्ता जलधरा दण्डप्रायाः शराभिघातोत्था नदीप्रवाहा इत्युपमा ॥ ७२ ॥ विमला - रामशर से आकाश में पहुँचा दिये गये नदीप्रवाह, जिनके मुख अग्रभाग ) में अग्नि पुञ्जित था, जिन्होंने धूमशिखातुल्य दीर्घ सलिल आकृष्ट किया था, अतएव प्रलयकालीन उल्कादण्ड के समान आकाश से समुद्र में गिर रहे थे ||७२ ॥ जलानां ह्रासमाह - अट्टन्त सलिलणिव हो थोप्रत्थो अपड़िमुक्कपुलिणुच्छङ्गो । दोसs प्रोक्कन्तो मग्गाहुत्तो पअं पअं व समुद्दो ॥७३॥ [ शुष्यत्सलिलनिवहः स्तोकस्तोकप्रतिमुक्तपुलिनोत्सङ्गः । दृश्यतेऽपसरन्मार्गाभिमुखः पदं पदमिव समुद्रः ॥ ] मार्गशब्दः पश्चादर्थवाची । शुष्यन् सलिलनिवहो यस्य तादृक् । अत एव स्तोकस्तोकं जलशोषक्रमेण किंचित्प्रतिमुक्तस्त्यक्तः पुलिनोत्सङ्गो येन तथाभूतश्च समुद्रः पश्चादभिमुखः पदं पदमपसरन्निव दृश्यते । यथा कश्चित्कंचिद्भयहेतुमवलोक्य पदं पदं पश्चादपसरति तथा रामाद्भीतः समुद्रस्तत्संनिधानं त्यक्तुकामः किञ्चित्पश्चादपसरतीति जलशोषणाद्युत्प्रेक्षा ॥७३॥ विमला - समुद्र का जल सूख रहा था, जिससे पुलिन- प्रदेश कुछ-कुछ प्रतिमुक्त होता जाता था, मानों ( राम से डर कर ) समुद्र थोड़ा-थोड़ा एक - एक पग पीछे हटता जा रहा था ।।७३|| वह्न ेरुद्दामतामाह जलणणिवहम्मि सलिलं साणलणिवहुच्छलन्त सलिलम्मि णहम् । सलिलणिव होत्यअम्मि प्र अत्याग्रह पहले दस दिसावकम् ॥७४॥ [ ज्वलननिवहे सलिलं सानल निवहोच्छलत्सलिले नभः । सलिलनिवहावस्तृते चास्तायते नभस्तले दशदिक्चक्रम् || ] अग्निनित्र हे सलिलमस्तायतेऽस्तं गच्छति । अलक्ष्यं भवतीत्यर्थः । एवं सानलनिवहेऽग्निसमूहसहिते उच्छलत्सलिले नभोऽस्तायते । एवं सलिल निवहेनावस्तृते व्याप्ते नभस्तले सति दशदिक्चक्रमस्तायते । अग्निप्रेरितानां जलानां नभसोऽपि दिशि दिशि गमनात् । तथा च प्रथमं खात एव जलमग्नौ मग्नम् | ततस्तत्प्रेरितं वियद्वयानशे । ततश्च दिक्चक्रमाचक्रामेति विश्वव्यापकत्वमुक्तम् । अन्यदपि दुग्धाद्यावर्तनादुत्थितं सच्चतुर्दिशि पततीति । क्रियादीपकम् ||७४ || Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] सेतुबन्धम् [पञ्चम विमला-अग्नि-समृदाय में सलिल [ अस्तंगत ] अलक्ष्य हो गया, अग्निसमूह सहित उछलते हुये सलिल में नभ अलक्ष्य हो गया एवं सलिलनिवह से व्याप्त नभस्तल में दस दिशाओं का मण्डल अलक्ष्य हो गया ॥७४।। आवर्तमाह सिहिणा पविज्जन्ते आअन्तम्मि विस्थए जलणिवहे । जामा गिम्हविलम्बि अरविरहचक्क मसिणा समुद्दावत्ता ॥७॥ [शिखिना प्रताम्यमाने आवर्त्यमाने विस्तृते जलनिवहे। जाता ग्रीष्मविलम्बितरविरथचक्रमसृणाः समुद्रावर्ताः ॥] समुद्रावर्ता ग्रीष्मेण विलम्बितं विलम्बितगतीकृतं य द्रविरथचक्र तद्वन्मसृणा मन्दगतयो जाताः। ग्रीष्मे रविरथों मन्दं चलतीति लोकप्रतिपत्तिः । तस्मिन्सति शिखिना प्रथमं प्रताप्यमानेऽप्यावर्तमाने भ्राम्यमाणे जलनिवहे पश्चाद्विस्तृते सति । तथा च यथा यथा जलस्य ज्वालया बेलातिक्रमो जनितस्तथा तथा पूर्वप्रवृत्तानामेवावर्तानां विस्तारे सति बहुदेशव्यापकल्बाद्गतिमान्द्यमिव प्रतिपन्नमासीदित्यर्थः । क्षुद्रस्त्वावर्तस्त्वरया चलतीति वस्तुस्थितिः । आवर्तस्य वर्तुल त्वादुष्णत्वाच्च रविरथचक्र साम्यम् ।।७।। विमला-शरानल से प्रतप्त एवम् आवृत्त किये गये अतएव तत्पश्चात् विस्तृत जल राशि होने पर समुद्र के आवर्त, ग्रीष्म से बिलम्बित. रविरथचक्र के समान मन्दगति वाले हो गये ॥७५॥ मणिसंवलितमग्निमाह णि व्वडि अधूमणिवहो उद्धाइअमरगअप्पहामिलिअसिहो। विस्थिण्णम्मि समुद्दे से मालोमइलिओ व घोलइ जलणो ॥७६॥ [निर्वलितधूमनिवह उद्धावितमरकतप्रभामिलितशिखः । विस्तीर्णे समुद्र शेवालावमंलिन इव घूर्णते ज्वलनः ।।] ज्वलनः शेवालैरवमलिनः सर्वतः संवलितं इव धूर्णते । कुत्र समुद्रे । कीदृशि । विस्तीर्ण । अग्ने रधिव्यापकत्वलाभायेदमुक्तम् । शेवालच्छन्नत्वे हेतुमाह--जयलानः कीदृक् । निर्वलितः पृथग्भूतो धूमनिवहो यस्मात्तादृक् । एवमुद्धाविताभिर्मर र तप्रभाभिर्मिलिताः शिखा यस्य । तथा च बहिः संगते धूमेऽन्तःसंगतासु मरकतफान्तिषु वर्णसाम्येन शेवालत्वेनोत्प्रेक्षा ॥७६॥ " विमला-अग्नि से धूमराशि निकल रही थी और उसकी लपटें ऊपर उम्ती मरकतमणि की प्रभा से मिल रही थीं, अतएव वह विशाल सागर में शेवाल से आच्छन्न-सा चारों ओर घूम रहा था ।।६।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वासः ] समुद्र मातिशयमाह जल बलवानो फिट सेली व रामवाणाहिये । मारुग्रो व्व पहल ॥७७॥ इव रामबाणाभिहतः । जलओव्व उही खुहियो लङ्घे [ ज्वलति वडवानल इव स्फुटति शैल रसति जलद इवोदधिः क्षुभितो लङ्घयति मारुत इव नभस्तलम् ॥ ] रामबाणेनाभिहतो यथा वडवानलो ज्वलति अग्निसंबन्धादधिकं वर्धते तथोदधिरपि ज्वलति । एवं तत एव यथा तत्रत्यशैलः स्फुटति तथोदधिरपि स्फुटति । सिंबन्धात् । एवं रामशराभिहतो यथा जलपानार्थमागतो जलदः पीडया रसति शब्दायते तथोदधिरपि रसति । शरानलसंघट्टात् | रामबाणेनाभिहतः समुद्रोपरि संचारी मारुतो यथा तीरं लङ्घयति तदतिक्रम्य गच्छति तथोदधिरपि तीरमतिक्रामतीति सहोपमा | रामबाणाभिहत उदधिर्वडवानल इव ज्वलतीति साधम्र्योप`मेति केचित् ॥ ७७ ॥ विमला - राम के बाण से अभिहत जैसे वडवानल प्रज्वलित हो रहा था वैसे む ही समुद्र भी । जैसे समुद्र के शैल स्फुटित हो रहे थे वैसे ही समुद्र भी । जैसे (जलपानार्थ आया हुआ) जलद ( पीडा से ) शब्द कर रहा था वैसे ही समुद्र भी । जैसे समुद्र के ऊपर चलने वाला वायु रामबाण से अभिहत हो नभस्तल को लांघ जाता था वैसे ही क्षुब्ध समुद्र भी || ७७ || जलाननयोस्तुल्यरूपतामाह होइ मिम्मि थिमिओ वलइ वलन्तम्मि विहss विसंघडिए । परिवढिम्मि वड्ढइ सलिले झोणम्मि णवरं झिज्जइ जलणो ॥ ७८ ॥ [ भवति स्तिमिते स्तिमितो वलति वलमाने विघटते विसंघटिते । परिवर्धिते वर्धते सलिले क्षीणे केवलं क्षीयते ज्वलनः ॥ ] ज्वलनः सलिले स्तिमिते निश्चले सति स्तिमितो निश्चलो भवति । वलमाने आवर्तरूपतामापत्रे वलति तदनुसारेण वर्तते । विसंघटिते खण्डखण्डीभूते विषटते परिवर्धिते उत्फुल्लतामुपगते वर्धते । आश्रयानुवर्तनात् । क्षीणे सति केवलं क्षीयते नश्यति । आश्रयनाशादिति भावः । 'णवरि' इति पाठेऽनन्तरमित्यर्थः |||७८ ॥ [ १८५ विमला - सलिल के निश्चल हो जाने पर अनल भी निश्चल होता, चलने पर चलता, विघटित होने पर विटित होता, बढ़ने पर बढ़ता, क्षीण होने पर (आश्रय के अभाव से) क्षीण होता था ॥ ७८ ॥ अन्तद्वीपानाह रामसराणलपअ विअ सिज्जन्तो अहिविहत्ततडविच्छेमा । ते च्चि तहवित्थारा तुङ्गा दीसन्ति दीवमण्डलिनन्धा ॥ ७६ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] सेतुबन्धम् [पञ्चम [ रामशरानलप्रतापितक्षीयमाणोदधिविभक्ततटविच्छेदाः । तं एव तथाविस्तारास्तुङ्गा दृश्यन्ते द्वीपमण्डलीबन्धाः ॥ ] त एव दाहपूर्वकालीना एव द्वीपमण्डलीबन्धाः पङ्क्तिक्रमेण स्थिता द्वीपा जलसमतादशायां यथाविस्तारः स्थितस्तथाविस्ताराः सन्तस्तुङ्गा उच्चा दृश्यन्ते । तुङ्गत्वे हेतुमाह-कीदृशाः । रामशरानलेन प्रतापिते अत एव क्षीयमाणे शोष्यमाणजले उदधौ विभक्तः प्रव्यक्तस्तटविच्छेदस्तटविभागो येषां ते। तथा च पूर्वक्रमेण कृता अपि द्वीपा दाहेन ह्रसमानजलतया दृश्यमानतटत्वेन तुङ्गा ज्ञाता इत्याशयः ॥७॥ विमला-राम के शशनल से प्रतप्त होने से समुद्र का जल सूख जाने पर समुद्र के भीतर स्थित द्वीपों का तटविभाग सुव्यक्त हो गया और वे पक्तिवद्ध ऊँचे ही दिखायी पड़े एवम् उनका विस्तार वैसा ही रहा जैसा पहिले था ॥७९॥ अष्टभिरादिकुलकेन समुद्रदाहमुपसंहरति इअ दाविअपाआलं जलणसिहावटमाणजलसंघाअम् । रामो दलिअमहिहर खविअ अंगणिवहं खवेइ समूहम ॥८॥ [ इति दशितपातालं ज्वलनशिखावय॑मानजलसंघातम् । रामो दलितमहीधरं क्षपितभुजंगनिवहं क्षपयति समुद्रम् ।।] इत्यनेन प्रकारेण रामः समुद्रं क्षपयति नाशयति । प्रकारमेवाह-दशितं व्यक्तीकृतं पातालं यत्र । जलनाशाज्ज्वलनशिखाभिरावय॑मानो दह्यमानो जलसंघातो यत्र । दलिता: शतखण्डीकृता महीधरा यत्र । क्षपितो नाशितो भुजंगानां निवहो यत्र तमिति समुद्रविशेषणम्, तद्यथा स्यादिति क्रियाविशेषणं वा ॥८॥ विमला-राम ने समुद्र को ऐसा विनष्ट किया कि अनल की लपटों से उसका समस्त जल जल गया, (जल नष्ट हो जाने से) पाताल दिखायी पड़ने लगा, पर्वतों के सौ-सौ खण्ड हो गये तथा सर्पसमूह नष्ट कर दिया गया ।।८।। जलपन्भारपलोडिट प्रभमन्तसङव उलविहलमकक्कन्दम । फीडबडामहाणलपलिसदर डढसंचरन्त.वसहरम ८ ॥ [ जलप्राग्भारप्रलुठितभ्रमच्छरक कुलविह्वलमुक्ताक्रन्दम् । स्फुटितबडवामुखानलप्रदीप्तदरदग्धसंचरद्विषधरम् ॥] किंभूतं समुद्रम् । जलप्राग्भारे प्रलुठितं दाहेनापटुशरीरतया विपर्यस्य पतितं सभ्रमदनृष्ण स्थान प्रत्याशया इतस्ततो गच्छद्यच्छकुल तेन मुक्त आनन्दो चत्र । अनुष्णस्थानालाभेन दाहजन्यपीडाधिक्यात । अन्योऽपि दद्यमानो विह्वल शरीरो भूमौ निपत्य लुठन्नाकन्दतीति ध्वनिः । एवं स्फुटितः शरानलसंबन्धात्स्फुटीभूतो यो वडवानल स्तेन प्रदीप्ता ज्वलिताः प्रथमत एव दर दग्धाः सन्त: मचरन्तो Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१८७ विषधरा यत्र तम् । प्रथमं शरानलेन दग्धा अत एव प्लुष्टतया संचरन्तो विषधरा अकस्माद्रामशरानलमिलनवर्धमानेन' वडवानलेन दूरादपि ज्वलिता इत्यर्थः ।।८१॥ विमला-जल के ऊपर शंखों का समूह लढ़कता चल रहा था और (शरणस्थान न पाने से) विद्धल हो आक्रन्दन कर रहा था। विषधर पहिले ही राम के शरानल से कुछ दग्ध थे अब बड़वानल के स्फुटित हो जाने से और अधिक जलते हुये छटपटा कर चलने लगे ।।८।। झिज्जन्तजलालोइअकिरणमूणिज्जन्तरप्रणपश्वप्रसिहरम् । थोरतरङ्गकराहअदिसालाभग्गपडिअजलहरविडवम् ।।२।। [क्षीयमाणजलालोकितकिरणज्ञायमानरत्नपवतशिखरम् ।। स्थूलतरङ्गकराहतदिग्लताभग्नपतितजलधरविटपम् ॥] एवं क्षीयमाणे जले आलोकितैः किरणैर्जायमानानि तय॑माणानि रत्नपर्वतानां मेनाकादीनां शिखराणि यन तमिति गाम्भीर्यमुक्तम् । एवं स्थूलतरङ्गरूपेण करेणाहतास्ताडिता दिश एव लतास्ताभ्यो भग्नाः सन्तः पतिता जलधरा एव विटपा यत्र तम् । क्षुभितसमुद्रतरङ्गाहता उपरितनमेघा: समुद्र एव पतिता इत्यर्थः । अन्यत्रापि हस्तताडितानां लतानां पत्राणि त्रुटित्वा भूमौ पतन्तीति ध्वनिः ।।२।। विमला-जल क्षीण हो जाने पर, दिखायी पड़ती किरणों से, मैनाक आदि रत्नपर्वतों के शिखरों का ज्ञान हो रहा था तथा स्थूलतरङ्गरूप करों से प्रताडित दिग्लताओं से जलधररूप पते भग्न हो-हो कर समुद्र में गिर रहे थे ॥२॥ साणलसगिद्दारिप्रसकेसरुज्जलिअसोहमअरक्खन्धम् । पासण्णभीअविसहरवेढि प्रकरिम अरधवलदन्तप्कलिहम् ।।३।। [ सानलशर निर्दारितसकेसरोज्ज्वलितसिंहमकरस्कन्धम् । आसन्नभीतविषधरवेष्टितकरिमकरधवलदन्तपरिघम् ।। ] एवं सानलेन शरेण निर्दारितः खण्डि नोऽत एव के सरसहितः सन्नूवं ज्वलितः सिंहमकरस्य जलसिंहस्य स्कन्धो यत्र तम् । स्कन्धे शरसंबन्धेन केसराणामपि दाहात् । एवमासन्नैनिकटवर्तिभिर्भीतैः शरानलात् विषधरैर्वेष्टिताः करिमकराणां जलहस्तिनां धवला दन्ता एक परिचा यत्र तम् । दाहपीडिताः सर्पा: किंचिदवष्टम्भेन वक्रीभवन्तीति लोके दृष्टम् । स्तम्भाकृतिरायुधविशेषः परिघः ॥८३।। विमला-जलसिंह का स्कन्ध आग्नेय शर से स्वण्डित हो केसर ( गरदन के बाल ) सहित जल गया। ( शरानल से ) भीत निकटवर्ती विषधर, जलहस्ती के धवल दन्त रूप परिचय ( स्तम्भाकार आयुधविशेष ) में लिपट गये ।।८३॥ धुअपव्व असिहर पडन्तमणिसिनाभग्मविद्दुमलावेढम् । दरडड्ढवित झिजविसपङ्कक्खुत्तविहल करिमअर उलग ।।८४!. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम १८८] सेतुबन्धम् [पञ्चम [धुतपर्वतशिखरपतन्मणिशिलाभ नवि मलतावेष्टन् । दरदग्यविषधरोलितविषपङ्कमानविललकरि करकुलम् ।।] - एवं धुताभिः शरानलसंबन्धात्स्वस्थानाच्च्युताभिरत एवं पर्वतशिख रात्पतन्तीभिर्मणिशिला भिर्भग्नानि विद्रुमलतानामावेष्टान्याभोगा यत्र तम । रामशरानलेनापि दग्धं ये न पारितास्ते एताभिर्भग्ना इति समुद्रस्य गाम्भीर्यमुक्तम् । एवं दरदग्धेन विषधरेणोज्झितास्त्यक्ता ये विषपङ्कास्नेषु मग्नान्यत एव विह्वलानि उत्तरीतुमक्षमाणि करिमकरकुलानि यत्र तम् । तथा च किंचिद्दग्धेनैव सर्पण तथा विषपङ्कान्युज्झितानि यथा तत्र करिमकरा मग्ना इति विषपङ्कस्य प्रकर्षस्तस्य च किंचिाहजन्यत्वेन सर्पस्य प्रकर्षः ॥८४॥ विमला-रामशरानल से कम्पित अतएव पर्वतशिखरों से गिरती मणिशिलाओं से विद्रुमलतायें नष्ट हो गयी तथा अर्धदग्ध विषधरों से छोड़े गये विषपङ्क में मग्न जलहस्तियों का समूह विह्वल हो गया ।।८४॥ रुन्दावत्तपहोलिरवेलावडिएक्कमेक्कमिण महिहरम् । णहरुविलग्गवेविरधूमलाविसमङ्घिअदिसापालम् ॥१५॥ [ स्थूलावर्तप्रघूर्णमानवेलापतितैकैकभिन्नमहीधरम् नभस्तरुविलग्नवेपनशीलधूमलताविषमलचितदिग्जालम् ।।] एवं स्थूले महत्यावर्त प्रघूर्णमाना अत एव क्रमेण वेलायामापतिता अत एवैकैकं परस्परं भिन्ना दनिता महीधरा यत्र तम् । आवर्तेन वेलायां सह पतिताः पर्वता जलस्याल्पतया भूमिसंबन्धात्परस्परसंघट्टेन शतखण्डा बभूवुरित्यर्थः । एकेनैवावर्तेन शतशः पर्वता नीता इति समुद्रस्य, तादृशावर्तोत्थापकतया रामशरस्य च प्रकर्षः । एवं नम एव तरुस्तत्र विलग्नाः संबद्धा वेपमाना धमरूपा या लतास्ताभिर्गतिकौटिल्याद्विषमं यथा स्यादेवं लडितं दिजालं यस्मात्तम् । तथा च धूमाक्रान्तं गगनमभूदित्यर्थः । अन्यापि लता तरुमवलम्व्य वर्धमाना दिक्चक्रमाक्रामतीति ध्वनिः ।।८५॥ विमला-पर्वत स्थूल आवर्त ( भंव) में चक्कर काटते-काटते कम से वेला पर एक साथ आ गिरे और परस्पर टकराकर टूक-टूक हो गये । नमरूप तरु से संलग्न एवं कम्पमान धूमलतायें वैषम्यपूर्व क दिङ्मण्डल को लाँध गयीं ( गगन धूमाक्रान्त हो गया ) ८ ॥ ___पक्ख परिरक्खणुठिनसरणिवहाहअदिसापइण्णमहिहरम् । फडिजलमज्झणिग्गप्रफडरअणुज्जोअसंघिउभडविवरम् ॥८६॥ [पक्षपरिरक्षणोत्थितशरनिवहाहतदिक्प्रकीर्णमहीधरम् । स्फुटितजलमध्यनिर्गतस्फुटरत्नोड्योतसंहितोद्भटविवरम् ॥] एवमनलात्पक्षयोः परिरक्षणायोत्थिता ऊर्ध्वमुड्डीनास्तदवस्थायामेव शरनिवहेना Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१८६ हताः खण्डखण्डीकृता अत एव दिक्षु प्रकीर्णा विक्षिप्ता महीधरा यस्य तम् । अन्योऽप्युड्डयमानः पक्षी शरेण खण्डितो दिक्षु पततीति ध्वनिः । एवं स्फुटितात् शरप्रवेशपर्वतादुत्थानेन सरन्ध्रीकृताज्जलमध्यान्निर्गतो बहिर्भतो यो रत्नोयोतस्तेन संहितं पूरितमुद्भट विवरं येन तम् । खातावच्छिन्नो जलक्षयेण शून्यीकृतो विद्यमानजलस्योपरि नभोभागो विवरं तदन्तर्वतिमणिकिरणरकस्मादुत्थितैरम्बु भरिव पूर्वत इति मणीनां तय तीनां च महत्त्वमुक्तम् ।।८६।। विमला-(अनल से) पंखों को बचाने के लिये पर्वत ऊपर उड़ गये, किन्तु वहाँ भी शर समूह से आहत हो गये और विभिन्न दिशाओं में खण्ड-खण्ड हो गिर गये। जल फोड़कर पर्वतों के निकलने से जल में जो विस्तृत विवर बन गये उन्हें तत्काल जल के अन्दर से मिलती हुई रत्नदि रणों ने भर दिया ।।८६॥ हु उत्तमोवअणि प्रण :पुन्हापितष्ठलमहगाहा । परिवढिएक्कमेक्काणुरायसरपह जिवलि असङ्ख उलम ॥८७॥ इअ सिरिपवरसेणांवर 3 ए कालिदासकए दसमुहवहे महाकव्वे पञ्चमो प्रासासो परिसमतो।। [ हुतवहप्रदीप्तगोपितनिजनयनोष्मविसंष्ठुलमहाग्राहम् । परिवधितैकैकानुरागशरप्रहारनिर्वलितशङ्गकुलम् ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये पञ्चम आश्वासः परिसमाप्तः । एवं हुतवहेन प्रदीप्तचोर्दग्धुमारब्धःोरत एव गोपितयोमद्रितयोनिजनयनयोरूष्मणा औरण्येन विसंष्ठ ला दिशि दिशि घूर्णनाना महाग्राहा जनसिंहादयो यत्र तम् । नयनमुद्रणात्तज्ज्वालासंबन्धादूर मति भावः । एवं परिवर्धित एकै स्य परस्परस्यानुरागो येषामेतादशानि सन्ति शरप्रहारेण निर्वलितानि दिशि दिश विच्छिन्नानि शवलानि यन तम् । शद्वानां शरप्रहारेण विच्छिन्नानां मिथोऽनुरागोपचय इति भावः ।। कुलम् ।।८७।। समृद्रावायद शया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्त्र पूर्णाभूत्पञ्चमी शिखा ।। विमला-राम के शरादल से जलसिंह आदि महाग्राहों के नेत्र जब जलने लगे तब उनकी रक्षा के लिये उन्हें मूंदे हुये वे उष्णता से व्याकुल हो समुद्र में चारों ओर छटपटाते घूम रहे थे तथा शरप्रहार से विच्छिन्न शङ्खसमूहों का पारस्परिक अनुराग वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ।।८७॥ इस प्रकार श्रीप्रसरसेनविरचित कालिदासकृत दशमूखबध महाकाव्य में पञ्चम आश्वास की विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ आश्वासः अथ समुद्रस्य निष्क्रमणमाह• अह णिग्गओ जलन्तं दरडड्ढमहाभुअंगपाअवणिवहम् । . मोत्तूण धूमभरि पाआलवणं दिशागओ व्व समुद्दो ॥१॥ [अथ निर्गतो ज्वलद्ददग्धमहाभुजंगपादपनिवहम् । मुक्त्वा धूमभृतं पातालवनं दिग्गज इव समुद्रः ॥] अथ विमर्दानन्तरं समुद्रो निर्गतो जलादुत्थितः । किं कृत्वा। धूमैभृतं व्याप्तं पातालमेव वनं त्यक्त्वा । कीदृशम् । ज्वलत् । रामशरानलेनेत्यर्थात् । एवं दरदग्धा महाभुजंगा एव पादपाः। महाभुजंगाश्च पादपाश्चेति द्वन्द्वो वा। समुद्रे वृक्षाणामपि सत्त्वात् । तेषां निवहः समूहो यत्र तथाभूतम् । क इव । दिग्गज इव । यथा हस्ती दग्धसर्पवृक्षनिवहं धूमाक्रान्तं ज्वलद्वनं तापासहिष्णुतया त्यक्त्वा क्वचिनिर्गच्छतीत्युपमा । दिग्गजस्वोपमानत्वेन समुद्रस्य क्षोभेऽपि साहंकारत्वं सूचितम् । प्रायोपविण्टेऽपि रामेऽवधीरणया मत्तत्वं वा ॥१॥ विमला-इसके बाद समुद्र दिग्गज के समान, ( राम के शरानल से ) अर्धदग्ध महाभुजंगरूपी पादपों वाले, जलते हुये धूमव्याप्त पातालरूपी वन को (ताप न सह सकने के कारण) छोड़ कर बाहर निकल पड़ा ।।१।। समुद्रस्य दौःस्थ्यमाह मन्दरदढपरिमट पलअविम्भिप्रवराहदाढल्लिहिअम् । विसमं समन्वन्तो रामसराघाप्रमिअं वच्छ अडम् ॥ २॥ [ मन्दरदृढपरिमृष्टं प्रलयविजृम्भितवराहदंष्ट्रोल्लिखितम् । विषमं समुद्वहनरामशराघातदुःखितं वक्षस्तटम् ॥] इतः स्कन्धकचतुष्टयं 'आलीनश्च रघुपति' इति पञ्चमस्कन्धकेनान्त्यकुलकम् । अथ निर्गतः' इति प्रथमस्कन्धनादिकुलकं वा । किं कुर्वन् । मन्दरेण मथनसमये दृढं यथा स्यादेवं परिमृष्टं निघृ टम् । एतावता विस्तारवलवत्त्वे सूचिते । एवं प्रलये विजृम्भिते भूम्युद्धाराय कृतन मनोन्नमनव्यापारे ये वराहदंष्ट्र ताभ्यामुल्लिखितं न तु खण्डितम् । इयता दाढ्यम् । एतादृशं वक्षस्तटं विषम तिर्यग् नमितं समुद्वहन् सन् । तिर्यक्करणे हेबुमाइ-कीदृशम् । रामशराघातेन दुःखितम् । तथा च तवादियोधमनिर्भरमपि वक्ष इदानी व्रणपीडितमभूदिति रामशराघातप्रकर्षः ।।२।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुपदी प-विमलासमन्वितम् [ १६१ विमला-समुद्र का जो वक्षःस्थल ( मथन के समय ) मन्दराचल के दृढ़ निघर्षण को भी सह चुका था, प्रलय में ( भूमि के उद्धार के लिये ) बढ़ी हुई वराह की दंष्ट्राओं से खरोंच भर गया था वही वक्षःस्थल उस समय राम के शराभिघात से अत्यन्त पीड़ित था और समुद्र उसे थोड़ा झुकाये हुये वहन किये था ॥२॥ समुद्रस्य भुजावाहगम्भीरवणाहोए दोहे देहसरिसे भुए वहमाणो। अहिणवचन्दणगन्धे अणहुक्खित्ते व्व मलअसरिआसोत्ते ॥३॥ [ गम्भीरव्रणाभोगौ दीपों देहसदृशौ भुजौ वहमानः। __ अभिनवचन्दनगन्धावनघोत्क्षिप्ताविव मलयसरित्स्रोतसी ॥] , पक्षे सर्वमपि नपुंसकद्विवचनान्तम् । समुद्रः कीदृक् । भुजौ वहमानः । किंभूतौ। गम्भीराणां व्रणानामाभोगो विस्तारो ययोस्तौ । एवं दीघौं प्रलम्बो । देहसदृशौ देहानुमानेन पुष्टौ । अभिनवश्चन्दनस्य गन्धः सौरभं ययोस्तौ। अनघौ निर्दोषौ उत्क्षिप्तौ वेदनावशात्क्षणं क्षणमुत्तोलितौ। के इव । मलयसरित्स्रोतसी इव । ते अपि किंभूते। गम्भीरो वनानामर्थात्तटवर्तिनामाभोगो ययोः । दीर्घ । देहसदृशे मलयाकारयोग्यविस्तारवती। अभिनवानि चन्दनानि गन्धे एकदेशे ययोः । अनभस्यनाकाशेऽर्थाद भूमौ उत्क्षिप्ते पर्वतान्निपत्योच्छलिते। तथा च ते अपि मलयात्समुद्रे पतत इति । यथा ते वहमानस्तथा भुजावपीति सहोपमा । यथोक्तगुणयोगात्साधम्र्योपमेयमिन्यन्ये । देहसदृशौ दीर्घाविति समानाधिकरणं वा । यथा देहस्तदनुसारेण दीर्घावित्यर्थः। एवं पक्षेऽपि 'गन्धो गन्धक आमोदे लेशे संबन्धगर्वयोः' इति कोषः। सान्ततान्तनान्ता भिन्नलिङ्गा अपि प्राकृते पुंलिङ्गाः ॥३॥ विमला-समुद्र, मलयगिरि से निकलते हुये नदीप्रवाहद्वय के समान ही गम्भीर व्रण विस्तार वाले, देह के आकारानुरूप दीर्घ, अभिनव चन्दन के सौरभ से सुरभित, निर्दोष एबम् ऊपर उठे हुये भुजद्वय को धारण किये हुये था ॥३॥ समुद्रस्थ हारमाह लहइमोत्थ हहिं मन्दरगिरिमाण संभमे वि अमक्कम । तारे कावलि रमणं समिमइराप मलहोरं बहमायो ।।४।। [लघकृतकौस्तुभविरहं मन्दरगिरिमथनसंभ्रमेऽप्यमुक्तम् । तारैकावलिरत्नं शशिमदिरामृतसहोदरं वहमानः ॥] पुर: को हक । तार मुद्भटमे लावली हारवरूपं वहनाः । अस्योपादेयतामाह- नस्य विरहो येन तस् । ततोऽयुतात्यात् । आ एव मन्द Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ रगिरिणा यन्मथनं तत्संभ्रमेऽप्यमुक्तम् । कौस्तुभादिसर्वं दत्तमेव एतत्परं रक्षित मित्यर्थः । पुनः कीदृशम् । शशिमदिरामृतानां सहोदरम् । शशिवन्निर्मल माह्लादकं शीतलं च, मदिरावन्मदाहंकार हेतु:, अमृतवन्निर्वृतिजनकं व्याधिहरं चेति सहोदरपदगम्यम् । तथा च त्रयाणामप्यन्यथासिद्धिरस्मादितीदं रक्षितम् । अमृतकार्यकारित्वेन च तदवस्थायां धारणाज्जीवनमभूदिति भावः । 'एकावल्येकयष्टिका' इति हारावली ॥४॥ 3 विमला - समुद्र उस समय मोतियों की एकावली माला धारण किये हुये था जो अत्यन्त उपादेय थी, क्योंकि इसके रहने से समुद्र को कौस्तुभ का विरह खटकता नहीं था अतएव मन्दराचल से मथे जाते समय भयभीत हो सब कुछ दे देने पर भी समुद्र ने इसे बचा रक्खा था तथा चन्द्रमा, मदिरा एवम् अमृत के अभाव को यह पूरा करती थी ( क्योंकि चन्द्रमा के समान ही निर्मल, शीतल एवम् आह्लादक, मदिरा के समान ही मदकारी तथा अमृत के समान ही निर्वृतिजनक और व्याधिहर थी ) ॥४॥ वामबाहुमस्याह— गरुअं उध्वहमाणो हत्थफरिसपडिसिद्धवण वे अल्लम् । रुहिरारुण रोमचं खलन्तगङ्गावलम्बिअं वामभुम ||५|| ( आइकुलअम् ) [ गुरुकमुद्वहमानो हस्तस्पर्श प्रतिषिद्धव्रणवैकल्यम् । रुधिरारुण रोमाञ्चं स्खलद्गङ्गावलम्बितं वामभुजम् || ] ( आदिकुसकम् ) पुनः विभूतः । वामभुजं वहमानः । कीदृशम् । गुरुकं व्रणितत्वाद्गुरुभूतम् । एवं हस्तस्पर्शन दक्षिणकरपरामर्शेण प्रतिषिद्धं व्रणवैकल्यं यत्र तम् । व्रणपार्श्वमर्शनेन पीडाशान्तेरित्यर्थः । एवं भुजभारेण रामसंमुखगमनत्रीडया वा स्खलन्त्या वक्रीभवन्त्या गङ्गावलम्बितं स्वांसे समारोपितम् । एवं रुधिरेणारुणो रोमाञ्श्वो यत्र तथाभूतम् । तदवस्थायामपि रोमाञ्चोद्गमेन गङ्गाया: सौभाग्यं सूचितम् । रामस्य कारुण्योत्पत्तये गङ्गायाः सहागमने तात्पर्यम् ॥५॥ विमला— ( वामभाग में स्थित ) काँपती हुई गङ्गा समुद्र के वामभुज को सहारा दिये हुई थी, अतएव उसमें हुआ रोमाञ्च रुधिर से लाल हो रहा था और समुद्र, व्रणजन्य पीडा के शान्त्यर्थं उसे दाहिने हाथ से सहला रहा था । प्रथम स्कन्धक से लेकर इस पाँचवें स्कन्धक तक की ' आदिकुलक' संज्ञा है ||५|| अथ रामनिकटागमनमाह आलीणो अ रहुवइं गिअअच्छा आण लित्तमलमणिसिलम् । संसि अइव्वं दुमं लआए व्व जाणईअ विरहिअम् ||६॥ - Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१६३ [ आलीनश्च रघुपति निजकच्छायानुलिप्तमलयमणिशिलम् । संश्रितसुखोपजीव्यं द्रुमं लतयेव जानक्या विरहितम् ॥] रघुपतिमालीनः संगतश्च । समुद्र इत्यर्थात् । किंभूतम् । निजकच्छायया निजकान्त्या निजप्रतिबिम्बन वानुलिप्ता व्याप्ती मलयमणिशिला येन तम् । समुद्रागमनजन्यानन्देन शोभाधिक्यात् । तथा च विलक्षणकान्तिभिरेव समुद्रेणापि हठापरिचित इति भावः । एवं संश्रितैराश्रितः सुखेनोपजीव्यं सेव्यम् । कमिव । जानक्या लतया विरहितं द्रुममिव । सीताविश्लिष्टतया लताशून्यद्रुमसाम्यम् । द्रुममपि कीदृशम् । निजातपाभावरूपच्छायानुलिप्तमलयमणि शिलम् । संशितं प्रशंसितं यत्सुखं फलदानादिना तेनोपजीव्यमादरणीयम् । वृक्षतौल्येन रामस्योन्नतिः फलदत्वं च न्यज्यते ॥६॥ विमला-इस प्रकार समुद्र, अपने प्रतिबिम्ब से मलयमणिशिला को व्याप्त करने वाले, आश्रितों द्वारा सुख के लिये संसेव्य, लतावियुक्त द्रुमसदृश जानकीविरहित श्रीराम से आ मिला ॥६॥ अथ रामप्रणाममाहसरघाहिरकुसुमो तिवहनवल्लीपिणद्धमणिरमणफलो। रामचरणेसु उबही पढपवणाइद्धपानमो व्व णिवडिप्रो ॥७॥ [ शरघातरुधिरकुसुमस्त्रिपथगावल्लीपिनद्धमणिरत्नफलः । रामचरणयोरुदधिदृढपवनाविद्धपादप इव निपतितः ॥] रामचरणयोरुदधिनिपतित: । दृढपवनेनाविद्धः प्रेरितः पादपः इव । यथा वृक्षो निपततीत्यर्थः । उदधिः कीदृक् । शरघातरुधिराण्येव कुसुमानि यत्र सः । त्रिपथगारूपा या वल्ली तया पिनद्धानि मणिरत्नानि मणिश्रेष्ठान्येव फलानि यत्र तादृक् । गङ्गाया मणिमयालंकारसत्त्वात् । रामोपहाराय वा । वृक्षोऽपि कुसुमवान् लतासंगतफलश्च भवति । पवनपतितवृक्षतौल्येन समुद्रस्य पीडाधिक्यमुक्तम् ॥७॥ विमला-शर प्रहारजन्य रुधिररूपी पुष्पों वाला, गङ्गारूप वल्ली से धारण किये गये मणिरत्नरूप फलों वाला समुद्र, पवनप्रेरित पादप के समान, राम के चरणों पर फाट पड़ा ।।७।। अथ गङ्गाया रामप्रणाममाहपच्छा अहित्थहिरमा जत्तो चिअ णिग्गा विवह्लत्थमुही। हरिचरण म्मि तहि चिअ कमलाअम्बम्मि तिवहा वि णिवडिआ ।।८।। [ पश्चाच्च त्रस्तहृदया यत एव निर्गता विपर्यस्तमुखी । हरिचरणे तत्रैव कमलाताम्र त्रिपथगापि निपतिता ॥] १३ से० ब० Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] सेतुबन्धम् [षष्ठ च पुनः पश्चात्समुद्रकृतप्रणामोत्तरं त्रिपथगापि तत्रैव हरिचरणे निपतिता । रामप्रणामं कृतवतीत्यर्थः । तत्र कुत्र । यत एव निर्गता जाता । एतेन परस्त्रिया अपि गङ्गाया रामचरणपतने धाष्टयं शङ्का निराकृता। उत्पत्तिस्थानत्वात् । किंभूता । त्रस्तं हृदयं यस्याः सा। राम: किं कुर्यादित्याशयात् । एवं विपर्यस्तमुखी तिर्यमुखी । त्रासेन लज्जया वा । हरिचरणे कीदृशी कमलवदाताम्र ॥८॥ विमला-तत्पश्चात् गङ्गा भी त्रस्तहृदय एवं ( लज्जा से ) तिर्यङ्मुखी हो, हरि के कमलवत् लाल उन्हीं चरणों पर गिरी जिनसे ही वह पहिले निर्गत हुई थी॥८॥ अथ समुद्रस्य वचनमाह अह मउ पि भरसहं जम्पइ थोमं पि प्रत्थसारम्भहिअम् । पण पि धोरगरु थुइसंबद्धं पि अलिअं सलिलणिही ॥६॥ [ अथ मृदुमपि भरसहं जल्पति स्तोकमप्यर्थसाराभ्यधिकम् । प्रणतमपि धैर्यगुरुकं स्तुतिसंबद्धमप्यनलीकं सलिलनिधिः ॥] अथ प्रणामोत्तरं सलिल निधिल्पति । वचनमिति शेष इति कश्चित् । तेन विशेषणान्वयो भवतीत्याशयात् । तथाहि वचनं कीदृक् । समुद्रस्यावसादेन मृदुकमपि ध्वनेर्दिवेऽपि भरः कार्यगौरवं तत्सहम । प्रयोजनस्य महत्त्वात् । एवं महाशयत्वेन वाक्यस्य स्तोकत्वेऽप्यर्थो वाच्यभागस्तद्रूपसारेणाभ्यधिकम् । वाच्यार्थस्य निष्पन्नत्वात् । विनयात्प्रणतत्वेऽपि धैर्येण गुरुकम् । कातरत्वाभावात् । माननीय विषयतया स्तुतियुक्तत्वेऽप्यनलीकम् । भगवद्विषयकत्वात् । वस्तुतस्तु मृदुकमपि भरसहं यथा स्यादिति सर्व जल्पनरूपक्रियाविशेषणम् । मृदु भरसहं न भवति, स्तोकमभ्यधिकं न भवति, प्रणतं गुरु न भवति, स्तुतिसंबद्धमनलीकं न भवतीति विरोधानामाभासत्वमपि शब्दगम्यम् । अन्यस्तु वक्ष्यमाणस्कन्धकचतुष्टयेषु क्रमेण मृदूकमित्यादि विशेषणचतुष्टययोजनमाह-10 विमला-प्रणामानन्तर समुद्र ने मृदु तथापि आशय से महान, स्वल्प तथापि वाच्यार्थरूप सार से अभ्यधिक, प्रणत तथापि धैर्य से गम्भीर, स्तुतिसम्बद्ध तथापि सत्य ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥६॥ अथाष्टभिस्तद्वचनस्वरूपमाह दुत्तारत्तण गरुइं थिरधीरपरिग्गहं तुमे च्चिअ ठविअम् । अणुवालन्तेण ठिई पि ति तुह विप्पि मए कह वि कमम् ॥१०॥ [दुस्तारत्वगुर्वी स्थिरधैर्यपरिग्रहां त्वयैव स्थापिताम् । अनुपालयता स्थिति प्रियमिति तव विप्रियं मया कथमपि कृतम् ।।] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ १६५ हे राम ! तव प्रियमिदमिति कृत्वा मया कथमपि विप्रियमसमीहितं कृतम् । मया किंभूतेन । त्वयैव स्थापितां दत्तां स्थिति स्थैर्यमनुपालयता रक्षता । कीदृशीम् । दुस्तारत्वेन गुर्वीमतिशयिताम् । दुस्तारोऽहमिति कृत्वा व्यवस्थिता - मित्यर्थः । अत एव स्थिरेण धैर्येण परिग्रहो धारणं यस्यास्ताम् । तथा च भवछत्तामेव स्थितिमनुपालयामीति भवदाज्ञापालनेन प्रियम्, तां स्थिति न त्यजामीति प्रकृतकार्यं विरोधित्वेन विप्रियमिति स्वमार्दवप्रकाशेन मृदुकमपि स्वगाम्भीर्यस्थापन - रूपत्वेन भरसहम् ॥१०॥ विमला - हे राम ! तुम्हीं ने, दुस्तार होने से की जानेवाली जो स्थिति मुझे प्रदान की, उसका ही हूँ क्योंकि मैं तो यही समझता हूँ कि मेरा ऐसा करना ही आप को प्रिय है, मैंने तो किसी भी प्रकार से आप का अप्रिय नहीं किया है || १० ॥ महती, स्थिर धैर्य से धारण अनुपालन मैं करता आ रहा स्थितिस्तदानीं मयैव दत्ता इदानीमपि मयेव ह्रियते, को दोष इत्याशङ्कयाहमअरन्दरसुद्ध माश्रमहलमहुअरम् । विश्वसन्तरश्रक्खउरं उदुणा दुमाण विज्जद हीरइ ण उणो तमप्पण चिचत्र कुसुमम् ॥ ११ ॥ [ विकसद्रजः कलुषं मकरन्दरसाध्मात मुखर मधुकरम् । ऋतुना द्रुमाणां दीयते ह्रियते न पुनस्तदात्मनैव कुसुमम् ॥ ] I ऋतुना वसन्तादिना द्रुमाणां द्रुमेभ्यः सहकारादिभ्यः । चतुर्थ्यर्थे षष्ठी । कुसुमं दीयत उत्पाद्यते तत्पुनरात्मनैव न ह्रियते । न नाश्यत इत्यर्थः । कीदृक् कुसुमम् । विकसत् । रजोभिः परागः कलुषं व्याप्तम् । एवं मकरन्दरूपेण रसेनाध्माता उन्मत्ता मधुकरा यत्र तत् । तथा च न केवलं पुष्पदानमात्रं किंतु तस्य विकासादिसकलसाम्राज्यसंपत्तिरपि ऋतुनैव क्रियत इति भावः । तथा च ऋतुवृक्षयोरिवावयोरपि भूष्यभूषकभाव इति । यत्राचेतनेनापि दत्तं न ह्रियते तत्र भवतैव दत्ता मर्यादा स्वयमेव तु न युज्यत इति तात्पर्यम् । स्वस्य वृक्षसाम्येन स्थावरत्वं रामस्य ऋतुसाम्येनासाधारणोपकारित्वं मर्यादायाः कुसुमसाम्येनातिकोमलत्वमिति भवत्कोपे क्षणमपि न स्थास्यतीति स्तोकमप्यर्थसारं वचनम् ॥११॥ विमला - ऋतु ( वसन्त ) वृक्षों को पुष्प देता है, उसे विकसित करता है, परागों से व्याप्त करता है और उस पुष्प पर तब मकरन्दरूप रस से उन्मत्त मधुकर गूँजते हैं तथापि वह ( ऋतु ) स्वयम् उस पुष्प को नष्ट नहीं करता है ॥११॥ मर्यादा महत्तव किं त्विदानीं त्वया न स्मर्यत इत्यत आह कि पट्ठ हि अहं तुह चलणुप्पण्णतिवहआपडिउण्णम् । खत्रकाला लखविअं घरणिश्रलुद्धरणविलुलिअं अध्वाणम् ||१२|| Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] सेतुबन्धम् _ [ षष्ठ [ किं प्रस्मृतवानस्म्यहं तव चरणोत्पन्नत्रिपथगाप्रतिपूर्णम् । क्षयकालानलक्षपितं धरणितलोद्धरणविलुलितमात्मानम् ॥] हे राम ! अहमात्मानं किं विस्मृतवानस्मि, अपि तु न । किं तु स्मरामीत्यर्थः । कीदृशम् । प्रथमं प्रलयानलेन भपितं शोषितम् । अथ सृष्टय पक्रमे वराहमूर्तिना भवतव धरणितलोद्धरणे चरणक्षेपादिना विलुलितमुपमदितम् । तदनु वामनमूर्तेस्तव चरणोत्पन्नया गङ्गया प्रतिपूर्णमतिसंनद्धम् । तथा च पूर्ववदपकारोपकारसमर्थेनेदानीमपि तथा कर्तुं शक्यत इति जानन्नपि मर्यादा न त्यजामीति प्रणतिरूपमप्यकात रतया धैर्यगुरुकम् ॥१२॥ विमला-हे राम ! मैं क्या अपने को भूल गया है ?--भला नहीं हैं। आप ने ही प्रलयकालाग्नि से मुझे शुष्क किया था, पृथिवी का उद्धार करते समय ( चरणों से ) मुझे रौंदा था और आप ही के चरणों से उत्पन्न गङ्गा के द्वारा मैं प्रतिपूर्ण किया गया हूँ ॥१२॥ इदानीं युगमाहात्म्येन मम पूर्ववत्सामर्थ्य नास्तीति जानन्मर्यादां न त्यजसीत्याशङ्कयाह चलणेहिं महविरोहे वाढाघाएहिं धरणिवेढ्द्धरणे। सोमकिलिन्तेण तुमे इण्हि वहम हवहे सरेहिं विलुलियो ॥१३॥ [ चरणाभ्यां (चलनर्वा) मधुविरोधे दंष्ट्राघातर्धरणिवेष्टोद्धरणे । शोकक्लान्तेन त्वया इदानीं दशमुखवधे शरैबिलुलितः ॥] हे राम ! पूर्व मधोर्दैत्यस्य विरोधो नाशस्तन्निमित्तं पञ्चसहस्रवर्षपर्यन्तं चरणाभ्यां संचरद्भयामित्यर्थात् चलनर्वा। तदनु धरणिवेष्टोद्धरणनिमित्तं वराहमूर्तिना दंष्ट्राघातैः । एतत्कार्यद्वयस्य समुद्र एव वृत्तत्वात् । इदानीं सीताविश्लेषसमये शोकक्लान्तेन त्वया दशमुखवधनिमित्तं शरैरहं विलुलितो विदितोऽस्मि । सर्वत्र निमितसप्तमी । तथा च तदानीमनुषङ्गेण यथातथा वृत्तमिदानीं तु क्रोधपात्रमेवेति निरपेक्षं सीताविरहविह्वलो भवानिति दृढतरं शरप्रहारेण पूर्वापेक्षयाप्यधिकं कथितोऽस्मीति भावः । एवमियद्भिः कर्मभिर्न त्वं मानुष इति स्तुतिसंबद्धमप्युपालम्भ - वचनं प्रत्यक्षत एवावधृतार्थमित्यनलीकम् ॥१३॥ विमला-हे राम ! पहिले मधु-दैत्य के विनाश के निमित्त चरणों से और पृथिवी के उद्धार के निमित्त दंष्ट्राओं के आघातों से मुझे विमदित कर चुके थे किन्तु आज सीताविरहजन्य शोक से विह्वल आप ने दशमुख-वध के निमित्त मुझे शरों से विमदित किया ( इस शरप्रहार से पूर्व की अपेक्षा अधिक कर्थित हूँ ) ॥१३॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१६७ अथ सामवचनमाहणियआवस्थाहि वि मे एअंधारेण विप्पिरं धीर कपम् । जं गेण पइसोम्मा कह वि विसंवाइमा तुह मुहच्छाआ॥१४॥ [ निजकावस्थाया अपि मे एक धैर्येण विप्रियं धीर कृतम् । यदनेन प्रकृतिसौम्या कथमपि विसंवादिता तव मुखच्छाया॥] है धीर ! मम निजकावस्थाया अपि विप्रियमेकं धैर्येण कृतम् । किं तदित्याहयत्प्रकृत्या स्वभावेन सौम्या तव मुखश्रीरनेन धैर्येण विसंवादितान्यथा कृता । क्रोधवशादसौम्येत्यर्थः। तथा च शराननदाहदौस्थ्यरूपमेकमप्रियं मम धैर्येण कृतम्, एतदपेक्षयापि तव चित्तं क्रोधात्क्लाम्यतीति विप्रियतरं कृतम् । यदहं निजदुःखादपि भवद्दुःखेन महद् दुःखमासादयामीति भावः । सदा भर्तव्ये प्रणते च मयि किमित्येवं रोषरौद्रस्त्वमसीति तात्पर्यम् ।।१४।। विमला हे धीर ! मेरे धर्य ने ( शरानलदाहरूप ) अपनी जो ( अप्रिय ) अवस्था की वह तो की ही, उससे भी अधिक अप्रिय यह किया जो उसने तुम्हारी स्वभावतः सौम्य मुखकान्ति को ( क्रोधवशात् ) अन्यथा ( मसौम्य ) कर दिया ॥१४॥ अथ प्रणतिवचनमाहएअं तुह एआरिससुरकज्जसहस्सखेअवीसामसहम् । जअपव्वालणजोग्ग परिरक्खसु पलभर विखअंजलणिवहम् ॥१५॥ [ एवं ( एतं वा) तवैतादृशसुरकार्यसहस्रखेदविश्रामसहम् । जगत्प्लावनयोग्यं परिरक्षस्व प्रलयरक्षितं जलनिवहम् ।।] एवमनेन प्रकारेण एतं वा जलनिवहं परिरक्षस्व । बाणमुपसंहरेत्यर्थः । रक्षणप्रयोजनमाह-तवैतादृशं रावणवधादिरूपं यत्सुरकार्यसहस्र तेन यः खेदस्तस्मिन्सति विश्रामसहं विश्रामक्षमम् । तथाच पूर्व मधुकैटभादीन्हत्वा इहैव सुप्तवानसीति पुनरपि रावणं हत्वा शयिष्यस इति भावः । ननु रावणवध एव जलशोषणात्स्यादित्याशङ्कय प्रयोजनान्तरमप्यस्ती त्याह-जगत्प्लावनयोग्यं अत एव प्रलयार्थ रमितम् । तथा चास्मिन्नाशिते तवैव तत्तत्कायं व्याहतं स्यादित्येकं संधिसतोऽपरं प्रच्यवत इति भावः ॥१५।। विमला-अतः इस जलनिवह की आप रक्षा करें, क्योंकि जगत्प्लावनयोग्य इसे प्रलय के लिये रक्षित किया जा चुका है तथा रावणवधाधिरूप सहस्रों सुरकार्य करने से श्रान्ति उत्पन्न होने पर आप को विश्राम देने में समर्थ होगा ( रावण को मार कर आप पूर्ववत् यहीं शयन करेंगे ) ॥१५॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] सेतुबन्धम् जलदाहेन शुष्के खातवर्त्मनि पातालेन पारगमनमप्यनुपपन्नमित्याह-अपरिट्ठिअमूलअलं जत्तो गम्मइ तह वलन्तमहिअलम् । सलिल जिब्भरं चित्र खविए वि ममम्मि दुग्गमं पाआलम् ॥१६॥ [ अपरिस्थितमूलतलं यतो गम्यते तत्र दलन्महीतलम् । न खलु सलिलनिर्भरमेव क्षपितेऽपि मयि दुर्गमं पातालम् ॥ ] हु सलिलनिर्भरं सलिल पूर्णमेव पातालं दुर्गममिति न खलु । येन संचाराय जलानि दहसि । अपि तु क्षपिते शोषितेऽपि मयि दुर्गमम् । जलशोषेऽपि पारगमनमशक्यमित्यर्थः । ' सलिल णिब्भरश्चिभ' इति पाठे सलिलनिर्भर एवं मयि पातालं दुर्गममिति न किं तु । क्षपितेऽपीत्यर्थ । अत्र हेतुमाह - पातालं कीदृक् । अपरिस्थितं न परि सर्वतोभावेन स्थितम् । अदृढमित्यर्थः । एवंभूतं मूलतलं यस्य । जलार्द्रत्वात् । अत एव यतो यत्र गम्यते चरणन्यासः क्रियते तत्रैव दल द्विधा - भवन्महीतलं यत्र तथाभूतम् । तथा च जलशोषेऽपि खाताभ्यन्तरपाताले यत्रैव पदन्यासः कर्तव्यस्तत्रैव प्रशिथिलत्वात्संचारो न स्यादिति प्रकारान्तरमनुसरणीयमिति भावः ॥ १६ ॥ विमला - सलिलपूर्ण ही नहीं, मुझे शुष्क कर देने पर भी पाताल दुर्गम है क्योंकि ( जलार्द्र होने से ) इसका मूल तल [ अपरिस्थित] अदृढ है, अतएव जहाँ ही पैर रक्खेंगे वहीं महीतल दलित हो जायगा ( अतएव प्रशिथिल होने से सुखसञ्चार अशक्य होगा ) ।। १६ ।। अथ सेतुरूपप्रकारोपन्यासमुखेन प्रकृतमुपसंहरति तं कालस्स णिसम्म उ कह वि दरुवित्तदसमकण्ठक्ख लिअम् । घडिग्रगिरिसेउबन्धं चिरप्रालाउञ्चिअं दहमुहम्मि पअम् ॥१७॥ [ तत्कालस्य निषीदतु कथमपि दशेत्कृत्तदशमकण्ठस्खलितम् । घटितगिरिसेतुबन्धं चिरकालाकुञ्चितं दशमुखे पदम् ॥ ] [ षष्ठ यतो जलशोषादपि पारगमनं नास्ति ततो हेतोर्घटितो निर्मितो गिरिभिः सेतुबन्धः सेतुयोजनं यस्मै तद्यथा भवति तथा कालस्य यमस्य पदं दशमुखे कथमपि येन तेन प्रकारेण निषीदतु । रामस्य पारगमने सति दशमुखनाशः स्यादिति राव - शिरसि यमपदन्यासे सेतुबन्धस्य प्रयोजकत्वमिति तादर्थ्येन क्रियाविशेषणत्वम् । किभूतं पदम् । ईषत्खण्डिता द्दशमकण्ठात्स्खलितमपव्यस्तम् । अत एव चिरकालं व्याप्याकुश्चितमुत्तोल्य धृतं न तु स्थापितम् । अयमाशयः ---नवसु निकृत्तेषु दशमं कण्ठमुत्खण्डयितुं प्रवृत्तो रावणः शिवेन वरं दत्त्वा न्यवर्त्यत इति तत्कर्तने रावणः Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [१६६ मृत्युस्तदकर्तने नेति यमः किंचिन्निकृत्ते कण्ठे पदमर्पयितुमुपक्रमते पश्चान्महेशवरप्रदानेन पूर्वावस्थामुपेयुषि जीवितनिश्चयान्निवर्तयति स्खलितपदार्थः । प्रकारान्तरं लब्धमित्याशयाकुञ्च्य धारणम् । तथा च स प्रकारो नास्त्येवेत्यन्य एव सेतुबन्धनरूपः प्रकारोऽयमास्तामिति समुद्रमन्त्रणा ॥ १७ ॥ विमला - ( रावण द्वारा शिव को अर्पित करने के लिये नौ सिर काटे जाने के बाद दसवां सिर काटे जाते समय यम अपना पैर रावण पर रख चुका था, किन्तु तत्काल शिव के वरप्रदान से ) यम ने रावण के अर्धछिन्न दसवें कण्ठ से अपना पैर हटा लिया था ( अब आप के अभियान से आशान्वित हो ) वह पुनः चिरकाल से अपना पैर दशमुख पर रखने के लिये उठाये हुये है, अतः आप पर्वतों से सेतु की रचना करें और यमराज का पैर किसी भी प्रकार से उस ( रावण ) पर स्थित हो ॥ १७॥ अथ सेतुबन्धनाज्ञामाह अह जअदुपरिअल्ले दहमुहकुविएण पवअवइपच्चवखम् । रहणाहेण समुद्दे वालिम्मि व बाणणिअमिअम्मि पसन्ते ||१८|| पवआहिवइविइण्णा रामाणन्ती पवंगमेसु विलग्गा । सेसफणाविच्छूढा तिहुश्रणसार गरुई महि व्व भुअंगे ||१६|| ( जुग्गअम् ) [ अथ जग दुष्परिकलनीये दशमुखकुपितेन प्लवगपतिप्रत्यक्षम् । रघुनाथेन समुद्र े वालिनीव बाणनियमिते प्रशान्ते ॥ प्लवगाधिपतिवितीर्णा रामाज्ञप्तिः प्लवंगमेषु विलग्ना | शेषफणाविक्षिप्ता भुजंगेषु ॥ ] त्रिभुवनसारगुर्वी महीव ( युग्मकम् ) अथ सेतुबन्धमन्त्रणोत्तरं रामस्याज्ञप्तिराज्ञा । प्लवंगमेषु विलग्नेत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः । सेतुबन्धाय रामाज्ञा बभूवेत्यर्थः । कस्मिन्सति । प्लवगपतेः प्रत्यक्षं सुग्रीवस्याग्र इत्युभयत्र दशमुखे कुपितेन रघुनाथेन वालिनीव समुद्रे बाणेन नियमिते आयत्तीकृते प्रशान्ते सति । यथा बाणनियमितो वाली प्रशान्तस्तथा समुद्रोऽपि । सेतुबन्धग्रहणोन्मुखत्वेन संप्राप्तवानित्यर्थः । समुद्रे वालिनी वा कथंभूते । जगता दुष्परिकलनीये दुस्तरणीये, पक्षे दुर्जये । रामाज्ञप्तः कीदृशी । प्लवगाधिपतिना वितीर्णा दत्ता । सर्वत्र प्रकाशितेत्यर्थः । महीव । यथा शेष फणेन विक्षिप्तावतारिता मही भुजंगेषु विलगति । यदा शेषो महीमवतारयति तदा भुजंगा एवं धारयन्तीत्यर्थः । पुना रामाज्ञप्तिर्मही वा किंभूता । त्रिभुवनस्य यत्सारं प्रयोजनं रावणवधरूपं तेन गुर्वी आदरणीया । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ पक्षे त्रिभुवनस्य सारेण बलेन धनेन वा गौरवयुक्ता । त्रैलोक्यस्यैव भारो धनानि च भूमावेव तिष्ठन्तीत्यर्थः। महाराष्ट्रभाषायां बहुवचनेऽप्येकवचनप्रयोगाद्भुअंग इत्युक्तम् ॥१८-१६।। विमला-सुग्रीव के सामने ही रावण पर कुपित श्रीराम ने जगत् से दुर्जेय वाली के समान' जगत् से दुस्तरणीय समुद्र को जब बाण से नियमित एवं प्रशान्त कर दिया तब (सेतु बांधने के लिये) राम की (रावण वधरूप) त्रिभुवन के प्रयोजन से आदरणीय आज्ञा को वानरपति सुग्रीव ने प्रकाशित की और वानरों ने उसे उसी प्रकार सिर पर धारण किया जैसे शेषफण के द्वारा उतारी गयी त्रिभुवन के भार एवं धन से गौरवपूर्ण भूमि को भुजंग सिर पर धारण करते हैं ॥१८-१६॥ कपीनां प्रस्थानमाह तो हरिसपढमतुलिए चलिआ फुट्ठन्तपम्हविसमूससिए । वे उक्खप्रसीमन्ते पवआ धुणिऊण केसरसङ्घग्घाए ॥२०॥ [ ततो हर्षप्रथमतुलितांश्चलिता स्फुटत्पक्ष्मविमोच्छ्वसितान् । वेगोत्खातसीमन्तान्प्लवगा धूत्वा केसरसटोद्धातान् ॥] ततो रामाज्ञानन्तरं प्लवगाश्चलिताः । पर्वतानयनायेत्यर्थात् । किं कृत्वा । समुद्रेण सेतुः स्वीकृत इति हर्षेण प्रथमं तुलितानुत्थापितान्केसरसटानामुद्धातान्समूहान्धूत्वा कम्पयित्वा। आनन्देन मस्तकोन्नतौ सटामुन्नतिः, अथ जातिस्वाभाव्यात्कम्पनमित्यर्थः । कीदृशान् । स्फुटद्भिमिथः पृथग्भवद्भिः पक्ष्म भिविषमं यथा स्यादेवमुच्छ वसितानुत्फुल्लान् । कम्पने सति परस्परविभागादित्यर्थः । एवं वेगेनोत्खातः प्रकटीकृतः सीमन्तो येषु तान् । धावनेन सटानां पार्श्वद्वये पातान्मध्ये रेखाभिव्यक्तिरिति भावः । केशाग्रं पक्ष्म ।।२०॥ विमला-श्रीराम की आज्ञा के अनन्त र आनन्द से ( सिर उठाने पर ) केसरसटा ( गरदन के बाल ) उठाकर सभी वानर (पर्वतों को ले आने के लिये ) चल पड़े। उस समय उनके गरदन के बाल एक-दूसरे से पृथक् होकर उत्फुल्ल हो रहे थे और वेग से ( दौड़ने पर ) वे केश गरदन के दोनों तरफ झुक गये थे, जिससे बीच में रेखा ( माँग ) प्रकट हो गयी थी ॥२०॥ अथ कपिचलनात्समुद्रक्षोभमाह पवअक्खोहिअमहिलधअमल अपडन्तसिहर मुक्ककलप्रलो। उद्धाइयो अणागअघडन्तधरणिहरसंकमो व्व समुद्दो ॥२१॥ [प्लवगक्षोभितमहीतलधूतमलयपतच्छिखरमुक्तकलकलः । उद्धावितोऽनागतघटमानधरणिधरसंक्रम इव समुद्रः ।] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२०१ समुद्र उद्धावित उच्छलितः । कीदृक् । प्लवगैः क्षोभिते महीतले धुतस्य मलयस्य पतद्भिः शिखरैर्मुक्तः प्रकाशितः कलकलः कोलाहलो यत्र तादृक् । कपिचलने भूचलनं तेन मलयकम्पस्तेन तच्छिखरपतनं तदभिघातेन च समुद्रे कोलाहलाकारः शब्दो जलानामुच्छलनं च वृत्तम् । अत्रोत्प्रेक्षते-अनागते भविष्यत्सेतुबन्धपूर्वकाल एव घटमानः संपद्यमानो धरणिधरैः संक्रमो जलयन्त्रपथो यत्र तथाभूत इव । सेतुबन्धसमये पर्वतानामविघातेन यः शब्दो यच्च वा जलोच्छलनादिकं भविष्यति तदिदानीमेव मलयशिखरपतनाज्जायत इत्यर्थात् । अथवा मलयशिखरपतनं न भवति कि तु सेतुसंक्रमघटनमित्युत्प्रेक्ष्य पुनस्तजन्योपमर्दवासेन कलकलं कृत्वा क्वचिदन्यत्र गन्तुं धावित्वा चलित इत्युद्धावितपदेन सशब्दजलोच्छलनं पलायनत्वेनोत्प्रेक्षितम् । अन्योऽप्यकस्माद्भयहेतुमवलोक्य कोलाहलं कृत्वा धावित्वा गच्छनीति ध्वनिः । अनागतो भविष्यन्नेव घटमानो धरणीधरसंक्रमः स इवेति वा ।।२१।। विमर्श-वानरों के चल पड़ने से पृथ्वी डगमगा उठी, अतएव कम्पित मलयगिरि के गिरते हुये शिखरों से समुद्र में कोलाहल मच गया, मानों भागी सेतुबन्ध के पहिले ही पर्वतों से सम्पन्न किये जाते हुये पथ के कारण ( भयभीत ) समुद्र कलकल कर ( अन्यत्र) जाने के लिये दौड़ चला ॥२१॥ अथ कपिचलने भूपर्वतयोः क्षोभमाहकम्पइ महेन्दसेलो हरिसंखोहेण दलइ मेइणिवेढम् । सइदुद्दिण्णतणाओ णवर ण उद्धाइ मल अवणकुसुमरओ ॥२२॥ [ कम्पते महेन्द्रशैलो हरिसंक्षोभेण दलति मेदिनीवेष्टम् (पृष्ठं वा)। सदादिनाद्र केवलं नोद्धावति मलयवनकुसुमरजः ॥] हरयो वान रास्तेषां संक्षोभेण पर्वताहरणोद्योगेनेतस्ततो गत्या तेभ्यः संक्षोभेण वा महेन्द्रप्रभृतीनां शैलानां कम्पो मेदिनीमण्डलस्य च दलनं सर्वमेव जायते । केवलं मलयवनकुसुमानां रजः परागो नोद्धावति. नोवं गच्छतीत्यर्थः । तत्र हेतुमाह--कीदृशम् । सदा दुदिनेन मेघच्छन्नतया तज्जलसंवन्धादाम् । अतो लघुत्वाभावादित्याशयः । तथा च महतां संभ्रमे महान्त एव खिद्यन्ते लघुनां किमपि नेति स्वनिः । यद्वा मलयवनकुसुमरजस्तूज़ न गच्छति किं तु केवलं दुदिनार्द्रमतो गुरुत्वादधः पसतीत्यर्थः । सेन मलयोऽपि कम्पित इति ध्वनितम् ।।२२।। विमला-वानरों के संक्षोभ से महेन्द्र पर्वत कांप गया, सारा भूतल रौंद उठा। सदा मेघाच्छन्न होने के कारण ( उस समय ) मलयवन का आर्द्र कुसुमपराग ऊपर की ओर उड़कर नहीं गया ।।२२।। अथ कपीनामुत्फालमाहतो संचालिअसेलं कह वि तुलग्गेण समघडन्तक्कम्पम् । दूरं पवंगमबलं गहमु हलग्गवसुहं णह उप्पइ अम् ॥२३॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] सेतुबन्धम् [षष्ठ [ ततः संचालितशैलं कथमपि तुलाग्रेण समघटमानकम्पम् ।। दूरं प्लवंगमबलं नखमुखलग्नवसुधं नभ उत्पतितम् ॥] ततस्तदुद्योगानन्तरं नखानां मुखेषु लग्ना वसुधा यस्य । उत्प्लवनसमये करचरणेन भूम्यवष्टम्भनात् । तथाभूतं सत्कपिबलं दूरं व्याप्य नभ उत्पतितमूर्ध्वमुत्प्लुत्य गतम् । कीदृक् । संचालिताः शैला येन । भूमेर्यन्त्रणत्यागाभ्यां नमनोन्नमनात् । एवं कथमपि येन तेन प्रकारेण तुलाग्रं काकतालीयसंवादस्तेन सममेकदैव घटमानः कम्पः स्पन्दो यस्य । आज्ञानन्तरं परस्परमनपेक्ष्यव सर्वे उत्पतितुमारब्धा देवादेकदैवोत्पतिता इत्युद्योगप्रकर्षः। संचालिताः शैला यत्र तथा यथा स्यादिति क्रमेण व्याख्याने त्रितयमपि क्रियाविशेषणं वा ॥२३।। विमला-सभी वानर ( परस्पर देखादेखी न कर ) देवात् एक साथ ही आकाश की ओर उछले । जिस समय ( कर और चरण से पृथिवी को दाब कर ) वे ऊपर को उछले, पृथिवी उनके नखों के अग्रभाग में लगी रही, अतएव समस्त गिरि हिल उठे ( क्योंकि वानरों के दाबने से एक बार पृथिवी दवी और उनके उछलने पर पुनः उभरी) ॥२३॥ अथ कपीनां भूमेरवन तिमाह उप्पअणोणअमहिनालणइमुहपडिसोत्तपत्थिओ सलिलणिही। जलणिवहाहअसिढिले पवउच्छेवणसहे करेइ महिहरे ॥२४॥ [ उत्पतनावनतमहीतलनदीमुखप्रतिस्रोतःप्रस्थितः सलिलनिधिः। जलनिवहाहतशिथिलान्प्लवगोत्क्षेपणसहान्करोति महीधरान् ।। उत्पतनादवनतं यन्त्रणादधोनीतं यन्महीतलं तत्र नदीमुखेन नदीसंगमस्थानेन प्रतिस्रोतसा स्रोतःप्रतिलोमेन विपरीतक्रमेण प्रस्थितः सलिलनिधिर्महीधरान् प्लवगानामुत्क्षेपणसहानुत्थापनयोग्यान्करोति । अत्र हेतुमाह-कीदृशान् । जलनिवहेनाहतान् ताडितान् अथ शिथिलान दृढमूलान् । अयमर्थः-पर्वतानाहर्तुमुत्तरामाशामाश्रित्य प्लवगैरुत्प्लवनाय चरणरोपणे कृते यन्त्रमात्तदिग्भूमेरबनतो समुद्रस्य चोन्नती तज्जलं निम्नीभवत्तत्प्रविष्टनदीमार्गेण निम्नीभवत्सु पर्वतेषु पतितं तत्संबन्धेन च पर्वतमूलमृत्तिकानां पङ्कीभवनेन पर्वतोत्थापनसाद्गुण्यमासीदिति यात्रासाद्गुण्यसूचनम् । अन्यत्रापि दृढनिखात स्तम्भादिकं मूले जलं दत्त्वोद्धियत इति ध्वनिः ॥२४॥ विमला-वानरों ने उछलने के लिये जव पृथिवी पर पैर टिकाया, उस समय पृथिवी दब गयी और समुद्र ( ऊपर उभर कर ) नदियों के मार्ग से उलटे पर्वतों के मूल के पास आ गया। इस प्रकार उसने वानरों के लिये पर्वतों का उन्मूलन सुकर बना दिया ॥१४॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२०३ अथ कपिभिराक्रान्तं गगनमाहफरमाणजलणपिङ्गलगिरन्तरुप्पइअपवअ(वल)पेल्लिज्जन्तो । जत्तो दीसइ तत्तो गज्जइ धूमणिवहो ति गअणुद्देसो ।।२।। [ स्फुरज्ज्वलनपिङ्गलनिरन्तरोत्पतितप्लवग(बल)प्रेर्यमाणः । यतो दृश्यते ततो ज्ञायते धूमनिवह इति गगनोद्देशः ॥] स्फुरज्ज्वलनवत्पिङ्गल कपिशं निरन्तरमन्तरशून्यं घनमुत्पतितं यत्प्लवगबलं तेन र्यमाण ऊध्वं नीयमानः । यथा यथा प्लबगबलमूचं गच्छति तथा तथा गगनमप्यूध्वं गच्छतीति बुद्धिविषयत्वात्पूर्यमाण इति वा । एवंभूतो गगनो शो यत्र दृश्यते तत्र धूमनिवह इति ज्ञायते । धूमत्वेन प्रतीयत इत्यर्थः । अत्र पिङ्गलत्वात्तलवर्तित्वाच्च कपीनामग्निना श्यामत्वादूर्ध्ववर्तित्वाच्च गगनस्य च धूमेन साम्मम् । प्लवगानामुत्प्लवने गगनमुपर्येव दृष्टं परत्र सर्वत्र प्लवगा एवेति भावः ॥२५॥ विमला-दीप्यमान अग्नि के समान पिङ्गलवर्ण उछले सघन वानरसैन्य से मानों आकाश और ऊपर उठा दिया गया और इस प्रकार गगन प्रदेश जहाँ ही देखा गया वहीं धूमराशि-सा प्रतीत हुआ ॥२५॥ अथ कपीनामब्धौ प्रतिबिम्बमाहदोसइ दूरुप्पइअं उअहिम्मि अहोमुहोसरन्तच्छाअम् । पाआलं व अइन्तं धरणिहरुद्ध रणकखि कइसेणम् । २६॥ [ दृश्यते दूरोत्पतितमुदधाबधोमुखापसरच्छायम् । पातालमिवायमानं धरणिधरोद्धरणकाङ्कितं कपिसैन्यम् ।।] दूरं व्याप्योत्पतितमतिदूरमूर्ध्व गतं कपिसैन्यं दृश्यते। किंभूतम् । उदधौ समुद्रे अधोमुखी पातालाभिमुखी सती अपसरन्ती अधो गच्छन्ती छाया प्रतिबिम्बो यस्य तथाभूतम् । अयमर्थ:-सिन्धोरसंमुखेऽपि तीरे करचरणावष्टब्धभूमीनामपि कपीनामुद्देश्योर्ध्वदेशत्वेनोर्ध्वमुखीभूय कृतोत्फालानां यथायथातिदूरमूर्ध्वगमनं तथा-तभा सिन्धुपयसि प्रकटीभतस्याधोमुखस्य प्रतिबिम्बस्यातिदरमधोगमनं प्रतिभासते तदेतदुत्प्रेक्ष्यते । पुन: किंभूतम् । धरणीधराणामर्थात्पातालवर्तिनामुद्ध रणमूर्ध्वमाहरणं काक्षितं यस्य तत् । काङ्कितवरणीधरोद्धरणमिति वा । प्राकृतत्वात् । एवंभूतं सत्पातालमिवायमानं गच्छत् । तथा च प्रतिबिम्बव्यूहः पातालं न गच्छति किं तु तत्रत्यपर्वतानाहतुं कपिव्यूह एवेत्याशयः प्रतिबिम्बाधिकरणस्याधोवर्तित्वे ऊर्ध्वमुखस्याधोमुख एवं प्रतिबिम्बो भवति प्रतिबिम्बप्रतियोगिनश्च व्यवहितत्वेऽप्यतिदूरमूर्ध्वगमने प्रतिबिम्बः प्रकटीभवति अतिदूरं चाधो गच्छतीत्युक्तं दूरोत्पतितमित्यवधेयम् । ‘णज्ज्जइ' इति पाठे पातालमिवायमानमिति ज्ञायत इत्यर्थः ॥२६॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ विमला - आकाश में ऊपर बहुत दूर (ऊर्ध्वमुख) छलांग मारते वानरों का मधोमुख प्रतिबिम्ब समुद्र के जल में पाताल की ओर जाता दिखायी पड़ा, मानों वे वानर ही पातालस्थ पर्वतों को उखाड़ लाने की काङ्क्षा से पाताल की ओर जा रहे थे ॥ २६॥ जाअं पव अबलसंणिरुद्धालोअम् । अथ कपीनामाकाशव्यापकत्वमाहअदिट्ठदिसाणिवहं विच्छिण्णाश्रवकसणं विअसमुहे वि विश्रसावसाणे व्व णहम् ||२७|| [ अदृष्टदिनिवहं जातं प्लवगबलसंनिरुद्धालोकम् । विच्छिन्नातपकृष्णं दिवसमुखेऽपि दिवसावसान इव नभः ॥ ] नभ दिवसावसान इब दिवसमुखेऽपि विच्छिन्नातपकृष्णं जात विच्छिन्न आतपो यत्र तद्विच्छिन्नात अत एवातपाभावात्कृष्णं श्यामम् । यथा आतपाभावेन नभः श्यामं भवति तथा प्रातरप्यातपाभावात्कृष्णं जातमित्यर्थः । अत्र हेतुमाहकीदृक् अदृष्टो दिनिवहो यत्र तथा । एवं प्लवगबलेन संनिरुद्धो व्यवहित भालोकः सूरतेजो यत्र तत् । तथा च सौरालोकनिरोधात्तत्सत्त्वकालेऽपि नीलमभूदित्याशयः ||२७|| विमला - गगन में वानर ऐसे छा गये कि दिशाओं का भान नहीं हो पाता था और सूर्य का प्रकाश संनिरुद्ध हो गया, अतएव आतप के अभाव से प्रातः काल में भी आकाश सन्ध्याकाल के समान श्याम ही दिखायी दे रहा था ॥ २७ ॥ अथ कपीनामवपतन माह ओवइआ अ सरहसं तंसट्ठिअपुट्ठिनीसरन्तरविअरा । सेलेसु मुक्ककल प्रलपडि रवभरि अकुहरो अरेसु पवंगा ॥ २८ ॥ [ अवपतिताश्च सरभसं निर्यविस्थत पृष्ठ निः सरद्रविकराः । शैलेषु मुक्तकलकलप्रतिरवभरितकुहरोदरेषु प्लवंगाः ॥ ] प्लवंगा : शैलेषु सरभसं यथा स्यात्तथा अवपतिताश्च । अवतीर्णा इत्यर्थः । किंभूताः । तिर्यविस्थतं यत्पृष्ठं तस्मान्निःसरन्तो रविकरा येभ्यस्ते । पृष्ठस्य तिर्यग्भावेनावकाशलाभात् । शैलेषु कीदृशेषु । मुक्तोऽप्रतिरुद्धः प्रकटीकृतो यः कलकलः पर्वत लाभानन्दजन्मा तत्प्रतिरवेण भृतानि पूर्णानि कुहराणां कंदराणामुदराणि येषां तेषु । तावत्तादृशवान र कोलाहलप्रति रवपूरणीयत्वेन कं' दरोत्कर्षात्पर्वतोत्कर्षः । वस्तुतस्तु मुक्त इति क्तप्रत्ययेन पूर्वमेव प्रस्थानसमये समुद्रतीरे कृतो यः कलकलस्तत्प्रतिरवेण भृतानि पूर्णानीत्यर्थे पूर्णत्वस्य विद्यमानत्वेन प्रतिरवशान्तिर्यावन्नाभूत्तावदेवावपतिता इति वेगस्यातिशयः सूचितः । मृत इत्यस्यादिकमंक्तास्तत्वे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२०५ म्रियमाणानीत्यर्थेन समुद्रतीरमुक्तकलकलप्रतिरवेण कंदराभरणस्य वानरावपतनस्य न तुल्यकालत्वे ततोऽप्य तिशयो लभ्यते वेगस्येति मदुन्नीतः पन्थाः ॥२८॥ विमला-सभी वानर वेगपूर्वक पर्वतों पर उतर पड़े । ( उस समय उनकी की गयी) कलकल ध्वनि की प्रतिध्वनि से कन्दराये गूंज उठीं और वानरों के पृष्ठ भाग (पूर्ववत् ) झुक जाने से सूर्य की किरणें पुनः निकल पड़ीं ॥२८॥ अथ वानराणां पर्वतप्रवेशेऽपि कार्य सिद्धिसाद्गुण्यमाहवेओवइमाण प्रसि जाअं दलिअमहिसंधिबन्धणमुक्कम् । उक्खलिप्रतुलेअव्वं कह वि भुअंगधरिमट्ठिअं गिरिआलम् ॥२६॥ [ वेगावपतितानां चैषां जातं दलितमहीसंधिबन्धनमुक्तम् । उत्खण्डिततुलयितव्यं कथमपि भुजंगधृतस्थितं गिरिजालम् ॥] गिरिजालं वेगेनावपतितानामधः समागत्य शिखरस्थितानामेषां कपीनामुत्खण्डितं सत्तुलयितव्यमुत्तोलनयोग्यं जातम् । अत्र हेतुमाह-कीदृक् । दलितं यन्मह्या समं संधिबन्धनं तेन मुक्तमुद्गीर्णम् । दलितया मह्या संधिबन्धनेन मुक्तमिति वा। उद्गीणं चेत्कुतो न पतितमित्यत आह-कथमपि कष्टसृष्टया भुजंगेन मूलवतिना धृतं सत्स्थितम् । शिरसि वेगोपगतवानराभिघालेन मूले विशीर्णभूमिकतया भूमिपर्वसंधिबन्धशैथिल्येन कपीनामुत्तोलनमात्रापेक्षि जातमित्यर्थः । एतेन वानराणां बलवत्त्वं तथाभूतवानरस हितनिरवलम्बपर्वतधारणेन भुजंगानां च महत्त्वं सूचितम् ॥२६॥ विमला-वेगपूर्वक वानरों के उछलने से दलित भूमि और पर्वतों का सन्धिबन्ध शिथिल हो गया, किन्तु मूलभाग सो द्वारा अत्यन्त दृढ़ता से धारण किये जाने से किसी तरह स्थित रहे तथापि वे पर्वत उत्खण्डित हो उठे और ऊपर उभर आने से वानरों द्वारा सरलता से उखाड़ने एवम् उठाने योग्य हो गये ॥२६॥ अथ पर्वतोत्पाटनारम्भमाह आढत्ता अ तुलेउं उरपडिअविसीगण्डसेल द्धन्ते । कुविअमइन्दोवग्गिअसंखोह प्फिडिप्रवणगए धरणिहरे ॥३०॥ [ आरब्धाश्च तुलयितुमुरःपतितविशीर्णगण्डशैलार्धान्तान् । कुपितमृगेन्द्रावगृहीतसंक्षोभस्फेटितवनगजान्धरणीधरान् ॥] धरणीधरान् तुलयितुमारब्धाश्च । प्लवंगा इत्यर्थात् । कीदृशान् । उरसि कपीनामित्यर्थात् । पतिताः सन्तो विशीर्णाः खण्डखण्डीभूता गण्डशैलै कदेशा येषां तान् । शिखरादवतीर्य कपिभिरुत्पाटनाय तिर्यकृतानां गिरिणामूर्ध्वतः पततामव Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] सेतुबन्धम् [षष्ठ पतनदलितगण्डशैलखण्डानां शतखण्डीकरणेन वक्षसो विस्तीर्णत्वं बलवत्त्वं दृढत्वं च सूचितम् । एवं कुपिमृगेन्द्ररवगृहीता अवस्कन्दिताः सन्तः संक्षोभेण वानरागमनजन्यसंभ्रमेण स्फेटिताः स्वरक्षाकुलचित्ततया त्यक्तत्वेन बहिष्कृता वनगजा येषु तान् । सिंहानामवगृहीतवनगजबहिर्गमने संक्षोभस्याधिक्यमुक्तम् ॥३०॥ विमला-वानरों ने पर्वतों को उखाड़ना और उठाना आरम्भ किया। उस समय ( उखाड़ने के लिये टेढ़े किये गये ) पर्वतों के शिखरखण्ड वानरों के वक्षःस्थल पर ऊपर से गिर-गिर कर खण्ड-खण्ड हो गये तथा वानरों के भय से ( अपनी रक्षा के लिये आकुल ) कुपित मृगेन्द्रों ने अवगृहीत वनगजों को बहिष्कृत कर दिया ॥३०॥ अथ शैलेवूत्पाटनाय कपीनां हृदयावष्टम्भनमाह वच्छुत्थञ्जिअकडआ तो ते कडअपडिअट्टलिप्रवच्छअडा। सेलेसु सेलगरुमा पवआ पवएसु महिहरा अ पत्ता ॥३१॥ [ वक्षउत्तम्भितकटकास्ततस्ते कटकप्रतिघृष्टवक्षस्तटाः। शैलेषु शैलगुरवः प्लवगाः प्लवगेषु महीधराश्च प्रभूताः ॥] ततः शैलानां तिर्यक्करणानन्तरं प्लवगा: शैलेषु प्रभूताः संमिता जाताः । परिमाणतौल्याच्च पुनः प्लवगेषु महीधराः प्रभूताः सदृशा जाताः । अत्र हेतुमाहकीदृशाः प्लवगा महीधरा वा । शैलवद्गुरवो बृहदाकाराः । पक्षे शैलं शिलासमूहस्तेन गुरवो महान्तः । तथा च द्वयोरपि तुल्याकारत्वेन संपुट वत्संमितिर्जातेत्यर्थः । तदेव तुल्यतयोपपादयति-वक्षसा उत्तम्भितमुत्थापित कटकं नितम्बः पर्वतानां यैस्ते प्लवगाः । कटकेन प्रतिघृष्ट मुत्तम्भनानन्तरं घृष्टं वक्षस्तट कपीनां यैस्ते महीधराः । तथा च वक्षःकटकयोरपि तुल्याकारत्वं तुल्यव्यापारत्वं चेत्येका मामकी व्याख्यासरणिः । शैलेषु प्लवगा: प्लवगेषु शैलाः प्रभूताः सदृशा वृत्ताः। तेन यावन्तः पर्वतास्तावन्तः कपयो यवन्तश्च कपयस्तावन्तश्च पर्वता इत्युक्तिवैचित्र्येण प्रत्येकमेकैकेन संबद्धा इत्यन्यूनातिरिक्तता जातेत्यर्थः । इत्युत्तरार्धन द्वयेषामपि संख्यासाम्यम् । पूर्वार्धेन तु वक्षःकटकयोस्तुल्यताप्रतिपादनमुखेन परिमाणसाम्यमिति श्लिष्टं प्रभूतपदमित्यपरा । सांप्रदायिकास्तु प्लवगा इत्यस्यैव विशेषणत्रयमित्यर्थादाकारसाम्य मिति व्याचक्षते ।।३१।। विमला उस समय सभी वानर और पर्वत ( परिमाण और व्यापार की दृष्टि से ) समान ही दिखायी पड़ते थे। वानर पर्वताकार थे तो पर्वत शिलासमूहों से गम्भीर थे ही। वानर पर्वतों के उपत्यका-भाग को अपनी छाती से उठाये हुये थे तो पर्वत अपने उपत्यका भाग से उनके वक्षःस्थल को घर्षित कर रहे थे ॥३१॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२०७ अथ कपीनां शैलोत्पाटनप्रकारमाहपवनभुअणोल्लिआणिअमहिहरपडिपेल्लणोणउण्ण अविसमा। जापा पलोट्टिमोअहिवारंवारभरिआ महिअलद्धन्ता ॥३२॥ [प्लवगभुजनोदितानीतमहीधरप्रतिप्रेरणावनतोन्नतविषमाः । जाता प्रलुठितोदधिवारंवारभृता महीतलार्धान्ताः ॥ ] महीतलैकदेशाः प्रलुठितेन । भूमावित्वर्थात् । उच्छलितेनेत्यर्थः । तथाभूतेनोदधिना वारंवारं भृताः पूर्णा जाताः । कीदृशाः । प्लवगभुजाभ्यां नोदितः प्रेरितोऽथानीत भाकृष्टो यो महीधरस्तेन यत्प्रतिप्रेरणं भूयोभूयः प्रेरणं तेन नता नम्रा अथोन्नता उन्नम्राः सन्तो विषमाः समताशून्याः । तथा च कपिभियदा हृदयावष्टम्भेन भुजाभ्यां पर्वतानामुत्तरदिगभिमुखप्रेरणालक्षणं नोदनं क्रियते तदा प्लवगावष्टब्धपर्वतभरावभुग्नस्तदुत्तरभूमिभागः समुन्नतदक्षिणभूमिभागस्थ समुद्रवारिभिरुच्छलद्भिः पूर्यते यदा पुनर्दक्षिण दिभिमुखाकर्षणलक्षणमानयनं क्रियते तदा पर्वतावष्टन्धप्लवगभरावभुग्ने दक्षिणभूमिभागे तानि जलानि पुनः समुद्र एव प्रविशन्तीति शैलानां दृढमूलत्वं कपीनामुद्योगशीलत्वं च वारंवारपदेन व्यज्यते । यद्वा ऊर्ध्वाधःक्रमेण पर्वतोत्पाटनप्रयत्ने यदा पर्वतानामधोयन्त्रलक्षण नोदनं तदा तद्भरादवनता भूमिरुन्नतसमुद्रजलेन परितः पूर्यते । यदा तूत्थापनलक्षण मानयनं तदा तदवष्टन्धभूमेरुन्नतत्वात्तज्जलमवनते समुद्र एव प्रविशतीति तात्पर्यम् । न चार्धान्तपदासंगतिः। समुद्रानवच्छिन्नस्य द्वीपान्तरस्य व्यावय॑त्वादिति भावः । अन्यदपि स्तम्भादि तिर्यकक्रमेणोर्ध्वाधःक्रमेण वा संचार्योत्साठ्यत इति ध्वनिः । पर्वतानां नोदनाकर्षणाभ्यां दक्षिणभूमिभाग एव नमन्नुन्नमन्समुद्रजलेन पूर्यते परिह्रियते चेति ऋजवः । वारंवारशब्दोऽपि पौनःपुन्यवाचीत्यवधेयम् । तथाहि-वारंवारेण लब्धो जगदुपरि मया देवपादप्रसादः' ॥३२॥ विमला-वानर पर्वतों को उखाड़ने के लिये अपनी भुजाओं से पर्वतों को कभी नीचे की ओर दबाते और कभी ऊपर की ओर उभारते । जब नीचे को दबाते तो पृथिवी अवनत हो जाती और समुद्र का भाग उन्नत हो जाता था, उस समय समुद्र का जल पृथिवी को परिपूर्ण कर देता था किन्तु जब ऊपर की ओर पर्वतों को उभाड़ते तो पृथिवी का भाग उन्नत हो जाता और समुद्र का भाग अवनत हो जाता था, उस समय जल पुनः समुद्र में प्रविष्ट हो जाता था। पर्वतों के उखाड़ने में निरन्तर यही क्रम चलता रहा ।।३२।। अथ कपीनामतिमहत्पर्वतोत्पाटनमाहविसहिप्रवज्जप्पहरा उक्खम्भन्ति खममारुअडिक्खम्भा । अगणिअवराहणिहसा पल अजलुत्यङ्घपब्बला धरणिहरा ॥३३॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] सेतुबन्धम् [ बिसोढवज्रप्रहारा उत्खायन्ते क्षयमारुतप्रतिस्तम्भाः । अगणितवराहनिघर्षाः प्रलयजलोत्तम्भप्रबला धरणीधराः ॥ ] धरणीधरा उत्खायन्ते उत्पाटयन्ते । कीदृशाः । विसोढा वज्रप्रहारा भर्थादिन्द्रकृता यैस्ते । एवं प्रलयमारुतानां प्रतिस्तम्भाः प्रतिरोधागंलाः । अर्गलया प्रतिरोधः क्रियत इति वस्तुगतिः । एवमगणिता वराहस्य भगवतो निघर्षाः कायकण्डूयनादिव्यापारायैः । एवं प्रलयजलानामुत्तम्भ ऊर्ध्वप्रसरणं तत्र प्रबलाः समर्था । दृढतद्रव्यप्रतिहतं जलमूर्ध्वमुत्तिष्ठतीति विशेषणचतुष्टयेन पर्वतानां दृढमूलत्व विस्तृतस्वतुङ्गत्व चिरकालीनत्वानि व्यज्यन्ते ||३३|| विमला — वानरों ने ऐसे पर्वतों को उखाड़ लिया जो ( इतने दृढमूल थे कि ) इन्द्र के वज्रप्रहार को सह चुके थे, जो ( इतने विस्तृत थे कि ) प्रलयमारुत को प्रतिरुद्ध कर चुके थे, जो ( इतने ऊँचे थे कि ) भगवान् वराह के शरीर कण्डूयनादि निघर्ष को झेल चुके थे तथा जो ( इतने चिरकालीन थे कि ) प्रलयजल के ऊर्ध्वप्रसार में भी ज्यों के त्यों स्थित रहे ॥ ३३ ॥ अथ पर्वतानामुत्तोलने विशीर्णतामाह जलओवट्ठविमुक्का [ षष्ठ प्रणन्तरो इण्णसरनवन्यावडिआ । एक्कक्खे बुग्गाहिप्रवरवसुआअविस विसन्ति गिरि ॥ ३४ ॥ [ जलदाववृष्टविमुक्ता अनन्तरावतीर्णशरत्पथावपतिताः । एकक्षे पोद्ग्राहितदरशुष्कविशदा विशीर्यन्ति गिरयः ॥ ] गिरयो विशीर्यन्ति । शतखण्डा भवन्तीत्यर्थः । किंभूताः । एकक्षेपेणैकप्रयत्नेन । एकदैवेत्यर्थः । उद्ग्राहिता उत्तोलिताः । कपिभिरित्यर्थात् । एवं किंचिच्छुष्काः सन्तो विशदा निर्मलाः । आर्द्रत्वेन कोमला इति यावत् । कर्मधारयः । तथा च सर्वैः पारस्परजिगीषया स्वस्वप्राथम्यमपेक्ष्य हठादुत्थापिता गिरयः कोमलत्वेन विशीर्णा इत्यर्थः । एतेन प्लवगानां भुजबलाधिक्यम् । ईषदार्द्रत्वे हेतुमाह - किंभूताः । जलदे - नाववृष्टाः कृतवर्षणाः अथ विमुक्तास्त्यक्ताः अनन्तरमवतीर्णा या शरत्तत्पथे तद्गोचरे आपतिताः । तथा च वर्षाशरत्सम्बन्धेन जलातप संबन्धादीषदार्द्रत्वम् ||३४|| विमला - ( एक-दूसरे से आगे हो जाने के उद्देश्य से ) वानरों ने पर्वतों को एक साथ ही उठा लिया, उस समय पर्वतों के सौ-सौ खण्ड हो गये क्योंकि वर्षा ऋतु में जलवृष्टि से वे आर्द्र हो चुके थे और इधर शरत् ऋतु के आगमन से कुछकुछ ही शुष्क हो पाये थे अतएव कोमल ही बने हुये थे || ३४ ॥ अथ शैलोत्पाटने भूमिक्षोभमाह विणन्ति विहुव्वन्ता वलेन्ति सेला पवंगमवलिज्जन्ता | णामेति णमिज्जन्ता उक्लिप्पन्ता अ उक्खिवेन्ति महिश्रलम् ||३५|| Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २०६ [ विधूनयन्ति विधूयमाना वलयन्ति शैलाः प्लवंगमवल्यमानाः । नमयन्ति नाम्यमाना उत्क्षिप्यमाणाश्चोत्क्षेपयन्ति महीतलम् ॥ ] शैलाः प्लवंग मै विधूयमानाश्चात्यमानाः सन्तो महीतलं विधूनयन्ति चालयन्ति । एवं वल्यमाना वक्रीक्रियमाणाः सन्तो वलयन्ति वक्रयन्ति । यत्पार्श्वेन पर्वतानयनं तत्पार्श्वेन भूमेरपि वक्रीभवनमित्यर्थः । एवं नाम्यमाना अधः प्रेर्यमाणाः सन्तो नमयन्ति । स्वभरेणाधः प्रेरयन्तीत्यर्थः । उत्क्षिप्यमाणा उत्तोल्यमानाः सन्त उत्क्षेपयन्ति । स्वावष्टम्भेनोत्तोलयन्तीत्यर्थः । तथा च यां यामवस्थां पर्वताः प्राप्नुवन्ति तां तामवनिरपीति पर्वतानां दृढमूलत्वं महत्त्वं च सूचितम् । 'नभस्तलं' इति पाठे बुद्धिपरत्वेन सर्वमित्थमेव योज्यम् । 'उक्खिवन्ति' इति पाठे उत्क्षिपन्तीत्यर्थः ||३५|| विमला - वानरों द्वारा जब पर्वत हिलाये जाते तब उनसे पृथिवी हिल जाती, जब टेढ़े किये जाते तब ( उनके पार्श्वभाग के भार से ) पृथिवी टेढ़ी हो जाती, जब झुकाये जाते तब पृथिवो झुक जाती और जब ऊपर उठाये जाते तो पृथिवी ऊपर उठ जाती थी ||३५|| अथ पर्वतानामुत्तोलने सपैराकर्षणमाह दलिश्रमहिवेदसिढिला मूलालग्गभुअइन्दक ड्ढिज्जन्ता । संचालिज्जन्त चिचम अइन्ति गरुना रसाश्रलं धरणिहरा ॥ ३६ ॥ [ दलितमहीवेष्ट शिथिला मूलालग्नभुजगेन्द्रकृष्यमाणाः । संचाल्यमाना एवायान्ति गुरवो रसातलं धरणिधराः ॥ ] धरणिधरा: संचाल्यमानाः एवं प्लवगैशलोडघमाना एव रसातनमायान्ति । गच्छन्तीत्यर्थः । किंभूताः । संचारेण दलितमहीवेष्टाः सन्तः शिथिला : शिथिल - मूला: । एवं मूमालग्नेन भुजगेन्द्रेण कृष्यमाणाः । अथ व गुरुत्वयुक्ताः । तथा च दलित मूलभूमित्वेनातु सुकरत्वेऽपि कपिकरधृता अप्यालोडनसमकालमेव मदावासः केनायमाकृष्यत इति रोषाविष्टभुजंगेन फणसंदंश केनावष्टभ्य कृष्यमाणाः पातालमेव प्रविष्टा गिरय इति कपिभ्योऽपि सर्पाणां महत्त्वमुक्तम् ||३६|| विमला - यद्यपि बानरों द्वारा हिलाने-डुलाने से दलित मूलभूमि होने के कारण सरलता से ऊपर उठाये जा सकते थे तथापि उसी समय ( अपने आवास के आकर्षण से रोषाविष्ट ) मूलभाग में संलग्न सर्पों द्वारा आकृष्ट वे विशाल एवं गम्भीर पर्वत पाताल को ही चले गये ॥ ३६ ॥ अथ मलयातिक्रममाह णवपल्लव सच्छाप्रा जलओर सिसिरमाअविइज्जन्ता । वाअन्ति तक्खणुवख अहरिहत्य क्खि त्तभेम्मला मलअदुमा ||३७ ॥ १४ से० ब० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] सेतुबन्धम् जलदोदर शिशिर मारुतवीज्यमानाः । [ नवपल्लवसच्छाया वायन्ति तत्क्षणोत्खात हरिहस्तोत्तिविह्वला मलयद्रमाः ॥ ] मलयमा वायन्ति शुष्यन्ति । किंभूताः । नवपल्लवैः सच्छायाः छाया कान्तिरातपाभावो वा तत्सहिता । एवं जलदोदरस्य ये शिशिरा मारुतास्तैर्वीज्यमानाः । एवं तत्क्षणे उत्खाता अथ हरिहस्तेनोत्क्षिप्ता उत्तोलिताः सन्तो विह्वला व्याकुलाः । परस्पराभिघातशाखापत्त्रकत्वात् । तथा च नवदलमयत्व सजल जल दोदरपवनवीजितत्वतत्क्षणोत्खातत्व रूपशोषणाभाव सामग्रीसत्वेऽपि हठादेव मलयतरुशोषणं कपिकरकृतोत्क्षेपणनिबन्धन मिथः शाखाद्यभिघात मूलकत्वेन कपीनां बलवत्त्वमूर्ध्वक्षेपणहेतुकरविमण्डल सांनिध्य निबन्धनत्वेन वा महदाकारत्वं गमयति । मलयोत्पाटन [ षष्ठ सौकर्याय वृक्षोत्पाटनम् ||३७|| सूख गये ||३७|| विमला - नवदलमय, छायादार, सजल, जलदोदर - पवन - वीजित मलयद्रुम तत्काल उखाड़े गये और वानरों के हाथों से ऊपर फेंके गये, अथ पर्वतोत्पाटने तदाश्रितानां वैकल्यमाह - कम्पिज्जन्तधराहर सिहर समाइड्ढजलहर र उप्पित्या । गग्रहवत्तणिसण्णा वेवइ हंसी सहस्तवत्तणिसण्णा ||३८|| [ कम्प्यमानधराधरशिखरसमाविद्धजलधररवोद्विग्ना गतसुखवर्त्म निषण्णा वेपते हंसी सहस्रपत्रनिषण्णा ॥ ] हंसी मराली वेपते कम्पते । कम्पने हेतुमाह — कीदृशी । कम्प्यमानानां चाल्यमानानां कपिभिरर्थात् धराधराणां शिखरैः समाविद्धानां वेधं नीतानां जलधराणामर्थात्तदुपरि तिष्ठतां रवैवैधव्यथाजनितशब्दैरुद्विग्ना विषण्णचिता । वर्षासमय भ्रमाद्रवस्य भैरवत्वेन क्षोभातिशयाच्च । अत एव हेतोर्गतं प्रथमत एवोडीय पलायितं यत्सुखपात्रं हंसस्तेन निःसंज्ञा निश्वेष्टा । मुग्वेति यावत् । यद्वा गतसुखवार्त निःसंज्ञा गता सुखस्य वार्ता यस्याः सा गतसुखवार्ता सा चासौ निःसंज्ञा चेति कर्मधारयात्पुंवद्भावः । एवं सहस्रपत्रे कमले तत्रत्यसरोवरस्थे निषण्णा उपविष्टा । तथा च गिरिकम्पनस्य जलधरभेदहं सोद्वेग हेतुत्वप्रतिपादन मुखेन विश्वक्षोभकत्वमुक्तम् । अथ वा हंसः परमात्मा तस्य स्त्री हंसी । ' पुंयोगात् -' इति ङीष् । सा पृथिवी वेपते । किंभूता । कम्प्यमानस्य धराधरस्य शिबरेण । पतितेनेत्यर्थात् । समाविद्धस्य प्रेरितस्य जलगृहस्य समुद्रस्य रवेग तटाभिवातजन्यशब्देव उद्विग्ना आकुला । एवं गता सुखस्य शुभस्य वा वर्तनी पदवी तस्याः संज्ञा नाम यस्पाः । शिखराभिहतसमुद्राघातनिर्घातव्याकुलाया यस्याः सुखस्य नामापि नास्तीत्यर्थः । एवं सहस्रवक्त्रनिषण्णा सहस्रवक्त्रः शेषस्तत्र स्थिता । तदुपरीत्यर्थः । अथ च हंसी बनाकाप्रभृतिषु विशिष्टनायिकाजातिते । कीदृशी । कं सुखं यथा स्यादेवं कं सुखं तेन वा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ૨૧૧ पीयमानोऽधरो यस्याः । नायकेनेत्यर्थात । सा कंपीयमानाधरा । कंशब्दस्याव्ययत्वमपि । एवं धरशिखर समावद्धजलभररतोद्विग्ना धरस्य पर्वतस्य शिख रेण समाः कर्कशत्वाद्येऽवृद्धास्तरुणा जल(ड)भरा मूर्खसमूहास्तेषां रतेन सुरतेनोद्विग्ना। कठि. नत्वात्तरुणत्वान्मूर्खत्वाच्च तेषामुद्वेगजनकत्वात् । रवेण सुरतकालीनप्रौढिव्यञ्जकशब्दविशेषेणोद्विग्ना त्रस्ता वा । जलं जाड्यं धारयतीति जलधरो नायकस्तस्य रतेनेति वा । एवं गतसुखवम निशज्ञा गतं सुखस्य वर्त्म द्वारं यस्यां तथा सा च निशा चेति कर्मधारयः । तद्गतसुखवमनिशम् । 'विभाषा सेनासुराच्छायाशालासभानिशानाम्' इत्येकवद्भावात् । तज्जानाति ताम् । रात्रि सुखशून्यां मन्यत इति तथानर्थसंदेहादिति भावः । गतसुखवार्तेति पूर्ववद्वा। एवं सहस्रपात्रनिषण्णा सहस्र दातु समर्थ इति सहस्रपात्रं धनिको नायकस्तत्र निषण्णा आसक्ता । गणिकेत्यर्थः । इति ध्वनिः । 'हंसो विहंगभेदे स्याद विष्णौ हयान्तरे। योगिमन्त्रादिभेदे च परमात्मनि भेषजे' ॥३८॥ विमला-वानरों द्वारा कैंपाये गये पर्वतों के शिखरों से समाविद्ध (पर्वतशिखरस्थ ) बादलों के शब्दों से उद्विग्न तथा गये हुये हंस के निमित्त निश्चेष्ट, कमलसरोवर में स्थित हँसी काँप उठी ॥३८॥ अथ कपीनां वक्षसा गिरिनदीनां निरोधमाहपोवऊढकडि ढग्रसेलम्भन्तरभमन्तविसमक्ख लिआ । गहिरं रसन्ति वित्थ प्रवच्छत्थलरुद्धणिग्गमा ण इसोत्ता ॥३६॥ [प्लवगोपगढकृष्टशैलाभ्यन्तरभ्रमद्विषमस्खलितानि । गम्भीरं रसन्ति विस्तृतवक्षःस्थलरुद्धनिर्गमानि नदीस्रोतांसि ॥] विस्तृतं यद्वक्षःस्थलं कपीनामेव तेन रुद्धो निर्गमो बहिःप्रसरणं येषां तानि नंदीस्रोतांसि गम्भीरं रसन्ति शब्दायन्ते। कीदृशानि । प्लवगेनोपगूढ आलिङ्गितस्ततः कृष्ट आलिङ्गयोत्पाटित इत्यर्थः । तथाभूतशैलस्याभ्यन्तरे निम्ननदीखातकंदरादिदेशे भ्रमन्ति सन्ति विषममुन्नतं यथा स्यादेवं स्खलितानि परावृत्तानि । अयमर्थ:-प्लवगैरालिङ्गयाकृष्टानां पर्वतानां सरित्प्रवाहे वक्षःस्थलेन मुद्रितत्वात्प्रतिरुद्धे तज्जलं वर्मालाभेन तत्रैव बभ्राम । ततः कियदाधिक्ये उच्छलितमथ ततोऽप्याधिक्ये परावृत्तं सन्निम्नकंदरादिप्रदेशे पतत्तत्पूरणाभिघाताभ्यां दध्वान । अन्यत्रापि नद्यादिजलं पर्वतादिप्रतिरोधाभ्रंमत्युत्तिष्ठति परावर्तते ध्वनति चेति ध्वनिरिति नदीजलप्रतिरोधकत्वेन कपिवक्षसां विकटत्वं दृढत्वं दृढालिङ्गनवत्त्वं नदीजलानां तु चिरनिर्गमाभावेन पूरणानन्तरं शब्दानुत्पत्तेरिति शब्दायमानत्वेन च हठातज्जलापूरणीयकंदरादिशालित्वेन गिरीणां च महत्त्वं सूचितम् ॥३६।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] सेतुबन्धम् [षष्ठ विमला-वानरों ने अपने वक्ष :स्थल लगा कर जब पर्वतों को उखाड़ा उस समय उनके विस्तृत वक्षःस्थल से नदियों के प्रवाह का मार्ग रुद्ध हो गया, अतएव उनका जल उन पर्वतों के भीतर घूमता रहा, ( अपेक्षाकृत कुछ अधिक हो जाने पर ) ऊपर उठा ( उससे भी अधिक हो जाने पर कन्दरादि निम्न प्रदेशों में ) गिरा और उसने उच्च ध्वनि की ।।३।। अथ सर्पाकृष्टपर्वतोद्ध रणमाहअद्धविखत्तपसिढिले अद्धवह अंगकढिप्रद्धथमिए। उम्मलेन्ति रसाअलपड्रखत्तसरियामहे धरणिहरे ॥४०॥ [ अर्कोत्क्षिप्तप्रशिथिलानर्धपथभुजंगकृष्टार्धास्तमितान् । उन्मूलयन्ति रसातलपङ्कमग्नसरिन्मुखान्धरणीधरान् ॥ ] प्लवगा धरणीधरानुन्मूलयन्त्युत्पाटयन्ति । किंभूतान् । अर्धेन । भूमिस्थमूलभागस्येत्यर्थात् । उत्क्षिप्तात्सतः प्रशिथिलानदृढभूमिसंबन्धान् । एतेन सुखोत्पाटनीयानित्यर्थः । अत एवार्धपथादुत्थितमूलार्धभागावच्छिन्नोपरिदेशाद्भुजंगेन कृष्टात्सतः अर्धन मूलभागोपरिभागार्धनास्तमितान्भूम्यन्तःप्रविष्टान् । अर्धमग्नानित्यर्थः । एवं रसातलपङ्के मग्नानि सरिन्मुखानि येषु तान् । अयमभिप्रायःकपिभिः प्रथममुत्क्षिप्ता गिरयो भूमिष्ठमूलभागार्धभागेनोत्थिता यावत्तावन्मूलवतिना भुजंगेनाकृष्टा: कपिहस्तादप्युपरिभागार्धभागेन रसातलं प्रविष्टा अथ पुनः कपिभिरुत्थाप्यन्ते । तथा च कपिहस्तादाकर्षणाद्भुजंगानां महत्त्वं, उपरिभागार्धभामस्योपरिस्थत्वेऽप्युपरिभागस्थनदीनां रसातलपङ्कमग्नत्वेन तावद्रव्यापकोपरिभागाधंकतया गिरीणामुञ्चत्वं च सूचितम् ॥४०॥ विमला-वानरों ने प्रथम पर्वतों को ऊपर उभाड़ा था। भूमिष्ठ मूल भाग का आधा भाग जब तक ऊपर उठा तब तक भुजंगों से कृष्ट होने से उस ऊपर वाले भाग का भी भाधा भाग नीचे चला गया और नदियों का अग्रभान रसातल पहुंच गया । मब वानरों ने पुनः उन' पर्वतों को ऊपर उभाड़ा ॥४०॥ अथ पर्वतानामुत्पाटनप्रकार माह उज्वेल्लइ वणिराअं पासल्लन्तेसु सिहरपडिमुग्चन्तम् । उक्खिप्पन्तेसु पुणो संबेल्लिज्जइ व महिहरेसु गहमलम् ।।४ १६ [ उद्वेल्ल्यत इव निरायतं पार्थायितेषु शिखरप्रतिमुच्यमानम् । उत्क्षिप्यमाणेषु पुनः संवियत इव महीधरेषु नभस्तलम् ॥] महीधरेषु पायमानेषु नमयितु पार्श्वेन तिर्यगानीयमानेषु शिखरेण प्रतिमुच्यमानं नभस्तलमुद्देल्लयते प्रकाश्यते। कपिभिरित्यर्थात् । तिर्यगानयनेन गिरीना शिखराणामित एवागमनाच्छिबराच्छन्नाकाशस्य प्रकाशो जायत इत्यर्थः । उत्मि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२१३ यमागेत्याप्यमानेषु पुनः संत्रियते विस्तृतकुञ्चित वस्त्रादिवद्वतु लीक्रियत इव । उत्क्षिप्तपर्वतच्छन्नतया नभसः प्रकाशाभावादिति भावः ॥४१॥ विमला-वानर पर्वतों को उखाड़ने के निमित्त जब तिरछा करते तब शिखरों से प्रतिमुक्त आकाश व्यक्त होने लगता था और जब सीधा उन्हें ऊपर उभाइते तो पुनः (शिखरों से आच्छन्न होने से ) ढक उठता था ॥४१॥ अथ पर्वतानां स्कन्धारोपणमाह उम्मूलेन्ति पवंगा भुअसिहरारहणणिच्चलपरिग्गहिए । कड़मावडगुत्थति अविसमविवत्तविवरम्म हा घरगिहरे ॥४२॥ [ उन्मूलयन्ति प्लवगा भुजशिखरारोहणनिश्चलपरिगृहीतान् । कटकापतनोत्तम्भितविषयविवृत्तविपराङ्मुखा धरणिधरान् ॥ ] प्लवंगा धरणिधरानुन्मूलयन्ति उत्थापयन्ति । तत्प्रकारमाह-कथंभूतान् । भुजशिखरेषु बाहुमूलेषु स्कन्धेषु वा यदारोपणमारोहणमर्थादेषामेव तेन निश्चलं स्थिरं परिगृहीतानुत्थापयितुं धृतान् । एवंप्रकारेण धृत्वोत्पाटयन्तीत्यर्थः । किंभूताः प्लवंगा: । कटकस्य पूर्वविघटितस्य तन्नितम्बस्य पत नेनाधःस्खलनेनोत्तम्भितमुत्थापितं गिरियन्त्रितस्य स्वस्यैव पतनभयात् अथ च विषमं नतोन्नतं सद्विवत्तं तिर्यकृतं अत एव विपराक् पश्चाद्गतं मुखं येषां ते। गिरीणामसतिनां त्रुटितो नितम्बो मुख एव पतेदिति शङ्कया पश्चात्कृतमुखा इत्यर्थः । भन्योऽपि गुरुद्रव्योत्तोलने मुखमन्यत: करोतीति ध्वनिः । एतावता व्यवसायबाहुल्यम् । 'कटकं वलये सानो राजसेना नितम्बयोः' इति विश्वः ।।४२।। विमला-पर्वतों को उखाड़ते समय वानरों ने कन्धा लगा कर उस पर पर्वतों को अच्छी तरह धर लिया और पर्वतों का उपत्यका भाग कहीं मुख पर ही न गिर पड़े, इसलिये मुख कुछ ऊपर उठा कर पीछे की ओर फेर लिया ॥४२॥ गिरिचन्दनशाखाभङ्गमाह हरि अकडि ढ अमुक्का भअङ्गदढवेढणावलम्बगथरिमा। भिज्जन्ता वि महिमले प्रोप्रल्लन्ति ण पडन्ति चन्दणविडवा ॥४३॥ [हरिभुजकृष्टमुक्ता भुजंगदृढवेष्टनावलम्बनधृताः । भिद्यमाना अपि महीतलेऽवनमन्ति न पतन्ति चन्दनविटपाः ॥] चन्दन विटपा भिद्यमाना अपि भवनमन्ति अन्तरिक्ष एव तिष्ठन्ति महीतले न पतन्ति । कीदृशाः । हरीणां भुजेन हस्तेन कृष्टाः पुनर्मुक्तास्त्यक्ताः । एवं भुजंगानां दृढं यद्वेष्टनं मदीयवृक्षस्य शाबा केनाकृष्यत इति रुषा वृक्षमाश्रित्य शाखासु पुच्चस्व कुण्डलीकरणं तदेवावलम्बनमवष्टम्भस्तेन धृताः । तथा च कपिभिरुदहनसोकर्याया Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] सेतुबन्धम् [पष्ठ मोटय भह क्त्वा मुक्त्वा अपि चन्दनशाखाश्चन्दनवक्षस्थकालसरवलम्ब्य धृता इति सर्पाणां तेजस्वित्वमुक्तम् । तेजस्विभिः स्वविपत्तावपि स्वाश्रयरक्षा क्रियत एवेति ध्वनिः ॥४३॥ विमला-वानरों ने चन्दनविटपों को भग्न कर ऊपर फेंक दिया, किन्तु चन्दन वृक्षस्थ सर्पो ने अपने पुच्छभाग से वेष्टित कर उन्हें अन्तरिक्ष में ही स्थिर रक्खा, भूतल पर नहीं गिरने दिया ॥४३॥ गिरिशिखरभङ्गमाह पडिसमइ णहणिबद्धो चिरेण भरिअब्भणानगम्भीरअरो। हरिभुअविष्कमपिसुणो अअण्डभज्जन्तधरणिहरणिग्धोसो ॥४४॥ [प्रतिशाम्यति नभोनिबद्धाश्चिरेण भृताभ्रनादगम्भीरतरः । हरिभुजविक्रमपिशुनोऽकाण्डभज्यमानधरणिधरनिर्घोषः ॥] अकाण्डे हठाद्भज्यमानस्य अनपेक्षितभागदूरीकरणाय क्वचित्खण्डयमानस्य धरणीधरस्य निर्घोषो विदलनजन्मा टात्कारश्चिरेण प्रतिशाम्यति विरमति । कीदृक् । नभसि निबद्धः संवद्धः । एवंभूतस्य जलपूर्णस्याभ्रस्य नादवद्गम्भीरतरः । एवं कपीनां भुजपराक्रमस्य पिशुनः कथकः । स एव शब्द: पराक्रमकथकत्वेनोत्प्रेक्षित इति भावः । भृतेन धृतेन । मिश्रितेनेति यावत् । अभ्रस्य नादेन गम्भीरः । तथा च शिखरभङ्गाभिभूतत्वात्तत्रत्यमेघेन ध्वनिः कृतः तत्संवलनाद गम्भीरतरो जात इत्यर्थ इति मदुन्नीतः पन्थाः ।।४४॥ विमला-वानरों ने पर्वतों के अनपेक्षित भाग को हठात् भग्न कर दिया । उस समय जो निर्घोष हुआ वह आकाश में बादलों के गम्भीर नाद के मिश्रित हो जाने से बहुत काल में शान्त हुआ और मानों वह निर्घोष वानरों के भुजपराक्रम को स्पष्ट कह रहा था ॥४४।। गिरिनदीनामवस्थामाह पासल्लन्ति माहिहरा जत्तोहुत्ता पवंगमभुमक्खित्ता। धुवन्तधाउनम्बा तत्तोहुत्ता वलन्ति सरिआसोत्ता ॥४५॥ [ पायिन्ते महीधरा यतोऽभिमुखाः प्लवंगमभुजक्षिप्ताः । धाव्यमानधात्वाताम्राणि ततोऽभिमुखानि वलन्ति सरित्स्रोतांसि ॥ ] प्लवंगमभुजाभ्यां क्षिप्ताः प्रेरिता महीधरा यदभिमुखा: पायिन्ते वक्रीभवन्ति सरित्स्रोतांस्यपि तदभिमुखानि वलन्ति । यद्दिशा पर्वता नमन्ति तदिशैव निझरा अपि पतन्तीत्यर्थः । कीदृशानि । धान्यमानेन प्रक्षाल्यमानेन धातुना गैरिकेणेषत्ताप्राणि । प्रवाहाणामुत्पथगमनेन गैरिकमिश्रणादित्यर्थः ।।४।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २१५ विमला - वानरों की भुजाओं से प्रेरित भूधर जिधर को वक्र हो जाते थे नदियों के स्रोत ( निर्झर ) भी उधर ही गिरते थे । वे निर्झर ( उत्पथगमन के कारण ) प्रक्षालित गेरू के मिश्रण से कुछ लाल वर्ण के हो रहे थे ।। ४५ । अथ गिरिभ्रामणमाह बीसन्ति पवअवलिया आवत्तेसु व महोअहिस्स वलन्ता । सरिआण घडिअपत्थि अवलन्तस लिलवल अन्तरेसु महिहरा ॥४६॥ [ दृश्यन्ते प्लगवलिता आवर्तेष्विव महोदधेर्वलन्तः । सरितां घटित प्रस्थितवलमानसलिलबलयान्तरेषु महीधराः ॥ ] प्लवगैर्वलिता उत्पाटनसौकर्याय चक्रवद् भ्रामिता महीधराः सरितामर्थात्स्वाश्रितानां घटितानि भ्रमणवेगवशान्मिथः संबद्धानि सन्ति प्रस्थितान्येक प्रवाहरूपतया संचरदूपाणि । अथ च भ्रमणवशाद्वलमानानि चक्राकाराणि यानि सलिलानि तान्येव वलयाकारत्वाद्वलयानि तदभ्यन्तरेषु दृश्यन्ते । उत्प्रेक्षते - केषु किंभूता इव । महोदधेरावर्तेषु पतन्त इव । भ्रमन्नदीजलवलयस्थिता नैते कि तु समुद्रावर्तेषु पतन्त इत्यर्थः । तथा च भ्रामितानां गिरीणां चतुर्दिगन्तरिक्षे कटकसंलग्नपार्श्वचतुष्टये वा चक्रवद्भ्रमन्ति संस्कारवशात्प्रसह्य भूमावापतन्ति सरिज्जलानि समुद्रावर्तवद्भासन्त इति तज्जलप्रकर्षेण गिरीणां महत्त्वेन च प्लवगानां बलवत्त्वं सूचितम् । घटित - प्रस्थितानीति स्वारसिक क्रमेण सुघटितानि सन्ति प्रस्थितानि प्रवहद्रूपाणि अथ च गिरिभ्रमणवशाद्वलमानानि चक्रवद्भ्रमन्ति यानि सलिलानि तान्येव वलयानि तदभ्यन्तरेषु दृश्यन्त इति अन्यत्सर्वं पूर्ववदिति केचित् । तेन नानानदीनां स्रोतांसि नानावलय क्रमेणावर्तवद्भवन्तीति भावः ॥४६॥ विमला - वानरों ने पर्वतों को ऐसा घुमाया कि उनकी नदियों का जल भी ( भ्रमणवश ) परस्पर संबद्ध तथा एक प्रवाहरूप हो संचरणशील वलयाकार हो गया और उनके भीतर पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि मानों वे महोदधि के आवर्तो में पतित हो रहे हों ॥ ४६ ॥ अथ मधुकर मिथुनावस्थामाह अरन्द गरुवख्खं पासोश्रल्लन्तवणलना बिच्छूढम् । ण मुग्रइ कुसुमग्गोच्छं आसाइअमहुरसं पि महुअर मिहुणम् ||४७॥ [ मकरन्दगुरुकपक्षं पार्श्वोयमानवनलताविक्षिप्तम् । न मुञ्चति कुसुमगुच्छ मास्वादितमधुरसमपि मधुकर मिथुनम् ॥ ] मधुकर मिथुनं कर्तृ पार्श्वयमाना पर्वतानामितस्ततश्चलनेन वक्रीभवन्ती या वनलता तथा विक्षिप्तमपि त्यक्तमपि कुसुमगुच्छं न मुञ्चति । अत्र हेतुमाह-मधुकरमिथुनं कीदृक् । मकरन्देन पुष्पस्यैव गुरुको क्षेपणायोग्यो पक्षौ यस्य तथा । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] सेतुबन्धम् [षष्ठ एवमास्वादितो मधुरसो येन तत्तृप्तमपि । तथा च पक्षयोराईतयोड्डयनासामर्थेन भूमावभिघातहेतोनिजपतनात्त्रस्यत्प्रयोजनं विनापि वनलतानां वक्रीभावेन विस्खलितानां पततामपि कुसुमानामवष्टम्भं न त्यजतीत्यर्थः । आस्वादितो मधुरसो यस्येति गुच्छविशेषणं वा ॥४७॥ विमला-(पर्वतों के इधर-उधर चलने से ) वक्र होती लता से त्यक्त तथा जिसका मधुरस आस्वादित भी हो चुका था उस कुसुमगुच्छ को मधुकरमिथुन मकरन्द से आर्द्र ( अतएव उड़ने में असमर्थ ) पक्ष होने के कारण नहीं त्याग रहा था ॥४७॥ सर:कमलक्षोभमाहउप्पुअसुरहिगन्धम अरन्दरजिआई ठिअपरिलेन्तभमरभमरोपरञ्जिमाई। कमलवणाइँ सूरपरिमासविप्रसिभाई उच्छलिए सराण सलिलम्मि विसिप्राइं ॥४८॥ [ उत्प्लुतसुरभिगन्धमकरन्दरञ्जितानि स्थितपरिलीयमानभ्रमभ्रमरोदराजितानि । कमलवनानि सूर्यपरिमर्शविकसितानि उच्छलिते सरसां सलिले वियच्छ्रितानि ॥] कमलवनानि सरसां सलिले पर्वतोत्क्षेपणादिव्यापारेणोच्छलिते सति तेनैव सह वियच्छ्रितानि । गतानीत्यर्थः । कीदृशानि । अतिसंनिहितत्वात्सूर्यस्य परिमर्शो मर्शनम् । किरणस्पर्श इति यावत् । तेन विकसितानि । अत एवोत्प्लुताः संचारिणः सुरभयो गन्धी यस्य तादृशेन मकरन्देन रञ्जितानि सकलानुराग विषयीकृतानि रङ्ग वर्णविशेष प्रापितानि वा । एवं स्थिताः सन्तः प्रस्तुतक्षोभेण लीयमाना एव भ्रमन्तो ये भ्रमरास्तैरुदरे अञ्जितानि अञ्जनरेखाविशिष्टानि । श्यामवादित्यर्थः । उदरे अञ्चितानीत्यपव्याख्यानम् । यमकाभावात्तदप्रकृतिकत्वात् । एतेनोत्क्षेपणोत्कर्ष उक्तः ॥४८॥ विमला-सरोवरों का सलिल ऐसा उछला कि उसके साथ ही कमलवन आकाश में पहुँच गये तथा सूर्य के किरण स्पर्श से विकसित हो उठे, अतएव संचरणशील सुगन्ध वाले मकरन्द से रञ्जित हो गये एवं स्थित, लीयमान तथा प्रमणशील भौरों से उनका भीतरी भाग अञ्जन-रेखा से युक्त हो गया ।।४८।। सर्पव्यापारमाहदढसंवाणिअमूला वलन्ति वाणरभुआवलम्बिसिहरा। रोसुप्पित्थभअंगमविसमुद्धफणापणोल्लिा परगिहरा ॥४॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ दृढसंदानितमूला वलन्ति वानरभुजावलम्बितशिखराः । रोषोद्विग्नभुजंगमविष मोर्ध्वफगाप्रणोदिता धरणीधराः ॥ ] दृढं यथा स्यात्तथा संदानितं भूमिप्रथितं मूलं येषां ते महीबरा वानरभुजाभ्यामवलम्बितं शिखरं येषां तथाभूता वलन्ति । वक्रीभूय पतन्तीत्यर्थः । पतने हेतुमाह - रोषेण ममावासः कुतः केन चाल्यत इति क्रोधेनोद्विग्नो व्याकुलो यो भुजंगमस्तस्य विषमा विकटा ऊर्ध्वा प्रकृतक्षोभजिज्ञासया उत्थापिता फणा तया प्रणोदिताः । ऊर्ध्वं प्रेरिता इत्यर्थः । तथा च संदानित मूलत्वेन येषामुत्यापनं कपिभिः कर्तुं न पारितं कि तु करेण शिखरावलम्बनमात्रं कृतं त एव गिरयस्तल वर्तिभुजंगमेनाकस्मात्क्रोधतोऽनवधानादुत्थापितया फण्या प्रेर्यमाणा भूमेरुध्वं गत्वा पतिता इति सर्पाणां वानरेभ्योऽप्यतिबलवत्त्वं सूचितम् ॥४६॥ | 1 [ २१७ विमला - वानरों ने पर्वतों के शिखरों को भुजाओं मे ( उखाड़ने के लिये ) पकड़ा । पर्वतों का मूल भाग पृथिवी के भीतर दृढ़ता से ग्रथित था ( अतएव वानरों के लिये उखाड़ना कुछ दुष्कर था ) तथापि ( वानरों के व्यवहार-वश होने वाले ) रोष से उद्विग्न ( गिरितलवर्ती ) सर्प के उठाये गये फन से पर्वत ऊपर निकल आये और वक्र हो-होकर गिर गये ॥ ४६ ॥ अथ गिरीणां तिर्यगान्दोलनमाहसरिया सरन्तपवहा अण्णोष्णमहाण इष्पव हपल्हत्था । खोहिअपङ्कखउरा वलन्त सेलवलिआ मुहुतं बूढा ॥ ५० ॥ [ सरित: सरत्प्रवाहा अन्योन्यमहानदी प्रवाहपर्यस्ताः । शोभितपङ्ककलुषा वलमानशैलवलिता मुहूर्तं व्यूढाः ॥ ] संचरत्प्रवाहाः सरितो वलमाने जातवामदक्षिणपाश्नन्दिोलने शैले वलिताः शैलान्दोलनक्रमेणान्दोलिताः सत्यो मुहूर्तं व्याप्य व्यूढा उपचिताः । अत्र हेतुमाहअन्योन्यमहानदी प्रवाहेषु पर्यस्तास्तिर्यग्भूय स्खलिताः । अत एवोत्पथगमनेन तक्षोभादिना क्षोभिर्तरुत्थापितः पङ्कः कलुषा वर्णान्तरं प्राप्ताः । तया च तिर्यक्पवतानामान्दोलने एका सरिदपरसरित्प्रवाहं प्रविष्टा तदैतज्जलेन तस्या उपचयः क्षणमेव जातः । पुनरपरदिक्चालने से बैतत्प्रवाहं प्रविष्टा तदास्या एवोपचय इत्येवमन्यासामपीति नदीनामुपचयस्य मुहूर्तमात्रस्थायित्वेन कपीनामान्दोलने शीघ्रत्वमुक्तम् । भुजाभ्यामेकमुखीकृत्य पर्वतयोरेवान्दोलनादन्योन्यं सरित्संगमः क्षणिकोsभूदिति बयम् । कुटिलयोः कलुषयोश्च संगमः क्षणिक इति ध्वनिः ॥ ५० ॥ विमला - ( वानरों द्वारा ) पर्वतों के आन्दोलित किये जाने पर नदियों के संचरणशील प्रवाह, एक-दूसरे के प्रवाह में टेढ़े होकर स्थलित हो गये, इस प्रकार Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] सेतुबन्धम् [षर स्वल्पकाल के लिये ही वे प्रवाह बढ़े तथा क्षोभित पङ्कों से कबुष ( मलिन ) हो उठे ॥५०॥ अथ भुजंगाकर्षणमाहकड़ ढिज्जन्ति समन्ता घिसमन्वतन्तधवलकसणच्छामा । महिहरमूलालग्गा रसाअलद्धपडिघोलिरा भुइन्दा ॥५१॥ [ कृष्यन्ते समन्ताद्विषमोद्वर्तमानधवलकृष्णच्छायाः । महीधरमूलालग्ना रसातलार्धप्रतिपूर्णनशीला भुजगेन्द्राः ॥] . महीधराणां मूलेष्वालग्नाः संबद्धा भुजगेन्द्राः समन्तादाकृष्यन्ते । वानररित्यर्थात् । 'समत्ता' इति पाठे समरता इत्यर्थः। किंभूताः । विषमं तिर्यग्यथा स्यादेवमुद्वर्तमाना: फणसंदंशेन पर्वतं धृत्वा त्यनतुमसमीया विपरीत्य विद्यमानाः । अत एवोदरपृष्ठस्य तुल्यदृश्यत्वेन श्वेतश्यामच्छायाः । एवं रसातले अर्धेन पुच्छभागेन घूर्णनशीलाः । उपरिभागस्य पर्वतलग्नत्वदत्रवागतत्वात् । सर्पाणां पुच्छावष्टम्भो दृढ इति तस्य ऋजुभावेनाकर्षणशङ्कया विदिवकरणं घूर्णनपदद्योत्यम् । अत्र सर्पाणां रसातलगतत्वेन दीर्घत्वं पीनस्य यथा यथा कर्षणं तथा तथा वृद्धिस्तथापि समन्तासर्वतोभावेनाकर्षणेन कपीनामुच्चत्वं बलवत्त्वं च सूचितम् ॥५१॥ विमला-पर्वतों के मूल भाग में लगे हुए बड़े-बड़े सर्पो ने ऐसी दृढ़ता से पर्वतों को पकड़ रखा था कि वे उलट गये थे, अतएव श्वेत एवं श्याम वर्ण दिखाई दे रहे थे । उनका भाधा भाग ( पुच्छ भाग) रसातल में था, उसे भी वे ( पर्वतों को रोकने के उद्देश्य से ) टेढ़ा कर लिये थे तथापि वानरों ने (पर्वतों के साथ ) उन्हें भी ऊपर खींच लिया ॥५१॥ अथ गिरी वनदेवतापरित्यागमाह गलइ सरसं पि कुसुमं वाइ प्रणालिद्धबन्धणं पि किसलअम् । रहसुम्मू लिममहिहरभअविवलाअवणदेवप्राण लाणम् ॥५२॥ [ गलति सरसमपि कुसुमं वात्यनालीढबन्धनमपि किसलयम् । रभसोन्मूलितमहीधरभय विपलायितवनदेवतानां लतानाम् ॥ ] रभसेनावेगेनोन्मूलितो यो महीधरस्तस्माद्भयेन विपलायिता बनदेवता याभ्यस्तासां लतानां सरसमपि कुसुमं गलति । अस्पृष्ट वृन्तमपि किसलयं वाति वृन्तादपगच्छति । वाइ वायति शुष्यतीति केचित् । वान राक्रमणादुत्पन्नमेतत्सर्वं रक्षकवनदेवतासंनिधिविरहादुत्प्रेक्षितम् । इवार्थस्य गम्यमानत्वात् । यद्वा तत्संनिधिविरहेण वास्तविकमेवैतद्रूपम् ॥५२॥ विमला-वानरों ने आवेगपूर्वक पर्वतों को जिस समय उखाड़ा उस समय भय से वनदेवतायें लताओं का परित्याग कर भाग गयीं, लताओं के कुसुम सरस Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २१६ : होते हुये भी गलित हो गये और अस्पृष्ट वृन्त भी किसलय, वृन्त से दूर हट गये ॥ ५२ ॥ पर्वतानामुत्क्षेपणमाह उक्खिप्पन्ति जं दिसासु धरा समत्ता तेण खणेण णज्जइ वसुंधरा समत्ता | कोरइ महिहरेहि गनणं दिसाल आणं वड्ढइ जलअसिहरपउणं दिसालबाणम् ॥५३॥२ [ उत्क्षिप्यन्ते यदिशासु धरा समस्ता स्तेन क्षणेन ज्ञायते वसुंधरा समाप्ता क्रियते महीधरैर्गगनं द्विशालमान वर्धते जलदशिखरप्रगुणं दिशालतानाम् ॥ ] यद्दिक्षु समस्ता आमूलं धराः पर्वता उत्क्षिप्यन्ते उत्खायन्ते । वामरैरित्यर्थात् ॥ तेनोत्क्षेपणरूपेण हेतुना तद्दिभु वसुंधरा पृथिवी क्षणेन समाप्ता पर्वतोपमर्देन पर्वतावस्थितिभूभागस्य शून्यत्वेन वा नष्टेति ज्ञायते । एवं यद्दिक्षु महीधरं गन द्विशानवृक्षप्रमाणं द्विवृक्षप्रमाणं वा क्रियते । गमनस्योत्क्षिप्तपर्वताक्रान्तत्वात् । तद्दिक्षु दिशा एव लतास्तासां जलदरूपं शिखरप्रगुणं शिखरोत्तमं वर्धते । गगनभागद्वयं वृक्षद्वयं तदाश्रिता दिशो लतास्तासामुन्नीत शैल शिखरस्योद्गतमेघरूपं शिरो वर्धत इत्यर्थः । अन्या अपि लता वृक्षावलम्बेन गगनपर्यन्तं वर्धन्त इति ध्वनिः । 'जलअ सिहर पडणं' इति पाठे दिग्लतानां जलदशिखरपतनं वर्धत इत्यन्वयः । तेन शैलोत्क्षेपणे तदाश्रितदिग्लतानां दिशि दिशि मेघरूपशिखरपतनं वर्धते । जायत इत्यर्थः ।। ५३ ।। विमला - वानरों ने जिन दिशाओं में पर्वतों को फेंका उन दिशाओं में पृथिवी क्षण भर में नष्ट हो गयी, ऐसा ज्ञात हुआ । ( उत्क्षिप्त पर्वतों से आक्रान्त होने के कारण ) गगन का भागद्वय वृक्षद्वय के समान हो गया, जिस पर आश्रित दिशा-रूपी लताओं के जलदरूप शिरोभाग बढ़ चले || ५३|| अथ पर्वतोत्तोलनमाह एक्क्केण श्र से करनलजुअलधरिअं तुलन्सेण कअम् । श्रद्धत्थमिअं च णहं श्रधुग्धाडिनरसालं च महिअलम् ॥ ५४ ॥ [ एकैकेन च शैलं करतलयुगलधृतं तुलयता कृतम् । अर्धास्तमितं च नभोऽर्धोद्घाटितरसातलं च महीतलम् ॥ ] वानरैरेकैकेण प्रत्येकं करतलद्वयेन धृतं शैलं तुलयता उत्तोलयता नभोऽर्धास्तमिच्छन्नं च कृतम् । उत्थितशिखरव्याप्तत्वात् । महीतलमर्धमुद्घाटितं प्रका--- Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.] सेतुबन्धम् [षष्ठ शितं रसातलं यस्य तथाभूतं च कृतम् । मूलभागपरित्यक्तार्धकत्वात् । एतेन गिरीणां दैर्घ्यमुक्तम् ।।५४।। विमला-दोनों करतल से गृहीत पर्वत को ऊपर उठाते हुए प्रत्येक वानर ने (पर्वत के उठे हुये शिखर से ) नभमण्डल के अर्धभाग को आच्छादित कर दिया एवं महीतल के रसातल भाग का आधा भाग उघाड़ दिया ॥५४।। अथ गिरिमूलभूमिसमुत्तोलनमाह सेलणि अम्बालग्गा पविरलणइमग्गपापडतडच्छे मा। भुअइन्दप्फणधरिआ णहं विलग्गन्ति मेइणिप्रलद्धन्ता ॥५५।। [शैलनितम्बालग्नाः प्रविरलनदीमार्गप्रकटतटच्छेदाः । भुजगेन्द्रफणधृता नभो विलगन्ति मेदिनीतटार्धान्ताः ॥] मेदिनीत टैकदेशा नभो विलगन्ति । गच्छन्तीत्यर्थः। कथमित्यत आह'किंभूताः । शैलानां नितम्बेष्वालग्ना बलादामोटय गृहीतत्वाल्लग्नोस्थिताः। एवं प्रविरलेन भूमिष्ठप्रवाहविच्छेदात्पर्वत मूलस्थमृत्तिकाभागेषु प्रसरणाम्किचित्किचित्तनूभूतेन नदीमार्गेण प्रकटा दूरदृश्यास्तटच्छेदा येषु । एवं भुजगेन्द्रस्य शेषस्य फणेन धृता अवष्टब्धाः । तथा च तावदुरादागता भूमिरिति गिरिमूलस्य महत्त्वं कपीनां च बलवत्त्वमुक्तम् ।।५।। विमला-वानरों ने पर्वतों को इतने वेग से उखाड़ा कि उनके उपत्यका भाग की मूलभूमि जिसे शेष के फण ने रोक रक्खा था, आकाश तक चली गयी, जिसमें (भूमिष्ठ प्रवाह विच्छिन्न होने से ) पतले नदी-मार्ग से तट-भाग स्पष्ट दिखाई • दे रहे थे ॥५५॥ भय गिरिसत्त्वक्षोभमाहघरणिहरेण अ चलिरं चलिसकंदरेण पुट्टइ गाउल प्रणालिद्धकं वरेण । गिरिसिहराइ सरसहरिमालवङ्किआई समविसमं णमन्ति हरिआलवङ्किप्राइं ॥५६॥ [धरणिधरेण च चलितं चलितकंदरेण स्फुटति गजकुलमनालीढकं दरेण । गिरिशिखराणि सरसहरितालपङ्कितानि समविषमं नमन्ति हरिजालवक्रितानि ॥] च पुनर्धरणिधरेण चलितम् । प्लवगकरामोटनादिव्यापारात् । किभूतेन । पलिताः कंदरा यत्र तेन । तस्मिश्चलति कंदरा अपि चलिता इत्यर्थः । यहा चलिसाः कंदरावर्तिन एणा यत्र तद्यथा स्यादिति चलितकंदरणम्, पलिता: कंदराणामिना Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २२१ ईश्वरा गन्धर्वादयो यत्र तद्यथा स्यादिति चलितकंदरैनमिति वा क्रियाविशेषणम् । गिरिचलने तेषामपि चलनात् । एवं गिरौ चलति गजकुलं दरेण त्रासेन स्फुटति स्वयूथाद्भ्रश्यति । कीदृक् । अनालीढमनास्वादितं कं जलं येन तत् । तथा च त्रासेन यूथ्य वियोगेन च जलमपि न पिबतीत्यर्थः । एवं गिरिचलने सति गिरिशिखराणि समं च तद्विषमं चेति समविषमं यथा स्यादेवं नमन्ति । कीदृशानि । उच्छलितनदीजलसंबन्धात्सरसेन हरितालेन पङ्कितानि पङ्कीकृतानि । पङ्कविशिष्टानीत्यर्थः । एवं हरिजालेन कपिसमूहेन वक्रितानि हस्तेनामोटितानि । यद्वा हरितालवक्रितानि हरीणां तालेन चपेटेन वक्रितानि अत एव समविषमं नमन्तीत्यर्थः । यद्वा हरितालवाङ्कितानि । हरिता दूर्वास्तासां लवैः खण्डैरङ्कितानि चिह्नितानीत्यर्थः । यद्वा हरिकालवक्रितानि । हरिः कपिः स एव कालोपमस्तदुपद्रवकत्वात् तेन वक्रितानि । यद्वा हरिजालपाङ्कितानि । हरिजालं पान्तीति हरिजालपाः कपिश्रेष्ठा अङ्गदादयस्तैरङ्कितानि क्रोडीकृतानि । आक्रान्तानीत्यर्थः ॥ ५६ ॥ विमला - पर्वत चलने लगे । उनके चलने पर कन्दरायें भी चलने लगीं । गज भय से अपने समूह से तितर-बितर हो गये और त्रास के मारे जल भी नहीं पी रहे थे । ( उछले हुये नदी जल से ) सरस हरिताल से पङ्किल, कपिसमूह से वक्र किये गये गिरिशिखर कहीं सम कहीं विषम हो झुक गये ॥५६॥ अथ गिरिकुसुमरजोनिर्गममाह - पाअवसिहरुत्तिष्णो मलप्रवणपवित्तपवणरभवित्थरिओ । संज्ञाराओ व्व णहं अष्फुन्दइ मलिअर विश्वरं कुसुमरओ ॥५७॥ [ पादप शिखरोत्तीर्णं मलयवनप्रवृत्तपवनरयविस्तृतम् । संध्याराग इव नभ आक्रामति मृदितरविकरं कुसुमरजः ॥ ] गिरिसंक्षोभेण पादपशिखरादुत्तीर्णमुत्थितं कुसुमरजो नभ आक्रामति । गच्छ - - तीत्यर्थः । कीदृक् । मलयवनात्प्रवृत्त उद्भूतो यः पवनस्तस्य रयेण विस्तृतम् । एवं मृदिता आक्रान्ता रविकरा येन तथाभूतम् । अत्यध्वं गतमित्यर्थः । संध्याराग इव । यथा संध्यारागी मृदितरविकरं यथा स्यादेवं नभ आक्रामतीति । लघुरपि महदानुकूल्येन महत्पदमारोहतीति ध्वनिः । ताम्रत्वेन संध्यारागपरागयोस्तील्यम् ॥५७॥ विमला - कुसुमरज ने वृक्षों के शिखरों से उड़कर, मलयवन से उत्पन्न पवन के वेग से विस्तृत हो, सन्ध्याराग के समान आकाश को आक्रान्त कर लिया, जिससे सूर्य की किरणें छिप गयीं ।। ५७ ।। अथ शैलमूलकर्दमोत्थानमाह- कढिअमूल निरन्तर रसालु विखत्तसलिल कद्दमघडिया वदन्ति त्ति मुनिज्जइ गज्जइ ण मुग्रन्ति महिअलं ति महिहरा ||५८॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ [ कृष्टमूलनिरन्तररसातलोरिक्षप्तसलिलकर्दमघटिताः वर्धन्त इति ज्ञायते ज्ञायते न मुञ्चन्ति महीतलमिति महीधराः ॥] कृष्टं यन्मूलमर्थात्पर्वतस्य तेन सह निरन्तरोऽनुस्यूतो रसातलादुत्क्षिप्तमुत्थितं 'यत्सलिलं तेन यः कर्दमः पातालमृत्तिकासंबन्धात्तेन घटिताः संघटिता महीधरा वर्धन्त इति ज्ञायते । ज्ञायते च महीतलं न मुञ्चन्तीति । यथा यथा पर्वत आकृष्यते तथा तथा पातालकर्दमसंबन्धादृद्धि रेव प्रतिभासते न तु मूले विच्छेद इति गिरी. णामापातालमूलत्वमुक्तम् ॥५६॥ विमला-पर्वतों का मूल भाग पाताल तक था, अतएव जब वानरों ने उनके मूल भाग को उभाड़ा उस समय अनुस्यूत रसातलजन्य कर्दम से सम्बद्ध होने के कारण ऐसा प्रतीत हुआ कि वे पर्वत ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर खींचे जा रहे हैं त्यों-त्यों बढ़ते जा रहे हैं और महीतल को छोड़ नहीं रहे हैं ।।५८।। पर्वताहरणे कपोनामसन्तुष्टत्वमाहसिहराइ णिमाइ णहं महिन्दलद्धाइ मल मस्स अ अइणि माह महिं दलद्धाई। विज्झणिअम्बाण कई दप्पुण्णामाणं सज्ज्ञ अडाण अ भरिआ धु अपुष्णामाणम् ॥ ५६ । [ शिखराणि नीतानि नभो महेन्द्रलब्धानि ___मलयस्य चातिनीतानि महीं दलार्धानि । विन्ध्यनितम्बानां कपयो दर्पोन्नामानां सह्यतटानां च भृता धुत'नागानाम् ।।] कपयो विन्ध्य नितम्बैः सह्यतटै ता भारवन्तो जाताः । अत एभिर्महेन्द्रपर्वताल्लब्धान्यानीतानि शिखराणि नभो नीतानि नभसि क्षिप्तानि । पुनर्विश्रम्याकाश एव पतन्ति धर्तव्यानीत्याशयात् । मलयस्य च दलार्धानि महीमतिनीतानि । मह्यां क्षिप्तानीत्यर्थः । विन्ध्यनितम्बानामित्यादि शेषविवक्षायां करणे षष्ठी । 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां न पुंसां वामलोचना' इत्यादिवत् । यद्वा भरिआ भरिताः । स्मृतवन्त इत्यर्थः । 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' इति षष्ठी। विन्ध्य नितम्बान् सह्यत टान् स्मृतवन्त इति समन्वयः । तेन एभिस्तानि तानि पूर्वार्धोक्तानि तत्र तत्र क्षिप्तानीति पूर्ववत् । एतान्स्मृत्वा अत्युपादेयबुद्धया हतु चलिता इति भावः । विन्ध्यनितम्बानां सह्यतटानां वा किंभूतानाम् । दर्पस्योन्नाम उन्नतिर्यस्मात्तेषामिति प्रथ मे । द्वितीये - तु धुतः पुंनागो वृक्षविशेषो यत्र तेषामित्युपादेयताप्रयोजक रूपमुभयमुभयत्र वा। • कई इत्यत्र महाराष्ट्रभाषायां बहुवचनेऽप्येकवचनम् ।।५।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् नानासावितम [२२३ विमला-दर्प की उन्नति के हेतुभूत विन्ध्यनितम्बों तथा कम्पित 'नागवृक्ष वाले सह्यतटों से बोझिल हो वानरों ने महेन्द्रगिरि से लाये गये शिखरों को आकाश की ओर फेंक दिया और मलय के खण्ड को भूतल पर डाल दिया ।।५।। गिरिवानरयोराकारतौल्यमाह सिहराण भु असिरेहि कडाण अ मावि उरेहि पमाणम् । वणविवरेहि दरोणं तुलिमा परप्राण अगहत्थेहि गिरी॥६०॥ [शिखराणां भुजशिरोभिः कटकानां च मापितमुरोभिः प्रमाणम् । व्रणविवरैर्दरीणां तुलिताः प्लवगानामग्रहस्तैगिरयः ॥] प्लवगानां भुजशिरोभिरंसैः शिव रागामुरोभिः कटकानां च व्रणविवरैरङ्गगते. दरीणां प्रमाणं परिमाणं मापितं सदृशोकृतम् । अग्रहस्तैर्हस्तागिरयस्तुलिताः सदृशीकृताः । तथा च स्वसमानरूपत्वेनोत्थापयितुमध्यवसायः स्थिरीकृत इति भावः । वस्तुतस्तु तैस्तेषां प्रमागं मापितमित्यध्यवसायानन्तरमग्रहस्सैस्तुलिता उत्तोलिता इत्यर्थः ।।६।। विमला-वानरों ने दोनों करतलों से पर्वतों को उठाया। पर्वतों के शिखर और वानरों के कन्धे, पर्वतों के नितम्बभाग और वानरों के वक्षःस्थल, पर्वतों की कन्दरायें और वानरों के ( अङ्गगत ) विवर समान परिमाण के थे ॥६॥ हस्तिनामवस्थामाह पडिसन्तकण्ण पालं ओवत्तमुहं पसारिओलग्गकरम् । झाइ णु सोप्रणिमिल्लं वोसमइणु भमिणोसहं हत्यि उलम् ॥६१॥ [प्रतिशान्तकर्णतालमपवत्तमुखं प्रसारितावरुग्णकरम् । ध्यायति नु शोकनिमीलितं विश्राम्यति नु भ्रमितनिःसहं हस्तिकुलम् ॥] प्रति शान्त उपशमं प्राप्तः कर्णतालो यस्य । अपवृत्तं तिर्यकृतं मुखं येन । असारितोऽवरुग्ण : करो येन । एतादृशं हस्ति कुलं क्षोभन प्रियाविरहजेत वा शोकेन निमीलितं मुद्रित चक्षुः सद्ध यायति नु। कुत्र स्थातव्यं कुत्र गन्तव्यमिति । कुत्र वा लब्धव्या प्रिया कुत्र वा यूथं प्राप्तब्ध मति चिन्तावशात् । भ्रमितं प्रकृतसंभ्र. मेण दिशि विदिशि गतं सन्निःसहं विश्राम्यति नु। विश्राममाचरतीवेत्यर्थः । तथा च प्रकृतसंभ्रमाज्जायमानमेतद्रूपं करिणां संदेहमुखेन ध्यानविश्रामान्यतरजन्यत्वेनोत्प्रेक्षितम् ॥६१॥ विमला-हाथियों के कर्णताल का हिलना बन्द हो गया, मुंह फिर गया, टूटी एवं फटी सूंड पसर गयी, शोक से आँखें मुंद गयीं मानों वे ( शरणस्थान पाने अथवा प्रिया के मिलने के विषय में ) सोच रहे थे अथवा भ्रमित एवं निःसह हो विश्राम कर रहे थे ।।६१॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] पर्वतोपमर्दमाह सेतुबन्धम् पाअवा अ पासल्लसेल विसमाणिप्रा चुणिआ दलिञ्जन्तदलुबिसमाणिआ । जलहरा अ विहडन्तम हिन्दरवाविआ वणलआ अ घोलन्ति महिं दरवाविआ ।। ६२ ।। [ पादपाश्च पार्श्वायितशैलविषमानीताचूर्णिता दल्यमानदलोर्वीसमापिताः । जलधराच विघटमानमहेन्द्ररवावृता वनलताश्च घूर्णन्ते महीं दरवापिताः ॥ ] पादपाश्चूर्णिताश्च । कीदृशाः । पार्श्वयिते वक्रीभूतशैले महेन्द्रनामनि विषमानीता वैषम्यमागताः । स्वयमपि वक्रीभूता इत्यर्थः । अत एव दल्यमानः खण्ड्यमानो दल एवदेशो यस्यास्तथाभूता या उर्वी भूमिस्तया समापिताः समाप्ति नीताः । शैले पावयिते वृक्षाः पावयितास्ततस्तद्भरेण तन्मूलभूमिस्त्रुटिता तथा सह भूमौ पतित्वा चूर्णिता इत्यर्थः । यद्वा दल्यमानदलायामुर्व्यां सम्यक्प्रकारेणार्पिताः प्रापिताः । कपिभिरेव भवत्वा क्षिप्ता इत्यर्थः । तदभिघातेन भूमिरपि खण्डितेति दल्यमानपदतात्पर्यम् । यद्वा पूर्वनिपातानियमाद्विषमानीतशैलपावयितास्तत्र विषमानीतो बक्रीकृतो यः शैलस्तस्य पावयिताः पञ्जरायिताः । नतोन्नतत्वेन सान्तरालत्वादित्यर्थः । वस्तुतस्तु पादपाश्चूर्णिताश्च । कीदृशाः । पार्श्वयिते शैले विषमा नतोन्नतत्वेन स्कन्धाद्यारोपणप्रतिकूलाः । अत एव नीता हस्तेनावचितास्त एब दल्यमानदलोय समापिताः । क्षेपणानन्तरं तया सह भूमी विशीर्णा इत्यर्थः । 'अलुग्वि' इति पाठे दल्यमाना तलोर्वी वृक्षतलभूमिरिति व्याख्येयम् । जलधराश्च विघटमानस्य महेन्द्रपर्वतस्य रवेण दलनोत्थेनावृता आच्छन्नाः सन्तो घूर्णन्ते । शब्दभयेन तदनवच्छिन्न देशगमनायेत्यर्थः । एवं शैले पावयिते वनलताश्च घूर्णन्ते । तदाश्रितत्वादुद्धृत्य पतन्तीत्यर्थः । किंभूताः । महीं पृथ्वीं दरं ईषद्वापिताः प्रपिताः । उद्वर्तने सति किं विद्भूसम्बन्धात् । वापिता इति ' वा गतिगन्धनयो:' अस्य णिचि ॥६२॥ [ षष्ठ विमला - पर्वत के वक्र हो जाने पर वृक्ष भी वक्र हो गये और उनके भार से उनकी मूलभूमि भी दलित हो गयी एवम् उसके साथ ही वृक्ष भूमि पर गिर कर चूर-चूर हो गये । विघटित महेन्द्रगिरि की ध्वनि से आच्छादित बादल मारे - मारे फिरने लगे । वनलतायें टूट कर उलट गयीं और पृथिवी का ईषत्स्पर्श करती हुई गिर गयीं ॥ ६२ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] सर्पाणां दर्पानाह टुट्टन्ता वि ससद्द पवअभुप्रक्खेवमूलवलिश्रद्धन्ता । भएहि भोजभारा सेलभरङ्कुस इनफणेहि ण णाओ || ६३ ॥ [ त्रुटयन्तोऽपि सशब्दं प्लबगभुजक्षेपमूलवलितार्धान्ताः । भुजगैर्भोगभारा: शैलभराङ्कुशायितफणैर्न ज्ञाताः ॥ ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् भुजगैः सशब्दं यथा स्यात्तथा त्रुटयन्तोऽपि भोगभाराः शरीरभारा न ज्ञाताः । कीदृशैः । शैलभरेऽङ्कुशायितोऽङ्कुशाकारः फणो येषां तैः । भोगभाराः कीदृशाः । प्लवगभुजाभ्यां क्षेप उत्क्षेपणं तेन हेतुना मूलेऽर्थाद्भूमेर्वलितो वक्रीभूतोऽर्धान्तो अन्तार्धं पुच्छभागो येषां ते । तथा चाकृष्यमाणशैल रक्षानिमित्तं शैलो मूले फणया संदष्टः पुच्छभागस्तु स्वाकर्षणभयाद्भूमिमूले वक्रीकृतः । तदवस्थायां शैलाकर्षणादहिदेहो मध्ये छिन्नस्तथापि फणसंदंशनिवृत्तिनं जातेत्यज्ञानेन द्योत्यत इति सर्पाणां तेजस्वित्वं कपीनां तु बलवत्त्वमुक्तम् ॥६३॥ [ २२५ विमला - सर्पों ने खींचे जाते पर्वत की रक्षा के लिये फनों से पर्वत के मूलभाग को जकड़ लिया, कहीं हम भी वानरों की भुजाओं से पर्वत के साथ खिंच न जायँ इसलिये उन्होंने अपने पुच्छभाग को टेढ़ा कर लिया । पर्वत के भार से उनके फन मङ्कुश के समान टेढ़े हो गये और शरीर चरचरा कर टूट गया, किन्तु उन्हें इसका ज्ञान न हो सका ||६३|| भथ शैलोत्पाटनमाह - बरवाविप्रपाआलं दर उक्लित्तविहलो सरन्तर भुअंगम् । बीस होरन्तं मित्र कई हि वरतुलिनमहिहरं महिवेढम् ||६४ || [ दरदर्शितपातालं दरोत्क्षिप्तविह्वलाप सरद्भुजंगम् । दृश्यते ह्रियमाणमिव कपिभिर्दरतुलितमहीधरं महीवेष्टम् ॥ ] भावः । दर ईषत्तुलित उत्तोलितो महीधरो यस्मात्तथाभूतं महीवेष्टं कपिभिह्रयमाणमिव दृश्यते । पर्वतो यत्र किंचिदप्युत्थाप्यते तत्र महीमण्डलोत्थापनमेव प्रतीयत इति पातालव्यापक मूलकत्वं महीतोऽप्यधिकपरिमाणत्वं च गिरीणामिति कीदृक् । ईषद्दर्शितं पातालं यत्र । एवं किंचिदुत्क्षिप्त उत्थापितोऽत एव विह्वलः सन्नपसरन्नधो गच्छन्भुजंगो यस्मात् । तथा च महीमण्डलोत्तोलन इव पर्वतोत्तोलनेsपि पातालदर्शनं भुजंगापसरणमित्युत्प्रेक्षानुगुणं विशेषणद्वयम् ॥ ६४॥ विमला - वानरों ने पर्वतों को थोड़ा-सा ही ऊपर उठाया, उतने से ही ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों वे भूतल का ही हरण कर रहे हैं । पर्वतों के साथ ही भुजंग भी ऊपर खिच आये और वे विह्वल हो नीचे की ओर भागने लगे । उस ( फटे १५ से० ब० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ हुये ) भूतल में पाताल भी थोड़ा-थोड़ा दिखायी पड़ रहा था ( क्योंकि उखाड़े गये पर्वतों का मूलभाग पातालव्यापी था ) ॥ ६४ ॥ पर्वतीय मीन महिषक्षोभमाह मीणउलाइ अवित्र सिढिले न्ति जीविअं ण अ गदोहराई विअसन्ते मुअन्ति धरणिहरसंभमे अणदोहराई। महिसउलाण (फलिह) मणिसिलावेल्लिआण वणचन्दणासि आणं अवसेसो वि णत्थि तिमिरुग्गमाण जह चन्दणासिआणम् ||६५।। [ मीनकुलान्यपि च शिथिलयन्ति जीवितं न च नदीगुहाणि (नदीह्रदान्वा ) विकसति मुञ्चति धरणिधरसंभ्रमे नयनदीर्घाणि । महिषकुलानां (स्फटिक) मणिशिलाप्रेरितानां मवशेषोऽपि नास्ति तिमिरोद्गमानां यथा वनचन्दनाश्रितानाचन्द्रनाशितानाम् ॥] धरणिधरसंभ्रमे विकसति मीनकुलानि कर्तृणि जीवितमपि शिथिलयन्ति न च नदीरूपाणि गृहाणि मुञ्चन्ति । अत्र यत्स्यात्तत्स्यादिति कृत्वा तत्र स्थित्वा जीवितमपि नाशयन्ति न तु भयादन्यत्र गच्छन्तीत्यर्थ: 1 मीनकुलानि कीदृशानि । नयनवद्दीर्घाणि नयनेन दीर्घाणि दीर्घनयनानीति वा । एतेन तद्वयापकमाकार महत्त्वमायातीति संप्रदायः । वयं तु - कीदृशानि । न च न दीर्घाणि अपि त्वतिदीर्घाणि । निषेधद्वयबलात् । यद्वा नतनदीभराणि नगनदीभराणि वा । नतानां निम्नानां गभीराणां नदीनां नगनदीनां वा भर: पूर्णता येभ्यस्तानि । प्रवाहपूरणक्षम देहत्वात् । यद्वा नतनदीधराणि नगनदीधराणि वा । नता नदीर्नगनदीर्वा धारयन्ति स्वशरीरेण सेतुवदवष्टभ्नन्तीत्यर्थः । एतेन मीनानां महत्त्वमुक्तम् । वस्तुतस्तु संभ्रमे विकसति सति मीनकुलानि नगनदीगृहाणि नतनदीगृहाणि वा न च न मुञ्चन्ति अपि तु मुञ्चन्ति । अत एव जीवितमपि शिथिलयन्ति । संभ्रमान्नदीमपि त्यक्त्वा यान्ति तत्र जल विरहाज्जीवितमपि नाशयन्तीत्यर्थः । कीदृशानि । दीर्घाणि इति कर्मकर्त्रीरपि विशेषणमिति ब्रूमः । एवं वनचन्दनाश्रितानां महिषकुलानां (स्फटिक) - मणिशिलाभि: प्रेरितानां सतामवशेषोऽपि नास्ति । पर्वतानां वक्रभावे स्वभावपिच्छिल स्फटिक भूमेः स्खलनात्सर्वमेव नश्यतीत्यर्थः । दृष्टान्तयति - यथा चन्द्रेण नाशितानां तिमिरोद्गमानामवशेषोऽपि न तिष्ठतीति चन्द्रस्फटिकयोस्तिमिरमहिषयोः सितासिताभ्यां साम्यमिति संप्रदायः । मम तु किंचिच्चमत्करोति - किंभूतानां महिषकुलानां वनचन्दनासितानां वनचन्दनेष्वासितानामुपविष्टानाम् । अथवा वनचन्दनेषु आ अत्यर्थेन असितानां श्यामानाम् । चन्दनानां शुभ्रत्वेन तन्मध्ये महिषश्यामिकोद्रेकादित्यर्थः । यद्वा वनचन्दनासिकानां वनचन्दने आसिका उपवेशनं येषाम् । यद्वा वनचन्दनमस्यति क्षिपतीति वनचन्दनासि तादृक्कं मस्तकं येषामिति वा । शृङ्गाभ्यां तत्क्षेपणात् । • Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२२७ चन्दनस्य पत्रसत्त्वेन अशितं भुक्तं वनचन्दनं यस्तेषामशितवनचन्दनानामिति वा । निगर्वस्तु-महिषकुलानामवशेषोऽपि नास्ति । कीदृशानामिव । फडिहमणिसिलावेल्लिआणव्व स्फटिकमणि शिलाप्रेरितानामिव । स्फटिकमणि शिलाभिः प्रेरितानामिवेत्यर्थः। पुनः कीदृशानाम् । निषेधद्वयेन न वनचन्दनमश्रितानामपि तु वनचन्दनं श्रितानाम् । तथा च वनचन्दनस्थितानां नाशप्रयोजकवास्तविकस्फटिकभूमिकर्तृकप्रेरणहेतुकत्वमुत्प्रेक्षितम् । अन्योऽपि कुतश्चित्कंचित्प्रेरयति ततः स पतित्वा नश्यतीति ध्वनिरिति विस्तरभिया संक्षेपः ॥६५॥ विमला-पर्वतों के घूमने पर नयन के समान दीर्घ मछलियों ने जीवन भी त्याग दिया किन्तु नदीरूप गृह को नहीं त्यागा । (पर्वतों के वक्र होने पर स्वभावतः पिच्छिल) स्फटिक मणि शिला से स्खलित भैसों का अवशेष भी नहीं रह गया, जैसे चन्द्र से नाशित तिमिर का अवशेष नहीं रह जाता है ॥६॥ अथोत्तोलितपर्वतानां भ्रंशमाहअद्धेअद्धप्फुडिआ अद्धे अद्धकडउक्खअसिलावेढा । पवअभुआहअविसढा अद्ध अद्धसिहरा पडन्ति महिहरा ।। ६६ ।। अर्धार्धस्फटिता अर्धार्धकटकोत्खातशिलावेष्टाः । प्लवगभुजाहतवीशीर्णा अर्धिशिखराः पतन्ति महीधराः ।।] प्लवगभुजेनाहतास्ताडिता अत एव विशीर्णाः खण्डखण्डीभूता महीधरा पतन्ति । विशीर्णताप्रकारमाह-कीदृशाः । अधं चाधं चार्धाधं तद्यथा भवति तथा स्फुटिताः। मध्ये द्विधाभूता इत्यर्थः। एवमर्धाधु द्विखण्डीभूतं यत्कटकं तस्मादुत्खातं तुलित्वा पतितं शिलावेष्टं येषां ते । एवमर्धाधमर्धद्वयीभूतं शिखरं येषां ते। तथा च गुरुद्रव्यमुत्तोलने सति बलादुपर्युपरि क्रियमाणं करतलाहति विषयो भवतीति । तथा क्रियमाणे मध्ये नितम्बे शृङ्गे च द्विधाभूय पतिता इत्याशयः । यद्वा अर्धे मध्येऽर्धस्फुटिता अधं समांशं यथा भवति तथा स्फुटिताः। अथार्धद्वयं वृत्तं तत्रकस्मिन्नर्धे कटकभागीयेऽर्धकटकात्कटकार्धादुत्खातशिलावेष्टाः । एवमपरत्रार्धे शिखरभागीये अर्धशिखरा अर्धं शिखरं येषां ते । तथा च स्थानत्रयेऽपि त्रुटिता इति वयमुन्नीतवन्तः ।।६६।। विमला-वानरों की भुजाओं से प्रताड़ित पर्वत खण्ड-खण्ड हो गिर गये। वे बीच से दो खण्डों में आधे-आधे हो गये, इसी प्रकार उनके नितम्ब भाग भी दो खण्डों में विभक्त हो गये और उनकी शिलायें उखड़ कर गिर गयीं एवम् उनके शिखर भी आधे-आधे हो गये ।।६६।। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् २२८ ] कपीनां कार्यपरतामाह— जस्स सिहरं विवज्जइ पडिअं फुडिओ अ जो धरिज्जइ सेलो । सोचेन विसज्जिज्जइ उवखन्तूण वि अपूरमाणम्मि भरे ॥ ६७॥ [ यस्म शिखरं विपद्यते पतितं स्फुटितश्च यो ध्रियते शैलः । स एव विसृज्यते उत्खायाप्यपूर्यमाणे भरे ॥ ] यस्य शिखरं पतितं सद्विपद्यते स्फुटति मदृढमित्यर्थः । स्फुटिता स्वभावात्स्कुटित एव । यश्व ध्रियते । यद्वा स्फुटितः सन् यश्च धियते । ध्रियमाण एव स्फुटतीत्यर्थः : । अत्यन्तादाढ्यं प्रदर्शनाय कार्यस्यापि स्फुटनस्य कारणाद्वारणात्पूर्व कालत्वं तेन प्रतिपादितम् । तदुक्तम् — ' कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः' इति । स एव शैल उत्खायाप्युत्पाटयापि विसृज्यते त्यज्यते । क्व सति । भरे कार्ये कार्याध्यवसाये वा आपूर्यमाणे सति । तथा च कार्यक्षमत्वेनादृढस्य त्यागादन्यस्य च दृढस्योत्पाटने साकाङ्क्षत्वात्कपीनां बलवत्त्वमुद्योगशीलत्वं चोक्तम् । कार्योपयुक्ता एवाद्रियन्त इति ध्वनिः । एकत्र शिखरस्य परत्र शिखरिणो दाढर्घाभाव उक्त इत्यपौनरुक्त्यम् ।।६७।। विमला - जिसका शिखर गिर कर टूट गया अथवा उठाने पर जो शैल टूट गये उन्हें उखाड़ कर भी वानरों ने वहीं त्याग दिया, क्योंकि उनसे उनका काम चल नहीं सकता था ॥६७॥ गजवधूनामवस्थामाह लोअणवस्त्तन्तरिए कणे रुअतिओ धारेन्ति वामइए कणेरुअन्तीओ । मण्णेन्ति श्र आसाअं विसं णवप्रणस्स [ षष्ठ विरहम्मि जूहबहणो विसण्णव प्रणस्स || ६८ ।। [ लोचनपत्रान्तरितान्कणान्रुदत्यो धारयन्ति बाष्पमयान्करेणुपङ्क्तयः । मन्यन्ते चास्वादं विषं नवतृणस्य विरहे यूथपतेर्विषण्णवदनस्य (विसंज्ञवचनस्य वा ) ॥] यूथपतेर्गजराजस्य संभ्रमेण विश्लिष्टस्य विरहे सति करेणुपङ्क्तयो लोचनपत्रं पक्ष्म तदन्तरितान्वाष्पमयान्कणान्धारयन्ति । अश्रुत्यागं कुर्वन्तीत्यर्थः । नवतृणस्य चास्वादं विषं मन्यन्ते । तं विना तमपि न कुर्वन्तीत्यर्थः । यूथपतेः किंभूतस्य । विषण्णं विषादशालि वदनं यस्य । यद्वा विसंज्ञं चैतन्यशून्यं वचनं यस्य । वयं तु— नवगणस्य यूथान्तरस्यासादं प्राप्ति विषं मन्यन्ते । तत्रापि नानुरज्यन्तीत्यर्थं इति ॥ ६८ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २२६ विमला - विषादपूर्ण वदन वाले अथवा चैतन्यशून्य वचन वाले यूथपति गजराज के विरह में हथिनियाँ नेत्रों में अश्रुकण धारण किये हुई थीं, नवतृण के आस्वाद को विष समझ रही थीं, ( गजराज के बिना उन्हें किसी प्रकार से चैन नहीं था ) ॥६८॥ शेषनागस्यावस्थामाह सेलुखरणारोसिप्रभुग्रइन्वणि अग्रप्फण णिसम्मन्ती 1 जह जह संखो हिज्जइ तह तह कइदेहभर सहा होइ मही ॥ ६६ ॥ [ शैलोद्धरणारोषितभुजगेन्द्रनिरायतफर्णानिषीदन्ती 1 यथा यथा संक्षोभ्यते तथा तथा कपिदेहभरसहा भवति मही ॥ ] मही यथा यथा संक्षोभ्यते पर्वतोत्पाटनव्यापारेणान्दोल्यते तथा तथा कपीनां haitraसहा भवति । अत्र हेतुमाह - कीदृशी । शेषस्य शैलोद्धरणादारोपितस्य फणाभङ्गभीरुतया निरायतेषु दीर्घीकृत्योत्थापितेषु फणेषु निषीदन्ती स्थिरीभवन्ती । तथा च पर्वतोपमर्देन भूम्युपमर्दः । तेन शेषस्य भारगौरवम् । तेन फणोत्तोजनम् । तेन भूमेः स्थैर्यम् । तेन च कपिभारसहत्वमिति हेतुपरम्परा । विपदि महतामवलम्बनं महान्त एवेति ध्वनिः ॥६६॥ विमला - वानरों के पर्वतोत्पाटनसम्बन्धी व्यापार से पृथिवी ज्यों-ज्यों संक्षुब्ध हो रही थी त्यों-त्यों कपियों के देहभार को वहन करने में समर्थ भी हो रही थी । इसका एकमात्र कारण यह था कि पर्वतों के उखाड़ने से रुष्ट शेषनाग ने अपने फणों को अत्यन्त विस्तृत कर लिया, जिन पर पृथिवी ( अक्षुण्ण रूप से ) स्थिर रह गयी ||६eit गुरुपर्वत खण्डनमाह संचालिअणिक्कम्पा भुप्राणिहाज विसमुक्खन सिलावेढा । खुडिओ सिहर सु अ पवएहि निग्रम्बबन्धणेसु अ सेला ||७०|| [ संचालितनिष्कम्पा भुजानिघातविषमोत्खातशिलावेष्टाः । खण्डिताः शिखरार्धेषु च प्लवगैनितम्बबन्धनेषु च शैलाः ॥ ] संचालिताः संचालयितुमारब्धाः सन्तो निष्कम्पाः शैलाः प्लवगैः शिखरार्घेष्वनपेक्षितशिखरभाग संधिषु नितम्बबन्धनेषु नितम्बस्यूतिसंधिषु च खण्डिताः । आमोटय त्रोटिता इत्यर्थः । कीदृशाः । भुजानिघातेन भुजाभिहत्या उत्खातानि स्कन्धारोपण सौकर्याय खण्डितानि विषमाणि निम्नोन्नतानि शिलावेष्टानि येषां ते । निष्कम्पत्वेनोत्पाटने विलम्बः स्यादिति मूलमग्रं च निरस्योपयुक्तमध्यभाग एव सुसमीकृत्य गृहीत इत्याशयः ॥ ७० ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ विमला — वानरों ने उठाने के लिये पर्वतों को हिलाया - बुलाया किन्तु बे हिले-डुले नहीं तो ( कार्य के लिये अनुपयोगी समझकर तथा भार भी हल्का करने के लिये ) उन्होंने भुजाओं के प्रहार से शिखरभाग तथा नितम्बभाग की नीचीऊँची शिलाओं को खण्ड-खण्ड कर दिया ||७०|| गिरीणां महत्त्वमाह उष्णामि मित्र गहं दूरं ओसारिश्रा विव दिसाहोआ । उम्मूलन्तेहि घरे पसारिअं मिव पवंगमेहि महिअलम् ॥७१॥ [ उन्नामितमिव नभो दूरमपसारिता इव दिगाभोगाः । उन्मूलयद्भिर्धरान्प्रसारितमिव प्लवंगमैर्महीतलम् | ] धरान्पर्वतानुन्मूलयद्भिः प्लवंगमैर्नभ उन्नामितमिव ऊध्वं नीतमिव । पर्वतोनमनात् । एवं दिगाभोगा दिग्विस्तारा दूरं व्याप्यापसारिता इव बहिःकृता इव । पर्वतविस्ताराक्रान्तत्वात् । एवं महीतलं प्रसारितमिव सावकाशीकृतमिव । पर्वतमूलोत्थापनेन सप्रकाशत्वादिति गिरीणामप्रमध्य मूलभागोत्कर्षं उक्तः ।।७१।। विमला -- पर्वतों को उखाड़ते हुये वानरों ने मानों आकाश को और ऊपर उठा दिया, दिशाओं के विस्तार को दूर तक हटा दिया एवं महीतल को प्रसारित कर दिया ||७१|| गिरिमूलखात गाम्भीर्यमाह - बीस कइणिक्य धराहर ठाणगहिर विवरुत्तिष्णो । उप्पा आश्रवअम्बो से साहिष्णमणि पहा विच्छड्डो ॥ ७२ ॥ [ दृश्यते कपिनिवहोत्खातधराधरस्थान गभीरविवरोत्तीर्णः । शेषाहिफणमणिप्रभाविच्छदः ॥ ] उत्पातातपाताम्रः कपिनियनोत्खातानां धराधराणां स्थामान्यवस्थितिप्रदेशास्तान्येव गभीरविवराणि तैरुत्तीर्णः पातालादूर्ध्वमुद्गतः शेषरूपस्याहेः सर्पस्य फणमणीनां प्रभासमूह उत्पातातपवदाताम्रो दृश्यते । गिरिविवरेषु पातालतिमिरसंक्रमाद्धूम्रत्वेन मणिप्रभाणां प्रातरुत्पातरूपधूमधू म्रतरणितेजोभिः साम्यम् । शेषस्य नाना फणानां नानामणीनां नानाविवरवर्त्मना विनिर्गम इति । समूहवाचि विच्छदपदम् ॥७२॥ विमला - वानरों ने जहाँ-जहाँ से पर्वतों को उखाड़ा, उस उस स्थान पर ( पाताल तक ) गहरा विवर हो गया । उन विवरमार्गों से ऊपर निकलती हुई शेषनाग के मणियों की प्रभा ( पाताल - तिमिर से संक्रान्त होने से ) उत्पातकालीन आप के समान ईषत् ताम्रवर्ण दिखाई दे रही थी ||७२ || वानराणां बलवत्तामाह - केलासदिट्ठसारं गरुअं पि भुआबलं णिसा अरवइणो । पवएहि पाडिएक्कं एक्ककरुषिवत्तमहिहरेहि लहुइअम् ||७३|| Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ कैलासदृष्टसारं गुरुकमपि भुजाबलं निशाचरपतेः । प्रत्येकमेककरोत्क्षिप्तमहीधरैर्लघूकृतम् ॥ ] प्लवगैः प्लवगैनिशाचरपते रावणस्य कैलासे दृष्टं सारमुत्कर्षो यस्य तादृशम् । अत एव गुरुकमपि भुजानां बलं लघूकृतम् । अत्र हेतुमाह — कीदृशैः । प्रत्येकं प्रतिव्यक्ति एककरेणोत्क्षिप्त उत्थाप्य प्रेरितो महीधरो यैस्तैः । तथा च रावणो विशत्या भुजेः कैलासमान्दोलयामास कपयस्त्वेकैके एकैकेन करेण एकैकानपि गिरीनुत्क्षिपन्ति स्मेति बलं तस्यानादर विषयोऽभूदित्यर्थः ॥७३॥ विमला - एक - एक कपि ने एक-एक हाथ से एक-एक पर्वत को ऊपर उठा कर रावण के उस बल को तिरस्कृत कर दिया जो कैलास पर्वत को रावण द्वारा बीस भुजाओं से उठाये जाने पर आजमाया गया था और संसार में महान् प्रसिद्ध हो चुका था || ७३ ॥ उत्पाटितपर्वतमूलस्थानमाह उक्खअ गिरिविधरोवद्दधदिण प्रराभव मिलन्ततमसंघातम् । जाअं पविरलतिमिरं श्रावण्डरधूमधूसरं पाआलम् ॥ ७४॥ [ उत्खातगिरिविवराव पतितदिन करातपमिलत्तमः संघातम् । जातं प्रविरलतिमिरमापाण्डुरधूमधूस रं [ २३१ पातालम् ॥ ] उत्खातानां गिरीणां विवरेषु मूलस्थानेष्ववपतितैदिनकरातपैमिलं स्तमः संघातो यत्र तादृशं पातालं प्रविरलं तिमिरं यत्र तथाभूतं सत् आपाण्डुरः शुभ्रश्यामो यो धूमस्तद्वद्धूसरं जातम् । तथा चोत्पाटितगिरिविवरेण रविरश्मयः पातालं प्रविष्टास्तत्र च तस्तिमिराणां नाशेऽपि कियतां क्वचित्क्वचिन्निनेषु सत्त्वेन तदुभयमिश्रणात्पाण्डुरधूमतुल्यत्वं पातालस्येति शैलानां महामूलत्वमुक्तम् । विधानापगमे परप्रवेशो दुर्वार इति ध्वनिः ॥७४॥ विमला - उखाड़े गये पर्वतों के मूल स्थान पर जो गहरे विवर बन गये थे, उन मार्गों से सूर्य की किरणें पाताल में पहुँच गयीं। उनसे तिमिरों का नाश होने पर भी कहीं-कहीं निम्न स्थलों में तिमिर विद्यमान रह गया, इस प्रकार सूर्यकिरण और तिमिर के मिश्रण से पाताल पाण्डुर धूम के समान शोभित हुआ ||७४ || कपीनां स्वामिभक्तिमाह - पवएहि अ णिरवेक्खं कओ करतेहि गिरिसवासुद्धरणम् । सामिअकज्जेक्करसो समुहे वि जसभाषणं प्राणो ॥७५॥ [ प्लवगैश्च निरपेक्षं कृतः कुर्वद्धिगिरिशवासोद्धरणम् । स्वामिकार्येकरसोऽयशोमुखेऽपि यशोभाजनमात्मा ॥ ] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] सेतुबन्धम् प्लवगैर यशोमुखेऽपि दुर्यश उपक्रमेऽपि यशोभाजनमात्मा कृतश्च । कीदृक् । स्वामिकार्ये एकस्मिन्रसो यस्य तादृक् । प्लवगैः कीदृशैः । निरपेक्षमपेक्षाशून्यं यथा भवत्येवं गिरिशवासः कैलाशस्तदुद्धरणं तदुत्पाटनं कुर्वद्भिः । तथा च पर्वतानुत्पाटमद्भिः कपिभिः प्रसङ्गात्कैलासोऽप्युत्पाटित इति भर्गभवनभङ्गादपयशो यद्यपि तथापि स्वामिकार्याय तथा कृतमतो यश एवासीदिति स्वामिकार्यमकृत्यमपि कृत्वा कुर्यादिति ध्वनिः ॥ ७५ ॥ विमला - वानरों ने ( पर्वतों को उखाड़ते समय ) निरपेक्षभाव से कैलास को भी उखाड़ लिया । यद्यपि ऐसा करने से उन्हें अपयश का भागी होना चाहिये, किन्तु उन्होंने ऐसा स्वामी का कार्य पूरा करने के लिये किया, अतः अकृत्य करके भी अपने को उन लोगों ने यशोभाजन ही किया ||७५ || अथ कपीनां वेगमाह होन्ति गरुआ वि लहुआ पवंगभुअ सिहरणिमिश्रवित्थम मुला । रहसुद्धाइअ मारुम दूरुक्खित्तोसरा धराधरणिवहा ||७६ ॥ [ भवन्ति गुरुका अपि लघुकाः प्लवंगभुजशिखरनिवेशितविस्तृतमूलाः । रभसोद्धावितमारुतदूरोत्क्षिप्त निर्झरा धराधरनिवहाः ॥ ] पृष्ठ गुरुका गुरुत्वयुक्ता अपि धराधराणां निवहा लघवो भवन्ति । तदानीमित्यर्थात् । किंभूताः । प्लवगैर्भुजानां शिखरेष्वग्रेषु । हस्तेष्वित्यर्थः । निवेशितं विस्तृतं मूलं येषां ते । लाघव हेतुमाह - रभसेन वेगेन प्लवंगमानामेव उद्भावित उत्थितो यो मारुतस्तेन दूरमुत्क्षिप्ता उद्भूय पातिता निर्झरा येषां ते । अयमर्थः - कपिभिः पर्वतानुत्पाट्य स्कन्धावष्टम्भेन वामकरतले तन्नितम्बमारोप्य वेगितम्, भथ वेगादभ्युद्गतं गिरिविवरचारिभिः पवनैरूध्वं नीत्वापि निपातिता निर्झरा इति निर्झरकृतगुरुत्वाभावाल्लघुत्वमासीद् गिरीणामिति प्लवगानां वेगबलोत्कर्षः । सर्वस्वापगमे लघुत्वमेव भवतीति च ध्वनिः ॥ ७६ ॥ बिमला — उस समय बायें करतल पर पर्वत का मूलभाग निवेशित कर वानर इतने वेग से दौड़े कि वेगजन्य वायु से निर्झर ऊपर पहुँच कर भी दूर नीचे जा गिरे और इस प्रकार भारी-भारी वे पर्वत अत्यन्त हल्के हो गये ||७६ ॥ re कपीनामागमनायोत्फालमाह अह वेएन पवंगा समलं प्राग्रड्ढिऊण महिहरणिवहम् । ओवप्रणाहि विलहुअं वीसज्जिअकलप्रलं णहं उप्पइआ ॥ ७७ ॥ [ अथ वेगेन प्लवंगाः सकलमाकृष्य महीधरनिवहम् । अवपतनादपि लघुकं विसृष्टकलकलं नभ उत्पतिताः ॥ ] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २३३ अथ पर्वतोत्पाटनानन्तरं प्लवंगा अवपतनादपि लघुकं क्षिप्रं यथा स्याद्विसृष्टः पर्वताहरणजन्योत्साहेन सकलसंज्ञानिमित्तं वा कलकलः शब्दविशेषो यत्र तच्च यथा स्यादेवं वेगेन नभो लक्ष्मीकृत्योत्पतिता उत्फालं कृतवन्तः । किं कृत्वा । सकलं महीधराणां निवमाकृष्य । हस्ते कृत्वेत्यर्थः । तथा चागमनसमये आकाशादधः पतने यल्लाघवं तदपेक्षयाप्युत्पतने ऊर्ध्वगमनव्यलीकपर्वतभारवत्त्वेऽपि महल्लाघवमासीदिति कपीनामुत्साहाधिक्यं बलवत्त्वं च सूचितम् । वस्तुतस्तु वेगेनाकृष्येत्यन्वयः । वयं तु — वेगेनावपतनादपि लघुकमिति संबन्धः कर्तव्य स्तेन वेगपदमनर्थकं नापतति । उत्पतने च लाघवोत्कर्षो व्यङ्गयो भवति । एवं नभः किभूतम् । विसृष्टः समाप्तः कलकलो यत्र तत् । तथा च भूमावारब्धस्य कलकलस्य नभसि त्यागेनोत्पतनस्यातिलघुत्वमवगम्यते तदव्याप्यत्वादित्यर्थं इति ब्रूमः ॥७७॥ विमला - वानरों ने समस्त गिरिसमूह को हाथ पर रखकर, आकाश से नीचे उतरते समय शीघ्रता की अपेक्षा अत्यन्त अधिक शीघ्रता से, आकाश की ओर इतने वेग से छलाँग मारी कि भूमि पर आरम्भ किये गये कलकल निनाद की समाप्ति आकाश में ही हुई || ७७ || अथ कपीनां गगनारोहणमाह चडुलेहि निष्पअम्पा उप्पइमव्वलहुएहि वित्थअगरुला । एक्कक्खेवेण णहं पक्खेहि व महिहरा कईहि विला ||७८ || [ चटुलैनिष्प्रकम्पा उत्पतितव्यलघुकै विस्तृत गुरुकाः । एकक्षेपेण नभः पक्षैरिव महीधराः कपिभिविलगिताः ॥ ] महीधराः पक्षैरिव कपिभिः करणभूतैरेक क्षेपेणैकप्रयत्नेन । समकाल मित्यर्थः । नमो विलगिता: प्राप्तवन्तः । शैलाः स्वभावतः पक्षिण एव । तदानीं पक्षविरहात्कपय एव पक्षत्वेनोत्प्रेक्षिताः । अन्येऽपि पक्षिणः संभूय सहसैवोड्डयन्त इति ध्वनिमुखेन सपर्वताः कपयः सहसैव गगनं गता इत्यर्थेन सर्वेषां समानपराक्रमत्वमुक्तम् । पक्ष तौल्यमाह - कपिभिः किभूतैः । चटुलैर्नभसि चञ्चलैः एवमुत्पतितव्ये उत्पतने लघुकैः क्षिप्रैः । उड्डयनकाले पक्षोऽप्येवमेव भवतीति भावः । महीधराः कीदृशाः । निष्प्रकम्पाः । स्थिरा इत्यर्थः । एवं विस्तृताः सन्तो गुरुका गौरवयुक्ताः । पक्षिणोऽप्येवमेव भवन्ति । न च प्रत्येकपर्वतस्य प्रत्येकवानरहरणीयत्वेन द्वितीयपक्षाभाव इति वाच्यम् । मिथो विमिश्रत्वेन पर्वतान्तरलग्नकपिना परपार्श्व पक्ष सत्त्वप्रतीतेः । एवं कपीनां पक्षत्वोत्प्रेक्षया तदपेक्षया गिरीणामतिमहत्त्वं तदाहरणेन च तेषां बलवत्त्वमुक्तम् । कपिभिः कर्तृ भूतैः पर्वता नभो नीता उत्पतनकारणत्वात्पक्षेरिवेत्युक्तमिति केचित् ॥७८॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] सेतुबन्धम् [षष्ठ विमला-वानर पर्वतों को आकाश में लेकर उड़ गये, मानों वे वानर (पंखहीन) उन पर्वतों के पंख हो गये जो अत्यन्त चञ्चल एवम् उड़ने में फुर्तीले ये और जिनके सहारे से सभी पर्वत एक साथ ही उड़कर, विस्तृत एवं भारी होने पर भी आकाश में पहुँच गये ॥७८॥ अथ पर्वतखातपूरणमाह-- पवनक्कन्तविमुक्कं विसमुद्धप्फडिप्रपत्थिअणिअत्तन्तम् । घडिसं घडन्तण इमुहसंदाणि असेल णिग्गमं महिवेढम् ॥७९॥ [प्लवगाक्रान्तविमुक्तं विषमोर्वस्फुटितप्रस्थितनिवर्तमानम् । घटितं घटमाननदीमुखसंदानितशैलनिर्गमं महीवेष्टम् ॥] महीवेष्टं घटितं प्रागिव मिलित्वा समीभूतम् । कीदृक् । प्लबगानामाक्रान्तेनाक्रमणेन । भावे क्तः । विमुक्तं स्फुटितम् । पर्वतोत्पाटनेन सखातीभूतमिति यावत् । एवं घटमानेन मिलता नदीमुखेन नदीप्रवाहेण संदानितः संयोजितः शैलनिर्गमः शैलमूलखातो यत्र तत्तथा । एवं विषमं नतोन्नतं पूर्वपातानियमेनोर्ध्वप्रस्थितं सत्स्फुटितं त्रुटितं पश्वानिवृत्तं तत्खाते पतितम् । अयमर्थः-पर्वतोत्पाटनेन कियत्यो मृत्तिकाः खातपार्श्व एव तिर्यगूर्ध्वमुत्थिताः अथोत्तोलितगिरिनिर्झरपातपूरिते तत्खाते जलसंबन्धात्त्रुटित्वा पुनः पतितास्तेन तद्विवरमुद्रणम् । यद्वा उत्तोलितपर्वतमूललग्नव मृत्तिका विषमा ऊर्ध्वप्रस्थिता अथ निर्झरेण सह त्रुटित्वा निवृत्त्य तत्खात एव प्रविहटेति प्रकृतभूमितुल्यतेति संप्रदायः । वस्तुतस्तु प्लवगेनाक्रान्तमवपतनादथोत्पतनेन विमुक्तं त्यक्तमथ विषमं सदूर्वेऽन्तरिक्षे पर्वतमूले लग्नमुत्थितं पुन: स्फुटितं त्रुटितमत एव प्रस्थितं शैलेन' सहेत्यर्थात् पश्चानि वर्तमानं त्रुटनानन्तरमध एवागतं महीवेष्टं घटितं प्रागिव संबद्धम् । तत्र हेतुमाह-घटमानेत्यादि । तथा च प्लवगेन केचिद गिरय उत्पतनकाल एवोत्थापितास्तेन तन्मूलभूमिरपि कियद दूरमुत्थाय निजखात एव पतितेति सति भूमिपर्वतयोरन्तरा विच्छेदे पुनः पर्वतमूलेनोवत: पतता निर्झरजलेन पर्वतसमानाकारेण भूमिपर्वतयोरन्तरादेश एकीकृत इति निर्झरमहत्त्वेन गिरिमहत्त्वमुक्तमिति मदुन्नीतः पन्थाः ।।७६।।। विमला--वानरों ने जिस समय पर्वतों को उखाड़ा उस समय उनके मूलस्थान पर बड़े-बड़े गर्त बन गये । कुछ मिट्टी गर्त के आस-पास रह गयी और कुछ पर्वतों के मूल भाग में लगी हुई ऊपर आकाश में ही चली गयी। ऊपर आकाश में पहुँचे हुये पर्वतों से निर्झर जब भूमि की ओर गिरे उस समय उक्त दोनों प्रकार की मिट्टियाँ निर्झर जल के साथ घुल कर उन्हीं गर्मों में जा पड़ी और इस प्रकार से वे गर्त पुनः पूरे हो गये और महीतल पूर्ववत् सम हो गया ।।७।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् माश्वासः ] मृगीणां वैयग्रयमाह - हीरन्तमहिहराहि मईहि भअहित्थपत्थिश्रणिप्रत्ताहि । सोहन्ति खविवत्तिय ससंभमुम्म हपलोइआइ बनाई ||८०|| [ ह्रियमाणमहीधराभिर्मृ' गोभिर्भयोद्विग्नप्रस्थितनिवृत्ताभिः । शोभन्ते क्षणविवर्तितससंभ्रमोन्मुखप्रलोकितानि वनानि ॥ ] [ २३५ वनानि शोभन्ते । ह्रियमाणपर्वतानामित्यर्थात् । किंभूतानि । ह्रियमाणो महीधरो यासां ताभिर्मृगीभिः क्षणं व्याप्य विवर्तितं किमिदमिति जिज्ञासया विलोकितं ससंभ्रमं सत्रासमत एवोन्मुखं यया स्यात्तथा प्रलोकितानि । स्नेहविषयत्वात् । मृगीभिः कीदृशीभिः । भयेनोद्विग्नाभिः अत एवान्यत्र गन्तु प्रस्थिताभिः अथ निवृताभिः परावृत्य स्थिताभिः । मृगैः संभ्रमे सति कियद्दूरं गत्वोन्मुखीभूय परावृत्यविलोक्यत इति जातिरलंकारः ||८०|| विमला - हिरणियाँ, जिनके पर्वत हर लिए गए, भय से उद्विग्न हो अन्यत्र गमन करने लगीं किन्तु पुन: लौट कर खड़ी हो थोड़ी देर तक जिज्ञासा की दृष्टि से उन्होंने इधर-उधर देखा और भयभीत हो ऊपर मुंह उठा कर वनों को देखने लगीं ॥८०॥ नदीनां प्रवाहमाह— उम्मू आिण खुडिमा उक्खिण्पन्ताण उज्जुभं श्रोसरिमा । निज्जन्ताण णिराज गिरीण मग्गेण पत्थिश्रा णइसोत्ता ॥ ८१ ॥ [ उन्मूलितानां खण्डितान्युत्क्षिप्यमाणानामृजुकमपसृतानि । नीयमानानां निरायतानि गिरीणां मार्गेण प्रस्थितानि नदीस्रोतांसि ॥ ] tatataiसि गिरीणां मार्गेण प्रस्थितानि । गिरीणां यावस्था सा नदीनामपीत्यर्थः । तदेवाह-किभूतानां सतां किंभूतानि । उन्मूलितानां खण्डितानि । यदा गिरय उन्मूलितास्तदा यथा तेषां भूसंबन्धः खण्डितस्तथा स्रोतसामपीत्यर्थः । एवमन्यत्रापि । यदा गिरय उत्क्षिप्यमाणतया ऋजूकृतास्तदा तान्यपि ऋजुकमपसृतानि । ऋजूभूय पतितानीत्यर्थः । आर्जवमात्रे तोल्यम् । एवं यदा गिरयस्तिर्य नभसि : नीयमाना दीर्घा इव जातास्तदा तत्पृष्ठाकाशदेशे व्यवच्छिद्य पतितानि स्रोतांसि: निरायतानि पवन वेगवशाच्चिरं दीर्घाणि जातानीत्यर्थः ॥ ८१ ॥ विमला-- जब गिरि उन्मूलित हुए और भूमि से उनका सम्बन्ध नहीं रह गया तब उनके साथ-साथ नदियों के स्रोतों का भी उनके साथ ही खण्डित हो जाने से भूमि से सम्बन्ध विच्छेद हो गया । जब गिरि उत्क्षिप्यमाण होने से ऋजु किए गए नदियों के स्रोत भी ऋजु होकर अपसृत हुए । जब गिरि तिरछे करके आकाशः Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ में लाए गये और दीर्घं से हुए तब नदियों के स्रोत भी पवन के वेग से चिरकाल तक दीर्घ बने रहे । इस प्रकार नदीस्रोत गिरियों के मार्ग से प्रस्थित हुए अर्थात् जो दशा पर्वतों की हुई वही उनकी भी ॥ ८१ ॥ अथ गिरीणामुद्वहनमाह उम्महसारङ्गअणं प्रष्फुन्दइ मलिश्रमेहसारं गअणम् । विवरम्भन्तरविअं गिरिजालं सिहरपरिभमन्तर विद्मम् ॥ ८२ ॥ [ उन्मुखसारङ्गगणमाक्रामति मृदितमेघसारं गगनम् । विवराभ्यन्तरविहगं गिरिजालं शिखरपरिभ्रमद्रवियम् ॥ ] गिरिजालं कर्तृ गगनमाक्रामति । कीदृग्गिरिजालं गगनं वा । कुत्र गम्यते कि - स्यादिति कृत्वा उन्मुख : सारङ्गाणां कुरङ्गाणां गणो यत्र तत् । यद्वा उन्मुख ऊर्ध्वं - `मुखः सारङ्गाणां चातकानां गणो यस्मात् । पर्वतेषु मेघभ्रमादित्यर्थः । पुनः कीदृक् । - मृदितं मेघसारं गगनवर्ति मेघजलं येन । पक्षे यत्र गिरिशिखरोल्लेखनात्तत्रत्य मेघजलक्षरणमित्यर्थः । एवं विवराभ्यन्तरे विहगा यत्र । भयेन कंदरालीनपक्षिक`त्वात् । एवं शिखरेषु परिभ्रमन्तो रविया यत्र । एतत्प्रतिरोधेन वर्मालाभादित्युभयसाधारणम् । कंदरा शिखरद्वारैव | 'सारङ्गश्चातके भृङ्गे कुरङ्गेऽपि मतङ्गजे ॥ ८२ ॥ विमला - पर्वतों ने ( इतने वेग से ) गगन को आच्छादित कर लिया कि पक्षीगण उनके भीतर कन्दराओं में ही रह गए, उन्हें उड़ भागने का अवसर ही नहीं मिल सका । आकाश में पहुँचकर पर्वतों ने मेघजल को विनष्ट कर दिया । (पर्वतों को मेघ समझ कर ) चातकों ने ( जलाशा से ) मुंह ऊपर कर लिया । पर्वत आकाश में इतने ऊँचे पहुँच गये कि उनके शिखरों पर सूर्य के अश्व परिभ्रमण करने लगे || ८२॥ अथ पर्वतोद्वहनप्रकारमाह - अंसविश्रमहिहरा उम्भिदाहिण करावलम्बिसिहरा । उत्ताणवामकरप्रलधरिअणिअम्बपसरा णिअत्तन्ति कई ॥ ८३ ॥ [ अंसस्थापितमहीधरा उच्छ्रितदक्षिणकरावलम्बितशिखराः । उत्तान वामकरतलधृतनितम्ब प्रसरा निवर्तन्ते कपयः ॥ ] असे स्थापितो महीधरो यैः । उच्छ्रितेन दक्षिणकरेणावलम्बितं शिखरं यैः । उता वामरतन घृतो नितम्बप्रसरो यैस्तथाभूताः कपयो निवर्तन्ते । परावर्तन्त इत्यर्थः ॥८३॥ विमला--- सकल कपि कन्धों पर पर्वतों को रक्खे हुए, दाहिना हाथ उठा साधे हुए, बायें करतल को उत्तान कर उस पर किए हुए लौट चले || ३ || कर उससे उनके शिखरों को उनके नितम्ब भाग को धारण Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २३७ पथ कपीनां शक्तिवैचित्र्यमाहपस्थाणच्चिअ पढमं भुअमेत्तपहाविआण जं ण पहुतम् । कह तं चिन ताणं चिअ पहुप्पइ कईण महिहराण प्रगअणम् ॥४॥ [ प्रस्थान एव प्रथमं भुजमात्रप्रधावितानां यन्न प्रभूतम् । _कयं तदेव तेषामेव प्रभवति कपीनां महीधराणां च गगनम् ॥ ] यद्गगनं प्रथमं प्रस्थानसमय एव भुजमात्रेण पर्वतशून्यभुजेन प्रधावितानां कपीनां न प्रभूव एतदाकारापेक्षया स्वल्पत्वान्नाङ्गमानक्षममासीत्तदेव गगनं तेषामेव कपीनां महीधराणां च कथं प्रभवति मानक्षमं जायते। यत्सर्वेऽपि सपर्वतास्तत्र संचरन्तीत्यर्थः । तथा चेदानीमिच्छया लघुकृतदेहा अपि तथाविधपर्वतानुद्वहन्तीति शक्तिवैचित्र्यम् ॥४॥ विमला-(पर्वतों को ले चलने के लिए) वानरों ने जब पहिले प्रस्थान किया था उस समय आकाश में वे केवल (पर्वतशून्य) भुज से दौड़े थे और उनके लिए आकाश पर्याप्त नहीं हुआ था, इस वार तो पर्वत भी उनके हाथ में थे तब भला भाकाश कपियों तथा पर्वतों के लिए कैसे पर्याप्त हो सकता था ? ॥८४॥ अथ नभसि गिरीणां मिथः संघट्टमाहवहइ पर्वगमलोमो समतुलि उक्वित्तमिलिअमूलद्धन्ते । एक्कक्कमसिहगमणिहसुप्पुसिअसरिमामुहे धरणिहरे ॥५॥ [ वहति प्लवंगमलोकः समतुलितोत्क्षिप्तमिलितमूलार्धान्तान् । एकक्रमशिखरोद्गमनिघर्षोत्प्रोञ्छितसरिन्मुखान्धरणीधरान् ॥] प्लवंगमलोको धरणीधरानुद्वहति । कीदृशान् । सममेकदैव तुलिता उत्तोलिता अथोत्क्षिप्ता ऊध्वं नीता अथ मिलिताः परस्परसंबद्धा मूलैकदेशा येषां तान् । एवमेकक्रमेणकरूपेणोद्गतशिखराणां निघर्षेण परस्परसंघट्टेनोत्प्रोञ्छितानि सरिन्मुखानि येषु येषां वा । तथा च कपिभिस्तथा पर्वता नीयन्ते यथा नितम्बशिखरादीनां मिथो मिलने नदीस्रोतांसि परस्पर प्रतिरोधाभूमी पतितुं न पारयन्तीत्यर्थः ॥५॥ विमला-कपि-वृन्द ऐसे पर्वतों को वहन किए हुए था जिन्हें एक साथ सभी ने हाथ पर उठाया, ऊपर ले गये और उनके मूलभाग परस्पर संबद्ध हो गये । एक क्रम से उद्गत शिखरों के परस्पर संघट्टन से (प्रतिरोध के कारण) नदीस्रोत भूमि पर गिर नहीं सके ।।८।। अथ कपीनामधोविलोकनमाहणिवण्णेऊण चिरं पवा बोलेन्ति महिहरभरक्कन्ता । साम्ररपडिरूमआई पढमुक्ख अविअडमहिहरट्ठाणाई ॥८६॥ [ निर्वर्ण्य चिरं प्लवगा व्यतिक्रामन्ति महीधरभराक्रान्ताः । सागरप्रतिरूपाणि प्रथमोत्खातविकटमहीधरस्थानानि ॥] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] सेतुबन्धम् [षष्ठ महीधराणां भारेण क्रान्ताः प्लवगा: प्रथमोत्खातानां विकटमहीधराणां स्थानानि मूलखातान् चिरं व्यतिक्रामन्ति लवन्ते । कीदृशानि । सागरस्य प्रतिरूपाणि प्रतिबिम्बानि । समानाकारत्वात् । किं कृत्वा । निर्वर्ण्य । निर्वर्णनमहो ईदगस्य गौरवं मूल विस्तारश्चायं तथा चामुनव सेतु: स्यादिति निरूपणं कृत्वा । तथा चाकाशेनापि संचरमाणास्तथाविधवेगबलशालिनोऽपि भूमि निष्ठमपि तत्खातं चिरेण लवन्त इति खातविस्तारे गिरीणां महत्त्वमायाति । 'सागरपडिरूवा इव' इति पाठे सागरप्रतिरूपाणीवेत्युत्प्रेक्षा ॥८६॥ विमला-भूधरों के भार से आक्रान्त (आकाशमार्ग से संचरणशील) कपिसमुदाय, सागर के प्रतिरूप से, प्रथम उखाड़े गये विकट महीधरों के मूलस्थानीय गों को निरूपित कर बड़ी देर में लाँघ सके ।।८।। अथ नभसि नदीप्रवाहमाह -- खणसंघिममेह अडा वेउक्खिप्पन्तगिरिणिराअठविआ। परिवड्ढन्तामामा वहन्ति व णहङ्गणे महाणइसोत्ता ।।८७॥ [क्षणसंहितमेघतटानि वेगोत्क्षिप्यमाणगिरिनिरायतस्थापितानि । परिवर्धमानायामानि वहन्तीव नभोङ्गणे महानदीस्रोतांसि ॥] महानदीनां स्रोतांसि नभोङ्गणे प्रवहन्तीव । क्षणं व्याप्य संहिता मिलिता मेघा एव तटानि येषां तानि । मेघा एव तटभूमयो भवन्तीत्यर्थः । एवं वेगोत्क्षिप्यमाणेन गिरिणा निरायतं दीर्घ यथा स्यादेवं स्थापितानि अथ परिवर्धमान आयामो दैघ्यं येषां तानि । पवनवेगवशादित्यर्थः । तथा च पर्वतात्स्खलितानामपि नदीनां निरवलम्बे नभसि प्रवाहदेध्यं कपीनां वेगोत्कर्ष गमयति ।।८७॥ विमला-वानर इतने वेग से पर्वतों को लेकर आकाश-मार्ग से चले कि नदियों के स्रोत ( निरवलम्ब) आकाश में बहते हुए-से दिखाई दिये। क्षण भर मिलित मेघ ही उनके तट हो गये तथा वे वेग से उत्क्षिप्यमाण पर्वतों के द्वारा दीर्घरूप में स्थापित किए गए एवं (पवनवेग से) उनका विस्तार और अधिक बढ़ गया ।।८७॥ वनगजचेष्टामाहसेलेसु सेलतुङ्गा पहअलमिलिएसु मिलिप्रदन्तफलिहा । पवअविहुएसु विहुआ णिवडिएसु वि ण णिव्वलन्ति वणगा॥८८।। [ शैलेसु शैलतुङ्गा नभस्तलमिलितेषु मिलितदन्तपरिघाः । प्लवगविधुतेषु विधुता निर्वलितेष्वपि न निर्वलन्ति वनगजाः॥] वनगजा निर्बलितेष्वपि भूमितः पृथग्भूतेष्वपि । उत्पाटितेष्वपीति यावत् । एवंभूतेषु शैलेषु न निर्वलन्ति न पृथग्भवन्ति । शैलसमानाकारत्वादित्यर्थः । तदे Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२३६ वाह-शैलवत्तुङ्गाः । एवं नभस्तले मिलितेषु तेषु मिलितो निखातो दन्तपरिघी येषां ते । पतनभयादित्याशयः । अत एव प्लवगैविधुतेषु तेषु विधुताः सन्तो न निर्बल न्ति न पृथग्भवन्ति । तथा च दृढनिखातदन्तत्वात्कम्पते परं तु न पतन्तीत्यर्थः । तेन तथाविधाजसहितपर्वतोद्वहनेन कपीनाम तिबलवत्त्वमुक्तम् । विपत्तावाश्रयत्यागः कथमपि न कर्तव्य इति ध्वनिः ।।८८॥ विमला-उत्पाटित पर्वतों के साथ ही पर्वताकार वनगज भी आकाश में पहुँच गये और गिरने के भय से उन्होंने पर्वत में अपने दन्तपरिघ गड़ा दिए। वानर (गजों का भार दूर करने के लिए) पर्वतों को हिला रहे थे तथापि वन्यगज हिलडुल कर भी (दाँतों के पर्वत में दृढ़ता से गड़े होने के कारण) पर्बत से पृथक् नहीं हुए ॥८॥ दिशां छन्नतामाह वेविरपमोहराणं दिसाण गिरिविवादितणु मज्झाणम् । कुसुमरएण सुरहिणा अग्घाएग व णिमोलिआई' मुहाई ॥८६॥ [ वेपनशालिपयोधराणां दिशां गिरिविवरदृष्टतनुमध्यानाम् । कुसुमरजसा सुरभिणा आघ्रातेनेव निमीलितानि मुखानि ।।] दिशां मुखानि सुगन्धिना कुसुमरजसा निमीलितानि मुद्रितानि । तथा च पर्वतेभ्यस्तावन्ति कुसुमरजांस्युद्गतानि यावद्भिरन्धकारोऽभूदित्यर्थः । उप्रेक्षते-आघ्रातेनेव । अन्यत्रापि लोकानां पङ्कजादिकुसुमरजसा आघ्रातेन मुखानि निमीलन्ति मुद्रितानि भवन्तीनि ध्वनिः । समासोक्तिलभ्यनायिकात्वप्रतिपादकं विशेषण माहकीदृशीनाम् । पर्वताभिघातेन वेपमाना: पयोधरा मेघा यासाम । एवं गिरीणां मिलितानामप्यन्तरान्तरा विवरेण शून्यदेशेन दृष्टं तनु कृशं मध्यं यासाम् । अन्तरालदेशस्यातिकृशत्वादित्यर्थः । नायिकापि भावेन कम्पनशीलपयोधरोत्तरीयापसारणेन दृष्टक्षीणमध्या च सुरभिकुसुमाघ्राणेन मीलितनयना भवतीत्यर्थः ।।८।। विमला-पर्वतों से इतने कुसुम-पराग झड़कर इधर-उधर उड़े कि दिशायें अन्धकारित हो गयीं, मानों उन कुसुमरजों को सूंघ कर दिशाओं ने अपने मुंह मूंद लिये, (पर्वतों के धक्के से) पयोधर ( १-मेघ, २-स्तन ) काँपने लगे तथा पर्वतों के विवरों से उनका कृश मध्यभाग (कटिप्रदेश) दिखायी दे रहा था ॥८६॥ प्लवगानामनायासमाह पवा करपलधरिए णहमहणिभिण्णवेवमाणविसहरे। गइवसविससिहरे बिइअकरेहि परिसंठवेन्ति महिहरे ॥६॥ [प्लवगाः करतलधृतान्नखमुखनिर्भिन्नवेपमानविषधरान् । गतिवविशीर्णशिखरान्द्वितीय करैः परिसंस्थापयन्ति महीधरान् ॥] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] सेतुबन्धम् [ षष्ठ प्लवगा एककरधृतान्महीधरान् द्वितीयकरेण परिसंस्थापयन्ति नभसि पतनशङ्कया स्थिरीकुर्वन्ति । कीदृशान् । नख मुखेन नखाग्रेण निभिन्ना अत एव वेपमाना विषधरा येषु तान् । द्रष्टुमुद्यतः सर्पो नखेन विद्ध इत्यर्थः । तथा च सर्पवेधकाले एककरतलधृतत्वेन विसंष्ठुलः पर्वतः सर्पवेधोत्तरं द्वितीयकरेण स्थिरीकृत इति भावः । एवं गतिवशेन वेगवशेन विशीर्णानि शिखराणि येषां तान् ॥१०॥ विमला-वानर एक करतल पर पर्वत धारण किए हुए थे, दूसरे हाथ के नखान से (पर्बत में चिपके हुए) विषधरों को विदीर्ण कर रहे थे जिससे वे (सर्प) काँप रहे थे एवं वानरों के वेगपूर्वक दौड़ने से पर्वतों के शिखर भग्न हो गये थे। इन कारणों से पर्वतों का डगमगाना स्वाभाविक था, उन्हें वानरों ने दूसरा हाथ भी लगा कर गिरने से बचा लिया ।।१०॥ कपीनां वेगोत्कर्षमाह णहमलवेअपहाविप्रपवंगहीरन्तसेलसिहरक्खलिआ ।। मग्गागअसेलाणं होनित महत्तोसरा महाण इसोता ॥१॥ [ नभस्तलवेगप्रधावितप्लवंगह्रियमाणशैलशिखरस्खलितानि । मार्गागतशैलानां भवन्ति मुहूतं निर्झरा महानदीस्रोतांसि ॥] महानदीनां स्रोतांसि मार्गेण पश्चादागतानां शैलानां मुहूर्त निर्झरा भवन्ति । कीदृशानि । नभस्तले वेगेन प्रधाबितेन प्लवगेन ह्रियमाणस्य शैलस्य शिखरे स्खलि. तानि । च्युतानीत्यर्थः । अयमाशयः-अने गतस्य प्लवगस्य वेगपवनोत्थानवशात्समधृतसूत्रायमाणं गिरिशिखराच्च्युतं स्रोतः स्फुटितुं नापत् तदानीमेव पश्चादागतगिरिशिखरे निर्झरायितं पुनरस्मिन्गतेऽपरत्रापि तथैव स्थितमिति शैलानामिति बहुवचनेन सूचितश्चिरं पतनाभावो मुहूर्तपदमहिम्ना पश्चादागतानामपि वेगातिशयं द्योतयति ॥६॥ विमला-नभस्तल में वेग से प्रधावित वानर से ह्रियमाण पर्वत के शिखर पर स्खलित महानदियों का स्रोत थोड़ी देर तक मार्ग में पीछे से आए हुए पर्वतों के निर्झर हो गये ।।६१॥ पुनस्तदेवाह वे उपखअदुमणिवहे तडपम्भारणिहणिव्वलन्तजलहरे । णन्ति जरढाअवाहअदरिविवरणि सण्णगअउले धरणि हरे ॥६२।। [ वेगोत्खातद्रुमनिवहांस्तटप्राग्भारनिभनिर्वलमानजलधरान् । नयन्ति जरठातपाहतदरीविवरनिषण्णगजकुलान्धरणीधरान् ।।] वानरा धरणीधरान्नयन्ति प्रापयन्ति । कीदृशान् । वेगेनोत्खातो द्रुमनिवहो येभ्यस्तान् । एवं तटो नितम्बः। तटप्राग्भारतुल्या निर्वलमानाः पृथग्भूता जलधरा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४१ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् येभ्यस्तान् । वेगप्रेरितवाय्वभिघातेन वृक्षवन्मेघा अपि स्खलन्ति ते त्रुटितकटकबुद्धि जनयन्तीत्यर्थः । एवं जरठैः प्रौढैरातपैराहतं स्पृष्टं सूर्यसंनिहितत्वात् अत एव शैत्याय दरीविवरेषु निषण्णं गजकुलं येषु तान् । दरीविवर विषण्ण मे वातपैराहतमिति वा ॥२॥ विमला -- --वानर जिन पर्वतों को आकाश मार्ग से ले जा रहे थे, उनके वृक्ष वेगप्रेरित वायु के अभिघात से उखड़ कर गिर गये तथा छिन्न-भिन्न जलधरों को देखने से पर्वतों के नितम्ब प्रदेश के भग्न हो जाने का भ्रम होता था । ( सूर्य के सामीप्य के कारण) तीव्र धूप से व्याकुल गज (शीतलता के लिये ) उनकी कन्दराओं में स्थित हो गए ॥ ६२ ॥ अथ मलयदर्शनमाह धावइ वेश्रपहाविअपवंगही रन्त सेल सिहरन्तरिओ । छाआणुमग्गलग्गो तुरिअं छिण्णाअओ व मलउच्छङ्गो ॥ ६३ ॥ [ धावति वेगप्रधावितप्लवं गह्रियमाणशैलशिखरान्तरितः । छायानुमार्गलग्नस्त्वरितं छिन्नातप इव मलयोत्सङ्गः ॥ ] वेगेन गच्छन्तः कपयो मलयोत्सङ्गमपि गच्छन्तमवगच्छन्ति । तदुत्प्रेक्षतेमलयोत्सङ्गस्त्वरितं धावतीव । धावने बीजमाह — कीदृक् । वेगेन प्रधावितैः प्लवगैह्रयमाणानां शैलानां शिखरैरन्तरितो व्यवहितः सन् छिन्न आतपो यस्मात् । शिखरैरेव सच्छिन्नातपः । अत एव च्छायाया ह्रियमाणपर्वतानामित्यर्थात् । अनुमार्गलग्नः पश्चाल्लग्नः । अयमभिप्रायः उपरि ह्रियमाणगिरिभिर्व्यवधाय निवारितसूर्यातपः पुनस्तत्स्पर्शभीरुर्मल योत्सङ्गो यथा यथा गिरयो धावन्ति तथा तथा तच्छायामिवानुवर्तमानः स्वयमपि धावति । यद्वा अन्यत्तुल्यमेव । छायया तगिरिस्फटिक भित्तिगतप्रतिबिम्बेनानुमार्गलग्नः पृष्ठलग्नः । तथा च तदातपभिया तगिरि पृष्ठलग्नच्छायार्थमेव धावतीत्यर्थः । एवंविधभ्रमस्य नौकादिगमने दृष्टत्वादिति भावः ।। ६३ ।। विमला - आकाश में वेग से दौड़ते हुए वानरों द्वारा ह्रियमाण पर्वतों का बीच में व्यवधान पड़ जाने के कारण मलय - शिखर से सूर्य का आतप नष्ट हो गया, जिससे वेग से दौड़ने के कारण वानरों को मलय- शिखर इस रूप में दिखाई पड़ा जैसे वह धूप से बचने के लिए ही उन पर्वतों की छाया के पीछे लगा हुआ दौड़ रहा था ।।६३॥ अथ कपीनां कार्योत्साहमाह आलोइआ ण दिट्ठा सच्चविआ ण गहिमा समोवइएहि । उम्मूलिआ वि जेहि तेहि ण उअहि णिआ कईहि महिहरा ॥ ६४ ॥ १६ से० ब० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] सेतुबन्धम् [षष्ठ [ आलोकिता न दृष्टाः सत्यापिता न गृहीताः समवपतितैः । उन्मूलिता अपि यस्तैर्नोदधि नीताः कपिभिर्महीधराः ॥] महीधराः प्रथमं दूरादपि यैरालोकित्तास्तैः पुनर्न दृष्टाः । तदानीमेवान्यैरुत्पाटितत्वादिति भावः । एवं यैः सत्यापिता ग्रहीतुं स्थिरीकृतास्तैर्न गहीताः। किंत्वन्यैरेवेत्यर्थः । वस्तुतस्तु दूरादालोकिता: सत्यापिता अपि पूर्ववेगवशादुल्लङ्गय गतैः पुनर्न दृष्टा न च गृहीता इति भावः। एवं सममेकदैवावपतितैर्येरुन्मूलिता उत्पाटिता अपि तैरुदधिं न नीताः । किं तु क्षिप्रकारिभिरन्यैरेवेत्यर्थः । एतेन त्वरातिशयः सूचितः ।। ६४।। विमला-वानर पर्वतों के लिए इतनी जल्दी मचाए हुए थे कि जिन्होंने पर्बतों को देखा उन्हें फिर वे पर्वत दिखाई नहीं पड़े, क्योंकि इसी बीच में दूसरों ने उन्हें उखाड़ लिया। इसी प्रकार जिन्होंने पर्वतों को ग्रहण करने के लिए ठीक-ठाक किया वे उन पर्वतों को ग्रहण नहीं कर पाए, क्योंकि उतने में ही दूसरों ने उन्हें ग्रहण कर लिया और जिन्होंने पर्वतों को उखाड़ा उन्हें उनको समुद्र तक ले जाने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि अभी उन्होंने उखाड़ा ही था कि दूसरे उन्हें लेकर चम्पत हो गए ।।१४।। अथ प्लवगानां गतिमार्गमाह भग्गदुमभङ्गभरिओ उक्खित्तविसट्टपडिअमहिहरविसमो। पवाण उअहिलग्गो लक्खिज्जइ बिइप्रसंकमो ब्व गइवहो ॥१५॥ [ भग्नद्रुमभङ्गभृत उत्क्षिप्तविशीर्णपतितमहीधरविषमः । प्लवगानामुदधिलग्नो लक्ष्यते द्वितीयसंक्रम इव गतिपथः ॥] समुद्रलग्नः प्लवगानां गतिपयः संचारमार्गोऽधोवर्ती पथाकारो भूप्रदेशो द्वितीय संक्रम इव द्वितीयसेतुरिव लक्ष्यते । कीदक् । संक्षोभाद्भग्नद्रुमाणां भङ्गः खण्डेभृतो व्याप्ताः । एवं प्रथममुत्क्षिप्ताः सन्तो विशीर्णा उत्क्षेपणाभिघातेन खण्डशो भूता अथ पतिताः । भूमावित्यर्थात् । एवंभूता ये महीधरास्तविषमो निम्नोत्रतः । संक्रमोऽप्येवमेव द्रुमशैलभङ्गपूर्णो भवतीत्यर्थः । पतत्पर्वतवृक्षखण्डपूर्णत्वात्समुद्रपर्यन्ताकाशदेश एव गतिपथ इति केचित् ।।९।। विमला-इस प्रकार आकाश-मार्ग से जाते हुए कपियों का संचरणमार्ग समुद्र तक टूटे हुए वृक्षों के खण्डों से व्याप्त एवं ऊपर फेंके जाने से खण्ड-खण्ड हुए, अतएव पतित पर्वतों से ऊबड़-खाबड़ होकर द्वितीय सेतु-सा दिखाई दे रहा था ॥६५॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२४३ अथाश्वासं विच्छिन्दकपीनां समुद्रप्राप्तिमाह एण गहि असेल वेलाबोलेन्तपडिणि अत्तोवइअम् । जा रामाहिमुहं अणुराउप्फल्ललो अणं कइसेण्णम् ।।६६।। इअ सिरिपवरसेणविर इए कालिदासकए दहमहवहे महाकव्वे छओ आसासओ।। [ वेगेन गृहीतशैलं वेलाव्यतिक्रान्तप्रतिनिवृत्तावपतितम् । जातं रामाभिमुखमनुरागोत्फुल्ललोचनं कपिसैन्यम् ।।] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये षष्ठ आश्वासः । कपिसैन्यं गृहीतशैलं स द्वेगेन रामाभिमुखं जातम् । रामसमुखे स्थितमित्यर्थः । अतः परमस्माभिः किं कर्तव्यमित्याशयात् । कीदक् । अकारप्रश्लेषाद्वेलामप्यतिक्रान्तं यथा स्यरत्तथा पर्वताहरणात्प्रतिनिवृत्तं सदवपतितम् । वेलायामवतीर्णमित्यर्थः । वस्तुतस्तु गृहीतशैलं सद्वेगेन वेलाव्य तिक्रान्तं वेलामप्यतिक्रम्य कियद्रे समुद्रोपरि गतम् । अथ तथाज्ञानात्प्रतिनिवृत्तं परावृत्तं सदवपतितं वेलायामेवेत्युन्नयामः । एवमनुरागोत्फुल्लनयनं साधितपर्वताहरणत्वादिति भावः ॥६६।। पर्वतोद्धारदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णा षष्टी शिखाभवत ॥ - - - - --- विमला-कपियों की सेना वेग के कारण समुद्रवेला को भी लाँघ कर समुद्र के ऊपर भी कुछ दूर चली गयी, तदनन्तर (वास्तविकता का ज्ञान होने पर) पर्वत लिए हुए वापस आयी एवम् अनुराग से उत्फुल्ल-नेत्र हो राम के सामने उपस्थित हुई ।।६६।। इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में षष्ठ आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। - - - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम आश्वासः अथ सेतूपक्रममाह-- अह ते विक्कमणिहसं दहवअण पावलवणगवन्धम् । आढत्ता विरएउं सासअरामजसलञ्छणं सेउवहम् ।।१।। [अथ ते विक्रमनिकषं दशवदनप्रतापलङ्घनाग्रस्कन्धम् । आरब्धा विरचयितुं शाश्वतरामयशोलाञ्छनं सेतुपथम् ।। ] अथ पर्वतानयनानन्तरं ते वानराः सेतुपथं विरचयितुमारब्धवन्तः। कीदृशम् । विक्रमस्य तेजोरूपत्वेन सुवर्णरूपस्य निकषं कषपाषाणम् । पाषाणमयत्वात् । यथा कषपरीक्षितं सुवर्णादि कुण्डला दिकर्मण्युपयुज्यते तथा सेतुपरीक्षितो वानरविक्रमो रावणवधादावुपयोक्ष्यत इत्याशयः । पुनः कीदृशम् । दशवदनप्रतापस्य यल्लङ्घनमतिक्रमस्तनाग्रस्कन्धमग्रेसरसैन्यरूपम् । सेतुसिद्धच व तल्लङ्घनं तस्मिन्नसति सेतुरेव न भवेदिति भावः । एवं शाश्वतं स्थिर रामयशसो लाञ्छनं चिह्नम् । तज्ज्ञापकत्वात् । अथ च श्वत्येन चन्द्ररूपस्य तस्य लाञ्छनं श्यामत्वादिति शुभ्रश्यामयोः संगत्या शोभाविशेष एवेति न हीनोपमा। एतावता रामयशसोऽतिव्यापकत्वमुक्तम् । सर्वत्र रूपकम् ॥१॥ विमला-पर्वतों के ले आने के अनन्तर व पियों ने सेतुपथ का निर्माण आरम्भ कर दिया । वह सेतुपथ कपियों के विक्रम की कसौटी था ( सेतुपथ का निर्माण कर लेने पर ही यह समझा जा सकता था कि वानरों का विक्रम रावण वध जैसे दुष्कर कार्य के लिए पर्याप्त है )। वह सेतुपथ रावण के प्रताप का अतिक्रमण करने में अग्रसैन्यरूप था एवं शाश्वत स्थिर रामयश का चिह्न (ज्ञापक) था ॥१॥ अथ सिन्धौ शैलक्षेपणमाहगरि अ महिअलधरिआ मुक्का उअहिम्मि वाण रेहि महिहरा । आइवराह एहिं व पलउव्वहण दलिआ महिअलद्धन्ता ॥२॥ [अनन्तरं च महीतलधृता मुक्ता उदधौ वानरैर्महीधराः । आदिवराहभुजैरिव प्रलयोद्वहनदलिता महीतलार्धान्ताः॥] आरम्भानन्तरं वानरैर्महीधरा उदधौ मुक्ताः क्षिप्ताश्च । कीदृशाः । महीतलेऽर्थात्तीरे धृताः कथं वा कुत्र क्षेप्तव्या इति विचारेण क्षणं स्थापिता विश्रामाय वा । दृष्टान्तमाह-चतुभजस्यादिवराहस्य भुजैः प्रलये यदुद्वहनमुद्धरणमर्थान्महीतलस्य Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २४५ तेन दलिता अकस्मात्त्रुटिता महीतलैकदेशा इव । यथा ते तैरुदधौ मुक्तास्तथैते. प्यमीभिरित्यर्थः । तथा च भूखण्डतौल्येन पर्वतानां महत्त्वमुक्तम् ।।२।। विमला-आरम्भ के अनन्तर कपियों ने तीरभूमि पर रक्खे हुए पर्वतों को समुद्र में उसी प्रकार डाल दिया जिस प्रकार आदिवराह के भुजों ने प्रलय में महीतल के उद्धरण से अकस्मात् टूटे हुए भूखण्ड को समुद्र में डाल दिया था ॥२।। अथ समुद्रस्यावस्थामाहणि वडन्तम्मि ण विट्ठो दूरोवइ अम्मि कम्पिओ गिरिणिवहे । खणपडिम्मि विलुलिओ अथमिअम्मि परिवढिओ सलिलणिही ।।३।। [निपतति न दृष्टो दूरादवपतिते कम्पितो गिरिनिवहे । क्षणपतिते विलुलितोऽस्तमिते परिवर्धितः सलिलनिधिः॥ ] सलिलनि धिगिरिनिवहे निपतति सति न दृष्ट: । छन्नत्वादिति गिरीणां महत्त्वं बहुत्वं चोक्तम् । दूरादवपतिते उपरितः संबद्धे सति कम्पितः । अभिहतत्वादिति दृढावयवत्वम् । क्षणं व्याप्य पतिते सति विलुलितः खण्डखण्डीभूतः । पर्वतैविदीर्णत्वात् । क्षणमेव पतितस्तदुत्तरं हठादेवास्तमितो गिरिनिवह इत्यर्थः । तदाहअस्तमिते जलाभ्यन्तरं गते सति परिवधित आक्रान्तपुलिनः । पर्वतपूरितजलत्वादिति गिरिसमुद्रयोरपि महत्त्वमुक्तम् ।।३।। विमला-पर्वतों के डालते समय उनसे समुद्र ऐसा आच्छन्न हो गया कि दीख नहीं पड़ता था। दूर ऊपर से गिरने के कारण ( अभिहत हो ) समुद्र काँप उठा, थोड़ी ही देर में पर्वतों के पतित होने पर विलुलित (खण्ड-खण्ड ) हो गया और जब पर्वत जल के भीतर चले गये तब समुद्र का जल बढ़ गया ॥३॥ अथ समुद्रस्य क्षोभमाहणिहउव्वत्तजलपरं कड़ढिकाणणभमन्तभमिरच्छङ्गम् । जाअं कलु सच्छाअं पढमुत्छलिाग महोमङ्सिलिलम् ।। ४ ।। [निहतोद्वृत्तजलचरं कृष्टकाननभ्रमभ्रमणशीलोत्सङ्गम् । जातं कलुषच्छायं प्रथमोच्छलितागतं महोदधिसलिलम् ।।] महोदधिसलिलं प्रथमं पर्वतपतनावसर एवोच्छलितं सदागतं महीमाप्लाव्य निवृतम् । अत एव कलुषच्छायं महीनिष्ठरजस्तृणादिसंबन्धादाविलं जातमित्यन्वयः । कीदृक् । निहता: पर्वतानामुच्छलितजलानां वाभिघाताद्गतप्राणा अत एवोद्वृत्ता दोशतोदरा जलचरा यत्र तथा। एवं पूर्वनिपातानियमात्कृष्ट कल्लोलाभिघातादाकृष्ट अथ च भ्रमद्धर्णमानं काननं यत्र एतादृशो भ्रमणशील आवर्तरूपतापन्न उत्सङ्गो यस्य तत् । आकृष्टकारण(नन)स्य भूमौ पाताभ्रमण मित्यर्थः । वस्तुतस्तु कृष्ट Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] सेतुबन्धम् [ सप्तम काननं सद्भ्रमदिशि दिशि गच्छच्च तद्भ्रमणशीलमध्यं चेति कर्मधारयः । तथा चावर्तशीलमध्यजलस्य कानन संबन्धाद्विशृङ्खलगतिकत्वेन भ्रमणमिति भावः । यद्वा ऊर्ध्वदेशावच्छेदेनोच्छलनं विवक्षितम् । तत्र गिरिवर्तमानकाननस्य कल्लोला भिघातादाकर्षणेन तन्मिश्रितगरिकादिसंबन्धात्कलुषच्छायमित्यर्थः ॥४॥ विमला-पर्वतों के पड़ने पर समुद्र का जल उछला और (पृथिवी को आप्लावित कर) पुनः समुद्र के भीतर आ गया। उस समय (कल्लोल के अभिघात से ) आकृष्ट कानन भ्रमण करने लगे, क्योंकि जल का भीतरो भाग आवर्त का रूप धारण कर चुका था एवम् ( आप्लावित मही के रज एबं तृण आदि को बहा लाने के कारण ) समुद्र का जल मटमैले रंग का हो गया था ।।४।। अथ समुद्रोपरि नभोभागमाह- .. सलिलत्थमिअमहिहरो पुणो वि अद्दिमिलिअगिरिसंघाओ। तह घडिप्रपवनो विम दोसइ बहसाअरन्तराल (सो।। ५ ।। [ सलिलास्तमितमहीधरः पुनरप्यदृष्टमिलितगिरिसंघातः । तथा घटितपर्वत इव दृश्यते नभसागरान्तरालोद्देशः ॥] सलिलरर्थात्प्रथमपाततपर्वताभिघातादूर्ध्वमुच्छलितैरस्तमिता अदृश्यतां नीताः समुद्रे पतन्ते महीधरा यत्र तादृशो नभःसागरयोरन्तरालप्रदेशस्तथा पूर्वप्रकारेण घटिता योजिता: पर्वता यत्र तथाभूत इव दृश्यते । अत्र हेतुमाह-पुनरप्यदृष्टमनाकलितं यथा स्यादेवं मिलितः स्वसंबद्धो वा गिरिसंघातो यत्र तथा। तथा च प्रथममुच्छलितजलेन पतत्पर्वतानां तिरोधानेऽप्यन्यैर्बहुभिरापतितस्तैस्तज्जलानामेव तिरोधानादधःपतनाद्वा पूर्वपर्वतघटित एव लक्षित इत्युत्प्रेक्षा ॥५॥ विमला-नभ और सागर के अन्तराल प्रदेश में (प्रथमपतित पर्वतों के अभिघात से उछले ) जल से महीधर अदृश्य हो गये, फिर भी अदृष्ट रूप में अन्य बहुत से पर्वतों के आ पड़ने से और उनके परस्पर संबद्ध हो जाने से जल का ही तिरोधान अथवा पतन हो गया और वह नभ तथा अन्तराल का प्रदेश पूर्वपर्वतों से ही योजित-सा दिखाई पड़ा ॥५॥ कपीनामारम्भोत्कर्षमाह जणि पडिवक्खभ तुलिआ सेला धुओ कईहिं समुद्दो। ण हु णवर हिअअसारा आरम्भा वि गरुआ महालक्खाणम् ॥ ६॥ [ जनितं प्रतिपक्षभयं तुलिताः शैला धुतः कपिभिः समुद्रः । न खलु केवलं हृदयसारा आरम्भा अपि गुरवो महालक्ष्याणाम् ॥] कपिभिः शैलास्तुलिता उत्पाट्यानीताः । अथ तत्क्षेपेण समुद्रो धुत आन्दोलितः । तत एव प्रतिपक्षाणां रावणादीनां भयं जनितमित्युत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्य Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २४७ हेतुत्वमिति हेतुपरम्परा । अर्थान्तरन्यासमाह - महल्लक्ष्यं लक्षणं येषां ते महालक्ष्या महापुरुषास्तेषां न खलु केवलं हृदयस्य सारा अभिप्राया एव गुरवः किं त्वारम्भा अपि गुरव एव । यस्मादारम्भादेवं प्रतिपक्षभयपर्यन्तं जातमित्यर्थः । महान्रावणप्रभृति लक्ष्य उद्देशो येषां तेषामिति वा । सारो बलमभिप्राय उत्साहो वा ॥१६॥ विमला — कपि पर्वत उखाड़ कर ले आये, उनके डालने से समुद्र कम्पित हो गया, अतएव शत्रु रावण को भय उत्पन्न हो गया । सच है — महान् लक्ष्य वालों का हृदयगत विचार ही नहीं, अपितु कार्यारम्भ भी गुरु ( महान् ) होता है ॥६॥ अथ समुद्रे गिरीणां मग्नतामाह जो दीसइ धरणिहरो णज्जइ एएण व त्ति समुद्दो | उअहिम्मि उण वडन्ता कत्थ गअ त्ति सलिले ण णज्जन्ति धरा ॥७॥ [ यो दृश्यते धरणीधरो ज्ञायते एतेन बद्ध इति समुद्रः । उदधौ पुनः पतन्तः कुत्र गता इति सलिले न ज्ञायन्ते धराः ॥ ] समुद्रानवच्छिन्न देशे यो धरणीधरो दृश्यते एतेनैव समुद्रो बद्ध इति ज्ञायते महत्त्वात् । उदधौ पुनः सलिले पतन्त एव धरा गिरयः कुत्र गता इति न ज्ञायन्ते । तथा च पूर्वार्धे बद्ध इति भूतक्तप्रत्यय महिम्ना बन्धन क्रियावश्यकत्वाद्धरणीधर इत्येकवचनेनैकस्यैव बन्धक्षमत्वमुक्तमत्र तु धरा इति बहुवचनेन तथाविधानामेव बहूनां सलिलपातसमकालमेवास्तमनात्समुद्रस्यातिविस्तारित्वं गभीरत्वं चोक्तम् ||७|| विमला - पर्वत इतने विशाल थे कि उनमें से कोई जो एक भी पर्वत दिखाई देता था, ऐसा समझ पड़ता था कि अकेला यही समुद्र पर सेतु बाँधने में समर्थ है, किन्तु वैसे-वैसे तमाम पर्वत समुद्र में पड़ने पर कहाँ चले गये, पता ही नहीं चलता था ॥७॥ अथ तिमीनां मुखे गिरीणां मज्जनमाह सअलमहिवेढविअंडो सिहर सहस्सप डरुद्ध रइरहमग्गो । इ तुङ्गो वि महिहरो तिमिङ्गिलस्स वनणे तणं व पणट्ठी ||८|| [ सकलमही वेष्ट विकटः शिखरसहस्रप्रतिरुद्ध रविरथमार्गः । इति तुङ्गोऽपि महीधरस्तिमिंगिलस्य वदने तृणमिव प्रनष्टः ॥ ] इत्यनेन प्रकारेण तुङ्गोऽपि महीधरस्तिमिंगिलस्य नक्रविशेषस्य स्वभावादेव व्यात्तमुखस्य मुखे तृणमिव प्रनष्टः । अदर्शनं गत इत्यर्थः । भक्ष्यबुद्धया व्यात्ते वा । कीदृक् । सकलमहीमण्डलवद्विकट इति विस्तृतत्वं शिखरसहस्र ेण प्रतिरुद्ध श्छन्नो Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] सेतुबन्धम् [ सप्तम रविरथमार्गो येनेति तुङ्गिमाधिक्यं चोक्तम् । 'पवित्थो' इति पाठे प्रविष्ट इत्यर्थः ।।८।। विमला-सकल भूमण्डल के तुल्य विकट तथा शिखर-सहस्र से सूर्य के रथमार्ग को भी अवरुद्ध कर देनेवाला ऊँचा पर्वत तिमिगिल के मुख में तृण के समान अदृष्ट हो गया ॥८॥ अथ रत्नानामुच्छलनमाहपवनसिहरुच्छित्तं धावइ जं जं जलं गहङ्गणहुत्तम् । तं तं रमणेहिं समं वीसइ णक्खत्तमण्डलं व पडन्तम् ।।६।। [पर्वतशिखरोत्क्षिप्त धावति यद्यज्जलं नभोङ्गणाभिमुखम् ।। तत्तद्रत्नैः समं दृश्यते नक्षत्रमण्डलमिव पतत् ॥] पर्वतशिखरेणाभिहत्या उत्क्षिप्तं यद्यज्जलं नभोङ्गणाभिमुखं सद्धावति । नभो. ङ्गणं व्याप्नोतीत्यर्थः। तत्तज्जलं मूलादुच्छलित रत्नैः समं पतद दृश्यते। रत्नानां जलबिन्दूनां च नक्षत्रतुल्याकारत्वान्नक्षत्रमण्डलमिवेत्युपमा । यथा नक्षत्रमण्डलं पततीत्यर्थः । तत्तदेव नक्षत्रमण्डलमित्युत्प्रेक्षा वा । एतेन समुद्रमूलक्षोभ उक्तः ॥६॥ विमला-समुद्र में डाले गये पर्वतशिखरों के अभिघात से रत्नों के सहित समुद्र का जो-जो जल आकाश में ऊपर उछल कर व्याप्त हो गया, वही-वही रत्नों के सहित नीचे गिरता हुआ ऐसा ज्ञात हुआ कि मानों नक्षत्रमण्डल ही गिर रहा था । अथ शैलानां पतनप्रकारमाहवाणरवेनाइद्धा पिहलवलन्तणिप्रओझरपरिक्खित्ता। अप्पत्त च्चिअ उहि भमन्ति प्रावत्तमण्डलेसु व सेला ॥१०॥ [ वानरवेगाविद्धाः पृथुलवलमाननिजनिर्झरपरिक्षिप्ताः । अप्राप्ता एवोदधिं भ्रमन्त्यावर्तमण्डलेष्विव शैलाः ॥] वानरैर्वेगेनाविद्धाः प्रेरिता: शैला उदधिमप्राप्ता एवावर्तमण्डलेष्वेव भ्रमन्ति । तथा च प्रेरणाविशेषवशाद गुरुद्रव्यस्वाभाव्येन च भ्रमन्तः सन्त: पतन्तीत्याशयः । तदाह-कीदृशाः। पृथुलैवलमानैर्वक्रीभूत निजनिर्झरैः परिक्षिप्ता वेष्टिताः । अत एव गिरिभ्रमणवशाच्चतुर्दिशं भ्रमित्वा पतत्सु निर्झरजलेष्वावर्तत्वमुत्प्रेक्षितम् ॥१०॥ विमला-वानरों ने इतने वेग से घुमाकर पर्वतों को समुद्र की ओर फेंका कि उनके घूमने से उनके निर्झर चक्कर काटने लगे और उनसे वेष्टित वे पर्वत मानों समुद्र तक विना पहुँचे ही भंवरों के मध्य घूम रहे थे ।।१०।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २४६ अय कपीनां कार्योद्योगमाहखणमेलिआपविद्धो सिहरन्तरणित्तरित्तवाणरलोओ। पच्छा पडइ सदुद्दे प्रणो मिलइ पढ मं हे गिरिणिवहो ॥११।। [क्षणमेलितापविद्धः शिखरान्तरनिर्यद्रिक्तवानरलोकः । पश्चात्पतति समुद्रेऽन्यो मिलति प्रथमं नभसि गिरिनिवहः ॥] क्षणं व्याप्य क्षणेनोत्सवेन वा प्रथमं मेलितो योजितः । संमुखीकृत इति यावत् । पश्चादपविद्धः प्रेरितो गिरिनिवहः समुद्रे पश्चात्पतति प्रथमं नभस्यन्तरालेऽन्यो गिरिनिवहो मिलति । तथा च पुरोनिक्षिप्तपर्वता यावत्समुद्रं न प्राप्नुवन्ति तावदेव पश्चादागच्छद्भिः कपिभिः स्वापकर्षशङ्कया तथा वेगः कृतस्तथा च निक्षिप्तः पर्वतो यथा तदुभयगिरिमिलनमन्तराल एव जातमिति कपीनां जिगीषा शीघ्रता च सूचिता। गिरिनिवहः कीदृक् । शिखरान्तरान्निर्यन्बहिर्गच्छन् रिक्तस्तत्पर्वतस्य क्षिप्तत्वेन वोढव्याभावाच्छून्यहस्तो वानरलोको यस्मात् । तथा च शिखरान्तरावस्थित्या कपीनामुत्फालसौकर्यार्थमाकारलाघवेऽपि स्वाधिक शैलोद्वहनेन बलप्रकर्ष उक्तः ॥११॥ विमला-वानर इतनी स्फति से काम कर रहे थे कि क्षण भर में एक पर्वत को सम्मुख किया और उठा कर फेंका। वह ऊपर से समुद्र तक पहुँचने भी नहीं पाया कि बीच में दूसरा पर्वत उससे मिल गया। ऐसा करते हुये भी वानर एक शिखर से दूसरे शिखर पर निर्गत एवं शून्यहस्त ही दिखायी दिये ॥११॥ समुद्रे गिरिप्रवेशमार्गमाह दीहा वलन्तविडा रसन्ति उवहिम्मि मारुअरिज्जन्ता । पाआलोअरगहिरा रहसोविद्धाण महिहराण गइवहा ॥१२॥ [दीर्घा वलद्विकटा रसन्त्युदधौ मारुतभ्रियमाणाः । पातालोदरगभीरा रभसापविद्धानां महोधराणां गतिपथाः ।।] रभसेन वेगेनापविद्धानां प्रेरितानां महीधराणामुदधौ गतिपथाः प्रवेशमार्गा रसन्ति शब्दायन्ते । किंभूताः । पातालोदरपर्यन्तं गभीरा: । एवं दीर्घा ऋज्वाकाराः । वलन्तो नितम्बशिख रवैषम्येण विषमीभूता विकटा विस्तीर्णाः । तथा मारुत: कंदरानिःसृतैभ्रियमाणा पूर्यमाणाः । तथा च तन्मार्गस्य शून्यत्वेन प्रविशज्जलानां पवनसंबन्धाच्छन्दोत्पत्तिस्थानत्वमिति भावः । एबं च तस्य दीर्घत्वेनावर्ताद्यनुत्क्षेप्यतया गिरीणां गुरुत्वं विषमत्वेन च हठाज्जलानतिक्रमणेन महत्त्वं सूचितम् ॥१२॥ विमला-वेग से प्रेरित महीधरों का, पाताल के भीतर तक गहरे, दीर्घ; विषम, विकट प्रवेशमार्ग ( कन्दरा से निःसृत ) मारुत से पूर्यमाण होने के कारण शब्दायमान थे ॥१२॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् २५० ] गिरीणां पतनसांकर्यमाहउक्त्तिविमुक्का णहम्मि एक्केक्कमावडण भिण्णाई । वज्जभउब्विण्णाई व पडन्ति रश्रणाअरे गिरिसहस्साइं ॥ १३॥ नभस्येकैकक्रमावपतनभिन्नानि । [ उत्क्षिप्तविमुक्तानि वज्रभयोद्विग्नानीव पतन्ति रत्नाकरे गिरिसहस्राणि ॥ ] उत्क्षिप्तान्यूर्ध्वं नीतानि सन्ति विमुक्तान्यधः क्षिप्तानि गिरिसहस्राणि रत्नाकरे पतन्ति । कीदृशानि । नभस्येकैकक्रमेण यदवपतनं तेन भिन्नानि । परस्परसंघट्टेन विशीर्णानीत्यर्थः । अत एवोत्प्रेक्षते -- वज्रभयेनोद्विग्नानीव । भीता: संगोपनस्थलमेकदैव प्रविशन्तीति पूर्वं मैनाकादयो वज्रभयाद्यथैव प्रविष्टास्तथैव संप्रत्येते ऽपीत्याशयः ॥ १३ ॥ बिमला - वानरों ने सहस्रों पर्वतों को एक साथ ऊपर फेंका, नीचे आते हुये वे आकाश में टकरा कर विशीर्ण हो गये और मानों वे वज्र के भय से उद्विग्न हो एक साथ ही समुद्र में ( छिपने के लिये ) गिर रहे हों ।। १३ ।। गिरिपतने सत्वरतामाह भिण्णसिलाअलसिहरा मिश्र अदुमोसरि अकुसुमर अधूसरिआ । पढमं पडन्ति सेला पच्छा वाउद्धप्रा महाणइसोत्ता ॥ १४ ॥ [ भिन्नशिलातलशिखराणि निजक मापसरत्कुसुमरजोधू सरिताः । प्रथमं पतन्ति शैलाः पश्चाद्वातोद्धूतानि महानदीस्रोतांसि ॥ ] भिन्नानि विशीर्णानि शिलातलानि यत्र तादृशानि शिखराणि येषां ते शैलाः प्रथमं गुरुत्वात्समुद्रे पतन्ति पश्चात्कंदरोद्गतेन कपिवेगोत्थितेन वा वातेनोद्भूतानि महानदीस्रोतांसि पतन्ति । तथा च शिलातलदलनाद्विच्छिद्य पतदपि नदीजलं वातोद्धूतत्वात्पश्वादेव पततीति भावः । शैलाः कीदृशाः । निजकद्रुमेभ्योऽपरारद्भिः कुसुमरजोभिर्धूसरिताः || १४ || [ सप्तम विमला - ( गिरते हुये ) गयीं तथा पर्वत अपने वृक्षों से समुद्र में पहिले गिरे तथा ( शिलाओं के विशीर्ण होने से हुआ भी ) नदियों का जल ( कपिवेगजन्य ) वायु से पर्वतों के पश्चात् ही गिरा || १४ || पर्वतों के शिखरों की झड़ते हुये कुसुमरज से शिलायें छिन्न-भिन्न हो धूसरित हो गये । वे पर्वत विच्छिन्न होकर गिरता दूर उड़ जाने के कारण जलपतितानां गिरीणां कपिभिर्देर्शनमाह- 1 णिम्मलसलिलब्भन्तरविहत्तदी सन्त विसमगइसंचारा णस्सन्ति निञ्चल ठिप्रपवंगमालोइआ चिरेण महिहरा ||१५|| Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २५१ [ निर्मलसलिलाभ्यन्तरविभक्त दृश्यमान विषमगति संचाराः । नश्यन्ति निश्चलस्थित प्लवंगमालोकिताश्चिरेण महीधराः ॥ ] महीधराश्विरेण नश्यन्ति जलान्तरितत्वेनादृश्या भवन्ति । अत्र प्रकारमाह-निर्मलं स्वच्छं यत्सलिलं तदभ्यन्तरे विभक्ताः पृथग्भूता विभक्तं यथा स्यादिति वा दृश्यमाना विषमा नानापर्वतपतनोत्थापितजलावर्तवशात्तिर्यग्वलिता गतिः प्रकारो यस्य तथाभूतः संचारो भ्रमणरूपो येषां ते । जले निक्षिप्तं गुरुद्रव्यमावर्ते पतद्भ्रमदेवाधो गच्छतीत्याशयः । अत एव कौतुकेन पर्वताः कुत्र गच्छन्ति किं वा भवेदिति चिन्तया वा तीरे निश्चल स्थितैः प्लवंगमैरालोकिताः । जलनैर्मल्यादिति भावः । गतिविधाप्रकारास्तुल्यार्थाः । संचर्यतेऽनेनेति संचारो वर्त्म । तथाच विषमा गतिभ्रमणरूपा तस्या वर्त्म येषामिति वा ।। १५ ।। विमला - जिस समय पर्वत जल में डूब रहे थे उस समय बड़ी देर में वे ( जलान्तरित होने के कारण ) अदृश्य होते थे, क्योंकि समुद्र का सलिल इतना निर्मल था कि उसके भीतर चक्कर काटते हुये पर्वतों का नीचे जाना स्पष्ट दिखायी दे रहा था । इस दृश्य को सभी वानर निश्चल स्थित हो ( कौतुकवश ). देख रहे थे ।।१५।। अथ मूलरत्नक्षोभमाह फेणकुसुमन्तरुत्तिष्णकेसराआरवेविरमऊ हाई 1 सूएन्ति पवत्ताई मूलुक्खुहिअं महोर्ब्राह रअणाई ॥ १६ ॥ [ फेनकुसुमान्तरोत्तीर्णं केसराकारवेपनशीलमयूखानि 1 सूचयन्ति प्लवमानानि मूलोत्क्षुभितं महोदधि रत्नानि ॥ ] प्लवमानानि जलोपरि संचारीणि रत्नानि मूलादुत्क्षुभितं महोदधि सूचयति कथयन्ति । उपरिगतरत्नैरनुमीयते समुद्रमूले पर्वताघातो वृत्त इति भावः । किंभूतानि । फेनरूपाणां कुसुमानामन्तरेण मध्येनोत्तीर्णा उद्गताः केसराकारा वेपन - शीला: फेनगत्या चञ्चला मयूखा येषां तानि । अन्यत्रापि कुसुमे केसराणि तिष्ठन्तीत्याशयः ॥ १६॥ विमला - जल के ऊपर तैरते हुये रत्न इस बात की सूचना दे रहे थे कि मूलभाग से ( ऊपर तक ) समुद्र क्षुब्ध हो गया था । उन रत्नों की किरणें फेन रूप कुसुम के मध्य भाग से उद्गत केसरसदृश ( फेन के चलने से ) चञ्चल हो रही थीं ।। १६ ।। पुनः समुद्रक्षोभमाह - fagus वेलं व मह भिन्दइ समअं व धरणिधरसंघाअम् । ह भ व गणं मुअइ सहाअं व सामरो पाआलम् ॥१७॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] सेतुबन्धम् [ सप्तम [विधुनोति वेलामिव महीं भिनत्ति समयमिव धरणीधरसंघातम् । गृह्णाति भयमिव गगनं मुञ्चति स्वभावमिव सागरः पातालम् ।।] सागरो वेलामिव महीं विधुनोति । यथा जलं कम्पय ति तथा जलक्षोभान्महोमपीत्यर्थः । अक्षोभ्यत्वात्साम्यम् । एवं समयं वेलालङ्कनं न कर्तव्यमिति व्यवस्थामिव धरणीधरसमूहं भिनत्ति खण्ड यति । अभेद्यत्वात्साम्यम् । तथा च वेलामपि लङ्घते परस्पराभिघातात्पर्वतानपि विशीर्णयतीत्यर्थः । एवं यथा भयं गृह्णाति तथा गगनमपि कल्लोलद्वारेत्यर्थः । अग्राह्यत्वात्साम्यम् । एवं यथा स्वभावं प्रकृतिमक्षोभ्यत्वादिकां मुञ्चति क्षुभ्यति तथा पातालमपि । शैलाघातेनोच्छालनादित्यर्थः । गभीरत्वात्साम्यम् । सर्वत्र सहोपमा । 'वेला तत्तीरनीरयोः' इति कोषः ।।१७॥ विमला-सागर वेला के साथ ही प्रथिवी को भी कम्पित कर रहा था, 'वेला का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये'--इस व्यवस्था का भेदन करने के साथ ही पर्वतसमूह का भी भेदन कर रहा था, भयग्रहण के साथ ही ( कल्लोल द्वारा) गगन को भी ग्रहण कर रहा था तथा स्वभाव-मोचन के साथ ही पाताल का भी परित्याग कर रहा था ।।१७।। पुनः पर्बतपतन प्रकारमाह पल्हत्यन्ति वलन्ता चलविडवन्तरणि प्रत्ततरुपारोहा । मूलण्णामिलजलआ अहोमुहन्दोलि प्रोज्झरा धरणिहरा ॥१८॥ [पर्यस्यन्ति वलमानाश्चलविटपान्तरनिवृत्ततरुप्ररोहाः । मूलोन्नामितजलदा अधोमुखान्दोलितनिर्झरा धरणिधराः ।।] धरणिधरा वलमाना अधोमुखत्वेन वक्रीभवन्तः सन्तः पर्यस्यन्तीतस्ततः पतन्ति । किंभूताः । चञ्चला या शाखा तदन्तरेण तन्मध्येन निवृत्ता लम्बमानास्तरूणां प्ररोहाः शिफा यत्र ते। तरूणामप्यधोमुखत्वेन शिफा अप्यधोमुखा भवन्तीत्यर्थः । एवं मूलेनोन्नामिता ऊर्ध्व मुत्थापिता जलदा येभ्यस्ते । नितम्बानामूर्ध्वगतत्वेनाधोमुखशिखरस्थिता मेघा मूलभागेनैव गगनं गच्छन्तीत्यर्थः । एवमधोमुखा: सन्त आन्दोलिताश्चालिता निर्झरा येषां ते । तथा च निर्झराणामान्दोलनमात्रं न तु व्यवच्छिद्य पतनम् । पर्वतानामेव तदभ्यन्तरे पतनादित्यमीषां गुरुत्वेन महत्त्वमुक्तम् ।।१८।। विमला-पर्वत अधोमुख अतएव वक्र होकर जल में इधर-उधर गिर रहे थे। पर्वतों के अधोमुख होने से चञ्चल शाखा के मध्यभाग से लटकी हुई बृक्षों की टहनियाँ भी अधोमुख थीं। (पर्वतों का नितम्बभाग ऊपर होने के कारण अधोमुख शिखर पर स्थित) बादल मूलभाग से ही आकाश को जा रहे थे । निर्झर भी अधोमुख हो आन्दोलित हो रहे थे ( पर्बतों के भीतर ही गिरने से वे छिन्न-भिन्न होकर गिरे नहीं, केवल आन्दोलित ही रहे ) ॥१८॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२५३ अथोच्छलितजलान्धकारमाह अट्टि अपडन्तम हिहरदूरठियजल रअन्धारथमिए । साहइ णवर पडन्ते पक्खुहिअसमुद्दपडिरओ धरणिहरे ।।१६॥ [ अस्थितपतन्महीधरदूरोत्थितजलरयान्धकारास्तमितान् । शास्ति केवलं पततः प्रक्षुभितसमुद्रप्रतिरवो धरणिधरान ।।] प्रक्षुभितस्य समुद्रस्य प्रतिरवः केवलं धरणिधरान्पततः शास्ति कथयति । किंभूतान् । अस्थितमव्यवस्थितं पतन्तो ये महीधरास्तैर्हेतुभूतैर्दूरं व्याप्योथितानां जलानां रयेण वेगेन सूर्यस्य च्छन्नतया योऽन्धकारस्तेनास्तमितान् तिरोहितान् । पर्वतानामव्यवस्थितपतने जलोपरि जलोत्थितावन्धकारापर्यवसानेन चाक्षुषज्ञानाभावे समुद्रक्षोभशब्दप्रतिरबैः पर्बता: पतन्तीति परमनुमीयत इति पर्वतपतन'शब्दापेक्षया समुद्रक्षोभशब्दो महानिति समुद्रस्य महाशयत्वमुक्तम् । पर्वतपतनेन समुद्रक्षोभस्तेन तटाभिघातादिस्तेन शब्दस्तेन प्रतिशब्दस्तेन शैलानां पतनमहत्त्वयोरनुमितिस्तया च कपीनां बलवत्त्वानुमितिरिति हेतुपरम्परालंकारो वस्तुना व्यज्यते ॥१६॥ विमला-अव्यवस्थित ढंग से गिरते हुये पर्वतों से, ऊपर दूर तक उठे जल के वेग द्वारा ( सूर्य के ढक जाने से ) उत्पन्न अन्धकार में पर्बत तिरोहित थे । उनके गिरने का अनुमान केवल अत्यन्त क्षुब्ध समुद्र की प्रतिध्वनि से ही हो पाता था ॥१६॥ कपीनामवधानमाहदरधो केसरसडा पाआलुम्हगिरिधाउकद्दमि अमुहा । पडिसक्कन्ति पवंगा पल्हत्थिनमाहिहरूससन्तवखन्धा ।।२०।। [ दरधौतकेसरसटाः पातालोष्मगिरिधातुकर्दमितमुखाः । परिवर्तन्ते प्लवंगाः पर्यस्तमहीधरोच्छ्वसत्स्कन्धाः ।। ] प्लवगा: परिवर्तन्ते । समुद्रे पर्वतान्निक्षिप्य तदुच्छलितजलपातशङ्कया पश्चादा. यान्तीत्यर्थः। कीदशा: । दरधौता उच्छलितजलस्पृष्टाः केसरसटा येषां ते । एवं पातालोष्मणा गिरिधातुभिः कर्दमितानि मुखानि येषाम् । समुद्रजलद्विधाभावेनोत्थितपातालोष्मसंबन्धात्स्वेदोद्गमेन पूर्बलग्न गिरिधातूनां कर्दमीभावादिति भावः । तथा च पश्चादपसरणेऽप्युच्छलितजलसंपर्कणोष्मसंबन्धेन च पर्वताभिघातप्रकर्ष उक्तः । कर्दमोद्गमेन च स्वेदप्रकर्षस्तेनोठमोद्गमप्रकर्षस्तेन जलभेदप्रकर्षस्तेनाभिघातोत्कर्षस्तेन पतनवेगोत्कर्षस्तेन पर्बतोत्कर्षस्तेन कपीनां बलोत्कर्षोऽनुमीयत इत्यनुमानपरम्परा। पुनः कीदृशाः । पर्यस्तैरवतारितर्महीधरै हेतु भिरुच्छ्वसन्तः स्कन्धा येषां ते ॥२०॥ विमला-वानर ( समुद्र में पर्वतों को फेंककर ) तुरन्त पीछे चले आते थे ( जिससे समुद्र के उछले जल से भीग न सके) तथापि उनके गर्दन के बाल Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] सेतुबन्धम् [ सप्तम कुछ न कुछ भीग ही जाते थे। पर्बतों के फेंक देने से उनके कन्धे अब विश्राम पा गये थे तथा पर्वतों को ढोते समय जो उनके मुख में गेरू आदि लग गये थे वे पाताल से निकली हुई गर्मी से हुये स्वेद से कर्दम बन गये थे ।॥२०॥ पुनः पर्वतपतनमाहविप्रलन्तोज्झरलहुआ पवण विहुव्वन्तपाअवुद्धपइण्णा । पवहि उद्ध मुक्का सिहरेहि पडन्ति सा प्ररम्हि महिहरा ॥२१॥ [ विगलन्निर्झरलघुकाः पवनविधूयमानपादपोर्ध्वप्रकीर्णाः । प्लवगैरूवमुक्ताः शिखरैः पतन्ति सागरे महीधराः ।।] प्लवगैरून्निभसो मुक्ता महीधरा अधोमुखत्वेन विगद्भिनिरैर्लघुका अपि सागरे शिखरभागैः पतन्ति । अत्र हेतुमाह--पवनैरन्त रिक्षचारिभिविध यमानपादपत्वादून मस्तकेन प्रकीर्णा विक्षिप्ताः । तथा च शिरोवर्तिवृक्षाणामप्रत्यूहपवनान्दोलनवशादासादितशिरोगुरुत्वात्तद्भागेनैव पतन्तीत्यर्थः ॥२१॥ विमला-वानरों द्वारा ऊपर से छोड़े गये पर्वत झरनों के विगलित होने से हल्के होकर भी शिखरों के बल ही सागर में गिरते थे, क्योंकि पवन-कम्पित बृक्षों से उनका शिरोभाग तब भी भारी ही रहता था और उसी के बल गिरना स्वाभाविक था ॥२१॥ गिरिमज्जनमार्गमाह अस्थमिप्रसेलमग्गा भिण्णणि प्रत्तन्तसलिलपुजिग्रकुसुमा। होन्ति हरिपालकविला दाणसुअन्धुप्पवन्तगअदुमभङ्गा ॥२२॥ [ अस्तमितशैलमार्गा भिन्ननिवर्तमानसलिलपुञ्जितकुसुमाः । भवन्ति हरितालकपिला दानसुगन्ध्युत्प्लवमाना गजद्रुमभङ्गाः ॥ ] अस्तमितानां जलमग्नानां शैलानां मार्गा भवन्ति । कीदृशाः । प्रथमं पर्वताभिघाताद्भिन्नाभ्यां द्विधाभूताभ्यामथ निवर्तमानाभ्यां सलिलाभ्यां पुजितानि राशीकृतानि कुसुमानि यत्र तथा। गिरिवृक्षकुसुमानि तत्र तत्र पर्यस्तानि भिन्नसलिलभागद्वयपरावृत्त्या वर्तुलीक्रियन्त इत्यर्थः । एवं च हरितालः कपिलाः। तेषामपि सलिले संपृक्तत्वात् । एवं दानेन मदजलेन सुगन्धयः सन्त उत्प्लवमाना उपरि घूर्ण माना गजद्रुमभङ्गा गजभग्नद्रुमखण्डा यत्र । यद्वा गजद्रुमो नागवृक्षस्तस्य खण्डा यत्र ते । तथा च पद्धतिरपि गिरीणामनुमेयवेति समुद्रस्य महत्त्वमुक्तम् । महतामस्तमनेऽपि चिह्न नापगच्छतीति सत्कर्मैव कर्तव्यमिति ध्वनिः ।।२२।। विमला-प्रथम ( पर्वतों के अभिघात से ) जल दो भागों में विभक्त हो गया, जिससे पर्वतों के वृक्ष कुसुम चारों ओर बिखर गये किन्तु पुनः उसी जल के लौटने से वे वृक्षकुसुम जलमग्न पर्वतों के मार्ग में पुनः सञ्चित हो गये। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२५५ हरिताल के जल में मिश्रित हो जाने से पर्बतों का वह मार्ग कपिल (भूरा) हो गया तथा गजों द्वारा भग्न किये गये अतएव मदजल से सुगन्धित वृक्ष उस मार्ग में ऊपर तैरने लगे ।।२२।। अथ वनमहिषाणामवस्थामाह अत्था अन्ति सरोसा सलिलदरस्थमि असेलसिहरावडिआ। एक्कावत्तवलन्ता धुवातम्बलोअणा वणमहिसा ॥२३॥ [ अस्तायन्ते सरोषाः सलिलदरास्तमितशैलशिखरापतिताः । एकावर्तवलमाना धुताताम्रलोचना वनमहिषाः ।।] वनमहिषा एकस्मिन्नावर्ते वलमाना भ्रमन्तः सन्तोऽस्तायन्ते । मज्जन्तीत्यर्थः । कीदशा। सलिले किंचिदस्तमितानां शैलानां शिखरादवपतिताः। गिरी मज्जति मग्नः स्यामिति क्वचिदन्यत्र गन्तुमवतीर्णा अथावर्ते निमग्ना इत्यर्थः। अत एव प्रतिकर्तुमक्षमतया सरोषास्तत एव धूयमाने इतस्ततः प्रेर्यमाणे आताम्र लोचने यस्ते । धाव्यमाने क्षाल्यमाने लोचने येषामिति वा ॥२३॥ विमला-वनमहिष ( डूबने से बचने के लिये ) किंचित् जलनिमग्न शैल के शिखर से उतर आये किन्तु एक भँवर में पड़ कर चक्कर काटने लगे तथा कुछ कर न पाने के कारण सरोष एवं रक्तनेत्र वे जल में डूब गये ॥२३।। मृगानाहभिष्णमिलिपि भिज्जइ पुणो वि एक्कक्कमावलोअणसुहिनम् । सेलत्थमणणउण्गप्रतरङ्गहीरन्तकारं हरिणउलम् ॥२४॥ [भिन्नमीलितमपि भिद्यते पुरप्येकैकक्रमावलोकनसुखितम् । शैलास्तमननतोन्नततरङ्गह्रियमाणकातरं हरिणकुलम् ॥ ] शैलानामस्तमनेन नतोन्नता ये तरङ्गास्तह्रियमाणां शैलेभ्य आच्छिद्यमानमत एव कातरं जीवितसदयं हरिणकुलं भिन्नं सन्मीलितमपि भिद्यते । गिरिमज्जनोत्थतरङ्गभ्राम्यमाणा हरिणा मिथो भिद्यन्ते । पुनर्मिलन्ति पुनरपि भिद्यन्ते जलवेगवशादित्यर्थः । कीदृक् । पुनरपि परस्परावलोकनेन सुखितम् । तद्दशायामपि बन्धुदर्शनं बहु मन्यत इति भावः ।।२४।। विमला-पर्वतों के निमग्न होने से नीची-ऊंची लहरों से ह्रियमाण अतएव कातर मृगवृन्द जो परस्पर अवलोकन से उस दशा में भी सुखित था, बार-बार मिलता और बार-बार तितर-बितर हो जाता था ॥२४॥ सिंहानाह दाढाविभिण्णकुम्भा करिम मराण थिरहत्थकड्ढिज्जन्ता । मोत्तागभिगसोणि अभरेन्तमुहकंदरा रसन्ति मिइन्दा ॥२५॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] सेतुबन्धम् [ सप्तम [ दंष्ट्राविभिन्नकुम्भाः करिमकराणां स्थिरहस्तकृष्यमाणाः। . मुक्ताभितशोणितभ्रियमाणमुखकंदरा रसन्ति मृगेन्द्राः ॥] दंष्ट्राभिभिन्नौ कुम्भौ यैः । करिमकराणामित्यर्थात् । ते मृगेन्द्रा रसन्ति । किंभूताः । करिमक राणां जलहस्तिनां स्थिरैर्हस्तैः शुण्डाभिः कृष्यमाणाः । एवं कुम्भस्थमुक्तागभित : शोणितभ्रियमाणा मुखकंदरा येषां ते । कुम्भयोः कृतकवला गिरिसिंहाः स्वभूमिबलिभिजलहस्तिभिः शुण्डाभिराकृष्यमाणाः प्रतिकर्तुमक्षमतया मांसकवलमत्यजन्त एव शब्दायन्त इत्यर्थः । परभूमौ विक्रमो न कर्तव्य इति ध्वनिः ।।२५।। विमला-दंष्ट्रा से जलहस्तियों के कुम्भस्थल विदीर्ण करने वाले अतएव ( कुम्भस्थ ) मुक्ताओं से गभित शोणित से भरे हुये मुख वाले सिंह, जलहस्तियों से दृढ़ सूंड द्वारा खींचे जाने पर चिल्ला रहे थे ॥२५॥ वनगजनाहउव्वति प्रकरिमअरा पडन्ति पडिअगिरिसंभमुम्भडरोसा । ओवइअमरणिद्दअल प्रगत्तावर विसण्ठला माअङ्गा ॥२६॥ [ उर्तितकरिमकराः पतन्ति पतितगिरिसंभ्रमोद्भटरोषाः । अवपतितमकरनिर्दयलूनगात्रावरविसंष्ठुला मातङ्गाः ॥] मातङ्गा वनहस्तिनः पतन्ति म्रियन्ते । किंभूताः। पतितेन गिरिणा हेतुभूतेन यः संभ्रम उद्वेगस्तेनोद्भटो रोषो येषां तथाभूताः सन्त उर्तिता उत्तानीकृताः करिमकरा यैस्ते । एवमवपतितैबनजन्तुज्ञानादन्यत आगतैर्मकरैनिर्दयं यथा स्यादेवं लूने गात्रावरे येषां ते । अत एव विसंष्ठुला इति कर्मधारयः । तथा च वनहस्तिनो लब्धजलगजगन्धा गिरिपातजातरोषत्वेनावप्लुत्य जलहस्तिनः पातयामासुः । अथ मकरान्तरैरागत्य छिन्नजङ्घापूर्वपश्चाद्देशा निपेतुरित्यविमृश्यकारिता न कर्तव्येति ध्वनिः । 'द्वौ पूर्व पश्चाज्जङ्घादिदेशी गावावरे क्रमात्' इत्यमरः ।।२६।। विमला-वनगजों ने पर्वतों के गिरने से उत्पन्न उद्वेग के कारण अत्यन्त क्रुद्ध हो जलहस्तियों को मार कर उत्तान कर दिया । इसी बीच में मगरों ने उन पर आक्रमण कर उनकी जाँघों के आगे-पीछे वाले भाग को निर्दयतापूर्वक छिन्न-भिन्न कर दिया और वे छटपटाते हुये प्राण-विहीन हो गये ।।२६।। समुद्रवीचीमाहविहुलपवालकिसलों सेलदरथमिअदरिम हवलन्तीहि । आवेढपहुप्पन्तं वीईहिं दुमेसु वणलाहिं व भमिग्रम् ॥२७॥ [विधुतप्रवालकिसलयं शैलदरास्तमितदरीमुखवलमानाभिः । आवेष्टप्रभवद्वीचिभिर्द्र मेषु वनलताभिरिव भ्रमितम् ।।] Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [२५७ द्रुमेषु वीचिभिर्वनलताभिरिव भ्रमितमावर्तनं कृतम् । आवेष्टो वृक्षाणां मण्डलीकरणं तत्र प्रभवत्समर्थं यथा स्यादेवम् । एवं वीचीपक्षे विधुतं कम्पितं प्रवालानां किसलयं यत्र तद्यथा स्यात् तथा च वीचीविक्षोभे विद्रुमक्षोभोऽप्यभूदित्यर्थः । लतापक्षे प्रवालवत्किसलयं यत्र तद्यथा स्यादिति । लतासंचारे किसलयसंचार इत्यर्थः । यद्वा विधुतं प्रवालरूप किसलयं यथा स्यादिति । पूर्वत्र विद्रुमः परत्र नवदलमित्यर्थः । किभूताभिर्वी चिभिर्लताभिर्वा । शैलेषु दरास्तमितानि यानि दरीमुखानि तत्र वलमानाभिर्भ्रमन्तीभिः । अयमर्थः -- शैले मज्जति किंचिद्दरीमुखमज्जने तद्व ना समुद्रजलानि प्रवालकम्पनपूर्वं प्रविश्य तत्रत्यवृक्षमावेष्टयामासुस्तत्संस्कारक्रमेण तत्रत्यलता अपि नवदल कम्पनपूर्वं तमेवेति सहोपमा । तथा च द्रुमेषु यथा लताभिर्भ्रमितं तथा वीचीभिरपीत्यर्थः । वीचीवनलतयोवृक्षेण समं नायकनायिकावृत्तान्तः समासोक्तिलभ्यः । तत्रावेष्टः परिरम्भणम् । तदापि किसलयप्रायकरकम्पनमुखवलन भ्रमणादिचेष्टापूर्वकमेव भवतीत्यर्थः ॥ २७ ॥ विमला —-पर्वतों की कन्दरायें जल में किंचित् डूबी हीं थीं कि उनके भीतर समुद्र की वीचियाँ प्रवाल ( विद्रुम ) रूप किसलय के कम्पन के साथ प्रविष्ट होकर कन्दरागत वृक्षों को आवेष्टित कर चक्कर काट साथ ही उसी प्रकार वनलतायें भी नवदल कम्पनपूर्वक चक्कर काट रही थीं ॥ २७ ॥ अथ पातालोद्घाटनमाह गिरिणिवहेहि रसन्तं उक्तम्मन्तेहि णिवडिएहि अ समयम् । धरणीश्र सारस्स प्र उग्घाडिज्जइ णिरन्तरं पाआलम् ||२८| [ गिरिनिवहै रसदुत्खायमानैर्निपतितैश्च समम् । धरण्याः सागरस्य च उद्घाटयते निरन्तरं पातालम् ॥ ] रही थीं, अतएव उनके वृक्षों को आवेष्टितः कर गिरिनिव है रुत्खायमानैरुत्पाटयमानैः सद्भिर्धरण्याः सागरे निपतितैः सद्भिः सागरस्य च पातालं सममेकदैवोद्घाटयते व्यक्तीक्रियते । प्रथमे पातालपर्यन्तव्यापनागिरिमूलस्य महत्त्वं द्वितीये जलस्यामुलोच्छलनात्प्रहास्य दृढत्वं समोद्घाटनादु पाटनपातनयोस्तुल्यकालत्वेन कपीनां वेगबलाधिक्यं च सूक्तिम् । निरन्तरमित्यन्यकृतव्यवधानशून्यमिति पाताल विशेषणम् । वारंवारमिति क्रियाविशेषणम् । रसच्छब्दायमानमित्युभयथापि पातालविशेषणम् । यद्वा सममुत्खायमानैर्निपतितैः समुद्घाटयत इति सर्वत्र क्रियाविशेषणम् । तेन कार्यकारणयोवः पौर्वापर्य व्यतिक्रम इति सर्वथा शीघ्रकारित्वमायातीति भावः ।। २८ ।। . विमला - उखाड़े गये और उसी समय एक साथ धरणी से समुद्र में डाले गये पर्वत, शब्दायमान पाताल को निरन्तर उद्घाटित कर रहे थे (क्योंकि पाताल १७ से० ब० Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] सेतुबन्धम् [ सप्तम व्यापी मूल वाले पर्वतों को उखाड़ने पर पाताल उद्घाटित हुआ और उधर तुरन्त समुद्र में फेंकने पर उसका जल आमूल उछल गया एवं वहाँ भी पाताल उद्घाटित हुआ ) ॥२६॥ प्रकारान्तरेण गिरिपतनमाह वे आविद्धवलन्ता मुहलवलन्तोज्झरावलिपरिविवत्ता। संवेल्लिअघणणिवहा वलि पल यालिङ्गिा पडन्ति महिरा: २६॥ [ वेगाविद्धवलन्तो मुखरवलन्निर्झरावलिपरिक्षिप्ताः । संवेल्लितघननिवहा वलितलतालिङ्गिताः पतन्ति महीधराः ॥ ] महीधराः पतन्ति । समुद्र इत्यर्थात् । किंभूताः । वेगेनाविद्धा: प्रेरिता अत एव वलन्तो भ्रमन्तः । अत एव मुखरं सशब्दं यथा स्यादेवं वलन्तीभिभ्रंमन्तीभिनिझरावलिभिः परिक्षिप्ता वेष्टिताः । यथा यथा गिरिभ्रमणं तथा तथा भ्रमन्तीनां निर्झरावलीनां परितः पतन मित्यर्थः । एवं संवेल्लिताश्चञ्चलीभूता घन निवहा येषु ते । तभ्रमणेन' घनानामपि भ्रमणात् । एवं वलिताभिर्वक्रीभूताभिलताभिरालिङ्गिताः । भ्रमित्वा वेष्टिता इत्यर्थः । अत्र गिरीणां भ्रमणे हेतुः प्रहारापकर्षस्तत्कारणं गिरीणां गौरवाधिक्यं वा कपीनामुत्कृष्टवेगवत्त्वं वा दूरात्क्षिप्तमधश्चिरेण गच्छतथाविधसंस्कारविरहाभ्रंमतीति दूराकाशादवपातनं वा सूचितम् ।।२।। विमला-पर्वत वानरों के द्वारा इतने वेग से फेंके जाते थे कि वे चक्कर काटते हुये, समुद्र में गिरते थे अतएव शब्द करती एवं चक्कर काटती निर्झरावलियों से वे परिवेष्टित हो रहे थे। उन पर स्थित मेघसमूह भी चञ्चल हो रहा था और लतायें चक्कर काटती हुई उन (पर्वतों ) को मालिङ्गित कर रही थीं ।।२६।। कपीनां क्रियाशघ्रघमाहएक्कक्कमावडता गिअअभप्रक्खमिण्णसेलद्धन्ता । णिन्ति धुअकेसरसडा गअणुच्छलि असलिलोत्था कइणिवहा ।।३०॥ [ एकैकक्रमापतन्तो निजकभुजक्षेपभिन्नशैलार्धान्ताः । निर्यन्ति धुतकेसरसटा गगनोच्छलितसलिलावस्तृताः कपिनिवहाः ।।] एकैक क्रमेण परस्परेणापतन्तः समुचितस्थाने पर्वतक्षेपणाय समुद्रोपर्याकाशदेशं गच्छन्तः कपिनिवहा निर्यन्ति । पर्वतान्क्षिप्त्वा तीरमायान्तीत्यर्थः । इति शीघ्रकारित्वमुक्तम् । कीदृशाः । निजक भुजाभ्यां यः क्षेपस्त्यागस्तेन भिन्नस्त्रोटितः शैलार्धान्तो यैरिति गिरीणां विकटाकारत्वं कपीनां बलबत्त्वम् । पुनर्गगनोच्छलितः सलिलैरवस्तृता व्याप्ता इति बहिर्गमनेऽपि सलिलसेकात्पर्वतप्रकर्षः । अतएवो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २५६ परिपतितजल वर्जनाय धुताः कम्पिताः केसरसटा यैस्ते । तथा च राजकार्यमात्मो पद्रवेऽपि कर्तव्यमिति ध्वनिः ॥३०॥ विमला - वानर एक-एक क्रम से समुद्र में समुचित स्थान पर पर्वतों को फेंकने के लिए) आकाश में चले जाते और वहाँ से अपनी भुजाओं के द्वारा पर्वतों को इतने बेग से फेंकते कि पर्वत का आधा भाग छिन्न-भिन्न हो जाता । ऐसा करके वे शीघ्र ( आकाश तक उछलते हुए ) समुद्रजल से बचने के लिए वहाँ से दूर अलग हट जाते, तथापि गगनोच्छलित जल से आर्द्र हो ही जाते तथा ( ऊपर पड़े हुए जल को गिराने के लिए ) केसरसटा ( गरदन के बालों) को हिलाते और फटकारते थे ॥ ३०॥ जलोच्छलनप्रकर्षमाह दोसs वारंवारं गिरिधाउक्त्तिसलिलरेइद्मभरिम् । पाप्रालं व हसलं णहविवरं व विग्रडोमरं पाआलम् ||३१|| [ दृश्यते वारंवारं गिरिधातोत्क्षिप्त सलिलरेचितभृतम् । पातालमिव नभस्तलं नभोविवरमिव विकटोदरं पातालम् || ] वारंवारं गिरिघातेनोत्क्षिप्तं यत्सलिलं तेन रेचितमुच्छलनदशायां शून्यीकृतं पश्चादवपतनदशायां भृतं पूरितं पातालमिव नभस्तलं दृश्यते । तज्जलेन तस्यापि तथैव रेचितरितत्वात् । उपमानविशेषणस्योपमेयेऽपि प्रतीयमानत्वात् । अत एव व्यञ्जित तद्विशेषणविशिष्टं नभस्तलमिव पातालं दृश्यते । तज्जलस्योभयत्र निरन्तरं गतागतत्वमिति भावः । विकटोदरं तुच्छोदरमित्युभयविशेषणम् । यद्वा पौर्वापर्यमनपेक्ष्य रेचनभरणमात्रविवक्षायां तथाविधसलिलेन रेचितभृतं पतालमिव नभः, नभ इव पातालमित्युभयविशेषणम् । यद्वा तथाविधसलिलेन पूर्व रेचितमेव सद्भुतं नभस्तलं पातालमिव दृश्यते जलपूर्णत्वात् । विकटोदरं तुच्छोदरं पातालं नभोविवरमिव जलस्योच्छलनात् । केचित्तु पातालमिव नभो नभ इव पातालमित्युभयमपि तत्सलिलेन रेचितभृतं दृश्यते । नभ इव पातालं रेचितं तदिव नभो भृतमित्यर्थः । परस्परोपमा हेतुपरिवृत्तिश्चालंकारी ॥३॥ विमला - पर्वतों के गिरने से समुद्र का जल जब बार-बार उछलकर आकाश में पहुँचता उस समय शून्य विकटोदर आकाश, पाताल के समान दिखाई देता और जलशून्य विकटोदर पाताल आकाश के समान दिखायी देता था ||३१|| गिरीणां विशीर्णतामाह संखोह भिण्णमप्रिल गलि प्रजलोलुग्गपङ्कप्रवणुच्छङ्गा विहल गइन्दा लम्बिअ फुडि अपडन्तसिहरा पडन्ति महिहरा ||३२|| 1 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] सेतुबन्धम् [ससम [ संक्षोभभिन्नमहीतलगलितजलावरुग्णपङ्कजवनोत्सङ्गाः । विह्वलगजेन्द्रालम्बितस्फुटितपतच्छिखराः पतन्ति महीधराः ॥] ': महीधराः पतन्ति । समुद्रः इत्यर्थात् । कीदृशाः । संक्षोभेणोद्वहनादिक्रियान्दोलनेन भिन्न विशीणं यन्महीतलं सरोवरावच्छिन्नं तेन गलितजलत्वेनावरुग्णं शुष्क पङ्कजवनं यत्र तादृश उत्सङ्गो येषां ते । अवरुग्णः पङ्कजवनस्योत्सङ्गो यस्येति वा । विशीर्णभूमितलभागेन जलगलनात्पङ्कजानां शुष्कत्वमित्यर्थः । एवं विह्वलैः पतनशङ्कया व्याकुलैगजेन्द्ररालम्बितानि शुण्डादिनावष्टब्धानि अत एव स्फुटितानि त्रुटितानि तत एव पतन्ति शिखराणि येषां ते । गजेन्द्रभारेण शिखराण्यपि तैः सह त्रुटित्वाः पतन्तीत्यर्थः । विपदि स्वीयादपि स्वहानिरिति ध्वनिः ।।३२॥ विमला-जिस समय समुद्र में पर्वत गिर रहे थे, संक्षोभवश उनके ऊपर का भू-भाग विदीर्ण हो गया, अतएव वहाँ के सरोवरों का जल नष्ट हो गया और कमलवन शुष्क हो गया। (गिरने के भय से ) विह्वल गजेन्द्रों ने पर्वतशिखरों को सूड से कस कर पकड़ लिया और ( उनके. भार से ) उनके साथ ही टूटकर पर्वतशिखर भी गिर पड़े ॥३२॥ समुद्रस्य मथनमाह रसइ गिरिघाअभिण्णो तीरं लङ्घइ बलइ विसमक्खलियो। 'पावइ महणावत्थं णवर ण णिद्देइ साअरो अमरसम् ॥३३॥ [ रसति गिरिघातभिन्नस्तीरं लङ्घयति वलति विषमस्खलितः।। प्राप्नोति मथनावस्थां केवलं न निर्ददाति सागरोऽमृतरसम् ॥] सागरो गिरिघातेन भिन्न: सन्रसति । तदुत्तरं तीरं लङ्घयत्युच्छलति । तदनु विषमे निम्नोन्नतभूभागे स्खलितः प्रतिहतः सन्वलति वैषम्यमावहति । एबं मथनतुल्यामवस्थां प्राप्नोति केवलममृतरसं न निर्ददाति नोगिरति । अमृतोत्पत्त्यभावेन परं मथनशब्दप्रयोगो नेति भावः । ताडनादिक्लेशेऽपि स्वान्तःसारं न दातव्यमिति ध्वनिः ।।३४।। विमला-सागर पर्वताघात से विदीर्ण हो हहराता, तदनन्तर उछलकर तीर लाँघ जाता, तदनन्तर विषम भूमि में प्रतिहत से भ्रमित होता मथनावस्था को प्राप्त होता था, केवल अन्तर इतना ही था कि अमृत उद्गीर्ण नहीं कर रहा . था ॥३३॥ प्रकृतारम्भस्य दुरन्ततामाह उक्ख अणि सुद्धसेलो संसह मसमुद्दघोरमुक्कवकन्यो। रक्ख सपुरीम कह प्रा. गमणोवानो वि दारुगसमारम्भो ॥३४॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः]. रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्। [२६१ [ उत्खातनिपातितशैलो संशयितसमुद्रघोरमुक्ताक्रन्दः । राक्षसपुर्या कथं वा गमनोपायोऽपि दारुणसमारम्भः ।। ] कथं वेति वितर्के आश्चर्ये वा। राक्षसपुर्या लङ्काया गमनोपायोऽपि दारुणः कठिनः समारम्भो यस्य तथा । किं पुनर्गमनमित्यर्थः।' आरम्भदारुणत्वमाहकीदृक् । उत्खाता उत्पाटिता अथ निपातिता: समुद्रे क्षिप्ताः शैला यत्र । एवं संशयितः स्थास्यति न वा यद्वा स्थास्यामि न वेति संगय विषयीभूतो यः समुद्रस्तेन घोरं यथा स्यादेवं मुक्त आक्रन्दः शब्दो यत्र । पक्षे रोदनम् । अन्योऽपि प्राणसंशयितो घोरमाक्रन्दति । शैलानां क्षयेण समुद्रस्य च दुरवस्थया दारुणत्वमिति भावः ॥३४॥ विमला-तमाम पर्वत उखाड़े गये और समुद्र में डाले गये, संशयापन्न समुद्र ने घोर आक्रन्द ( १-शब्द, २-रोदन) किया, इस प्रकार राक्षसपुरी (लङ्का ) के गमनोपाय का समारम्भ भी दारुण था तो गमन की क्या बात ! ॥३४॥ सौवर्णपर्वतानयनमाह वे उक्खलि उद्धाइअणहभमिरफुरन्तकञ्चणसिलावेढम् । कुसुमसुप्रन्धर पालं पल्हत्थइ.पवअणोल्लिमं धरआलम् ॥३५॥ [वेगोत्खण्डितोद्धावितनभोभ्रमणशीलस्फुरत्काञ्चनशिलावेष्टम् ।' कुसुमसुगन्धरजोजालं पर्यस्यति प्लवगनोदितं धरजालम् ।।] : धराणां पर्वतानां जालं प्लवगैर्नोदितं प्रेरितं सत्पर्यस्यति । समुद्रे समाप्नोतीत्यर्थः । कीदृक् । वेगेनोत्खण्डितं त्रुटितमथोद्धावितं वेगशालि सद्गुरुत्वान्नभसि भ्रमणशीलमत एव रविकरसंबन्धात्स्फुरत्काञ्चन शिलावेष्टं यत्र । यतस्त्रुटित्वा काञ्चनशिला अपि निपतन्तीत्यर्थः । एवं कुसुमानां सुगन्धिरजोजालं यत्र । सुगन्धिरजआलं रजोयुक्तमित्यर्थो वा। मतुबर्थे आलच्प्रत्ययः । पर्वतक्षोभे रजांस्यपि पतन्तीति भावः ।।३।। विमला-वानरों से प्रेरित पर्वत समुद्र में जा गिरे, जिनकी काञ्चन-शिलायें वेग से टूटकर, ऊपर नभ में पहुँच कर चक्कर काट रही थीं और ( सूर्य की किरणों के पड़ने से चमचमा रही थीं तथा वे ( पर्वत ) सुगन्धित कुसुमपरागों से युक्त थे ॥३५॥ क्रियानानारूपतामाह वड्ढइ पवअकलअलो वलइ वलम्तवलआमुहो सलिलणिही। पवणणिराइअरुक्खा पडन्ति उद्घटिओसरा धरणिहरा ॥३६॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] सेतुबन्धम् [ सप्तम [ वर्धते प्लवगकलकलो वलति वलमानवडवामुखः सलिलनिधिः । पवननिरायतवृक्षाः पतन्त्यूर्वस्थितनिर्झरा धरणीधराः ।। पवनेन कपिवेगजेन निरायता दीर्थीकृता बृक्षा येषु ते धरणिधरा: समुद्रे पतन्ति । कीदृशाः । ऊर्ध्वस्थिताकंदरोत्थितपवनरयादुच्छलिता निर्झरा थेषु ते । पर्वता अधो गच्छन्ति निर्झरा ऊर्ध्वमित्यर्थ । एवं सति प्लवगानां कलकलः पर्वतक्षेपकालीनः कोलाहलो वर्धते । तथा सति वलमानो वक्रीभूतो वडवानियत्र तादृक्स लिलनिधिर्वलति । जलोच्छलनादिशि दिशि गच्छतीत्यर्थः ॥३६।। विमला-पर्वत समुद्र में गिर रहे थे। उन पर वृक्ष वानरों के वेग से जन्य पवन के द्वारा दीर्घ कर दिये गये थे, पवनवेग से उनके निर्झर उछलकर ऊपर की ओर जा रहे थे । ( यह देखक र ) वानरों का कलकलनाद (हर्ष से ) बढ़ रहा था। वडवानल वक्र हो रहा था तथा समुद्र जल उछलने से प्रत्येक दिशा में जा रहा था ।।३६॥ गिरिनदीमत्स्यानाहदूराद्धणिअत्ता मोडिनमलिमहरिअन्दणम इज्जन्ता । उअहि रहसुविखत्ता भासाएन्ति विरस महाण इमच्छा ॥३७॥ [ दूराविद्धनिवृत्ता मोटितमृदितहरिचन्दनमुद्यमानाः । उदधि रभसोत्क्षिप्ता आस्वादयन्ति विरसं महानदीमत्स्याः ॥] पर्वतेन सहागतानां महानदीनां मत्स्या उदधिजलं यतो विरसं लवणाकरत्वात्, अत आ ईषत्स्वादयन्ति । कीदृशाः । वेगेनाविद्धाः प्रेरिताः पर्षतपतनेन समुद्रगर्भ गमिता अथापरिचितं जलमिति निवृत्तास्तटमागताः। अथ तत्र प्रथमं जलसंघट्टान्मोटितेन ततस्तरङ्गाभिहत्या मृदितेन पर्वतीयहरिचन्दनेन रक्तचन्दनेन मुद्यमानाः प्राक्परिचितचन्दनरससंपर्केण स्वीयजलबुद्धया जातहर्षा अत एव रभसेनोत्कण्ठया उत्क्षिप्ता उत्प्लुत्योत्प्लुत्य परितो गताः । तथा च तत्र पुनश्चन्दनादिरसानुपलम्भाज्जलान्तराशङ्कया निर्णेतुं वैरस्येन रसनाग्रेणव जलमास्वादयन्तीत्यर्थः ।।३।। विमला--(पर्वत के साथ समुद्र में आयी हुई ) बड़ी-बड़ी नदियों की मछलिग वेग से प्रेरित समुद्र के भीतर चली गयीं, किन्तु ( उस जल के अपरिचित होने के कारण ) पुन: किनारे आ गयीं। वे वहाँ चूर-चूर हुये पर्वतीय रक्तचन्दन का सम्पर्क पाकर ( समुद्र के जल को अपना ही जल समझ कर ) प्रसन्न हुई और उत्कण्ठावश चारों ओर उछलने लगीं, किन्तु बाद में उन्हें अनुभव हुआ कि यह समुद्र का जल ( विरस नमकीन है, अतः उन्होंने ( रसना के अग्रभाग से ) उसका थोड़ा-थोड़ा पान किया ।।३७।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वासः ] महागिरिपतनमाह- आसीषितमणि अम्बा पत्थरित बिडन्तविसमणि अम्बा | दुमणिव होवरि हरि वरीतु सेला रविप्पहावरिहरिआ ||३८|| [ आशीविषमण्याताम्राः पर्यस्यन्ति विघटमान विषमनितम्बाः । द्रुमनिवहोपरि हरिता दरीषु शैला रविप्रभापरिहृताः ॥ ] [ २६३ शैलाः पर्यस्यन्ति समुद्रे निपत्य विशीर्यन्ति । किंभूताः । आशीविषाणां मणिभिराताम्राः । तेषामप्यागमनात् । पुनर्विघटमानाः संघट्टात्टन्तो विषमा विकटा नितम्बा येषां ते । पुनर्दुमनिवहानामुपरि हरिताः । रविरुचीनामप्यगम्यतया नित्यं छायासंबन्धात् । पुनदंरीषु रविप्रभाभिः परिहृता: । अतिगभीरत्वात् । विशेषणचतुष्टयेन विषमत्व पृथुत्वतुङ्गत्वविकटोदरत्वानि गिरीणामुक्तानि ||३८|| अत्र विमला - समुद्र में ऐसे-ऐसे पर्वत गिर कर विशीर्ण हो गये जो ( साथ आये हुए ) सर्पों की मणियों से लाल वर्ण के हो रहे थे तथा जिनके नितम्ब भाग टकराकर टूट गये थे एवम् ( सूर्य की किरणों के न पहुँचने से ) द्रुम - समूह के ऊपर जो हरे-भरे थे तथा जिनकी कन्दराओं में सूर्य की प्रभा का प्रवेश नहीं होता था ||३८|| शेषस्य क्षोभमाह ओवत्तं गिरिघाउ च्छित्तपाणिअम्मि धरिअं समुद्द े । वलिऊण भुञअवइणा कहं वि तुलग्गविसमा १ अं महिवेढम् ||३९ ॥ [ धृतं वेगापवृत्तं गिरिघातोत्क्षिप्त पानीये समुद्रे । वलित्वा भुजगपतिना कथमपि तुलाग्रविषमागतं महीवेष्टम् ॥ ] भुजगपतिना शेषेण बलित्वा तिर्यग्भूत्वा तुलाग्रेण काकतालीयसंवादेनाकस्माद्विषमागतं तिर्यग्भूतं महीवेष्टं कथमपि धृतम् । कीदृक् । गिरिघातेनोत्क्षिप्तं पानीयं यस्मात्तथाभूते समुद्रे सति वेगेन हठादपवृत्तमपवर्तितुमारब्धम् । आदिकर्मणि क्तः । तथा च जलानामुच्छलने यन्त्रणाभावाल्लघुत्वेन धरण्यास्तियंगुन्नतौ तद्धारणाय शेषोऽपि तिर्यग्मौलिरासीदिति भावः । निजभारस्य रक्षा कष्टेनापि कर्तव्येति ध्वनिः ||३६|| दिमला - पर्वतों के आघात से समुद्र का जल उछल कर जब आकाश को चला गया तब ( सन्तुलन बिगड़ जाने से ) पृथ्वीमण्डल का पलटना वेग से प्रारम्भ हुआ। शेषनाग ने उस टेढ़े हो गये पृथ्वीमण्डल को अपना सिर टेढ़ा कर किसी तरह धारण किया, इसे काकतालीय न्याय से ही हुआ समझा जाय ।। ३९ ।। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] सेतुबन्धम् [ सप्तम बहूनां वैक्लव्यमाह वज्जभअ धरणिहरा आइवराहख रपेल्लपाइँ सुमई। सम चिअ पम्हट्ठं संभरिओ महणसंभमं च समुद्दो ॥४०॥ [ वज्रभयं धरणिधरा आदिवराहखुरप्रेरणानि वसुमती । समकमेव प्रस्मृतं संस्मृतवान्मथनसंभ्रमं च समुद्रः ॥] धरणिधरा वज्रभयं स्मृतवन्तः । पूर्वं वज्रभयेन पलायने समुद्रप्रवेशे वा परस्परसंबट्टावस्थोद्वोधात् । यद्वा समुद्रस्था एव धरणिधरा वज्राभिघातसजातीयागन्तुक. पर्वताभिघातादित्यर्थः। आदिवराहखुरैः प्रेरणानि वसुमती स्मृतवती। कपीनां चरणसंक्रमेण तत्सजातीयदुःखोदयात् । एवं मथनात्संभ्रममुद्वेगं त्रास वा समुद्रः स्मृतवान् । तत्समानविमर्दोदयात् । समकमेकदैवेत्यर्थः । प्रस्मृतं विस्मृतम् । अत्र प्रस्मृतं स्मृतवानित्युभयत्र यथायोग्यं विभक्तिलिङ्गविपरिणामेना वयः कर्तव्यः । सममेव विस्मृतं सममेव स्मृतवन्त इत्यर्थो वा । 'सदृशादृष्टचिन्ताद्याः स्मृतिबीजस्य बोधकाः' इति भावः ॥४०।। विमला-पर्वतों, पृथिवी तथा समुद्र को एक साथ ही क्रमश : बिसरा हुआ वज्रभय, आदिवराह के खुरों से जन्य उद्वेग, मथनजन्य त्रास पुन: याद हो आया ॥४०॥ अन्यापराधेन समुद्रस्य विपत्तिमाहमलअचन्दणलआहरे संभरमाणओ पिअअमहणदुक्खं मिव संभरमाण ओ। रसइ सेलसिहराहिहओ सरिआवई दहमुहस्से दोसेण समोसरिआवई ॥४१॥ [ मलयचन्दनलतागृहान्संबिभ्राणो निजकमथनदुःखमित संस्मरन् । रसति शैलशिखराभिहतः सरित्पतिर्दशमुखस्य दोषेण समवस्तृतापत् ।।] शैलशिखरेण पतताभिहतः सरित्पतिः समुद्रो रसति अभिघातवशेन शब्दायते । अत्रोत्प्रेक्षते-निजकं मथनदुःखं संस्मरन्ननुभवन्निव । अन्योऽपि वेदनया रोदितीत्ययमपि शब्दव्याजेन रोदितीत्यर्थः । कीदृक् । मलयपर्वतस्थ चन्दनलतागृहाणि संबिभ्राणो धारयन् । तत्संबन्धात्पयःसेकादिना पुष्ण निति वा । डुभृनः पोषणमप्यर्थ इत्यर्थ इत्याशयात् । यद्वा पोषणार्थकभरधातोरेवायं संभरमाण इति प्रयोगः । तदुक्तम्-'भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम्' इति । पुनः कीदृक् । दशमुखस्य दोषेण सीतापहरणरूपेण समवस्तृता समुपागता आपद्विपत्तिर्यस्य तथा । तदुक्तम्-'खलः करोति दुर्वत्तं नूनं फलति साधुषु' इति । तथा च दुष्टसमाजः सर्वथा त्याज्य इति ध्वनिः ।।४१॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २६५ विमला - दशमुख के ( सीतापहरणरूप ) दोष से समुद्र पर यह आपत्ति आयो कि मलयचन्दन लतागृह को धारण करता हुआ वह ( गिरते हुये ) शैलशिखरों से अभिहत हो शब्द करने के व्याज से अपने मथन दुःख का अनुभव करता हुआ मानों रो रहा था ॥ ४१ ॥ | गिरिनदीशी करानाह जलवट्ठत्थमिएसु अ उद्धाइ गिरीसु मलिअ विदुम अम्बो । आवलिअचुष्णिसुं धुअधाउरओ ब्व सोहररउग्धाओ ।।४२।। [ जलपृष्ठास्तमितेषु चोद्धावति गिरिषु मृदितविद्रुमाताम्रः । आपतित चूर्णितेषु धुतधातुरज इव शीकररज उद्धातः ॥ ] जलपृष्ठ एव जलावर्ते वास्तमितेषु मग्नेषु गिरिषु प्रथमं समुद्रे आपतितेषु पश्चात्परस्पराभिघाताच्चूर्णितेषु धुतं धातुरज इव शीकर एवं रजस्तदुद्धात उद्धावत्यूर्ध्वं गच्छति । गिरीणां चूर्णितत्वाद्यथा धातुरज उद्गच्छति तथा तदभिघातात्तत्रत्यनदीशीकरोऽपीति सहोपमा । उद्घातः कीदृक् । मृदितेनाभिघातादेव चूर्णितेन विद्रुमेणाता: । तत्कणानामत्रागमनादत एव लौहित्येन साम्यम् ॥४२॥ विमला - प्रथम समुद्र में आकर गिरे पश्चात् परस्पर अभिघात से चूर्णित पर्वतों के जलमग्न होने पर जैसे प्रक्षालित धातु ( गेरू ) का रज उद्गत हो रहा था वैसे ही चूर्णित विद्रुम से लाल शीकररूप रज भी उद्गत हो रहा था ।।४२।। पुनः समुद्रक्षोभमाह सेल सिहरसंखोहि अकल्लोलन्तअं गलि अधाउरसराइअकल्लोलन्त अम् · रसइ उअहिसलिलं धरेसु वलमाणअं भग्गचन्द र सो सहिणिव्वल माणअम् ||४३|| [ शैलशिखरसंक्षोभितकल्लोलान्तं गलितधातुरसराजितलोलकान्तम् । रसत्युदधिसलिलं धरेषु वलमानं भग्नचन्दनरसौषधिनिर्वलमानकम् ॥] धरेषु पर्वतेषु वलमानं कंदरादिकोटरेषु प्रवेशाद्वक्रीभवदुदधिसलिलं रसति शब्दायते । तुच्छपूरणात् । कीदृक् । शैलशिखरेण संक्षोभिता अभिहत्योत्थापिताः कल्लोला यत्र तादृशोऽन्तः प्रान्तो यस्य तादृक् । कल्लोलस्य प्रान्ते प्रादुर्भावात् । यद्वा शैलशिखरसंक्षोभितः सन्कल्लोलायमान कल्लोलरूपस्तमिति कर्मधारयः । यद्वा शैलशिखरसंक्षोभितकल्लोलं ततं विस्तीर्णमित्यर्थः । एवं गलितेन जलसंपर्कादित्यर्थात् धातुरसेन राजितः शोभितः शोणीकृतो वा लोलस्तरङ्गाच्चञ्चलः कः सूर्यो यत्र । प्रतिबिम्बेन संक्रान्तत्वात् । एतादृशोऽन्तः स्वरूपं यस्य तथा । पुनर्भग्नं खण्डखण्डीभूतं यच्चन्दनरसौषधिर्मनः शिलादि तद्योगेन निर्वलमानं जलान्तरात्पृथग्भूतम Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] सेतुबन्धम् [ सप्तम चन्दनरसरूपौषधिरित्यर्थो वा। चन्दनादिसंबन्धेन लब्धवर्णान्तरत्वादिति भावः । 'अन्तः प्रान्तेऽन्तिके नाशे स्वरूपे च मनोहरे' । 'को ब्रह्मान्यनिलार्केषु समरे सर्वनाम्नि च । पानीये च मयूरे च मुखशीर्षसुखेषु कम्' ॥४३॥ विमला--पर्बतों की कन्दराओं में प्रवेश करने से वक्र होता हुआ समुद्र का जल शब्दायमान हो रहा था। उसकी लहरें शैलशिखरों से संक्षुब्ध हो ऊपर उठ रही थीं, (प्रतिबिम्बित ) सूर्य गले हुये धातुरस ( गेरू ) से लाल वर्ण तथा (तरङ्गों से ) चञ्चल दिखायी पड़ता था। खण्ड-खण्ड हुये चन्दनरसरूप ओषधि से वह समुद्रजल अन्य जल से भिन्न प्रतीत होता था ॥४३॥ गिरिद्रुमानाहगिरिणि व्वलिपडता उद्धअजलमूलमिलि अपत्तलविडवा। लहअत्तणप्पनन्ता गणमणा अडित आ वि लग्गन्ति दुमा ।।४४।। [गिरिनिर्वलितपतन्त उद्धृतजलमूलमिलितपत्रलविटपाः। लघुत्वोत्प्लवमाना गगनमनाकृष्टा अपि लगन्ति द्रुमाः ॥] अनाकृष्टा अपि मा गगनं विलगन्ति । तथा चाकर्षणसाध्यविलम्बशून्यत्वेन हठादित्यर्थः । कीदृशाः । गिरेनिर्वलिताः पृथग्भूताः सन्तः पतन्तः । समुद्र इत्यर्थात् । एवमुद्धृतं वृक्षाभिघातादेवोच्छलितं यन्मूलजलं पातालस्थं पूर्वनिपातानियमात् तत्र मिलिता: संगता पत्त्रला: पत्त्रयुक्ता विटपा येषां ते । तत्र तत्र गलितपत्त्रदर्शनादनुमीयते अत्र द्रुमाः पतिता इति भावः । अतएव लघुत्वेनोत्प्लवमाना उपरि वीचीविवर्तेन दोलायमानाः । अयमर्थः-द्रुमास्तावत्पर्वतसंक्षोभेण शिथिलमूलतया त्रुटित्वा समुद्रे पतितास्ततस्तत्संस्कारवशात्पातालपर्यन्तं गतास्ततः पुनरभिघातोच्छलितजलेन सार्धमुपर्यागतास्तत्र पुनलघुत्वात्प्लवमाना एव तद्वीचिविक्षिप्ता वियति लग्नाः। अन्यदपि लघुद्रव्यं जले मग्नमुन्मज्योपरि गच्छतीति ध्वनिः ॥४४॥ विमला-द्रुम पर्वत से टूटकर समुद्र में गिरे और पाताल तक चले गये । पाताल में पहुँचे पर्वतों के अभिघात से जल के उछलने पर उसके साथ ही वे (द्रुम) ऊपर आ गये और लघु होने के कारण जल में तैरते रहे । तदनन्तर तरङ्गों के अभिघात से, बिना आकर्षण के भी, आकाश में जा लगे ।।४४।। कपीनामावेशमाह पवअबलेहिं राअसंजाअमच्छरेहि ___गणणि राअभिणघणभेसि यच्छरेहि। फुडधवलग्गदन्तरडिपेल्लिाहरेहि भिज्जइ साअरस्स सलिलं धराहरेहिं ।।४५॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२६७ [प्लवगबलै रागसंजातमत्सरैर्गगननिरायतभिन्नघनभीषिताप्सरोभिः । स्फुटधवलाग्रदन्तप्रतिप्रेरिताधरैभिद्यते सागरस्य सलिलं धराधरैः ।।] प्लवगबलैः कतभिर्धराधरैः क रणैः सागरस्य सलिलं भिद्यते। गिरिक्षेपण द्विधाक्रियत इत्यर्थः । किंभूतः प्लवगबलः । रागेण द्वेषेण रावणं प्रति संजातमात्सर्यैः । अथवा रामं प्रत्यनुरागेण रावणं प्रति जातमात्सर्यैः । मत्सरशब्दोऽपि क्रोधवाची । एवं गगने निरायता गमन वेगपवनेन दीर्धीकृताः सन्तो भिन्नाः पृथक्कृता ये घनास्तरपरिचितपूर्व विकटाकारतया भीषितास्त्रासिता अप्सरसो यस्तैः । एवं स्फुटं व्यक्तं धवलार्दन्तः प्रतिप्रेरितः क्रोधेन दष्टोऽधरो यः । 'गअपेल्लिआहरेहिं' इति पाठे धराधरैः किंभूतैः। स्फुटधवलाग्राभ्यां दन्ताभ्यां गजेन प्रेरितो भिन्नोऽधरो नितम्बो येषां तैः । प्राकृतत्वाद गजशब्दस्य परनिपातः । तथा च पातशङ्कया नितम्बे दन्तो निखाय गजा यत्र स्थिता इत्यर्थः । अत्र पक्षेऽपरमपि विशेषणद्वयं मात्सर्योद्दीपकत्वेन मेघानां भेदकतया च बहुव्रीहिणा धराधरगतमपि । एतेनोत्साहाधिक्यमुक्तम् ।।४।। बिमला-द्वेषवश (रावण के प्रति ) उत्पन्न मत्सर बाले, अतएव प्रकट रूप में धवल अग्रभाग वाले दांतों से होंठ चलाते हुये, गगन में अपने गमनवेग से दीघं तथा छिन्न-भिन्न कर दिये गये मेघों से अप्सराओं को भयभीत करते हुये वानरों ने पर्वतों से सागर के सलिल को विदीर्ण कर दिया ।।४।। महेन्द्रगिरिखण्डपतनमाहपवणभरन्तरिमहं पवणसुअक्कन्तविहलि असिलाघेढम् । पडइ सिहरोजमरुग्गअमहिन्धधणुगम्भिणं महिन्दवखण्डम् ।।४६॥ [पवनभ्रियमाणदरीमुखं पवनसुताक्रान्तविघटितशिलावेष्टम् । पतति शिखरनिर्झरोद्गतमहेन्द्रधनुर्गभितं महेन्द्रखण्डम् ॥] महेन्द्रस्य गिरेः खण्डं पतति समुद्र एव । किंभूतम् । पवनेन भ्रियमाणं दरीमुखं योति विकटोदरत्वम् । एवं पवनसुतेन हनुमता आक्रान्तं समुद्रलङ्घनसमये चरणाभ्यामवष्टब्धं यन्त्रितमत एवं शिथिलमूलं सत्तदानीं विघटितं शिलावेष्ट यस्य तत् । मलयमहेन्द्रयोरेव चरणौ दत्त्वा हनूमानन्धिं लङ्घतवानित्याशयः । एवं शिखरनिर्झरेषूद्गतं यन्महेन्द्रधनुस्तद्गभितम् । नानामणिमरीचिसंपर्कात्सूर्यतेजसा जले शक्रधनुरुत्पत्तिः । तथा चेन्द्रधनुःसत्तया गिरिखण्डस्य श्यामत्वेन मेघोपमा व्यज्यते ॥४६॥ विमला-पवन से पूर्ण कन्दरामुख वाला, पवनपुत्र के द्वारा ( समुद्र लाँघने Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ [ सेतुबन्धम् [सप्तम के समय) पदाक्रान्त होने से विघटित शिलाओं वाला, शिखरनिर्झरों में उद्गत इन्द्रधनुष से गर्भित महेन्द्रगिरि का खण्ड समुद्र में गिर गया ॥४६॥ समुद्र गिरीणां स्फुटनमाहगमगा अलम्मि सेलसंघट्टवारियाणं ओत्थरिअं रवेण जलभरि अवारिआणम् ।। बमाणं लाघराई सअन्दलाइ. कि पडिअंण होइ सिहरं स दलाई ॥४७।। [ गगनतले शैलसंघट्टवारितानामवस्तृतं रवेण जलभृतवारिदानाम् । वहमानं लतागृहाणि सकन्दलानि किं पतितं न भवति शिखरं शतं दलानि ।।] समुद्रे पतितं सच्छिखरं शतं दलानि कि न भवति, अपि तु भवत्येव । कीदृक् । गगनतले शैलसंघट्टन वारितानां बहिष्कृतानां जलेन भृतानां पूर्णानां वारिदानां रवेणावस्तृतं व्याप्तम् । गगनस्था एव मेघाः शिखरैभिन्ना रसन्तीत्यर्थः । अन्योऽपि सूच्यादिवेधे रोदिति । पुनः कीदृक् । कन्दलो नाम वृक्षविशेषस्तत्सहितानि लतागृहाणि वहमानम् । गगन एव मेघरवसंबन्ध इति यावत्, यद्विश्रामो न वृत्तस्तावदेव तद्विशिष्टस्य शतखण्डत्वे पवनवेगप्रकर्ष उक्तः । शतखण्डहेतुत्वेन च समुद्रावर्तस्योत्कर्षः ॥४॥ विमला-गगनतल में पर्वतों के टकराने से बहिष्कृत जलभृत मेघों की ध्वनि से व्याप्त, कन्दल ( वृक्ष-विशेष ) सहित लतागृहों को वहन करने वाला शिखर समुद्र में गिर कर क्या शतखण्ड नहीं हो जाता था ? अर्थात् हो ही जाता था ॥४७॥ चमरीणामवस्थामाह लक्विजन्ति समद्द गिरि घाउब्धत्तम अरविसमुक्कित्ता । छेअपसरन्तरु हरा. फेणमिलन्ता वि चमरिबालद्धन्ता ॥४८।। [ लक्ष्यन्ते समुद्रे गिरिघातोवृत्तमकरविषमोत्कृत्ताः । छेदप्रसरद्रुधिराः फेनमिलन्तोऽपि चमरीवालार्धान्ताः ॥] समुद्रे गिरिघातेनोवृत्तैर्दशितोदरैर्मकरैः संमुखगतत्वेन विषमं उत्कृत्ताश्छिन्नाश्चमरीणां वालार्धान्ताः पुच्छैकदेशाः फेनेषु मिलन्तोऽपि लक्ष्यन्ते । तय॑न्त इत्यर्थः । कीदृशाः । छेदेन छेदनेन छेदे छिन्नभागे वा प्रसरन्ति रुधिराणि येभ्यस्ते । तथा च फेनश्वत्येन' विविच्य ग्रहणायोग्यत्वेऽपि रुधिरलौहित्येनानुमीयन्त इति काव्यलिङ्गम् ॥४८॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-बिमलासमन्वितम् [२६६ विमला-समुद्र में पर्वताघात से ऊपर आये हुए मगरों ने ( सम्मुखगत ) चमरी गायों के पुच्छ भागों को बुरी तरह छिन्न कर दिया। कटकर फेन में ( श्वेत होने के कारण ) एकदम मिल जाने पर भी कटे हुए भागों से रुधिर बहते रहने से स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे ।।४।। गिरी सिद्धमिथुनत्यागमाहसिद्ध अणो भएण मञ्चइ लापराई सरअबिसेसजाअसे मोल्ल माहराई। गिरिसरिआमुहाइणासन्ति सासमाइ भमह महोअहिस्स. सलिलं बिसासआई॥४६॥ [ सिद्धजनो भयेन मुञ्चति लतागृहाणि सुरतविशेषजातस्वेदाधिराणि । गिरिसरिन्मुखानि नश्यन्ति शाश्वतानि भ्रमति महोदधेः सलिलं दिक्शतानि ।। सिद्धजनो भयेन गिरिक्षोभजेन लतागृहाणि मुञ्चति । पलायत इत्यर्थः । सुरतविशेषेण बन्धवैचित्र्याज्जातः स्वेदैरााण्यधराण्यधःस्थलानि येषां तानि । एतेन गिरीणां दुरवगाहत्वमुक्तम् । एवं शाश्वतानि सार्वदिकान्यपि गिरिनदीमुखानि नश्यन्ति समुद्रजलप्रवेशादेकीभावात् । यद्वा साश्रयाणि आश्रयो गिरिस्तत्सहितानि । नद्यो गिरिरपि निर्मज्य नश्यन्तीत्यर्थः । तथा महोदधेः सलिलं दिक्शतानि भ्रमति शैलाभिघातेनावर्तीभूतत्वात् । 'सुरअविसेसजाअहरिसोल्लआहराई' इति पाठे सुरतविशेषेण जातो हर्षो यत्र तादृशान्यार्द्राणि शीतलान्यधराण्यधःस्थलानि येषामिति बहुव्री हिगर्भः कर्मधारयः । 'देशं सोपद्रवं त्यजेत्' इति ध्वनिः ॥४६।। विमला-सिद्धजन ( देवयोनि विशेष ) सुरत विशेष से उत्पन्न स्वेद से आर्द्र अधःस्थल वाले लतागृतों को भय के मारे छोड़कर भाग गये । ( समुद्रजल के प्रवेश से ) शाश्वत गिरिनदी के मुख नष्ट हो गये, समुद्र का जल ( शैलाभिघात से आवर्तीभूत ) अनेक दिशाओं में घूम गया ॥४६॥ आवर्तपतितं गिरिगजमाह भमइ समुविखत्तकरं गअवइवारि अपवित्तप्परगाहम् । विहलुथविअकल हं विअडावत्तमु हमागअंगअजहम् ।।५।। [भ्रमति समुत्क्षिप्तकरं गजपतिवारितप्रवृत्तप्रग्राहम् ।। विह्वलोत्थापितकलभं विकटावर्तमुखमागतं गजयूथम् ।।] विकटावर्तस्य मुखं संमुखमागतं तत्र पतितं सद्गजयूथं भ्रमति । आवर्तानुसारेणेत्यर्थः । कीदृक् । समुत्क्षिप्त ऊर्ध्वं नीतः करः शुण्डा येन । अगाधजले शुण्डाया Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] सेतुबन्धम् [ सप्तम रक्षणीयत्वादिति जातिरलंकारः । एवं गजपतिना वारितः प्रतिषिद्धः प्रवृत्तः सर्वापिप्रहतुमुद्यतः प्रग्राहो जलसिंहो यस्मात् । मद ( गन्ध ) मुपलभ्यापतितः सिंहो यूथपतिना पुरोगत्वात्प्रतिषिद्ध इत्यर्थः । एवं विह्वलः सन्नुत्थापितः कलभो यत्र । मग्नः कलभः शिशुरिति संभूय सर्वैरुत्थापित इत्यर्थः । अन्यत्रापि जलमग्नो बालः सर्वैरुत्थाप्यत इति ध्वनि ॥ ०॥ विमला विकट आवर्त में पड़ा गजसमूह ( आवर्त के अनुसार ) घूम रहा था । ( उनके मद की गन्ध पाकर ) जलसिंह उस पर झपटा और यूथपति ने आगे जाकर उसे रोका, तथापि वह समस्त गजों पर प्रहार करने के लिये उद्यत हो रहा था । ( अगाध जल में सूड को डूबने से बचाने के लिये ) सभी गज अपनी सूंड ऊपर उठाये हुए थे । कहीं कोई उनका बच्चा ( कलभ ) जलमग्न होने से विह्वल हो गया, तो उसे एकत्र हो सबने उठाया ||५०|| नदीनां दौःस्थ्यमाह - समुहडन्तविअऽगिरिसिहर वेल्लिआणं बीइरिवखलनापवणसलिलआणम् विट्ठि राहवो हवाई तारइ [ संमुखपतद्विकट गिरिशिखरप्रेरितानां अअस्मि जाणई णम् ।। ५ ।। दृष्टि ददाति राघवः कथमपि यावन्नदीनां ! वीचिपरिस्खलत्पवनवशवेल्लितानाम् तावद्विरहयति केवलं हृदये जानकी एनम् ।। ] राघवो यावन्नदीनां कृते नदीभ्यो वा दृष्टि ददाति तावदेव केवलं जानकी सीता एवं रामं हृदये कथमपि कष्टसृष्ट्या विरहति । समुद्रवैकल्येन नदीनां वैकल्यमुपलभ्य स्वामिनि दुःखिते तद्वध्वोऽपि दुःखमनुभवन्तीति स्वदुःखेन संभावित सीतादुःखजिज्ञासया नदीर्यावत्पश्यति तावदेव नदीगतमनस्कतया रामस्य हृदयं जानकी त्यजतीत्यर्थः । तदैव परं रामो विरहदुःखं नानुभवतीति भावः । यद्वा तावदेव जानकी एनं धीरोदात्तत्वेन हृदये विरहयति विरहिणं करोति । विरहदुःखमनुभावयतीति यावत् । अन्यदा सेतूद्योगमग्नमनस्कतया सीताविस्मरणात्तदानीं समुद्रविप्लवे नदीरूपतद्वधूविपर्यासदर्शनोद्गतकरुणया सीतास्मरणात् । कीदृशीनाम् । संमुखे पततां विकटगिरीणां शिखरैः प्रेरितानां शिखराभिघातादान्दोलितानाम् । एवं वीचिषु परिस्खलतो विषयसंचारस्य पवनस्य वशेनायत्या वेल्लितानाम् । वीचीनामुत्तुङ्गतया पवनस्य नतोन्नतगत्या चञ्चलीकृतानामित्यर्थः ।। ५१ ।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२७१ विमला-राम ( सेतुबन्धन में इतने मग्न थे कि उन्हें सीता का एकदम विस्मरण हो गया ) केवल उतने ही समय तक सीता उनको हृदय में विरहदुःख का अनुभव कराती थी, जब तक वे न देयों की दशा का अवलोकन करते, जो सामने पड़ गये पर्वतों के विकट शिखरों से प्रेरित तथा उतुङ्ग लहरों से पवन की विषम गति के कारण चञ्चल कर दी गयी थी ।।५१।। अथ समुद्र मूलवति रामशरपक्षोद्ग ममाह दरडढविद्यमवणा उद्धान्ति मिहिकाजलिअसङ्खउला । पाआल लग्गढिमरामसरोलगपत्तणा जलणिवहा ।। ५२।। [ दरदग्धविद्रुमवना उद्धावन्ति सिखिकज्जलितशङ्खकुलाः । पाताललग्नकृष्टरामशरावरुग्णपत्रणा जलनिवहाः ।। ] जलनिवहा उद्घावन्ति । पातालादूर्ध्व मागच्छन्तीत्यर्थात् । कीदृशाः । दरदग्धानि विद्रुमवनानि येषु रामशरानलात् । एबं शिखिन्ना तेनैव कज्जलितानि दग्ध्वा श्यामीकृतानि शङ्खकुलानि येषु । एवं पाताललग्ना: स्थिता अध कृष्टा: स्वोद्ग मेनाकृष्टा रामशराणामवरुग्णा भग्नाः पत्त्रणा पुङ्खगतपक्षविरचना यस्ते । तथा च रामशरमात्रगम्यपातालजलस्यापि क्षोभो गिरिभिर्गत्वा कृत इति भावः ॥५२।। विमला--जिस पातालव्यापी समुद्रजल में प्रविष्ट राम-शर के अनल से विद्रुम-वन किंचित् दग्ध कर दिये गये थे, शङ्खसमुदाय जलाकर श्याम कर दिये गये थे तथा जिसने पाताल तक पहुँच कर ऊपर आते हुए राम के शरों की पूछ की पक्षविरचना को भग्न कर दिया था उसे भी पर्वतों ने पाताल तक पहुँचकर विक्षुब्ध कर दिया और वह पाताल से अब ऊपर की ओर उठकर आ गया ॥५२॥ अथ पातालदर्शनमाह भीअणिसण्णजलअर पलोट्टणिअभरभिण्ण वक्खमहिहरम् । दोसइ विहिण्णसलिलं कुविउद्धाइअभुअंगमं पाआलम् ।। ५३ ।। [ भीतनिषण्णजलचरं प्रलुठित निजकभरभिन्नपक्षमहीधरम् । दृश्यते विभिन्नसलिलं कुपितोद्धावितभुजंगमं पातालम् ।।] विभिन्नं पर्वताभिघातात्पृथग्भूतं सलिलं यस्मात्तथाभूतं सत्पातालं दृश्यते । व्यवधायकस्य जलस्योच्छलनादिति भावः । कीदक । भीताः सन्तो निषण्णा निःस्यन्दमवस्थिता जलचरा यत्र । एवं प्रलुठिता भूमावेव क्वचित्क्वचिनिपतिता निजकभरेण भिन्नो भग्नः पक्षो येषां तथाभूता महीधरा यत्र । उड्डीय पलायितुमुद्यतानां निजदेहभारेणानभ्यासे चोड्डयनासामर्थेन भूमौ पतितानां पक्षभङ्गात्प्रलुठन मिति भावः । वस्तुतस्तु प्रलुठिता भूमौ क्वचित्क्वचित्पतिता निजं यत्कं समुद्रीयं जलं तस्य Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] सेतुबन्धम् [सप्तम भरः प्राचुर्यं तेन भिन्नो पक्षौ येषां तथाभूता महीधरा यत्र । तथा चोड्डीय गन्तुमारम्भेऽपि पक्षयोर्जलाईतया तदसंभवे भूमौ निपातेन प्रलुठन मिति मदुन्नीतः पन्थाः । एवं मम क्षोभः केनोत्पादित इति कुपिताः सन्त उद्धावितास्तद्देश्याय यतस्ततः संचारशीला भुजंगमा यत्र तथाभूतम् ।।५३।। विमला-पर्वतों के अभिघात से जल के उछलकर दूर हट जाने से पाताल स्पष्ट दिखायी पड़ रहा था, जहाँ सभी जलचर भयभीत निःस्पन्द स्थित थे, पर्वत जिनके पस अपने ही भार से भग्न थे अतएव उड़ने में असमर्थ भूमि पर ही यत्रतत्र पड़े हुये थे, भुजंगम क्षुब्ध हो कुपित यत्र-तत्र दौड़ रहे थे ॥५३॥ पुनर्गजानां विपत्तिमाह खुहिअसमुदाहिमुहा तंसट्ठिअमहिहरोसरन्तक्खलिआ। करिमअरबद्धलक्खा करिमअरपडिच्छिआ पडन्ति गइन्दा ॥५४॥ [ क्षुभितसमुद्राभिमुखास्तिर्यस्थितमहीधरापसरत्स्खलिताः । करिमकरबद्धलक्ष्याः करिमकरप्रतीष्टाः पतन्ति गजेन्द्राः ॥] गजेन्द्राः पतन्ति । समुद्र इत्यर्थात् । कीदृशाः । क्षुभितो गिरिपतनान्दोलितो यः समुद्रस्तदभिमुखाः । कोऽयमपूर्व इति जिज्ञासावशात् । पुनस्तिर्यस्थितात्क्षेपणाय पार्शयितान्महीधरादपसरन्तः सन्तः स्खलिता: । अवधानाभावेन स्थानच्युतौ देहगौरवाभ्रष्टा इत्यर्थः । तदवस्थायामपि मदगन्धोपलम्भेन युयुत्सया करिमक रेषु बद्धलक्ष्या दत्तदृष्टयः । तदानीमेव तैरेत करिमकरैः प्रतीष्टा युद्धाय स्वीकृता इति संप्रदायः । मम तु व्याख्या-गजेन्द्रा: पतन्ति म्रियन्ते । कीदृशाः। कोऽयं किमाकारः कथमस्मिन्पतित्वा जीवितव्यमिति क्षुभिताः सन्तः समुद्राभिमुखाः समुद्रमवलोकयन्तः । अथ तदर्शनकाले तत्रत्र दृष्टेषु करिमक रेषु बद्धं लक्ष्यं यः । प्रहतुमित्यर्थात् । योद्धं कृताध्यवसाया इत्यर्थः। अथ युयुत्सया समुद्रे देहपातनाय निर्यस्थिता: सन्तो महीधरादपसरन्त एव स्खलितास्त्यक्तकायतया समुद्रे पतिताः । अथ तैरेव करिमकरैः प्रतिपक्षतया प्रतीष्टाः । पुरः समागत्य दन्त प्रहारा इत्यर्थः । तथा च समुद्रपातशङ्कासमुत्थप्राणसंशयेऽपि युयुत्सया शरीरानपेक्षपतनकर्मणा च मदतेजःप्रकर्ष उक्तः । परभूमी सहसा कर्म न कर्तव्य मिति ध्वनिः । 'मइन्दा' इति पाठे मृगेन्द्राः इत्यर्थः ॥५४॥ . विमला-गजेन्द्र क्षुब्ध होकर समुद्र को देख रहे थे, उसी समय दीख पड़े जलहस्तियों से युद्ध करने के उद्देश्य से समुद्र में गिरने के लिये टेढ़े हुए कि महीधर से अपसृत होते ही समुद्र में गिर गये और जलहस्तियों ने सामने आकर उन पर ऐसा प्रहार किया कि वे मर गये ॥५४॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२७३ उच्छलितजलप्रकर्षमाह ण वि तह पवनाविद्धा विप्रडणिअम्बगरुपा रसामलमूलम् । जह उच्छलिउद्धाइअसलिल भरोवाहिआ अइन्ति महिहरा ॥५॥ [ नापि तथा प्लवगाविद्धा विकटनितम्बगुरुका रसातलमूलम् । यथा उच्छलितोद्धावितसलिलभरापवाहिता आयान्ति महीधराः ॥] प्लवगैराविद्धाः प्रक्षिप्ता अपि विकट नितम्बगुरुका अपि महीधरास्तथा तेन प्रकारेण रसातलमूलं नायान्ति न गच्छन्ति यथा स्वाभिघातेनोच्छलितैरथोवं धावितैर्गगनगाहिभिः सलिलभरैरपवाहिताः परावृत्त्य नियन्त्रणाभिरधः प्रेरिता गच्छन्ति । तथा च प्रेरकाणामतिबलवत्त्वं प्रेर्याणां चाति गुरुत्वमित्युभयथापि हठादेव पातालगमनौचिती। तदपेक्षयाप्युच्छलितजलाभिघातेन यत्सुतरां पतनं तेन तत्पर्वते खण्डजलावयविनस्तस्याभिघातप्रकर्षस्तेन स्वोच्छलनहेतुतत्पर्वतस्य पुनरन्तरालब्ध्या चोभयथापि गुरुप्रकर्ष स्तेन महत्त्वप्रकर्षः गुरोरप्यतिदूरमूर्ध्वगमनमित्युच्छलनवेगप्रकर्षस्तेन समुद्रतत्पर्वताभिघातप्रकर्षस्तेन क्षेपप्रकर्षस्तेन' कपीनां बलप्रकर्षोऽनुमीयत इत्यनुमानपरम्परा । एवं च तत्पर्वतस्य तृतीयकारणोपनिपातेन पाताल प्राप्त्या स्वोत्थापितखण्डजलेनान्तरासंबन्धेन च समुद्रस्य गाम्भीर्यमुक्तम् । यद्वा प्लवगैः आ अत्यर्थेन विद्धाः क्षिप्ता नितम्बगुरवोऽपि महीधरास्तथा पातालं न गच्छन्ति यथा तदभिघातोच्छलितैरेव सलिलैरपवाहिता अन्य एव गच्छन्ति । बलं विनैव क्षिप्ता लघव इत्यर्थात् । तथा च बलक्षिप्तानां गुरूणां पुरोगामिनामप्यपेक्षया अप्रयत्नक्षिप्ता लघवः पश्चाद्गामिनोऽप्यग्रे पातालं गता इति प्रेरकजलस्य प्रकर्षस्तेन तदभिहन्तुस्तत्पर्वतस्य तेन कपीनां बलस्य चेत्युन्नयामः ।।५।। विमला-वानरों ने अत्यधिक वेग से विकट नितम्ब भाग वाले बड़े - बड़े पर्वतों को समुद्र में फेंका। ये पर्वत उतनी जल्दी रसातल के मूल भाग तक नहीं पहुँच पाये, जितनी जल्दी इन्हीं पर्वतों के अभिघात से उछले समुद्र-जल के भधोगमन से प्रेरित, धीरे से फेंके गये अन्य पर्वत रसातल को पहुँच गये ।।५५।। तरङ्गाणामुत्थापनमाह उत्तङ्घिनदुमणिवहा गिरिघाउध्वत्तमुच्छिमहामच्छा। वेलासेलकावलिआ उद्धं भिज्जन्ति उहिजलकल्लोला ॥५६॥ [ उत्तम्भितद्रुमनिबहा गिरिघातोवृत्तमूच्छितमहामत्स्याः । वेलाशैलस्खलिता ऊवं भिद्यन्ते उदधिजलकल्लोलाः ॥] उदधिजलानां कल्लोलाः प्रथमं प्रक्षिप्ता गिरिघातेनोद्वृत्ता दर्शितोदराः अथ च मूच्छिता महामत्स्या येषु तथाभूताः । अथ तदभिघातेनोच्छलनाद्वैलाशैलेषु मलय १८ से० ब० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] सेतुबन्धम् । सप्तम सुवेलादिषु स्खलिताः प्रतिरुद्धगतयस्तदनूत्तम्भिताः स्वाभिघातेनोत्खा(ता)योत्थापिता वेलाशैलानामेव द्रुमनिवहा यैरेवंभूताः सन्त ऊर्ध्वमाकाशं व्याप्य भिद्यन्ते शतखण्डा भवन्तीत्युच्छलनप्रकर्षणाभिघातप्रकर्ष उक्तः । अभिघातोच्छलितमन्यदपि जलं कुत्रचित्स्खलितमूर्ध्वमुत्तिष्ठतीति ध्वनिः ।।५६।। विमला-समुद्र-जल की लहरें, जिनमें महामत्स्य पर्वतों के अभिघात से उमट गये और मूच्छित हो गये, पर्वताभिघात से इतने जोर से उछल कर वेला के पर्वतों से जाकर टकरा गयीं कि अपने अभिघात से वेला-पर्वतों के वृक्षों को उखाड़ती हुई उछल कर आकाश में पहुँच शतखण्ड हो गयीं ॥५६।। सुरमिथुनापयानमाह प्रद्धथमिप्रविसण्ठुलगअजू हारूढसिहरविहलस्स गहम् । जीअं व झत्ति णज्जइ गिरिस्स कुहराहि उग्ग सुरमिहुणम् ॥५७॥ [ अर्धास्तमितविसंष्ठुलगजयूथारूढशिखरविह्वलस्य नभः । जीव इव झटिति ज्ञायते गिरेः कुहरादुद्गतं सुरमिथुनम् ॥] सुरमिथुनं गिरेः कुहरात्कंदरातो झटिति नभ उद्गतं ज्ञायते जीव इव । गिरी निमज्जति निमज्जनशङ्कया नभोगामि सुरमिथुनं न भवति किंतु पयसि मज्जतो गिरेर्जीवः प्राणा एव जीवात्मा वा। तदुद्गमनमेव वृत्तमित्युत्प्रेक्षा । गिरेः कीदृशस्य । अर्धास्तमितं गिरौ मज्जत्यर्धमग्नमत एव विसंष्ठुलं यद्गजयूथं तेनात्मरक्षानिमित्तमारूढेन शिखरेण हेतुना विह्वलस्य । एकत्र मज्जनमपरत्र गजाक्रमण मित्युभयमपि प्राणोत्क्रमणहेतुत्वेन संभावितमिति भावः । केचित्तु तथाभूतेन शिखरेण हेतुना विह्वलस्यात्समुद्रस्य जीवो जलमिव गिरेः सुरमिथुन मुद्गतम् । यथा तज्जलं नभ उद्गतं तथेदमपीति सहोपमा । अपूर्ववस्तुविगमो जीवविगमतुल्य इति ध्वनिः ॥५७॥ विमला-पर्वत जब समुद्र में डूब रहा था, उस समय अर्धमग्न गजवृन्द ( आत्मरक्षा के लिये । चंचल उसके शिखर पर चढ़ गया, जिसके भार से वह पर्वत और भी विह्वल हो गया, उस समय उसकी कन्दरा से शीघ्र सुरमिथुन निकल कर आकाश की ओर जाता ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों पर्वत का जीव निकलकर आकाश की ओर जा रहा था ।।५७॥ कपीनां प्रौढिमाहधरिआ भुएहि सेला सेलेहि दुमा दुमेहि घणसंघाआ। ण वि णज्जइ कि पवआ सेबन्धन्ति प्रो मिणेन्ति णहअलम्॥५॥ [धृता भुजैः शैलाः शैलैमा द्रुमैर्घनसंघाताः । नापि ज्ञायते किं प्लवगाः सेतुं बध्नन्ति उत मिन्वन्ति नभस्तलम् ।। ] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२७५ वानराणां भुजैः शैलास्तैरपि द्रुमास्तैरपि मेघसंधाता धृताः । अतो न ज्ञायते कि प्लवगा अनेन प्रकारेण सेतु बध्नन्ति उत पक्षान्तरे नभस्तलं मिन्वन्ति मापयन्ति । गगनगाहिनः सेतोर्गगनमापनस्यापि सामग्रीयमिति भावः । तवयमपि दुष्करं प्लवगसाध्यमेवेत्याशयः । 'न विज्ञायते' इति वा ॥१८॥ विमला-वानरों की भुजाओं ने पर्वतों को, पर्वतों ने वृक्षों को, वृक्षों ने मेघसमूह को ऐसा धारण किया था कि ज्ञात नहीं होता था कि ये बानर सेतु बाँध रहे हैं अथवा आकाश को नाप रहे हैं ॥५८। पुनः समुद्रक्षोभमाहरहसविसज्जिएक्कमेकका वलन्तषु अपडिअमणिसिला साअरम्मिणिवन्ति घरणिहाआ मलिममहाभुजंगभग्गफणोअरोसरिप्रसंपुडं रसाअलं दुम्मेन्ति धरणिहाआ। णासइ जं जलं सारस्स चुण्णिअमणोसिलापडपडन्तसेलसंवारुणं फलन्तं दरिअणिसाअरेन्दहीरन्तजाणईवाहणिब्भर पुलोइप्रस्स किर दारुणं . फलं तम् ॥५६।। [ रभसविसृष्टकके वलधुलपतितमणिशिलाः सागरे निपतन्ति धरनिघाता मृदितमहाभुजंगभग्नफणोदरापसृतसंपुटं रसातलं दुन्वन्ति धरणिघाताः । नश्यति यज्जलं सागरस्य चणितमनःशिलातटपतच्छेलस्यन्दारुणं फलदृप्तनिशाचरेन्द्रह्रियमाणजानकीवाष्पनिर्भरप्रलोकितस्य किल दारुणं फलं तत्॥] धराणां पर्वतानां निघाता: समूहाः सागरे निपतन्ति । कीदृशाः । रभसेनोत्कण्ठया वेगेन वा विसृष्टाः क्षिप्ता एकैके पर्वता एव यत्र ते । यद्वा एकैके स्वरूपा इत्यर्थः । एवं वलन्त्यो वक्रीभवन्त्यो धुताः कम्पिता: पतिता मणिरूपा: शिला येभ्यस्ते । गिरिपतने तत्क्षोभान्मणिशिला अपि भ्रमित्वा पतन्तीत्यर्थः । तदुत्तरं धरणीघाता भूमेरभिघाता रसातलं पातालं दुन्वन्ति व्याकुलयन्ति । पर्वतपतनेन समुद्रजलक्षोभकृततटाभिघाताया धरण्या आन्दोलने तत्संलग्नत्वेन पातालमप्यान्दोलयतीत्यर्थः । धरण्या दलने पातालमपि दलतीत्यर्थो वा। रसातलं कीदृशम् । मृदितस्य धरण्या यन्त्रितस्य महाभुजंगस्य शेषाहेर्भग्ना अवनता याः फणास्तासामुदराभ्यन्तरादपसृतास्त्यक्ताः संपुटा ओष्ठद्वयमिश्रणा यत्र तत् । क्षुभितभूमिभारेण शेषादेः फणाभङ्गे ओष्ठद्वयविभागेन संपुटत्यागो भवतीत्यर्थः । अथ चूर्णितं मनःशिला धातुविशेषस्तत्तटं यत्र तथाभूतस्य पततः शैलस्य स्पन्देन मनःशिलारागमिश्रितजलक्षरणेनारुणं सागरस्य जलं यन्नश्यति उच्छलितं सत्क्षीयते तत्किल Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] सेतुबन्धम् [ सलम दृप्तेन बलवता निशाचराणामिन्द्रेण ह्रियमाणाया जानक्या बाष्परश्रुभिनिर्भर पूर्ण यत्प्रलोकितमवलोकनं तस्य फलं निष्पद्यमानं जायमानपरिपाकम् । 'फल निष्पत्तो' बातुः । एतादृशं दारुणं दुःसहं फलम् । रावणेन ह्रियमाणां सबाष्पमवलोकयन्तीमपि सीतां समुद्रो न त्याजितवांस्तज्जातपातकस्य फल मिदमित्यर्थः । दीनरक्षामकृत्वा दुःखं लभ्यत इति ध्वनिः ॥५६॥ विमला-वेग से एक-एक करके फेंके गये पर्वतों के समूह का पतन सागर में हो रहा था। उनके पतन से क्षुब्ध होकर मणिशिलायें भी चक्कर काटकर गिर रही थीं। पर्वतों के गिरने से समुद्र -जल के क्षुब्ध होने से अभिहत धरणी के डगमगाने से रसातल भी व्याकुल हो रहा था। क्षुभित भूमि के भार से शेषनाग का फन भग्न हो गया, अतएव उसके भीतर से सम्पुट (ओष्ठद्वय मिश्रण) अपसृत हो गया था। चूर हुये मैनसिल धातु के रंग से मिश्रित जल पर्वत से बहने के कारण, सागर का अरुण जल, जो उछल कर नष्ट हो रहा था, वह मानों समुद्र के उस पाप का दुःसह फल था, जो उसने बलवान रावण के द्वारा हर कर ले जायी जाती हुई तथा सबाष्प इधर-उधर देखती हुई दीन सीता को रावण से छुड़ाया नहीं था ॥५६॥ हंसानां क्षोभमाहसेलसिलाहआ समुद्दोअरे मणीणं ___ चुणिज्जन्ति वित्थरा रमण गामणीणम्। भरइ महङ्गणं अणिधिण्णमेहलाणं - हंसउलावलीणं वणराइमेहलाणम् ॥६॥ [शैलशिलाहताः समुद्रोदरे मणीनां चूर्ण्यन्ते विस्तारा रत्नग्रामणीनाम् । भ्रियते नभोङ्गणमनिविण्णमेघलानं हंसकुलावलीनां वनराजिमेखलानाम् ॥] मणीनां विस्ताराश्चूर्ण्यन्ते कणशः क्रियन्ते । पर्वतैरेवेत्यर्थात् । अत्र हेतुमाहकीदृशाः । समुद्रोदरे शैलशिलाभिराहता अभिहताः । मणीनां किंभूतानाम् । रत्नग्रामणीनां रत्नश्रेष्ठानाम् । एवं हंसकुलावलीनामिति 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां' इतिवत्करणे षष्ठी । तथा च हंसकुलावलीभिर्नभोङ्गणं भ्रियते पूर्यते । कीदृक् । अनिविण्णमसंपन्नं मेघानां लानमादानं यस्य । गिरीणां मिथः संघट्टनं मेघानामपगमात् । 'ला आदाने' धातुः । कीदृशानाम् । वनराज्याः पर्वतीयवनमालाया वनं जलं तद्राज्या वा मेखला काञ्ची तद्रूपाणाम् । पर्वतक्षोभेण तत्सरोवरहंसानामपीतस्ततो नभसि प्रसरण मित्यर्थः । पर्वतपतनकर्थिता: समुद्रहंसा एव गगनं गता इति वा । यद्वा नभोङ्गणं कर्तृ, हंसकुलावलीनां स्मरति । मेघसंबन्धाभावेन हंसप्रसरणयोग्यत्वादिति भावः। कर्मणि षष्ठी। 'स्मरति वन गुल्मस्य कोकिलः' इतिवत् ।।६०॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २७७ विमला - समुद्र के भीतर, शैलशिलाओं से अभिहत होकर रत्नश्रेष्ठ मणियाँ चूर-चूर हो गयीं । ( पर्वतीय ) वनमाला की काञ्चीरूप हंस-पंक्ति से मेघशून्य आकाश का प्राङ्गण भर गया || ६० ॥ पुनः समुद्रक्षोभमेवाह - रसइ रसाअलं दलइ मेइणी णिसुब्भन्ति जलश्रणिवहा परीइ गअण ङ्गणे कविप्रणो ओसुम्भन्ति महिहरा महिहराहिहओ साझरो वि सुह अलम्मि घोलइ प्रमुक्कविअणो । कुसुमपसाहणं विश्र समुद्धपल्लवं साअरम्मि पड़िआण विडवलग्गं दुमावलीणं जाअं भिण्ण सिप्पिउड मज्झणिग्गअत्थोरधवलमोत्ताविहसणं विदुमावलीणम् ॥ ६१॥ [ रसति रसातलं दलति मेदिनी निपात्यन्ते जलदनिवहाः पर्येति गगनाङ्गणे कपिजनोऽपवात्यन्ते महीधरा महिधराभिहतः सागरोऽपि सुचिरं स्थलं घूर्णतेमुक्तवेदनः । - कुसुमप्रसाधनमिव समुग्धपल्लवं सागरे पतितानां विटपलग्नं द्रुमावलीनां जातं भिन्नशुक्तिपुटमध्यनिर्गतस्थू लधवलमुक्ताविभूषणं विद्रुमावलीनम् ॥ ] रसातलं पातालं रसति शब्दायते । पर्वताभिघातात् । मेदिनी दलति खण्डिता भवति । तत एव जलदनिवहा निपात्यन्ते । स्वपतनेन गिरिभिरित्यर्थात् । एवं गगनाङ्गणे कपिजनः कपिलोकः पर्येति । वानरान्तरक्षिप्तपर्वतानामुपरि पातशङ्कया बहिर्यातीत्यर्थः । महीधरा भवपात्यन्ते । सागरे कपिभिरित्यर्थात् । महीधरेणाभिहतः सागरोऽपि सुचिरं व्याप्य स्थले घूर्णते । उच्छलनात् । कीदृक् । अमुक्ता वेदना येन । पर्वतपातजन्य वेदनावानित्यर्थः । एवं पर्वताभिघातेन भिन्नस्य द्विधा - भूतस्य शुक्तिपुटस्य मध्यान्निर्गतं बहिर्भूतं स्थूलं धवलं मुक्तारूपं विभूषणं कर्तृ विद्रुमेषु प्रवालेष्ववलीनं संबद्धं सत्सागरे पतितानां द्रुमावलीनां विटपे लग्नं मुग्धपल्लवसहितं कुसुमप्रसाधनं कुसुमरूपालंकरणमिव जातम् । शुक्तेरुच्छलितानि मुक्ताफलानि विद्रुमेषु लग्नानि तेन समुद्रपतितपर्वतीयवृक्षाणां मुक्ताफलानि शुभ्रतया कुसुमत्वेन विद्रुमवनानि शोणतया नवदलत्वेनोत्प्रेक्षितानि । महदाश्रयेण विपत्तावपि शोभालाभ इति ध्वनिः ॥ ६१ ॥ विमला - पाताल शब्दायमान था, पृथिवी दलित हो गयी थी, पर्वतों के पतन के साथ मेघसमूह का पतन हो रहा था । ( अन्य बानरों के द्वारा फेंके गये पर्वतों के अभिघात से बचने के लिये ) वानर आकाश में चले जाते थे । समुद्र में डाले जा रहे थे । पर्वतों से अभिहत, अतएव वेदनायुक्त सागर उछलकर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] सेतुबन्धम् सप्तम चिरकाल तक पृथिवी पर छटपटाता रहा । पर्वताभिघात से विदीर्ण सीपों के भीतर से निकल कर श्वेत मोती विद्रुम से सम्बद्ध हो, समुद्रपतित वृक्षों की टहनियों से संश्लिष्ट होकर नवदलसहित कुसुम की शोभा को प्राप्त हो रहे थे ।। ६१ ।। गिरीणां वनमाह - प्रत्थमिप्राण महिहराण समच्छरेह परिमलिनाइ वणगएहि समच्छरोह । साहइ कुसुमरेणुमइओ धनो व्वणाई अविरमणिम्महन्तमहुगन्ध ओव्वणाई ॥ ६२॥ [ अस्तमितानां महीधराणां समत्सरः परिमृदितानि वनगजैः सममप्सरोभिः | शास्ति कुसुमरेणुमयो ध्वजो वनानि अविरतनिर्यन्मधुगन्धयोवनानि ॥ ] मप्सरोभिः सहास्तमितानां समुद्रे मग्नानां महीधराणां वनानि कुसुमानां रेणवः परागास्तन्मयो ध्वजो दण्डाकारं चिह्न शास्ति कथयति वनानामपि मग्नत्वाज्जलसंपर्मोद्भूतैः कुसुमरेणुभिध्वं जाकारः परमनुमीयते अत्र वनानीति । कीदृशानि । समत्सरैर्जलमज्जनो द्गतमात्सर्यैर्वनगजैरितस्ततो निर्गमाय संचारेण परिमृदितानि । तथापि निर्गमालाभ इति भावः । पुनः कीदृशानि । अविरतः सदातनों निर्यतां मधूनां गन्धो यत्र तादृशं यौवनं तारुण्यं येषां तानि । 'अत्थमिआई' इति पाठे भस्तमितानीति वनविशेषणम् ॥६२॥ विमला - अप्सराओं के सहित समुद्र में मग्न पर्वतों के से ) ध्वजाकार ऊपर फैले हुये कुसुमपरागों से ही जाने जाते वे वन ( जलमग्न होने थे, जिन्हें क्रुद्ध वन गजों ने रौंद डाला था तथा जिनका वह यौवन था कि निरन्तर मधु की गन्ध निकला करती थी ॥६२॥ समुद्रस्य गाम्भीर्यमाह वह पवंगमलोनो पहुप्पइ णहङ्गणं पडिच्छइ उग्रही । देश महो व महिरे तह वि हू दूरविनडोअरं पाजालम् ॥ ६३॥ [ वहति प्लवंगमलोकः प्रभवति नभोङ्कणं प्रतीष्टे उदधिः । ददाति मपि महीधरांस्तथापि खलु दूरविकटोदरं पातालम् || ] यद्यपि प्लवंगमलोको महीधरान्वहत्यानयतीत्युद्वाहक महत्त्वम् । नभोङ्गणं प्रभवति विस्तीर्णतया तत्प्रसारणयोग्यं भवति । उदधिः प्रतीष्टे स्वयं गृहीत्वा पाता - लाय समर्पयति । न केवलमेतावत्येव सामग्री किं तु मह्यपि ददाति । तथा च यावन्महीवर्तिनः पर्वतान्यावन्तः प्लवंगमा यावदाकाशेन यावत्समुद्रे प्रवेशयन्ति Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२७६ तथापि खलु पातालं दूरादेव विकटोदरं तुच्छोदरम् । पर्वतानामेकदेशे पर्याप्तेरित्यर्थः । तथा च सेतोरसिद्धि रिति भावः । अन्यत्रापि भोज्यादौ भक्ष्यवस्तूनि कश्चिद्ददाति कश्चिदुद्वहति कश्चिद ध्रियते कश्चित्परिवेषयति कश्चिद्भुङ्क्ते भोजनशक्त्या च तस्योदरपूरणं न भवतीति पातालरूपभक्षकस्य महोदरत्वमुक्तम् । दरिद्रोदरपूरणमशक्य मिति ध्वनि: ।।६३॥ विमला-यद्यपि वानर-समूह पर्वतों को ले आता था, आकाश उनके प्रसारण के लिये विस्तीर्ण था, समुद्र स्वयं पर्वतों को लेकर पाताल को समर्पित करता था, पृथिवी भी ( सामग्री ) देती थी तथापि पाताल का विकट उदर भर नहीं रहा था ॥६३॥ अथ षड्भिः स्कन्धरादिकुलकेन समुद्रोपमर्दमुपसंहरतिइअ खोहेन्ति पवंगा थोप्रविराअगिरिपङ्कणि अमहिसम् । दुममिलिअविव दुमवणं थलसावमिलिअजलपरं मअरघरम् ।।६४॥ [इति क्षोभयन्ति प्लवङ्गाः स्तोकविशीर्णगिरिपङ्कनिवृतमहिषम् । द्रुममिलितविद्रुमवनं स्थलश्वापदमिलितजलचरं मकरगृहम् ॥] प्लवंगा इत्यनेन प्रकारेण मकरगृहं समुद्रं क्षोभयन्ति व्याकुलयन्ति । पर्वतप्रक्षेपेणेत्यर्थात् । कीदृशम् । स्तोकमीषद्विशीर्णानां आवत पतनान्नितम्बावच्छेदेन भ्रमतापि गिरीणामुपरि पङ्के निवृताः सुखिनो ( महा )-महिषा यत्र तम् । तथा चावत पतनादधोविशीर्णतायामप्युपरि पडू महिषनिर्व त्या क्षोभोत्पाटनोदहनक्षेपणावर्तभ्रमणानामपरिज्ञानादतिमहत्त्वं गिरीणामुक्तं सत्वरता वा कपीनाम् । गुरोरपि मज्जनाभावेनावर्तस्यातिवेगवत्त्वम् । एवं द्रुमेषु । पर्वतीयेष्वर्थात् । मिलितानि विद्रुमवनानि यत्र । 'मलिअ' इति पाठे द्रुमैम॒दितानि वनानि यत्रेत्यर्थः। एवं स्थलश्वापदेषु वन्यसिंहगजादिषु मिलिताः संगता जलचरा जलसिंहादयो यत्र तम् । तथा च विरुद्धानामप्येकत्र स्थित्या समुद्रे पर्वतानवच्छिन्नदेशाभाव उक्तः । क्षोभातिशयश्च जन्तूनाम् । विपत्ती विरुद्धैरपि मिलित्वा स्थातन्यमिति ध्वनिः ॥६४॥ विमला-इस ( पूर्वोक्त ) प्रकार के वानरों ने (पर्वत-प्रक्षेप से ) सागर को विक्षुब्ध कर दिया, जहाँ किञ्चित् विशीर्ण पर्वतों के ऊपर पङ्क में महिषवृन्द मुखी था तथा विद्रुम वन पर्वतीय वृक्षों में एवं जलचर (सिंहादि ) स्थल-जन्तुओं ( वन्य सिंह-गजादि ) में मिल गये थे ॥६४॥ वणगअगन्धारोसिअजम्भाअन्तपडि उद्धकेसरिमप्रारम् । संमुहपडन्तधराहरभीअवलन्तभुमइन्दगिआवत्तम् ॥६५॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् २८० ] [ वनगजगन्धारोषितजृम्भायमाणप्रतिबुद्ध के सरिमकरम् । संमुखपतद्धराधरभीतवलमानभुजगेन्द्रजनितावर्तम् ॥ ] पुनः किंभूतम् । वनगजानां गन्धेन । मदस्येत्यर्थात् । आरोषिताः क्रुद्धा अत एव जृम्भायमाणाः सन्तः प्रतिबुद्धाः सुप्तोत्थिताः केसरिमकरा जलसिंहा यत्र । वनगजमदगन्धेन निद्राभङ्गाज्जृम्भायमाणत्वमित्यर्थः । एवं संमुखे पतद्भयो धराधरेभ्यो भीता अत एव वलन्त उपरिपतनमाशङ्कय सांमुख्यत्यागाय वक्रीभवन्तो ये भुजगेन्द्रास्तैर्जनित आवर्ती यत्र तम् । आवर्त हेतुवलन शालित्वेन सर्पाणामतिमहत्त्वमुक्तम् । अनागतप्रतिविधानं कर्तव्यमिति ध्वनिः ||६५|| [ सप्तम विमला - जहाँ जलसिंह वनगजों के मद के गन्ध से जागकर क्रुद्ध हो जम्हाई ले रहे थे तथा सामने गिरते पर्वतों से भयभीत सर्प अपनी वक्रगति से जल में आवर्त उत्पन्न कर रहे थे ॥ ६५ ॥ अत्थानन्तवणत्थलिपरिणामोलुग्गपण्डवत्तस्थइत्रम् | म अणदुमभङ्गणिग्ग अकसाअरसमइ अविहलघोलिरमच्छम् ||६६ ॥ [ अस्तायमानवनस्थली परिणामावरुग्णपाण्डुपत्त्र स्थगितम् । मदनद्रुमभङ्गनिर्गतकषायरसमत्तविह्वलघूर्णमान मत्स्यम् ॥ ] एवमस्तायमानायाः पर्वते मज्जति मज्जन्त्या वनस्थल्याः परिणामेन पाकेनावरुग्णैः शुष्कैरत एव पाण्डुभिः पत्त्रैः स्थगितं व्याप्तम् । वृक्षाणां मग्नत्वेऽपि शुष्कवृन्ततया कोमलत्वेन त्रुटित्वा पत्त्राणि जलोपर्यवस्थितानीति भावः । एवं मदनद्रुमाणां भङ्गेन शाखादलनेन निर्गतो यः कषायरसस्तेन मत्ता अत एव विह्वलाः सन्तो घूर्णमानाः स्वास्थ्याभावेन परितो गच्छन्तो मत्स्या यत्र । मत्स्यान्प्रति मदनद्रुमस्य विषतुल्यत्वादिति भावः ॥ ६६ ॥ विमला -- जहाँ जलमग्न वृक्षों के जीर्ण, पीले एवं शुष्क पत्र जल में तैर रहे थे तथा मदन- वृक्ष के भग्न होने के कारण निकले कसैले रस से मत्त, अतएव विह्वल मत्स्य चञ्चल होकर चारों ओर घूम रहे थे ॥ ६६ ॥ धरणिहरभारवेल्लिअपल्लव दल मुद्ध वेल्लिग्रल आजालम् । विसवण्णवाअवाहनपव्वाश्रन्तविसवण्णवा अवकुसुमम् [ धरणिधरभारप्रेरितपल्लवदल मुग्धवेल्लित लताजालम् । विषवन्नवातपाहतप्रवार्याद्विसवर्णपादपकुसुमम् u ] एवं धरणीधराणां भारेण प्रेरितानि सन्ति पल्लवानां दलेन दलनेन मुग्धानि ह्रस्वानि अत एव वेल्लितानि चञ्चलानि लतानां जालानि यत्र । गिरिगौरवकृतप्रेरणया पल्लवभङ्गकृतलाघवेन च लतानां वेल्लनमित्यर्थः । एवं विषवन्तः सर्पास्त 118011 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २८१ एव नवातपास्तापहेतुत्वात्तैराहतानि स्पृष्टानि अत एव प्रवायन्ति शुष्यन्ति । 'ओवै शोषणे' धातुः । बिषवर्णानि मृणालवद्धवलानि पादपानां कुसुमानि यत्र । पर्वतवृक्षाणां समुद्र एव पतनादिति भावः । तदानीं सर्पाणां क्षोभादितस्ततः संचरतां निःश्वासेन पुष्पमालिन्यमिति भावः । दुष्टसांनिध्यमपकारहेतुरिति 'T' ध्वनिः ॥६७॥ विमला - जहाँ लतायें, पर्वतों के भार से प्रेरित एवं पल्लवों के विनष्ट हो जाने से लाघव को प्राप्त होने के कारण चञ्चल हो रही थीं तथा मृणाल के समान धवल पादप- कुसुम विषधर - ( सर्प ) - रूप नव आतप से आहत हो शुष्क हो रहे थे ।। ६७ ।। आवत्तभमिरमहिहर सिह रोज्झरसीहरन्ध आरिश्रगश्रणम् । पडोसहिगन्धाप्रपा आलसमुच्छलन्तविहलविसहरम् ॥ ६८ ॥ [ आवर्तभ्रमणशीलमहीधर शिखर निर्झरशीकरान्धकारितगगनम् । पतितौषधिगन्धाहतपातालसमुच्छल द्विह्वलविषधरम् [[ ] एवमावर्तेषु भ्रमतां महीधराणां शिखरेषु ये निर्झरास्तेषामुच्छलनादुपरि चक्रवद्भ्रमतां शीकरैरन्धकारितं गगनं यत्र । गिरीणां गुरुत्वेऽप्यावर्तस्योत्कटतया तलं गन्तुमलभमानानां शिखरपरिभ्रमन्निर्झरशी करावृतत्वात्सूर्यस्येति भावः । तथा च सूर्याच्छादकत्वेन तमसः प्रकर्षस्तेन शीकराणां तेन निर्झरस्य तेन शिखरस्य तेन पर्वतस्य तेन तत्पतनप्रतिबन्धकतयावर्त वेगपरिमाणयोस्तेन च समुद्रस्य प्रकर्षो व्यज्यत इति व्यञ्जनापरम्परा । एवं पतितानां जलमूलगतानामोषधीनां गन्धेनाहता स्पृष्टा अत एव पातालात्समुच्छलन्त उपरि समागच्छन्तो विह्वला विषधरा यत्र तम् । पर्वतौषधीनां गन्धवत्तया सर्वैर्दु:सहगन्धत्वादिति भावः । ' देशं सोपद्रवं त्यजेत्' इति ध्वनिः ||६८ ॥ विमला - जहाँ आवर्ती में चक्कर काटते पर्वतों के शिखरगत निर्झरों के शीकरों से ( सूर्य के आच्छादित होने के कारण ) गगन अन्धकारमय हो गया था तथा जल के भीतर नीचे तक पहुँची औषधियों के गन्ध से आहत विषधर ( सर्प ) विह्वल होकर ऊपर आ रहे थे ||६८ || श्रावत्तमण्डलोनरवलन्त से लकड अप्पहा मिज्जन्तम् 1 णिन्तरसा अलविसहर वित्थिष्णफणामणिप्पहामिज्जन्तम् ||६६|| ( कुलअम् ) [ आवर्तमण्डलोदरवलमानशैलकटकप्रभ्राम्यमाणम् । निर्यद्रसातलविषधरविस्तीर्णफणामणिप्रभामीयमानम् ॥ ] ( कुलकम् ) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] सेतुबन्धम् [ सप्तम एवं मण्डलाकारस्यावर्तस्योदरे वलमानो भ्रमन्त्यः शैलस्तस्य कटकेन प्रभ्राम्यमाणम् । आवर्ते चक्रवन्रमतः कटकस्य संस्कारेण समुद्रस्यापि भ्रमण मिति कटकमहत्त्वात्पर्वतमहत्त्वं तथाविधपर्वतमज्जनप्रतिबन्धकतया चावर्तस्योत्कर्षात्समद्रस्योत्कर्ष इति परस्परालंकारः । एवं निर्यन्तः पर्वतोषधिगन्धेन पातालक्षोभेण वा बहिर्भवन्तो ये रसातलसर्पास्तेषां विस्तीर्णा याः फणास्तासां मणीनां प्रभाभिर्मीयमानं ज्ञायमानम् । उपरि प्रागुक्तशीकरान्धकारसत्त्वेऽप्युत्थितपातालसर्पफणामणिप्रभाभिरधस्तादु द्योतेन ज्ञायते समुद्रोऽयमिति भावः । यद्वा जलान्तरवर्तितन्मणितेजोविशेषेणोद्गच्छता पातालोत्थितसर्पवानयमित्यनुमीयमानमित्यर्थः । आदिकुलकम् ।।६।। विमला-मण्डलाकार आवर्त के भीतर पर्वत भ्रमित हो रहे थे। उनके परिभ्रमित नितम्ब भाग से समुद्र परिभ्रमित हो रहा था तथा ( अन्धकाराच्छन्न होने पर भी ) बाहर निकलते रसातल के सों के विस्तीर्ण फनों की मणियों से जाना जाता था। (उक्त छः स्कन्धक एक साथ अन्वित होने से कुलकसंजक हैं ) ।। ६६ ॥ सेतोरनिष्पत्तिमाहअव्वोच्छिण्णविसज्जिमणिप्रन्तराआममिलि अपव्वप्रधडियो । वीसइ णहणिम्मानो णासइ उअहिम्मि णिवडिओ सेउवहो ॥७॥ [ अव्यवच्छिन्नविसृष्टनिरन्तरायाममिलितपर्वतघटितः ।। दृश्यते नभोनिर्मितो नश्यत्युदधौ निपतितः सेतुपथः ।।] अव्यवच्छिन्नमविच्छेदं यथा स्यादेवं विसृष्टाः क्षिप्ता अथ निरन्तरेण निःसंधिना आयामेन दैर्घ्यणोपलक्षिताः सन्तो मिलिता: परस्परं संबद्धा ये पर्वतास्तैर्घटितो योजितः सेतुपथो नभसि निर्मितो दृश्यते । उदधौ पुनर्निपतितः सन्नश्यति मज्जन्नदृश्यो भवति । पर्वतानामेकदैव क्षेपादाकाशे वृत्त इति निश्चीयमानोऽपि सेतुरुदधौ न तिष्ठतीति स्थिरबुद्धि : क्वापि न कर्तव्येति ध्वनिः ।।७०॥ विमला-अविच्छिन्न रूप से डाले गये, निरन्तर दीर्घता से उपलक्षित एवं परस्पर सम्बद्ध पर्वतों से योजित सेतुपथ आकाश में निर्मित दिखायी दिया, किन्तु समुद्र में निपतित हो अदृश्य हो गया ।। ७० ।। अथ कपीनां परिश्रममाह तो घेपिउं पउत्ता थोअथो परिस्समेण पवंगा। अणुराए व्व विराए लङ्काणत्थघडणक्खमे से उवहे ।।७१॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकव्वे सत्तमो आसासओ। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ततो ग्रहीतुं प्रवृत्ताः स्तोकस्तोकं परिश्रमेण प्लवंगाः । अनुराग इव विशिर्णे लङ्कानर्थघटनक्षमे सेतुपथे ॥ ] इति प्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये सप्तम आश्वासः ।। ततः पर्वतक्षयान्तरं प्लवंगाः स्तोकस्तोकमल्पमल्पं परिश्रमेण ग्रहीतुमाक्रमितुं प्रवृत्ताः प्रारब्धा: । कस्मिन्सति । लङ्काया अनर्थस्य दुरन्तस्य घटनक्षमे सेतुपथे अनुराग इव विशीर्णे नष्टे सति । तदानीं वानराणां यथा यथा सेतुविशीर्णस्तथा तथा मनःप्रसादो विशीर्ण इति सहोपमा । लङ्कानथंघटनक्षम इत्यनुरागेऽपि योज्यम् । मनः प्रसादस्यापि तद्धटकत्वात् । तथा च प्रथमं सेतुनिश्चयात्परि-श्रमाभावः पश्चाद्यथा यथा सेतुव्यतिरेकसंशयोदयस्तथा तथा परिश्रमोत्पत्तिरिति कपीनां वीरत्वमुक्तम् । आरब्धा निष्पत्ति: सर्वथा दुःखहेतुत्वात्परिहर्तव्येति ध्वनिः ॥७१॥ सेतोद्योगदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णाभूत्सप्तमी शिखा ॥ विमला - लङ्काका अनर्थ करने में समर्थं उस सेतुपथ के विशीर्ण होने पर जैसे बानरों का अनुराग ( मन की प्रसन्नता ) विशीर्ण हो गया, किन्तु तदनन्तर ही उनमें धीरे-धीरे पुनः परिश्रम की प्रवृत्ति का अभ्युदय होने लगा ।। ७१ ।। [ २८३ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में सप्तमः आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई । 1300000 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम आश्वास: अथ कपीनां निवृत्तव्यापारतामाहइम जाहे गिवडन्ता सिहरोझरधोअसुरविमाणधप्रवडा। अस्थाअन्ति समुन्दे वित्थारथमिप्रणहला वि महिहरा ॥१॥ ताहे णिसुद्धसेसा वेवन्तुव्वत्तकरअलोसरिअअडा। ठविमा वेलामूले खणलक्खि अगोरवा कईहि महिहरा ॥२॥ ( जुग्गअम् ) [ इति यदा निपतन्तः शिखरनिर्झरधौतसुरविमानध्वजपटाः । अस्तायन्ते समुद्रे विस्तारास्तमितनभस्तला अपि महीधराः ॥ तदा निपातितशेषा वेपमानोवृत्तकरतलापसृततटाः । स्थापिता वेलामूले क्षणलक्षितगौरवाः कपिभिर्महीधराः ॥] (युग्मकम् ) इत्यनेन प्रकारेण यदा एवं भूता अपि महीधराः समुद्रे निपतन्तः सन्तोऽस्तायन्ते मज्जन्ति। तदेत्यग्रिमस्कन्धकेनान्वयः । किंभूताः । शिखरस्थनिर्झरैधौंताः प्रक्षालिता: सुरविमानानां ध्वजपटा यरित्युच्चत्वम् । एवं विस्तारणास्तमितं छन्नं नभस्तलं यस्ते । तदा कपिभिनिपातितेभ्यः समुद्रे क्षिप्तेभ्यः शेषा अवशिष्टा महीधरा वेलामूले तीरभूमी स्थापिताः । वृथा किमिति क्षेप्तव्या इत्याशयः । कीदृक्षाः । क्षणं व्याप्य लक्षितं ज्ञातं गौरवं येषां ते। कार्यानिष्पत्त्योत्साहापगमादवतारणक्षण एव गौरवज्ञानं वृत्तमित्यर्थः । एवं वेपमानादवतारणसमये गौरवज्ञानेन क्रोधेन वा कम्पवतोऽथ चानास्यावतारणायोवृत्तादूर्ध्वपृष्ठीकृतात्करतलादपसृतमधःपतितं तट कटकभागो येषां ते । गुरुद्रव्यावतारणे करे कम्पो भवतीति वस्तुगतिः (युग्मकम्) ॥१.२॥ विमला-इस प्रकार जिनके शिखर-निझरों से सुरविमानों के ध्वजपट धुल गये तथा जिनके विस्तार से गगनतल आच्छादित हो गया, ऐसे-ऐसे विशाल पर्वत भी जब समुद्र में डूब गये तब बानरों ने डालने से बचे हुये पर्वतों को समुद्र की तीर-भूमि पर ही रख दिया। उन्हें उतारने के लिये जब वानरों ने अपने करतल को उलट दिया-पृष्ठभाग ऊपर किया, तब उन पर्वतों का नितम्ब भाग करतल से नीचे गिर गया और उन्हें उन ( पर्वतों) की गुरुता का अनुभव उतारते समय Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२८५ थोड़ी देर तक ही हुआ। ( उक्त दोनों स्कन्धकों का अन्वय एक साथ होने से इनकी 'युग्मक' संज्ञा है ) ॥ १-२ ॥ अथ दशभिः स्कन्धकैः समुद्रस्य विश्राममाहगिरिसंखोहविमुक्का झीणा अप्पत्तपढमगमणोआसा । मन्दन्दोलणमउआ गआगअ चिन्न समुद्दसलिलुप्पीडा ॥३॥ [गिरिसंक्षोभविमुक्ताः क्षीणा अप्राप्तप्रथमगमनावकाशाः । मन्दान्दोलनमृदुका गतागता एव समुद्रसलिलोत्पीडाः ॥] पतनजन्याद् गिरिसंक्षोभाद्विमुक्तास्त्यक्ताः समुद्रसलिलानामुत्पीडा गतागता एव । प्रथमं गता उच्छलनवशात् ततः पर्वतानामप्रक्षेपाज्जलान्तरस्यानुत्थानात्कियद्रतः प्रतिनिवृत्त्यागता एव । जलस्य क्वचित्क्वचिन्निम्नप्रदेशे प्रविष्टत्वादल्पीभूय समुद्रं प्रविष्टा एवेत्यर्थः । तदुक्तं क्षीणाः। तत एवाविलम्बेनागता इत्येवकारार्थः । एवमप्राप्तः प्रथमगमनस्यावकाशो निम्नप्रदेशो यः । तेषां प्रथमगमन एव जलपूर्णत्वात्परावृत्ती संबन्धाभावात् । एवं मन्देनान्दोलनेन क्षोभेण मृदुकाः । उच्छलनहेतुवेगविरामेण परावृत्ती स्वारसिकतया मृदुगतय इत्यर्थः । वस्तुततु गिरिसंक्षोभेण विमुक्ताः समुद्रात्पृथक्कृता जलोत्पीडा गता गता एव । ये गता उच्छलितत्वात्ते गता एव न पुनः प्रत्यावृत्ता इत्यर्थः । तेनोच्छलनवेगप्रकर्ष उक्तः । अनागमने हेतुमाहक्षीणाः क्वचित्क्वचिद्विशीर्णाः । तदाह-अद्भिः प्राप्ताः पूरिताः प्रथमगमनस्याबकाशा निम्न प्रदेशा यस्मात् । अत एव सैन्याच्चिरकालीनत्वेन पूर्वसंस्कारापगमाच्च मन्दान्दोलनेत्यादि । उच्छलितजलस्य कियद्रे गतिमार्दवं भवतीत्याशयः । अप्राप्तः परावृत्त्यभावेनालब्धः प्रथमगमनप्रदेशो यैरिति केचित् ॥३॥ __बिमला-पर्वतों के संक्षोभ से पृथक् किये गये समुद्र के जलपूर उछल कर जब गये तो मन्द-मन्द कम्पनयुक्त मृदु गति से दूर भूमि तक चले ही गये और यत्र तत्र विशीर्ण हो, प्रथम गमन-प्रदेश को लौटकर पुनः नहीं आ सके ।। ३ ।। अथ समुद्रस्य पूर्वावस्थाप्राप्तिमाहभिण्णघडन्तावत्तो आवत्तन्तरभमन्तभिण्णमहिहरो। महिहरसंभमविहुओ विहुप्रणिअत्तसलिलो णिप्रत्तइ उअही ॥४॥ [ भिन्नघटमानावर्त आवर्तान्तरभ्रमद्भिन्नमहीधरः । महीधरसंभ्रमविधुतो विधुतनिवृत्तसलिलो निवर्तत उदधिः ॥] महीधरसंभ्रमेण गिरिसंक्षोभेण विधुत आन्दोलितः समुद्रो निवर्तते गिरिपतनाभावेन पूर्वावस्थां लभते । किंभूतः । भिन्नाः प्रथमं पर्वतपातेन विशकलिताः पश्चातदभावेन घटमानास्तत्रैव यथापूर्व प्रवृत्ता आवर्ता यत्र । एवमावर्तान्तरे भ्रमन्त Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम स्तत्संस्कारेण घूर्णन्तो भिन्नाः खण्डखण्डीभूता महीधरा यत्र । देवात्पुनस्तत्र ये पतितास्ते शतखण्डीभूय तत्रैव भ्रमन्तीत्यर्थः । एवं प्रथमं विधुतं गिरिपतनादुच्छलितं पश्चानिवृत्तं तवैव प्रविष्टं सलिलं यत्र तथा । शृङ्खलानुप्रासोऽयम् ॥४॥ विमला-गिरिसंक्षोभ से आन्दोलित समुद्र अब अपनी पूर्व अवस्था को प्राप्त हो गया। उसका जो जल पर्वतपात से उछल कर चला गया था वह पुनः उसमें आकर प्रविष्ट हो गया। उसके आवर्त, जो पर्वतपात से नष्ट हो गये थे, पुनः पूर्ववत् प्रवृत्त हो गये और ( देवात् ) उनमें जो पर्वत पुनः पड़ गये वे खण्ड-खण्ड हो उन्हीं में चक्कर काटने लगे ॥ ४ ॥ भथ समुद्रस्य निश्चलतामाह वोच्छिज्जन्तकल अलं जहोइअठाणदरपप्रत्तावत्तम् । दोसइ खणदुल्लक्खं तं चिअ थिमिप्रसलिलत्तणं जलणिहिणो ॥५॥ [ व्यवच्छिद्यमानकलकलं यथोचितस्थानदरप्रवृत्तावर्तम् । दृश्यते क्षणदुर्लक्ष्यं तदेव स्तिमितसलिलत्वं जलनिधेः ।।] क्षणं व्याप्य दुर्लक्ष्यं पर्वतपतने सत्यलक्ष्यमुदधेः स्तिमितसलिलत्वं निश्चलजलत्वं तदेव प्राचीनमेव दृश्यते । पर्वतपतनाभावेन पूर्ववदेव दृश्यत इत्यर्थः । कीदक । ज्यवच्छिद्यमानः प्रशान्तः कलकलः पर्वतसंघट्टजन्यः शब्दो यत्र । एवं यथोचितस्थाने पूर्व स्मिन्नेव देशे ईषत्प्रवृत्त आवतॊ यत्र तत् । पुनस्तत्रैवावर्तोत्पत्तेरित्यर्थः । गिरिपतनकालापेक्षया तदानीं स्वारसिकतया तथावेगाभावेनेषत्त्वम् ॥ ५॥ विमला--समुद्र का निश्चल जल, जो स्वल्प काल तक पर्वतपात के समय अलक्ष्य हो गया था, पूर्ववत् पुनः दिखायी पड़ने लगा। उसमें पर्वतों के टकराने से उत्पन्न कलकल ( शब्द ) प्रशान्त हो गया तथा यथोचित स्थानों में पुनः आवर्ती की किञ्चित् प्रवृत्ति हो गयी ॥ ५ ॥ अथ समुद्रप्रशान्तौ योग्यप्रसङ्गमाह मोत्ताबडन्तकुसुमं सममरगप्रवत्तभङ्गभरिआवत्तम् । विद्दुममिलिअकिसल ससङ्खधवलकमलं पसम्मइ सलिलम् ॥६॥ [ मुक्ताघटमानकुसुमं सममरकतपत्त्रभङ्गभृतावर्तम् । विद्रुममिलितकिसलयं सशङ्खधवलकमलं प्रशाम्यति सलिलम् ।। सलिलमर्थात्समुद्रस्य प्रशाम्यति निश्चलतामवलम्बते। की दृक् । मुक्ताभिर्घटमानानि संबध्यमानानि गिरिवृक्षाणां कुसुमानि यत्र । शुभ्रत्वात् । एवं पूर्व निपातानियमेन मरकतसमेन पत्तभङ्गेन तेषामेव प्रौढपत्त्राणां खण्डेन भृतः पूर्ण आवर्तो यत्र । हरिद्वर्णत्वात् । एवं विद्रु मैमिलितानि तेषामेव किसलयानि नवरला नि यत्र । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२८७ लोहित्यात् । एवं सशङ्खानि शङ्खमिश्रितानि धवलकमलानि यत्र तादृशम् । शुक्लत्वादेव । तथा च यथा तत्र मुक्तामरकतविद्रुमशङ्खाः स्थितास्तथा सजातीयत्वेन तदानीं तत्तन्मिश्रितानि कुसुमपत्तभङ्गकिसलयकमलानीत्यर्थः । यद्वा पर्वतप्रक्षेपोतरमपि स्थितानि पुष्पादीनि स्वसमानवर्णतया तत्तन्मिश्रितानि तत्तबुद्धिमेव जनयन्तीति पर्वता इह पतिता इति बुद्धिरेव नासीत् । एतादृशी निश्चलतासीदिति भावः ॥ ६ ॥ विमला-समुद्र का जल ऐसा निश्चल हो गया कि यह समझा ही नहीं जा सकता था कि इसमें कभी पर्वतों का पतन हुआ था, क्योंकि गिरिवृक्षों के कुसुम मुक्ताओं से, पत्ते आवर्तों में मरकत से, किसलय विद्रुम से तथा धवल कमल शंखों से मिल कर तत्तद्रूप हो अपने अस्तित्व की प्रतीति ही नहीं करा पाते थे ॥ ६ ॥ अथ धातुरागनिवृत्तिमाह दोसइ समोसिअन्ती खणणिव्वलि उत्तरन्तविलुलिपकुसुमा। झिज्जन्तारुणअम्बा समुद्दवम्मि धाउपङ्कच्छाआ ॥७॥ [ दृश्यते समवसीदन्ती क्षणनिर्वलितोत्तरद्विलुलितकुसुमा। क्षीयमाणारुणताम्रा समुद्रपृष्ठे धातुपङ्कच्छाया ॥] समुद्रस्य पृष्ठे उपरि धातुर्गेरिकं तस्य यत्पy समुद्रजलसंबन्धात् तच्छाया तत्कान्तिः समवसीदन्ती क्षीयमाणा सती क्षीयमाणो योऽरुणः सूर्यसारथि: संध्यारागो वा तद्वदा ईषत्ताम्रा दृश्यते । यथारुणस्य क्षयदशायामग्रेऽग्रे क्रमेण लौहित्यह्रासस्तथा पर्वतपतनाभावादपरस्यानुसत्या पूर्वपूर्वस्य धातुरागस्य ह्रास इत्यर्थः । किंभूता। क्षणात्तदानीमेव निर्बलितं पृथग्भूतं सदुत्तरज्जलाभ्यन्तरादूर्ध्वमागच्छद्विलुलितं जलसंबन्धान्मृष्टं कुसुमं गिरिवृक्षाणां यत्र तत् । क्षोभसमये तलगतमपि कुसुमं तन्निवृत्तावुन्मज्जतीति वस्तुस्थितिः । 'अरुणोऽव्यक्तरागे स्यात्संध्यारागेऽर्कसारथौ' इति विश्वः ॥ ७ ।। विमला-समुद्र के ऊपर पर्वतों की धातु ( गेरू ) के पङ्क की कान्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती हुई सन्ध्याराग के समान किञ्चित् ताम्रवर्ण दिखायी दे रही थी, जिसमें उस समय जल के भीतर से ऊपर आते हुए चंचल कुसुम ( भिन्न वर्ण होने से ) पृथक् व्यक्त हो रहे थे ।। ७ ।। अथ जलहस्तिनां चेष्टामाहवणगनगन्धुत्तिण्णा पुणो णिअत्तन्ति आप्रवाह अविहला। णि अप्रकरसीहरोल्लिमणिव्वाअन्तमुहमण्डला करिमनरा ॥८॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] सेतुबन्धम् [अष्टम [ वनगजगन्धोत्तीर्णाः पुननिवर्तन्त आतपाहतविह्वलाः । निजककरशीकराद्रितनिर्वाप्यमाणमुखमण्डलाः करिमकराः ॥] वनगजानां मदस्य गन्धेनोत्तीर्णा युद्धाय तटमागताः करिमकराः पुननिवर्तन्ते समुद्रमेव प्रविशन्ति । अत्र हेतुमाह-आतपेन रवितेजसा आहताः स्पृष्टाः सन्तो विह्वलाः । सदा जलावस्थित्या आतपतक्ष्ण्यास हत्वात् । एवं निजकः स्वीयः करः शुण्डा तदीयशीकरैराद्रितं सजलीकृतं सन्निर्वाप्यमाणं तापशून्यी क्रियमाणं मुखमण्डलं यस्ते । तापे सति शुण्डानीतोदरजलेन वपुः सिञ्चन्तीति करिस्वभावः । तथाविधपर्वताभावेन प्रतिपक्षालाभादातपसंबन्धाद्वा निवृत्तिरिति भावः ॥ ८ ॥ विमला-वनगजों के मद की गन्ध पाकर जलहस्ती युद्धार्थ तट पर आये, किन्तु आतप से आहत, अतएव विह्वल होकर अपनी सूड के शीकरों से मुखमण्डल को आर्द्र एवं तापरहित करते हुए पुनः समुद्र में प्रविष्ट हो गये ।। ८ ।। अथ नदीनां समुद्रप्रवेशे मुखमालिन्यमाहदुमभङ्गकलुसिआई कसारसभिण्णपण्डुरप्फेणाई। जापाई णिण्णआणं उत्थलवलणरअधूसराई मुहाई ॥६॥ [ द्रुमभङ्गकलुषितानि कषायरसभिन्नपाण्डुरफेनानि । जातानि निम्नगानामुत्स्थलवलनरजोधूसराणि मुखानि ।।] निम्नगानां समुद्रगामिनीनामित्यर्थात् मुखानि प्रवेशस्थानानि उत्स्थलेन तीरभूमावुन्मार्गेण यद्वलनमितस्ततो गमनं तेन रजोभिवूसराणि जातानि । कीदृशानि । पार्वतीयानां द्रुमाणां भङ्गः संघट्टजः खण्डः कलुषितानि पूर्णानि । एवं द्रुमभङ्गस्यैव कषायेण रसेन भिन्नाः संबद्धाः पाण्डुराः फेना येषु तानि । पूर्व पर्वतक्षोभजन्यतरङ्गाभिघातेन निम्न गाजलानि तीरभूमौ लुठितानि पश्चात्तन्निवृत्तौ परावृत्त्या धूलीसंबद्धाद्धूसराणि । तरङ्गसहागतद्रुमभङ्गसङ्गात्कलुषितानीत्यर्थः । तीरभूमिष्ठा वृक्षभङ्गास्तेन सहागतास्तैः कलुषितानीति वा । अथ च पत्युरापदि पत्नीनां मुखं रजोधूसरं कलुषं च भवतीति नदीनामप्रसन्नता सूचिता ॥६॥ विमला-तीरभूमि पर कुमार्ग से इधर-उधर गमन करने से ( समुद्रगामिनी) नदियों के मुख (प्रवेश स्थान ) धूलिधूसर, द्रुमखण्डों से कलुषित (पूर्ण) एवं (द्रुमखण्डों के ही ) कसैले रस से युक्त पाण्डुर (पीलापन लिये श्वेत रंग के ) फेन वाले हो गये ॥ ६ ॥ अथ पर्वतखण्डानामितस्ततो गमनमाह खुहिमोहिविच्छूडा महिन्दकडएसु मलमभित्तिच्छेआ। घडिमा मलिअगअउला मलप्रपडेसु अ महिन्दसेलद्धन्ता ॥१०॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ २८६ [ क्षुभितोदधिविक्षिप्ता महेन्द्रकटकेषु मलयभित्तिच्छेदाः । घटिता मृदितगजकुला मलयतटेषु च महेन्द्रशेलार्धान्ताः ॥ ] मलयभित्तिस्तत्पार्श्वभागस्तत्खण्डा महेन्द्रगिरेिकटकेषु च पुनर्महेन्द्रशैलस्यैकदेशा मलयतटेषु घटिताः संबद्धा जाताः । समुद्रक्षोभे विपर्यस्तास्तन्निवृत्तौ यत्र ये गतास्तत्रैव ते मिलित्वा स्थिताः संचारकतरङ्गाभावादिति भावः । तदाह – किंभूताः । क्षुभितेन पर्वतसंघट्टान्दोलितेनोदधिना विक्षिप्ता दिशि दिशि प्रेरिताः । एवं मृदितं गजानां कुलं यैस्ते । तरङ्गाभिहतैस्तत्तत्खण्डैः स्वसंघट्टेन तत्तद् गिरिगजा मर्दिता इत्यर्थः ॥ १० ॥ विमला - क्षुभित समुद्र ने मलयगिरि तथा महेन्द्रगिरि के जिन खण्डों को चतुर्दिक् तितर-बितर कर दिया था और जिनसे गजसमूह मर्दित कर दिये गये थे, वे अब समुद्र के प्रशान्त हो जाने पर जहाँ थे वहीं मिलकर स्थित हो गये, मलयगिरि के खण्ड महेन्द्रगिरि के नितम्ब भाग में, महेन्द्रगिरि के खण्ड मलयगिरि के तटभाग में सम्बद्ध हो गये ।। १० ।। अथ पुलिने जलत्यागमाह- दोसन्ति विअडवला थिमिश्रणिअत्तन्तजलतरङ्गिअवट्टा | वासुइणिम्मोअणिहा निरन्तरालग्गमोत्तिआ पुलिणवहा ॥ ११ ॥ [ दृश्यन्ते विकटधवलाः स्तिमितनिवर्तमानजलतरङ्गितपृष्ठाः । वासुकिनिर्मोकनिभा निरन्तरालग्नमौक्तिकाः पुलिनपथाः ॥ ] पुलिनरूपाः पन्थानो वासुकेर्निर्मोकः कञ्चुकस्तत्तुल्या दृश्यन्ते । पर्वतक्षेपाभावाज्जलस्योच्छलनाभावेन पुलिनस्य सुखसंचारयोग्यतया पथत्वेन रूपणम् । कीदृशाः । विकटाः सन्तो धवलाः । एवं स्तिमितं स्थिरं यथा स्यादेवं निवर्तमानं विश्रम्य विश्रम्याधो गच्छद्यज्जलं तेन तरङ्गितं निम्नोन्नतरेखाविशेषशालि पृष्ठं येषां ते । पर्वत प्रक्षेपहासक्रमेण जलनिवर्तनक्रमा देखाणामुदयादिति भावः । अत एव निरन्तरं यथा स्यादेवमालग्नानि मौक्तिकानि येषु । जलस्याधोगमने सन्निधौ संनिधावेव मुक्तानां पतितत्वात् । अत एव निर्मोकसाम्यम् । तस्यापि विकटधवलत्वाद्रेखाविशेषशालिपृष्ठत्वात्क्वचित्क्वचिन्मुक्ताभबिन्दुचित्रितत्वादित्याशयः ॥ ११॥ विमला - पुलिनपथ विकट एवं धवल होने, धीरे-धीरे निम्न प्रदेश की ओर लौटते जल से पृष्ठ भाग पर नीची-ऊँची रेखाओं के बनने तथा कहीं-कहीं मोतियों के पड़े रहने से वासुकि नाग की केंचुली के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ११ ।। अथ गतजलानां प्रत्यागमनमाह- खोहेन्ति खुहिणिहुअं उअहि गहबन्धपडिणिश्रत्तोवइना । पव्वअघाउ क्खित्ता चिरश्रालालोइआ १८ से० ब० सलिल संघाला ॥१२॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] सेतुबन्धम् [अष्टम [ क्षोभयन्ति क्षुभितनिभृतमुदधिं नभःपथप्रतिनिवृत्तावपतिताः । पर्वतघातोत्क्षिप्ताश्चिरकालालोकिताः सलिलसंघाताः ॥ ] पर्वतघातेनोत्क्षिप्ता ऊर्ध्व गमिताः सलिनसंघाता नभःपथात्प्रतिनिवत्ता अत एवावपतिता अधः पतिताः सन्तः प्रथमं पर्वतक्षेपे सति क्षुभितमान्दोलितं पुनस्तनिवृत्ती निभृतं निश्चलमुधिं पुनरपि क्षोभयन्ति स्वस्थान एव पतित्वा आन्दोलयन्ति । किंभूताः । चिरकालेन क्षेपनिवृत्तावप्यकस्माद्दष्टाः । एतेनोच्छलनप्रकर्षण पर्वताभिघातप्रकर्षः । यद्वा चिरं व्याप्य किमेतदिति कृत्वा आलोकिताः । एतेनातिदूरतो दर्शनात्समुद्रान्दोलनक्षमत्वेऽपि हठावर्तनाज्जलावयविनो महत्त्वमुक्तम् ॥१२॥ विमला-पर्वताभिघात से उछल कर समुद्र की जो जलराशियाँ आकाश में चली गयीं थीं और चिरकाल तक (आश्चर्य की दृष्टि से) देखी भी गयी थीं, अब आकाश मार्ग से लौट नीचे गिरकर पूर्वकाल में क्षुब्ध, किन्तु अब निश्चल समुद्र को पुनः क्षुब्ध कर रही थीं ।। १२ ॥ अथ नलं प्रति सुग्रीवोक्ति प्रस्तौति ---- ग्रह णलविइण्णणअणो जम्पइ विहडन्तमणिसिलासणवठो । उव्वत्तिआअअ ठिअवामअरारुहिप्रतिमभरो पवअवई ॥१३॥ [ अथ नलवितीर्णनयनो जल्पति विघटमानमणिशिलासनपृष्ठः । उद्वतितायतस्थितवामकरारोपितत्रिकभरः प्लवगपतिः ।। अथ सेतोरसिद्धरुत्तरं प्लवगपतिर्जल्पति । नलमित्यर्थात् । तदाह-नले वितीणे दत्ते नयने येन । नलन्यस्तदृष्टिरित्यर्थः । एवमुर्तिते पञ्जरमिश्रितापरपावें अथ चायतस्थिते दण्डाकारे वामकरे वामबाहावारोपितस्त्रिकभरो येन । तथा वामपंक्तिस्थनलसंमुखीभवनाय निजतिर्यग्भावेन भूम्यर्पितवामकरस्यापि तिर्यक्तया देहभारस्य तत्रैवारूढत्वादित्याशयः । यद्वा उद्वतितस्तिर्यग्भूतः सन्नायतः स्थितो नलदर्शनाय मस्तकोन्नमनादथ च वामकरारोपितत्रिकभरश्चेति कर्मधारयः। अत एव विघटमानं नतोन्नतं मणिशिलारूपासनपृष्ठं यस्य तथा । आसनस्य वामभागे देहगौरवेण दक्षिणभागस्योन्नमनादिति भावः ॥१३।। विमला-वानरपति ( सुग्रीव ) ने मुड़कर सिर ऊपर उठाया और आयत (दण्डाकार) स्थित होकर शरीर का भार बायें हाथ पर डाल दिया, जिससे आसन का बाम भाग झुक गया एवं दाहिना भाग ऊपर उठ गया तथा नल पर दृष्टि डालकर इस प्रकार ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥ १३ ।। अथ चतुभिस्तदुक्तिस्वरूपमाह खवित्रो वारणलोओ दूरठिअविरलपवअं महिवेढम् । ण अ दीसइ सेउवहो मा हु गमेज्ज गरुअं पुणो रामधणम् ॥१४॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२६१ [क्षपितो वानरलोको दूरस्थितविरलपर्वतं महीवेष्टम् । न च दृश्यते सेतुपथो मा खलु नमेद्गुरुकं पुना रामधनुः ॥] वानरलोक: क्षपितोऽवसन्नः । दूरे स्थिता विरलाः स्वल्पाः पर्वता यत्र एतादृशं महीपृष्ठं जातम् । संनिधौ सर्वेषां दूरे कुतश्चित्कुतश्चित्कियतां च शैलानां समुद्र एव क्षिप्तत्वात् । तथापि सेतुपथो न च दृश्यते न वृत्तः । खलुहेतौ। ततो हेतोः पुनरपि रामधनुः कर्तृ मा नमेत् समुद्रताडनाय मा कृष्टं भवेत् । तथा सत्येकवारं धनुनमने समुद्रस्य क्षतमासीदतः परं प्राणा एव यास्यन्तीति भावः । यद्वा यूयं रामधनुः पुनरपि मा नमयत तथा सति युष्मानेव ताडयेत् । तथा च सेतुं सर्वात्मना बध्नीतेति भावः ।।१४।। विमला-वानर परिश्रान्त हो गये, पृथिवी पर दूर-दूर तक भी बहुत कम पर्वत रह गये तथापि सेतुपथ सम्पन्न नहीं हुआ, अत: पुन: ( समुद्रतारनार्थ) राम का धनुष उद्यत न हो ॥१४॥ सेतोरवश्यंभावित्वमाह-- मइरा मुद्धमिअङ्को अमअं लच्छी सकोत्थहं दुमरप्रणम् । कि सेउबन्धलहुअं जं वोत्तूण रमणारेण ण दिण्णम् ॥१५॥ [ मदिरा मुग्धमृगाङ्कोऽमृतं लक्ष्मीः सकौस्तुभं द्रुमरत्नम् । किं सेतुबन्धलघुकं यदुक्त्वा रत्नाकरेण न दत्तम् ॥] मदिरा वारुणी। मुग्धो बालो मृगाङ्कः शशी। सुधा । लक्ष्मीः । द्रुमाः पारिजातादयस्त एव रत्नम् । द्रुमेषु रत्नमिति वा । मिलितानामेकरत्नत्वप्रतिपादनार्थमेकवचनम् । एतत्सर्वम् । किं वितर्के प्रश्ने वा। सेतुबन्धाल्लघुक मल्पीयः यत्सेतुबन्धस्वरूपं रत्नाकरेणोक्त्वाप्यङ्गीकृत्यापि न दत्तम् । तानि त्वनुक्त्वैव दत्तानीति भावः । यद्वा एतत्सर्व सेतुबन्धाल्लघुकमल्पमूल्यं किम् । अपि तु नाल्पमूल्यं किं तु बहुमूल्यमेव । यन्मदिरादिकं नकारस्यापकर्षणादनुक्त्वापि रत्नाकरेण दत्तम् । तथा च महाधमपि मदिरानुक्त्वा चेद्दत्तं तदा सेतुबन्धमल्पीयांसमुक्त्वापि न दास्यति किं तु दास्यत्येवेत्यध्यवस्यत इति भावः। दत्तमिति 'नपुंसकमनपुंसकेन' इत्येकवद्भावेन लिङ्गव्यत्ययेन वा ॥१५॥ विमला-मदिरा, बालचन्द्र, सुधा, लक्ष्मी, पारिजातादि द्रुमरत्न आदि क्या सेतुबन्ध से लघु हैं, जो समुद्र ने कह कर भी नहीं दिया ॥१५॥ समुद्रस्य वृत्तं पराभवमाह धूमाअन्ति च्चिअ से अज्ज वि पाालदेहरालग्गा। प्राअट्टन्तजलाहअससद्दविज्झविग्रहुअवहा रामसरा ॥१६॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] सेतुबन्धम् [ अष्टम [धूमायन्त इवास्याद्यापि पातालदेहरालग्नाः । आवर्त्यमानजलाहतसशब्दविध्यापितहुतवहा रामशराः ।। अस्य समुद्रस्य पातालरूपं यद्देहमेक देशस्तत्र दूरं व्याप्य । आ अत्यर्थेन लग्नाः संबद्धा रामशरा अद्यापि धूमायन्त एव न तु निर्वाणतां गताः। कीदृशाः । आवय॑मानेन' क्वथ्यमानेन जलेनाहताः स्पृष्टाः सन्तः सशब्दं यथा स्यादेवं विध्यापिता अप्रौढशिखतां नीता हुतवहा येषां ते। जलसंबन्धेन वह्न: शब्दो धूमश्च भवतीत्यर्थः । तथा चाकारितसेतुरनात्मज्ञः समुद्रः पुनर्नाशमेव लप्स्यत इति भावः । यद्वाद्यापि धूमायन्त इत्यचिरोद्गताविस्मृतरामशरपराभवः सेतुपथं कारयिष्यत्येवेति नलप्रोत्साहनम् । सशब्द इत्यत्र 'समुद्द' इति पाठे आवर्त्यमानजलेनेति करणम् । आहतसमुद्रेण विध्यापितो हुतवहो येषामित्यर्थः ।।१६।। विमला-इस ( समुद्र ) के पातालरूप शरीर में दूर तक लगे हुये राम के शरों की अग्नि यद्यपि उबलते जल के स्पर्श से सशब्द बुझायी गयी है तथापि बे शर ( पूर्ण रूप से बुझे नहीं ) अब भी धूमायित ही हैं ॥१६॥ नलं प्रति नियोगमाहतं बन्धसु धीर तुम सेउं अज्जे प्र जाव दूरन्तरिमा । एक्कं मलअसुवेला होन्तु दुहा अ विप्रडा समुद्दद्धन्ता ॥१७॥ [ततो बधान धीर त्वं सेतुमद्यैव यावदूरान्तरितौ । एकं मलयसुवेलौ भवतां द्विधा च विकटौ समुद्रार्धान्तौ ॥ ] हे धीर ! सामर्थ्यऽपि धैर्यमवलम्ब्य किमप्यकुर्वाण, निपुण वा, ततः पूर्वोक्तहेतोरद्यैव सेतु बधान । यावदिति वाक्योपसंहारे । दूरान्तरितौ दूरं व्याप्य व्यवहितो मलयसुवेलावेकं वस्तु भवताम् । तावद्रव्यापिसेतुकत्वादिति भावः । एवं विकटौ समुद्रस्यार्धान्तौ वामदक्षिणभागौ द्विधा च भवताम् । सेतुच्छिन्नमध्यकत्वेन द्विखण्डावित्यर्थः । द्वा तावद्रं सेतुं बधान । तावत्कतरत्, यावद्वयाप्यान्तरिता अन्तरमन्तरा वा मध्यभागस्तत्प्राप्ताः समुद्रार्धान्ताः समुद्रप्रदेशाः । यावत्समुद्रपरिमाणं तावद्वधानेत्यर्थः । तथा सति द्विभावो द्वित्वं तेन विकटौ प्रकटौ। ख्याताविति यावत् । मलयसुवेलावेकं भवताम् । तटद्वयस्थितत्वादिति भावः । यद्वा यावदिति यावता दूरान्तरितौ मलयसुवेलावेकं भवताम्, अथ च दूरं व्याप्यान्तरिता विस्तीर्णाः समुद्रप्रदेशा द्विभागेन विकटाः ख्याता भवन्तु । द्विवचने बहुवचनं नित्यमिति तिङ्सुपोरपि वचन श्लेष इति मदुन्नीतम् । यद्वा युगम् ॥१७॥ विमला-अतः हे धीर ! तुम ऐसा सेतु बाँधों कि एक-दूसरे से अत्यन्त दूर स्थित मलयगिरि और सुवेल गिरि एक हो जायँ तथा समुद्र बायें और दाहिने दो विकट भागों में ( मध्यगत सेतु से ) विभक्त होकर दो खण्ड हो जाय ॥१७॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२६३ अथ नलस्योत्तरमाह तो पवअबलाहि फडं विगाणासङ्गणिव्वलन्तच्छाओ। पवअवइसंभमुम्मुविइण्णभअहित्यलोअणो भणइ णलो ॥१८॥ [ ततः प्लवगबलात्स्फुटं विज्ञानाध्यवसायनिर्वलच्छायः । प्लवगपतिसंभ्रमोन्मुखवितीर्णभयोद्विग्नलोचनो भणति नलः ॥] ततः सुग्रीवाज्ञोत्तरं स्फुटं नलो भणति । कीदृक् । प्लवगबलाद्विज्ञानस्य सेतुरचन शिल्पस्याध्य वसायेनावश्यंभाविफलनिश्चयेन' निर्वलन्ती पृथग्भवन्ती छाया कान्तिर्यस्य । शिल्पचातुर्येण शेषवानरापेक्षया स्फुरद्रूप इत्यर्थः । एवं प्लवगपतये संभ्रमेणादरेणोन्मुखं सम्मुखं यथा स्यादेवं वितीर्णे अपिते भयेनोद्विग्ने लोचने येन सः । सुग्रीवं पश्यन्नित्यर्थः । प्रभुः कर्माकरणे शास्तिमाचरेदिति भयम् । यद्वा प्लवगपतिना संभ्रमोन्मुखं यथा स्यादेवं वितीर्ण भयोद्विग्ने लोचने यस्मिन् । तेन सादरं दृष्ट इत्यर्थः । शिल्पनिगुणोऽप्ययमनध्यवसायं प्रकाशयेदिति भयम् । 'विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः' इत्यमरः ॥१८॥ विमला-तदनन्तर शिल्पचातुर्य के कारण शेष वानरों की अपेक्षा उद्दीप्त रूप वाले नल ने भयोद्विग्न नेत्रों को वानरपति के आदरार्थ सम्मुख कर ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥१८॥ अथाष्टभिरुत्तरस्वरूपमाह भण्णइ पबंगपुरो रहुणाहस्स अ पवंगवइ वीसत्यम् । तुह से उबन्धजणिआ ममम्मि संभावणा ग होहिइ अलिआ॥१६॥ [ भणति प्लवंगपुरतो रघुनाथस्य च प्लवंगपते विश्वस्तम् । तव सेतुबन्धजनिता मयि संभावना न भविष्यत्यलीका ।।] स नलः प्लवगानां रघुनाथस्य च पुरतो विश्वस्तं यथा स्यादेवं भणति । कि तदाह-हे प्लवगपते ! मयि विषये सेतुबन्धेन जनिता तव संभावना प्रतिष्ठा अलीका न भविष्यति किंतु सत्यैव । सेतुर्मया बद्धव्य एवेति भावः ॥१६॥ विमला-उस नल ने वानरों तथा श्रीरघुनाथ जी के सामने विश्वासपूर्वक कहा-वानरपते ! मेरे विषय में तुम्हारी सेतुबन्धजनित सम्भावना ( प्रतिष्ठा ) मिथ्या नहीं होगी ॥१६॥ 'खविओ वाणरलोओ' इति पूर्वोक्तेः प्रत्युत्तरमाह खविओ पव्व अणिवहो दलिों व रसाअलं धुवो व्व समुहो। जीअं व परिच्चत्तं अज्ज व संभावणा तुहं णिवढा ॥२०॥ [क्षपितः पर्वतनिवहो दलितं वा रसातलं धुतो वा समुद्रः ।। जीवो वा परित्यक्तोऽद्य वा संभावना तव निव्यू ढा ॥] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम वाशब्दोऽवधारणे । पर्वतनिवहः क्षपित एव नासित एव । समुद्रे क्षिप्तत्वात् । रसातलं दलितमेव । पर्वतानामुत्पाटनाप्रक्षिप्तत्वाच्च । समुद्रो धुत एव तत एव जीवोऽप्यस्माभिः परित्यक्त एव । श्रमेण त्यक्तप्रायत्वात् । अथ चाद्य तव संभावना प्रतिष्ठा निर्व्यूढैव । तथा च यथा तत्सर्वं वृत्तमेब तथा तव प्रतिष्ठापि वृत्तव । मया सेतोरवश्यं बद्धव्यत्वादित्याशयः । आशनायां संनिहितभविष्यदर्थे क्तः । यद्वा बाशब्दो व्यक्तिस्वरूपको ह्यपस्थितौ । तथा च पर्वतादीनां क्षेपणादि कमपि वृत्तं तव संभावनाप्यद्य वृत्तेत्यर्थः । यद्वा सर्वत्र भविष्यदर्थे क्तः । तेनास्माभिः पर्वतादिकमपि क्षपणीयं तब संभावनापि निर्वाहनीयेत्यर्थः । वस्तुतस्तु वाशब्दः सर्वत्र इवार्थे । तेन पर्वतादिकक्षपितादिकमिव तवापि संभावना निर्व्यूढैवेत्यर्थः ॥ २० ॥ विमला - समुद्र में डालते डालते पर्वत-समूह समाप्त ही कर दिये गये, पर्वतों के उत्पाटन एवं प्रक्षेप से रसातल दलित ही हो चुका, समुद्र कम्पित ही हो चुका, हम सब ने ( अध्यवसाय में ) जान दे ही दी तो जैसे यह सब हो चुका है वैसे ही तुम्हारी प्रतिष्ठा भी पूर्ण होगी ||२०|| 'एक्कं मलअ -' इत्यत्र प्रत्युत्तरमाह तं पेक्खसु महिविश्रलं महिवट्टम्मि व महं महो अहिले । घडिअं घडन्त महिहरघडि असुवेलमल अन्तरं से उवहम् ||२१|| [ तत्प्रेमस्व महीविकटं महीपृष्ठ इव मम महोदधिमध्ये ( पृष्ठे ) । घटितं घटमानमहीधरघटित सुवेलमलयान्तरं सेतुपथम् ॥ ] तद्धेतोर्ममेति मया महीपृष्ठ इव महोदधिमध्ये घटितं सेतुपथं प्रेक्षस्व । यथा भूमी सेतुः क्रियते तथा जलेऽपीत्यर्थः । कीदृशम् । महीवद्विकटं विस्तीर्णम् । एवं घटमानैः समीभूय तिष्ठद्भिर्महीधरैर्घटितमेकीकृतं सुवेलमलययोरन्तरमन्तराल देशो यत्र तमिति शिल्पनैपुण्य सूचनम् ॥२१॥ विमला - अतः देखिये, जैसे भूमि पर सेतु का निर्माण होता है, वैसे ही जल में भी मैं मही के समान विस्तीर्ण तथा समरूप से स्थित महीधरों से सुवेल और मलयगिरि को एक कर देनेवाला सेतु निर्मित किये देता हूँ ॥२१॥ चतुभिः स्कन्धकैः स्वस्य सामर्थ्यं सेतुकौशलं चाह कि उत्तरउ निरन्तर घडत्तधरणिहरसं कमेण समुद्दम् 1 ओ बोलेउ धुश्रो हथोउत्तिष्णमहिमण्डले कइबलम् ||२२|| [ किमुत्तरतु निरन्तरघटमानधरणिधरसंक्रमेण उत व्यतिक्रामतु धुतोदधिस्तोकोत्तीर्णमही मण्डले कपिबलम् ।। ] समुद्रम् । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [२६५ कपिबलं कर्तृ निरन्तरमव्यवहितं घटमानैः परस्परं मिलितैर्धरणिधरैर्यः संक्रमस्तेन किं समुद्र मुत्तरतु । उत पक्षान्तरे। धुतः फूत्कारादिना विकीर्णजलीकृतो य उदधिस्तेन स्तोकमीषदुत्तीर्णमुत्थितं यन्महीमण्डलं तेन व्यतिक्रामतु लङ्घताम् । जलानामितस्ततो गमनेन यन्त्रणाभावाद्भुमेरुत्थानं जलाभावात्पारगमनं चेत्यर्थः ॥ २२ ॥ विमला-कहिये, कपिसमूह अव्यवहित रूप से परस्पर मिलित पर्वतों के द्वारा रचित सेतु से समुद्र को पार करे अथवा फूत्कारादि से समुद्र का जल विकीर्ण होने से किञ्चित् ऊपर निकले हुये महिमण्डल से लाँघे ॥२२।। सेतोरवश्यम्भावमाह तं पेच्छह मलओ च्चिअ पत्थन्तो पडिगअंगओ व्व सुवेलम् । मह मअदढसंरुद्धो आइ धुणउ महवडं व समददम् ॥२३॥ [ तत्पश्यत मलय एव प्रार्थयमानः प्रतिगतं गज इव सूवेलम् । मम भुजदृढसंरुद्ध आविद्धधुनोतु मुखपटमिव समुद्रम् ।। ] तद्धेतोः हे सुग्रीवादयः ! यूयं पश्यत मलय एव सुवेलं प्रार्थयमानो मुखपटमिव समुद्रं धुनोत्विति संबन्धः । क इव प्रतिगजं गज इव । यथाम्बष्ठस्य भुजाभ्यामङ्कुशप्रहारादिना दृढं संरुद्धोऽपि गज: प्रतिपक्षगजं प्रार्थयमानो युद्धायोपरु. धन्नाविद्धमन्तरा पातितं मुखाच्छादकपटं धुनोति मदोन्मत्तः सन्नन्यतः क्षिपति तथा मल य एव मम भुजाभ्यां दृढं संरुद्ध उत्पाट्य प्रेरितः समुद्रोपरि सेतुवन्नीयमानः सुवेलं प्रार्थयमानः प्रतीष्टमानः । मिलन्निति यावत् । आविद्धमन्तरावर्तित्वान्मुखपटतुल्यं समुद्रधुनोतु विक्षिप्तमिवासत्कल्पं करोत्वित्यर्थः । अन्ये तावदूरवतिन: पर्वता दूरे सन्तु संनिहितत्वादयमेवेत्येवकारार्थः । अत्र गजप्रायो मलयः । प्रतिगजप्रायः सुवेलः। मुखपटप्रायः समुद्रः । तथा च मद्भुजप्रसारितेन सुवेलमिलितेन समुद्रोपरि तिष्ठता मलयेन कपिसैन्य मुत्तरत्विति वाक्यार्थः । तमित्यत्र 'ओ' इति पाठे उतेत्यर्थः ॥ २३ ॥ विमला--अतः तुम सब देखो-जैसे भजाओं से अकुश-प्रहारादि द्वारा अत्यन्त संरुद्ध भी गज अपने प्रतिद्वन्द्वी गज को युद्धार्थ उपरुद्ध करता, मध्य में डाले गये मुखाच्छादक पट को दूसरी तरफ हटा देता है उसी प्रकार मेरी भुजाओं से उखाड़ कर समुद्र के ऊपर सेतुवत् पहुँचाया गया मलय पर्वत ही सुवेल से मिलता हुआ, मुखपटतुल्य समुद्र को अलग हटा देता है-इस प्रकार मलय गिरि से कपिसैन्य समुद्र पार करे ।।२३।। प्रकारान्तरमाह ओ विरएमि णहमले तुरिअपहाविअपवंगसंचरण सहम् । अणुपरिवाडिपरिअिघणकूडघडन्तमहिहरं सेउवहम् ॥२४॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् २६६ ] [ उत विरचयामि नभस्तले त्वरितप्रधावितप्लवंगसंचरण सहम् । अनुपरिपाटी परिस्थितघनकूट घट मानमहीधरं सेतुपथम् ॥ ] उत पक्षान्तरे । समुद्रजलास्पृष्टे नभस्तल एव सेतुपथं विरचयामि । तेनैव पारं गच्छतेति भावः । कीदृशम् । अनुपरिपाट्यानुक्रमेण यथायोग्यसंनिवेशेन परिस्थिता घनकूटेषु मेघसमूहेषु घटमानाः सरसत्वात्कर्दमेष्विव परस्परं संबध्यमाना महीधरा यत्र तम् । 'घडेन्त' इति पाठेऽनुक्रमपरिस्थितेन घनकूटेन घट्यमाना महीधरा यत्र तम् । अत एव त्वरितं प्रधावितं वेगो यत्र तादृशं यत्प्लवंगानां संचरणं तत्सहं तद्योग्यम् । निरवलम्बेऽपि सेतुनिर्माणचातुरी ममेत्यभिप्रायः । त्वरित प्रधावितानां प्लवंगमानां संचारसहमित्यर्थं इति केचित् । ' सहः शक्ते क्षमायुक्ते तुल्यार्थे च सहाव्ययम्' || २४ ॥ विमला -- अथवा मैं पर्वतों को अनुक्रम से स्थापित करता हुआ, मेघसमूहों में सम्बद्ध कर गगनतल में ही सेतुपथ बनाये देता हूँ, जो तेज दौड़ने वाले वानरों के संचार को सहने में समर्थ होगा ||२४|| [ अष्टम पक्षान्तरमाह ओ साअरोम रब्भन्तराणि ओवरिपरि ट्ठवि अणिप्फन्दा । जलहरलम्बिअवक्खा घडेन्तु लङ्कावहं रसाअलसेला ।। २५ । सागरोदराभ्यन्तरानीतोपरिस्थापितनिःस्पन्दाः । [ उत जलधरलम्बितपक्षा घटयन्तु लङ्कापथं रसातलशैलाः ॥ ] उत पक्षान्तरे । रसातलस्य शैलाः सपक्षा मैनाकानयो लङ्कापथं सेतु घटयन्तु । कीदृशाः । सागरस्योदराभ्यन्तरादानीता अथ उपरि जलस्येत्यर्थात् परिस्थापिता: सन्तो निःस्पन्दा निश्चलाः । निश्चलत्वे हेतुमाह – जलभरेण लम्बितावधोवर्तिनी पक्षी येषाम् । जलार्द्रपक्षत्वादुडुयनासमर्था इति भावः । यद्वा उपरीत्यस्य नभसीत्यर्थः । तथा च जलभरेण लम्बिताववलम्बिती पक्षी येषां ते । नभोनिर्भरमेघसंदानितपक्षत्वेन पतनाभाव उक्तः । तेन पाताल शैलानप्याक्रष्टुं क्षमोऽस्मीति सूचितम् ॥ २५ ॥ विमला- -अथवा रसातल के शैलों ( सपक्ष मैनाकादि ) को सागर के भीतर से लाकर ( जल के ) ऊपर, स्थापित कर दूँ और जलार्द्रपक्ष होने से उड़ने में असमर्थ, अतएव निश्चल होकर वे ( रसातल - शैल ) ही सेतु- सम्पादन कर दें ||२५|| अहंकारवचनेनोपसंहरति तं मह मग्गालग्गा विरएह जहाणिप्रोग्रमुक्कमहिहरा । अणुवादिट्ठदोसं अइराहोन्तसुहबन्धणं सेउवहम् ||२६|| Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ तन्मम मार्गलग्ना विरचयत यथानियोगमुक्तमहीधराः अनुपायदृष्टदोषमचिराद्भवत्सुखबन्धनं सेतुपथम् ॥ ] तदिति वाक्योपसंहारे हेतौ वा । हे कपयः ! मम मार्गलग्नाः पश्चालग्नाः सन्तः सेतुपथं विरचयत । किंभूताः । यथानियोगं मुक्ताः क्षिप्ता महीधरा यैस्ते । तथा च यथा मयोच्यते तथा समुद्र पर्वताः क्षिप्यन्तामित्यर्थः । अत एव कीदृशम् । अचिराद्भवच्च तत्सुखबन्धनं चेति कर्मधारयः । तथा च मन्नियोगानुसारेण पर्वतक्षेपे सेतुपथः सुखबन्धन एव स्यादित्यर्थः । भवत्सुखं बन्धनं यस्येति वा । एवमनुपायेन दृष्टो दुःसाध्यत्वादिरूपो दोषो यत्र तम् । उपायापरिज्ञानं मयैव त्याजनीयमिति [ २६७ भावः ।। २६ । विमला - वानरों ! मेरे पीछे लगे हुये तुम लोग सेतुपथ की रचना करो । जैसा मैं कहूँ, उसी के अनुसार समुद्र में पर्वत डालते जाओ । मेरे आदेशानुसार पर्वतों को डालने से सेतुपथ सुखपूर्वक निर्मित हो जायगा । सेतुपथ कुछ भी दुःसाध्य नहीं है, केवल उपाय न जानने से इसे दुःसाध्य समझ लिया गया है || ३६ || अथ कषीनामुत्साहमाह - इन गलवग्रणहरिसिअं गलिप्रपरिस्समणिराअ मुक्ककल अलम् । चलिअं तुलिश्रधराहरक अणिन्भरदस दिसं पवंगमसेण्णम् ॥२७॥ [ इति नलवचनहर्षितं गलितपरिश्रमनिरायतमुक्तकलकलम् । तुलितधराधरकृतनिर्भरदशदिक्प्लवंगमसैन्यम् ॥ ] चलितं इत्यनेन प्रकारेण नलस्य वचनेन हर्षितं संजातहर्षं कपिसैन्यं चलितम् । पर्वतानयनायेत्यर्थात् । किंभूतम् । गलित परिश्रमं सत् निरायतो दीर्घो मुक्तः कलकलो येन । उपायाभावेन परिश्रमज्ञानमासीत्तदानीं तदपि न स्थितमित्यर्थः । एवं तुलितैरुत्तोलितैर्धराधरैः कृता निर्भराः पूर्णा दश दिशो येन । पूर्वानीत पर्वतान्करस्थानेव दिशि दिति त्यक्त्वा चलितमित्यर्थः । यद्वा तुलिता आकारेण सदृशीकृता धराधरा येन तच्च तत्कृता निर्भराः पूर्णा दश दिशो येनेति कर्मधारयः । तथा च पर्वताहरणानुरूपाकारतया दिग्व्यापकमासीदित्यर्थः ॥२॥ विमला - नल के वचन से सारी कपिसेना हर्षित हो गयी । उसकी सारी श्रान्ति दूर हो गयी । कलकल ध्वनि करती वह अपने भूधराकार शरीर से दसो दिशाओं को व्याप्त करती हुई पर्वतों को लाने के लिये चल पड़ी || २७॥ अथ सेतोरारम्भे नलस्य मङ्गलमाह--- अह णेण सुहफरिसे पिउणो सललम्मि मज्जिऊण सणिअमम् । रामचरणाण पढमं पच्छा काऊण रविसुअस्स पणामम् ||२८|| Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] सेतुबन्धम् [ अष्टम तो कअणधाउअम्बो सपल्लवासोअविडवभरि प्रदरिम हो। पढमं णलेण णिमियो मङ्गलकलसो व्व जलणिहिम्मि महिहरो॥२६।। (जुग्गअम् ) [ अथानेन सुखस्पर्श पितुः सलिले मङ्क्त्वा सनियमम् । रामचरणयोः प्रथमं पश्चात्कृत्वा रविसुतस्य प्रणामम् ॥ ततः कनकधात्वाताम्रः सपल्लवाशोकविटपभृतदरीमुखः । प्रथमं नलेन नियोजितो मङ्गलकलश इव जलनिधौ महीधरः ॥] (युग्मकम् ) अथ सिद्धान्तानन्तरं अनेन नलेन जलनिधौ महीधरो मुक्त इत्युत्तरस्कन्धकेन संदानितकम् । किं कृत्वा। क्षोभशान्त्या सुखस्पर्श सलिलेऽर्थात्समुद्रस्य सनियम सविधि मक्त्वा स्नात्वा प्रथमं पितुर्विश्वकर्मणः शिल्पिनामुपास्यत्वात् ततो रामचरणयोरुपजीव्यत्वात् पश्चाद्रविसुतस्य नायकत्वात् प्रणामं कृत्वा । महीधरः कीदृक् । कनकं सुवर्णं धातुगैरिक माभ्यामाताम्रम् । यद्वा कनकधातुः सुवर्णगैरिकं तेनाताम्रम् । एवं सपल्लवेनाशोकविटपेन भृतं पूर्ण दरीरूपं मुखं यस्य । क इव । मङ्गलकलश इव । सोऽपि कनकेन धातुना चाताम्रः । तत्संबन्धादेव पल्लवसहिताशोक विटपभृतदरीप्रायमुखश्च । लोकाचारादयमेव प्रकृते मङ्गलकलशोऽभूदिति भावः । युग्मकम् ।।२८-२६।। विमला-तदनन्तर नल ने समुद्र के सुख-स्पर्श जल में यथाविधि स्नान कर ( शिल्पियों के उपास्य ) पिता (विश्वकर्मा ) को, तदनन्तर ( उपजीव्य ) श्रीराम के चरणों को, तदनन्तर ( नायक ) सुग्रीव को प्रणाम कर सर्वप्रथम समुद्र में एक पर्वत मङ्गल कलश-सा स्थापित किया, जो सुवर्ण और धातु ( गेरू ) से किञ्चित् ताम्रवर्ण तथा जिसका कन्दरामुख सपल्लव अशोक तरु से पूर्ण था। ( दोनों स्कन्धकों का अन्वय एक साथ होने से इनकी 'युग्मक' संज्ञा है ) ॥२८-२९॥ अथ प्रथम क्षिप्तपर्वतावस्थामाह तह पढमं विअ मक्को वेलाअडसंठिओ णलेण माहिहरों। जह दीसिउ पउत्तं लङ्काणत्थस्स से उबन्धस्स मुहम् ॥३०॥ [ तथा प्रथममेव मुक्तो वेलातटसंस्थितो नलेन महीधरः । यथा द्रष्टु प्रवृत्त लङ्कानर्थस्य सेतुबन्धस्य मुखम् ॥] वेलातटे पूर्वधृतत्वात्संस्थितो महीधर नलेन प्रथममेव तथा प्रकारेण मुक्तः समुद्रे क्षिप्तो यथा लङ्काया अनर्थो यस्मादेवंभूतस्य सेतुबन्धस्य मुखमुपक्रमो द्रष्टुं प्रवृत्तमारब्धम् । कपिभिरित्यर्थात् । तथा च प्रथमपर्वतक्षेपेणैव सेतोर्मुखमासीत् । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ २६६ पितुर्वरलाभादिति भावः । यद्वा सेतुबन्ध स्य मुखं द्रष्टुं प्रवृत्तं कपिसैन्य मित्यर्थात् । तथा च नलस्य कीदृक्कौशलं पर्वतः स्थितो न वेति च निरूपणाय सोत्कण्ठीभूय सर्व एव सेतुमुखं दृष्टवन्त इत्यर्थः ॥३०॥ विमला-नल ने पहले ही, वेला तट पर संस्थित एक पर्वत को समुद्र में ऐसा डाला कि सभी वानर सेतुबन्ध का मुख ( उपक्रम ) देखने लग गये, क्योंकि लङ्का का अनर्थ सेतुबन्ध पर ही निर्भर था ।।३।। अथ पुनः समुद्रक्षोभमाह भमित्रो अ तह धराहरपहरुच्छित्तसलिलो णहम्मि समुद्दो। महिहर र अमइलाइं जह धोआइ समअं दिसाण मुहाई ॥३१॥ [भ्रमितश्च तथा धराधरप्रहारोत्क्षिप्तसलिलो नभसि समुद्रः । महीधररजोमलिनानि यथा धौतानि समं दिशां मुखानि ॥] च पुनर्नलकृतेन धराधरस्य प्रहारेणोत्क्षिप्तमुच्छलितं सलिलं यस्य तथाभूतः समुद्रो नभसि तथा भ्रमित आवर्तरूपतया दिशि दिशि प्रसृतो यथा महीधराणामानीतानामेव रजोभिर्मलिनानि धूसरीकृतानि दिशां मुखानि सम मेकदैव धौतानि । जलसंपर्केण धूलीनां शान्त्या प्रक्षालितानीत्यर्थः । तथा चैकदैव जलस्थ चतुर्दिग्गामितया प्रहारस्योत्कर्षः समुद्रस्य क्रियानुकूलत्वेन दिङ्मुखप्रसादेन च मङ्गलमपि ध्वनितम् ।।३१॥ विमला-नलकृत पर्वतप्रहार से उछले हुये जल वाला वह समुद्र आकाश में आवर्तरूपेण दसो दिशाओं में ऐसा फैल गया कि लाये गये पर्वतों की धूल से दिशाओं के मलिनमुख एकबारगी धुल कर स्वच्छ हो गये ॥३१॥ अथ नलस्य घटनकौशलमाहजलतणाअघडन्ता अविभाविज्जन्तघडणमग्गोआसा । ण मुन्ति एक्कमेक्कं खुहिअसमुद्दविसमाहआ वि महिहरा ॥३२॥ [ जलार्द्रघटमाना अविभाव्यमानघटनमार्गावकाशाः। न मुह्यन्त एकैकं क्षुभितसमुद्रविषमाहता अपि महीधराः ॥] क्षुभितेन समुद्रेण विषममाहतास्ताडिता अपि महीधराः सेतो नलेन योजिता इत्यर्थात् । एकैकं परस्परं न मुञ्चन्ति । क्षिप्तपर्वतान्तरोत्थापिततरङ्गाहत्यापि विशकलिता न भवन्तीत्यर्थः । किंभूताः । जलेनााः सन्तो घटमानाः परस्पर मिलिताः । अन्यदपि जलादि संपर्केण मिलतीति ध्वनिः । अत (व विभाव्यमाना विविच्य गृह्यमाणा घटनमार्गस्य घटनस्थानस्यावकाशा अन्तरालप्रदेशा येषां ते समीभूताः । एतेन घटनादाढ यमुक्तम् ॥३२॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] सेतुबन्धम् [अष्टम विमला-नल ने जल से आर्द्र कर पर्वतों को परस्पर ऐसे कौशल से सम्बद्ध कर दिया कि उनमें जोड़ों के स्थानों का पता ही नहीं चल पाता था तथा क्षुभित समुद्र से बुरी तरह आहत होने पर भी वे एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते थे ।।३।। अथ नदीमुखनिरोधमाहपडिवहत्यिअसलिला वेलाअडपडिअमहिहरसमक्कन्ता । जे चिचअ अहिगममग्गा जाआ ते च्चे अणिग्गमा वि णईणम् ॥३३॥ [प्रतिपथप्रस्थितसलिला वेलातटपतितमहीधरसमाक्रान्ताः । य एवाभिगममार्गा जातास्त एव निर्गमा अपि नदीनाम् ॥] नदीनां य एवाभिगमस्य समुद्र प्रवेशस्य मार्गास्त एव निर्गमा अपि बहिर्गमनस्यापि मार्गा जाताः । त एव निर्गमाः । अत्र हेतुमाह-कीदृशाः । वेलातटपतितेन महीधरेण सेतावित्यर्थात् समाक्रान्ता अवरुद्धा अत एव प्रतिपथेन प्रतिस्रोतसा प्रस्थितं सलिलं येषां ते। तथा च नदीजलानि येनैव पथा समागतानि तेनैव परावृत्तानीति नदीमुखावरोधकत्वेन पर्वतानामुत्कर्षः सेतुस्थैर्य च सूचितम् ॥३३॥ विमला-वेला के किनारे सेतु पर पतित महीधरों से नदियों के मुख ( प्रवेशमार्ग ) अवरुद्ध हो गये; अतएव उनका जल जिस मार्ग से आया था उसी मार्ग से लौट गया ॥३३॥ पर्वतानां पतनस्वभावमाहणिवडन्ति तुङ्गसिहरा पवलविमुक्का अहोमहा वि जलवहे । भमिऊण मूलगरुपा जहेन उम्मूलि मा तहेम महिहरा ॥३४॥ [निपतन्ति तुङ्गशिखराः प्लवगविमुक्ता अधोमुखा अपि नलपथे। भ्रमित्वा मूलगुरुका यथैवोन्मूलिता तथैव महीधराः ।।] महीधरा यथैव येनैव प्रकारेणोर्ध्वशिखरा एवोन्मूलिता उत्पाटिता भ्रमित्वा विपरीत्य तेनैव प्रकारेणोर्ध्वशिखरा एव नलपथे निपतन्ति । किंभूताः । अधोमुखा अधःशिखराः सन्तः प्लवगेन विमुक्ताः सेतुसंगतिसौकर्याय क्षिप्ता अपि । भ्रमणे हेतुमाह-मूलेगुरुका महत्तरा अत एवाधोमुखा अप्यधोमूला जाता इत्यर्थः ॥३४॥ विमला-यद्यपि वानर पर्वतों का मुखभाग ( शिखर) नीचे और मूलभाग ऊपर कर उन्हें फेंकते थे तथापि मूलभाग की गुरुता के कारण वे उलट कर नल के सामने जिस ऊर्ध्वशिखर के रूप में उखाड़े गये थे उसी रूप में गिरते थे ॥३४॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३०१ अथ जलकरिणा वनकेसरिणो युद्धमाहविहुणेन्ति विहुचन्ता करिमअर मुहाइ थिरणिहित्तणहमुहा । मुहपज्जत बढक्ख अकुम्भअडभमन्तकेसरा केसरिणो ॥३५॥ [विधूनयन्ति विधूयमानाः करिमकरमुखानि स्थिरनिहितनखमुखाः । मुखपर्याप्तदृढोत्खातकुम्भतटभ्रमत्केसराः केसरिणः ॥] केसरिणः करिमकराणां तैरेव शुण्डाकृष्टया विधूयमानाः सन्तो विधूनयन्त्यान्दोलयन्ति । किं भूताः । मुखे पर्याप्तं पूर्ण दृढं यथा स्यादेवमुत्खातं कवलीकृतं यत्कुम्भतटं तेषामेव तत्र भ्रमन्तः केसरा येषां ते । एवं स्थिरं यथा स्यादेवं निहितानि कुम्भ एवार्पितानि नखमुखानि नखाग्राणि यैस्ते । जलहस्तिभिः कवलितकुम्भा हरयः शुण्डयान्दोल्यमाना अपि कुम्भस्थलं न त्यजन्ति किं त्वान्दोलयन्तीति । यथायथान्दोलनं तथातथा केसरभ्रमणमित्युभयोः शूरत्वम् ॥२५॥ विमला-सिंहों ने जलहस्तियों के कुम्भतटों के मुख में पूर्ण दृढ़ता से कवलित कर दिया। जलहस्तियों ने अपनी सूंड से उन्हें दूर हटाने का प्रयत्न कर कम्पित कर दिया; तथापि सिंह उनके कुम्भस्थल पर नखाग्र जमाये हुये उनके मुखभाग को आन्दोलित करते रहे और इस आन्दोलन-प्रक्रिया से सिंहों के केसर (गर्दन के बाल ) जलहस्तियों के कुम्भ तट पर भ्रमित होते रहे ॥३५॥ अथ जलकरिवनकरिणोर्युद्धमाहपडिगअगन्धपसारिअकरिमअरच्छिणालप्रकरपन्भारे । जाणन्ति णवर कुविना लवणजलालिद्धवणमुहे वणहत्थी॥३६॥ [ प्रतिगजगन्धप्रसारितकरिमकरच्छिन्नगलितकरप्राग्भारान् । जानन्ति केवलं कुपिता लवणजलाश्लिष्टव्रणमुखान्वनहस्तिनः ॥] कुपिता वनहस्तिनः प्रतिगजानां जलहस्तिनामेव गन्धेन दानस्य प्रसारितांस्तानेवोपरोद्धमने कृतान् पुनः करिमक रैरेवाभिपत्य छिन्नानथ गलितान करप्राग्भारान खण्डितशुण्डादण्डान् केवलं लवणजलेनाश्लिष्टं संबद्धं व्रणमुखं येषां तान् सतो जानन्ति कृत्तानपि लवणसंपर्क विना न जानन्तीति शौर्यप्रकर्ष उक्तः । 'प्रधावित-' इति पाठे प्रतिगजानां वनगजानां गन्धेन प्रधावितैरुपरि पतितः करिमकरैश्छिन्नानीत्यर्थः । हत्तीति महाराष्ट्रभाषायां बहुवचनेऽप्येकवचनम् ॥३६।। विमला-वनगजों ने प्रतिपक्षी जलहस्तियों के मद की गन्ध पाकर उन्हें उपरुद्ध करने के लिये अपने शुण्डदण्ड को ज्यों ही आगे बढ़ाया त्यों ही जल. हस्तियों ने उनके शुण्डदण्ड को काटकर अलग कर दिया, किन्तु ( युद्ध की Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] सेतुबन्धम् [अष्टम उत्सुकता में मत्त ) वनगजों को इसका ज्ञान व्रण पर समुद्र का नमकीन जल लगने पर ही हुआ ।।३६।। अथ जलपर्वतानामुन्मज्जनमाह दरघडिअसे उबन्धा उप्पइऊण पवमा समददुप्पइए। कडढन्ति जमलकर अल सदाणि अवक्ख संपुडे धरणिहरे ॥३७॥ [ दरघटितसेतुबन्धा उत्पत्य प्लवगाः समुद्रोत्पतितान् । कर्षन्ति यमलकरतलसंदानितपक्षसंपुटान्धरणीधरान् ॥] प्लवगाः समुद्रादुत्पतितानितस्त्रासेनोर्ध्वमुड्डीनाम्धरणीधरान्कर्षन्ति । उत्प्लुत्य धृत्वानयन्तीत्यर्थः । किंभूतान् । यमलक रतलेन हस्तद्वयेन संदानिते मिथो निबद्धे पक्षती येषां तान् । अन्योऽपि पक्षी तथैव धृत्वा बध्यत इति ध्वनिः । धारणे हेतुमाह-कीदृशाः । दरघटितः किंचिन्निष्पादितः सेतुबन्धो यस्ते । सेतोरपरिपूर्तावेतैरेव सेतुः स्यादित्याशयः। तथा चोत्फालप्रकर्षः कपीनामुक्तः ॥ ३७ ॥ विमला-जो जल-पर्वत ( भयभीत होकर ) समुद्र से उड़कर ऊपर चले गये उन्हें वानरों ने उछल कर पकड़ लिया तथा दोनों हाथों से उनके दोनों पंखों को परस्पर निबद्ध कर दिया, क्योंकि उन्होंने सोचा कि अभी सेतुबन्ध पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं हो पाया है, आवश्यकता पड़ने पर इनका भी उपयोग करेंगे ॥३७॥ अथ सेतौ नलस्य चेष्टामाह बन्धर णलो वि तक्खणविसमुच्छलिअचलकेसरसङग्धाओ। तिअलिअकरपसारिअहरिहत्थुक्खित्तमहिहरो सेउवहम् ।।३।। [बध्नाति नलोऽपि तत्क्षणविषमोच्छलितचलकेसरसटोद्धातः । त्रिकवलितकरप्रसारितहरिहस्तोत्क्षिप्तमहीधरः सेतुपथम् ॥] न केवलं वानराः अपि तु नलोऽपि सेतुपथं बध्नाति । कीदृक् । त्रिकाद्वलितः पश्चास्थितपर्वतग्रहणाय त्रिकपार्श्वमपहाय स्कन्धसमीपेन पश्चाद्गतो यः करस्तेन प्रसारितः समुद्रे पातितो हरिहस्तादुत्क्षिप्तो गृहीत्वोत्थापितो महीधरो येन । ततः करेण शैलं गृहीत्वोत्तोल्य समुद्र निक्षिपन्तीत्यर्थः । अत एव तत्क्षणं विषमं यथा स्यादेवमुच्छलित उत्थितश्चञ्चलः केसरसटासमूहो यस्य । शैलादान विसर्गाभ्यां तथाभावादिति भावः । केचित्तु पूर्वनिपातानियमावलितत्रिको वक्रोकृतत्रिकश्चासौ पर्वतग्रहणाय प्रसारितकरश्च तथा हरिहस्तादुस्थापितमहीधरश्चेति कर्मधारयमूचुः । तथा च नलस्यानायास उक्तः ॥ ३८ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३०३ विमला - वानर ही नहीं, नल भी कन्धे के पास से हाथ पीछे ले जाकर वानरों के हाथ से पर्वतों को लेता, उठाता, समुद्र में गिराता और सेतुपथ बाँधता था; ऐसा करते समय उसकी केसरसटा ( गर्दन के बाल ) ऊपर उठती और अत्यन्त चञ्चल होती सुशोभित हो रही थी ॥ ३८ ॥ अथ गिरीणां विस्तारमाह- जं बहुपव्वप्रजणिअं बिच्छूढसमुद्दाडं महिविवरम् । तं एक्को पडिरुम्भइ वित्थारम्भहिश्रसंठिओ धरणिहरो ॥ ३६ ॥ [ यद्बहुपर्वतजनितं विक्षिप्तसमुद्रप्रकटं महीविवरम् । तदेकः प्रतिरुद्धि विस्तराभ्यधिकसंस्थितो धरणीधरः ॥ ] बहुभिः पर्वतैर्जनितं कपि क्षिप्तनिपतद्भिरभिघातात् क्षोभतश्च पातालादुत्थितैर्वा कृतं यन्महीविवरं तद्वस्तारेणाभ्यधिकं यथा स्यादेवं संस्थितः सन्नेको धरणीधरः प्रतिरुणद्धि व्याप्नोति । कीदृशम् । विक्षिप्तैः पतत्पर्वतद्विधाभूते समुद्रे प्रकटं व्यक्तम् । तथा च तत्क्षणमेव तथाविधं महीधरविवरमवलोक्य तदधिकेन गिरिणैकेन मुद्रयतीति नलस्य विन्यास कौशलम् ॥ ३६ ॥ विमला - ( कपियों द्वारा क्षिप्त ) बहुपर्वतों से उत्पन्न जो महीवियर, गिरते हुये पर्वतों से दो भागों में विभक्त समुद्र में व्यक्त हुआ उसे तत्काल ही उससे अधिक विस्तृत ( नल द्वारा वन्यस्त ) एक ही पर्वत ने मूंद दिया ||३६|| नलस्य रचनाचातुर्यमाह-सागरलद्धत्थाहं निमेन्ति जं जं धराहरं कइणिवहा । बज्जइ पुरओ हुत्तो काऊण पअं तहि तहि सेतुवहो ||४०|| [ सागरलब्धस्थाद्यं नियोजयन्ति यं यं धराधरं कपिनिवहाः । बध्यते पुरतोऽभिमुखः कृत्वा पदं तत्र तत्र सेतुपथः ॥ ] सागरे लब्धः स्थाघो (मूल) येन तम् । लब्धसागरमूलं यं यं धराधरं कपिनिवहा नियोजयन्ति तत्र तत्र पदं कृत्वा विन्यस्य पुरतोऽभिमुखोऽग्रिमाग्रिमः सेतुपथो नलेन बध्यते । भूमिनिखातमूलः स एव पुरतः सेतवे पदार्पणस्थानं भवतीति दृढमूलत्वमुक्तम् । 'लद्धत्थामं' इति पाठे लब्धस्थामानमित्यर्थः ॥ ४० ॥ विमला - सागर के भीतर भूमिभाग तक पहुँचे हुये मूल भाग वाले जिसजिस पर्वत को वानरों ने नियोजित किया नल उसी उसी पर पैर रखकर आगे का सेतुपथ रचता जाता था ||४०|| नलस्य त्वरामाह - समअं पवअविमुक्के सेउवहम्मि समअं अभाअपडन्ते । परिपेल्लेइ रएइ अ समयं च णलो पडिच्छिऊण महिहरे ॥ ४१ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] सेतुबन्धम् [ अष्टम [समकं प्लवगविमुक्तान्सेतुपथे समकमभागपततः । _ प्रतिप्रेरयति रचयति च समकं च नलः प्रतीक्ष्य महीधरान् ॥] समकमेकदैव प्लवगैविमुक्तांस्त्यक्तान् सेतुपथे समकमेकदैवाभागेऽस्थाने पततो महीधरान् समकं चैकदैव प्रतीक्ष्य गृहीत्वा नलः प्रतिप्रेरयति । कुतश्चित्कुत्रचिद्योजयति । करादिना यन्त्रयति वा। रचयति च । सम्यग्घटयतीत्यर्थः। पतत्पतिध्यत्पर्वतग्रहणविन्यासरचनासु कालसौक्ष्म्यमपि न लक्ष्यत इति भावः । यद्वा समकं प्लवगविमुक्तान्समकं प्रतीक्ष्य प्रतिप्रेरयति अभागपततो रचयति चेति यथासंख्यमन्वयः । क्वचित् 'समअं व णल-' इति पाठः । तत्र समकमिवेति सर्वत्रोत्प्रेक्षा ।। ४१ ।। विमला-वानर एक साथ ही सेतुपथ पर बहुत से पर्वत फेंक देते थे जो उपयुक्त स्थान पर नहीं पड़ते थे, उन्हें नल एक साथ ग्रहण कर कहीं से कहीं जोड़कर सेतुपथ की सम्यक् रचना करता था । ४१ ॥ सेतो समुद्रस्य सहकारितामाह अवलम्बइ णलघडिए अभाअवलिपाणिए घडेइ महिहरे। सेउवहस्स समुद्दो उव्वेलन्तसलिलो पवड्ढइ पुरओ ॥४२॥ [ अवलम्बते नलघटितानभागवलितान्घटयति महीधरान् । सेतुपथस्य समुद्र उद्वेलसलिलः प्रवर्धते पुरतः ।।] समुद्रः सेतुपथस्य महीधरानलेन घटितान्सुदढीकृतानवलम्बते धारयति । इतस्ततो गन्तुं न ददाति । तदवच्छेदेन समुद्रस्य स्थिरत्वादित्यर्थः। अभागेऽस्थाने वलितान् वक्रीभूतानथानीतान् तरङ्गाभिघातेन यथास्थानं प्रापितान घटयति सुदृढान् करोति । एवं पुरतोऽग्र उद्वेलसलिल उच्छलितः सन्प्रवर्धते । अग्रेसरतामवलम्बत इति भावः। यथा यथा सेतुर्वर्धते तथा तथा तत्सं मुखे वेलायां जलमप्युच्छलतीत्याशयः ॥४२॥ विमला-समुद्र भी सेतुपथ की रचना में सहायता कर रहा था। नल जिन पर्वतों को विन्यस्त कर देता उन्हें वह इधर से उधर नहीं जाने देता, अनुपयुक्त स्थान पर पड़े पर्वतों को तरङ्गों से उपयुक्त स्थान पर पहुंचा देता और ज्योंज्यों सेतु बढ़ता जाता त्यों-त्यों उसके आगे ( साहाय्यार्थ ) उछलता हुआ बढ़ता जाता था ॥४२॥ नलस्य बलातिशयमाह जं जं प्राणे इ गिरि रहिरहचक्कपरिमट्टसिहरं हणुमा । तं तं लीलाइ णलो वामकरुत्थाम्बरं रएइ समुद्दे ॥४३॥ [ यं यमानयति गिरिं रविरथचक्रपरिमृष्टशिखरं हनूमान् । तं तं लीलया नलो वामकरोत्तम्भितं रचयति समुद्रे ।।] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३०५ हनूमान् यं यं गिरिमानयति । कीदृशम् । रविरथस्य चक्रेण परिमृष्टं परिघृष्टं शिखरं यस्य तं तुङ्गम् । 'परिहट्टसहं' इति पाठे परिघर्षण सहमित्यर्थः । तं तं वामकरेणोत्तम्भितं हनूमतो हस्तादुत्थापितं नलः समुद्रे रचयति । सेतो यथोचितस्थाने संनिवेशयतीत्यर्थः । हनूमदानीतस्य तादृशपर्वतस्य पृष्ठतो वामकरेणोत्थापनमहंकारं बलं च गमयति ॥४३॥ विमला - हनुमान्, रविरथ के चक्र से परिघृष्ट शिखर वाले ( तुङ्गतम ) जिस-जिस पर्वत को ले आते, नल उस-उस पर्वत को लीलापूर्वक बायें हाथ से उठाकर समुद्र में यथोचित स्थान पर संनिविष्ट कर देता था ॥ ४३ ॥ समुद्रशैलोत्कर्षमाह वित्थअसर कमल सिरे सेले दरघडिग्रसेउस कमल सिरे । जलणिहिसे आलग्गा पाआलधरा धरेन्ति से अलग्गा ॥ ४४ ॥ [ विस्तृतसरः कमलशिरसः शैला दरघटितसेतु संक्रमलसनशीलान् । जलनिधिसेवालग्नाः पातालधरा धारयन्ति शैवालाग्रयाः ॥ ] पातालस्य धराः पर्वता दरघटिते सेतुरूपसंक्रमे लसनशीलान् श्लिष्टान् कान्तिमतो वा शैलान्धारयन्त्यवष्टभ्नन्ति । तदुपर्यमी स्थिरतामासादयन्तीत्यर्थः । 'लस श्लेषणक्रीडनयोर्लससंक्रान्ती च ' धातुः । कीदृशान् । विस्तृतानां सरसां कमलानि पद्मानि जलानि वा यत्र तादृशानि शिरांसि येषाम् । विस्तृतानि प्रफुल्लानि विस्तारशालीन वा सरः कमलानि पद्मानि जलानि वा यत्र तादृशानि शिरांसि येषामिति वा । पूर्वनिपातानियमाद्विस्तृतानि कमलानि यत्र तादृशानि सरांसि शिरसि येषा - मिति वा । अनेन महत्त्वमुक्तम् । पातालधराः कीदृशाः । जलनिधिसेवायां लग्नाः । तदन्तर्वर्तिन इत्यर्थः । यद्वा जलनिधिशैवाला लग्नाः शैवाला : प्रवालास्तत्र नग्नास्तत्संबद्धाः । एवं शैवालैरग्रचाः श्रेष्ठाः । शैवालमग्रे येषामित्यर्थेन शैवालाग्रा इति वा । तत्पूर्णा इत्यर्थः । तेन चिरंतनत्वमुक्तम् । यद्वा शैवालानामग्ररूपाः । तेन शैवालापेक्षया क्षुद्राणामेव पर्वतानामेतादृश महत्पर्वतधारणक्षमत्वमिति समुद्रोत्कर्षः । तदुक्तं बधिरकविराजेन - 'मैनाकोऽपि गभीरनीर विलुठत्पाठीन पृष्ठोल्लसच्छेवालाकुरकोटिकोटरकुटीकुडघान्तरे निर्वृतः' इति || ४४ || विमला - प्रफुल्ल कमलपूर्ण सरोवरों से सुशोभित शिरोभाग वाले ( विशालतम एवं तुङ्गतम ) पर्वत जो ईषत् सम्पन्न सेतुरूप संक्रम ( संकीर्ण मार्ग ) पर संश्लिष्ट थे उन्हें समुद्रान्तर्वर्ती शैवालपूर्ण पातालीय पर्वतों ने अपने ऊपर रोककर हिलने-डुलने नहीं दिया ॥ ४४ ॥ मणीनामवस्थामाह गमणिप्रत्तन्तजल र अविव्वन्ती । वेला अडसंबद्धा हल्लन्त किरणविडवा अन्दोलइ मरगअप्पहावणराई ||४५|| २० से० ब० Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] सेतुबन्धम् [ वेलातट संबद्धा गताप निवर्तमानजलरयविधूयमाना । लसत्किरणविटपा आन्दोल्यते मरकतप्रभावनराजी ॥ ] मरकतानां प्रभैव वनराजी वनं वारि कान वा तस्य राजी परम्परा आन्दोल्यते पर्वतपतनोत्थतरङ्गेण चञ्चला क्रियते । तदुक्तम् - तापनिवर्तमानस्य गतस्यागतस्य जलस्य रयेण विधूयमाना क्षोभ्यमाणा । पुनः कीदृशी । वेला तीरं नीरं वा तत्त संबद्धा । एवं 'हल्लन्त' इति लसदर्थे देशी । तथा च लसन्तः संचारिण: किरणा एव विटपा यस्याः सा । अन्यत्रापि तरुकम्पे शाखाकम्पो भवति । या मरकतवत्प्रभा यस्या इति हरिद्वर्णा वनराजी वनपङ्क्तिः सेतुपर्वतोपरिस्था आन्दोल्यते । कीदृशी । लसत्किरणमितस्ततो गमनं येषाम् । 'क विक्षेपे' धातुः । तादृशा विटपा यस्याः । तरङ्गगतागतेन शाखानां गतागतमिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥ ४५ ॥ विमला - संचरणशील किरणरूप शाखाओं वाली, वेलातट पर सम्बद्ध मकरत प्रभारूप वनराजि, गतागत जल के वेग से क्षुब्ध एवम् आन्दोलित की जा रही थी ।। ४५ ।। [ अष्टम जलहस्तिसर्पयोः संबन्धमाह [ दन्तेषु दन्तेसु बलिअलग्गा खोहुप्पित्थगन संपहारुषित्ता । करिमअराण भुअंगा पडन्ति कालासमण्डलपडिच्छन्दा ||४६ ॥ वलितलग्नाः क्षोभोद्विग्नगजसंप्रहारोत्क्षिप्ताः । करिमकराणां भुजंगाः पतन्ति कालायसमण्डलप्रतिच्छन्दाः ॥ ] भुजंगा : करिमकराणां दन्तेषु वलितलग्ना वेष्टितलग्नाः सन्तः पतन्ति । किंभूताः । क्षोभेण समुद्रस्येत्यर्थात् उद्विग्नैः क्रुद्धैर्वन्यैर्गजैः संप्रहारेण प्रवाह पूर्व - मुत्क्षिप्ताः । समुद्रक्षोभेण देवात्पुरः प्राप्ताः । शुण्डयोध्वं प्रेरिता इत्यर्थः । यद्वाक्षोभोद्विग्नैर्वन्यैर्गजैः समं संप्रहारे युद्धे उत्क्षिप्ताः करिमकरैरेवेत्यर्थः । अत एव कालायसममण्डलं लौहवलयस्तत्प्रतिच्छन्दास्तुल्यरूपाः । 'कालायसमयो लोहं गिरिसारमशस्त्रकम्' इति कोषः ॥ ४६ ॥ विमला - समुद्रक्षोभ से क्रुद्ध जलगजों ने युद्ध में जिन सर्पों को अपनी सूड से ऊपर की ओर फेंक दिया, वे उनके दाँतों में लौहवलय के समान लिपटे हुये गिर रहे थे । ४६ ॥ कल्लोलानामानुकूल्यमाह पव्वअवडनाइद्धो जो चित्र उग्रहिस्स पडिणिअत्तइ पडमम् । सोचिअ सलिलद्धन्तो ग्रण्णोहुतविसमं वलेइ णलवहम् ॥४७॥ [ पर्वतपतनाविद्धो य एवोदधेः प्रतिनिवर्तते प्रथमम् । स एव सलिलार्धान्तोऽन्यतोऽभिमुखविषमं वलयति नलपथम् ।। ] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३०७ पर्वतपतनेनाविद्ध: प्रेरितो य एवोदधेः सलिलार्धान्तः प्रथमं प्रतिनिवर्तते परावर्तते स एवान्यतोऽभिमुखमत एव विषममसंघटितं नलपथं वलयति वक्रीकृत्य ऋजुतां प्रापयति । दूरं गत्वा प्रतिनिवृत्तः कल्लोल एव सेतौ वक्रीभूतं गिरिमभिहत्य समीकरोतीत्यर्थः। तेन कल्लोलप्रकर्ष उक्तः । प्रथममिति कल्लोलान्तरापेक्षया नलापेक्षया वा। तथा च कल्लोल एव प्रथमं समीकरोति, नलस्तु पश्चादिति भावः ॥४७॥ विमला-पर्वत-पतन से प्रेरित जो कल्लोल आगे दूर तक जाता वही पुनः लौटते समय सामने पड़ने के कारण वक्र हुये पर्वत को अपने अभिघात द्वारा नल से पहिले ही सीधा कर देता था ॥ ४७ ।। गजसर्पयोः संबन्धमाह खुहिअसमुदस्थमिआ खुडेन्ति अक्खुडिअमअजलोज्झरपसरा । चलणालग्गभुअंगे पासे व णिरामकढिए माअङ्गा ॥४८॥ [ क्षुभितसमुद्रास्तमिताः खण्डयन्त्यखण्डितमदजलनिर्झरप्रसराः । चरणालग्नभुजंगान्पाशानिव निरायतकृष्टान्मातङ्गाः ॥] मातङ्गा वनहस्तिनश्चरणेष्वालग्नान्भुजंगान्पाशानिव खण्डयन्ति । यथा चरणेषु बन्धनरज्जुः खण्डयते तथैवेत्यर्थः । कथंभूतान् । निरायतान्सतः कृष्टान् । एकतश्चरणं दत्त्वा परतः शुण्डया खण्डनायाकृष्टौ दीर्धीभूतान् । पाशोऽप्याकर्षणे दीर्घायत इति साम्यम् । मातङ्गाः किंभूताः। क्षुभिते समुद्रेऽस्तमिताः पर्वतेन सहैव मग्नाः। एवम् अखण्डितो मदजलस्य प्रसरो येषां ते । मज्जनदशायामपि शौर्यशालिन इति भावः ॥४८॥ विमला-वन्यगज क्षुभित समुद्र में (पर्वत के साथ ही ) निमग्न' हो गये एवम् उनके मदजल के निर्झर का प्रसार खण्डित नहीं हुआ। चरणों में दृढ़ता से लिपटे हुए भुजंगों को उन्होंने एक सिरे को चरण से दबाकर दूसरे सिरे को सूड से खींचकर दीर्घ करते हुए बन्धनरज्जु के समान खण्डित कर दिया ।। ४८ ॥ तरङ्गाणां रत्नादिसंबन्धमाहर अणच्छविविमलभरा फल रसभरिअदरभिण्णमरगप्रणिवहा । ओधुववन्ति तरङ्गा चुण्णि प्रसल उलपण्डुराअरफेणा ॥४६॥ [ रत्नच्छविविमलतराः फलरसहरितदरभिन्नमरकतनिवहाः । अवधूयन्ते तरङ्गाश्चूर्णितशङ्खकुलपाण्डुरतरफेनाः ॥] तरङ्गा अवधूयन्ते गिरिपतनेन दिशि दिशि नीयन्ते । कीदृशाः। रत्न'च्छविभिर्विमलतरा अत्युज्ज्वलाः। तेषु तेषामपि सत्त्वात् । एवं फलरसै रसनीयफलैबनवृक्षोद्भवैर्हरिताः किं चित्किचित्खण्डिता मरकतनिवहा येषु । अविघातत्रुटितमर Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] सेतुबन्धम् [ अष्टम कतखण्डानां वन्यफलमिश्रणेन हरितत्वोत्कर्ष इति भावः । एवं चूर्णितेन शङ्खकुलेन पाण्डुरतरा: फेना येषु ते । समानरूपत्वात् । तथा च जलीयपर्वतीयवस्तूनामेकीभावेन समुद्रक्षोभातिशय उक्तः ॥४६।।। विमला-तरङ्ग (गिरिपतन से ) दूर तक जा रही थीं तथा वे रत्नों की कान्ति से समुज्ज्वल सुशोभित हो रही थीं। उनमें पर्वताभिघात से टूटी मरकत मणि के खण्डों की हरीतिमा वन्य वृक्षों के रसनीय फलों के मिश्रण से उत्कर्ष को प्राप्त हो रही थी और चूणित शङ्खकुल से फेन पाण्डुतर हो रहा भा॥४६ ।। अथ पातालजलोद्गममाह घडमाणेहि अ सम झिज्जइ सेलेहि जेत्ति चिन उग्रही। उच्छलइ तेत्तिसं चिअ उत्थाङ्घि अमूलसलिलपरिपूरन्ती ॥५०॥ [ घटमानैश्च समं क्षीयते शैलैर्यावन्मात्रमेवोदधिः । उच्छलति तावन्मात्रमेवोत्तम्भितमूलसलिलपरिपूर्यमाणः॥] च पुनः सममेकदैव घटमानैः संबध्यमानैः शैलैर्यावन्मात्रमेव यावत्प्रमाणमेवोदधिः क्षीयते गिरिपातात्तरङ्गाणामुच्छलनेन जलहासात्तावन्मात्रमेव पुनरुच्छलति वर्धते । अत्र हेतुमाह-कीदृक् । उत्तम्भितं यन्मूलसलिलं पातालजलं तेन परिपूर्यमाणः ।...... समुच्छलतीत्यन्वयः । तेन यदैव क्षीयते तदैवोच्छलतीत्यर्थे पातालजलस्योल्बणत्वेन गाम्भीर्यमुक्तम् ॥५०॥ विमला-एक साथ सम्बद्ध किये गये शैलों से (तरङ्गों के उछलने के कारण) समुद्र जितना क्षीण होता उतना ही ऊपर उठे हुए पाताल-जल से पुनः परिपूर्ण होकर उछलता था ।। ५० ॥ क्षोणीक्षोभमाह उद्धप्फुडिअण इमुहा णिअअट्ठाण सिढिलोसरन्तमहिहरा। अन्दोलन्तसमुदा अन्दोलन्ति व णहं धरणिसंखोहा ॥५१॥ [ ऊर्ध्वस्फुटितनदीमुखा निजकस्थानशिथिलापसरन्महीधराः । आन्दोलत्समुद्रा आन्दोलयन्तीव नभो धरणिसंक्षोभाः ॥] धरण्याः संक्षोभा गगनमान्दोलयन्तीव । कीदृशाः । ऊर्ध्वानि सन्ति स्फुटितानि खण्डखण्डीकृतानि नदीनां मुखानि यैस्तानि(स्ते)। एवं निजकस्थानाच्छिथिलाः सन्तोऽपसरन्तो यतस्ततो दोलायमाना महीधरा येभ्यस्तानि (स्ते) । एवं आन्दोलन्तो दोधूयमानाः समुद्रा येभ्यः । तथा चायमर्थः-पर्वतपतनोत्थितकल्लोलाभिघातेन भूमिकम्पान्नदीमुखजलान्युद्धय विशीर्यन्ति सेतो निहितानि निजनिजस्थानस्थिता एव मेरुमलयप्रभृतयश्च गिरयो भूकम्पाहितमूलशैथिल्येन यतस्ततः Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३०६ संचरन्ति । एवं सति संचरत्तदीयशिखरप्रेरितसुरविमानजलधरपटलचलनादिना उच्छलितसमुद्रतरङ्गातिक्रमेण च निष्क्रियस्यापि नभस: कम्प उत्प्रेक्षित इवशब्देन ॥५१। विमला-पर्वतवतनजन्य तरङ्गों के अभिघात से धरा कम्पित हो गयी, नदियों का मुखजल विशीर्ण हो ऊपर को चला गया, समुद्र भी आन्दोलित हो गया, मेरुमलयप्रभृति अपने स्थान से शिथिल हो दोलायमान हो गये और इस प्रकार उनके शिखरों से प्रेरित ( सुरविमान एवं मेघपटल के चञ्चल होने से ) पृथिवी के इस संक्षोभ ने मानों आकाश को आन्दोलित कर दिया । ५१ ॥ अथ सेतोरीषदुद्भवमाहअप्रिसे उवहं होइ खणं अद्धदिण्णहरिहिअअसुहम् । अद्धोवइअमहिहरं अद्धोसारि अरसाप्रलं उअहिजलम् ॥५२॥ [ अर्कोत्थितसेतुपथं भवति क्षणमर्धदत्तहरिहृदयसुखम् । अर्धावपातितमहीधरमर्धापसारितरसातलमुदधिजलम् ॥] उदधिजलं भवति । कीदृक् । अर्धेन भागेन अर्धे वोत्थितः सेतुपथो यत्र । एवं क्षणं व्याप्याधं दत्तं हरीणां कपीनां हृदये सुखं येन । सेत्वर्धनिष्पत्त्यानन्दामित्यर्थः । एवं अर्धेऽवपातिताः क्षिप्ता महीधरा यत्र । अर्धावच्छिन्ना गिरयो वेलायामेव तिष्ठन्तीत्यर्थः । एवम् अर्धमर्धावच्छिन्नमपसारितमन्यतः क्षिप्त रसातलं यत स्तत् । तावदवच्छेदेन पर्वतपूरितत्वात् । एतेन सेतोरामूलत्वमुक्तम् ।।५२।। विमला-( इस प्रकार ) समुद्रजल के आधे भाग में सेतुपथ निष्पन्न हो गया, जिससे वानरों के हृदय को क्षणभर आधा आनन्द प्राप्त हुआ। समुद्रजल के शेष आधे भाग में पर्वत डाले जा चुके थे और ( अर्धनिर्मित सेतु के पातालव्यापी होने से ) रसातल का आधा भाग दूर हो चुका था ॥ ५२ ।। अथ सेतोलेन तिरोधानमाहणिम्माओ त्ति मुणिज्नइ दूराइद्धम्मि सारे सेतुबहो। सो चिअ सलिलभरन्तो थोआरद्धो व्व दीसइ णिप्रत्तन्ते ॥५३॥ [ निर्मित इति ज्ञायते दूराविद्ध सागरे सेतुपथः । स एव सलिलभ्रियमाणः स्तोकारब्ध इव दृश्यते निवर्तमाने ॥] दूरं व्याप्याविद्धे प्रेरिते सागरे सेतुपथो निर्मित इति दृश्यते । स एव सेतुपथः सागरे निवर्तमाने सति सलिलेन भ्रियमाणः पूर्यमाणः सन्स्तोकारब्ध इव दृश्यते । अयमर्थ:-क्षिप्तपर्वताभिघातद्विधाभूतसमुद्रजलयोर्दू रमुच्छलनात्सेतुनिर्मित एव दृश्यते । समुद्र स्याल्पजलत्वाद्यदा पुनस्तज्जलद्वयं परावृत्य समुद्रे मिलति तदा सलिलास्तमितत्वात्स्तोक एवेत्यभिघातजलयोरुत्कर्षः ॥५३॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] सेतुबन्धम् [ अष्टम विमला---यद्यपि सेतु अभी आधा ही निष्पन्न हुआ था तथापि डाले गये पर्वतों के अभिघात से दूर तक समुद्र के उछलने पर जल से पूर्यमाण होने के कारण पूरा निर्मित-सा ज्ञात होता था और सेतु की अर्ध-रचना की वास्तविकता का पता तब लगता था जब वह जल लौट कर पुनः समुद्र में चला जाता था ।। ५३ ॥ अथ महावराहस्य चरणगापूरममाह अवि पूरइ पाआलं ण अ कुविअविसागइन्दगमणविहाआ। उअहिविइण्णोप्रासा पूरेन्ति महावराहपअनिक्खेवा ॥५४॥ [ अपि पूर्यते पातालं न च कुपितदिग्गजेन्द्रगमनविघाताः । उदधिवितीर्णावकाशाः पूर्यन्ते महावराहपदनिक्षेपाः ॥] अपि संभावनायाम् । गिरिभिः पातलमपि पूर्यते, न तु महावराहस्य पदनिक्षेपाः पुरातनानि चरणनिक्षेपस्थानानि पूर्यन्ते । तेषां ततोऽपि महत्त्वादिति भावः । तदेवाह-कीदृशाः । करिमकरास्फालनादिना कुपितानां दिग्गजेन्द्राणां गमनस्य स्वेच्छाचारस्य विघातो येभ्यः । अतीगभीरत्वात् । तथा च जलहस्तिनो भयेन तत्र प्रविश्य तिष्ठन्ति दिक्करिणः प्रवेष्टुं न पारयन्तीति मत्तस्यापि गमनप्रतिबन्ध कत्वेनाति विकटत्वमुक्तम् । कुपितपदेन दिग्गजानां गमनस्य विधाता: परिपन्थिनः । हन्यतेऽनेनेति करणे घमिति केचित् । एवं उदधिना वितीर्णो दत्तोऽवकाशः स्थानं यस्मै । तत्संल्लीनत्वात् । वस्तुतस्तु-उदधये दत्तोऽवकाशो यैः । तस्य तत्रैव विश्रामात् । अनेन महत्तरत्वमुक्तम् ॥५४॥ विमला-पर्वतों से पाताल भले ही पूर्ण हो गया; किन्तु महावराह के पुरातन चरणनिक्षेप स्थान नहीं पूर्ण हुए, जो इतने गम्भीर हैं कि जलगज कुपित दिग्गजेन्द्रों के भय से उनमें प्रविष्ट हो स्थित रहते हैं और दिग्गज उनमें प्रविष्ट नहीं हो पाते तथा जिन्होंने समुद्र को भी ( विश्रामार्थ ) स्थान दिया है ।। ५४ ।। अथ जलस्य नानारूपतामाह जाअं महिहरमहिअं धातुप्रडक्खलणसरसपल्लवराअम् । दुमभङ्गतुवरसुरहिं उपज्जन्तमइरं न साअरसलिलम् ।।५।। [ जातं महीधरमथितं धातुतटस्खलनसरसपल्लवरागम् ।। द्रुमभङ्गतुवरसुरभि उत्पद्य[मान]मदिरमिव सागरसलिलम् ॥] सागरस्य सलिलं महीधरेण मथितं सदुत्पद्यमाना मदिरा यस्मात्तथाभूतमिव जातम् । मथन चिह्नमाह-कीदृशम् । धातूनां गैरिकाणां तटस्य स्खलनात्स रसपल्लवस्येव रागो लौहित्यं यस्य । यथा मदिरायामपितमधूकपल्लवादिरागो जायते, तथा प्रकृतेऽपि गिरिगरिक राग इत्यर्थः । एवं पर्वतीयद्रुमाणां भङ्गेनावर्तादिजातेन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३११ खण्डेन तुवरं कषायं सत्सुरभि । मदिरायामपि मधूकादिखण्डार्पणात्कषायता सौरभं चेति साम्यम् । 'तुवरस्तु कषायोऽस्त्री' इत्यमरः । तथा च पूर्वमपि महीधरेण मथितः समुद्रः सुरा चामत् । संप्रति सलिलस्यैव ताम्रकषायसुरभित्वात्सुरात्वमित्युत्प्रेक्षा ॥५॥ विमला-सागर का सलिल पर्वतों से मथ उठा, गेरू के स्खलन से उसका वर्ण सरस पल्लव के समान लाल हो गया तथा पर्वतीय द्रुमों के खण्डों से वह कषायित एवं सुरभित हो गया। इस प्रकार मानों पर्वत से मथित मदिरा समुद्र से पुनः उत्पन्न हो रही थी ।। ५५ ।। अथ समुद्रसंचारेण सेतुस्थैर्यमाहसंचालेइ समुद्दो जह जह विरलठ्ठि धराहरणियहम् । तह तह विरामसिहरो पूरिमविवरस्थिरो घडइ सेउवहो ॥५६॥ [ संचालयति समुद्रो यथा यथा विरलस्थितं धराधरनिवहम् । तथा तथा विशीर्ण शिखरः पूरितविवरस्थिरो घटते सेतुपथः ।।] सेतो विरलस्थितं ब्यबहितस्थितं धराधराणां निवहं यथा यथा समुद्रः संचालयति तथा तथा विशीणं चूणितं शिखरं यत्र तथाभूतः सेतुपथः पूरितेन विवरण स्थिरः सन् घटते । पर्वतपतनाज्जातसमुद्रक्षोभेण सेतुपर्वतानां चलने परस्परमिल. नाच्छिखरभङ्गेनावकाशपूरणादन्तरालविरहात्सुदृढः सेतुरुत्पद्यते इत्यर्थः ॥५६॥ विमला--- पर्वतपतन से संक्षुब्ध होने के कारण ) समुद्र पर्वतों को ज्यों-ज्यों संचालित करता त्यों-त्यों परस्पर मिलने से उनके शिखर विशीर्ण होते और उनसे रहे-सहे विवर भी पूर्ण हो जाते-इस प्रकार सेतु और भी अधिक सुदढ़ हो जाता था ॥ ५६ ॥ अथ सेतोरनिर्धारणीयरूपतामाहपडइ णु णहमलघडिओ कढिज्ज इ णु मलाहि चिरणिम्माओ। घडइ णु समुद्दसलिले धडियो गीह णु रसाअलाहि णलवहो ॥१७॥ [पतति नु नभस्तलघटितः कृष्यते नु मलयाच्चिरनिर्मितः । घटते नु समुद्रसलिले घटितो निरेति नु रसातलान्नलपथः ॥] नुशब्दो विकल्पे उत्प्रेक्षायां वा । नलपथः कपिभिर्नभस्तले घटितः सन् पतति नु । समुद्र इत्यर्थात् । चिरनिर्मितः पूर्वमेव निर्मितो मलयात्कृष्यते नु । समुद्रस्य जले घटते स्वयमेवोत्पद्यते नु। रसातलाद्धटित एव सिद्ध एव निरेति निर्याति नु । तथा चोपरितः पतनं मलयादाकर्षणं सलिले तात्कालिक घटनं पातालादुत्थानं वा सेतोः किमिति निर्धारयितुं न पारितम् । सर्वत्र समानरूपत्वाद्वानराणां नलस्य च शीघ्रकारित्वादित्यर्थः ।।५७।। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] सेतुबन्धम् [ अष्टम विमला-(वानरों तथा नल की शीघ्रकारिता से ) यह निर्धारित नहीं किया जा सकता था कि यह सेतु वानरों द्वारा गगनतल में बनाया गया और वहाँ से समुद्र में गिर रहा है अथवा पूर्व निर्मित यह मलय गिरि से घसीट लिया गया है अथवा समुद्र के सलिल में स्वयम् उत्पन्न हो रहा है अथवा रसातल से यह बनाबनाया निकल रहा है ॥ ५७ ॥ अथ पर्वतानां सर्वत्र तुल्यरूपतामाहगअणम्मि उअहिसलिलं सलिलविमुक्के रसाअलम्मि णहअलम् । दीसइ तीसु वि सम णहसलिलरसाप्रलेसु पव्वअजालम् ॥५८।। [ गगने उदधिसलिलं सलिलविमुक्ते रसातले नभस्तलम् । दृश्यते त्रिष्वपि समं नभःसलिलरसातलेषु पर्वतजालम् ॥] गगने उदधिसलिलं दृश्यते, उच्छलितत्वात् । सलिल विमुक्ते रसातले नभस्तलं दृश्यते, तुच्छत्वात् । त्रिष्वपि नभःसलिल रसातलेषु पर्वतजालं समं तुल्यमेव दृश्यते, निरन्तरं वर्षणशालित्वात् । तथा च यत्र यस्यासंभवस्तदपि तत्र कृतमिति समुद्राकाशयोद्यत्ययेन स्थानत्रयस्यापि पर्वतमयत्वेन च नलस्य निर्माणकौशलं दर्शितम् ।।५।। विमला-गगन में समुद्र-सलिल, जलविहीन रसातल में नभस्तल तथा गगन, समुद्रसलिल और रसातल में पर्वतों का जाल समान रूप से दिखायी पड़ रहा था ॥ ५८ ॥ अथ सेतोरान्दोलनमाहवेलालाणणिअलिओ रसिऊण रसाअलठिअंपि समुद्दो। चालेइ सेउबन्धं खम्भं आरण्णकुज्जरो व्व वलन्तो॥५६॥ [ वेलालाननिगलि(डि)तो रसित्वा रसातलस्थितमपि समुद्रः । चालयति सेतुबन्धं स्तम्भमारण्यकुञ्जर इव वलन् ।] समुद्रः सेतुबन्धं चाल यति तरङ्गाभिघातेनान्दोलयति । किं कृत्वा । रसित्वा कल्लोलकोलाहलं कृत्वा । क इव । स्तम्भमारण्यकुञ्जर इव । यथा नवबद्ध कुञ्जरो बन्धनस्थानं स्तम्भं रसित्वा चीत्कृत्य चालयति उत्पाटयितुमान्दोलयति । समुद्रो गजो वा किं कुर्वन् । वलन्वक्रीभवन् । नित्यसंचारशीलत्वात । समुद्रः कीदृक् । वेला तरङ्गस्तटं वा, तद्रूपेणालानेन निगलि (डि)तो बद्धः। गजोऽप्यालानबद्धो भवति । सेतुबन्धं स्तम्भं वा किंभूतम् । रसातल स्थितमपि । गभीरनिखातत्वात् । अत्र समुद्रस्य गजेनोपमायां सेतोः स्तम्भत्वम्, वेलाया आलानत्वं च हेतुः ।।५६॥ विमला-वेलारूप आलान ( बेड़ी ) से निबद्ध, शब्द करता हुआ तथा इधर-उधर डोलता हुआ समुद्र, अत्यन्त गहराई तक गड़े हुये स्तम्भ को वन्य Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३१३ गज के समान, रसातल तक स्थित सेतु को भी ( तरङ्गाभिघात से उखाड़ने के लिये ) हिलाता था ॥ ५६ ॥ अथ सेतो बिड़यमाह - । पेल्लिज्जन्ति दढग्ररं जह जह पवएहि खुहिजलतण्णा ओहट्टन्ताआमा तह तह एक्कक्कमं अइन्ति महिहरा ॥ ६०॥ [ प्रेर्यन्ते दृढतरं यत्र यत्र प्लवगैः क्षुभितजलार्द्राः । अपसरदायामास्तत्र तत्रैकैकमायान्ति महीधराः ॥ ] प्लवगैर्महीधरा दृढतरं यथा यथा प्रेर्यन्ते निबिडीकरणाय हस्तादिनाभिहन्यन्ते, तथा तथा क्षुभितेन तत्प्रेरणाभिरुत्थितेन जलेनार्द्राः । एवम् अपसरन्नपकर्षशील आयामो दैर्घ्यं येषां तथा सन्त एकैकमायान्ति जलार्द्रत्वात्प्लवगप्रेरणाच्च वेगाभिहतपत तव इव परस्परं संबध्यन्त इत्यर्थः । मिथोमिलनादेव दैर्घ्यहासादृढत्वमित्याशयः || ६०॥ विमला - वानर अत्यन्त दृढ़तापूर्वक जहाँ-जहाँ पर्वतों को ( हाथ आदि से ) परस्पर सम्बद्ध करने के लिये पीटते वहाँ-वहाँ क्षुब्ध जल से भद्रं वे ( पर्वत ) परस्पर सम्बद्ध हो जाते और इस प्रकार उनका विस्तार पहिले की अपेक्षा कम हो जाता था ॥ ६० ॥ अथ सागरस्य शब्दमाह पव अभु अगलस्थल्लिना विध्यइण र अना धरणिहरा पडन्ति भअचुण्ण इंणरश्रणा । खुहिम्रो सामरो रसई उण्णअं ण ईणं मोन्तो व्व तिव्वभ उग्णअं णईणम् ॥ ६१ ॥ [ प्लवगभुजगलहसिता विप्रकीर्णरत्ना धरणिधराः पतन्ति भयचूर्ण किंनरगणाः । क्षुभितः सागरो रसति उन्नतं न दीनं मोचयन्निव तीव्रभयपूर्णतां नदीनाम् ॥ ] धरणिधराः समुद्रे पतन्ति । कीदृशा: । प्लवगभुजैः प्रेरिताः । एवं विप्रकीर्णानि इस्तस्ततः क्षिप्तानि रत्नानि यैस्ते, तदभिघातेन समुद्ररत्नानामुच्छलनात् । विप्रकीर्णरचना वा । विप्रकीर्णा विस्तारशालिनी रचना सेती संघटना येषामित्यर्थः । एवं भयेन चूर्णा व्यस्ताः किंनरगणा येषु, समुद्र े पतितव्यमित्याशयात् । अथ क्षुभितः पर्वतपतनान्दोलितः सागर उन्नतं रसति । न दीनं ह्रस्वं यथा स्यात्तथा रसतीत्यर्थः । किं कुर्वन्निव । नदीनां तीव्रं भयं स्वामी समुद्रः किं स्यादित्यादिकं तत्पूर्णतां मोच Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम यन्निव न भेतव्यमित्याश्वासयन्निव । पराभवं प्राप्तस्य वल्लभस्य प्रतिभया पत्नीनां भयमपगच्छतीति भावः ॥ ६१ ॥ विमला-वानरों की भुजाओं से प्रेरित पर्वत समुद्र में गिर रहे थे। उन पर बसने वाले किन्नर समुद्र में गिरने के भय से व्याकुल थे। समुद्र के रत्न' उछल कर इधर-उधर बिखरे हुए थे। समुद्र क्षुभित हो उन्नत किन्तु अदीन' शब्द कर रहा था, मानों उसके विषय में अनिष्ट की आशंका से व्याकुल नदियों के तीव्र भय को दूर करता हुआ वह उन्हें आश्वासन दे रहा था । ६१ ।। अथ मणिप्रभानामुद्गममाह भरइ व दूराद्धो धुवइ व पडन्तधरणिहरकद्दमिमो। रुम्भइ व पडिणि अत्तो भिण्णो घडइ व मडिप्पहाहि समुद्दो॥६२॥ [भ्रियत इव दूराविद्धो धाव्यत इव पतद्धरणिधरकर्दमितः । रुध्यत इव प्रतिनिवृत्तो भिन्नो घटत इव मणिप्रभाभिः समुद्रः ॥] दूरमाविद्धः पर्वतपतनेनोच्छलितः समुद्रः स्वस्य पर्वतानां वा मणिप्रभाभिभ्रियत इव तुच्छोऽपि पूर्यत इव, तद्वयाप्तत्वात् । पतद्भिर्धरणिधरैः कर्दमितो गौरिकादिसंबन्धात् धाव्यते प्रक्षाल्यत इव, स्वव्याप्त्योज्ज्वलीक्रियमाणत्वात् । उच्छलनेन कियरं गत्वा प्रतिनिवृत्तः सन् रुध्यत इव निजप्रसरेण विष्टभ्यमानत्वात् । भिन्नः । पर्घतपतनाद्विधाभूतः सन् घटत इव एकीभवतीव, संधीयमानान्तराल त्वात् । मणिप्रभाभिरिति सर्वत्र योजनीयम् । अत्रोत्प्रेक्षाचतुष्टयमपि मणिप्रभाणां बाहुल्यमौज्ज्वल्यं गाढत्वं यथासंख्यमाद्यत्रये तृतीयपरिहारेण जलाकार त्वं च सर्वत्र निमित्तमिति ध्येयम् ।। ६२ ।। विमला-ययपि समुद्र का जल पर्वतों के अभिघात से उछल कर दूर तक चला गया, तथापि मणियों की प्रभा से वह ( समुद्र ) जल-पूर्ण-सा ही दिखाई देता था। गिरते हुये पर्वतों से वह पङ्किल होकर भी मणियों की प्रभा से धुला-सा प्रतीत होता था। कुछ दूर जाकर लौटता हुआ भी वह मणियों की प्रभा से अवरुद्ध ही ज्ञात होता था। पर्वत के गिरने से दो भागों में विभक्त होने पर भी मणियों की प्रभा से अभिन्न ही विदित होता था ।।६२।। जलवनगजयोरसंगममाह करिम अराण खुहिअसाअरविसासिआणं सेउवहम्मि पडिअगिरिणिवहविसासिआणम् । समअं वणगआण णिवहा धरोसिमाणं समुहं आवडन्ति मगन्धरोसिआणम् ।।६३॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३१५ [ करिमकराणां क्षुभितसागरविषाश्रितानां सेतुपथे पतितगिरिनिवहविशासितानाम् । समकं वनगजानां निवहा धरोषितानां संमुखमापतन्ति मदगन्धरोषितानाम् ॥] करिमकराणां वनगजानां च निवहाः सममेकदैव सम्मुखमापतन्ति । युद्धाय परस्परमभिमुखीभवन्तीत्यर्थः । करिमकराणां किंभूतानाम् । क्षुभितं यत्सागरस्य विषं जलं तदाश्रितानाम् । तदानीं क्षुभितानां सागरजलमाश्रितानामिति वा कर्मधारयः । यद्वा विषासितानां जले आसितानाम् । उपविष्टानामित्यर्थः । यद्वा विषवद्गरलवदासितानामुपविष्टानाम् । विषवदसितानां श्यामानामिति वा । यद्वा विषाशितानां विषं जलमाशितानाम् । भोनितानामित्यर्थः । यद्वा विषासिकानां सागरजले आसिकोपवेशनं येषामित्यर्थः । एवं सेतुपथे पतितगिरिनिवहेन विशेषतः शासितानाम् । मारितानामित्यर्थः । 'शसु हिंसायाम्' इति धातोणिचि । यद्वा गिरिनि-- वहेन विश्लेषितानां दिशि दिशि गतानाम् । यद्वा गिरिनिवहेन विशासितानाम् , गिरिषु सजातीयगजभ्रमेणोपगमात् । एवं वनगजानां किंभूतानाम् । धरेषु पर्वतेषू. षितानाम्, वनचरत्वात् । वस्तुतस्तु करिमकराणां वनगजानामित्युभयोरपि सर्व विशेषणम् । तथाहि प्रथमे-धरेषषितानाम् । वनगजैः सह योद्धु समुद्रादपि पर्वतमारूढानामिति शौर्यप्रकर्षः । यद्वा धरेषु मैनाकादिषूषितानां स्वभावादेवेत्यर्थः। द्वितीये-सागविषमाश्रितानां करिमकरैः सह योद्धं पर्वतादपि समुद्रजलं प्रविष्टानामित्यस्यापि शौर्य प्रकर्षः । एवं सेतुपथे पतितगिरिनिवहेन विशेषतः शासितानां घर्षितानाम्, तेन व्याकुलीक्रियमाणत्वात् । एवं मिथो मदगन्धेन रोषितानामित्युभयपक्षेऽपि सर्व तुल्यमिति मदुन्नीतः । पन्थाः 'विषं पुरीषे गरले पानीये च प्रकीर्तितम् ॥ ६३ ॥ विमला-क्षुभित सागर के [ विष ] जल में स्थित एवं सेतुपथ पर पतित पर्वतों से धर्षित जलगजों का समूह तथा पर्वतबासी वनगजों का समूह एकदूसरे के मदगन्ध से रोष को प्राप्त होकर युद्ध के लिये एक साथ एक-दूसरे के. सम्मुख आ गये ।।३।। अथ सेतो तरङ्गपत न माह उत्थ द्धिप्रदुमणिवहा सुइरं परिमलिअसेउवहपासल्ला। धाउकलङ्कवखतरा दूरं गन्तण उद्वमन्ति तरङ्गा ॥५४।। [ उत्थापितद्रुमनिवहाः सुचिरं परमृदितसेतुपथपााः । धातुकलङ्ककलुषा दूरं गत्वा उद्वमन्ति तरङ्गाः ॥] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम तरङ्गा दूरं गत्वा सेतोः कियन्तमुपरितनं भागमतिक्रम्योद्वमन्ति विलीयन्ते । समाप्ता भवन्तीत्यर्थः । किम्भूताः । उत्थापितः स्वाभिघातेन भक्त्वध्वं नीतो मनिहो यैः । तथा च वृक्षोन्मूलनसमर्थस्यापि तरङ्गस्य कियद्दूर एव समाप्त्या सेतोर्विस्तीर्णत्वमुक्तम् । एवं सुचिरं व्याप्य परिमृदितः परिघृष्टः सेतुपथस्य पार्श्वप्रदेशो यैस्ते । पार्श्व एव चिरकालव्यापनादुच्चत्वमुक्तम् । एवं धातुरूपेण कलङ्केन बर्णान्तरस्य प्राप्तत्वात्कलुषाः । तथा च महतोऽपि तरङ्गस्य धातुकालुष्येणाधिक देशव्यापनेऽपि सकलाव्याप्तिरित्यमहत्त्वमिति भावः । वस्तुतस्तु पार्श्वस्यैव दूरं दूरभागं गत्वातिक्रम्योद्वमन्ति त्यजन्ति । कियद्दूरं गत्वा पश्चादागच्छतीत्यर्थः । एतेन सेतोरुच्चत्वमुक्तम् ॥ ६४॥ विमला - धातुरूप कलंक से ओर फेंक देनेवाली लहरें सेतु के रहीं और ऊँचे पार्श्व भाग की कुछ ऊँचाई तक जाकर विलीन होती रहीं || ६४ || मृगादीनां चेष्टामाह कलुषित तथा वृक्षों को भग्न कर ऊपर की पार्श्व भाग को चिरकाल तक परिमृष्ट करती दीसह ममउलेहि उग्रही णलो बह समअं सेल ( उ ) पडणभ अउण्णलो प्रणे हि । जं खलिअं अईइ सलिलं णईण ऊरं तं उद्धाइ पवअकलकल विइण्ण ऊरम् ॥ ६५ ॥ [ दृश्यते मृगकुलैरुदधिर्नलो जनैः समं शैल (सेतु) पतन भयपूर्णलोचनैः । यत्स्खलितमत्येति सलिलं नदीनां पूरं तदुद्धावति प्लवगकलकलवितीर्णसूर्यम् ॥ ] गगन एवानीयमानगिरिस्थैर्मृगकुलैरुदधिः, पतनभयाज्जनैर्नला सेतुघटनविस्मयत्सममेकदैव दृश्यते । उभयगतं विशेषणमाह — कीदृशैर्मृगकुलैः । सेतौ पतनभयेन पूर्णे कातरत्वादिचिह्निते लोचने येषां तैः । सेतुपतने समुद्र एव पतनं स्यादित्याशयात् । जनैः कीदृशैः । सेतोः पतनं समुद्रजले मज्जनं तद्भयेन पूर्वे लोचने येषाम् । सेतोर्मज्जनमेव स्यादिति क्षुभ्यतां सेतुस्थितिदर्शनेन विस्मय इति भावः । अणेहिं एभिर्मृगकुलैरुदधिर्नलश्च समं तुल्यमेव दृश्यते इत्यपि कश्चित् । भत्र सेतौ पतनभयेनेति सेतावेव चेत् स्थितिस्तदा नलात्, अन्यत्र चेत्तदा जला - द्भयमित्युभयदर्शन मिति भावः । एवं समुद्रस्यैव यत्सलिलं सेतुपर्व तयोरभिघातास्खलितं सन्नदीनां पूरं प्रवाहमत्येति अतिक्रामति, तत्प्लवगानां कलकलेन वितीर्णतयं वाद्यविशेषो यस्य तदुद्धावति ऊर्ध्वमुत्तिष्ठति । वाद्यादिकोलाहलेन जलमुत्तिष्ठतीति प्रसिद्धिः । तथा च नदीसमुद्रजलयोः संघट्टादुत्थानमेवमुत्प्रेक्षितमिति भावः । यद्वा Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३१७ नदीनामेव सेतुस्थानामित्यर्थात् सलिलमिति कर्तृ । समुद्रतरङ्गाभिघातात्स्खलितं सद्यद्रमतिकामति समुद्रजलमित्यर्थात्, तत्प्लवगकलकलवितीर्णतूर्य सदुद्धावति । तथा च समुद्रतरङ्गाभिहतमपि सेतनदीजलं यत्समुद्रमेवातिक्रामति तत्प्लवगकलकलमहिम्ना बहुलीक्रियमाणत्वनिमित्तक मित्युप्रेक्षा। एतेन समुद्रातिक्रमक्षमत्वात्सेतुनदीनामुत्कर्षः सूचितः ॥६५॥ विमला-( गगन में लाये जाते हुये पर्वतों पर स्थित ) मृग उदधि को तथा जनसमूह नल को एक साथ देख रहे थे। मृगों के नेत्र सेतु पर गिरने की आशङ्का से भयपूर्ण थे और जनसमूह के नेत्र समुद्रजल में सेतु के पतन की आशङ्का से भयाकुल थे। समुद्र का जल सेतु से टकरा कर नदियों के प्रवाह को अतिक्रान्त करता था, मानों वह वानरों के कलकलरूप तूर्यनाद से ऊपर उठता था। विमर्श-वाद्य आदि के कोलाहल से जल का ऊपर उठना लोक में प्रत्यक्षसिद्ध है ॥६५॥ अथ पञ्चभिः स्कन्धकैरन्त्यकुलकेन सेतुं वर्णयतिइअ समलमहिमलुक्खनमाहिहरसंघाणिम्मिअमहारम्भम् । णिअच्छाआवइपरसामलइअसाअरोअरजलद्धन्तम् । विसमोसरिअसिलाअलदढघाउक्खित्तमच्छपच्छिमभाअम् । मञ्झन्छिण्णभुअंगमवेड्ढप्पीडणविआरिअसिलावेढ़म् ॥६७॥ सेलम्मूलणसंभमगहि अफिलिअगअमग्गधाइप्रसीहम् गिरिसिहरणिसण्णाणिगिरिपेल्लिअपिन्तमुहलजलहरसलिलम् ॥६॥ पासल्लपडिअवणगअरुद्धमहोज्झरदुहापहाविअसलिलम् । धरणिहरन्तरिमठ्ठि प्रचन्दणवणमुणिमलप्रसिहरक्खण्डम् ॥६६॥ वीईपडिऊलाहप्रथोउवेल्लिप्रदुमावलम्बन्तलअम् विसमसिहरन्तरागप्रसंवेल्लि असाअरं घडेन्ति जलवहम् ॥७॥ (कुलअम् ) [ इति सकलमहीतलोत्खातमहीधरसंघातनिर्मितमहारम्भम् । निजकच्छायाव्यतिकरश्यामलितसागरोदरजलार्धान्तम् विषमापसृतशिलातलदृढघातोत्कृत्तमत्स्यपश्चिमभागम् मध्यच्छिन्नभुजंगमवेष्टोत्पीडनविदारितशिलावेष्टम् शैलोन्मूलसंभ्रमगृहीतभ्रष्टगजमार्गधावितसिंहम् गिरिशिखरनिषण्णानीतगिरिप्रेरितनिर्यन्मुखरजलधरसलिलम् ।। पार्श्वपतितवनगजरुद्धमहानिर्झरद्विधाप्रधावितसलिलम् धरणिधरान्तरितस्थितचन्दनवनज्ञातमलयशिखरखण्डम् ॥ सलिलम । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् वीचिप्रतिकुलाहतस्तोकोद्वेल्लितद्रुमावलम्बमानलतम् । विषमशिखरान्तरागत संवेल्लितसागरं घटयति नलपथम् ॥ ] ३१८ ] [ अष्टम इत्यनेन प्रकारेण 'वानरा नलपथं संघटयन्ति' इति पञ्चमस्कन्धकेन संबन्धः । - नलानुगामित्वेन परेषामपि कर्तृत्वाद्बहुवचनम् । कीदृशम् । सकलमहीतलादुत्खातेराणां संघातनिर्मितो महानारम्भ उच्छ्रायो यस्य तम् । एवं निजकच्छायायाः स्वीयप्रतिबिम्बस्य व्यतिकरेण संबन्धेन श्यामलितः सागरोदरजलस्यार्धान्तो येन तमिति सेतोरुच्छ्रायो दैघ्यं सूचितम् । स्वाभाविकी सिन्धुजलश्यामता सेतुच्छाया'त्वेनोत्प्रेक्षतेति कश्चित् । पुनः किंभूतम् । विषमं समीभूय न लग्नम्, अतोऽपसृतं स्खलितं यच्छिलातलं तदुढघातेनोत्कृत्त छिन्नो मत्स्यस्य । तलवर्तिन इत्यर्थात् । पश्चिमभागः पुच्छप्रदेशो यत्र तम् । एवं तेनैव मध्यच्छिन्नं यद्भुजंगमवेष्टं सर्पभोगस्तस्योत्पीडनेन गाढीकृतवेष्टनेन विदारितं द्विधाकृतं शिलावेष्टं यस्य तम् । भोगेनाभिघात जनक मावेष्टयतीति सर्पस्वभावः । तथा च ययैव शिलया मध्ये छिन्नः सैवावेष्ट्य विदारितेति द्वयोरपि महत्त्वमुक्तम् । मध्यच्छिन्नभुजंगमस्य यद्वेष्टमावेष्टनं तस्योत्पीडनेन यन्त्रणेनेत्यर्थ इति कश्चित् । "एवं कपिभिः कृतं यच्छैलोन्मूलनं तत्संभ्रमाद्गृहीतभ्रष्टस्य संभ्रमपूर्वं गृहीतस्य धृतस्य तस्मिन्सति भ्रष्टस्य तदन्यमनस्कत्वेन पलायितस्य गजस्य मार्गेण पृष्ठेन धावितः सिंहो यत्र तम् । उत्पाटनसमये भ्रष्टस्य गजस्य सेतावप्यनुसंधानेन वानराणामानयने शैघ्र पर्वतस्य दैर्घ्यं वा सूचितम् । येन चिरकालेनापि न विश्राम इति भावः । एवं गिरिशिखरनिषण्णस्य तथैवानीतस्य । सेतावित्यर्थात् । गिरिणा सेतु लग्नपर्वतान्तरेण प्रेरितस्य यन्त्रितस्य अत एव पीडया मुखरस्य शब्दायमानस्य जलधरस्य निर्यत् क्षरत्सलिलं यत्र तम् । पूर्वनिपातानियमात् । मेघानां कोमलत्वेन जलक्षरणम्, धूमरूपत्वेऽपि बहिर्गमनाभावात् गिरीणां संनिवेशस्या तिनिfasत्वं सूचितम् । यद्वा गिरिप्रेरितत्वेन निर्यतो बहिर्गच्छतो मुखरजलधरस्य सलिलं यत्र । तथा च धूमरूपतया मेघा गच्छन्ति छिद्रगलितानि जलानि गुरुत्वात्तत्रैव पतन्तीत्याशयः । वस्तुतस्तु गिरिशिखरनिषण्णस्यानी तेनानेतुमारब्धेन गिरिणा प्रेरितस्य उत्क्षेपणादिप्रसङ्गेन शिखरेणैव विद्धस्य मुखरजलदस्य निर्यत्सलिलं यत्रेत्यनेनाप्युत्पाटनसमयोपजातजलगलनस्य सेतावप्यनुवर्तमानत्वेन कपीनामानयनशै बाहुल्येन मेघ महत्त्वात्पर्वतमहत्त्वं चेत्यहमुन्नयामि । एवम् उत्पाटनक्षीभात्पार्श्व पार्श्वयमानेन वा पतितेन वनगजेन रुद्धस्य महानिर्झरस्य द्विधा द्विप्रकारेण प्रधावितं सलिलं यत्र तम् । महानिर्झरस्याप्यव रोधकत्वेन गजस्य महत्त्वमुक्तम् । ( कुलकम् ) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३१६ चिररुद्धं जलमवरोधकप्रान्तद्वयेन' वेगेन गच्छतीति प्रधावितपदार्थः। एवं धरणीधराणामन्तरितमन्तर्गतं सस्थितं यच्चन्दनवनं तेन ज्ञायमानमनुमी यमानं मलयशिखरखण्डं यत्र । तस्यैव चन्दनाधिष्ठानत्वात्कस्यापि विविच्य ग्रहणं नेति घटनाय निःसंधित्वमुक्तम् । एवं समुद्रस्य वीचिभिः प्रतिकूलं यथा स्यात्तथाहतास्ताडिताः, अत एव स्तोकमीषदुद्वेल्लिता उद्वेष्टिता मूलादारभ्य शिखापर्यन्तं द्रुमेषु लम्बमाना यत्र तम् । यद्वा तादृशद्रम एव लम्बमाना विपर्यस्यावस्थिता लता तत्र तम् । एवं विषमाणां नतोन्नत स्थितानां शिखराणामन्तरेण मध्याव. काशेन संवेल्लित: स्तोकजलनिर्गमाच्चञ्चलीभूतः सागरो यत्र तम् ॥६६-७०॥ विमला-इस प्रकार वानरों ने सकल भूतल से उखाड़ कर लाये गये पर्वतों से अत्यन्त विस्तृत एवम् उच्च सेतु का निर्माण किया, जिसके प्रतिबिम्ब पड़ने से ही मानों सागर के भीतर के जल का अर्धभाग श्याम हो रहा था। जो शिलायें विषम होने के कारण सेतु में न लगीं, अतएव समुद्र में गिर गयीं, उनके प्रबल अभिघात से मछलियों के पुच्छ भाग कट गये और उन्हीं से सर्यों के शरीर मध्य में छिन्न हो गये, अतएव उन्होंने उन शिलाओं को दृढ़ता से आवेष्टित कर विदीर्ण कर दिया। वानरों ने शैलोन्मूलन के समय शीघ्रतावश जिन गजों को गृहीत कर लिया था वे ( वानरों के अन्यमनस्क होने पर अवसर पाकर ) भाग खड़े हुये और सिंहों ने उनका पीछा किया। उखाड़ कर लाये गये पर्वतों के साथ ही उनके शिखर पर स्थित मेघ भी आ गये थे। वे ( मेघ ) सेतु पर लगे अन्य पर्वतों से टकराने के कारण पीडा से शब्द करते हुये जल को बाहर निकाल रहे थे। पार्श्व भाग में पतित वनगजों से बड़े-बड़े निर्झर अवरुद्ध हो गये, अतएव उनका जल दो भागों में विभक्त होकर दोनों ओर से वेगपूर्वक बहने लगा। (सेतु पर लगे ) पर्वतों के भीतर जो चन्दनवन स्थित था उससे यह अनुमान होता था कि यह मलय पर्वत का शिखरखण्ड है। वृक्षों के मूल भाग से लेकर ऊर्ध्व भाग तक लिपटी लतायें समुद्र की लहरों से बुरी तरह प्रताडित हो किंचित् काँप रही थीं तथा ऊँचे-नीचे शिखरों के मध्यावकाश से थोड़ा जल निकलने के कारण समुद्र चञ्चल हो रहा था। इन पाँच स्कन्धकों की एक साथ अन्वय होने से 'कुलक' संज्ञा है ॥६६-७०।। अथ सुवेलदर्शनमाह वित्थरइ सेउवन्धो विहुबइ धराहराहओ सलिल णिही। दिसुवेलुच्छङ्ग रसइ दिसाइगपरिवं कइसे णम् ॥७॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२.] सेतुबन्धम् [अष्टम [विस्तीर्यते सेतुबन्धो विधूयते धराधराहतः सलिलनिधिः । दृष्टसुवेलोत्सङ्गं रसति दिक्कीर्णप्रतिरबं कपिसैन्यम् ।।] सेतुबन्धः स्वयमेव विस्तीर्यते विस्तारं गच्छति । धराधर राहतस्ताडितः सलिलनिधिः स्वयमेव विधूयते । द्वयमपि क्रियाशघ्रयसूचनाय कर्मकर्तरी। एवं कपिसैन्यं दिक्षु कीर्णो व्याप्तः प्रतिरवो यस्य यथा तथा स्यादेवं रसति शब्दायते । अत्र हेतुमाह-कीदृक् । दृष्ट: सुवेलस्य दक्षिणतीरस्थपर्वतस्योत्सङ्गः क्रोडो येन, संनिहितत्वात् । तथा च सेतोः सिद्धकल्पत्वात्सानन्दमिति भावः ॥७१।। विमला-सेतुबन्ध स्वयं विस्तृत होता जा रहा था तथा पर्वतों से आहत समुद्र स्वयं क्षुब्ध हो रहा था। ( समुद्र के दक्षिण तट पर स्थित ) सुवेल पर्वत का उत्सङ्ग ( क्रोड ) देखकर ( सेतु को सिद्ध प्राय समझ कर ) वानर दिशाओं में प्रतिध्वनि का प्रसार करते हुये (हर्ष से) शब्द कर रहे थे ॥७१॥ अथाष्टभिः स्कन्धकः समुद्रावस्थामाहदीसन्ति भिण्णसलिले समुदमज्झम्मि सेउबन्धक्कन्ता। संभमकड्ढणलुग्गा भअचुण्णपलाप्रसेलपक्खद्धन्ता ॥७२॥ [ दृश्यन्ते भिन्नसलिले समुद्रमध्ये सेतुबन्धताक्रान्ताः । संभ्रमकर्षणावरुग्णा भयचूर्णपलायितशैलपक्षार्धान्ताः ।।] भिन्नसलिले कपिनिक्षिप्तशैल द्विधाभूतजले समुद्रस्य मध्ये भयचूर्णस्य भयोद्विग्नस्य, अत एव पलायि तस्य पलायितुमारब्धस्य शैलस्य । आदिकर्मणि क्तः । पक्षकदेशा दृश्यन्ते । कीदृशाः । सेतुबन्धेनाकान्ताः । अतः संभ्रमेण चूर्णीभावत्रासेन यदाकर्षणं तेनावरुग्णाः खण्डिताः। तथा च सेतुयन्त्रणपरिहारायाकृष्यमाण: पक्षः खण्डित इति सेतोढत्वं व्यनक्ति। भअपुण्ण' इति पाठे भयपूर्णेत्यर्थः ॥७२॥ विमला-सेतुबन्ध से आक्रान्त, अतएव ( चूर-चूर होने के ) भय से उद्विग्न' समुद्रीय पर्वतों ने भागना आरम्भ किया, किन्तु ज्यों ही उड़ने के लिये अपने पंखों को आकृष्ट किया त्यों ही वे खण्डित हो गये और उनके अर्धभाग ( पर्वतनिक्षेप से) दो भागों में विभक्त समुद्र-जल के बीच दिखायी दिये ॥७२॥ अथ सेतौ विघटितस्थानसंघटनमाह महिहरपहरक्खोहिमसलिलपरिक्ख अविराअमूलमहिहरम् । थोअत्थोओसरिअं बन्धेन्ति पवंगमा पुणो वि णलवहम् ॥७३॥ [ महीधरप्रहारक्षोभितसलिलपरिक्षतविशीर्णमूलमहीधरम् । स्तोकस्तोकमपसृतं बध्नन्ति प्लवंगमाः पुनरपि नलपथम् ।।] प्लवंगमाः पुनरपि नलपथं बध्नन्ति । कीदृशम् । क्षेपणहेतुकेन महीधराणां प्रहारेण क्षोभितमान्दोलितं यत्सलितं तेन परिक्षतं खण्डितम्, अत एव विशीणं Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३२१ विघटितं मूलं येषां तथाविधा महीधरा यत्र तम् । निक्षिप्तपर्वताभिहतजलाघातखण्डितत्वेन' मूल विघटन मित्यर्थः । सलिलपरिक्षताः सन्तो विशीर्णा मूलमहीधरा यत्रेति वा । अत एव स्तोकस्तोकमपसृतं क्वचित्क्वचिद्विपर्यस्तम् । यथा च यत्र तत्र विघटते सेतुः, तत्र तत्र पर्वतान्तरं प्रक्षिप्य सुघट यन्तीति सेतोनिर्भरत्वं कपीनामुद्योगशीलत्वं च दर्शितम् ।।७३।। विमला-डाले गये पर्वतों से क्षुब्ध जल के अभिधात से ( पूर्वस्थापित) पर्वतों का मूलभाग विघटित हो जाता था, अतएव सेतु कहीं-कहीं विपर्यस्त हो जाता, वहाँ-वहाँ वानर अन्य पर्वतों को रखकर सेतु को पुनः सुघटित कर देते थे ॥७३॥ अथ सेतोः समाप्तकल्पतामाहजह जह अच्चासण्णो उअहिं जेऊण होइ सेउवहवरो। उच्छलह धराहिह दूरथोअत्तणेण तह तह सलिलम् ॥७४।। [ यथा यथात्यासन्न उदधि जित्वा भवति सेतुपथवरः । उच्छलति धराभिहतं दूरस्तोकत्वेन तथा तथा सलिलम् ॥] उदधि जित्वातिक्रम्य सेतुपथश्रेष्ठो यथा यथा अत्यासन्नोऽपरतटसंनिहितो भवति, तथा तथा पूरयितव्यभागवतिसलिलं धरैः प्रक्षिप्यमाणैरभिहतं सत्स्तोकत्वेन दूरमुच्छलति । अत्यर्थेन तिर्यगूर्ध्वमुत्तिष्ठतीत्यर्थः । यथा यथाल्पत्वं भवति तथानिदूरमुत्थान मित्याशयः ॥७४॥ विमला-ज्यों-ज्यों समुद्र का अतिक्रमण कर सेतु समुद्र के अपर तट के समीप पहँच रहा था त्यों-त्यों समुद्र का सलिल अत्यन्त अल्प होने के कारण पर्वतों के अभिघात से दूर तक उछलता था ॥७४॥ अथ सेतो समुद्र जलेन नदीप्रवृत्तिमाह महिहरपहरुच्छित्ता उम्ररि सेउस्स जे पडन्ति खलन्ता । ते चिअ सलिलप्पीडा होन्ति वलन्तविसमा महाणइसोत्ता ॥७॥ [ महीधरप्रहारोक्षिप्ता उपरि सेतोर्ये पतन्ति स्खलन्तः। त एव सलिलोत्पीडा भवन्ति वलद्विषमा महानदीस्रोतांसि ।।].. महीधरप्रहारेणोत्क्षिप्ता ऊवं गमिता य एव सलिलोत्पीडाः सेतोरुपरि पतन्ति त एव स्खलन्तो वृक्षादिना प्रतिहन्यमानाः सन्तो वलन्तो वक्रगतयो विषमा नतोबता अत एव महानदीनां स्रोतांसि भवन्ति । तेषामपि तदाकारत्वात् । एतेन सेतोर्जलस्य च महत्त्वमुक्तम् ॥७॥ २१ से० ब० Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम विमला - समुद्र का जो जल पर्वतप्रहार से ऊपर की ओर उछल कर सेतु पर गिरता वह वृक्षादि से प्रतिहत हो वक्रगति को प्राप्त होता हुआ कहीं ऊँचा, कहीं नीचा होकर महानदियों के स्रोत का रूप धारण कर लेता था || ७५ || अथ सेतोवशिष्टे भागे तिमिना संधानमाह देइ समत्तच्छाअं दरमिलिअ सुबेलमहिहरतडद्धन्तो । बीओ पहा विप्रतिमिपूरिप्रसाअरन्तरो सेउवहो ।। ७६ ।। [ ददाति समाप्तच्छायां दरमिलितसुवेलमहीधरतटार्धान्ताः । द्वितीयावकाशप्रधाविततिमिपूरितसागरान्तरः सेतुपथः ॥ ] सेतुपथः समाप्तस्य संपूर्णस्य छायां शोभां ददाति । समाप्त इव जात इत्यर्थः । कुत इत्यत आह-कीदृक् । द्वितीयावकाशात्प्रधावितेन तिमिना पूरितं सागररूपमन्तरं सुवेलेन सहान्तरालदेशो यस्य । सागरस्यान्तरमवशिष्टभागो यत्रेति वा । अत एव ईषन्मीलितसुवेलमहीधरस्य तटैकदेशो यत्र तथा । अयं भावः — एकपार्श्वदपरपार्श्व प्रति सेतुकृतगमनप्रतिबन्धशङ्कया सत्वरं गच्छता तिमिना पूरिते सति सेतुसुवेलान्तराल जलभागे सेतुः समाप्त इति सर्वे ज्ञातवन्त इति तिमीनां महत्त्वमुक्तम् ॥७६॥ विमला - ( पूरा सेतु बन जाने के बाद इधर से उधर जाने में बाधा पड़ेगी, इस शङ्का से ) एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व को वेग से जाते हुये तिमिनामक मत्स्यों ने सागर के अवशिष्ट भाग को पूर्ण कर दिया और सबने यह समझा कि सेतु और सुवेल पर्वत के मध्यवर्ती जलभाग पर भी सेतु बनकर पूर्ण हो गया ||७६ || अथ शैलानां दृढीकरणमाह जाहे सेउणिबद्धं धुणइ णलो विसमसंठिश्रमहा सेलम् । ता हे चिरेण समलो अलक्कन्तवसुहो निमत्तद्द उअही ॥७७॥ [ यदा सेतुनिबद्ध धुनोति नलो विषमसंस्थितमहाशैलम् । तदा चिरेण सकलः सकलाक्रान्तवसुधो निवर्तते उदधिः ॥ ] सेतो निबद्धं संहितमथ च विषमसंस्थितं समीभूय न लग्नं महाशैलं सुसज्जीकरणाय नलो यदा धुनोति इतस्ततश्चालयति, तदा सकलोऽप्युदधिः आक्रान्ता सलिलेन पूरिता सकला वसुधा येनेत्थंभूताः संश्विरेण निवर्तते स्वस्थानमागच्छति । अयमर्थः —दृढीकरणाय विशकलित पर्वतान्दोलने सेतो रान्दोलनम्, तेन च समुद्रस्यापीति सेतुकृता पथा तज्जलवृद्धिरासीत्, यथा तदुच्छलनेन सकलापि मही प्लाव्यत इति समुद्रान्दोलनक्षमान्दोलनशालितया चिरेण च तज्जलस्य निवृत्तिरिति सेतो महत्त्वम् तेन च नलस्य महाबलत्वमुक्तम् ॥७७॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३२३ विमला-सेतु में लगे हुये किन्तु विषम रूप से स्थित पर्वत को नल जब सम करने के लिये इधर-उधर चलाता तब समुद्र उछल कर सकल वसुधा को आक्रान्त कर लेता और चिरकाल में उसका जल लौटता था ॥७७॥ अथ सिन्धोः स्वल्पावशिष्टत्वमाह लहुइप्रपेसणहरिसिअक इणिवहगिसुद्धसेलपहरवल्लन्तो । णइसोत्तो व्व समदो से उसवेलन्तरे महत्तं वूढो ॥७॥ [लघुकृतप्रेषणहर्षितकपिनिवहनिपातितशैलप्रहारवलमानः । नदीस्रोत इव समुद्रः सेतुसुवेलान्तरे मुहूर्त व्यूढः ।।] लघुकृतमल्पावशिष्टं समाप्त कल्पत्वात् यत्प्रेषणमीश्वराज्ञा तेन हर्षितेन कपिनिवहेन निपातितस्य शैलस्य प्रहारेण वलमानो दोलायमानः समुद्रः सेतोः सुवेलस्य चान्तरे मध्ये नदीप्रवाह इव मुहूर्त व्यूढ उपचितः । स्वल्पतया शैलप्रहारोत्तम्भितजलत्वात्सेतोः सुवेलस्य चान्तरे नदीप्रवाहोऽय मिति संदेहविषयीभूत इत्यर्थः । मुहूर्तमिति तदेव पूरित इति भावः ।।७।। विमला-स्वामी की आज्ञा शीघ्र पूरी कर लेने से हर्षित कपियों के द्वारा डाले गये पर्वतों के प्रहार से दोलायमान समुद्र, सेतु और सुबेल गिरि के मध्य में कुछ समय तक नदी-प्रवाह-सा वृद्धि को प्राप्त हुआ ।।७८॥ अथ रावणक्षोभमाहजह जह णिम्माविज्जइ वाणरवसहेहि से उसंकमसिहरम् । तह तह दहम हहिअ फाडिज्जइ साअरस्स सलिलेण समम् ॥७६।। [ यथा यथा निर्मीयते वानरश्रेष्ठः सेतुसंक्रमशिखरम् । तथा तथा दशमुखहृदयं पाठ्यते सागरस्य सलिलेन समम् ।।] वानरश्रेष्ठः सेतुरूपसंक्रमस्य शिखरमग्रभागो यथा यथा निर्मीयते निष्पाद्यते तथा तथा दशमुखस्य हृदयं सागरस्य जलेन समं पाटयते द्विधा क्रियते । तैरेवेत्यर्थात् । समुद्र सेतुः केनापि कतुन पारित इति क्षोभादिति भावः । सागरजलमपि पाटयते रावणहृदयमपीति सहोक्तिरलंकारः । हृदयस्य समुद्रजलेनोपमानाद्धीरत्वं गम्भीरत्वं च सूचितम् ॥७९॥ विमला-वानर ज्यों ज्यों सेतुरूप संक्रम के अगले भाग का निर्माण करते जाते थे, त्यों-त्यों सागर के जल के साथ ही रावण के हृदय को भी दो भागों में विदीर्ण करते थे ॥७९॥ अथ सेतोः समाप्तिमाहपाआलमिलि प्रमूलो अव्वोच्छिण्णपसरन्तसरिआसोत्तो। ठाणम्रिो वि पडिमो मुहम्मि धरणिहरसंकमस्त सुवेलो।।८०॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] सेतुबन्धम् 1 [ पातालमिलितमूलोऽव्यवच्छिन्नप्रसरत्सरित्स्रोताः स्थान स्थितोऽपि पतितो मुखे धरणीधरसंक्रमस्य सुवेलः ॥ ] स्थानस्थितोऽपि वानरैरनानीतोऽपि सुवेलो धरणीधरपाटितसंक्रमस्य मुखे पतितः । मुखमग्रं तत्पुरको गिरिः सुवेल एव कृत इत्यर्थः । कीदृक् । पाताले मिलितं मूलं यस्येति दृढत्वमुक्तम् । तथा चोत्पाटने सति तादृग्दाढच न स्यादित्यावश्यक मुखदाढर्यायैव स्थापित इति पूर्वमनुत्पाटने बीजमिति भावः । पुनः कीदृक् । अव्यवच्छिन्नमखण्डितं सत् प्रसरत्सरित्स्रोतो यत्र तथेति सरसतया सेतुसंघटनसामग्री दर्शिता ||८०|| विमला - सेतु के मुख ( अग्र ) भाग का सुदृढ़ होना आवश्यक है, अत एव बानरों ने पातालगत मूल भाग वाले तथा अविच्छिन्न रूप से बहते हुये सरित् प्रवाह वाले सुवेल पर्वत को उसके स्थान पर ही स्थित रहने दिया और सेतु के मुख भाग की पूर्ति उसी से ही किया ॥८०॥ अथ सुग्रीवादीनां सेतुनिष्पत्तिज्ञानमाह मलउच्छङ्गगएण वि रहुवइपासट्ठिएण वाणरवइणा । कइकलअलेण णाओ णिव्यच्छिमसेलपूरिश्रो सेउवहो || ६१॥ [ मलयोत्सङ्गगतेनापि रघुपतिपार्श्वस्थितेन वानरपतिना । कपिलकलेन ज्ञातो निष्पश्चिमशैलपूरितः सेतुपथः ॥ ] मलयस्योत्सङ्गः क्रोडस्तद्गतेन तत्र स्थितेनापि रामनिकटवर्तिना वानरपतिना पश्चिमश्चरमस्तटाद्विनिर्मुक्तेन चरमेण । यद्वा । पश्चिमः शेषस्तद्रहितेन सर्वशेषेण शैलेन पूरितो निष्पादितः सेतुपथः कपीनां कलकलेन सेतुजन्यानन्द कोलाहलेन ज्ञातः । कथमन्यथा एवंविधं शब्दाडम्बरमाचरेयुरिति भावः । अत एव कपीनां चेष्टां कपिरेव जानातीति प्राधान्येन सुग्रीवस्य ज्ञानमुक्तं न तु रामस्य । मलय स्थितेनेति परोक्षेऽप्याज्ञानिर्वाह इति प्रभुशक्तिः । कोलाहलस्य च ता दूदूर व्यापकत्वेन कपीनामतिबलवत्त्वमुक्तम् । यद्वा तावद्दूरमपि तत्सन्निहितमेव परं तु कपिभिर्व्यवधानाच्चक्षुरगम्यत्वेन शब्दानुमेयत्वमिति सुग्रीवस्यैवाकारमहत्त्व मिति भावः ॥८१॥ [ अष्टम विमला -- मलयगिरि के क्रोड में राघत्र के समीप ( उत्तरीय छोर पर दूर स्थित होते हुये भी सुग्रीव ने कपियों के सेतुजन्य आनन्दमय कोलाहल से समझ लिया कि वानरों ने सब से बाद वाले पर्वत से सेतुपथ पूरा कर लिया ॥८१॥ अथ समुद्रस्य द्विधाभावमाह आरम्भन्ते समलो तिहाअविसमो दरुट्ठिअम्मि गलवहे । होइ दुहा अ समत्ते सो चित्र अण्णो पुणो पुणो वि समुद्दो ॥८२॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] __ रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३२५ [ आरभ्यमाणे सकलस्त्रिभागविषमो दरोत्थिते नलपथे । भवति द्विधा च समाप्ते स एवान्यः पुनः पुनरपि समुद्रः ।। स एव समुद्रः पुनः पुनरप्यन्य एव समुद्रो भवतीत्यध्याहारः । तदेवाहआरभ्यमाणे नलपथे सकल एव । अखण्डित एवेत्यर्थः । ईषदुत्थिते सति सेतो त्रिभागेन विषमोऽवशिष्टभागत्रयेण विसदशः प्रथमभागस्य सेतुच्छन्नत्वात् । यद्वा'त्रिधा च विषमः' किंचिद्वत्ते नलपथे त्रिधा त्रिप्रकारकः । त्रिखण्ड इत्यर्थः । खण्डद्वयं पार्श्वयोः, एकः पुरतः, अत एव विषमः समाप्ते सति द्विधा पार्श्वयोः खण्डद्वयरूपः । तथा च सेतोर्महत्त्वमुक्तम् ॥२॥ विमला-वही समुद्र पुनः-पुनः दूसरा ही समुद्र हो जाता था, क्योंकि जब सेतुपथ का आरम्भ किया गया उस समय वह अखण्डित ही था, सेतु का कुछ भाग (चौथाई) बन चुकने पर ( समुद्र का प्रथम भाग सेतु द्वारा आच्छन्न होने से) समुद्र तीन भागों (दो पार्श्व भाग तथा एक सामने का भाग ) से विषम (तीन खण्ड वाला) दिखाई पड़ा और सेतु समाप्त होने पर दोनों पावों के दो खण्डों से खण्डद्वयरूप दिखाई दे रहा था ।।२।। अथ सेतोः सुवेलावष्टब्धत्वमाहमल उच्छङ्गपउत्तो चलन्तवाणरभरोणो सेउवहो । गरुओ तिऊडगिरिणा पल्हत्थन्तो दुमो दुमेण व धरिओ ॥३॥ [ मलयोत्सङ्गप्रवृत्तश्चलद्वानरभरावनतः सेतुपथः । गुरुकस्त्रिकूटगिरिणा पर्यस्यमानो द्रुमो द्रुमेणेव धृतः॥] मलयोत्सङ्गात्प्रवृत्तः उपक्रान्तः, अत एव गुरुको महान्सेतुपथः पर्यस्यमानः समुद्रवीचिभिरितस्ततः प्रेर्यमाण स्त्रिकूटगिरिणा सुवेलेन धृतोऽवलम्बितः । न केवलं वीचिभिराकुलितः, किं तु चलतां वानराणां भरेणावनतोऽपि । तथा च मलयावष्टब्धोऽपि सुवेलावष्टम्भेन स्थिरोऽभूदिति भावः । क इव । द्रुम इव । यथा पर्यस्यमानः पतिष्णुई मो द्रुमेण पार्श्ववतिना ध्रियते । मलयादारभ्य सुवेलपर्यन्तं सेतुरभूदिति महावाक्यार्थः । 'पर्यस्तं पतिते हते' इति विश्वः ।।८३॥ विमला-मलय के उत्सङ्ग से उस महान सेतुपथ का प्रारम्भ हुआ था। (अतएव आदिम भाग में मलयगिरि उसे रोके हुए था) किन्तु ( सेतु की लम्बाई बहुत अधिक होने से ) वह समुद्र की लहरों से ) पर्यस्त एवं चलते हुए वानरों के भार से अवनत हो जाता था, उस समय सुबेल ( त्रिकूटगिरि ) के द्वारा रोके जाने से वह स्थिर रहा जैसे एक गिरने वाले वृक्ष को दूसरा (पार्श्ववर्ती ) वृक्ष गिरने से बचा लेता है ।।८३॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम अथ सेतोरुत्तुङ्गतामाहदोसइ सेउमहावहयोहाइअपुन्वपच्छिमविसाभाम् । ओव्वत्तोह पास मज्झक्वित्तविसमं णमन्तं व णहम् ॥८४॥ [ दृश्यते सेतुमहापथद्विधायितपूर्वपश्चिमदिग्भागम् । अपवृत्तोभयपाश्वं मध्योत्क्षिप्तविषमं नमदिव नभः ॥] सेतुरूपेण महापथेन द्विधायितौ द्विखण्डीकृतौ पूर्वपश्चिमरूपौ दिग्भागौ यत्र तथाभूतं नमो नमदिव दृश्यते । अत्रोत्प्रेक्षाबीजं रूपमाह-किंभूतम् । मध्ये उत्क्षिप्तमुत्थापितम्, अत एव विषमं विषमसदृशं सत्, अपवृत्तमवनतमुभयपावं यस्य तादृशम् । तथा च यथा गृहा दिकं मध्ये स्तम्भं दत्त्वोत्थाप्यते तदा पाश्वंद्वयेन नमति, तथा सेतोरपि दूरसमुन्नतत्वेन गगनमप्युत्तोल्यमान मिवावनतपूर्वपश्चिमपावं लक्षितमिति भावः । रावणमरणकारणत्वेन महापथपदोपन्यासः, सेतुपदसमभिन्याहारेणाविरुद्धार्थत्वाद्वा ।।४।। विमला-सेतुरूप महापथ से नभ पूर्व-पश्चिमरूप दो दिग्भागों में विभक्त झुका हुआ-सा दिखाई दे रहा था, जो मानों ( अत्यन्त उन्नत सेतु के द्वारा) मध्य में ऊपर उठा दिये जाने से समतल नहीं रह गया तथा उसके दोनों पूर्व. पश्चिम पार्श्व भाग अवनत हो गये थे ।।४।। भथ सेतोर्दै_माह मलप्रसुवेलालग्गो पडिटिठमो णहणिहम्मि सागरसलिले । उप्रअस्थमणणिराओ रविरहमग्गो व पाअडो सेउवहो ॥८५॥ [ मलयसुवेलालग्नः परिस्थितो नभोनिभे सागरसलिले। उदयास्तमननिरायतो रविरथमार्ग इव प्रकटः सेतुपथः ॥] सेतुपथः प्रकटः प्रव्यक्तो दृश्यते । क इव । उदय उदयाचलः, अस्तमनमस्ताचलः, तावदूरं निरायतो रविरथमार्ग इव । किंभूतः सेतुपथः। नभोनिमे सागरसलिले मलयसुवेलयोरालग्नः सन परिस्थितः । रविरथमार्गो नभसि तिष्ठतीति श्यामत्वाद्विस्तीर्णत्वाच्च नभस्तुल्यत्वं सागरजलस्य, महत्त्वेन च मलयसुवेलयोरुदयास्ताचलतुल्यत्वम् । अत एव दीर्घत्वेन सेतो रविरथमार्गेणोपमा ।।८।। विमला-नभसदृश सागर-सलिल में मलयगिरि से सुवेल गिरिपर्यन्त आलग्न स्थित सेतुपथ, उदयाचल से अस्ताचल तक विस्तृत सूर्य के रथमार्ग के समान व्यक्त हो रहा था ।।८।। सेतोरवस्थितिप्रकारमाहदोसइ पवणविहुम्वन्तसाअरोअरपरिटिअमहासिहरों। विअडपसारिप्रवक्खो उप्पवमाणो ज्व महोहरो से उवहो ॥८६॥ [ दृश्यते पवनविधूयमानसागरोदरपरिस्थितमहाशिखरः । विकटप्रसारितपक्ष उत्प्लवमान इव महीधरः सेतुपथः ॥] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३२७ सेतुपथो दृश्यते । किंभूतः । पवनेन विधूयमानानि कल्लोलाभिघातेन चाल्यमानानि सागरोदरे परिस्थितानि महान्ति शिखराणि यस्य तथा । क इव । उत्प्लवमान उड्डयमानो महीधर इव । महीधरः कीदृक् । विकटौ, विकटं यथा स्यात्तथेति वा, प्रसारितो पक्षी येन । पक्षिणः पक्षौ प्रसार्योड्डयन्ते इति स्वभावः । तथा च तुङ्गतया क्षुभितपार्श्वद्वयसलिलदोलायमानपक्षसमानाकारशिखरशालितया च सेतोरुत्प्लवमान गिरिसाम्यम् । गिरेरपि सपक्षत्वादिति केचित् । वस्तुतस्तु-उत्प्लवनं जलोपरिसंचारविशेषस्तमाचरन्महीधर इवेति व्याख्या । अत एव-शिखराणां प्रतिबि. म्बद्वारा सागरोदरपरिस्थितत्वपर्यन्तधावनम् । पक्षिणः पयसि पक्षी प्रसार्य संचायं च प्लवनं कुर्वत इति विकटप्रसारितेत्युक्तम् । पयसि पार्श्वयोर्वीचिद्वारा पवनचालितानां शिखरप्रतिबिम्बानां पक्षरुपमा ॥८६॥ विमला -- सेतुपथ के दोनों पार्श्वभाग के शिखरों का प्रतिबिम्ब सागरसलिल में पड़ रहा था, जो वायु द्वारा ( उत्पन्न लहरों से ) अत्यन्त चञ्चल था, अतएव सेतुपथ पंख फैलाकर जल के ऊपर संचरण करते हुए पर्वत के समान दिखाई देता था ।।८६॥ अथ सेतो सिद्धे रामरावणयोरवस्थामाह अरई थोरूसासा णिवाणासो विवण्णदा दौम्यल्लम् । से उम्मि रइज्जन्ते रामादो रावणम्मि संकन्ताई ॥७॥ [ अरतिः स्थूलोच्छ्वासा निद्रानाशो विवर्णता दौर्बल्यम् । सेतो रच्यमाने रामाद्रावणे संक्रान्तानि ॥] अरतिः सीतालाभप्रतिबन्धकसमुद्रसेतोरनुत्पत्त्या विषयान्तरेष्वप्रीतिः, ममापि प्रिया रक्षोगृहे तिष्ठतीति मनःखेदात्स्थूला उदगता: श्वासाः, सीता कथं वा तिष्ठति, किं वा चेष्टते, इत्यादितद्गतमनस्कत्वान्निद्रानाशः, परापहृतवधूकत्वेन लज्जया विवर्णता, किं स्यात्को वा उपायः कर्तव्य इत्यादिनन्तावशादौर्बल्यम्, एवंप्रकारेणतानि सर्वाणि सेतावनध्यवसायेन प्रथमं रामे स्थितानि । पश्चात्सेतो रच्यमाने सति समुद्रकृतप्रत्यूहेन रामागमनं न स्यादित्यध्यवसितत्वेन प्रागस्पृष्ट रावणे संक्रान्तानि सेतुसिद्धयानध्यवसितत्वात् । तथा हि-समुद्र सेतुः केनापि न दत्तपूर्व इति मनःक्षोभादरतिः, समुद्रसेतुविदितसामर्यो रामः कदाचिन्मामपि हन्यादिति शङ्कया स्थूलोच्छ्वासाः,किं स्यात्को वोपायः कर्तव्य इति विचारेण निद्रानाशः, लङ्कापरिखायमाणसमुद्रावस्कन्दो मया वारयितुं न पारित इति लज्जया विवर्णता, त्रैलोक्यविजित्वरस्य ममापि मानभङ्गः प्रसक्त इति चिन्तावशाद्दौर्बल्यमित्यर्थः । अत्र पूर्व रामादागन्तुमुत्सुकान्यप्येतानि समुद्र कृतप्रतिबन्धादनागतानि, सति सेतौ तद्रूपवर्मला Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] सेतुबन्धम् [अष्टम भात्तदानीं पुनरागतानीत्युत्प्रेक्षा व्यङ्गया। रचित इति वक्तव्ये रच्यमान इति वर्तमानार्थकशानच्प्रत्ययसंक्रान्तानीतिभूतार्थकक्तप्रत्ययाभ्यामागमनहेतुसेतुरचनस्य शीघ्रकारिता व्यज्यते । तदुक्तम्-'कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः' इति ॥ केचित्तु-सेतोरसिद्धी संदिग्धसीतालाभे रामे विप्रलम्भरूपकामावस्थानुभावत्वेन स्थितान्येतानि, सति सेतो सीतालाभेऽध्यवसायं तमपहाय प्रागध्यवसितसीतालाभत्वेनास्पृष्टेऽपि रावणे तदानीं सीतालाभानध्यवसायाद्विप्रलम्भरूपकामावस्थात्वेनैव संक्रान्तानीत्यर्थमाहुः । तदुक्तं कण्ठाभरणे-'चक्षुःप्रीतिर्मनःसङ्गः संकल्पोत्पत्तिसंततिः । प्रलापो जागरः कार्यमरतिविषयान्तरे ॥ लज्जाविसर्जनं व्याधिरुन्मादो मूर्छनं तथा। मरणं चेति विज्ञेयाः क्रमेण प्रेमपूष्टयः ॥' इति ।। संक्रान्तानीति । नपुंसकमनपुंसकेनैकवच्चास्यान्यतरस्याम्' इत्येक शेषान्नपुंसकं बहुवचनं च ।।७।। विमला-सेतु-रचना के पूर्व अरति (अन्य विषयों में अप्रीति), स्थूल उच्छास, निद्रा-नाश, विवर्णता एवं दौर्बल्यादि जो राम में अनुभाव रूप से स्थित थे, वे ही सेतुरचना हो चुकने पर राम से रावण में संक्रान्त हो गये ।।८।। सेतुं वर्णयति अह थोरतुङ्गविअडो उ णिहणं सबन्धवं दहवअणम् । दोहाइ असलिलणिही क अन्तहत्थो व्व पसरियो से उवहो ॥८॥ [ अथ स्थूलतुङ्गविकटो नेतुं निधनं सबान्धवं दशवदनम् । द्विधायितसलिलनिधिः कृतान्तहस्त इव प्रसृतः सेतुपथः ॥] अथ तथाविधरावणावस्थानन्तरं द्विधायितो द्विखण्डीभूतः सलिलनिधिर्यस्मादेवंभूतः सेतुपथः कृतान्तो यमस्तस्य हस्त इव बाहुरिव प्रसृतः । किमर्थम् । सबान्धवं दशवदनं निधनं नाशं नेतुम् । मारयितुमित्यर्थः । अन्योऽपि हस्तेनाकृष्य मार्यत इति भावः । किंभूतः । स्थूल: पुष्टस्तुङ्गश्च अत एव विकटो भयानकः । यमहस्तोऽप्येवमेवेत्याशयः ॥८॥ विमला-स्थूल ( पुष्ट ), तुङ्ग अतएव भयानक सेतुपथ, सबान्धव रावण को मारने के लिये समुद्र-सलिल को दो भागों में चीरकर फैला हुआ यमराज के हाथ-सा सुशोभित हो रहा था ॥८॥ उत्प्रेक्षान्तरमाहविसमेण पाइविसमं महिहरगरुएण समरसाहसगरुअम् । दूरत्येण वि भिण्णं सूलेण व से उणा दसाणणहिप्रअम् ॥८६॥ [विषमेण प्रकृतिविषमं महीधरगुरुकेण समरसाहसगुरुकम् । दूरस्थेनापि भिन्नं शूलेनेव सेतुना दशाननहृदयम् ॥] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३२६ दूरस्थेनाप्यलग्नेनापि सेतुना शूलेनेत्र दशाननस्य हृदयं भिन्नम् । यथा शूलेन भिद्यते तथैवेत्यर्थः । कीदृशेन । सेतुना, शूलेन वा । विषमेण काठिन्ययुक्तेन । एवं महीधरैर्गुरुकेण तद्घटितत्वात् । पक्षे महीधरवद् गुरुकेण स्थूलत्वात् । हृदयं कीदृक् । प्रकृत्या स्वभावेन विषमं दुर्भेद्यत्वात् । एवं समरसाहसे गुरुकम् अचाल्यत्वात् । तथा च विषमस्य विषमेण गुरुकस्य गुरुकेण भेदनं युज्यत इति भावः । असंबद्धस्यापि तापजनकत्वेन भेदकत्वमित्य पिर्विरोधाभास सूचकः ॥ ८६ ॥ विमला - यह सेतु मानों ऐसा अत्यन्त विषम ( कठोर ) महीधर गुरुक ( १ - पर्वतों से निर्मित होने के कारण गम्भीर, २ - पर्वतसदृश स्थूल होने के कारण गम्भीर ) शूल था जिसने विना लगे ही रावण के प्रकृत्या दुर्भेद्य समरसाहस में विचलित न होने वाले हृदय को विदीर्ण कर दिया ||८|| सेतो कटकद्रुमानाह वीसन्ति खुहिसार सलिलोल्लि अकुसुमणिवहलग्गमहुअरा । सेतुस्स पासमहिहर पडत्तोव्वतकिसलय कडअदुमा ॥ ६०॥ [ दृश्यन्ते क्षुभितसागरसलिलाद्रित कुसुमनिव लग्नमधुकराः । सेतोः पार्श्वमहीधरप्रकटयमानोद्वृत्त किसलयाः कटकद्रुमाः ॥ ] सेतोः कटकद्रुमा दृश्यन्ते । कीदृशाः । क्षुभितः सेतुप्रति रुद्धजलत्वेन कल्लोलरूपतया दोधूयमानो यः सागरस्तस्य सलिलेनार्द्रीकृते कुसुमनिवहे रजः पङ्कसङ्गित्वात्सजल पक्षत्वाच्च लग्ना मधुकरा येषु ते । अतएव पार्श्व महीधरेषु प्रकटीक्रियमाणानि सन्ति उद्वृत्तानि भ्रमरभराद्विपरीत्य स्थितानि किसलयानि येषामिति सेतोरुच्चत्वमुक्तम् ||६ विमला - सेतु के दोनों पार्श्व में निबद्ध पर्वतों के उपत्यकाभाग में स्थित तरुओं के कुसुम, क्षुभित सागरसलिल से आर्द्र कर दिये गये थे, अतएव सजलपक्ष होने के कारण भ्रमर उनमें संलग्न ही रहे और उनके भार से किसलय उलट गये थे |०|| सेती स्फटिक प्रदेशानाह थिमिओअ हिसच्छाया कत्थ वि दोसन्ति महिहरन्तर वडिआ । फलिहसिला अलघडिआ मज्झच्छिग व्व से उबन्धोमासा ॥१॥ [ स्तिमितोदधिसच्छायाः कुत्रापि दृश्यन्ते महीधरान्तरपतिताः । स्फटिकशिलातलघटिता मध्यच्छिन्ना इव सेतुबन्धावकाशाः ।। ] कुत्रापि स्फटिकशिलातलेन घटिताः सेतुबन्धावकाशास्तत्प्रदेशा मध्यच्छिन्नाः सेतुबन्धे स्फुटिता इव दृश्यन्ते । अत्र हेतुमाह — कीदृशाः । स्तिमितस्य निश्चलस्योदधेः सच्छायाः समानभासः स्वच्छत्वात् । अत एव ' जलधिजलमिदं स्फुटितसेतुमध्ये [न] प्रसरति' इति भावः । न च जलधिजलस्य श्यामत्वेन कथं स्फटि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] सेतुबन्धम् [ अष्टम कतौल्यमिति वाच्यम् । व्यवच्छिन्नस्य तस्यापि श्वैत्यादित्याशयः । तदुक्तम्'वियति विक्षिप्तानां कालिन्दीजलानाम् -' इत्यादि । पुनः किंभूताः । महीधराणामन्तरे मध्ये पतिताः । तथा च श्यामानां महीधराणामन्तः स्थितकतिपयस्फटिकभूभागस्य स्फुटितभ्रमजनकत्वमिति तात्पर्यम् । वस्तुतस्तु पूर्वनिपातानियमात्; अन्तरपतिता महीधरा यतोऽत एव श्यामतया स्तिमितोदधिसच्छायाः सामान्यत एव सेतुबन्धप्रदेशाः कुत्राप्येकदेशे स्फटिक शिलातलघटिताः सन्तो मध्यस्फुटिता इव दृश्यन्ते इत्यन्वयः । स्वभावतः श्यामले सेतो स्फटिकभुवि जलनिर्गमभ्रमात्स्फुटितत्वमुत्प्रेक्षितमिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥ ६१॥ विमला - सेतुबन्ध के प्रदेश, अन्तरपतित महीधरों से ( श्यामता के कारण ), निश्चल समुद्र की ( श्यामल ) शोभा को धारण कर रहे थे । जहाँ कहीं स्फटिकशिलाओं से निर्माण किया गया था वहाँ ( श्यामल सेतु के ) स्फटिक निर्मित प्रदेश में ( जलप्रवाह का भ्रम होने से ) मध्य में सेतु टूटा-सा दिखायी देता था ॥१॥ सेतुगिरीणां चिह्नमाह हिमपडनौत्थइआइ घडिआई वि णलवहम्मि णज्जन्ति फुडम् । सिहराइँ सिहरिवइणो मलग्रस्त प्र मलिअचन्दणसुअन्धाई ॥ ६२ ॥ [ हिमपतनाव स्थगितानि घटितान्यपि नलपथे ज्ञायन्ते स्फुटम् I शिखराणि शिखरिपतेर्मलयस्य च मृदितचन्दनसुगन्धानि ॥ ] शिखरिपतेहिमालयस्य च शिखराणि नलपथे घटितान्यपि सन्ति स्फुटं ज्ञायन्ते । अत्र हेतुमाह- कीदृशानि । हिमपतनेनावस्थगितानि छन्नानि । एवं मृदितेन चन्दनेन सुगन्धानि । तथा च पूर्वेण हिमालयीयत्वस्य, अपरेण मलयीयत्वस्य चानुमितिरिति नानापर्यंत संकीर्णत्वमुक्तम् || २ || विमला - सेतुपथ में घटित किये जाने पर भी हिमालय के शिखर हिमाच्छादित होने से तथा मलय पर्वत के शिखर मृदित चन्दन से सुगन्धित होने से स्पष्ट ज्ञात होते थे ॥ ६२॥ सेतोरुपरि लहरी संभारमाह जामा फुडवित्थारा गओणिअत्तन्तजल रअ विहुव्वन्ता । पक्कग्गाहसमग्गा से उम्मि वि सामरस्स वेलामग्गा ।। ६३ । [ जाताः स्फुटविस्तारा गतापनिवर्तमानजलरयत्रिधूयमानाः । सेतावपि सागरस्य वेलामार्गाः ॥ ] प्रग्राहसमग्राः सागरस्य वेला कल्लोलरूपं जलं तन्मार्गाः सेतावपि स्फुटो विस्तारो येषां तथा जाताः । सेतुप्लावका इत्यर्थः । कीदृशाः । गतस्यापनिवर्तमानस्य परावर्तमानस्य Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३३१ जलस्य रयेण धूयमानास्तदभिघातेन दोलायमानाः । ' जलअर -' इति पाठे तथाभूतजलचरेण करिमकरादिना धूयमाना इत्यर्थः । एवं प्रग्राहो जलसिंहस्तेन समग्रा: संपूर्णाः । कल्लोलेन सह तेषामपि तत्र गमनादिति भावः यद्वा वेला तटं तद्रूपा मार्गा इति । सेतुरपि समुद्रस्यैकं तटमभूदित्यर्थः ॥९३॥ विमला- आगे बढ़ते और पीछे लौटते जल के वेग से चंचल लहरें जलसिंहों के समेत सेतु के ऊपर पहुँचती थीं ॥ ६३ ॥ सेतो सिंहावस्थामाह सेलाइञ्छन पडिमा सलिलोल्लिअगरुअकेसर भरक्कन्ता । वीसन्ति दरुत्तिष्णा संकमपासल्लसंठिया केसरिणो ॥ ६४ ॥ [ शैलातिक्रमपतिताः सलिलाद्रितगुरु कके सरभराक्रान्ताः । दृश्यन्ते दरोत्तीर्णाः संक्रमपार्श्व संस्थिताः केसरिणः ॥ ] केसरिणो गिरिसिंहा दृश्यन्ते । किंभूताः । सेतुनियोजनकाले शैलस्यातिक्रमेणाकर्षणेन पतिताः । जले इत्यर्थात् । अथ सलिलेनाद्रितानामत एव गुरुकाणां केसराणां भरेण गौरवेणाक्रान्ताः सन्तो दरोत्तीर्णाः किंचिदुत्थिताः । अत एव संक्रमपार्श्वे संस्थिताः । आर्द्रकेसर गौरवेणोर्ध्वमारोढुमशक्तत्वात् । इत्यतोऽपि सेतोरुत्तुङ्गत्वमुक्तम् ||१४|| विमला - (सेतु में नियोजित किये जाते समय ) पर्वत के आकर्षण से गिरिसिंह जल में गिर गये, अत एव सलिल से आर्द्र केसर ( गर्दन के बाल ) के भार से आक्रान्त वे ( ऊपर चढ़ने में असमर्थ ) कुछ ऊपर आकर सेतु के पार्श्व भाग पर संस्थित दिखायी दे रहे थे ।। ६४ ।। अथ जलचरसंचार प्रतिरोधमाहपुव्वावरोअडिगआ वठ्ठे पुव्वावरोमहिसमुध्वण्णा । से उपडिसिद्धपसरा पुणो ण पेच्छन्ति कुलहराई जलभरा ||५| [ पूर्वापरोदधिगता द्रष्टुं पूर्वापरोदधिसमुत्पन्नाः । सेतुप्रतिषिद्धप्रसरा पुनर्न पश्यन्ति कुलगृहाणि जलचराः ॥ ] पूर्वश्वापरयोदधिः । उदधेर्भागद्वयमित्यर्थः । तदुत्पन्ना जलचरा जलसिंहादयः पुनरपि कुलगृहाणि स्वोत्पत्तिगृहाणि न पश्यन्ति । किंभूताः । पूर्वापरोदधिगता तदुत्पन्ना अपि द्रष्टुं तद्भागावित्यर्थात् । ये पूर्वभागोत्पन्नास्ते पश्चिमभागं गताः, पूर्वभागम् । अथ मध्यवर्तिना सेतुना प्रतिषिद्धः प्रसरो गतागतं येषां तथाभूताः । [ तथाभूता: ] सन्तः स्वस्वस्थानं परावृत्य नागच्छन्तीत्यर्थः । एतेन सेतोस्तलस्पर्श-ताभङ्गुरताच्छिद्रता तुङ्गता शीघ्रोत्पन्नता च सूचिता ॥ ६५ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] सेतुबन्धम् [अष्टम विमला-समुद्र के पूर्वभाग में उत्पन्न जो जलचर दर्शनार्थ पश्चिम भाग में चले गये थे और पश्चिम भाग में उत्पन्न जलचर पूर्व भाग में चले गये थे वे सेतु के कारण यातायात में रुकावट पड़ जाने से पुनः अपने कुलगृह (जन्मप्रदेश ) को देख नहीं सके-अपने-अपने स्थान को लौटकर नहीं आये ॥ १५ ॥ सेतोर्मलयसुवेलौ मङ्गलध्वजावित्याहदीसन्ति धाउअम्बा मारुअविहुअघवलोमारपडद्धन्ता । से उस्स तुङ्गसिहरा उहअतलपरिदिआ धअब महिहरा ॥१६॥ [ दृश्येते धातुताम्रौ मारुतविधुतधवलनिर्झरपटान्तिौ । सेतोस्तुङ्गशिखरावुभयतटपरिस्थितौ ध्वजाविव महीधरौ ॥] सेतोः उभयतटमुत्तरदक्षिणरूपं तत्र स्थितौ महीधरी मलयसुवेलौ ध्वजाविव ध्वजस्तम्भाविव दृश्येते । अन्यत्रापि सेतोरुभयप्रान्तयोर्ध्वजो दीयत इति समाचारः । ध्वजतौल्यमाह-कीदृशौ । तुङ्गं शिखरं ययोस्तौ । एवं धातुभिर्गरिकस्ताम्रौ । एवं मारुतेन विधुताश्चालिता धवला निर्झरा एव पटान्तिा यत्र तौ। ध्वजोऽप्युच्चः कुङ्कुमालक्तकादिना ताम्रः पताकावांश्च भवतीत्याशयः । द्विवचने बहुवचनम् । नित्यत्वात् । नानापर्वता एव नानाध्वजरूपा इति सर्वत्रैव बहुत्वमिति वा ॥१६॥ विमला-सेतु के उत्तर और दक्षिण तटों पर उन्नत शिखर वाले, धातु (गरु) से ताम्रवर्ण तथा वायु से चञ्चल धवल निर्झररूप पताका वाले, मलय और सुवेल गिरि ध्वजस्तम्भ के समान स्थित थे ।।६।। अथ सैन्यप्रयाणमाहअह गिम्मि पसेउवहं सेउवहम्भहि अथलपइण्णम हिहरम् । चलि चलन्तराहवहिअणि हिप्पन्तरणसुहं कइसेणम् ॥१७॥ [ अथ निर्मितसेतुपथं सेतुपथाभ्यधिकस्यलप्रकीर्णमहीधरम् । चलितं चलद्राघवहृदयनिधीयमानरणसुखं कपिसैन्यम् ॥] __ अथ सेतुसिद्धरनन्तरं क पिसैन्यं चलितम् । लङ्कामवरोद्धमित्यर्थात् । कीदृशम् । निर्मितः सेतुपथो येन तत् । एवं सेतुपथादभ्यधिका उद्वत्ता:। अत एव स्थले समुद्राबहिः प्रकीस्त्यिक्ता महीधरा येन । यथा च ये ये यत्र यत्र शैलानाहरन्तः स्थितास्तेऽपि तत्र तत्र तांस्तान्क्षिप्त्वा चलिता इत्यर्थः । एवं चलतो राघवस्य हृदये निहितमर्पितं रणसुखं येन । इति सेतुसिद्धिसमकालमेवाज्ञानपेक्षसंचारादुत्साहाधिक्यज्ञापनादिति चलतो रामस्य भाविन्यपि रणे तदानीं सुखोदयेन यात्राय मनोविशुद्धिरुक्ता । चलता राघवेण निहितं रणसुखं येषामिति केचित् ॥१७॥ विमला-वानरों ने सेतुपथ का निर्माण कर लिया और जो पर्वत सेतुपथ से अधिक हो गये उन्हें ( अनावश्यक समझ ) स्थल पर ही छोड़ दिया एवम् ( आज्ञा Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३३३ की प्रतीक्षा न कर ) तुरन्त ( लंका को घेरने के लिये ) वे चल पड़े । ( अपने इस उत्साहाधिक्य से ) उन्होंने चलते हुये राघव के हृदय को रण का सुख ( युद्ध से पूर्व ही ) प्रदान कर दिया ।।१७।। अथ कपीनां समुद्रदर्शनमाहपेच्छन्ति अ वोलन्ता संकमदोहाइअक्खविप्रवित्थारम् । वलआमुहणिविएक्कपासवोच्छिण्णपाणि मअरहरम् ।।१८॥ [प्रेक्षन्ते च व्यतिक्रामन्तः संक्रमद्विधायितक्षपितविस्तारम् । वडवामुखनिष्ठापितैकपार्श्वव्यवच्छिन्नपानीयं मकरगृहम् ।।] वानरा व्यतिक्रामन्तः सन्तो मकरगृहं प्रेक्षन्ते च । किंभूतम् । संक्रमेण सेतुना द्विधाकृतः । अत एव क्षपितोऽल्पीकृतो विस्तारो यस्य तम् । यद्दिशि दृश्यते तत्रैव क्षुद्रत्वप्रतिसंधानम्, अपरभागादर्शनादिति सेतुविस्तार उक्तः । एवं बडवामुखेन निष्ठापितं नाशितम्, अत एवैकपाचे व्यवच्छिन्नमल्पीकृतं पानीयं यत्र । यशि वडवानलः पतितस्तत्र शोषणादिति सेतोरामूलत्वमुक्तम् ॥१८॥ विमला-वानरों ने सेतु द्वारा लाँघते समय समुद्र को देखा, सेतु से दो भागों में जिसका विभाजन होने से विस्तार कम हो गया था तथा उसमें जिधर बडवानल पड़ गया था उधर का जल बडवानल से नष्ट हो जाने से अल्प हो गया था ॥१८॥ यात्रायां सिन्धोरानुकूल्यं युग्मकेनाह सङ्खउलधवलकमले फुडमरगअहरिअवत्तभङ्गणिहाए। विद्दुममिलिअकिसलए उहअतडाबद्धसंकमम्मि णलवहे ||६|| संचरह वाणरबलं णमइ विसन्तमाहिहरो सेउवहो। ओमाहिअपाआलं सव्वत्थामगुरुअं धारेइ समद्दो॥१.०॥ (जुग्गअम् ) [ शवकुलधवलकमले स्फुटमरकतहरितपत्त्रभङ्गनिघाते । विद्रुममिलितकिसलये उभयतटाबद्धसंक्रमे नलपथे । संचरति वानरबलं नमति विशीर्यमाणमहीधरः सेतुपथः । अवगाहितपातालं सर्वस्थामगुरुकं धारयति समुद्रः ॥] (युग्मकम्) उभयं तटं व्याप्याबद्धसंक्रमस्वरूपे नलपथे वानरबलं संचरति । उत्तरस्कन्धकेन संबन्धः । कीदृशे । शङ्खकुलवद्धवलानि कमलानि यत्र । द्वयोरपि सत्त्वात् । एवं स्फुटमरकतवत् हरितपत्रभङ्गानाम् । वृक्षसंबन्धिनामित्यर्थात् । निघातो यत्र । एवं विद्रुमेषु मिलितानि किसलयानि यत्र तादृशि । समानरूपत्वात् । तथा च समुद्रीय: वस्तुभिः समं सेतुवस्तूनामतिमिश्रणेन समुद्रेण सह सेतोरैकात्म्यमुक्तम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] सेतुबन्धम् [अष्टम एवं सति विशीर्यमाणा कपिचरणसंक्रमेण क्वचित्रुटयन्तो महीधरा यत्र तादक सेतुपथो नमति, उपरिभारबाहुल्यात् । अथावगाहितमाक्रान्तं पातालं येन, आमूलत्वात्कपियन्त्रणाद्वा तथाविधम् । अर्थात् सेतुपथं समुद्रो धारयति रक्षति । सर्वस्थाम्ना सर्वबलेन गुरुकमतिशयितमिति क्रियाया विशेषणम् । गौरवयुक्तमिति सेतुपथस्य वा ।।६६-१००।। विमला-उत्तर तट से लेकर दक्षिण तट तक नल द्वारा रचित सेतु पर वानरों की सेना चल रही थी जो (सेतु) शङ्खकुल के समान धवल कमलों, चमकीले मरकत के समान वृक्षसम्बन्धी हरित पत्रों तथा विद्रुम के समान किसलयों से समुद्र के साथ एकात्म भाव को प्राप्त हो रहा था ॥९६-१००। सेतुसमुद्रयोरवस्थामाह संचालेइ णिअम्बं धारेइ उअरि तरङ्गकरपब्भारम् । खम्मम्मि वणगो विअ आबद्धो सेतुसंकमम्मि समुद्दो ।।१०१॥ [ संचालयति नितम्बं धारयत्युपरि तरङ्गकरप्राग्भारम् । स्तम्भे वनगज इवाबद्धः सेतुसंक्रमे समुद्रः ॥] सेतुसंक्रमे आबद्धः संबद्धः समुद्रो नितम्बं सेतोरेव मूलभाग संचालयति । कल्लोलाद्यभिघातेनान्दोलयतीत्यर्थः । एवम् उपरि सेतोरेव तरङ्गरूपस्य करस्य शुण्डायाः प्राग्भारमेकदेशं धारयति । तत्रापि कल्लोलसंचारात् । क इव । वनगज इव । यथा स्तम्भे आबद्धो वनगजो नितम्बं स्तम्भस्यैव चालयति उत्पाटनायेत्यर्थात् । एवं तदुपरि भञ्जनाय करं धारयति । यद्वा-समुद्रः स्वस्यैव नितम्ब मूलं चालयति तरङ्गं करमुपरि धारयति सेतुना जलावरोधेन मूलक्षोभात्तरङ्गोत्थानाच्च । बद्धो वनगजोऽपि निर्गन्तुमस्थिरतया नितम्बं चालयति शुण्डामुत्थापयतीति गजसमुद्रयोः करतरङ्गयोः स्तम्भसंक्रामयोस्तौल्यमिति सेतोरतिदाढय मुक्तम् ।। १०१ ॥ विमला-यथा स्तम्भ में आबद्ध गज (छुटकारा पाने के लिये) अपने नितम्ब भाग को संचालित करता है तथा सूड के अग्रभाग को ऊपर उठाता है तथैव सेतुसम्बद्ध समुद्र [ नितम्ब ] मूलभाग को संचालित करते हुये तरङ्गरूप कर ( सूड ) को ऊपर कर रहा था ॥१०१॥ अथ पारगमनमाहउत्तिष्णा अ पवङ्गा सेलभरुग्वहणजणि असे अतुसारा । धाउमइले करअले पासट ठिअमहिहरोज्झरेसु धुवन्ता ॥१०२॥ [ उत्तीर्णाश्च प्लवङ्गाः शैलभरोद्वहनजनितस्वेदतुषाराः । धातुमलिनानि करतलानि पार्श्वस्थितमहीधरझरेषु धावयन्तः ॥] प्लवङ्गा उत्तीर्णाश्च सागरमित्यर्थात् । किंभूताः । शैलानां भरः समूहस्तदुद्वहनेन जनिताः स्वेदानां तुषाराः शीकरा येषां ते। एतेन यावत्स्वेदो न शान्तस्तावदेव Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३३५ वारं गता इति गमने सत्वरता, उत्साहश्च सूचितः । एवं पर्वतोत्तोलन लग्नैर्धातुभिमेलिनानि करतलानि सेतोः पार्श्वस्थितमहीधराणां निर्झरेषु धावयन्तः क्षालयन्त इति वर्तमानशत्रा क्षालनस्य पूर्वकालत्वमपि नापेक्षितवन्त इति क्षिप्रकारित्वमुक्तम् । 'शीकरे शीतले चूर्णे तुषारो निर्झरे हिमे' इति विश्वः ।। १०२ ।। विमला - शैलसमूह के उद्वहन से जनित स्वेद-शीकरों से युक्त वानर ! पर्वतों को उठाते समय ) धातुओं के लगने से मलिन करतलों को सेतु के दोनों पार्श्वभागों में स्थित पर्वतों के निर्झरों में धोते हुये समुद्र को पार कर गये ॥ १०२ ॥ अथ सुवेलप्राप्तिमाह पत्ता अदहमुहाणि अणन्दणवगपा अवोइ प्रवणु देसम् । जलभरणि सण्णजलहरभरमोडिअवणलअं सुवेलुच्छङ्गम् ॥१०३॥ [ प्राप्ताश्च दशमुखानीतनन्दनवन पादपोचितवनोद्देशम् । जलभरनिषण्णजलधरभर मोटितवनलतं सुवेलोत्सङ्गम् ॥ ] न केवलं सागरमुत्तीर्णाः, अपि तु सुवेलस्योत्सङ्गं प्राताश्च । कीदृशम् । दशमुखेनानीतानां नन्दनवनपादपानां पारिजातादीनामुचितो योग्यो वनोद्देशस्तत्प्रदेशो यत्र । रावणेन पारिजातादीनामत्रैवानीय रोपितत्वादित्यर्थः । एवं जलस्य भरेणाधिक्येन निषण्णानां संचारक्षमतयोपविष्टानां जलधराणां भरेण गौरवेण मोटिता तेन वनलता यत्र तम् । जलं निपीय जलधरा यत्र सुखेनोपविशन्तीति निर्जनत्वम्, च पर प्रवेशाभाव:, तेन च रावणैश्वर्यम् । तथापि तत्प्राप्त्या कपीनामभयत्व - मुक्तम् ॥१०३॥ विमला- -वानर केवल समुद्र को ही नहीं पार कर गये, अपितु सुवेल के क्रोड तक पहुँच गये, जहाँ रावण ने नन्दन वन के पादपों ( पारिजातादि ) को लाकर लगवाया था तथा जहाँ जलाधिक्य से ( डोलने में असमर्थ होने के कारण ) उपविष्ट मेघों के भार से वनलतायें कुचल उठी थीं ।। १०३ || अथ रावणे राक्षसानामनादरमाह सोऊण समुत्तिणं उअहिमविवि अविक्कम कइसेण्णम् । जाओ रक्खसलोओ रखखसणाहस्स पेलवाणत्तिअरो ॥ १०४॥ [ श्रुत्वा समुत्तीर्ण मुदधिमविद्रावितविक्रमं कपिसैन्यम् । जातो राक्षसलोको राक्षसनाथस्य पेलवाज्ञप्तिकरः ॥ ] उदधि समुत्तीर्णं कपिसैन्यं अविद्रावितः प्रत्यूहाभावेन रावणेनाप्यखण्डितो विक्रमः सुवेलातिक्रमरूपो यस्य तथाभूतं श्रुत्वा राक्षसलोको राक्षसनाथस्य रावणस्य पेलवा कोमलत्वेन भगुरा या आज्ञप्तिराज्ञा तत्करो जात इति योजना । रावणस्याज्ञा पूर्वमभङ्गुरासीत्, तदानीं कपीनां समुद्रसुवेलातिक्रमाभ्यां भगुराभूदिति प्रतापभङ्ग उक्तः ॥ १०४ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] सेतुबन्धम् [ अष्टम विमला - वानरसेना ने समुद्र को पार कर लिया तथा ( सुवेल का अतिक्रमण करते समय रावण के द्वारा भी ) उसका विक्रम खण्डित नहीं हुआ, - ऐसा सुनकर राक्षस लोग रावण की कोमल अतएव भंगुर आज्ञा के पालक हुये - रावण की जो आज्ञा पहिले अभंगुर थी, अब वानरों के द्वारा समुद्र और सुवेल का अतिक्रमण होने से भंगुर हो गयी ||१०४ || अथ रावणस्य कृतान्तवशतामाह जाव अ महोअहिअडे श्रावासग्गहणवावडं कइसेण्णम् । ताव कअन्तेन को रावणसीसम्म वामहत्थकंसो ||१०५ ॥ [ यावच्च महोदधितटे आवासग्रहणव्यापृतं कपिसैन्यम् । तावत्कृतान्तेन कृतो रावणशीर्षे वामहस्तस्पर्शः ॥ ] कपिसैन्यं यावन्महोदधेस्तटे कूले आवासग्रहणे उत्तारस्थानात्मीकरणे व्यापृतम्, तावदेव कृतान्तेन यमेन रावणशीर्षे वामहस्तेन स्पर्शः कृतः । तथा च यत्र दक्षिणेनापि करेण स्पर्शो न संभावितः, तत्र वामेन कृत इति रावणस्य हठादेव मृत्युर्व्यञ्जितः || १०५ ॥ विमला - ज्यों ही वानरों की सेना समुद्र तट पर आवास ग्रहण करने में आसक्त हुई त्यों ही यम ने बायें हाथ से रावण का सिर स्पर्श किया ||१०५ ॥ अथ रामरावणयोः प्रतापमाह रामस्स रावणस्स अ लोआलो अन्तरालसरिसामण्णे । वड्ढन्तणिश्व अन्ते पाआरन्तर वहाइअम्मि आवे ॥१०६॥ जाणा लच्छी समं सोहा महिअस्स सागरस्स पसण्णा । तिअसजणि आणुराए उत्तिष्णम्मि मअलञ्छणम्मि व रामे ॥ १०७ ॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दमुहवहे महाकव्वे अट्ठमो आसासओ । [ रामस्य रावणस्य च लोकालोकान्तरालनिस्सामान्ये | वर्धमान निवर्तमाने प्राकारान्तरद्विधायिते प्रतापे || जाता लक्ष्म्या समं शोभा मथितस्य सागरस्य प्रसन्ना । त्रिदशजनितानुरागे उत्तीर्णे मृगलाञ्छन इव रामे ॥ ] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्येऽष्टम आश्वासः । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३३७ रामे उत्तीर्णे सति । समुद्रमित्यर्थात् रामस्य रावणस्य च प्रतापे इत्थंभूते च सति मथितस्य पर्वतक्षेपादिना क्षोभितस्य सागरस्य लक्ष्म्या संपत्त्या समं प्रसन्नोज्ज्वला शोभा कान्तिर्जातेति द्वितीयस्कन्धकेन सह संदानितकम् । वानराणामुत्तीर्ण - त्वादवस्कन्दाभावाद्रत्नादिसौष्ठवमपि जातम् । प्रसन्नतापि जातेत्यर्थः । सहोक्तिरलंकारः । प्रतापे कथंभूते । लोकालोकस्य गिरेरन्तराले मध्ये निस्सामान्येऽसाधारणे । अतुल्ये इति यावत् । एवं सत्यपि प्राकारो लङ्कावरणरूपस्तद्रूपेणान्तरेण व्यवधानेन द्विधाकृते प्रतापयोर्जगति तुल्यरूपत्वेऽपि तदानीं रामस्य प्रतापः प्राकाराद्बहिः सर्वव्यापी बभूव रावणस्य तु प्राकाराभ्यन्तर एव स्थित इत्यर्थः । न केवलमेतादेव, अपि तु वर्धमाननिवर्तमाने रामस्य वर्धमाने, रावणस्य तु निवर्तमाने, इति यथासंख्यमन्वय: । लोक्यतेऽनेनेति लोकस्तेजः, अलोकस्तिमिरं तयोरन्तरालं मध्यं तन्निविशेषे । तेजोन्तरालतुल्यो रामस्य प्रतापः, प्रकाशकत्वात्, तिमिरान्तरालतुल्यस्तु रावणस्य म्लानत्वादित्यर्थः । आत्यन्तिकताद्रूप्यलाभार्थमन्तरालपर्यन्तधावनम् । अत एवोत्तरविशेषणद्वयमपि सम्यक् । तेजसि वर्धमाने तिमिरं क्षीयते इति प्राकारा बहिर्विषये भूयसि विद्यमानो रामप्रतापो यथा यथा वर्धते तथा तथाल्पीयसि प्राकाराभ्यन्तरे वर्तमानो रावणप्रतापः क्षीयते इति वयम् । रामेकस्मिन्निव मृगलाञ्छने चन्द्र इव आह्लादकत्वात् । एवं त्रिदशानां जनितोऽनुरागः प्रेम येन तथाभूत इति राममृगाङ्कयोर्विशेषणम् । अथ च मन्दरेण मथितस्य सागरस्य चन्द्रे उत्तीर्ण उत्क्षिप्ते सति लक्ष्म्या विष्णुपत्न्या समं शोभयतीति शोभारूपा प्रसन्ना मदिरा । अथवा शोभानाम्नी काचिदप्सरःश्रेष्ठा । वारुणीव जातेति ध्वनिः ॥। १०६-१०७।। सेतु निष्पत्तिदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णां भूदष्टमी शिखा || विमला - राम का प्रताप ( प्रकाशक होने से ) तेजतुल्य तथा रावण का प्रताप ( म्लान होने से ) तिमिरतुल्य हो रहा था । राम का प्रताप (लकारूप ) प्राकार के बाहर विद्यमान ज्यों-ज्यों बढ़ रहा था, त्यों-त्यों प्राकार के भीतर विद्यमान रावण का प्रताप विनष्ट हो रहा था । समान देवों के प्रेमोत्पादक श्रीराम के उत्तीर्ण ( १ - पारंगत, ( १ - पर्वतों से, २- मन्दराचल से ) मथित सागर की लक्ष्मी ( १ - सम्पत्ति, २ - विष्णु - पत्नी ) के साथ प्रसन्ना ( १ - उज्ज्वल, २ - मदिरा ) शोभा ( १ - कान्ति, २ - शोभारूप ) हुई ।।१०६-१०७॥ ॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखबध महाकाव्य में अष्टम आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई । २२ से० ब० -***** उस समय चन्द्रमा के २ - उक्षिप्त ) होने पर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम आश्वासः अथाश्वासकेनैव सुवेलं वर्णयति अह पेच्छन्ति पवङ्गा सअलज प्रक्कमणवढिअमहासिहरम् । णिट्ठविवाहिणदिसं सेसदिसामुहवहाविमं व सुवेलम् ॥ १॥ [अथ प्रेक्षन्ते प्लवङ्गाः सकलजगदाक्रमणवर्धितमहाशिखरम् । निष्ठापितदक्षिणदिशं शेषदिङ्मुखप्रधावितमिव सुवेलम् ॥ ] अथ सुवेलप्राप्त्यनन्तरं प्लवङ्गाः सुवेलं प्रेक्षन्ते । कोटिकोटिशः पर्वता उत्पाटिताः, ईदृशः कोऽपि न दृष्ट इति विस्मयादिति भावः । किंभूतम् । सकलजगतामाक्रमणं येभ्यस्तथाभूतानि वधितानि महान्ति शिखराणि यस्य, त्रिकूटत्वादिति केचित् । सकलजगदाक्रमणाय वर्धितानि महान्ति शिखराणि यस्येत्यपरे । वस्तुतस्तु-आक्रमण इति कर्तरि ल्युट । तथा च सकलजगदाक्रमणकर्ता मूलेन पातालस्य, मध्येन' मर्त्यस्य, मस्तकेन स्वर्गस्याक्रमणात् । तथाभूतश्चासौ वर्धितमहाशिखर श्चेति कर्मधारयः । कश्चित्तु 'सअलजअक्कमण' इत्यादिप्रकृतौ 'सकलस्य जयाय यत्क्रमणमतिक्रमस्तेन वधितानीत्यादि पूर्ववत्' इत्याह । एवं निष्ठापिता नाशिता दक्षिणदिग्येन तिरोधायकत्वात् । एवं शेषा याः पूर्वाद्या दिशस्तन्मुखेन तत्संमुखीभूय प्रधावितं तत्तदिग्व्यापकनानाशिखरद्वाराकृतवेगमिवेत्युत्प्रेक्षाव्यञ्जनयारोहपरिणाहाभ्यां विस्तार उक्तः ॥१॥ विमला-सुवेल पर पहुँच कर वानरों ने उस गिरि को देखा कि उसके महान् शिखर सकल लोकों को ( मूल भाग से पाताल को, मध्यभाग से मर्त्यलोक को और शिरोभाग से आकाश को) आक्रान्त किये हुए हैं एवं दक्षिण दिशा को तिरोहित कर शेष पूर्वादि दिशाओं की ओर (उन्हें तिरोहित करने के लिये) मानों वेग से बढ़ रहे हैं ॥ १ ॥ पुनः सुवेलस्य महत्त्वमाह-- भुअणस्स व महमहणं भुवणभरज्झोण महुमहस्स व सेसम् । सेसस्स व सलिलहिं सरिआवइणो विसम्मिबव्वभरसहम् ।।२।। [ भुवनस्येव मधुमथनं भुवनभरक्षीणमधुमथनस्येव शेषम् । शेषस्येव सलिलनिधिं सरित्पतेर्विश्रमितव्यभरसहम् ॥] किंभूतं सुवेलम् । सरित्पतेः समुद्रस्य विश्रमितव्यं विश्रामः । भावे तव्यः । तत्र भरसहं भारक्षमम् । समुद्रस्याप्यवलम्बन मित्यर्थः । कस्य कमिव । भुवनस्य Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३३६ मधुमथन मिव । 'विश्रमितव्यभरसहम्' इति सर्वत्र योज्यम् । तथा च त्रैलोक्यस्य विश्रामभरसहो विश्वंभरः, तस्य तदुदरवृत्तित्वात् । एवं भुवनस्य भरेण धारणगौरवेण क्षीणस्य विह्वलस्य मधुमथनस्य शेषमिव । यथा तथाभूत विश्वम्भरस्य शेषनागस्तस्य तदङ्कशायित्वात् । एवं शेषस्य सलिलनिधिमिव । यथा शेषस्य समुद्रः, तस्य तदभ्यन्तरवर्तित्वात् । तथा सरित्पतेरयमपौ ति विश्रामयोग्यता परिमाणप्रकर्षेण भवति । तथा चोत्तरोत्तरमुत्कर्षालंकारेण भुवनापेक्षया विष्णोः, तदपेक्षया शेषस्य, तदपेक्षया सिन्धोः, तदपेक्षया सुवेलस्य परिणामप्रकर्ष इति भुवन विष्णुशेषव्यापकसमुद्राश्रयत्वेन सर्वाश्रयत्वमुक्त सुवेलस्य । एवं च सर्वत्र सुवेलक्रोडवतित्वमेव समुद्रस्येति कटाक्षितम् । भरसहत्वेन च कल्लोलाद्यभिघातानुपप्लुतत्वेन सुवेनस्य दाढर्यमपीति मालोपमालंकारः । 'सहः शक्त' क्षमायुक्ते तुल्यार्थे च सहाव्ययम्' इति कोषः ।। २॥ विमला-यथा भुवन के विश्रामस्थल मधुमथन ( विष्णु ) हैं, भुवनभार से विह्वल मधुमथन का विश्रामस्थल शेषनाग है और शेषनाग का विश्रामस्थल समुद्र है तथैव समुद्र का विश्रामस्थल यह सुवेल गिरि है ।। २ ॥ भूजलाकाशवायुनामाधारतामाह घरणिहरे अव्वसहं उअहिभरेअन्वपबलणइप्पयहम् । णहमाचवसमत्थं सममारमरम्भिअव्वजोग्गणिमम्बम् ॥ ३ ॥ [ धरणीधर्तव्यसहमुदधिभर्तव्यप्रबलनदीप्रवाहम् । नभोमातव्यसमर्थ क्षयमारुतरोद्धव्ययोग्यनितम्बम् ॥] एवं धरण्या धर्तव्ये धारणे सहं शक्तम् । अवष्टम्भभूतत्वात् । एतेन भूम्युत्सेधव्यापकमूलकत्वमुक्तम् । सर्वत्र भावे तव्यः । एवम्-उदधेभर्तव्ये पूरणे प्रबलाः समर्था नदीप्रवाहा यस्येति समुद्रसमान कैकबहुनदीप्रवाहाधारत्वेन समुद्रादप्यधिकपरिमाणत्वेन विस्तीर्णत्वं दीर्घत्वं च । एवं नभसो मातव्ये माने समर्थमिति नभोपेक्षयाप्यतिमहत्त्वेनामूलोत्सेधस्य पूर्वापरायतिस्पदैर्घ्यस्य तिर्यग्दक्षिणोत्तरदिग्व्यापिनानाशिखरत्वेन विस्तारस्य च प्रकर्षः । एवं क्षयमारुतानां रोद्धव्यमवरोधनम् । संचारप्रतिरोध इति यावत् । तत्र योग्यः समर्थो नितम्बो यस्य तम् । एतेन मूलमूर्नोरप्यतिमहत्त्वं दाढ्यं विस्तारो देयं च सूचितम् । प्रलये मिलितानामूनपञ्चाशतोऽप्यनिलानां नितम्ब एव पर्याप्तिरित्यपि । यद्वा कर्मणि तव्यः । तेन धरणीरूपे धर्तग्ये सहम् । एवम् उदधिरूपे भर्तब्य इत्यन्यत्राप्यूह्यम् ॥३॥ विमला-सुवेल गिरि पृथिवी को धारण करने में समर्थ है। वह ऐसी अनेक नदियों के प्रवाह का आधार है, जो अकेली-अकेली समुद्र को भर सकती हैं। वह Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] सेतुबन्धम् [ नवम माकाश को नापने में समर्थ है तथा उसका [ नितम्ब ] उपत्यका भाग प्रलयमारुत के संचार का प्रतिरोध कर सकता है ॥ ३ ॥ कधिस्तिर्यग्व्याप्तिमाह दूरपरिपेल्लिअदिसं दूरोणामिअसमत्थपाआलअलम् । दूरअरुक्खित्तणहं णवर करासण्णपाअवप्फलकुसुमम् ॥ ४॥ [ दूरपरिप्रेरितदिशं दूरावनामितसमस्तपातालतलम् । दूरतरोत्क्षिप्तनभः केवलं करासन्नपादपफलकुसुमम् ।।] एवं दूरं परिप्रेरिता दिशो येन । तिर्यक्सानुभिर्व्यापनात् । एवं दूरमवनामितमधःपातितं पातालतलं येन । तयापकमूलभागत्वात् । एवमतिदूरमुक्षिप्तमुत्तोलितं नभो येन । गगनातिक्रामकमस्तकत्वात् । केवलं करासन्नानि हस्तप्राप्याणि पादपानां फलकुसुमानि यत्र तमिति समृद्धवृक्षव्याप्तत्वम् । अत्रैव दूरत्वव्यभिचार इति परोपकृतिरूपगुणशालित्वम् ॥ ४॥ विमला-सुवेलगिरि ने ( अपने प्रसार से ) दिशाओं को ढकेल कर दूर भेज दिया है। ( अपने मूलभाग की व्यापकता से ) उसने पाताल को दबाकर नीचे अत्यन्त दूर कर दिया है। (शिरोभाग के गगनातिक्रामक होने से ) उसने नभ को बहुत ऊपर उठा दिया है। केवल (परोपकार-वश पादपों को दूर न हटा सकने से ) उस पर स्थित पादपों के पुष्प एवं फल इतने निकट हैं कि वे हाथ से भी लभ्य हैं ॥४॥ पुनर्मूलमौलिप्रकर्षमाहपासल्लागअसरिअं अमुक्कपाालसाअरजलुच्छङ्गम् । आइवराहुव्वत्तणखणपडिउठिअं व मेणिवेढम् ॥ ५॥ [पार्वागतसरितममुक्तपातालसागरजलोत्सङ्गम् । आदिवराहोद्वर्तनक्षणपतितोलस्थितमिव मेदिनीवेष्टम् ॥] एवं पाइँनागताः सरितो यस्य तम् । उपरि मेघादीनामपि संचाराभावात्सरि तामत्यभाव इति । एवम् अमुक्तोऽत्यक्तः पातालसागरस्योत्सङ्गो येन । तदन्तर्व तिमूलकत्वात् । एवं कमिव । पूर्वनिपातवपरीत्येन पतितस्यादिवराहस्योद्वर्तनक्षणे ऊर्वीभूय स्थितं मेदिनीवेष्टं भूम्येकदेश मिव । यदा आदिवराहः पातालपङ्के पतित सन्पार्श्वपरिवर्तनं कृतवान्, तदा तत्पार्श्वप्रेरितः पङ्कोत्करो गगनमभिव्याप्य स्थितः स एवेदानीमपि सरिबुद्धिसमर्पकप्रसरज्जलः पातालस्थसमुद्रजलस्पर्शात्पिण्डीभूब सुवेलत्वेन प्रतिभासत इति तद्देहे महत्त्वानुसारेण पङ्कोत्करमहत्त्वं सुवेलस्यैव महत्त्व गमयति । सर्वमिदमौत्प्रेक्षिकमिति भावः । यदा आदिवराहस्योद्वर्तनामितस्तत परिभ्रमणं, तत्क्षणे पतितं सदूध्वं व्याप्य स्थितं दन्तस्थं मेदिन्या बेष्टं मण्डल मिवेत्यर्थः । उद्वर्तनक्षणे वलितोर्वे स्थितं मेदिनीवेष्टमिवेत्यपि कश्चित् ॥५॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३४१ विमला - ( ऊपरी भाग तक मेघों की पहुँच न होने से ) पार्श्वभाग से नदियों का गमन नहीं होता है—यहाँ नदियों का अत्यन्त अभाव है । ( मूल भाग के पातालव्यापी होने से ) पाताल - सागर का उत्सङ्ग इससे मुक्त नहीं है । आदिवराह के इधर-उधर परिभ्रमण के समय पतित एवं ऊर्ध्वस्थित मेदिनी - मण्डल-सा यह ( सुवेल ) स्थित है ॥ ५ ॥ मूलदाढर्य माहपानालभरिअमूलं वज्जमुहानोड़णट्ठविणिक्कम्पम् । मालाणक्खम्भं विअ सुरहस्थिक्खन्धणिहसम सिणिअपासम् || ६ || वज्रमुखाकोलनस्थापितनिष्कम्पम् । [ पातालभृतमूलं आलानस्तम्भमिव सुरह स्तिस्कन्धनिघर्ष मसृणितपार्श्वम् ।। ] भृतं व्याप्तं पातालं येनैतादृशम् । पाताले भृतं पूर्णं वा मूलं यस्येति स्थौल्यं दैघ्यं च मूलस्योक्तम् । एवं वज्रस्य मुखेन यदाकोलनं मृत्तिकामभिहत्य दृढीकरणं तेन स्थापितम् । अत एव निष्कम्पम् । एवं सुरहस्तिनामैरावतादीनां स्कन्धस्य निघर्षन कण्डूयनादिव्यापारेण मसृणितं ग्लिष्टम्, न तु भग्नम्, पार्श्व यस्य तमिति तेषां स्कन्धस्य पार्श्व एव पर्याप्तस्तेभ्योऽप्युच्चत्वं चोक्तम् । अत्रोत्प्रेक्षते - तेषामालास्तम्भमिव । बन्धनस्तम्भस्तु बन्धव्यापेक्षया प्रायस्तुङ्ग एव भवतीति भावः । स्तम्भमपि किंभूतम् । उक्तविशेषणत्रयविशिष्टम् ।। ६ ।। विमला - यह ( सुवेल ) मानों ऐरावतादि सुरगजों को बाँधने के लिये स्तम्भ है जिसका मूलभाग पातालव्यापी है, जो वज्र के अग्रभाग से मिट्टी को कूटकूट कर स्थापित किये जाने से कभी हिलने वाला नहीं है तथा जिसका पार्श्वभाग सुरगजों के स्कन्ध- घर्षण से कुछ छिल अवश्य गया है, किन्तु भग्न नहीं हुआ है ।। ६ ।। पुनर्मूलमलिप्रकर्षमाह विमलप्रसाअलेण वि विसहरवहणा अदि ट्ठमूलच्छेप्रम् । अप्पत्ततुङ्गसिहरं तिहुअणहरणपरिवढिएण वि हरिणा ॥ ७ ॥ [ विमर्दितरसातलेनापि विषधरपतिनादृष्टमूलच्छेदम् । अप्राप्ततुङ्गशिखरं त्रिभुवनभरणपरिवर्धितेनापि हरिणा ॥ ] विमर्दितमितस्ततः संचारेण घृष्टं रसातलं येन तादृशेनापि विषधराणां पत्या शेषेणादृष्टो मूलच्छेदो मूलभागो यस्य तमिति । पातालादप्यधोवर्तिमूलप्रदेशमित्यर्थः । द्विसहस्रदृष्टिना दूरादपि द्रष्टुं न शक्यते, किं पुनः स्प्रष्टुमिति भावः । एवं त्रिभुवनस्य भरणं स्वदेहेन पूरणं हरणमाक्रमणं वा तदर्थं परिवर्धितेनापि हरिणा त्रिबि Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] सेतुबन्धम् [ नवम क्रमेणाप्राप्तानि हस्तेनाप्यस्पृष्टानि तुङ्गानि शिखराणि यस्येत्यनवच्छिन्नमस्तकमित्यर्थः । 'मूलुच्छङ्गम्' इति पाठे 'मूलोत्सङ्गम्' इत्यर्थ: ।। ७ ।। विमला - इसका मूलभाग पाताल से भी नीचे चला गया है, जिसे रसातल को अपने संचार से विमर्दित करने वाला शेषनाग ( स्पर्श तो दूर रहा ) देख भी नहीं सका । यह इतना ऊँचा है कि त्रिभुवन को आक्रान्त करने के लिये परिवर्धित भगवान् त्रिविक्रम भी इसके उन्नत शिखरों का स्पर्श ( अपने हाथ से ) नहीं कर सके ॥ ७ ॥ पुनर्दाढयं मे बाह विच्छूढो प्रहिसलिलं कडअभमन्तभुअ इन्द विष्णा वेढम् । । पासट्ठिएण रहणा करेहि हरिणा का मन्दरं उवऊढम् ।। ८ ।। [ विक्षिप्तोदधिसलिलं कटकभ्रमद्भुजगेन्द्रदत्तावेष्टम् । पार्श्वस्थितेन रविणा करेंहरिणेव मन्दरमुपगूढम् ॥ ] एवं विक्षिप्तं तटेन प्रतिहत्य परावर्तितमुदधिसलिलं येन तम् । एतेन तीरवृत्तित्वेऽपि समुद्रेणाप्यनुन्मूलनीयम् । एवं कटके भ्रमता भुजगेन्द्रेण वासुकिना दत्तमाष्टमालिङ्गनं यस्मै । तथा च तस्यापि कटक एवं संचारो न तु शिरः पर्यन्तप्राप्तिरिति भावः । एवं पार्श्व स्थितेन न तुपरि गन्तुं शक्तेन रविणा करैस्तेजोभिरुपगूढमालिङ्गितम् । अन्यत्रापि पार्श्वस्थितेन करेणैवालिङ्गनं क्रियत इति ध्वनिः । कमिव । पार्श्वस्थितेन हरिणा चतुभिरपि करैरुपगूढं समुद्रमथनसमये समाश्लिष्टं मन्दरमिव । तमपि किंभूतम् । विक्षिप्तं स्वभ्रमणेन परितश्चालितमुदधिसलिलं येन । एवं कटने भ्रमता नेत्रीभूतेन शेषेण दत्तमावेष्टं वलयीभावो यत्रेत्युपमा ||८|| विमला - ( यद्यपि यह समुद्र के तीर पर ही स्थित है तथापि समुद्र इसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता है ) समुद्र -सलिल इससे टकरा कर पुन: वापस लौट जाता है | ( शिरोभाग तक पहुँच न होने से ) वासुकि इसके [ कटक पार्श्वभाग पर घूमकर इसे आलिङ्गित करता है । ( ऊपर तक पहुँचने में अशक्त होने से ) पार्श्व - भाग में स्थित सूर्य करों ( १- किरण, २- हाथ ) से इसे मन्दराचल को हरि के समान आलिङ्गित करता है ।। ८ ।। 1 पुनर्मूलमौलिमहत्त्वमाह - सेससिरर अणघट्टिमणिमू लुज्जो अहअर साग्रलतिमिरम् । समुद्धतिहरसं कडपण ठरविमण्डलन्धारिणम् ॥ ६॥ [ शेषशिरोरत्नघट्टितमणिभूलोद्योततरसातल तिमिरम् । विषमोर्ध्वशिखरसंकट प्रनष्ट रविमण्डलान्धकारितगगनम् ॥ ] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३४३ एवं शेषस्य शिरोरत्नघट्टितानां घृष्टानां मणीनां अर्थात् स्वमूलस्थानां मूलोद्दयोतैघृष्टाधोभागतेजोभिहंतं रसातलस्य तिमिरं येन तम् । यदा यदा शेषस्य शिरसि सुवेतमूल स्थित्या भारो भवति तदा तदा शिरःसंचारेण तद्रत्नैः सहैतन्मणीनां संघटो जायते इति मूल महत्त्वं मणीनामाकरत्वं चोक्तम् । एवं विषमाणां वक्रकोटरादिमताम् । ऊर्ध्वानामुच्चानां शिखराणां संकटेषु मिथोऽन्तरालेषु प्रनष्टेनाकस्मात्तिरोभूतेन रविमण्डलेनान्धकारितं गगनं येन । तथा च पार्श्वत एव सूर्यस्य संचारो न तु मौलाविति कदाचित्कोटरप्रविष्टत्वेनान्धकार इत्युच्चत्वमिति भावः ॥ ६ ॥ विमला-( इसका मूलभाग इतने नीचे तक गया है कि ) शेषनाग के सिरों के रत्नों से इसके अधोभाग की मणियाँ रगड़ खाती हैं, जिनके प्रकाश से रसातल का तिमिर नष्ट हो गया है। (यह इतना ऊँचा है कि ) इसके विषम एवं उन्नत शिखरों के दर्रा में अकस्मात् सूर्य-मण्डल के तिरोहित हो जाने से गगन तिमिराच्छन्न हो गया है ।। ६ ।। पुनरुच्चतामाह ससिबिम्बपास णिहसणक सणसिलाभित्तिपसरिआमअलेहम् । जोहाजलपवालिविसमम्हाअन्तणि परविरहमाम् ॥ १० ॥ [ शशिबिम्बपावनिघर्षणकृष्णशिलाभित्तिप्रसृतामृतलेखम् । ज्योत्स्नाजलप्रप्लावितविषमोष्मायमाणज्ञातरविरथमार्गम् ॥] एवं शशिबिम्बस्य पार्श्वनिधर्षणेन कृष्णशिलाभित्तिषु प्रसृता अमृत लेखा यत्र तम् । शशिबिम्बस्य मृदुत्वेन पार्श्व शिलाभित्तेः कठिनतया मिथःसंबन्धादमृतक्षरणमिति भावः । एवं ज्योत्स्ना चन्द्र कान्तिः सैव जलं हिमरूपत्वात्, तेन प्रप्लावितः पूरितः । अत एव विषमं यथा स्यात्तथोष्मायमाणो बाष्पायमाणः, तत एव ज्ञातो रविरथस्य मार्गो यत्र। रविरथस्य वह्निमयत्वेन देध्मीयमानस्तन्मार्गो विधुकरस्वरूपजलसंबन्धोद्गतबाष्परूपधुमेनानुमीयत इत्यर्थः। न केवलं रविरेवाधस्तादस्य संचरलि, किं तु द्विगुणोपरिवर्ती चन्द्रोऽपीति भावः । लतादिव्यवहितत्वेन तन्मार्गस्य क्वचित्क्वचिज्ज्योत्स्नासंबन्धेनोष्मायमाणत्वमिति सूचयितुं विषमपदोपादानम् ॥१०॥ विमला-( मृदु ) चन्द्रबिम्ब का ( कठिन ) पार्श्व-शिलाभित्ति से निघर्षण होने पर यहाँ अमृतक्षरण होता है। यहाँ ( वह्निमय ) रविरथ का ( लतादिव्यवहित ) मार्ग, विधुकररूप जल से पूरित होने पर उद्गत बाष्परूप धूम के द्वारा ही जाना जाता है ॥१०॥ पुनस्तदेवाहसिहरालीण मिअङ्क विरलट्ठिअगहिअसलिलजल अक्खण्डम् । खुडिउब्बूढमुणालं णिसासु विसमहिअकदमं व सुरगअम् ॥११॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] सेतुबन्धम् [ नवम [शिखरालीनमृगाई विरलस्थितगृहीतसलिलजलदखण्डम् । खण्डितोद्वयूढमृणालं निशासु विषमहितकर्दममिव सुरगजम् ॥] एवं निशासु ज्योत्स्नोत्कर्षकाले शिखरे आलीनः संबद्धो मृगाङ्को यत्र तम् । एवं विरलस्थिताः क्वचित्क्वचिदवस्थिता गृहीतसलिला जलदखण्डा यत्र । जलपूर्णा अपि जलदा व्याप्तुं न क्षमन्ते इति महत्त्वमस्य विरलस्थितपदेन सूचितम् । कमिव । सुरगजमिव । किंभूतम् । खण्डितं सत् उद्यूढमुपरिधृतं मृणालं येन तम् । एवं विषमं यथा स्यात्तथा हितः क्वचित्क्वचित्तनावारोपितः कर्दमो येन गजस्वाभाव्यात् । तथा च भूधारणक्षमतासूचनाय तुङ्गत्वादिना सुरगजसुवेलयोः, श्वेत्येन बिसचन्द्रयोः, श्यामतया च कर्दमजलदयोः साम्यमित्युपमा ॥११॥ विमला-रात में चन्द्रमा के शिखर-सम्बद्ध होने तथा जल-पूर्ण मेघों के कहींकहीं अवस्थित होने से यह ( सुवेल ) उस ऐरावत गज की शोभा को प्राप्त होता है, जिसने खण्डित मृणाल को अपने ऊपर धारण कर रखा है तथा शरीर में कहींकहीं कर्दम ( पङ्क) लगा लिया है। विमर्श-यहाँ तुङ्गता आदि के कारण ऐरावत और सुवेल का, श्वेतता के कारण मृणाल और चन्द्र का तथा श्यामता के कारण कर्दम और मेघ का साम्य समझना चाहिये ॥११॥ नदीसंबन्धमाह हरिप्रवणराइपिसुणिअदूरअरालोअसिहरसरिआमग्गम् । पवणुक्खुडिअकिलामिअमिअङ्कपिडिउस्ससन्तकिसअलम् ॥१२॥ [ हरितवनराजिपिशुनितदूरतरालोकशिखरसरिन्मार्गम् । पवनोत्खण्डितक्लाम्यन्मृगाङ्कपृष्ठप्रत्युच्छ्वसत्किसलयम् ॥] एवं हरितया वनराज्या पिशुनितो ज्ञापितो दूरतरादालोको दर्शनं यस्य तथाभूतः शिखरः सरितां मार्गो यत्र तम् । नित्यं जलसंपर्केण हरिद्वर्णतृणवृक्षादिलेखया तटयोर्दूरादेव दृश्यमानया ज्ञायते नदीसंचारपथोऽयमिति भावः । एतेन रमणीयत्वम् । एवं पवनेनोत्खण्डितानि अतः क्लाम्यन्ति शुष्यन्ति सन्ति मृगाङ्कस्य पृष्ठे संबद्ध इत्यर्थात् प्रत्युच्छ्वसन्ति प्रत्युज्जीवन्ति किसलयानि यत्र । चन्द्रपृष्ठे त्रुटित्वा पतितानां किसलयानां सुधासंबन्धेन पुनर्नवकान्त्युदयादिति भावः । एतेन' चन्द्रपृष्ठस्यापरभागरूपस्य पतितपत्रसंबन्धादुच्चस्त्वमुक्तम् । त्रुटितपत्राणां शोषणं चिरेण भवतीति विदूरपतनसूचनेनाप्युच्चतरत्वम् ।।१२।। विमला-यहाँ सबसे ऊँचे भाग पर नदी का संचार-पथ हरित वनस्पति के कारण दूर से ही ज्ञात होता एवं दिखायी देता है। यहाँ पवन के वेग से टूटकर Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३४५ चन्द्रमा के पृष्ठ भाग पर गिरे हुये किञ्चित् शुष्क किसलय ( सुधा के सम्पर्क से ) पुनः हरे-भरे हो जाते हैं ॥१२॥ सिन्धी तत्प्रतिबिम्बमाह वरुद्धाइ असिहरं जलणिहिजल दिदिट्ठविडपाग्रडपडिमम् । उप्पासणिपअं उद्धप्फुडितपडि एक्कपास व ठिनम् ||१३|| [ दूरोद्धावितशिखरं जलनिधिजलदृष्ट विकटप्रकट प्रतिमम् । उत्पाताशनिप्रहतमूर्ध्व स्फुटितपतितैकपार्श्वमिव स्थितम् ॥ ] एवं दूरं व्याप्योद्धावितानि दिशि दिशि गन्तुं कृतवेगानीव शिखराणि यस्य तम् । एवं जलनिधेर्जले दृष्टा विकटा महती प्रकटा व्यक्ता प्रतिमा प्रतिबिम्बो यस्य । अत्रोत्प्रेक्षते —— उत्पाताशन्या वज्रेण प्रहतं ताडितम् अत एवोर्ध्वमुपरि स्फुटितं सत्पतितमेकं पाश्वं यस्य तमिव स्थितम् । समुद्रव्यापी तत्प्रतिबिम्ब: स्फुटिततदेकदेशत्वेनोत्प्रेक्षित इति प्रतिबिम्बस्य तदेकदेशभ्रमविषयतया महत्त्वं सुवेलस्यैव महत्त्वं ज्ञापयति । सुवेलस्यैकदेशत्रुटिरुत्पातादेव भवतीति तथोक्तम् । वज्रमुपर्येव पततीत्यूर्ध्वपदम् ||१३|| विमला - इसके शिखर मानों दूर तक दिशाओं को आच्छन्न करने के लिये दौड़ पड़े हैं एवं समुद्र के जल में दिखायी देता इसका महान् व्यक्त प्रतिबिम्ब ऐसा प्रतीत होता है कि मानों उत्पात काल में वज्र से प्रताडित हो इसका एक भाग समुद्र में गिर गया है ।।१३।। गुरुत्वमाह गुरुमरसे साहिष्णवारंवारपरुिद्ध मूलुच्छङ्गम् 1 खमारुउक्ख आणिप्रतुङ्गग्रडावडिअभिण्णसेसमहिहरम् || १४ || [ गुरुभरशेषाहिफणवारंवारप्रतिरुद्धमूलोत्सङ्गम् क्षयमारुतोत्खातानीततुङ्गतटापतित भिन्न शेषमहीधरम् ॥ ] गुरुणा भरेण गौरवेण गुरुभरेण वा शेषाहिना फणैर्वारंवारं प्रतिरुद्धो धृतो मूलोत्सङ्गो यस्य तम् । तथा च फणसहस्र ऽपि दया यै: कियद्भिर्धारणं तथा तदितरेषां विश्रामः, यदा तु विश्रान्तैरमीभिर्धारणं तदा तेषां विश्राम इति यन्त्रणभिया संभूय सर्वैः कदापि न धारयतीति वारंवारपदद्योत्यं गौरवाधिक्यम् । एवं क्षयमारुतैरुत्खाता उत्पाटिता अथानीता उद्भूय प्रापिताः, तदनु तुङ्गतटे आपतिताः सन्तो भिन्नाश्चूर्णाः शेषा महीधरा यत्रेत्युपरि प्रान्तयोरप्यवकाशाभावादत्रैव तेषां पात इति विस्तीर्णता तुङ्गता दृढ़ता दृढमूलता प्रलयेऽप्यनुच्छेद्यता च सूचिता ।। १४ ।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] सेतुबन्धम् [ नवम विमला-इसके मूलभाग को शेषनाग भारी भार के कारण वारंवार धारण करता है-अपने कतिपय सिरों पर धारण कर अन्य सिरों को विश्राम देता है भौर थकने पर विश्राम पाये हुये सिरों पर पुनः धारण कर थके सिरों को विश्राम देता है, उसका यही क्रम निरन्तर चलता रहता है। प्रलय-मारुत जब पर्वतों को उखाड़ कर यहाँ लाता है तब (ऊपर तथा अगल-बगल अवकाश न होने से । वे यहीं गिर कर चूर्ण हो जाते हैं ।।१४।। वापदसंकीर्णतामाहगहिअजलमेहपेल्लिअणिधाअन्तणिहुअाठि अमहामहिसम् । णिह प्रगअकुम्भलोहि असिला अलोसुक्खबद्धमुत्ताबडलम् ॥१५।। [ गृहीतजलमेघप्रेरितनिर्वाप्यमाणनिभृतस्थितमहामहिषम् ।। निहतगजकुम्भलोहितशिलातलावशुष्कबद्धमुक्तापटलम् ।। गृहीत जलेर्मेधैः प्रेरिताः सन्तो निर्वाघ्यमाणा: सुखीक्रियमाणा अत एव निभृतस्थिता: सूखवशान्निःस्पन्दस्थिता महान्तो महिषा यत्र तम् । उपरि सुरकरतप्तेषू महिषेषु सजातीयबुद्धघा मेर्यथा यथा यन्त्रणलक्षणं प्रेरणं क्रियते तथा तथा महि. षाणां शैत्यलाभादधिकनिश्चलत्वमिति निभृतपदद्योत्यं वस्तु । एवं निहतानां गजानां कुम्भयोर्लोहितेन हेतुना शिलातलेववशुष्काणि सन्ति बद्धानि दृढलग्नानि मुक्तापटलानि यत्र । तथा च सिंहविदारितगजकुम्भस्थमुक्ता: शिलासु पतित्वा संनिहितसूरकरशोषणादतिस्त्यानीभूतरुधिरतया दढीभूय स्थिता इत्यर्थः । इति राक्षसैरप्यगम्यकतिपय देशकत्वं सूचितम् ।।१५।। विमला-यहाँ ( सूर्य की किरणों से तप्त ) भंसे जलपूर्ण मेघों के स्पर्श से सुखी हो निःस्पन्द स्थित हैं। सिंहविदारित गजकुम्भस्थ मुक्तायें शिलाओं पर गिर कर ( सूर्य की किरणों से : रुधिर के गाढ़ा हो जाने के कारण दृढ़ता से स्थित हैं ॥१५॥ पुनस्तदेवाह लवणजलसीहराहअदरुग्वमन्तममद्धपल्लवराअम । सीहरवभीपस्थिणि रञ्चिएक्कचलणदिउक्कण्णमअम् ।। १६ ॥ [ लवणजलशीकराहतदरोद्वमद्रुममुग्धपल्लवरागम् । सिंहरवभीतप्रस्थितनिकुञ्चितैकचरणस्थितोत्कर्णमृगम् ॥] एवं लवणरूपं जलम्, अर्थात्समुद्रस्य, तच्छीक रहतः स्पृष्टोऽत एव दरोद्वमनीषदन्यरूपतां गच्छन् किंचिदेव प्रादुर्भवन्निति वा। द्रुमस्य मुग्धानां नूतनानां पल्लवानां रागो लौहित्यं यत्र तम् । एव सिंहरवेण भीताः सन्तः प्रस्थिताः पलायिता अथ निकुञ्चितमीष भुग्नितमेकं चरणं येषां तथाभूता: सन्तः स्थिता उत्थित Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३४७ मौलित्वादुत्कर्णा उत्थितक मृगा यत्र तम् । पुरतोऽपि तत्प्रतिरवशतावशात्पश्चादवलोकनाय वेति भावः । जातिरलंकारः ॥१६।। विमला-यहाँ वृक्षों के नूतन पल्लवों की लानी, समुद्र के नमकीन जलशीकरों के स्पर्श से अन्य रूप धारण कर लेती है तथा सिंह-गर्जन से डर कर भागे हुये हरिणों का एक चरण झुका हुआ तथा दोनों कान उठे हुये हैं ॥१६॥ पुनविस्तारमाहकडअपरिपेल्लिआणं र इअर पाअडिअकन्दराभरिमाणम् । अन्भन्तरआिणं परिल्लपासपरिसंठिअं व दिपाणम् ॥ १७॥ [ कटकप्रतिप्रेरितानां रविकरप्रकटितकन्दराभूतानाम् । अभ्यन्तरस्थितानामपरपार्श्वपरिसंस्थितमिव दिशाम् ॥] एवं दिशामपरमार्वे दक्षिणपाचे परिसंस्थितमिव । दक्षिणदिगनुपलम्भादिति भावः । किंभूतानाम् । कटकेन प्रतिप्रेरितानामुत्त रदिगभिमुखीकृत्यापसारितानाम् । एवं रविकरैः प्रकटितासु कन्दरासु भूतानां व्याप्तानाम् । अत एवाभ्यन्तरे स्थितानाम् । तथा च यथा यथा दक्षिणाशातः कटक वृद्धिः, तथा तथोत्तराशां प्रति प्रेरिता दिशो देवादुत्तराशावत्येकैक कन्दरासु पर्यवसन्नाः, तथैव रवेरपि तत्र प्रविष्टस्य तेजोभिरतिप्रकटं लक्ष्यन्त इति व्यञ्जनागम्यं सर्वमिदमोत्प्रेक्षिकं विस्तीर्णतां गमयति । वयं तु दिशामपरपार्श्वे परितो बहिःस्थित मिव । किंभूतानाम् । पूर्वनिपातानियमाप्रतिप्रेरित कटकं याभिस्तासां प्रतिप्रेरितकटकानामित्यर्थः। तथा च दशभिरपि दिग्भिः कन्दरायां प्रविश्य कटकं प्रति प्रेरितम् । अतो दश दिक्प्रान्तेषु ब्रह्माण्डमोलवत्तत्स्थितम् । दिशस्तु कन्दरायामेव पर्याप्ता: । तदुक्तम् -अभ्यन्त रस्थितानामिति ब्रूमः ।।१७।। विमला-यह सुवेलगिरि इतना विस्तृत है कि मानों दशो दिशाओं ने इसकी सूर्य-किरणों से प्रकटित कन्दराभों में व्याप्त होकर [ कटक ] उपत्यका भाग को दूर तक ( अपने दबाव से ) विस्तृत कर दिया है और वे इसके भीतर ही स्थित हैं एवं यह दशो दिशाओं के बाहर चारो ओर स्थित है ।।१७।। उदात्ततामाह'रअणिआसु दूरुग्गअसिहर अणंत सुहणिसण्णमअवण्डिअसिहरअणन्तअम् । कुविअरामभिण्णोअहिवढमरणोल्लिो सिहरलग्गससिमण्डलणीसरणोल्लिअम् ॥ १८ ॥ १. 'रअणीसु' ख. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] सेतुबन्धम् [नवम [ १रजनिकासु दूरोद्गतशिखररत्नैस्ततं सुखनिषण्णमृगखण्डितशिखरतृणान्तम् । कुपितरामभिन्नोदधिदृढशरनोदितं शिखरलग्नशशिमण्डलनिःसरणार्द्रितम् ॥] कीदृशम् । रजनीषु दूरादुद्गतः प्रकाशितैः शिखराणां रत्नस्ततं व्याप्तम् । उद्गतमिति शिखरविशेषणं वा । यद्वा-दूरोद्गत शिखररत्नान्तं दूरोद्गता शिखा तेजोधारा येषां तथाभूतानि रत्नानि अन्ते स्वरूप प्रान्ते वा यस्य तम् । ते रत्नरन्तं मनोहरमिति वा । यदा दूरोद्गत शिखरानन्तकं दूरमुद्गतैरुत्थितः शिखरैरनन्तमपर्यवसानं कं मस्तकं यस्य । अत्युच्चत्वात् । अथवा दरोगतशिखराण्येवानन्तानि बहुसंख्यानि कानि मस्तकानि यस्य । शिखराणामेव मस्तकरूपत्वादित्यर्थः । अतः परं रजनीष्विति चरमपदान्वितमेव । तथा सति व्याख्या-दूरोद्गतशिखरगणान्तदं दूरोद्गतशिखरगणस्यान्तमवसानं द्यति खण्डयति । अनवसानशिखरगणमित्यर्थः । शिखरगणे अन्तं मनोहरं कं जलं यस्येति वा । यद्वा दूरोद्गतशिखरचणान्तकम् । चणप्प्रत्ययेन दूरोद्गतशिखरख्यातोऽन्तः स्वरूपं यस्य । स्वार्थे कन् । यद्वा शिखर. जनान्तगम् । शिखरैर्जनस्य लोकस्यान्तगं पर्यन्तगामिनम् । यद्वा दूरोद्गतशिखरचनान्तगम् । दूरोद्गता शिखा शिरो यत्र तादृशी या रचना सृष्टिस्तस्या अन्तर्ग पारगामिनम् । तया अन्तकं मनोहरमिति वा । प्रशंसायां कन् । एवं सुखनिषण्णमृगैः खण्डितश्चवितः शिखर तृणानामन्तोऽयं यत्र तम्। अथवा मृगैः खण्डितानि शिखराण्यग्राणि यस्य ( येषां ) तथाभूतानि तृणान्यन्ते प्रान्ते यस्येत्यर्थः । यद्वा मृगखण्डितशिखरतृणं ततं विस्तीर्णमित्यर्थः । यद्वा सुखनिषण्ण मृगखण्डयसिधरजनान्तकम् । सुखनिषण्ण मृगखण्डिनोऽसिधराः खड्गपाणयो जना एव अन्तको यमो यत्र मृगयायां मृगनाशकत्वादित्यर्थः । एवं कुपितरामस्य भिन्नोदधिस्ताडितसमुद्रो दृढो यः शरस्तेन नोदितं प्रेरितम् । रामशर: समुद्रं भित्त्वा तत्र लग्न इत्यर्थः । तथा च तादृशशराभेद्यत्वेन सारवत्त्वं सूचतम् । यद्वा कुपितरामेण भिन्नो य उदधिः स एव दृढशरस्तेन नोदितम् । शराभिघातोद्वत्तसमद्रेणाक्रान्तत्वात । एवं शिखरे लग्नस्य शशिमण्डलस्य नि सरणेन' शिखरवेधत : सुधाक्ष रणेनार्दीकृतम् । सजलमित्यर्थः । यद्वा शिखरे लग्नानां शशि मण्डलानां चन्द्रकान्त चक्रवालानां निःसरणेन जलनि:स्यन्देनार्दीकृतम् । 'रजनीषु' इत्यनुवत्तनिशि चन्द्रकान्ता जलं स्रवन्तीति भावः । 'अन्त : प्रान्तेऽन्ति के नाशे स्वरूपेऽपि मनोहरे' इति विश्वः ॥ उपग (?)नितकम् ॥१८॥ १. 'रजनीषु' ख. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३४६ विमला-यह रात में अत्यन्त प्रकाशित शिखर-रत्नों से व्याप्त है। यहां शिखरों की घासों को चर कर मृग सुख से ( निःष्पन्द ) बैठे हैं। यह मानों कुपित राम के द्वारा भेदे गये उदधिरूप दृढ शर से प्रेरित है-राम के शराभिघात से उछले हुये समुद्र से आक्रान्त है एवं शिखर-सम्बद्ध चन्द्रमण्डल की सुधा का क्षरण होने से यह आर्द्र है ॥१८॥ अत्युच्चतामाहदूरोवाहिअमूलं रविअरवोलीणसिहरणट्ठालोअम् । अद्धथमिआआमं जहेअ उअहिसलिले तहेअ णहमले ॥ १६ ॥ [दूरापवाहितमूलं रविकरव्यतिक्रान्तशिखरनष्टालोकम् । अर्धास्तमितायामं यथैवोदधिसलिले तथैव नभस्तले ॥] एवं दूरं व्याप्यापवाहितमधःप्रापितं मूलं येन तम् । पातालाक्रान्तमूलमित्यर्थः । एवं रविकरव्यतिक्रान्तेषु शिखरेषु नष्ट आलोकस्तेजो यत्र । तेन तेषु तमोमयम् । आलोको दर्शनं वा यस्य । तेन वा तदवच्छेदेनादृश्यम् । 'आलोकौ दर्शनोदययोती' इत्यमरः । अत एव यथैवोदधिसलिले मूलावच्छेदेनार्धास्तमितायामं अर्धेऽस्तमितो नष्ट इवायामो देध्यं यस्य तथा तथैव नभस्तलेऽपि शिखरावच्छेदेनेत्यर्थः । एकत्र सलिलच्छन्नतया परतस्तेजोविरहेणादृश्यत्वात् । तथा च मध्यावच्छेदेनैव दृश्यमिति भावः ॥१६॥ विमला-इतने अपने मूलभाग को नीचे बहुत दूर तक पहुंचा दिया है तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त अतिक्रान्त शिखरों में उस ( सूर्य) का तेज खो गया है, अतएव जिस प्रकार इसका विस्तार सागरस लित में ( सलिलाच्छन्न होने से) अदृश्य है, उसी प्रकार नभस्तल में भी ( सूर्य का तेज खो जाने से ) अदृश्य है ( केवल इसका मध्य भाग ही दृश्यमान है ) ॥१६॥ चन्दनवत्तामाह पवणन्दोलिअचन्दणसंघटुठ्ठि असुगन्धिधूमुप्पीडम् । दरपीओअहिगरुइअसेस द्धन्तजल आवलम्बिअसिहरम् ॥ २०॥ [पवनान्दोलितचन्दनसंघट्टोत्थितसुगन्धिधूमोत्पीडम् । दरपीतोदधिगुरुकितशेषार्धान्तजलदावलम्बितशिखरम् ॥] एवं पवनेनान्दोलितानां चन्दनानां मिथः संघट्टे नोत्थितः सुगन्धिधूमस्योत्पीडो यत्र तम् । धूममयमित्यर्थः । एवं दरपीतोदधिरीषत्पीतसमुद्रजलोऽत एव गुरुकितः शेषार्धान्तः पश्चाद्भागो यस्य तथाविधेन जलदेन' अवलम्बितं शिखरं यस्य । जलपानहेतुकगुरुत्वनिबन्धनपतनभयादिति भावः ॥२०॥ विमला-पवन' द्वारा आन्दोलित चन्दनतरुओं के पारस्परिक संघर्षण से उत्पन्न सुगन्धित धूमराशि से यह युक्त है एवम् [ ईषत् ] थोड़ा-सा समुद्रजल Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] सेतुबन्धम् [नवम पीने से भारी पश्चाद्भाग वाले बादलों ने इसके शिखरों को अपना अवलम्बन बनाया है ॥२०॥ नानावस्तुसम्बन्धमाहतलपडिहअसाअरअं उद्घोज्झरविहु असोहरोसाअरप्रम् । गहमालामेलिअ सिहर ठ्ठि प्रचन्द मण्डलामेलि अअम् ।। २१ ।। [तलप्रतिहतसागरकमूलनिर्झरविधुतसिंहरोषाकरम् । ग्रहमालामेलितकं शिखरस्थितचन्द्रमण्डलापीडम् ।।] एवं तलेन मूलेन प्रतिहतमवष्टब्ध सागरस्य कं जलं येन तम् । एवमूर्ध्ववर्तिना निर्झरेण विधुतस्य निपत्याहतस्य सिंहस्य रोषाणामाकरमुत्पत्तिस्थानम् । उपरितः केन ताडितोऽस्मीत्याशयात् । एवं ग्रहाणां नक्षत्राणां मालया मेलितं योजितं के शिरो यस्य, तावदुच्चत्वात्। एवं शिखरस्थितं चन्द्र मण्डलमापीड: पुष्पमाला यस्य तम ॥२१॥ विमला-इसने अपने मूलभाग से समुद्रसलिल को [ प्रतिहत ] अवष्टन्ध कर दिया है। ऊध्र्ववर्ती निर्झर से प्रताडित हो गिरे एवम् आहत सिंहों के रोष का यह उत्पत्तिस्थान है। इसका शिरोभाग नक्षत्रमाला से युक्त है तथा शिखरस्थ चन्द्रमण्डल ही इसकी पुष्पमाला है ॥२१॥ पुनस्तदेवाहसमिपुरओ पतरिअअंकुहरेस णिवाणिप्पअम्पसरिअमम् । मणिमअपासुत्तम कणअसिलासीगसुहिमपासुत्तमम् ॥२२॥ [शशिपुरतः प्रसृतकं कुहरेषु निवातनिष्प्रकम्पसरित्कम् ।। मणिमयपाश्र्वोत्तमं कनकशिलासीनसुखितप्रसुप्तमृगम् ।।] एवं शशिनः पुरतः प्रसृतं गतं के मस्तकं यस्य तम् । चन्द्रमण्डलातिक्रान्तमोलिमित्यर्थः । एवं कुहरेषु निम्न प्रदेशेषु निवातेन पवनाभावेन निष्प्रकम्पाः सरितो यत्र । स्वार्थे कन् । निष्प्रकम्पं सरितां कं जलं यत्रेति वा । एवं मणिमयेन पार्वेन उत्तमं रमणीयम् । यद्वा मणिमयपाश्र्वोत्तमतम् । मणिमयेन पाइँन उत्तमता यस्य । यदा मणिमयपाश्र्वोत्तमस्कम् । मणिमयपान तेजोमयतया उत्सारितं तमो यस्मात् । यद्वा मणिमयपाश्र्वोत्तमकम् । मणिमयपाइँन उत्तो दत्तो मदो यस्मै । आत्त इदिवदुत्पूर्वादुत्त इत्यपि । यद्वा मणिमयपावोत्तमकम् । मणिमयपाइँन उत्तमः, तय ति संपर्कात्तेजस्विकः । सूर्यो यत्र पार्वे एव, तस्य भ्रमणमित्यर्थः । अथवा मणिमयपाइँन उत्तमं कं शिरो यस्य, जलं सुखं वा यत्रेत्यर्थः । एवं कनकशिलासु आसीना अत एव सुखिताः सुहिता वा सन्तः प्रसुप्ता मृगा यत्र तम् ॥२२॥ विमला-इसका सिर चन्द्रमण्डल से अतिक्रान्त है। इसकी गुफाओं में 'पवन का अभाव होने से नदियों का जल निष्कम्प है। इसके मणिमय पाश्वभाग ने Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३५१ अन्धकार को यहाँ से दूर हटा दिया है तथा इसकी कनकशिनामों पर बैठे एवं सुति मृग प्रसुप्त हैं ।। २२ ।। श्वापदपदतामाह भिण्णु विखत्तपरम् हलन्तसद्दूलगहि गअकुम्भअडम् । बिलपात्तभुअंगमजलधारा आरणिग्गअमणिच्छा अम् ॥ २३ ॥ [ भिन्नोत्क्षिप्तपराङ्मुखबलमान शार्दूल गृहीतगजकुम्भतटम् । बिलप्रसुप्तभुजंगमजलधाराकारनिर्गतमणिच्छायम् n] एवं भिन्नैर्दन्ताभ्यां विद्वैरर्थात्पृष्ठोत्क्षिप्तैरूर्ध्वमुत्तोलितैः ततः तत्रैव पराङ्मुखं पश्चादभिमुखं वलमानैः बक्री भवद्भिः शार्दूलैः गृहीतानि कवलितानि गजानां कुम्भतटानि यत्र तम् । दन्तविद्धपृष्ठोत्तोलितशार्दू लकवलितकरिकुम्भस्थल मित्यर्थः । एवं बिलेषु विवरेषु प्रसुप्तानां भुजंगमानां जलधाराकारा निर्गता बिलेभ्यो बहिभूताः फणावर्तिनां मणीनां छाया रुचयो यत्र । पर्वतविवरादकस्माद्दण्डाकारं जलमुत्तिष्ठतीति फणामणितेजोवीचिरपि तथैव प्रतिभासत इति भावः ॥ २३ ॥ विमला - यहाँ गज ने सिंह को दोनों दांतों से दिया, किन्तु वहीं पराङ्मुख घूम कर उसने गज के लिया । बिलों में भुजंगम सोये हुये हैं, उनके फनों के के समान बिल से बाहर निकल रही है ॥२३॥ पुनस्तदेवाह - विद्ध कर ऊपर की ओर फेंक कुम्भस्थल को कवलित कर मणियों की कान्ति जलधारा अट्ठअसमुहसी हरवुप्परमासहिकष्ट अन्त मणिमडम् । हलग्गमोत्तिमाफलग असी सारूढ़णीहरन्तम इन्यम् ।। २४ ।। [ अस्थितसमुद्रशी करदुष्परिमर्षनिभकण्टकायमानमणितटम् । नखलग्नमौक्तिक फलगजशीर्षारूढ निर्ह्रादमृगेन्द्रम् [1] अस्थितैरनवरतैश्वश्चलैर्वा समुद्रशीकरैर्दुष्परिमर्षनिभं दुःस्पर्शनीयतुल्यं कण्टकायमानं दुरन्तत्वात्कण्टकप्रायं मणिमयं तटं यत्र तम् । तथा च मणिमय प्रदेशस्य तुङ्गतया शीकरैरप्यगम्यत्वमिति प्रतिपादयितुं कण्टकसमानाकारत्वेन शीकरकर्तृकमस्पृश्यत्वमुत्प्रेक्षितम् । यद्वा तेषां शीकराणां दुष्परिमर्षः कण्टकप्रधानो वृक्षविशेषस्तन्निभं कण्टकायमानमित्याद्यर्थ स्तेनाप्यस्पृश्यत्वमेवोक्तम् । एवं नखेषु लग्नानि मौक्तिकफलानि येषां तथाभूतानां गजानां शीर्षेष्वारूढा निर्ह्रादिशालिनो मृगेन्द्रा यत्र तम् ||२४|| विमला - यहाँ ( तुङ्ग ) मणिमय तट, चञ्चल समुद्र-शीकरों के द्वारा दुःस्पर्शनीय-सा तथा कण्टकप्राय ( अगम्य ) है एवं ( करिकुम्भस्थल को विदीर्ण Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] सेतुबन्धम् [ नवम करने से ) सिंहों के नखों में गजमुक्तायें लगी हैं और वे गजों के सिरों पर आरूढ हो गर्जन कर रहे हैं ॥२४॥ ओवठकोमलाई वहमाणं मेहविमलिअविमुक्काई। कप्पलआवसुआइअपवणुद्धअधवलसुआइ वणाई ॥ २५॥ [ अववर्षकोमलानि वहमानं मेघविदितविमुक्तानि । कल्पलताशोषितपवनोद्धृतधवलांशुकानि वनानि ॥] एवं वनानि वहमानम् । किंभूतानि । मेघेन विमर्दितानि अथ त्यक्तानि अत एवा. ववर्षेण बृष्टया कोमलानि जलसंपर्कात् । एवं कल्पलतायां शोषितानि पवनोद. तानि धवलान्यंशुकानि येषु । वृष्टया आकृतत्वात् कल्पलतासु वस्त्राणामपि सत्त्वात् । 'धअवडंसुआणि' इति पाठे ध्वजपटरूपाण्यंशुकानि येष्वित्यर्थः । वस्त्रं लतादी शोष्यत इति समाचार: ॥२५॥ विमला-यह ( सुवेल ) पर्वत ऐसे वनों को धारण किये हैं जिन्हें मेघ खूब स्पर्श कर छोड़ चुके हैं, अतएव वे जलसम्पर्क से कोमल (हरे-भरे ) हैं। यहां कल्पलताओं पर ( सूखने के लिये ) डाले गये धवल वस्त्र सूख चुके हैं और अब पवन से चंचल हो रहे हैं ॥२५॥ नदीप्रवाहमाह आरूढोअहिसलिले अद्धक्ख असरसविसमपासल्लदुमे। कुसुमभरिए वहन्तं फलिहअडुत्ताणपस्थिए ण इसोत्ते ।। २६ ॥ [ आरूढोदधिसलिलान्य?त्खातसरसविषमपार्श्वद्रुमाणि । कुसुमभृतानि वहन्तं स्फटिकतटोत्तानप्रस्थितानि नदीस्रोतांसि ।।] एवं नदीस्रोतांसि वहन्तम् । कीदृशानि । आरूढानि प्रविष्टानि अतिक्रान्तानि वा उदधिसलिलानि येषु यर्वा । उभयेषामुभयत्र प्राचुर्यादुभयथापि नदीनां प्रकर्षः । प्रथमे महत्त्वाद् द्वितीयेऽभिभावकत्वात् । एवमर्ध उत्खाता जलवेगापनीतभूमितया उत्पाटिताः सरसा जलसंपर्काद् विषमा मृत्तिकापगमादीषद्भुग्ना: पार्श्वद्रमा येषु तानि । अत एव तद्रमाणामेव कुसुमै तानि पूर्णानि । एवं स्फटिकतटे उत्तानानि अगभीराणि सन्ति प्रस्थितानि प्रसृतानि । तत्र खातं कतुमशक्तत्वादिति भावः । 'अगाधमतलस्पर्शमुत्तानं तद्विपर्यये' ॥२६॥ दिमला-यह पर्वत नदियों के ऐसे स्रोतों को धारण किये है जो तटवर्ती बृक्षों के कुसुमों से पूर्ण हैं, जिन्होंने समुद्रसलिल को अतिक्रान्त कर लिया है और जिनके तटवर्ती सरस (जलसम्पर्क से हरे-भरे ) वृक्ष जलधारा की ओर कुछ झुक गये हैं ( क्योंकि जल के वेग से वहाँ की मिट्टी बह चुकी है ) एवं जो ( प्रवाह) स्फटिकतट पर उथले हैं ( क्योंकि वह तट जलधारा से कट नहीं पाता है) ॥२६॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३५३ पुनरुत्तुङ्गतामाह रविरहतुरंगमाणं वाइद्धसिहरोज्मरेहि धुवन्तम् । थोमोल्लपग्गहाई लालाफेणलवगभिमणाइ मुहाई ॥२७॥ [ रविरथतुरंगमाणां वातोद्धृतशिखरनिर्झरैर्धावयन्तम् । स्तोकार्द्रप्रग्रहाणि लालाफेनलवर्भितानि मुखानि ॥] एवं रविरथतुरंगमाणां मुखानि वातोद्भूतैः शिखरनिर्झरैर्धावयन्तं क्षालयन्तम् । कीदशानि । स्तोकमल्पमाप्र ग्रहाणि । प्रग्रहो वल्गा । एवं लाला मुखनिष्ठयू तक्लेदः तद्रपस्य फेनस्य लवाः खण्डा गभिता अन्तःस्थिता येषु तानि अन्यत्राप्यवानां संचारश्रमे सति फेनिलानि मुखानि क्षाल्यन्त इति ध्वनिः ॥२७॥ विमला-यह पर्वत वायु द्वारा चञ्चल किये गये शिखर-निर्झरों से सूर्य के रथ के घोड़ों के मुखों को धोता है, जिनकी लगाम कुछ आई हो चुकी है तथा लाला-( लार या थूक )-रूप फेन के कण जिनके भीतर स्थित हैं ॥२७॥ तदेवाह-- दोहरसिहरालग्गं पज्जिलओसहिसिहाइअं वहमाणम् । पाअडिअमअकलङ्कणिसामु कज्जलइओअरं व मिअम् ॥२८॥ [ दीर्घ शिखरालग्नं प्रज्वलितौषधिशिखाहतं वहमानम् । प्रकटितमृगकलङ्कं निशासु कज्जलितोदरमिव मृगाङ्कम् ॥] एवं दीर्घषु शिखरेषु आलग्नं मृगावं निशासु प्रज्वलितानामोषधीनां शिखराभिहतं स्पष्टं वहमानम् । किंभूतम् । प्रकटितो मृगरूपः कलङ्को यत्र तम् । उत्प्रेक्ष्यते-कज्जलितं सकज्जलमुदरं यस्य तथाभूतमिव । अन्यदपि शरावादिकं निशि लोष्टत्रये दीपोपरि निधीयमानं सकज्जलं भवतीति ध्वनिः । प्रकृते महत्त्वादेकदैन त्रिकूटस्य तस्य त्रिष्वपि लोष्टप्रायेषु शृङ्गेषु लग्नो विधुः शरावस्तदधोवृत्तिरोषधिदीपः कलङ्कः कज्जल मिति भावः ॥२८॥ विमला-यह पर्वत चन्द्रमा को धारण किये है, जो ऊँचे ( तीनों) शिखरों पर स्थित है और रात में प्रज्वलित ओषधि-शिखा से संस्पृष्ट है एवं जिसमें मृगरूप कलङ्क प्रकटित है, अतएव मानों (शिखरत्रयरूप ) लोहे की तिगेडिया पर स्थित तथा अधोवर्ती प्रज्वलित ओषधिरूप दीप की लौ से संस्पृष्ट चन्द्र (शराव ) का उदर भाग सकज्जल हो गया है ॥२८॥ नदीनामाधिक्यमाह उद्धरिअधरणिविअर्ड आइवराहहिअवदूरोआढम् । णइसोत्तिहिन्भरन्तं खअरइसंतावसोसिअंमअरहरम् ॥ २६ ॥ २३ से० ब० Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] सेतुबन्धम् [नवम [ उद्धृतधरणीविकटमादिवराहहृतपङ्कद्रावगाढम् । नदीस्रोतोभिर्भरमाणं क्षयरविसंतापशोषितं मकरगृहम् ॥] मकरगृहं नदीनां स्रोतोभिर्भरमाणं पूरयन्तम् । तत्र बीजमाह-किंभूतम् । उदृताया धरण्या विकटं तुच्छम् । तथा च भूमिप्रमाणाधिकगर्भमित्यर्थः । अथादिवराहेण हृतः पङ्करं व्याप्य अवगाहं गभीरम् । एवं क्षयकालीनरविभ्यः संतापाच्छोषितम् । अयं भावः प्रथमं वराहेण भूमिराकृष्टा, तदनु अङ्गलेपात्पङ्कमाहितम, पश्चात्प्रलयरविकरैः स्थितमपि जलं शोषितम्, इत्थमतितुच्छसमुद्रपूरणक्षमनदीप्रवाहशालितया विस्तारायामतुङ्गत्वान्युक्तानि ।।२६।। - विमला-यह पर्वत नदियों के प्रवाहों से उस विकट समुद्र को भरता रहता है, जिसकी भूमि को प्रथम वराह ने आकृष्ट किया। तत्पश्चात् पङ्क को भी (अङ्ग में लगाने के लिये ) हृत कर लिया, अतएव वह अत्यन्त गम्भीर हो गया। तदनन्तर प्रलयकालीन सूर्यों के सन्ताप से उसका ( रहा-सहा) जल भी सोख लिया गया ॥२६॥ कंदरागाम्भीयं माह अण्णाआगमणदिसे पुरओ पडिसद्दभेसिअणि अत्तमए । विवरभरिए वहन्तं उक्कणि अवणगए मइन्दणिणाए ॥ ३० ॥ [ अज्ञातागमनदिशः पुरतः प्रतिशब्दभीषितनिवृत्तमृगान् । विवरभृतान्वहन्तमुत्कणितवनगजान्मृगेन्द्रनिनादान् ॥] एवं मृगेन्द्रस्य निनादान वहन्तम् । किंभूतान् । अज्ञाता आगमनदिग्येषां तान् । एतेन शब्दादीनां सर्वत्र गाम्भीर्यतौल्यमुक्तम् । एवं पुरतः प्रतिशब्देन भीषिता मत एव निवृत्ता मृगा यस्तान् । तथा च विशिष्य शब्दानामुत्पत्तिदिग्ज्ञानाभावाद्यत्रैव येऽवस्थितास्ततः संमुखमेव ते पलायितुमारब्धाः । अथ प्रतिरवस्यापि सर्वत्र तौल्येन पुनस्ततोऽपि परावृत्ता इति भावः । एवं विवरे कन्दरादो भृतान् व्याप्तान, अथवा विवरैभृतान् धृतान् । अत्यक्तानिति यावत् । तेन चिरकालव्यापकत्वमुक्तम् । एवमुत्कणिता वनगजा यैः । वासादिति भावः ।।३०।। विमला—यह पर्वत सिंहों के निनादों ( गर्जनध्वनि ) को धारण किये है, जिनके विषय में यह ज्ञात नहीं होता कि वे किस दिशा से आ रहे हैं, अतएव ( त्रस्त भागते हुये ) मृग सामने उनकी प्रतिध्वनि से डर कर लौट पड़ते हैं । वे निनाद कन्दराओं में व्याप्त हैं और उनसे ( त्रस्त ) वनगजों के कान खड़े हो गये हैं ॥३०॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३५५ पुनस्तदेवाहतामरमरआअम्बं सरेसु सुबन्तमुहुरसर अम्बम् । गहिआमिसहरि अइ वेलाणिल सीहरोल्लवणहरि अइअम् ॥ ३१ ॥ [ तामरसरजआतानं सरस्सु श्रूयमाणमधुरस्वरकादम्बम् । गृहीतामिषहरिदयितं वेलानिलशीकरार्द्रवनहरितायितम् ।।] एवं सरस्सु तामरस रजोभिराताम्रम् । एवं तत्रैव श्रूयमाणा: सन्तो मधुरा हृद्याः स्वरा येषां तथाभूता: कादम्बा हंसा यत्र तम् । एवं गृहीतमामिषं मांसं यया तथाभूता हरेर्दयिता सिंही यत्र । यद्वा गृहीतामिषाणां हरीणां सिंहानां दयितं प्रीतिविषयः । यद्वा गृहीतं प्राप्तमामिषं लोभनीयं भक्ष्यं यत्र तथाभूतम् । अत एव हरीणां दयितं प्रीतिविषयो दयापात्रं वा । यद्वा गृहीता आमिषवल्लोभनीया, आमिषं सुन्दरी वा, हरे रामस्य दयिता सीता यत्रेत्यर्थः । एवं वेलानिलशीकरेणार्वनहरितायितं हरिद्वर्गीकृतम् । यद्वा हरिताचितम् । आर्टेषु वनेषु हरिताभिर्दाभिराचितं व्याप्तमिति विश्रामयोग्यतोक्ता । 'आमिषं सुन्दराकारे रूपादिविषयेऽपि च' इति विश्वः ।।३।। विमला-यह पर्वत कमलों के परागों से ताम्रवर्ण हो गया है । यहाँ सरोवरों में हंसों का मधुर स्वर सुनायी दे रहा है। सिंह की प्रिया (सिंही) मांस ग्रहण किये है तथा समुद्र के अनिल-शीकरों से आर्द्र वनों ने इस ( पर्वत ) को हरे रंग का कर दिया है ।।३१।। पुनः कंदरागाम्भीर्यमाहमिलिअसमुद्दद्धन्ते पाडणहमण्डले पहुत्तदसदिसे । उइअथमिप्रविणअरे भुवणविहाए व्व कंदरे वहमाणम् ॥ ३२॥ [ मिलितसमुद्रार्धान्तान्प्रकटनभोमण्डलान्प्रभूतदशदिशः । उदितास्तमितदिनकरान्भुवनविभागानिव कंदरान्वहमानम् ॥] एवं कंदरान्वहमानम् । कीदृशान् । मिलिताः प्रविष्टाः समुद्रस्यैकदेशा येषु तान् । एतेन विकटत्वेन पातालरूपत्वमुक्तम् । वस्तुतस्तु मिलितः समुद्रो यत्र तादृशोऽर्धान्त एकदेशो येषामिति । समुद्रादप्याधिक्यमुक्तम् । एवं प्रकट नभोमण्डलं येषु । एतेनोलोकस्वरूपत्वम् । एवं प्रभूताः पर्याप्ता दशदिशो येषु । अनेन मर्त्यरूपत्वम् । एवमुदितः सन्नस्तमितो दिनकरो येषु । अनेन विस्तीर्णत्वम् । इदमेवोत्प्रेक्ष्यते-भुवनानां विभागो येषु तानिव भुवनविभागस्वरूपानिवेति वा । त्रिभुवनस्य तत्रैव पर्याप्तिरिति भावः । यद्वा भुवनविभागानिवेति सहोपमा । यथा स्वशरी रेणावष्टभ्य त्रिभुवनं वहमानं तथा कंदरानपीत्यर्थः । 'भुवनविघातानिव' Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] सेतुबन्धम् [नवम इत्यपि कश्चित् । विघातो विस्तारः समूहो वा । भुवनविभागेऽपि विशेषणानां योजना पूर्ववत् ॥३२॥ विमला-यह ( सुवेल ) ऐसी कन्दराओं को वहन किये हैं, जो मानों तीनों भुवनों के विभागस्वरूप हैं; क्योंकि उनके एक भाग में समुद्र प्रविष्ट है ( अतएव यह पातालरूप हुआ ), इनमें नभमण्डल प्रकट है ( यह ऊर्ध्वलोकरूप हुआ), इनमें दशो दिशायें पर्याप्त हैं ( यह मर्त्यलोकरूप हुआ ) एवं ये कन्दरायें इतनी विस्तृत हैं कि सूर्य इनमें उदित होकर इन्हीं में अस्तंगत होता है ।। ३२ ।। निर्झरस्वादमाहउच्छलियोअहिभरिए थोअत्थोमोसरन्तणिवढजले।। आइमुहरे वहन्तं पुरोत्तलवणे सिहरणीसन्दे ॥ ३३ ॥ [ उच्छलितोदधिभृतान्स्तोकापसरन्निव्यूं ढजलान् आदिमधुरान्वहन्तं पुरतोऽभिमुखलवणाञ्शिखरनिःस्यन्दान् ॥ एवं शिखराणां निःस्यन्दान्निर्झरान्वहन्तम् । कीदृशान् । उच्छलितेनोदधिना भृतान् तज्जलेन' पूर्णान् । एवं स्तोकं स्तोकमपसरन्ति शिखरेभ्यो बहिर्भवन्ति पश्चान्निव्यू ढानि संभूयोपचितानि जलानि येषु तान् । अल्पमल्पं निःसृत्य प्रचितस्वादित्यर्थः । अत एवादौ मूलभागे निर्झररूपत्वेन मधुरान् पुरतोऽभिमुखेऽने समुद्रक्षारयोगात् । अथवा दशायामादौ मधुरान् । निर्झरजलबाहुल्यात् पक्षाल्लवणाब्धिजलसंपर्कादेवेत्यर्थः ॥३३॥ विमला—यह ( सुवेल ) ऐसे शिखरनिर्झरों को वहन किये है , जो उछले हुए समुद्र के द्वारा जल से पूर्ण कर दिये गये हैं। उनमें जल पहिले थोड़ा-थोड़ा निकलता है, बाद में एकत्रित हो बढ़ जाता है, अतएव आदि (मूलभाग ) में वे मधुर हैं और सामने की ओर आगे बढ़ने पर ( समुद्र के क्षार जल के सम्पर्क से) खारे हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ रत्नच्छविमाह रअणच्छविहन्वन्तं वलन्तसेसपिहलफणविहन्वन्तम् । सरपरिवढिअकमलं कडप्रल आलग्गसूररहअक्कमलम् ॥३४॥ [ रत्नच्छविधाव्यमानं वलच्छेषपृथुलफणविधूयमानम् । सरःपरिवर्धितकमलं कटकलतालग्नसूररथचक्रमलम् ॥] एवं रत्नच्छ विभिर्धाव्यमानं प्रक्षाल्यमानम् । एवं तद्गौरवादेव वलद्भिः वक्री. भवद्भिः शेषस्य पृथुलैः फणैविधूयमानम् । यदा फणसंचारस्तदा केवलं कम्पमानमित्यर्थः । सरसि परिवधितानि कमलानि यत्र तम् । कटकवतिलतासु लग्नः सूर Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३५७ रथचक्रस्य मलो मालिन्यं यत्र । चक्रान्मलः श्यामिका यत्र । निघर्षणादिति वा । कटक एव रविः संचरतीति भावः ॥ ३४॥ डोलने से विमला -- यह ( सुवेल ) रत्नों की कान्ति से प्रक्षालित हो रहा है । ( इसके गुरुतर भार से ) शेषनाग के विशाल फन झुक जाते हैं, अतएव फनों के यह कम्पमान होता है । यहाँ सरोवरों में कमल परिवर्धित हैं तथा ( उपत्यका भाग की लताओं में सूर्य के रथचक्र के लगने से ( निघर्षण के कालापन है ||३४|| मणितटमाह णहणीले वहमाणं उम्हाहअमहिसमग्गिनोवरणवहे । पासप सरन्त किरणे मनतव्हावेढिए सरे ध्व मणिअडे ||३५|| [ नभोनीलान्वहमानमुष्माहत महिषमार्गितावतरणपथान् 1 पार्श्व प्रसरत्किरणान्मृगतृष्णावेष्टितान्सरांसीव मणितटान् ॥ ] एवं मणितटान्वहन्तम् । किंभूतान् । नभोवन्नीलान्, नभसि नीलानिति वा । इन्द्रनीलमयत्वात् । एवमुष्मणा आतपेन आहतैर्महिषैर्मार्गिता अन्विष्टा अवतरणाय अधः प्रदेशगमनाय पन्थानो यत्र । एवं पार्श्वेषु प्रसरन्तः किरणाः कान्तयो येषाम् । एवं मृगतृष्णया आवेष्टितान् व्याप्तान् । ' मृगतृष्णा मरीचिका' । 'सरांसीव' इति साधर्म्यापमा । सहोपमा वा । तान्यपि वहमानमित्यर्थः । तानि कीदृशानि । नभोवन्नीलानि, जलोत्कर्षात् । द्वितीयपदे जलपानमज्जनार्थं महिषावतरणम् । तृतीयपदे किरणाः सूर्यस्य । चतुर्थपदे मृगस्तृष्णया जलपानस्पृहया आवेष्टितानीति सर्वं क्लीबं सरोविशेषणमिति विशेषः ||३५|| 1 बिमला — सरोवरों के समान ही गगनवत् नील, आतप से व्याकुल भैसों के द्वारा उतरने के लिए अन्विष्ट मार्ग वाले, पार्श्वभाग में फैलती किरणों वाले, मृगतृष्णावेष्टित ( १ - मरीचिका से व्याप्त, २ -- मृगों द्वारा जलपान की स्पृहा से आवेष्टित ) मणितटों को यह सुवेलगिरि धारण किये है ।। ३५ ।। अनुरूपसंगतिमाह कटक ) कारण ) गअमलितमालवणं सोहमुहोरुद्धर अग्र सिह रक्खण्डम् | महिसाह अकसण सिलं अणुरूप्रट्ठाणमुक्कवणअररोसम् ||३६|| [ गजमृदिततमालवनं सिंहमुखावरुद्ध रजतशिखरखण्डम् । महिषाहतकृष्ण शिलमनुरूपस्थान मुक्तवनचररोषम् ॥ ] गजैर्मुदितानि तमालवनानि यत्र । सिंहमुखेनावरुद्धानि कवलीकृतानि रजतशिखराणां खण्डानि यत्र महिषैराहताः शृङ्गाभ्यामित्यर्थात्कृष्णा शिला यत्र । अत एवानुरूपस्थाने मुक्तः प्रसृतो वनचराणां शेषो यत्र तम् । समानवर्णत्वेन गज Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] सेतुबन्धम् [ नवम सिंहमहिषरूपसजातीयभ्रमात्प्रतिपक्ष्येण तेषां तत्तदुपमर्द कव्यापारो दग्रादिति सन्वबहलत्वमुक्तम् ।।३६॥ विमला-यहाँ गजों ने तमालवनों को ( समान वर्ण होने के कारण गज के भ्रम से ) रौंद डाला, एवं सिंहमुख ने रजतशिखरखण्डों को कवल बना लिया, भैंसों ने कृष्ण शिलाओं को ( सींगों ) से तोड़-फोड़ डाला, अतएव वनचरों का रोष यहाँ अनुरूप स्थान पर हुआ है ।। ३६ ।। गजमुक्तावत्तामाह केसरिचलण लाहअभिण्णपइण्ण गअकुम्भमोत्तारप्रणम् । वणदवभीअपहाविअगाउल मलि प्रण इसंगमोत्तारगम् ॥३७॥ [ केसरिचरणतलाहतभिन्नप्रकीर्णगजकुम्भमुक्तारत्नम् । वनदवभीतप्रधावितगजकुलमृदितनदीसंगमोत्तारतृणम् ॥] केसरिणां चरणतले राहतास्ताडिता अत एव भिन्ना विदीर्णा ये गजकुम्भास्ततः प्रकीर्णानि व्याप्तानि मुक्तारूपरत्नानि यत्र तम् । पूर्व निपातानियमात् । यद्वा केसरि. चरणतले राहतान्यत एव भिन्नानि स्वस्थानादबहिर्भूतानि सन्ति प्रकीर्णानि व्याप्तानि गजकुम्भानां मुक्ता रत्नानि यत्र । यद्वा गजकुम्भमुक्तारचनास्ताडिताः सत्यो भिन्नाः शतखण्डीभूताः अत एव विप्रकीर्णा विच्छिद्य विष्वक्पतिता ये गजकुम्भास्तन्मुक्तानां रचनाविन्यासो यत्र । एवं वनदावाद्भीतेनातः प्रधावितेन गजकुलेन मृदितानि नदीनां संगमप्रवेशे उत्ताराणि उत्तालानि उद्भटानि यत्र । संतापशान्त्यै नदीषु प्रवेशादिति भावः । यद्वा पूर्वनिपातानियमाद्गजकुलेन नदीसंगमस्योत्तारेण उल्लङ्घनेन मृदितानि तृणानि यत्रेत्यर्थः ।।३७॥ विमला-सिंहों के चरण तल से प्रताडित, अतएव विदीर्ण गजकुम्भों से (गिरकर) मुक्तारत्न यहाँ बिखरे हुये हैं एवं दावाग्नि से भीत, अतएव (तापशान्ति के लिये नदियों में प्रवेशार्थ ) भागे हुए गजसमह ने नदियों में प्रवेश के समय खुब उगी हुई घासों को रौंद डाला है ।। ३७ ।। पुनरुच्चस्त्वमाहकडनवलन्तरविरहं तलवणराइपडिघोलिरुब्भडतारम् । पासल्लणिसण्णस्स वि उपरि वीप्रभुअणस्स व गिस्संमन्तम् ।।३।। [ कटकवलद्रविरथं तालबनराजिप्रतिघूर्णमानोद्भटतारम् । पार्श्वनिषण्णस्याप्युपरि द्वितीयभुवनस्येव निषीदन्तम् ॥] एवं कटके वलन्वक्रीभवन्रविरथो यत्र, ऋजुमार्गाभावात् । तालवनस्य राज्यां प्रतिपूर्णमाना उद्भटास्तारा यत्र, तालप्रतिरुद्धमार्गत्वात् । 'तडवण' इति पाठे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३५६ तटबनराज्यामित्यर्थः । अत्रोत्प्रेक्षते-पार्वे निषण्णस्य द्वितीयभुबनस्य भुवर्लोकस्याप्युपरि निषीदन्तमिव । सूर्यताराद्यधिष्ठाननक्षत्रलोकरूपस्य तस्य पार्श्ववर्तित्वादिति भावः ॥३८॥ विमला-यहाँ ( कटक ) उपत्यकाभाग में (सीधा मार्ग न होने से ) सूर्य का रथ वक्र हो जाता है । (ताड़ के वृक्षों से मार्ग प्रतिरुद्ध होने के कारण उत्तम) तारागण ताड़ के वनों में इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। अतएव मानों पार्श्ववर्ती द्वितीय भुवन ( जो सूर्य-तारादि का अधिष्ठान है ) के ऊपर यह सुवेल गिरि स्थित है ।। ३८ ।। तदेवाह-- अद्धच्छिण्णरविअरे असमत्तपत्तसमलचन्दमकहे । छिणकडए वहन्तं उद्धाअणिअत्तगरुडमग्गिअसिहरे ॥३६॥ [ अर्धच्छिन्नरविकरानसमाप्तप्रभूतसकलचन्द्रमयूखान् । छिन्नकटकान्वहन्तमुद्धावितनिवृत्तगरुडमागितशिखरान् ।।] एवं छिन्नकटकाञ्शृङ्गविशेषान्वहन्तम् । किंभूतान् । अर्धे छिन्ना अवच्छिन्ना रविकरा यत्र तान् । अर्ध एव पर्याप्तत्वाद् एवमसमाप्ते एकदेश एव प्रभूताः सकलाः, सकलस्य पूर्णस्य वा, चन्द्रस्य मयूखा यत्र । एवमुद्धावितेन ऊर्ध्व प्रस्थितेन, अथ निवत्तेन, गरुडेन मागितमन्विष्टं शिखरमग्रं यस्य । तथा च सुवेलस्योऽवं प्रस्थाय गन्तुमशक्य त्वान्निवृत्तंन गरुडेनाप्यन्तरावर्तिछिन्नकटस्यैव शिखरं विश्रमाय न लभ्यत इति मागितपदसूचितमत्युच्चत्वम् । 'उप्पइअणिअत्त' इति पाठे उत्पत्तिनिवृत्तेनेत्यर्थः । 'दुरालोकं दुरारोहं कटकान्तरसंगतम्। भृगुप्रायं गिरेः शृङ्ग तच्छिन्नकटकं विदुः ॥३६॥ विमला-यह ( सुवेल ) छिन्न कटकों ( शृङ्गविशेष) को धारण किये है । इन शृङ्गों के अर्धभाग में ही सूर्य की किरणे अविच्छिन्न हो जाती हैं। पूर्णचन्द्र की किरणें इनके एक भाग में ही पर्याप्त हो जाती हैं। ऊध्र्वभाग को प्रस्थित ( किन्तु जाने में असमर्थ होने से ) लौटे हुये गरुड़ ( विश्रामार्थ ) इन शृङ्गों के अग्रभाग को खोजते ही रह गये ( किन्तु पा न सके )। विमर्श - 'छिन्नकटक' शृङ्गविशेष को कहते हैं । कहा भी गया है 'दुरालोकं दुरारोहं कटकान्तरसंगतम् । भृगुप्रायं गिरेः शृङ्ग तच्छिन्नकटकं विदुः ॥३६।। रत्नाधिक्यमाहसुरवहूण हिअअद्विपरअणवसार साअरस्स रइअं मिव रअणवसारअम । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] सेतुबन्धम् लिणिवत्तउडजाअमहरसामोअं वलवणणिमहन्त मुहुरसामोअअम् ॥४०॥ [ सुरवधूनां हृदयस्थितरत्नप्रसाधकं नलिनीपत्र पुटजातमधुरश्यामोदकं बकुलवननिर्यन् मधुरसामोदकम् ॥ ] - एवं सुरवधूनां हृदयस्थितै रत्नंः प्रसाधकं प्रसाधनकर्तारम् । अभीष्टरत्नानां तत्रैव लाभात् । वस्तुतस्तु — हृदयस्थित रतनवसारकम् । हृदयस्थितस्य रतस्य नवं सारकं साधकम् । अभिनवसंपादकमित्यर्थः । तासामपि केलिस्थानत्वात् । यद्वा रतनवसारदम् । हृदयस्थितं रतरूपं नवं सारं धनं ददाति यस्तम् । यद्वा रतनबसारतम् । तादृशरतस्य नवा स्तव्या सारता यत्र तम् । एवं सागरस्य रत्नाकरस्य रचितं रत्नानां प्रसारकं हट्टमित्यर्थः । तत्संनिहतत्वे सति रत्नबहुलत्वात् । एवं नलिनीपत्त्रपुटैर्जातं मधुरमास्वाद्यं मनोज्ञं वा श्याममुदकं यत्र । श्यामत्वमुत्कृष्टत्वख्यापनार्थम् । एवं बकुलवनान्निर्यन्मधुरूपस्य रसस्यामोदो यत्र तादृशं कं शिरो यस्य । यद्वा बकुलवने निर्यता पुष्पेभ्यः पतता मधुरसेन आमोदकं सौरभजनक - मानन्दकं वा तादृशमधुरस्यामोदं ददाति यस्तम् । बकुलवननिर्यन्मधुरसामोददं वा ॥४०॥ विमला - यह ( सुवेल ) अपने भीतर स्थित रत्नों से सुरवधुओं का श्रृंगार किया करता है । यह रत्नाकर के रत्नों का ( प्रसारक ) हट्टस्वरूप रचा गया है । इसका जल नलिनी के पत्रपुट से मधुर एवं श्याम है । यह बकुल ( मोलसिरी) के वन में पुष्पों से टपकते मधुरस के द्वारा सुगन्ध एवम् आनन्द प्रदान करता है ||४०|| धातुमत्तामाह सागरस्य रचितमिव रत्नप्रसारकम् । 1 तिब्वजरढ़ाअवाहअरिआलामो अविम्हराइअहरिणम संखोओअहिसीअरलवण रसासाअमहिसलिभन्त सिलम ॥४१॥ [ तीव्रजरठात पाहतहरिताला मोदविमूच्छित हरिणम् संस्त्यानो दधिशीकरलवण रसास्वादमहिषलिह्यमानशिलम् || ] [ नवम " एवं तीव्रेण दुःसहेन जरठेन माध्यंदिनीयेन आतपेनाहतानां स्पृष्टानां हरिताला - नामामोदेन सौरभेण मूच्छिता, मूच्छहितुतया विस्मापिता वा हरिणा यत्र तम् आतपे सति हरितालस्य द्रवीभावादामोदस्तेन च मृगा मूर्च्छन्तीति प्रसिद्धिः । एवं संस्त्यानस्य आतपयोगादेव घनीभूतस्योदधिशीकरस्य यो लवणरसस्त दास्वादान्म Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३६१ हिलिह्यमाना जिह्वया स्पृश्यमाना शिला यत्र । आतपशुष्कक्षारोदशीकर लवणरसलोभान्महिषा यत्र शिलां लिहन्तीत्यर्थः ॥४१॥ विमला-यहाँ मध्याह्न काल के तीव्र आतप से द्रवित हरितालों के सौरभ से मृग मूच्छित हो जाते हैं तथा आतप से खारे जलशीकरों के शुष्क हो जाने पर लवण रस के लोभ से भैंसे शिलाओं को चाटते हैं ।।४१॥ रौप्यं शिखरमाहतुङ्गरअअसिहरुममेहि तारं गअं ___ सोहणिहअगप्रलोहिअमोत्तारङ्गअम् । गरुअधीरणिवाहिजबहुजुप्रसंखअं उअहिसलिलसंकन्तसरुज्जु असङ्खअम् ॥४२॥ [ तुङ्गरजतशिखरोद्गमैस्तारां गतं सिंहनिहतगजलोहितमुक्तारङ्गदम् । गुरुकधैर्यनिर्वाहितबहुयुगसंक्षय मुदधिसलिलसंक्रान्तसरऋजुकशङ्खकम् ॥] तुङ्गानां रजतशृङ्गाणामुद्गमैरुच्छायस्तारा नक्षत्रं गतं मिलितम्, समानवर्णत्वात्संगतं वा। मिश्रितमित्यर्थः । एवं सिंहनिहितस्य गजस्य लोहितेन रुधिरेण मुक्तानां रङ्गदं रागप्रदम् । एवं गुरुकेण धैर्येण स्थिरतया निर्वाहितोऽतिवाहितो बहूनां युगानां संक्षयो नाशो येन तम् । बहुतरप्रलयेऽप्यनष्टमित्यर्थः। एवमुदधिसलिलात्संक्रान्ताः सरसि ऋजुकाः संमुखाः शङ्खका यत्र । सरःप्रविष्टकमुखसमुद्रशमित्यर्थ इति संप्रदायः ॥ वयं तु-ताराङ्गकम्, तुङ्गरजतशिखरोद्गमैस्तारमुद्भटमङ्गकं वपुर्यस्य तम् । यद्वा ताराङ्गदम्, तुङ्गरजतशिखरोद्गमैस्ताराणामङ्गं द्यति खण्डयति यस्तम् । शिखरैस्तारादेहभेदकम् । दो अवखण्डने धातुः । यद्वा ताराङ्गदम्, 'तकारस्तरणिः प्रोक्तः' इति कोषः । तस्य सूर्यस्य अरङ्गदम् । तादृशशिखरै विरोधकत्वादरङ्गप्रदमित्यर्थः । रङ्ग उल्लास: । यद्वा ताराङ्गतम् । तादाशिखरोद्गमैस्ताराणामङ्गता गुणीभावो यस्मात्तम् । रजतशिखरकान्तिभिस्ताराणां तिरोहितत्वादित्यर्थः। अथवा तुङ्गे उच्चप्रदेशे रजतं रूप्यं, शिखरं माणिक्यं, तदुद्गमैस्तारं निर्मलं, गतम् । ज्ञातमित्यर्थः। तथा च-'निर्मले तारमाहुः' इति कोषः । यहा 'तुङ्गरजतशिखरोग्रमेधिताङ्गतम, तुङ्ग यद्रजतशिखरं तदेव उग्रो मेधि मिकर्मावलम्बनस्तम्भस्तेन ताराणामङ्गता अप्राधान्यं यस्मात् । शिखरस्यैव महत्त्वेन प्राधान्यं, ताराणां तु शिखरलग्नत्वेन क्षुद्रत्वादिति भावः । यद्वा तुङ्ग Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] सेतुबन्धम् [ नवम रजतशिखारुग्गमैस्ताराङ्गदम् , तुङ्गा रजतस्य शिखा शिखरं तस्या रुक्कान्तिस्तद्गमैस्तत्संचारैस्तारमुद्भटमङ्गदं यस्य तम् । वलयीभूतरजतकान्तेरङ्गदत्वेन शिखरस्य बाहुत्वमित्यर्थः । यद्वा तुङ्गरयासिधरोद्गमैस्ता रङ्गकम, तुङ्गो रयो वेगो येषां तथाभता असिधरा मृगयाशालिनो राक्षसास्तेषामुदगमैरूर्वसंचारैः । ता तावदित्यर्थे । रङ्गक रङ्गजनक मस्तकम् । अथबा तारङ्ग तरङ्ग समूहः तद्विशिष्टमस्तकमित्यर्थः । समूहे अन् ( अण्)। यद्वा तुङ्गरतकशिखारुग्णमेघितारम् , तुङ्गे उच्चप्रदेशे रतं स्थितं यत्कं शिखरं तस्य शिखया रुग्णा विद्धा मेधिनी मेघविशिष्टा तारा येन तम् । गतम् । ज्ञातमित्यर्थः । एवं द्वितीयपदे-सिंहनिधागतलोहितमुक्तारङ्गदम्, सिंहानिःशेषतो दर्शयति ये अगा वृक्षाः प्रत्यन्तपर्वता वा सिंहाधिष्ठानभूतास्तेषां सिंहनिधानानां तले ऊहिताभिर्लक्षिताभिरात्सिहनिहतकरिकुम्भस्खलिताभिमुक्ताभी रङ्गदं कौतुहलप्रदम् । तृतीयपदे-गुरुकधैर्यनिर्बाधितबहुयुगसखगम , गुरुणा धैर्येण निर्बाधितमपीडितम्, अखण्डितमिति यावत, निर्व्याधितं वा व्याधिशून्यम् । अथ च बहूनि युगानि स्यति खण्डयति अतिवाहयति यस्तम् । षो धातुः । कर्मधारयः । निजविपत्ति विनैव चातिक्रान्तनानायुगमित्यर्थः । खमाकाशं गच्छतीति खगः । अत्युच्चमित्यर्थः । चतुर्थे पदे-उदधिस लिलशङ्कमानसरऋजुकशङ्खकम, उदधिसलिलं शङ्कमाना अत एव सरसि ऋजुकानि मुखानि येषां तथाभूताः शङ्खाः के शिरसि यस्य तम् । समुद्र जलबुद्ध या नदीवम॑ना शिरःसरःप्रविविक्षु शङ्खकुलमित्यर्थः । यद्वा उदधिसलिलशङ्कान्तःसरऋजुकशङ्खम, उदधिसलिलशङ्कया अन्तःस रोमध्यप्रविष्टा ऋजुका: संमुखीकृतमुखाः शङ्खा यत्र एतादृशं कं पानीयं यस्य, नद्यादीनामित्यर्थात्, तम्। समुद्रशङ्कास्पदत्वेन नद्यादिजलानां महत्त्वात्सुवे. लस्य महत्त्वम् इति ब्रूमः । विस्तरभयादन्यदुपेक्षितम् ।।४२॥ विमला-यह ( सुवेल ) उन्नत रजतशिखरों से नक्षत्रों का स्पर्श करता है, सिंहों से निहत गजों के रुधिर से मुक्ताओं को रंग देता है । इसने गुरु धैर्य ( स्थिरता ) से बहुत युगों का नाश निर्वाहित किया है-यह बहुत प्रलय में भी नष्ट नहीं हुआ। यहां समुद्र के शंख एक साथ सर में प्रविष्ट हैं ।।४२।। गुणान्तरमाह मगिपहम्मसामोअअं मणिपहम्मसामोअश्रम । सरसरण्णणि दावअं सरस रणणिद्दावनम् ।।४३।। [ मणिप्रहर्मश्यामोदकं मणिपहर्म्यसामोदकम् । सरःशरण्य निवकं स्मरशरज्ञनिद्राप्रदम् ॥] एवं प्रथमपदे--मणिप्रहर्मश्यामोदकम्, मणीनां प्रहर्मो मणिमयं विवरं तत्र श्याममुदकं यत्र तम् । इन्द्रनीलादिसंबन्धान्निम्नतया कुञ्जबहुलत्वेनातपाद्यभावाच्च । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३६३ यद्वा मणीनां प्रथमः खात इति देशी । तत्र श्यामोदकम् । श्यामत्वादुत्कर्षो जलस्य । द्वितीयपदे-मणिपहऱ्यासामोदकम, मणीन्पान्तीति मणिपा: यक्षाः, सर्पा वा तेषां हर्म्य क्रीडागृहं यत्र स मणिहर्म्यः । एवं सह आमोदेन' वर्तते सामोदः । मणिपश्चासौ सामोदश्चेति तम् । तथा प्रशंसायां कन् । अथवा मणिपानां हम्यं सौधरूपं, सामोदकम् आमोदसहितमस्तकम् । कर्मधारयः। आमोदः सौरभं हर्षो बा । अथवा मणिपानां हर्पा ससौरभं कं जलं यत्र तथाभूतम् । तृतीयपदेसर:शरण्य निवकम्, सरःशरण्यानां सरोवरमाश्रितानां निवकम् । न तु तापकम् । शैत्यप्रदत्वात् । टुदुङ् उपतापे। ण्वुल । यद्वा सरसारण्यनिर्दावकम्, सरसारण्ये सजलवने निर्दावकम् । निर्गतो दावो यस्मात्तम् । दावानलशून्यमित्यर्थः । अथवा सरसारण्ये निर्गतो दावस्य को वह्निर्दावानलरूपो यत्र तम् । अथवा सरसारण्ये निःशेषितो दावो वनं यत्र, तादृशं कं शिरो यस्येत्यर्थः । यद्वा सर. सारण्यनिद्राप्रदम्, सरसमरण्यं यस्मान्स सरसारण्य : समुद्रस्तस्य निद्राप्रदं निद्रया स्वापकम् । अवष्टम्भहेतुत्वात् । चतुर्थप दे-स्मरशरज्ञनिद्राप्रदम्, स्मरशरं जानन्तीति स्मरशरज्ञा गन्धर्वास्तेषां निद्राप्रदं निद्राप्रदं स्थान वा । यद्वा सरसारण्य निद्रातकम्, सरसारण्ये निद्रातो जातनिद्रः को मयूरो यत्र तम् । यद्वा सरसारण्यनिर्दावकम्, सरसारण्ये निर्गता: सुमे रोरागता दावा देवा यत्र तादृशं कं मस्तकं यस्य तम् । 'को ब्रह्माग्न्य निलार्केषु शिखरे सर्वनाम्नि च । पानीये च मयूरे च मुख शीर्षमुखेषु कम् ।। दावो देव इति ख्यातो वनाग्निवनयोरपि ।' इत्युभयत्रापि विश्वः । 'आमोदो हर्षगन्धयोः' इति धरणिः ॥४३।। विमला—यहाँ मणिमय विवर में ( इन्द्रनीलादि के सम्बन्ध से ) जल श्याम है । यह [ मणिप ] यक्षों अथवा सर्पो का क्रीडागह है तथा [ सामोदक ] भामोदयुक्त है। यह [ सर:शरण्य ] सरोवरों का आश्रय लेने वालों को [ निर्दावक ] असन्तापकारी है एवं [स्मरशरज्ञ ] कामदेव के शर को जानने वालों ( गन्धर्वो ) का निद्राप्रद स्थान है ।।४३।। गुणान्तरमाह दरिअरक्खसामोअअं दरिअरक्खसामोअअम । विसअरुप्पहाअन्तरं विसअरुप्पहाअन्तमम् ॥४४॥ [दृप्तराक्षसामोदकं दरीवराख्यश्यामोदकम् । विशदरूप्यप्रभातान्तं विषतरुप्रभान्तकम् ॥] एवं प्रथमपदे-दृप्तराक्षसामोदकम्, दप्तस्य बलवतो राक्षसस्य रावणस्यामो. दकमानन्दजनकम् । यद्वा दृप्तराक्षसामोदकम्, रावणस्यैव आमोदः सौरभं तत्प्रदम् । नानासुगन्धिद्रव्यसत्त्वात् । यद्वा दृप्तराक्षसामोदयम्, दृप्तराक्षराद्रावणा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] सेतुबन्धम् [ नवम देरामः पीडा तस्योदयो यस्य । नित्यमुपमर्दात् । अम रोगे धातुः । द्वितीयपदे-- दरीवराख्यश्यामोदकम्, दयाँ कंदरायां वरा आख्या नाम यस्यास्तया त्रिफलया श्याममुदकं यस्य तम् । यद्वा दरीवराख्वसामोदकम्, दर्यां वराख्येन' शिल्हकनाम्ना सुरभिद्रव्येण सामोदकं ससौरभं कं मस्तकं जलं वा यस्य तम् । यद्वा दरीवराक्षसामोदकम्, दर्यां वनमक्ष मिन्द्रियं येषां ते वराक्षाः श्रेष्ठेन्द्रिया योगिनो यक्षा वा तेषामामोदेन आनन्देन सह वर्तते यस्तम् । यद्वा दरीचराक्षश्यामोदकम् , दरीचरेण अक्षेण विभीतकनाम्ना वृक्षेण श्याममुदकं यस्य तम् । यद्वा दरीचराणां किनराणामक्षस्येन्द्रियस्यामोदेन सह वर्तते यस्तम् । यद्वा दरीचराणामक्षेण छूतेन य आमो. दस्तेन सहितम् । आधारभूतत्वात् । यद्वा दरीवराक्षसामोदयम्, दरीवराक्षाणां योगिनां, साम्नां वेदानामुदयो यत्र तम्। तृतीयपदे-विशदरूप्यप्रभातान्तम् , विशदेन स्पष्टेन रूप्येण रजतेन प्रभातो दीप्यमानोऽन्तः स्वरूपं यस्य तम् । विशदरूप्यप्रभाभिः कान्तम् । कमनीयमित्यर्थः । चतुर्थपदे-विषतरुप्रभान्तकम् , विषतरूणां प्रभाभिरनुभावैरन्तकं नाशकम् । यद्वा विषतरुप्रभातान्तम् , विषतरुप्रभाभिस्तोन्तं ग्लानम् । अथवा विषतरुभिः प्रभातोऽन्तोऽवसानं यस्मात्तम् । यद्वा विषतरुप्रभाततम् , प्राकृतत्वात , प्रभातो दीप्तो विषतर्यत्र तम् । ततं विस्तीर्णम् । रूप्यं प्रशस्तरूपे स्याद्रूप्यं रजतमिष्यते । वरोऽभीष्टे देवतादेवरो जामातृसिल्हयोः ।। त्रिफलायां वरा प्रोक्ता शतावर्यां वरीवरा। श्रेष्ठऽन्यवत्परिवृतौ वरं कश्मीरजे मतम् ॥४४॥ विमला-यह बलवान राक्षस ( रावण ) को आनन्दजनक है। कन्दरा में ( वरा+आख्य ) त्रिफला के कारण इसका जल श्याम है। विशद रजत से इसका ( अन्त ) स्वरूप दीप्यमान है तथा यह विषतरुओं के (प्रभा) प्रभाव से नाशक है ॥४४॥ चन्दनवत्तामाह जरढविसोसहिवेढिप्रभुअंगपरिहरि अचन्दणदुमक्खन्धम्। वोलन्तविसहरप्फणमणिप्पहाहअविराइअद्दुमच्छाअम् ॥४५।। [ जरठविषौषधिवेष्टितभुजंगपरिहतचन्दनद्रुमस्कन्धम् । व्यतिकामद्विषधरफणमणिप्रभाहतविराजितद्रुमच्छायम् ॥] जरठाभिविषौषधिभिर्वेष्टिताः परिवृता अत एव भुजंगैः परिहृता विषनाशकज्वालादुःस्थतया त्यक्ताश्चन्दनद्रुमाणां स्कन्धाः प्रकाण्डानि यत्र तम् । अत एव व्यतिक्रामतामन्यत्र गच्छतां विषधराणां फणामणिप्रभाभिराहताः स्पृष्टाः अत एव विराजिता द्रुमाणां च्छाया यत्र । सर्पसंचारेण फणामणिकान्तिप्रसरणाद्रुमच्छायापि कान्तिमती भवतीत्यर्थः ॥४॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३६५ विमला-यहाँ परिवधित विषौषधियों से वेष्टित होने से चन्दनतरुओं के प्रकाण्डों ( तनों ) को सों ने छोड़ दिया है, अतएव अन्यत्र जाते हये सर्पो के फनों की मणियों की प्रभा का स्पर्श पाकर वक्षों की छाया कान्तिमती हो उठी है ॥४५॥ स्फटिकवत्तामाह-- फडिहकिरणणिवहेहिधरणिधवलाअसं सुव्वमाणसुरसुन्दरिमुद्धवलाअअम् । पलअसमप्रसलिलेण वि असअलधोअरं विवरणिन्तणवचन्दसरिसअलधोत्रम् ॥४६॥ [ स्फटिककिरणनिवहेर्धरणीधवलायक श्रूयमाणसुरसुन्दरीमुग्धप्रलापकम् । प्रलयसमयसलिलेनाप्यसकलधौतं विवरनिर्यन्नवचन्द्रसदृशकलधौतम् ॥] एवं स्फटिकानां किरणनिवहैर्धरण्या धवलायकं धवलत्वकारकम् । सकलपृथिवीधावल्यक्षमकान्तिमत्तया स्फटिकभूमेमहत्त्वमुक्तम् । एवं श्रूयमाणाः सुरसुन्दरीणां मुग्धा मनोहरा, मोहमया वा प्रलापा यत्र तम् । बन्दीकृतानां कारागृहत्वात् । एवं प्रलयसमयसलिलेनापि असकल एकदेश एव धौतम । तदानीमुढेलसमुद्रेणापि सकलावच्छेदेन क्षालयितुमपारितमित्यर्थः । एवं विवरात्कंदरातो निर्यन्नुद्गच्छन्नवश्चन्द्रस्तत्सदृशं कलधौतं सुवर्णं यत्र । नव इत्युदयकालीनया पिञ्जरत्वात् । कलधौतं रजतं यत्रेति वा । तत्र नवो नव्य इत्यर्थे । नातिधवलत्वलाभात् । 'कलधौतं रूप्यहेम्नोः कलधौतं कलध्वनौ' इति विश्वः ॥४६।। विमला-स्फटिक-मणियों की प्रभा से यह धरणी को धवल करता है। यहाँ सुर-सुन्दरियों के मनोहर प्रलाप सुनायी पड़ते हैं। प्रलय काल के समय ( उद्वेलित समुद्र का ) जल इसके सम्पूर्ण भाग को प्रक्षालित नहीं कर सका है। यहाँ कन्दरा से उद्गत नव चन्द्र के सदृश ( पाण्डुवर्ण) सुवर्ण (दीप्यमान ) है ॥४६॥ पद्मरागादिमत्तामाह - रम्म अन्दराअच्छों रम्म अन्दराप्रच्छ मम । सग्गग्गहणिसामग्गों सग्गग्गहणिसामग्गअम् ॥४७॥ [ रम्यचन्द्ररागच्छदं रम्यकन्दरावृक्षकम् । साग्रग्रहनिःश्यामाग्रकं स्वर्गग्रहणीसामग्रयम् ॥] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] सेतुबन्धम् [ नवम प्रथमे-रम्यचन्द्ररागच्छदम् ....... 'पद्मरागादिमणितेजस्तेन छद आवरणं यस्य तम् । यद्वा रम्याश्चन्द्ररागच्छदाः, चन्द्रः कर्पूरः, रागः पद्मरागादिलौहित्यम्, छदो वृक्षादिपत्रम्, यत्र तादृशम् । यद्वा रम्येण चन्द्ररागेण चन्द्रकान्तेन च्छद आवरणं यस्य तम् । यद्वा रम्य चन्द्र रागाच्छकम्, रम्यचन्द्रस्य रागेण उद्द्योतेन अच्छं निर्मलं कं शिरो यस्य तम् । अथवा रम्य चन्द्ररागवद् अच्छं कं जलं यत्र । यद्वा रम्येण चन्द्ररागेण उदयकालीनचन्द्रकान्त्या छदा यस्य तम् । इति चन्द्रोदयाधारत्वेनोच्चत्वमुक्तम् । द्वितीये-रम्यकंदरावृक्षकम् । रम्याः कंदरावृक्षा यत्रेत्यर्थः । यदा वृक्षशब्दस्य रित्वं न भवति तत्र च वलोपे अकारस्तिष्ठति तेन अच्छ' इति वृक्षवाची । यद्वा रम्यौ कंदरावृक्षौ, कंदराकच्छौ वा यत्र । 'जलप्रायमनूपं स्यात्पुसि कच्छस्तथाविधः' इत्यमरः । 'कच्छस्तृणं सताकच्छे' इत्यन्यत्र । यद्वा रम्यकंदरा. च्छकम्, रम्यकंदरासु अच्छं निर्मलं कं जलं यत्र । यद्वा रम्यकंदराक्षकम् , रम्या:, कंदरासु अक्षका बिभीतका यत्र । यद्वा रम्यचन्द्र रागच्छन्दकम् , रम्यकपूरस्य रागेण तद्विषयकानुरागेण च्छन्दकम् । अन्यत्र गमनवारकम् । यद्वा रम्यकंदराकक्षकम् , रम्येण चम्पकेन कंदरया च कक्षा अभिमानं यस्य तम् । तृतीये-सानग्रहनि:श्यामाग्रकम, साङ्गः श्रेष्ठः ग्रहैनक्षत्रनिःश्यामं तेजःशालितया श्यामताशून्य. मग्रकं शिरःप्रदेशो यस्य । अथवा सह अग्रग्रहेण मुख्यग्रहेण वर्तते यत्तत्साग्र ग्रहम् । अत एव निःश्याममग्रकं यस्य । धवलशृङ्गमित्यर्थः । चतुर्थे---स्वर्गग्रहणीसामग्रयम्, स्वर्गग्रहणीनां स्वर्गबन्दीनां सामग्र्यं साकल्यं यत्र । रावणेन तासां तत्रैव धार‘णात् । 'चन्द्र : सुधांशुक' रधम्मिल्लस्वर्णवारिषु । रम्यं मनोहरे रम्या रात्रौ रम्यश्च चम्पकः ।।' इति सुन्दरीछन्दः ॥४७॥ विमला—यहाँ रम्य ( चन्द्र ) कर्पूर, ( राग ) पद्मरागादि की लाली, (छद) वृक्षादि के पत्र हैं अथवा रम्य ( चन्द्रराग ) चन्द्रकान्तमणि से इसका ( छद) आवरण है। यहाँ रम्य कन्दरावृक्ष हैं। इसका शिरःप्रदेश श्रेष्ठ नक्षत्रों से श्यामताशून्य है । रावण स्वर्ग के सकल लोगों को बन्दी बना कर यहीं रखता है ॥४७॥ पङ्कबाहुल्यमाह पङ कुत्तरन्तलङ्घि प्रपरिवत्तवराहवञ्चिाहअसीहम् । सरसलिलोपणिवडिअणि अ अभरस्थमिकणअपल्लवगोच्छम् ।।४।। [ पङ्कोत्तोर्णलचितपरिवृत्तवराहवञ्चिताहतसिंहम् सरःसलिलोदरनिपतितनिजभरास्तमितकनकपल्लवगुच्छम् ॥ पङ्कादुत्तरन्सन् लङ्घितोऽत्सिहेन, अथ परिवृत्तः, पुनः पङ्क एव प्रविष्टो यो १. प्राकृतशब्दानुशासनेनेदं साधितम, अन्यथोदितरीत्या तादृशरूपानिष्पत्तिः । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३६७ वराहस्तेन वञ्चितो निष्फलीकृतप्रयत्नः अत एवाहतस्ताडित इव सिंहो यत्र तम् । पङ्कादुत्तीर्णो वराहः सिंहेनाक्रान्तोऽपि तदगम्ये पङ्क एव परावृत्य प्रविष्ट इत्यर्थः । एवं सरःसलिलोदरे निपतितोऽथ निजभरेणैवास्तमितो मग्नः कनकस्य हिरण्मयवृक्षस्य पल्लवगुच्छो यत्र तम् ||४८ || विमला – यहाँ पङ्क्त से वराह निकला और सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया, अतः वह पुन: उसी ( अगम्य ) पङ्क में लौट कर प्रविष्ट हो गया । इस प्रकार वराह के द्वारा असफल प्रयत्न किया गया सिंह आहत - सा छटपटा कर रह गया । हिरण्मय वृक्ष का पल्लवगुच्छ सरोवर के सलिल में गिरा और अपने ही भार से उसके भीतर डूब गया || ४८ ॥ शिखरोत्कर्षमाह हसिर सचलणील मेहला वणिअं बद्धजोइसा उव्वमेहलावण्णिअम् । सिहरेहि बाहूहि व पच्छान्तअं अंविसाणं मित्र पच्छा अन्तअम् ॥४६॥ [ नभः श्रियं सजलनीलमेघलावण्यां बद्धज्योतिषापूर्व मेखलावणिताम् । शिखरैर्बाहुभिरिव प्रच्छादयन्तं न्यु दिशामिव पश्चादायान्तम् ॥ ] किंभूतम् । बाहुभिरिव बाहुप्रायैः शिखरैर्नभः श्रियं प्रच्छादयन्तं तिरोदधतम् । एतावता शिखराणां गगनाधिकदेशत्वमुक्तम् । नभः श्रियं कीदृशीम् । सजलनीलमेघैलावण्यं सौन्दर्यं तद्विशिष्टाम् । यद्वा सजल मेघस्येव लावण्यं यस्याः । श्यामत्वात् । अत्र समासोक्त्या सुवेलस्य नायकत्वं नभः श्रियो नायिकात्वं प्रतीयते । तत्र नायिकामपि किंभूताम् । सकलमेघलावण्याम् । सकलः कलया सह वर्तते यो मेघः कालागुरुस्तेन लावण्यं यस्यास्ताम् । 'भेवः कालागुरुर्मतः' इति कोषः । एवं बद्धं ज्योतिर्येन तेन बद्धज्योतिषा नक्षत्रेण अपूर्वो मेखलाया वर्णो विच्छित्तिस्तां प्रापि तम् । इति नक्षत्रलोकस्य मेखलावर्तित्वमुक्तम् । नायिकापि बद्धज्योतिरपूर्व मेखलया वर्णिता स्तुता भवति । उत्प्रेक्षते -- पश्चादायान्तमागच्छन्तमागमिष्यन्तं वा वर्तमानसामीप्ये लट् । दिशां मन्युमिव प्रच्छादयन्तमित्यन्वयः । नभः श्रीरूपनायिकां मत्समीपवर्तिनीं दृष्ट्वा प्रतिनायिकारूपा दिशो मन्युमाचरिष्यन्तीति नायिकागोपनं तन्मन्युगोपनपर्यवसन्नमेवेत्यर्थः । कामुकोऽपि प्रतिनायिकां दृष्ट्वा निकटस्थां नायिकां भुजादिना गोपयतीति ध्वनिः ॥ ४९ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] सेतुबन्धम् [ नवम विमला-यह ( सुवेल ) बाहुप्राय शिखरों से सजल नील मेघ के समान श्यामवर्ण वाली, नक्षत्रलोक से अपूर्व वर्ण को प्राप्त मेखला वाली नभश्री को प्रच्छादित ( तिरोहित ) कर रहा है, (नभःश्रीरूप नायिका को मेरे समीप वर्तमान देखकर प्रतिनायिकारूप दिशायें क्रोध करेंगी, इसलिये नायिका को तिरोहित कर ) मानों पीछे आने वाले ( करिष्यमाण ), दिशाओं के क्रोध को छिपा रहा है ( नायिका के न दिखायी पड़ने पर प्रतिनायिका का क्रोध अपने-आप तिरोहित हो जायेगा)। विमर्श-समासोक्ति अलंकार है ॥४६।। गुणान्तरमाह असुरबन्दिसाहारणं असुरवं दिसाहारणम् । सूरअं तमणिवाल सूरअन्तमणिवालअम् ।।५।। [ असुरबन्दिसाधारणमसुरवं दिगाधारकम् । सूरगं तमोनृपालयं सूरकान्तमणिपालकम् ।।] एवमसुरबन्दिसाधारणम्, न सुरबन्दीनां देवस्त्रीणां साधारणम् । तुल्योपभोग्यम् । यथा राक्षसीनामुपभोगविषयस्तथा न देवस्त्रीणामित्यर्थः । यद्वा असुरबन्दिसाधारणम् । असुरं रावणं बन्दितुं शीलमेषां तेऽसुरबन्दिनो राक्षसास्तेषां साधारणम् । सर्वेषामपि तुल्योपभोग्यम् । द्वितीयपदे-असुरवं, न शोभते रवः शब्दो यत्र तम् । सिंहादिराक्षसरवाधारत्वात् । अथवा असुरं रावणं वाति याति, वाधातोः कप्रत्ययः । रावणगामिनम् । तदाक्रमणविषयत्वादित्यर्थः। एवं दिगाधारकम् । दिशामाधारभूतम् । दिगाहारकं वा । दिशामाहारकम् , आकर्षकमित्यर्थः । तत्रैव समाप्तेर्दिशां धारणं धारकं वा । यद्वा दिश्याधारकम् । दिश्यं दिग्भवं तस्याधारकम् । 'दिश्यं तु त्रिषु दिग्भवे' । तृतीयपदे- सूरगं, सूरं सूर्य गच्छतीति यस्तम् । उच्चत्वात् । अथवा शोभना उरगाः सर्पा यत्र तम् । एवं तमोनृपालयम् । तम एव नृपः । पररपरिभूतत्वात्तस्यालयं गृहम् । कुञ्जकंदराबहुलत्वात् । यद्वा तमोनिर्वापकम् । अन्धकारशमकम । रत्नादिमयत्वात् । चतुर्थपदे--सूर्यकान्तमणिपालकम् । सूर्यकान्तमणीनां चालयम् । यद्वा सूर्यतान्तमणिपालयम् । सूर्यतान्तो ग्लानो यत्र । मणिपो रत्नाकरस्तदालयः । पश्चादेतयोः कर्मधारयः । तम् ।।५०॥ विमला-यह ( सुवेल) असुर ( रावण ) की वन्दना करने वालों ( सकल राक्षसों का ( साधारण ) समान रूप से उपभोग्य है । यहाँ (सिंहादि वन्य पशुओं तथा राक्षसों का आधार होने से ) शोभन शब्द नहीं हैं। यह सूरग है अर्थात् सूर्य तक ऊँचा चला गया है अथवा ( शोभना उरगा यत्र तम् ) बड़े-बड़े सणे वाला है । यह तमरूप नृप का गृह है तथा सूर्यकान्त मणियों का पालक है ॥५०॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् देहमहत्त्वाह हरिणा बलिमहिहरणे समए जलएहि जलणिहोहि जमन्ते । जंण चइअं भरेउं तं देहेण भुप्रणं भरेऊण ठिअम् ॥५१॥ [ हरिणा बलिमहीहरणे समये जलदैर्जलनिधिनियुगान्ते। यन्न शकितं भतु तदेहेन भुवनं भृत्वा स्थितम् ॥ ] किंभूतम् । तद्भुवनं देहेन शरीरेण भृत्वा व्याप्य स्थितम् । यदबलेमहौहरणे विष्णुना, समये वर्षासु जलयुगान्ते प्रलये जलनिधिभि: सप्तभिरपि भतुं न्याप्तुं न शकितं न पारितम् । तथा च विष्णुप्रभृतिभ्योऽपि व्यापकशरीरमित्यर्ष इत्यतिशयोक्तिः ॥५१॥ विमला-जिसे बलि की पृथ्वी हरते समय हरि (त्रिविक्रम ), वर्षाकाल में मेघ तथा प्रलय काल में सातो समुद्र व्याप्त नहीं कर सके, यह उसी भुवन को अपने देह से व्याप्त किये स्थित है। विमर्श-अतिशयोक्ति अलंकार है ॥५१॥ तदेवाह अत्था व वहन्तं जालन्तरणिग्गउद्धअम्बमऊहम् । पासण्णसिहरवणयबोलीण पणठ्ठमण्डलं विअसमरम् ॥५२॥ [ अस्तायमानमिव वहन्तं ज्वालान्तरनिर्गतोलताम्रमयूखम् । आसन्नशिखरवनदवव्यतिक्रान्तं प्रणष्टमण्डलं दिवसकरस् ॥] एवं दिवसकरं वहन्तम् । कीदृशम् । आसन्नस्य निकटवर्तिनः शिखरस्य वनदवेन व्यतिकान्तमाक्रान्तम् । अत एव प्रणष्टमदृश्यं मण्डलं यस्य तम् । एवं ज्वालानामन्तरेण निर्गता बहिर्भूता ऊर्ध्ववर्तिनः सन्त आताम्रा मयूखा यस्य । तथा चाताम्रोवंगतिदावानलज्वालाभिः प्रेरितानां दावाग्निप्रविष्टस्य रवेरपि किरणानामूध्वंगतित्वमाताम्रत्वं चात एवोत्प्रेक्षते। अस्ताय मानमिव अस्तं प्रयातमिव । अस्तमनेऽपि मण्डलस्यादृश्यता किरणानामूर्ध्वता लौहित्यं चेति भावः ।।५२॥ विमला-यह सूर्य को धारण करता है । वह ( सूर्य ) निकटवर्ती शिखर के दावानल से आक्रान्त है, अतएव उसका मण्डल अदृश्य है । दावानल-प्रविष्ट उसकी किरणें भीतर से निकल कर ऊर्ध्ववर्ती एवं लाल हैं, अतएव वह ( सूर्य ) मानों अस्तंगत हो रहा है ॥५२॥ सिन्धुतरङ्गाभिघातमाहवडवामूहसंतावे भिण्ण अडेअ गरुए तरङ्गप्पहरे। प्रविरहिअकुलहराण व सरिआण कए ण साअरस्स सहन्तम् ॥५३॥ २४ से० ब० Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] सेतुबन्धम् [ नवम [वडवामुखसंतापाद्भिन्नतटान् गुरुकास्तरङ्गप्रहारान् । __ अविरहितकुलगृहाणामिव सरितां कृते न सागरस्य सहमानम् ।।] एवं कुलगृहं जनकगृहम । अत्यन्तकुलगृहाणां सरितां पुत्रीणामिव कृते न सागरस्य जामातुरिव वडवामुखसंतापात्तटभेदजनकान गुरुकांश्च तरङ्गप्रहारान्सहमानमिव । अन्योऽपि श्वशुरः जनकगृहमत्यजन्त्याः पुत्र्याः कृते जामातुः परुषाभिधानरूपं सुखसंतापं प्रहारं च सहत इति ध्वनिः । तथा च समुद्रतरङ्गप्रहारातटभेदेऽप्यभङ्गरत्वं वडवानलसंनिधावप्यनुपतप्तत्वं च सुवेलस्येति भावः ॥५३।। विमला-( श्वशुर ) सुवेल, जनकगृह को न छोड़ने वाली (पुत्रीजन) नदियों के लिए, ( जामाता) समुद्र के, वडवानल के सन्ताप से तट को विदीर्ण कर देने वाले गम्भीर तरङ्गाभिघात को क्या नहीं सहता है ? (श्वशुर जनकगृह न छोड़ने गाली पुत्री के लिए जामाता के परुष वचन, सन्ताप तथा प्रहारादि को सहता ही है ) ॥५३॥ पुनरुच्चत्वमाह-- रमणीसु उव्वहन्तं एक्कक्का अम्बमणिसिलासंकन्तम् । मुद्धमिअङ्कच्छाअं खुरमुहमग्गं व रइतुरंगाण ठिप्रम् ॥५४॥ [ रजनीषूद्वहन्तमेकैकाताम्रमणिशिलासंक्रान्ताम् । मुग्धमृगाङ्कच्छायां खुरसुखमार्गमिव रवितुरङ्गाणां स्थितम् ॥] एवं रजनीषु मुग्धस्य बालस्य मृगाङ्कस्य छायां प्रतिबिम्बमुद्वहन्तम् । किंभूताम् । एकैकस्यामाताम्रायां शिलायां संक्रान्तां संगताम् । उत्प्रेक्षते-रवि. तुरङ्गाणां स्थितं खुरमुखस्य खुराग्रस्य मार्गमिव । तथा च शिरसि स्थितस्य बालचन्द्रस्य स्फटिकादो प्रतिविम्बाः, तत्रैव संचरतां रविहयानां खुरचिह्नविशिष्टमार्गत्वेनोत्प्रेक्षिताः । वस्तुतस्तु खुरमुखमार्गमिव खुराप्रपातमिवेत्यर्थः साधीयान् । यद्वा मुग्धमृगाङ्कच्छायां खुरमुखमार्गमिवेति सहोपमा । द्वयमपि वहन्तमित्यर्थः । एकैकेत्यपि द्वितीयविशेषणम् ॥५४॥ विमला-रात में सुवेल के सिर पर स्थित बालचन्द्र का प्रतिबिम्ब स्फटिकादि प्रत्येक मणि में पड़ता है। ये ( असंख्य ) प्रतिबिम्ब ऐसे प्रतीत होते हैं कि मानों ( सुवेल के सिर पर ) चलते हुये सूर्य के घोड़ों की टाप पड़ने से उनके अग्रभाग के चिह्न बन गये हैं ।।५४॥ काञ्चनभूमिमाहविसमपरिसंठिएहि विसमुद्धाइअलआहरोत्थइएहि । कंचणसिलाअलेहि छिण्णाप्रवमण्डलेहिं व परिक्सित्तम् ॥५५॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ विषमपरिसंस्थितैर्विषमोद्धावितलता गृहस्थगितैः काञ्चनशिलातलैश्छिन्नातपमण्डलैरिव परिक्षिप्तम् ॥ ] । एवं कानशिलातलैः परिक्षिप्तं व्याप्तम् । किंभूतैः । विषमं यथा स्यादेवं परिसंस्थितैर्नतोन्नतैः । विषमं यथा स्यादेवमुद्धावितै रूवं मुद्गतं लंतागृहैः स्थगितैराच्छादितैः । कैरिव । छिन्नातपस्य खण्डातपस्य मण्डलैरिव । तथा च विषमलतागृहादिसंधिप्रवेशात्क्वचित्क्वचित्त्रुटित्वात्स्थिता एव रविकराः कानशिलाबुद्धि जनयन्ति । कपिशत्वात् । इत्युत्प्रेक्षा ॥ ५५ ॥ विमला - यह ( सुवेल ) विषम रूप से नतोन्नत काञ्चनशिलातलों से व्याप्त है । वे कानशिलायें, ऊपर की ओर बढ़ी हुई लताओं से आच्छादित, अतएव खण्डातपमण्डल - सी सुशोभित हैं ||१५|| तुङ्गत्वमेवाह प्रपत्तदिणनराई श्राअवभनसिहरसं ठिअभुअंगाई । कड़एहि उव्वहन्तं वणाइ उद्धपरिवढिप्रच्छामाई ॥५६ ।। [ अप्राप्तदिनकराण्यातपभय शिखरसंस्थितभुजंगानि । वनान्यूर्ध्वपरिवधितच्छायानि ॥ ] [ ३७१ कटकैरुद्वहन्तं एवं कटकैर्वनान्युद्वहन्तम् । किंभूतानि । अप्राप्तो दिनकरो यानि तानि । अधस्थित सूर्यकत्वात् । एवमातपभयेन शिखरे उपरि संस्थिता भुजंगा येषु । रवेरधःस्थितत्वेन तत्रातपसंबाधाभावात् । एवम् ऊर्ध्वं परिवर्धिता छाया येषाम् । अत एव भुजंगानामुपरि स्थितिः । छाया हि तरणिपराङ्मुखी भवतीति रवेरुपरिस्थितावधो गच्छेत्; इह त्वध एव स्थिता उपरि गच्छतीति भावः । तत्रापि यथा यथा रविव्यवधानं तथा तथा तस्या वृद्धिरिति परिवर्धितपदादत्यन्तमधोवर्तित्वं वेरवगम्यते ॥ ५६ ॥ विमला - यह अपने [ कटक ] उपत्यका भाग पर वनों को धारण किये है, जिन्हें ( अधः स्थित होने से ) सूर्य प्राप्त नहीं कर पाता है, अतएव उन ( वनों ) की छाया (सूर्य - पराङ्मुखी) ऊपर की ओर बढ़ गयी है, इसी से सूर्य के आतप के भय से सर्प ऊपरी भाग पर जाकर स्थित हैं ॥ ५६ ॥ तदेवाह - तुङ्गत्तणपज्जन्ते विस्थाविवखम्भसिमुह वित्थारे । तिसगाण वहन्तं वन्तम्फलिहजुप्रलंकिए कडअडे ॥ ५७ ॥ [ तुङ्गत्वपर्याप्तान् विस्तृत विष्कम्भशिष्टमुखविस्तारान् । त्रिदशगजानां वहन्तं दन्तपरिघयुगलाङ्कितान्कटकतटान् ॥ ] Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] . सेतुबन्धम् । नवम एवं त्रिदशगजानामरावतादीनां परिघाकारदन्तयुगलेनाङ्कितान् चिह्नितान् कटकतटान् वहन्तम् । कीदृशान् । तुङ्गत्वे पर्याप्तान् । एवं विस्तृतेन विष्कम्भेण दन्तमोर्मध्यभागेन शिष्ट: कथितो मुखस्य विस्तारो यः । तथा च कृतदन्ताघातानां दिग्गजानामतिव्यवहितदन्तद्वयप्रान्तचिह्ननानुमीयते मुखस्यतावान्विस्तार इति । सदभिघातेनाप्यभगुरत्वं सूचितम् ॥५७॥ विमला-यह पर्याप्त ऊंचे कटकतटों को धारण किये है, जिनमें ऐरावतादि सुरगजों के परिघाकार दोनों दातों के अभिघातों के चिह्न बने हुये हैं। ये चिह्न एक-दूसरे से काफी दूरी पर हैं। इसी से यह ज्ञात हो रहा है कि सुरगजों के मुखों का विस्तार कितना है ॥५७।। पारिजातसंबन्धमाहतिप्रसगआण वहन्तं हत्थुम्हाहअकिलन्तपल्लवराए। कडपरिघोलणकविले चिरवूढविमुक्कपारिश्राविडवे ॥५॥ [ त्रिदशगजानां वहन्तं हस्तोष्माहतक्लाम्यत्पल्लवरागान् । कटकपरिघूर्णनकपिलांश्चिरव्यूढविमुक्तपारिजातकविटपान् ॥] एवं चिरं व्याप्य व्यूढानुपचितानथ विमुक्तान्मिथः प्रविभक्तान् पारिजातविट. पान् वहन्तम् । कीदृशान् । त्रिदशगजानां कटकपरिघूर्णनेन गण्डयोः कण्डूयनेन कपिलान् । त्वगपगमात् । एवं हस्तस्य शुण्डाया ऊष्मणा निःश्वासगमनोत्थेन भाहत मत एव क्लाम्यन् प्राप्तरूपान्तरः पल्लवानां रागो लौहित्यं येषु तान् । 'विटपः पल्लवे स्विङ्गे विस्तारे स्तम्बशाखयोः' इति [वि ] श्वः ।।५८।। विमला-वह ( सुवेल ) पारिजात वृक्षों को धारण किये हुये है। ऐरावतादि सुरगजों के गण्ड-स्थल-निघर्षण से ( वल्कल दूर हो जाने के कारण) उनके प्रकाण्ड ( तना ) भूरे रंग के हो गये हैं। उनके पल्लव की लाली ( सुरगजों की ) सूड़ों की ( निःश्वासजन्य ) ऊष्मा से आहत होकर क्षीण हो गयी है। ये पारिजात वृक्ष चिरकाल से बढ़ते-बढ़ते परस्पर संसक्त हो गये थे, किन्तु ( सुरगजों के द्वारा रौंद उठने से ) अब एक-दूसरे से विभक्त एवं विघटित हो गये हैं ॥५॥ पासाअअं वहन्तं मणिकडअमऊहधवलिश्रमिअच्छाअम् । पुट्ठोवइअमहोज्झरजलघाउम्वत्तमण्डलं व मिअङ्कम् ॥५६।। [ पार्वागतं वहन्तं मणिकटकमयूखधवलितमृगच्छायम् । पृष्ठावपतितमहानिर्झरजलघातोवृत्तमण्डलमिव मृगाङ्कम् ॥] __ एवं पार्बेन मेखलया आगतं मृगाकं वहन्तम् । कीदृशम् । मणिमयस्य कटकस्य मयूखेन धवलिता मृगस्य कलङ्करूपस्य छाया कन्तिर्यत्र तम् । हीरकादिकान्तिसंप Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ३७३ र्कादुत्प्रेक्षते ——- पृष्ठेऽवपतितस्य ऊर्ध्वादागतस्य महानिर्झरस्य जलाघातेन उद्वृत्तं विषतस्थितं मण्डलं यस्य तादृशमिव । चन्द्रस्य पृष्ठे निर्झरपातादधोवर्तितत्वम्, उत्तत्वेन च मृगस्योपरिगतत्वादलक्ष्यत्वेन धवलत्वमिति भावः ॥ ५६ ॥ विमला - यह (सुवेल ) पार्श्व भाग से आये हुये चन्द्रमा को धारण किये ये है, जिसके ( कलङ्करूप ) मृग की कान्ति, मणिमय कटक की किरण से धवल हो गयी, मानों चन्द्र के पृष्ठ भाग पर ऊर्ध्व भाग से गिरे हुये महानिर्भर के जलाभिघात से चन्द्रमण्डल उलट गया- ऊपर वाला भाग नीचे और नीचे वाला भाग ऊपर हो गया ।। ५६ ।। बनसमृद्धिमाह - सलिलवरधोनकुसुमं बीसन्तोवरिपरिल्ल जरढालोधम् । मअरहरस्स वहन्तं अन्भासम्भहिश्रसामलं वणराई ॥ ६० ॥ [ सलिलदरधौतकुसुमां दृश्यमानोपर्यं परिजरठालोकाम् । मकरगृहस्य वहन्तमभ्याशाभ्यधिकश्यामलां वनराजिम् ॥ ] एवं वनराजि वहन्तम् । कीदृशीम् । मकरगृहस्य समुद्रस्य अभ्याशात्सामीप्यादधिकश्यामलाम् । नित्यं जलसंपर्कादुपचितत्वात् । एवं सलिलेन समुद्रस्यैव किंचि तानि क्षालितानि कुसुमानि यस्यास्ताम् । एवं दृश्यमान उपर्युपरि जरठ आलोको दर्शनं यस्याः। उपर्युपरि वृक्षान्तरव्यवधानाभावात् । अथवा जरठ आलोकः सूर्यतेजो यत्र । उपर्युपरि बाहुल्येन तत्संबन्धादिति भावः ||६०|| विमला - यह ऐसी वनराजि को धारण किये हुये है, जो समुद्र के समीप होने से अधिक श्यामल है तथा ( समुद्र के ) जल से जिसके कुसुम किञ्चित् धुल गये हैं एवं जहाँ सूर्य का तेज ऊपर-ऊपर ही दिखाई देता है ॥६०॥ देवगजानां गतागतमाह - तिसगआण वहन्तं दुरुणि अमग्गे णहणिअत्त मुहुअरे । श्रवणपत्तन्ते उध्पअणपण ट्ठणिग्गमे गइमग्गे ॥ ६१ ॥ [ त्रिदशगजानां वहन्तं दूरोन्नीतमागान्नभोनिवृत्तमधुकरान् । अवपत्नप्रवर्तमानानुत्पतनप्रणष्ट निर्गमान् गतिमार्गान् ॥ ] एवं त्रिदशगजानां गतिमार्गान् संचारमार्गान् वहन्तम् । कीदृशान् । दूरोनीतमार्गान् । दूरं व्याप्य तर्कितपथाः सन्तो नभसो निवृत्ता मधुकरा येभ्यस्तान् । अत एव अवपतनेऽवसरणे प्रवर्तमानान् भ्रमररूपचिह्नसत्त्वाद्व्यक्तान् । पुनरुत्पतनेन प्रणष्टो निर्गमो येषामलीनाम् । पूर्वमेव गतत्वात् । तथा च कुम्भलग्ना भ्रमरा अपि दूरबुद्धया सुवेलतलं नागताः, किन्तु तदर्ध एव निवृत्ता इति महोच्चत्वं सूचितम् ॥ ६१ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] सेतुबन्धम् [ नवम विमला-यह ऐरावतादि सुरगजों के संचारमार्ग को धारण करता है । ( सुरगजों के कुम्भस्थलों से लगे) भ्रमर दूर समझ कर सुवेल तक नहीं आये, बीच आकाश से ही लौट गये, अतएव संचारमार्ग नीचे आते समय भ्रमररूप चिह्न होने से व्यक्त है, किन्तु ऊपर जाते समय उसका निकास ( अलियों के पहिले ही चल जाने से ) प्रणष्ट है ॥६१।। रत्नाङ्कुरोद्गममाह थोग्रामहतिमिराई वहमाणं थोअणिग्गअमऊहाई। णितग्गिगबिभणाइ व थोउत्तिष्णरअणङ कुरठाणाई ॥६२।। [ स्तोकाहततिमिराणि वहमानं स्तोकनिर्गतमयूखानि । निर्यदग्निगभितानीव स्तोकोत्तीर्णरत्नाङ कुरस्थानानि ॥ एवं स्तोकमीषदुत्तीर्णानामुद्गतानां रत्नाकुराणां स्थानानि वहमानम् । किंभूतानि । स्तोकं निर्गतो मयूखो येभ्यस्तानि । अत एव स्तोकमाहतं नाशित तिमिरं यत्र । रलाकुराणां स्तोकोद्गमेन मयूखस्यापि स्तोकोद्गमस्तेन च तिमिरस्यापि स्तोक एव नाश इत्यर्थः । उत्प्रेक्षते--निर्यन्नग्निर्यस्मात्तादशगर्भविशिघटानीव । गर्भानियंत्पावकानीवेत्यर्थः। रत्नाङ्कुरस्याग्नितुल्यत्वाद्गभितवह्निस्थानस्यापि स्तोक शिखोद्गमेन स्तोकतिमिरनाश एव भवतीत्याशयः ।।६२।। विमला-यह थोड़ा-थोड़ा उद्गत रत्नाकुरों के स्थानों को धारण करता है, जिनसे कुछ-कुछ किरण निकल रही है, अतएव थोड़ा ही तिमिर का नाश हुआ है, मानों ये स्थान अग्निगभित हैं, जिनके भीतर से थोड़ी-थोड़ी अग्नि उद्गत हो रही है, जिनसे कुछ-कुछ तेज (मयूब) निकल रहा है और अन्धकार का स्वल्प बिनाश हो रहा है ।।६२॥ बनगजयुद्धचिह्नमाह मोडिअपव्वाअदुमे उन्वेल्लावेढभग्गपुञ्जइमलए। वणगमजुजापरिमले वहमाणं पहरपडिप्रदन्तप्फडिहे ॥६३॥ [ मोटितप्रवानद्रुमानुढेलावेष्टभग्नपुञ्जितलतान् । वनगजयुद्धपरिमलान्वहमानं प्रहारपतितदन्तपरिघान् ॥] किंभूतम् । वनगजानां युद्धपरिमलान्युद्धविमर्दान्वहमानम् । किंभूतान् । मोटिताः सन्तः प्रवानाः शुष्कद्रुमा येभ्यस्तान् । एवम्, उद्वेलावेष्टेन गजशरीरस्येत्यर्थाद्भग्नाः सत्यः पुजिता वर्तुलीभूता लता येभ्यः । उद्वृत्ता लता हस्तिशरीरमावेष्टय स्थिताः । अथ तदाकृष्ट्या उत्पाटनेन पुजीकृता इत्यर्थः। एवं प्रहारेण पतिताः परिघाकारा दन्ता येभ्यस्तान् ॥६३।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३७५ विमला-यह ( सुवेल ) वनगजों के युद्ध-मर्दन को वहन अर्थात् सहन करता है, जिससे द्रुम टुट-टाट कर शुष्क हो गये हैं, लतायें उलट-पुलट कर गजों के शरीर में लिपट गयीं, अतएव गजों ने उन्हें तोड़-ताड़ कर भूतल पर ढेर कर दिया है तथा उस विमदं में पारस्परिक प्रहार से गजों के परिघाकार दांत (टूटकर ) गिरे पड़े हैं ॥६३॥ समुद्रजलसत्तामाह मन्दरपहरुच्छलिए अज्जवि विस्थिण्णमणिपहम्मणिहत्ते । जलणिहिजलवोच्छेए अणिग्गामअरसे समुबहमाणम् ॥६॥ [ मन्दरप्रहारोच्छलितानद्यापि विस्तीर्णमणिप्रहर्म्यनिहितान् । जलनिधिजलव्यवच्छेदाननिगतामृतरसान् समुद्वहमानम् ॥] मथनसमये मन्दरप्रहारेण उच्छलितान् जलनिधिजलस्य व्यवच्छेदाननेकदेशानचापि समुद्वहमानम् । किंभूतान् । विस्तीर्णे मणिप्रहफे मणिविशिष्टे विवरे निमग्नप्रदेशे निहितान् । एवम्, अनिर्गतोऽमृतरसो येभ्यः तानद्यापि सत्तानुमितमहत्त्वस्य मन्दरोच्छलितजलस्याधारतया विवरस्य महत्त्वेन सुवेलस्य महत्त्वं सुधामयतज्जलपानं च तत्रत्यानामुक्तम् ॥६॥ विमला-समुद्र-मथन के समय मन्दराचल के प्रहार से उछले हुये समुद्रसनिल के बहुत बड़े भाग को यह (सुवेल ) आज भी धारण किये हुये है, जो इसके मणियुक्त विवर में निहित है तथा (मथन से बच जाने के कारण आज तक) उसका अमृतरस उसमें से अलग नहीं हुआ-उसमें बचा ही रह गया है ॥६४॥ रामशरसत्तामाहजलसंखोहालग्गं वहमाणं विसमलग्गपत्तणणिवहम् । राहवसरसंघासं वज्जमुहक्खुडिअपक्खसेसं व ठिअम् ॥६५॥ [जलसंक्षोभालग्नं बहमानं विषमलग्नपत्रणानिवहम् । राघवशरसंघातं वज्रमुखोत्खण्डितपक्षशेषमिव स्थितम् ॥] एवं जलसंक्षोभात्समुद्र जलप्रेरणादालग्नं तटे संबद्धं राघवशरसंघातं वहमानम् । कि भूतम् । विषमं यथा स्यात्तथा लग्नः पत्त्रणायाः पक्षरचनाया निवहो यत्र तम् । जलतटयोरभिघातात्पत्त्रणाभङ्ग इति भावः । उत्प्रेक्षते-इन्द्रस्य वज्रमुखेन उत्खण्डितं पक्षशेषमिव स्थितम् । तथा च भग्नपत्त्रणाविशिष्टो राघवशारो न भवति, किंतु वज्रखण्डितः सुवेलपक्षशेष एवेत्यर्थः । पत्त्रणायाः पक्षसाम्येन तद्वत्तया शरेऽपि तदुपचारोऽत एव तट एव त स्थिति रिति भावः ॥६५॥ विमला-राम के द्वारा समुद्र पर बाण चलाये जाने पर समुद्र-सलिल के सुब्ध हो जाने से वह (बाण ) आकर इस ( सुवेल ) के तट में घुसा, जिसे यह Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] सेतुबन्धम् [नवम ( अब तक ) वहन किये हुये है। उस (शर ) में विषम रूप से लगा हुआ पत्रसमूह ( तीर का पर ) ऐसा प्रतीत होता है कि मानों ( इन्द्र के ) वज्र से खण्डित इस ( सुवेल ) का पक्षशेष ही स्थित है ।।६।। करिकेसरियुद्धमाहकुम्भोवग्गणणिवडिप्रकरिहत्थक्व डिअसीह केसरभारम् । सहअरिविरुआअण्णणवलन्तभमरपरिवत्तिप्रल पाकुसुमम् ॥६६॥ [ कुम्भावक्रमणनिपतितकरिहस्तखण्डितसिंहकेसरभारम् । सहचरीविरुताकर्णनवलभ्रमरपरिवर्तितलताकुसुमम् ॥] एवं कुम्भयोरवक्रमणादतिक्रमणानिपतितेन करिणा हस्तेन खण्डितः सिंहस्य केसरभारो यत्र तम् । कुम्भारूढस्य केसरिणः केसरकर्तनं तलपतितेनापि करिणा करेण क्रियत इत्यर्थः । एवं सहचरीविरुतस्याकर्णनाद्वलता वक्रीभवता भ्रमरेण परिवतिसं लताकुसुमं यत्र तम् । विदूरस्थापि भ्रमरी सकामा यद्दिशि संज्ञाशब्दं करो ति परिचित्य तद्दिशा वलमानस्य मधुपस्याश्रयीभूतकुसुमपरिवर्तनमुत्कण्ठातिशयं व्यञ्जयतीति कामोद्दीपकत्वमुक्तम् ।।६६।। विमला यहाँ कुम्भस्थल पर ( सिंहकृत ) घातक आक्रमण से ( भूतल पर) गिरे हुए गज ने सूंड से (कुम्भारूढ ) सिंह के केसर ( गर्दन के बाल ) को पण्डिन कर दिया । भ्रमर ( सहचरी) भ्रमरी के शब्द को सुन कर (भाश्रयीभूत ) लताकुसुम को छोड़कर ( उस शब्द को ओर ) धूम पड़ा ।।६६।। चन्द्रकान्तसत्तामाहहिमसीमले वहन्तं पवमोमासविसमोससिमसे बाले । विप्रसासारक्खुडिए वरवसुआअसलिले ससिमणिप्पवहे ॥६७॥ [हिमशीतलान्वहन्तं पवनावमर्ष विषमोच्छ्वसितशैवालान् । दिवसासारखण्डितान् दरशुष्कसलिलाञ्शशिमणिप्रवाहान् ॥] एवं शशिमणीनां प्रवाहाञ्जलनिस्पन्दान् वहन्तम् । किंभूतान् । हिमवच्छीतलान् । एवं पवनस्यावमर्षेण संबन्धेन विषममुच्छ वसितानि किंचित्किचिच्चञ्चलानि शैवालानि यत्र नित्यं तज्जलसंबन्धादुत्पन्नानां शैवालानां पवनेन दरकम्पनमित्यर्थः । एवं दिवसस्यासारेण आगमनेन खण्डितान्विच्छिन्नान् । अत एव दरशुष्कानि सलिलानि यत्र तान् । चन्द्रकान्तस्य निशि जलोद्गमो दिवा शुष्कता भवतीति भावः । 'आसारः स्यात्प्रसरणे वेगाद्वर्षे सुहृ दबले' इति विश्वः ।।६७।। विमला यह ( सुवेल ) रात्रि में चन्द्रकान्त मणि से उद्गत जलप्रवाहों को धारण किए हुये है, जो हिम के समान' शीतल हैं, जिनमें ( जलसम्बन्ध से उत्पन्न) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३७७ (शैवाल) सेवार पवन से थोड़े-थोड़े कम्पित हैं, जो दिन के आगमन से विच्छिन्न, अतएव जिनमें जल कुछ सूख गया है ।।६७।। पारदसत्तामाहविसमल्ललिअपरिमले कमलिणिवत्तपरिघोलिरजलच्छाए। मरगअसिलाअलोवरि पवित्तपारअरसे समुद्दहमाणम् ॥६८।। [विषमोल्ललितपरिमलान्कमलिनीपत्रपरिघूर्णनजलच्छायान् । मरकतशिलातलोपरि प्रवृत्तपारदरसान् समुद्वहमानम् ॥] एवं मरकतशिलातलस्योपरि प्रवृत्तान् संगतान् पारदरूपान् रसान् समुद्वहनानम् । किंभूतान् । विषममुल्ललित उद्गतः परिमलो विमर्दो येषां तान् । परिमनः सौरभं वा । एवं कमलिनीपत्रे परिघूर्णमानस्य जलस्येव छाया कान्तिर्येषाम् । हरिद्वर्णत्वेन कमलिनीदलमरकतयोः, श्वैत्यादस्थिरत्वाच्च जलपारदयोः साम्यमित्युपमा ॥६८॥ विमला- यह ( सुवेल ) मरकत शिलातल के ऊपर संलग्न पारदरूप रसों को धारण किये हुये है, जिनका सौरभ कुछ-कुछ उद्गत है तथा जो कमलिनीपत्र पर हिलते-डुलते जल के समान सुशोभित हैं। विमर्श-हरे वर्ण के होने से कमलिनीपत्र तथा मरकत का एवं श्वेत और अस्थिर होने से जल तथा पारद का साम्य समझना चाहिये ।।६८॥ सूर्यसञ्चारक्रममाहप्रारुहइ व दिवसमहे उद्धामन्तुद्धमण्डलाउरतुरो। सममण्डलबोलीणो ओअर व विणावसाणम्मि रई॥६६॥ [ आरोहतीव दिवसमुखे उद्घावमानोर्ध्वमण्डलातुरतुरगः। सममण्डलव्यतिक्रान्तोऽवतरतीव यं दिनावसाने रविः ।।] रविदिवसमुखे यं पर्वतमारोहतीव प्रातः स्वाभाविक रवेरूर्ध्वगमनं देवादाधारी• भूतसुवेलस्योद्देश्य कतयोत्प्रेक्षितम् । तथा च सुवेलमारोहतीति प्रतिभासत इत्यर्थः । तदुक्तम्-उद्धवमानं वेगशालि यदूर्ध्वमूर्ध्वगामि मण्डलं तेनातुराः क्लिष्टास्तुरगा यस्य । भारवतामूर्वारोहणे श्रम एव भवतीत्याशयः। एवं समे सुवेलमूर्धनि समेन मण्डलेन व्यतिक्रान्तः सन् दिनावसाने सायमवतरतीव। यस्मादित्यर्थात् । पूर्ववदेव स्वभावसिद्धावतरणे तदवतरणत्वमुत्प्रेक्षितम् । तेन तस्माल्लम्बित इति प्रतीयत इत्यर्थः । एतेन चरमाचरमशैलापेक्षयाप्युच्चत्वं तावददूरदीर्घत्वं च सूचितम् । पाठान्तरे ऊर्ध्वायमानं यदर्धमण्डलं मण्डलस्योपरिभागस्तेनातुरतुरग इत्यर्थः ॥६६॥ विमला-प्रातः सूर्य ऐसा प्रतिभासित होता है कि मानों वह इस (सुवेल) पर चढ़ रहा है, जिसके घोड़े वेगशाली एवम् ऊर्ध्वगामी मण्डल से परिश्रान्त हो Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] सेतुबन्धम् [ नवम गये हैं एवं सन्ध्या के समय सुवेल के समतल शिरोभाग पर सम मण्डल से व्यतिक्रान्त होकर उतरता हुआ-सा प्रतिभासित होता है || ६ || तारकासंचारमाह छन्दन्ति जत्थ वन्थे णिसासु विसमपरिहारपरिभ्रत्तन्ता । कडएसु कउज्जोआ पुरश्रो बोलन्ततारबाहि वणरा ॥७०॥ [ क्षुदन्ति यत्र पथो निशासु विषमपरिहारपरिवर्तमानाः । कटकेषु कृतोयोताः पुरतो व्यतिक्रान्ततारकाभिर्वनचराः ॥ ] यत्र पर्वते वनचरा निशासु पथः क्षुदन्ति व्यतिक्रामन्ति । किंभूताः । कटकेषु विषमस्य प्रदेशस्य परिहाराय त्यागाय परिवर्तमानाः । एवं पुरतो व्यतिक्रान्ताभिर्गच्छन्तीभिस्तारकाभिः कृतोयोता: । अन्योऽपि निशि परिभ्राम्यन् पुरोगामिदीपको योतेन गच्छतीति ध्वनिः । तारकावनचरयोस्तुल्य वत्सश्वार इत्युक्तम् ॥७०॥ विमला - - इस सुवेल पर्वत पर वनचर रात में कटक ( उपत्यका भाग ) के विषम प्रदेश को छोड़ने के लिये घूमते हुये, आगे-आगे चलती तारकाओं के प्रकाश से अपना मार्ग तय करते हैं ||७० || चन्द्रसञ्चारमाह पिश्श्रअमविओइश्श्राणं जत्थ न सिहर मिलिअं चिलाश्रवणम् । बोलेइ बाहमइलिअकुसुमज्ञ्जलिसमुअता डिअं ससिबिम्बम् ॥ ७१ ॥ [ प्रियतमवियोजितानां यत्र च शिखरमिलितं किरातवधूनाम् । व्यतिक्रामति बाणमलिनितकुसुमाञ्जलिसंमुखताडितं शशिबिम्बम् ॥ ] यत्र च पर्वते शिखरे मिलितं शशिबिम्बं प्रियतमेन वियोजितानां विश्लेबितानां किरातवधूनां बाष्पेण श्वासेन अश्रुणा वा मलिनितो यः कुसुमाञ्जलिस्तेन संमुखेऽग्रतः ताडितं सत् व्यतिक्रामति । गच्छतीत्यर्थः । अञ्जलिसमूहेन ताडितमिति वा । विरहिणीनां व्यवहितोऽपि चन्द्रस्तापकः, किं पुनरतिसंनिहित इति हृदयावेगोद्गतश्वासम लिनेन तापशान्त्यर्थमानीतेनापि पुष्पेणानुषङ्गिकं चन्द्रलाडनमित्यर्थः ॥ ७१ ॥ विमला - इस पर्वत पर शिखर से मिला हुआ चन्द्रमण्डल, प्रिय से वियुक्त किरातवधुओं के ( सन्तापशान्त्यर्थं लाये गये किन्तु ) बाष्प ( श्वास अथवा अश्रु ) से मलिन कुसुम - समूह से सामने प्रताडित होता जाता है ॥ ७१ ॥ गगनतोल्यमाह गहअलं व गहसोहिअं सवित्राणअं सिहररुद्धख अमारुअरहसविआणअम् । रणसिहर किरणग्गमेहि घणराअअं दरिमहेसु गुप्पन्तसीघणरा अश्रम् ॥७२॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३७६ [ नभस्तलमिव ग्रहशोभितं सविमानकं शिखररुद्धक्षयमारुतरभसविमानदम् । रत्नशिखरकिरणोद्गमैर्घनरागदं दरीमुखेषु व्याकुलायमानसिंहधनरावकम् ॥] किंभूतम् । नभस्तलमिव ग्रहैनक्षत्रः शोभितम् । उच्चत्वात् । एवं विमानं व्योमयानं तत्सहितम् । वितानं विस्तारस्तत्सहितं वा । यद्वा सविमानम् विगतं मानं यस्य । तद्भावो विमानता तत्सहितम् । अपरिमेयमित्यर्थः । स विमानगं वा । विमानगा देवास्तत्सहितम् । सर्वमिदं द्वयोरप्यन्वेति । एवं शिखरै रुद्धो यः प्रलयमारुतस्तद्रभसस्य तद्वेगस्य विमानदमपमानदम् । प्रसरभञ्जकत्वात् । अपमाननाकर्तारं वा। वितानदं वा । मारुतरभसवितानस्य तत्समूहस्य खण्डकमित्यर्थः । एवं रत्न शिखराणां किरणोद्गमैर्घनेभ्यो मेघेभ्यो रागदं लौहित्यदम् । पद्मरागादिकान्तिसंक्रमात् घनो रागोऽनुरागो यत्र । रत्नादि एव तादृशं वा। वस्तुतस्तु रत्नशिखरकिरणोग्रम् । रत्नशिखराणां किरणेन दिशि दिशि प्रसारणेन उपमुद्भटम् । एवमेधिघन राजकम् । एधः समृद्धिस्तद्विशिष्ट एधी, एधिनी समृद्धौ धनौ मेघौ राजानौ वा यत्र तादृशं के मस्तकं यस्य तम् । तयोः समत्वात् । एवं कंदरामुखेषु व्याकुलायमानो विमूर्छनशीलः सिंहस्य घनो रावो नादो यत्र तम् । प्राशस्त्ये कन् ॥७२।। विमला-यह ( सुवेल ), गगनतल के समान, ग्रहों से शोभित एवं (विमान) व्योमयान से युक्त है। यह रत्नमय शिखरों के उद्गत किरणों से मेघों को लाली प्रदान करता है तथा इसकी कन्दराओं में सिंह के व्याकुलायमान गम्भीर गर्जन की ध्वनि होती है ॥७२॥ व्यापकत्वमाह जम्मि समस ब्य विसा झोण व्व मही कावसाणं व णहम् । प्रथमिश्रो व्व समुद्दो पढें व रसाप्रलं जिसण्णं व जअम् ।।७३।। [ यस्मिन्समाप्ता इव दिशः क्षीणेव मही कृतावसानमिव नभः । अस्तमित इव समुद्रो नष्टमिव रसातलं निषण्णमिव जगत् ॥ ] यस्मिन्पर्वते दिशः समाप्ताः पर्याप्ता इव । तद्वयतिरेकेणान्यत्रानवलोकनात् । मही क्षीणेव क्षुद्रेव । नितम्बपर्याप्तत्वात् । नभः कृतावसानमिव । कृतमवसानमन्तो यस्येत्यर्थः । यावदाकाशस्य तेनैव व्याप्तत्वेन व्यवच्छेद्यवृत्त्यभावात । अस्तमित इव समुद्रः। बृहत्कटकाक्रान्तत्वेन कंदरान्तर्गतत्वेन चादृश्यमानत्वात् । रसातलं नष्टमिव । बृहन्मूलावष्टन्धत्वात् । जगन्निषण्णमिव । मूलमौलिपार्श्वेषु पर्यवसितत्वात् ॥७३॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०] सेतुबन्धम् [नवम विमला-इस ( सुवेल ) पर दिशायें समाप्त-सी, मही क्षीण-सी लगती है, आकाश का मानों अन्त कर दिया गया है, समुद्र अस्तंगत-सा, रसातल नष्ट-सा तथा जगत् पीडित-सा लगता है ॥७३॥ विकटकूटतामाह जस्स सिहरेसु बहसो वलन्ति वलमाणज प्रवलन्तक्खन्धा। भीआरुणपरिवत्तिअघोणाघोलन्तचामरा रइतुरआ ॥७४।। [ यस्य शिखरेषु बहुशो वलन्ति वलमानयुगवलत्स्कन्धाः। भीतारुणपरिवर्तितघोणाघूर्णमानचामरा रवितुरगाः ॥] रवितुरगा यस्य शिखरे बहुशो वलन्ति वक्रीभवन्ति । किंभूताः । वलमानेन विकटप्रदेशे लगित्वा वक्रीभवता युगकाष्ठेन वलन्तो वक्रीभवन्तः स्कन्धा येषां ते । वक्रयुगाक्रान्तत्वात्स्कन्धस्य वक्रत्वमिति भावः । अत एव स्कन्धयुगभङ्गाद्रावणाद्वा भीतारुणेन सारथिना परिवर्तिता ऋजुमार्गलाभाय भ्रामयित्वा पश्चात्कृता अत एव घोणायां घूर्णमानं चामरं येषाम । तियंङ्मुखतया चामरभ्रमणमिति भावः । 'घोणा तु प्रोथमस्त्रियाम्' इति ॥७४।। विमला-इस ( सुवेल ) के शिखरों पर सूर्य के घोड़े प्रायः वक्र हो जाते हैं, क्योंकि ( विकट प्रदेश में लगकर ) वक्र हुये ( युग ) जुए से ( आक्रान्त ) कन्धा वक्र हो जाता है, अतएव ( जुए के टूट जाने के भय से ) डर कर सारथि अरुण ( रथ को सरल मार्ग पर लाने के लिये) उन्हें पीछे की ओर घुमाता है और ऐसी स्थिति में मुंह के मुड़ने से उनका चामर ( गर्दन के बाल ) नथुने पर डोलता रहता है ।।७४॥ ज्योतिर्लोकसत्तामाह दीसन्ति जोइसवहे णिसासु वोढूण कुसुमणिवहं व जहि । गहिअपढमुच्चआइ व पहाप्रवोच्छिण्णतारपाइ वणाई ॥७॥ [ दृश्यन्ते ज्योतिःपथे निशासूढ्वा कुसुमनिवहमिव यत्र । गृहीतप्रथमोच्चयानीव प्रभातव्यवच्छिन्नतारकानि वनानि ।।] यत्र गिरी ज्योतिःपथे नक्षत्रलोके प्रभाते व्यवच्छिन्ना रविरोचिषाभिभवाद्विरलास्तारका यत्र तथाभूतानि वनानि दृश्यन्ते । कानीव । कुसुमनिवहमूवेव धृत्वेव । निशासु गृहीतः प्रथमोच्चयः प्रथमत्रोटनं येषु तातीव । पुष्पाणां प्रथमावचये किंचिदव शिष्टं तिष्ठत्येवेति । निशायामेव किंचिद्धत्वा किंचिद्गृहीतमिति प्रभाते शाखापत्रान्तरालदृश्याः कतिपयतारकाः पुष्पतुल्यतया तथोत्प्रेक्षिताः । तथा च द्वितीयाअचय इव मध्यदिने ता अपि न स्थास्यन्तीत्युच्चत्वमुक्तम् । यद्वा निशासु कुसुम निवहं Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वास: ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३८१ भृत्वेव गृहीतप्रथमोच्चयानीव । अवचयशब्दस्यावचितार्थकत्वेन गृहीतप्रथमावचितानि निशासु धृत्वा प्रभाते त्रोटितपुष्पाणीत्यर्थः ॥ ७५ ॥ | विमला - इस ( सुवेल ) पर नक्षत्रपथ में वन दृश्यमान होते हैं, जिनमें प्रभात के समय तारे विरल हैं, अतएव मानों वे ( वन ) कुसुम धारण किये हैं, जो रात में ही कुछ चुन लिये गये और कुछ छोड़ दिये गये (वे ही छोड़ दिये कुसुम शाखाओं भौर पत्तों के बीच-बीच में प्रातः दिखायी दे रहे हैं ) ||७५ || महिषाणां निद्रामाह जस्थ अ गमेति णिद्द णिसासु णीसासविहुअपेलवजलआ । चन्दपरिमासपअडिअस सिमणिसलिलोज्झराहश्रा वनमहिसा ||७६ ॥ [ यत्र च गमयन्ति निद्रां निशासु निःश्वासविधुतपेलवजलदाः । चन्द्रप्रतिमर्ष प्रकटितशशिमणिसलिलनिर्झ राहता वनमहिषाः ॥ ] यत्र च पर्वते वनमहिषा निशासु निद्रां गमयन्ति अतिवाहयन्ति । किंभूताः । चन्द्रस्य प्रतिमर्षेण स्पर्शेन प्रकटितं यच्चन्द्रकान्तमणिसलिलं तस्य निर्झरेण आहताः स्पृष्टाः, अत एव निःश्वासेन विधुता दूरं प्रेरिताः पेलवाः कोमला : जलदा यैः । प्रेरणे पेलवत्वं हेतुः । तथा च दिवा संनिहितर विसंतप्ततया निशि तथाविधशैत्यलाभान्निवृत्य निद्राधिक्यं निःश्वासप्रकर्षेण सूचितम् ॥ ७६ ॥ विमला - इस ( सुवेल ) पर वन के भैंसे ( जो दिन में समीपवर्ती सूर्य से सन्तप्त हुए रहते हैं ) रात में चन्द्रमा का स्पर्श पाकर चन्द्रकान्तमणि से प्रकट हुए जल के निर्झर के स्पर्श से ( शीतलता पाकर ) खूब गहरी नींद सोते हैं और उस समय अपने निःश्वासों से कोमल जलदों को ढकेल कर दूर हटा देते हैं ॥७६॥ महौरगसत्तामाह जत्थ प्र सिहरावडिअं वलइ सिलाभित्तिविसमपासल्ल इअम् । भुअ इन्वमणिणि हंसणपण ठउज्जोअसंच अं ससिबिम्बम् ॥७७॥ [ यत्र च शिखरापतितं वलति शिलाभित्तिविषमपार्श्वायितम् । भुजगेन्द्रमणि निघर्षणप्रणष्टोद्दघोतसंचयं शशिबिम्बम् ॥ ] यत्र च गिरी शिखरे आपतितं सच्छशिबिम्बं वलति । अप्रतिहतपथलाभाय भ्रमति । किंभूतम् । शिलाभित्तो विषमं यथा स्यात्तथा पार्श्वयितं तिर्यग्विवृत्तम् । पुरतः प्रतिरोधादित्यर्थः । एवं तत्रैव भुजगेन्द्र मणेनिघर्षणेन प्रणष्ट उद्योतानां संचयो यस्य तत् । तथा च शशितेजोऽभिभावक तेजः शालितया चन्द्रादपि फणामणेराधिक्यमुक्तम् ॥७७॥ विमला - इस ( सुवेल ) के शिखर पर आकर चन्द्रमण्डल ( प्रतिरोधरहित Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] सेतुबन्धम् [ नवम मार्ग पाने के लिये ) घूमता रहता है । वह ( सामने प्रतिरोध होने से ) शिलाभित्ति पर कुछ तिरछा मुड़ जाता है और वहीं विशाल सर्पों की मणियों के तेज से अभिभूत हो उसका तेज नष्ट हो जाता है ||७७|| कम्पोत्कर्षमाह ग्रामोइअपानालो जस्स खउत्पाअकम्प णिद्दअविहुश्रो । पव्वालेइ महिअलं श्रवलिच्छि असेससानरो मरहरो || ७८ ॥ [ आमोचिपातालो यस्य क्षयोत्पातकम्पो निर्दयविधुतः । प्लावयति महीतलमप्रतिष्ठशेषसागरो मकरगृहः ॥ ] 1 क्षयः प्रलयः तद्रूपोत्पातकृतकम्पः येन । निर्दयं विधुतः आन्दोलितः । मकरगृहः समुद्रो यस्य महीतलं तटभूमि प्लावयति । किभूतः । आमोचितं त्यक्तं पातालं येन । कम्पकृतोच्छलनात् तथा च विश्वव्यापनक्ष मोऽप्येतत्कृतप्रतिरोधादन्यत्र गन्तुं न शक्नोतीति भावः । तदुक्तम् - अप्रतिष्ठा अनासादिताः शेषसागरा येन । एतत्कृव्यवधानादेवेति तुङ्गत्वदृढत्वदृढमूलत्वानि कथितानि । वस्तुतस्तु यस्य क्षयोत्पातकं येन विधुतः समुद्रो महीतलं प्लावयतीत्यन्वयः । तथा च सागरान्तरनैरपेक्ष्येणापि प्रलये महीं यद्वाप्नोति तत्सुवेलकम्पादुच्छलितः सन्नित्युत्प्रेक्षितम् । तेन समुद्रक्षोभ'जनक कम्पाधारत्वेन महत्त्वमुक्तमिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥ ७८ ॥ विमला - इस ( सुवेल ) के प्रलयकृत कम्पन से निर्दयतापूर्वक आन्दोलित किया गया समुद्र, पाताल त्याग कर ( अत्यन्त वेग से उछल कर ) सुवेल के महीतल ( तटभूमि ) को प्लावित करता है तथा ( इस सुवेल के व्यवधान से ही ) - समुद्र शेष सागरों तक नहीं पहुँच पाता है ॥ ७८ ॥ मेघसिंहयोः सहावस्थितिमाह जत्थ भमन्ति हंकुस सिहरसमासण्णमुहलकड्ढिअजलआ । मुहपडिप्रविज्जु मण्डलवर पज्ञ्जलि अधुअकेसरा केसरिणो ॥७६॥ [ यत्र भ्रमन्ति नखाङ्कुश शिखरसमासन्नमुखरकृष्टजलदाः । मुखपतितविद्युन्मण्डलदर प्रज्वलितधुतकेसराः केसरिणः ॥ ] यत्र केसरिणः सिंहा भ्रमन्ति । किंभूताः । अङ्कुशाकारनखशिखरे समासन्ना लग्ना: । विद्धत्वात् । अत एव मुखराः पीडावशेन शब्दायमानाः सन्त आकृष्टा जलदा यैः । अत एव संमुखतया मुखे पतितेन विद्युन्मण्डलेन किचित् प्रज्वलिता अत एव धुताः केसरा यैस्ते । तथा च करिभ्र मान्नखविपाटितजलधरोदर निर्गत विद्युज्ज्वलितानां केसराणां निर्वापणाय यथा यथा पतनं तथा तथाधिकमग्न्युत्ते जनम् । अतः परिभ्रमणमिति भावः ॥७६॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३८३ विमला-यहां सिंह मेघों को ( गज समझ कर) विदीर्ण करते हैं । उस समय वे ( मेघ ) सिंहों के अङ्कुशाकार नखाग्र भाग पर लगे हुये, (पीड़ा के कारण) चिल्लाते हैं और सिंह उन्हें खींचते हैं, अतएव सिंहों के मुंह पर गिरे हुये विबुन्मण्डल से उनके गर्दन के बाल कुछ जलने लगते हैं और वे उन्हें (बुझाने के लिये) हिलाते हुए इधर-उधर भ्रमण करते हैं ।।७।। हरि चन्दनेषु गज स्थितिमाह प्रोज्मरमज्जणसुहिमा अस्थ पुणो वि दिवसाअवकिलिम्मन्ता । णिव्याअन्ति णिसण्णा खन्धुग्घठहरिचन्दणदुमेसु गआ॥५०॥ [निर्झरमज्जनसुखिता यत्र पुनरपि दिवसातपक्लाम्यमानाः । निर्वान्ति निषण्णाः स्कन्धोद्धृष्टहरिचन्दनद्रुमेषु गजाः ॥] यत्र गजा: स्कन्धेषु प्रकाण्डेषु स्कन्धेन स्वांसेन वा उद्धृष्टाः कण्डूमार्जनाय कृतघर्षणा ये हरिचन्दनद्रुमास्तेषु निषण्णाः सन्तः शैत्यानिन्ति सुखीभवन्ति । किंभूताः । निर्झरेषु मज्जनेन सुखिताः पुनरपि दिवसातपेन क्लान्ति नीयमानाः । तथा च प्रथमतापेन मज्जनं तदनुतापेन छायाश्रयणमिति सर्वथा सुखजनकलमुक्तम् । 'निर्वाणमस्तं गमने निर्वृतौ जलमज्जने । निर्वाणमपवर्गेऽपि निर्वाणं निति विदुः ॥' इति धरणिः ।।८०॥ विमला यहाँ गज निझरों में मज्जन कर सुखी हो चुके हैं, फिर भी दिन की धूप से क्लान्त होकर चन्दन वृक्षों की छाया में आकर ( खुजली मिटाने के लिये उनके वनों में कन्धे रगड़ कर बैठते हैं और सुखी होते हैं ॥८॥ रविगतागतमाहजत्थ अ भमिरमहुअरं कामलालग्गधवलचामरपम्हम् । ससिउद्धअकुसुमर णज्जइ तुरिआण रइतुरंगाण गमम् ॥८॥ [ यत्र च भ्रमणशीलमधुकरं कटकलतालग्नधवलचामरपक्ष्मम् । श्वसितोघृतकुसुमरजो ज्ञायते त्वरितानां रवितुरङ्गाणां गतम् ॥] यत्र च दक्षिणायने त्वरितानां रवेस्तुरङ्गाणां गतं ज्ञायते । कथमित्याह-किभूतम् । कटकलतासु लग्नानि धवलानि चामराणामर्थात्कण्ठादिनिबद्धानां पक्ष्माणि रोमाणि यत्र । अत एव तत्संघट्टाद्भरि भ्रमणशीला मधुकरा यत्र । लतावर्तिन एवेत्यर्थात् । एवं श्वसितेन हयानामेव उद्भूतमुत्थापितं कुसुमानां रजो यत्र लतानामेव । तथा चोड्डीनमधुकरचामरपक्ष्मकुसुमपरागोदगमैरेवानुमीयते रविरनेन पथागत इति । न तु दृश्यते । कुञ्जकंदरादिवशादिति भावः । पक्ष्म सूत्रादिसूक्ष्मांशे किल्के नेत्रलोमनि' इति विश्वः ।।८१॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] सेतुबन्धम् [ नवम विमला – यहाँ वेगवान सूर्य के घोड़े ( कुञ्जकन्दरादि के कारण दिखाई नहीं पड़ते ) इस मार्ग से गये हैं, केवल इतना ही जाना जाता है, क्योंकि मधुकर भ्रमणशील हो रहे हैं, उपत्यका की लताओं में उनके चामरों के धवल रोम ( उलझ कर ) लगे हुये हैं तथा उनकी साँसों से कुसुमपराग उड़ रहे हैं ।। १।। सुरबन्दीसत्तामाह अजणराएण सह धूसरन्तनाई गण्डलेख लिअ विसमोरन्तनाई । सुरबन्दीण णत्रणगलिआई अंसुनाई कम्पलग्राण जत्थ मइलेन्ति अंसुआई ॥८२॥ [ अञ्जनरागेण सदा धूसरायमाणानि गण्डतलेषु स्खलितविषमापसरन्ति । सुरबन्दीनां नयनगलितान्यभ्रूणि कल्पलतानां यत्र मलिनयन्त्यंशुकानि ॥ ] यत्र सुरबन्दीनां रावणेन बन्दीकृत्य स्थापितानां देवस्त्रीणां नयनयोर्गलितान्यश्रूणि । कर्ता णि । कल्पलतानामंशुकानि वस्त्राणि मलिनयन्ति । सकल पदार्थाकरत्वेन तत्र वस्त्राणामपि सत्त्वात् । तैरेवाश्रु प्रोञ्छनात् सांनिध्येनाभ्रूणां स्वत एव पतनाद्वेति भावः । कथमित्यत आह- अश्रूणि किंभूतानि । अञ्जनस्य रागेण वर्णेन सदा धूसरायमाणानि । कज्जलसंपर्काद्धूसरच्छवीनीत्यर्थः । धूसरोऽन्तः स्वरूपं येषामिति वा । अत एव मालिन्यहेतुत्वमिति भावः । सकज्जलाश्रु संपर्कादुभयथाप्यंशुक विशेषणं वा । पुनः किंभूतानि अश्रूणि । विरहात्संतापाच्च दौर्बल्यान्नतोन्नतत्वेन गण्डतलेषु स्खलितानि सन्ति विषममपसरन्ति । दिशि दिशि पतन्तीत्यर्थः ॥ ८२ ॥ विमला - यहाँ ( रावण द्वारा ) बन्दी बना कर रक्खी गयीं सुरबालाओं के नेत्रों के आँसू, जो अञ्जन के वर्ण से धूसर वर्ण हैं तथा उनके कपोलों पर गिर कर वहाँ से चारों ओर गिरते हैं, कल्पलताओं के वस्त्रों को मलिन करते हैं ( क्योंकि जहाँ सकलपदार्थों की सत्ता है वहां वस्त्र भी हैं और उनसे आसुओं का पोंछा जाना अथवा सामीप्य के कारण उन पर उनका स्वतः गिरना स्वाभाविक है ) ॥८२॥ देयत्कर्षमाह- एक्कसिहरे समप्पइ जस्स न सोसविअमलिअदुमसंघाओ । सह दक्खिणुत्तरा अणणहगमनागमण विल लिओ रइवन्थो ||८३|| [ एकशिखरे समाप्यते यस्य च शोषितमृदितद्रुमसंघातः । सदा दक्षिणोत्तरायणनभोगमनागमनविलुलितो रविपथः ॥ ] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३८५ यस्य चैकस्मिन्नेव शिखरे रविपथः समाप्यते सदा । कीदृक् । दक्षिणोत्तरायणाभ्यां नभसि गमनागमनेन विलुलितः घृष्टः । तथा चायनद्वयेऽप्यध्वनां मिथो व्यवधानोत्कर्षेऽप्येक शिखर एव सदा पर्यवस्यतीति शिखरस्य बृहत्त्वम् । पुनः कीदृक् । शोषितः सन्मृदितो द्रुमाणां संघातो यत्र । नित्यसंचारादिति भावः ॥३॥ विमला-सूर्य का पथ, जो सदा दक्षिणायन तथा उत्तरायण दोनों अयनों के द्वारा आकाश में ( सूर्यरथ के ) यातायात से घिस पिट उठा है एवं जिसमें वृक्ष शुष्क कर दिये तथा कुचल दिये गये हैं, इस (सुवेल ) के एक ही शिखर में समाप्त होता है ॥८३॥ वृद्धिमाह जेण भरभिण्णवसहं अफण्णरसाअलं समोत्थइअणम् । सवदिसाविच्छूढं परिवड्ढन्तेण वढि व तिहुअणम् ।।८४॥ [ येन भरभिन्नवसुधमाक्रान्तरसातलं समवस्थगितनभः । सर्वदिग्विक्षिप्तं परिवर्धमानेन वर्धितमिव त्रिभुवनम् ॥] परि सर्वतो भावेन वर्धमानेन येन गिरिणा त्रिभुवनं वधितमिव । दूरदेशव्यापिकृतमित्यर्थः । तदुपपादयति--किंभूतम् । येन गिरिणा भरेण देहपरिणाहेन भिन्ना वसुधा यत्र । आ मूल निखातत्वात् । अथ येन आक्रान्तं रसातलं यत्र । मूल विस्तारात । तथा येन समवस्थ गितमतिव्याप्तं नभो यत्र । शिरसो महत्त्वात्तथाभूतम् । अत एव सर्वासु दिक्षु विक्षिप्तं प्रेरितम् । तथा चोपरि शिखरसमृद्धया नभः समुत्तोलनं परितो मूलस्थौल्येन पृथिव्याः प्रसारणमधस्ताच्च मूलवृद्धया पातालयन्त्रणमित्येवं क्रमादेकस्यैव त्रैलोक्यप्रेरणक्षमत्त्वेन महत्त्वमुक्तम् ॥२४॥ विमला-इस सुवेल ने अपने भार से पृथिवी को विदीर्ण कर दिया है, ( मूलविस्तार से ) रसातल को आक्रान्त कर लिया है तथा (ऊवं भाग के विस्तार से ) आकाश को आच्छादित कर लिया है, अतः मानों सब ओर बढ़ते हुये इसने त्रिभुवन को बढ़ा दिया है ॥४॥ सदा सर्वर्तु सत्तामाहगन्धावद्धमपरा वसन्ति जत्थ सम सुरअणाणुगमा । अण्णोष्णं पडिऊला एक्कक्खम्भल्लिासरगम व्व उदू ॥८॥ [ गन्धाबद्धमधुकरा वसन्ति यत्र समकं सुरवनानुगताः । __ अन्योन्यं प्रतिकूला एकस्तम्भनिगलितसुरगजा इवर्तवः ॥] यत्रान्योन्यं प्रतिकूलाः परस्परविरुद्धा अपि ऋतवः सममेक दैव सन्ति । रावणप्रभावाद्देशभेदाद्वा । एवं एक स्तम्भनिगलिताः सुरगजा इव । यथा ते मिथो विरुद्धा अपि वसन्तीत्यर्थः । उभये किंभूताः। गन्धेन सौरभेण, ऋतुपक्षे-पुष्पस्य, २५ से० ब० Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६] सेतुबन्धम् [ नवम गजपशे-दानस्य, आबद्धाः संबद्धा मधुकरा यस्ते । ऋतुपक्षे-गन्धानद्धमधूनां कर्तार इत्यप्यर्थः । एवं सुरवनेन नन्दनादिनानुगतास्तत्सहितास्तान्यपि वसन्तीत्यर्थः । यद्वा सुरजनानुगताः। सुरगणानुगता वा । सुरवनानुगता वा। सुरवनं शोभननाट्यादि । सुरचनानुगता वा । रचना संस्थानविशेषः । सर्वत्र तृतीया समास इति ऋतुपक्षे । गजपक्षेऽपि सर्वमिदं समानमेव । सुरवनमनुगता आश्रिता इति विशेषः । सुरलानुगता इत्यधिकम् । सुरलेन मुक्ताफलेनानुगता इत्यर्थः। वयं तु-एकस्तम्भे सुबेल एव निगलिताः सुरगजा इव यत्र ऋतवो वसन्तीति सहोपमा। तथा च यथा दिग्गजा इह वसन्ति तथा ऋतवोऽपीत्यर्थः । तेन नानादिग्वतिसकल दिग्ग. जाधिकरणत्वेन महत्त्वम्' इति ब्रूमः ॥८॥ विमला-इस सुवेल पर्वत पर एक ही खम्भे में बँधे सुरगजों के समान परस्पर विरुद्ध ऋतुयें भी एक ही साथ बर्तमान रहती हैं, जिनके (१-पुष्प के, २-मद के ) सौरभ से मधुकर आबद्ध हैं तथा जो सुरवनों के आश्रित हैं ॥८॥ शिखरोच्चतामाह दोसइ वि वलाअन्तो जत्थ समासण्णवहमुहभप्राविग्गो। सिहरन्तरालपटिलग्गमोइमाणिक्कमण्डलो दिवसअरो॥८६॥ [ दृश्यतेऽपि पलायमानो यत्र समासन्नदशमुखभयाविग्नः । शिखरान्तरालप्रतिलग्नमोचिततिर्यमण्डलो दिवसकरः ।।] यत्र दिवसकरोऽपि पलायमानो दृश्यते । कुत इत्यत माह-समासन्नो निकटवर्ती दशमुखस्तद्भयादाविग्न उद्विग्नः । एवम्-शिखरयोरन्तराले मध्ये प्रतिलग्नं सन्मोचितं संमुखीकृतं तिर्यग्भूतं मण्डलं येन । अन्योऽपि पलायमानः कण्टकादिलग्नं वस्त्रादि यथातथा मोचयित्वा गच्छतीति ध्वनिः । आणिक्क तिर्यगर्थे देशी ॥८६॥ बिमला-इस सुवेल पर्वत पर निकटवर्ती रावण के भय से उद्विग्न हो सूर्य, दो शिखरों के बीच में उलझ कर टेढे हुये अपने मण्डल को ( किसी तरह ) छुड़ा कर भागता हुआ दिखाई देता है।॥८६॥ किंनराणां गानमाह जत्थ प्रमिआण मणहरकिणरगीप्रसुहिनोणिभिल्लच्छाणम् । विसमिअरोमन्थाणं एइ विउद्धं चिरेण रोमं स्थाणम् ॥८७॥ [ यत्र च मृगाणां मनोहरकिंनरगीतसुखितावमीलदक्षाणाम् । विश्रमितरोमन्थानामेति विबुद्ध चिरेण रोम स्थानम् ॥] यत्र च मनोहरेण किंनराणां गीतेन गानेन झुखितानाम्, सुहितानां तृप्तानां वा, अत एव सुखवशादवमीलती मुकुलायमाने अक्षिणी येषां तथाभूतानां सतां विबुद्धं भाववशादुत्फुल्लं रोम कर्तृ चिरेण स्थानं एति पूर्वावस्थां प्राप्नोति सुख Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३८७ स्याधिकसमयव्यापित्वादिति भावः । कीदृशानाम्-विश्रामं नीतो रोमन्थोऽलीकचर्वणं यः । भावनास्वाभाव्या द्विस्मृतरोमन्थानामिति वा । विषमितरोमन्थानामिति वा । विषमितोऽन्तरान्तरा विच्छेदित इत्यर्थः ।।७।। विमला-इस ( सुवेल ) पर्वत पर किन्नरों के मनोहर गीत से सुखी मृग सुख के कारण आधी आँख मूंदे हुये जुगाली करना बन्द कर देते हैं एवं ( सुख के कारण ) उत्फुल्ल हुये उनके रोम अपनी पूर्व अवस्था को चिरकाल में प्राप्त होते हैं ॥८७॥ सदा कुमुद विकासमाह-- तीरपवित्तमुहलकलहंसरोग्रएसुं कुविअगइन्दबद्धकलह सरोग्रएस। कुमु अवणाण जत्थ णहप्रन्दलग्गआणं रविअरदसणे विण हों दलग्गग्राणम् ॥८॥ [ तीरप्रवृत्तमुखरकलहंसरोचकेषु कुपितगजेन्द्रबद्धकलहं सरोवरेषु (सर उदकेषु,उदरेषु, वा)। कुमुदवनानां यत्र नभश्चन्द्रलग्नानां रविकरदर्शनेऽपि न हतं दलाग्रतानम् ] यत्र गिरी सरः कर्तृ उदकेषु, उदरेषु वा जलपानार्थमागाताभ्यां कुपिताभ्यां गजेन्द्राभ्यां बद्धः कलहो यत्र तज्जातयुद्ध मित्यर्थः । तथाभूतं तिष्ठतीत्यर्थात् । कथंभूतेषु । तीरप्रवृत्तस्तीरसंचारिभिः मुखरकलहंसै रोचकेषु रुचिकारकेषु । तेषां रोचकेष्विति वा । एवं यत्र कुमुदवनानां दलानेषु तानं विकासो रविकराणां दर्शनेऽपि सूर्योदयेऽपि न हतं नापगतमित्यर्थः । अत्र हेतुमाह--किंभूतानाम् । नभसि चन्द्रे लग्नानां मिलितानाम् । तथा च मुद्रणसामग्रीसत्त्वेऽपि नित्यं विकाससामग्रीसत्त्वं सूर्यादप्युपरिवर्तित्वं च कुमुदानां चन्द्रमिलनेनोक्तम् ।। [ तदुक्तम् ] रविकरस्य दर्शनमात्रम्, अत एव दर्शन मिलनयोमिलनस्य बलवत्त्वात्कार्यो विकासो भवति, न तु दर्शनकार्य मुद्रण मिति भावः । यद्वा सरोवरेषु कुमुदवनानां दलाग्रतानं न हतम् । किंभूतम् । गजेन्द्राभ्यां बद्धः कलहो यस्मै तथाभूतम् । एकमेव कुमुदं ग्रहीतुमुद्यतयोर्युद्ध मित्यर्थ इति मद्वयाख्या। संप्रदायस्तुसरोवरेषु कुपितगजेन्द्रबद्ध कलहमिति वा सुवेलविशेषणं 'यत्र गिरौ' इत्यग्रेतनेन संबन्धि–इति ब्याचष्टे ॥८॥ विमला-इस ( सुवेल ) पर्वत पर तीरसञ्चारो मुखर कलहंसों से रोचक परवरों में कुमुद वनों का विकास आकाश में चन्द्रमा से लगे होने के कारण, रवि Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] सेतुबन्धम् [ नवम सूर्य की किरणों का दर्शन होने पर भी नष्ट नहीं होता तथा उन कुमुदों के (तोड़ने के ) लिये ( स्पर्धावश ) क्रुद्ध हुये गजराजों में कलह मच जाती है ।1८८॥ शेषनागावष्टम्भतामाह वलमाणम्मि महमहे जत्थ अ पाउछलन्तरअणज्जोअम् । विअडं फणपन्भारं गाढभरुत्ताणि णिमेइ अणन्तो ॥८६॥ [ वलमाने मधुमथने यत्र च पादोच्छलद्रत्नोड्योतम् । विकटं फणप्राग्भारं गाढभरोत्तानितं नियोजयत्यनन्तः ॥] अनन्तः शेषः फणाशयाने मधुमथने वलमाने कृतपार्श्वपरिवर्तने सति गाढभरेण विश्वंभर (श्वभार)गौरवेणोत्तानीकृतं विकटं महान्तं फणप्राग्भारं यत्र गिरौ नियोजयति पतनभयेन यन्मूले(न) अवस्थापयतीत्यर्थः । किंभूतम् । पादेषु प्रत्यन्तपवतेषच्छलद्रत्नानामुद्द्योतो यस्मात्तम् । फणस्योत्तानीभावात् । तथा च पादपर्वता अप्यस्यापातालमूलाः। अयं च विश्वंभरा विश्वंभरभारेऽप्यनन्तस्यावष्टम्भ इति भावः ॥ फणानामुत्तानीभावेन तन्मणीनामधःपतितत्वेत तत्कान्तीनां फणाभिरेव व्यवधानादूर्ध्वगमनागमने सुवेलस्यैव पादे मूले उछलनमिति तावदूरमूलकत्वमस्योक्तमिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥८६॥ विमला-( शेषशय्या पर सोये हुये ) विष्णु जब करवट बदलते हैं तो उनके महान् भार से शेषनाग का फन उलट जाता है और मणियों के नीचे गिरने से उनका प्रकाश सुवेल पर्वत के पादभाग ( जो पातालव्यापी हैं ) पर पड़ता है। ऐसी स्थिति में शेषनाग ( गिरने के भय से ) अपने फन के अग्रभाग को इस सुवेल के मूल भाग पर टिका देता है ॥८६॥ चन्द्रस्यावस्थामाहदीसइ कडपल्लीणो जस्स अ विवरसरिसुब्भडमअच्छाओ। अवहोवासमऊहो सिहरुज्झरभिण्णमण्डलो व्व मिअङ्को ॥१०॥ [ दृश्यते कटकालीनो यस्य च विवरसदृशोद्भटमृगच्छायः । उभयावकाशमयूखः शिखरनिर्झरभिन्नमण्डल इव मृगाङ्कः ॥ ] यस्य च कटक आलीनो मृगाङ्कः शिखरनिर्झरेण भिन्नं ताडितं मण्डलं यस्य तादृश इव दृश्यते । अत्र बीजमाह-विवरसदृशी उद्भटा मृगस्य च्छाया यत्र । अत एव उभयावकाशे पार्श्वद्वये मयूखा यस्य । तथा च-मृगाङ्कस्य कटकावरुद्धत्वेन मध्य भागः श्यामिकायाः प्रकटतया तुच्छ इव लक्ष्यते । शुभ्रकान्तिस्तु कटका Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३८६ वरोधादेव संमुखमगच्छन्ती पार्श्वयोद्विधाभूयोध्वं गच्छतीति पतग्निझं रत्वेन भासत इति भावः ॥१०॥ विमला-इस सुवेल पर्वत के कटक ( उपत्यका भाग से ) अवरुद्ध चन्द्रमा का मध्य भाग श्यामता के प्रकट होने से भली-भाँति दिखायी देता है एवम् उसकी शुभ्र कान्ति ( कटकावरोध से ही ) सम्मुख न आकर दोनों पावों में दो भागों में होकर ऊपर की ओर जाती है, अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि मानों चन्द्रमण्डल शिखरनिर्झर से प्रताडित हो रहा है ।।६।। त्रैलोक्याधारतामाह मज्झकरालाइ हि तिणि वि समणिरन्तरपहुत्ताई। थोरुण्णए हरिभुए वलमाइ व भुअणमण्डलाइ ठिपाई ॥१॥ [ मध्यकरालानि यत्र त्रीण्यपि समकं निरन्तरप्रभूतानि । स्थूलोन्नते हरिभुजे वलयानीत भुवनमण्डलानि स्थितानि ॥ ] यत्र त्रीण्यपि भुवनमण्डलानि मण्डलाकाराणि भुवनानि स्थितानि । कीदृ. शानि । मध्ये करालानि सच्छिद्राणि । सुवेलेनैव विद्धत्वात् । एवम्-समकं तुल्यं निरन्तरं निःसंधि प्रभूतानि मिलितानि । कानीव । स्थूले उन्नते हरिभुजे वलयानीव। यथा यथोक्तविशेषण विशिष्टानि वलयानि त्रिविक्रमस्य भुजे स्थितानीति रसातलभूतलनभस्तलानि भित्त्वा निर्गतोऽयमिति भावः । हरिभुजसुवेलयोर्वलयभुवनयोः साम्यम् ॥६॥ विमला-[ हरि ] त्रिविक्रम के स्थूल एवम् उन्नत भुज में बलयों के समान, तीनों भुवन इस सुवेल पर्वत में मण्डलाकार स्थित हैं, जो मध्य में ( सुवेल से ही विद्ध होने से ) छिद्रयुक्त हैं तथा तुल्य एवं निरन्तर मिले हुये हैं ।।१।। नक्षत्राणां गतागतमाह सोसिअदुमा रइवहा णववणराइसुहसीअरा शसिवन्था। जस्थ वणन्तरतणुआ णवर ण णज्जन्ति तारप्रागइमग्गा ॥२॥ [ शोषितद्रुमा रविपथा नववनराजिसुखशीतलाः शशिपथाः । यत्र वनान्तरतनुकाः केवलं न ज्ञायन्ते तारकागतिमार्गाः ॥] यत्र गिरौ शोषिता द्रुमा यत्र तथाभूता रविपथाः, एवं नूतना या वनराजिस्तया तद्वद्वा सुखदाः शीतलाः शशिपथा अपि ज्ञायन्ते । केवलं वनान्तरे वनमध्ये तनुकाः कृशास्तारकाणां गतिमार्गा न ज्ञायन्ते द्रुमशोषणशैत्योरनुमापकत्वाद्रवि Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] सेतुबन्धम् [ नवम चन्द्रयोः पन्था ज्ञायते । तारकाणां तु तथाविधचिह्नाभावात्स्वतः कृशत्वाच्च न ज्ञायत इत्यर्थः ।।२।। विमला-इस सुवेल पर्वत पर सूर्य के मार्ग का पता यों चल जाता है कि उसमें पड़ने वाले वृक्ष ( आतप से) शुष्क हो गये हैं और चन्द्रमा के मार्ग का भी ज्ञान इससे हो जाता है कि वह नूतन वनराजि से सुखद एवं शीतल है। केवल तारों से गतिमार्ग का ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि उसका कोई वैसा चिह्न नहीं है और वन के मध्य में पड़ने से तारे स्वतः कृश भी हैं ॥१२॥ देवस्त्रीसंचारमाहअलअपडिलग्गगन्धं तिप्रसवहूणं सिलाअलोत्थअमलिअम् । अक्खिवइ जत्थ पवणो ओसुक्खन्तसुरहिं तमाल किसलअम् ।।३।। [ अलकप्रतिलग्नगन्धं त्रिदशवधूनां शिलातलावस्तृतमृदि(मलि )तम् । आक्षिपति यत्र पवनोऽवशुष्यत्सुरभिं तमालकिसलयम् ॥] यत्र पवन स्त्रिदशवधूनां तमालकिसलयमाक्षिपति । कर्णात्पातयतीत्यर्थः । कीदृशम् । अलकेषु प्रतिलग्नः संक्रान्तो गन्धो यस्य । सहवासादलकान्प्रतिलग्नो गन्धो यत्रेति वा। गन्धलादिसंबन्धात् । भत एवावशुष्यत् सुरभिम् । एवम् शिलातलेऽवस्तृतम् । अत एव शयनेन गण्डघृष्टया मृदितम् । अथवा-त्रिदशबधूनामिति तृतीयार्थे षष्ठी। तथा च यत्र गिरी पवन स्त्रिदशवधूभिः शिलातले. ऽबस्तृतं शयन परिस्तरणीकृतं सन्मृदितं घुष्टं तमालकिसलयमाक्षिपति । दिशि दिशि प्रेरयतीत्यर्थः । विशेषणान्तरं तु पूर्ववत् ॥१३॥ विमला-इस सुवेल पर सुरवालाओं ने जिन तमाल-किसलयों को शिलातल पर बिछाया था और शयन करने से कपोल के घर्षण से जो मींज उठे हैं एवं जिनकी सुगन्ध ( अब भी) सुरबालाओं के अलकों में संक्रान्त है, उन्हें वायु इधर-उधर उड़ा रहा है और उनकी सुगन्ध अब ( धीरे-धीरे ) समाप्त होती जा रही है ॥६॥ मेघानां गतागतमाह पवणाहप्रपल्हत्था दरोसु नस्स अ पुणो वि लग्गन्ति णहम् । पटिसोत्तपस्थिउम्मुहमुहुत्तपीअसलिलोज्झरा सलिलहरा ॥१४॥ [ पवनाहतपर्यस्ता दरीषु यस्य च पुनरपि लगन्ति नभः । प्रतिस्रोतःप्रस्थितोन्मुखमुहूर्तपीतसलिलनिर्झराः सलिलधराः ॥] Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३.९१ सलिलधरा मेघा यस्य च दरीषु पवनेनाहतास्ताडिता: सन्तः पुनरपि नभो लगन्ति । मिलन्तीत्यर्थः । किंभूता। प्रतिस्रोतसा विपरीतमार्गेण प्रस्थिताः । अत एव उन्मुखा ऊर्ध्वमुखाः । एवं मुहूर्त व्याप्य पीतः सलिलनिर्झरो यस्ते । यद्दरीजलपानाथं गता मेघास्तत्रत्यपवनोद्धतत्वादीष देव जलं निपीय येनैवागतास्तेनैव पथा गगनं गच्छन्तीति दरीवायोरूर्ध्वगतित्वेन विकटोदरत्वमुक्तम् ।।६४॥ विमला-इस सुवेल पर्वत की कन्दरा में ( जलपानार्थ गये हुये ) मेघ वहाँ के पवन से प्रताडित हो विखर कर थोड़ी देर ही सनिल निझर का पान कर ऊर्ध्वमुख, आकाश को जिस मार्ग से आये थे उसी मार्ग से, चले जाते हैं ॥१४॥ वापदनाहुत्यमाह अद्दिगअपणोल्लिअपडन्ततडघाअमच्छिउठिपसोहे। सर्लरवविसंठल णिवडिअअण्णोण्णलग्गकिंणरमिहुणे ॥६॥ तुङ्गअडोन्सरमुहले जस्स अ कसणमणिगण्डसेलद्धन्ते । सेवन्तीण ग पत्तो तिअसबहूण सिढिलत्तणं अणुराओ॥६६॥ ( जुग्गमम् ) इति सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दसमुहवहे महाकव्वे सुवेलवण्णणो णवमो आसासओ ॥ [ अदृष्टगजप्रणोदितपतत्तटघातमूच्छितोत्थितसिंहान् । शार्दूलरवविसंष्ठुलनिपतितान्योन्यलग्नकिनरमिथुनान् ॥ तुङ्गतटनिर्झरमुखरान्यस्य च कृष्णमणिगण्डशैलार्धान्तान् । सेवमानानां न प्राप्तस्त्रिदशवधूनां शिथिलत्वमनुरागः ॥] (युग्मकम् ) इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखबधे ___ महाकाव्ये सुवेलवर्णनो नवम आश्वासः ॥ - - - यस्य 'कृष्णमणिमयानां गण्डशैलानामर्धान्तान्सेवमानानामाश्रितानां त्रिदशवधूनामनुरागो मनोभिनिवेश: शिथिलत्वं न प्राप्तः' इत्यनिमस्कन्धके योजना । कीदृशान् । अदृष्टेनाज्ञातेन' गजेन प्रणोदिताः सिंहनाशाय प्रेरिताः । अत एव पतन्तस्तटाः पर्वतैकदेशास्तदभिघातेन प्रथमं मूच्छिता अथोत्थिताः सिंहा येषु तान् । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] सेतुबन्धम् [ नवम एवं शार्दूलरवेण विसंष्ठुलं संभ्रान्तम्, अत एव निपतितम्, अथान्योन्यलग्नं मिलितं किनराणां मिथुनं येषु तान्, किंभूतान् तुङ्गस्य तटस्य पर्वतैकदेशस्य निर्झरेण मुखरान् ऊर्ध्वतः पतता शब्दायमानान् । आदिकुलकम् ॥६५-६६ ।। सुवेलोत्कर्षदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णाभून्नवमी शिखा || विमला - इस सुवेल के कृष्णमणिमय गण्डशैलों के प्रदेश में निवास करने वाली सुरबालाओं का अनुराग ( मनोभिनिवेश ) कभी शिथिल नहीं होता है, जहाँ अज्ञात मज के द्वारा ढकेले गये, अतएव गिरते हुये [ तट ] पर्वत-खण्ड के अभिघात से मूच्छित सिंह पुनः उठ खड़ा होता है एवं सिंह की गर्जनध्वनि से डरकर भूतल पर गिरे किन्नरों के जोड़े परस्पर मिलते हैं तथा जो तुङ्ग [ तट ] पर्वत भाग के निर्झर से शब्दायमान हैं ।।६५-६६ ।। इस प्रकार श्री प्रबरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में सुवेल - वर्णन नामक नवम आश्वास की 'विमला ' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई । 100000— Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम आश्वास: अथ सुवेलारोहणमाह अह णिप्रअमहिहरेस व सुवेल सिहरेसु णिवडिअवीसस्थम् । परिसं ट्ठिअं हमम्मि व अहम्मि वि वहमुखे पवंगमसेण्णम् ।।१।। [ अथ निजकमहीधरेष्विव सुवेलशिखरेषु निर्वलितविश्वस्तम् । परिसंस्थितं हत इवाहतेऽपि दशमुखे प्लवंगमसैन्यम् ।।] अथ सुवेलदर्शनोत्तरं प्लवंगमसैन्यं सुवेल शिखरेषु परिसंस्थितमावासग्रहणं चकारेत्यर्थः । निजकेषु महीधरेष्विव । यथा स्वीयशैलेषु स्थितिः क्रियते । एतेन स्वेच्छाचारविहारक्षोभामोटनादिना वानराणामभयत्वं रावणस्य च प्रतापभङ्गः सूचितः । तदुक्तम्-अहतेऽपि सकलसामग्रीसचिवे विद्यमानेऽपि दशमुखे हत इव सति निर्वलितं सानो सानौ पृथग्भूतं विश्वस्तमक्षुब्धमिति सैन्य क्रिययोरन्यतरविशेषणम् । यद्वा निजकेति साहचर्येण निर्वलितेति हत इवेति साहचर्येण परिसंस्थितमिति योज्यम् (?)। अत्र निर्वलितेतिपदेन कपीनामुत्साहगर्वयोः सुवेलविस्तारस्य च प्रकर्ष उक्तः । निजमहीधरसुवेलशिखरयोरुपमासंभवेत्युत्प्रेक्षा चमत्कारिणी ॥ १ ॥ विमला-सुवेल का दर्शन कर चुकने पर वानरों ने शिखर-शिखर पर अलगअलग, निश्चिन्त हो अपने ही पर्वतों के समान अपना-अपना आवास ग्रहण किया; मानों जीवित होते हुये भी रावण मर चुका था ।।१।। मथ सुवेलोपमर्दनमाह रइणा वि अणुच्छण्णा वीसत्थं मारुएण वि अणालिद्धा । तिअसेहि वि परिहरिआ पवंगमेहि मलिआ सुवेलुच्छङ्गा ॥२॥ [ रविणाप्यनूत्क्षण्णा विश्वस्तं मारुतेनाप्यनालीढाः। __ त्रिदशैरपि परिहृताः प्लंवगमै दिताः सुवेलोत्सङ्गाः ।।] ये रविणाप्यनुत्क्षुणा ऊर्ध्वमनाक्रान्ताः किरणानामगम्यत्वात् । विश्वस्तं यथा स्यादेवं मारुतेनाप्यनालीढा अस्पृष्टाः । कुञ्जकन्दरादिबाहुल्येन भयात् । त्रिदशैविमानचारिभिरपि परिहता अनाक्रान्ता रावणवासात् । ते सुवेलोत्सङ्गाः प्लवंगमैमर्दिताः क्षोभामोटनादिनाखिलीकृता इत्यर्थः । एतेन कपीनामुत्साहोत्कर्षों रावणापकर्षश्च सूचितः । यद्वा सर्वत्र 'कुञ्जकन्दरादिगहनत्वेन रावणादिभयेन च' इति योजनीयम् । विरोधालंकारः ।। २ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] सेतुबन्धम् [ दशम विमला-सूर्य भी ( किरणों के लिये अगम्य होने से ) सुवेल के जिन शिखरों को आक्रान्त नहीं कर सका था, ( कुञ्जों, कन्दराओं आदि की अधिकता के कारण ) वायु भी जिन्हें निर्भय हो स्पर्श नहीं कर सका था तथा ( रावण के त्रास से) विमानचारी देवलोक भी जिन्हें आक्रान्त नहीं कर सके थे, उन्हीं शिबरों को वानरों ने रौंद डाला ॥२॥ अथ लङ्कादर्शनमाहरिउणपरि ति सरोसं जणप्रसुआ एत्थ गिवसइ त्ति सहरिसम् । पहुणा लाहिमुही उहअरसन्वोलिआ विइण्णा विट्ठी ॥३॥ [रिपुनगरीति सरोष जनकसुतात्र निवसतीति सहर्षम् । प्रभुणा लङ्काभिमुखी उभयरसान्दोलिता विकीर्णा(वितीर्णा,वा)दृष्टिः॥] प्रभुणा रामेण लङ्कासं मुखी दृष्टिरापिकारस्य (?) रिपोरियं नगरीति सरोकं विकीर्णा विशेषतश्वाञ्चल्याहरायादिमती (?) क्षिप्ता। जनकसुता मत्प्रेयसी अत्रय पुरि निवसतीति सहर्ष वितीर्णा दत्ता । प्रसादोत्फुल्लत्वादिधर्मविशिष्टा समपितेति यावत् । अत एवोभयरसेन परस्परविरोधिना क्रोधोत्साहरूपेणान्दोलिताविभाव्यमानकमलदलशतव्यतिभेदवत्समयसोक्षम्येण स्वस्वचेष्टावैशिष्टयनरन्तर्यादेकमुपमृयापरेणावगाढुमारब्धाप्यनवगाहिता सत्प्रतिपक्षानुमानाभ्यां पक्ष इवेति क्रोधनहर्षरूप. भावसंधिः ॥३॥ विमला-श्रीरामचन्द्र ने लङ्का की भोर दृष्टिपात किया। उस समय उनकी दृष्टि ( परस्पर विरोधी ) उभयरस (क्रोध एवं उत्साह ) से आन्दोलित हो उठी; क्योंकि 'यही शत्रु की नगरी है' यह सोचकर उनके हृदय में रोष हुआ और 'यही वह नगरी है, जहाँ मेरी प्रेयसी निवास जनकसुता कर रही है' यह सोचकर प्रसन्नता एवं उत्फुल्लता हुई ।। ३ ।। रावणक्षोभमाहतो सुअरामागमणो पवअक्कन्तसिहरेण जामामरिसो। रोसेण गलितधीरो समं सुवेलेण कम्पिओ बहवअणो ॥४॥ [ ततः श्रुतरामागमनः प्लवगाक्रान्तशिखरेण जातामर्षः। रोषेण गलितधैर्यः समं सुवेलेन कम्पितो दशवदनः ।।] ततोऽनन्तरं प्लवगैराकान्तानि शिखराणि यस्य तथाभतेन सुवेलेन समं दशवदन: कम्पितः क्षोभात्, सुवेलोऽपि कपिचक्रमेण कम्पित इत्यर्थः । किं भूतो दशवदनः । श्रुतं रामस्यागमनं येन । तथा जातोऽमर्षः परोत्कर्षासहिष्णुता यस्येति रोषाभेदः । एवम् रोषेण गलितं धैर्य यस्य प्रस्वेदाचरस्पन्दननयना Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदोप-विमलासमन्वितम् [ ३६५ रुण्यादिवैक्लव्योदयादिति धैर्यरूपभावशान्तिः त्रासरूपभावोदयश्च । गिरिरपि श्रुतं विश्रुतं ख्यातं रामागमनं यत्र । जात आम! मर्षणं प्लवगविमर्दन यत्र । गनितं धेयं स्थिरता यस्यैतादृशः । रावणस्य क्षोभवर्णनमनुचितमिति रोषेण कम्पित इति वा ॥४॥ विमला-वानरों के द्वारा शिखरों के आक्रान्त होने पर जिस प्रकार सुवेल कम्पित हो गया, उसी प्रकार उसी के साथ रावण भी राम का आगमन सुन कर अमर्ष ( परोत्कर्ष को न सहना ) तथा रोष से धैर्यविनाश होने के कारण काँप उठा ॥४॥ अथ दिवसापयानमाहताव अ आसण्गठ्ठि प्रकइबलणिग्घोसकलुसिअस्स भअपरम् । दसवअणस्स समोसरिअपरिअणं मुअइ दिठ्ठिया दिवसो ॥५॥ [ तावच्चासन्नस्थितकपिबलनिर्घोषकलुषितस्य भयंकरम् । दशवदनस्य समपसृतपरिजनं मुञ्चति दृष्टिपातं दिवसः ॥] यावत्सुवेलावस्थिति कपयः कुर्वन्ति तावदेव आसन्न स्थितस्य निकटवर्तिनः कपिबलस्य निर्घोषेण कलुषितस्य मदग्रेऽपि कपयः प्रगल्भन्त इति सक्रोधचित्तस्य दशमुखस्य दृष्टे: पातो यत्रेति दृष्टिसंमुखं दिवसो मुञ्चति । दशमुखत्वात्क्वाप्यवस्थाने दृष्टिपातः परिहृतो न स्यादिति सर्वथा बहिर्गमनमेव वरमिति संध्योपक्रमोऽभूदिति भावः । किंभूतम् । भयंकरं द्रष्टुमशक्यम् । एवम् समपसृताः पनायिताः परिजना यस्मात्तम् । अस्मासु विद्यमानेम्वेव कपीनामेवं प्रसर इति संमुखपतितानस्मानेव ब्यापादयिष्यतीति तात्पर्यादत्राचेतनस्यापि दिनस्य भयोत्प्रेक्षया रावणस्यातिदुर्धर्षत्वमुक्तम् ॥५॥ विमला-(जब तक वानरों ने सुवेल पर अपने-अपने ठहरने का समुचित प्रबन्ध किया ) तब तक दिन बीत गया, मानों निकट ( सुवेल पर ) वर्तमान वानरों के कोलाहल से क्रुद्ध रावण की दृष्टि को, जिसके सामने से ( डर कर ) परिजन हट गये थे, बचाकर वह ( त्रस्त हो ) भाग गया ॥ ५ ॥ अथ रविकराणां पिञ्जरतामाह सुरगमणिहस्स रइणो कड्न्तस्स लिणि व विप्रसच्छाअम् । वलइ हरिमालकविलो कमलरअक्खउरिओ व्व करपम्भारो ।।६।। [ सुरगजनिभस्य रवेः कर्षतो नलिनीमिव दिवसच्छायाम् । वलति हरितालकपिलः कमलरजःकलुषित इव करप्राग्भारः ॥] रवेः करसमूहो वलति परावर्तते । सर्वतो वर्तुलीभवतीत्यर्थः । किंभूतस्य । सुरगज ऐरावणस्तत्तुल्यस्य सहजशौक्ल्यात् । एवं रविप्रकाश्यत्वेन नलिनीमिव Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] सेतुबन्धम् [ दशम दिवसच्छायां कान्ति कर्षतः स्वेनैव सार्धं नयतः । करप्राग्भारः कीदृक् । हरितालवत्कपिलः । तत्रोत्प्रेक्षते — कमलरजोभिः कलुषित इव च्छन्न इव । नलिन्याः कर्षणे तदुचितमेवेति रविरपि तत एव तदानीं कपिलोऽभूदिति भावः । सुरगजस्यापि दिवसे छाया कान्तिर्यस्यास्तादृशीं नलिनीमाकर्षतः शुण्डारूपकराग्रभागो वक्रीभवति कमलरज:संबन्धादुक्तवत्कपिलश्चेति साम्यम् ||६|| कान्ति को विमला - दिन में कान्ति वाली नलिनी के सदृश दिवस की ऐरावतसदृश ( सहज शुक्ल ) सूर्य जब खींचकर अपने साथ ले जाने लगा उस समय उसका कमलरज से आच्छादित - सा हरिताल के समान कपिल ( भूरा ) ( कर- प्राग्भार ) १ - किरण समूह, २- शुण्डाग्र भाग सिमट कर गोलाकार हो गया ।। ६ ।। अथ द्रुमच्छायानां दैर्घ्यमाह ओलुग्गप्फरिसाणं झिज्जन्तपसारिआअवणिराआणम् । आसामिज्जन्तीण व जाअं तलिणत्तणं दुमच्छाआणिम् ॥७॥ [ अवरुग्णस्पर्शानां क्षीयमाणप्रसारितातपनिरायतानाम् । आयम्यमानानामिव जातं तलिनत्वं द्रुमच्छायानाम् ॥ ] क्षीयमाणो यः प्रसारित आतपस्तन्मध्ये निरायतानां यथायथा आतपक्षयः तथा तथा दीर्घाणां द्रुमच्छायानां तलिनत्वं तुच्छत्वं जातम् । तुच्छत्वे हेतुमाह-अव रुग्णः स्पर्शो यासां तथाभूतानां प्रचण्डापत इव तदानों तथा शैत्यानुपलम्भादिदमुपलक्षणम् । तथा श्यामिकानुपलम्भाच्च दीर्घत्वमुत्प्रेक्षते । आयम्यमानानामिवकेनचिदाकृष्य दीर्घीक्रियमाणानामिव जलौकादिवदित्यर्थः । यद्वा प्राकृतत्वात्क्षीयमाण दिवसेन हेतुना निरायतं यथा स्यात्तथा प्रसारितानामायम्यमान जलौकादीनामिवेति पूर्वं धर्मस्य, इह तु धर्मिणः संभावनादुत्प्रेक्षा ॥७॥ विमला — फैला हुआ आतप ज्यों-ज्यों क्षीण होने लगा त्यों-त्यों वृक्षों की छाया लम्बी होने लगी और क्रमश: इतनी अधिक लम्बी हो गयी कि मानों उसे किसी ने खींचकर इतनी लम्बी कर दी है, तत्परिणामस्वरूप उतनी ही पतली भी हो गयी, अतएव ( प्रचण्ड आतप के समय की-सी शीतलता न प्रदान कर सकने के कारण ) उसका स्पर्श पहिले की भाँति स्पृहणीय नहीं रह गया ॥ ७ ॥ अथ रविमण्डलमाह - बीसह विदुमप्रम्बं सिन्दूराह अगइम्बकुम्भच्छाप्रम् । मन्दरधा उकलङ्किप्रवासुइमण्डलनिअक्कलं रइ बिम्बम् ||८|| [ दृश्यते विद्रुमाताम्रं सिन्दूराहतगजेन्द्रकुम्भच्छायम् । मन्दरधातुकलङ्कितवासुकिमण्डलनिश्चक्रलं रविबिम्बम् ॥ ] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [३६७ रविबिम्ब विद्रुमवदाताम्र दृश्यते । कीदृक् । सिन्दूरेणाहतस्य स्पृष्टस्य गजेन्द्रकुम्भस्येव च्छाया कान्तिर्यस्य लोहितत्वात् । एवं मन्दरधातुभिः कलङ्कितस्य मथनसमये रज्जुभावेन घर्षणाद्रक्तीकृतस्य वासुकेर्मण्डलं वलयीभावस्तद्वनिश्चक्रलं वर्तुलमिति संध्याराग उक्तः ॥८॥ विमला-सूर्यमण्डल विद्रुम के समान लाल, सिन्दूर लगे गज के कुम्भस्थल के समान' कान्ति वाला एवं ( समुद्र मथनसमय में ) मन्दराचल के गरिकादि धातुओं से रञ्जित वासुकि के मण्डल के समान गोल दिखायी. देने लगा ॥ ८ ॥ अथ दिवसावशेषमाह मउलेन्ति विसाहोआ छाआसामलइओसरं महिवेढम् । दिअसो कलावसे सो सिहरालग्गतणुआअवा धरणिहरा ।।६।। [ मुकुलायन्ते दिगाभोगाश्छायाश्यामलितोदरं महीवेष्ट (पृष्ट)म् । दिवसः कलावशेषः शिखरालग्नतनुकातपा धरणिधराः ।।] कला अवशेषो यस्य तथाभूतो दिवसः स्थित इत्यर्थात् । अत एव दिशामाभोगा विस्तारा मुकुलायन्ते संकुचन्ति प्रान्तेषु प्रकाशाभावात् । एवं छाया आतपाभावस्तया श्यामलितमुदरं यस्य तादृग्महीपृष्ठं जातमित्यर्थात् । एवं शिखरेषु आ ईषल्लग्नास्तनुकाः कृशा आतपा येषाम्, उच्चत्वात्, तथाभूता महीधरा जाताः । 'काष्ठा, त्रिंशत्तु ताः कलाः' इत्यमरः ॥६॥ विमला-दिन का थोड़ा-सा भाग शेष रह गया, अतएव (प्रकाश न रह जाने से ) दिशाओं का विस्तार संकुचित हो गया, पृथिवी पर अँधेरा फैलने लगा और पर्वतों के शिखरों पर ही थोड़ी धूप वर्तमान रह गयी ।। ६ ॥ अथ सूर्यावतरणमाह अस्थगि अम्बपरिणए हिआअवरमम्मि सुरगअम्मि व दिग्रसे। दीसहि पल्हत्थन्तं विहडि अधाउसिहरं व दिणअरबिम्बम् ॥१०॥ [ अस्तनितम्बपरिणते हृतातपरजसि सुरगज इव दिवसे। दृश्यते पर्यस्यद्विघटितधातुशिखरमिव दिनकरबिम्बम् ।।] दिनकरबिम्बं विघटितं गैरिक शिखरमिव पर्यस्यत्पतद्दश्यते । कुत्र सति । सुरगज ऐरावत एव दिवसे श्वैत्यात्प्राचीतः प्रतीचीगतत्वाच्च अस्तस्य चरमाचलस्य नितम्बे परि सर्वतोभावेन नते उपनते प्राप्ते । दिनस्य तत्रैव पर्यवसानात् । पक्षे परिवृत्य कृताघातत्वानिविष्टदन्ते सति । कीदृशि । हृतं पातितम् आतप एव रजो येन । गैरिकस्येत्यर्थात् । अत एव आतपस्य रक्तता लभ्यते तदुद्धलनादेव च तदानीं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] सेतुबन्धम् [ दशम दिन दिग्गगनादीनामपि रक्तत्वमिति भावः । अन्योऽपि परिणतः करी उद्भनिताभिर्धलिभिः खं दिगादीनि च पूरयशिखरं पातयतीति ध्वनिः । 'करदन्तकृताघातो गजः परिणतो भवेत्' इति कोषः । अत्र दिनगजयोः, किरणरजसोः, रवि शिखरयोश्च साम्यम् ॥१०॥ विमला-गैरिक पर्वत के नितम्ब ( उपत्यका ) भाग पर दाँतों से आघात करने वाले ऐरावत के समान दिवस जब अस्ताचल के नितम्ब पर पहुँच गया और उसने आतपरूप रज का पतन किया उस समय रविबिम्ब, विच्छिन्न गैरिकशिखर के समान गिरता दिखायी पड़ा ।।१०॥ अथ कमलानां संकोचमाहकमलाण दिग्रसविगमे संबज्झन्ति गलिभाअवकिलिन्ताई। मअरन्दमत्तमहुअरचलपक्खुप्पुसियमहरसाइ दलाई ॥११॥ [ कमलानां दिवसविगमे संबध्यन्ते गलितातपक्लाम्यन्ति (क्लान्तानि)। मकरन्दमत्तमधुकरचलपक्षोत्प्रोञ्छितमधुरसानि दलानि ॥] दिवसस्य विगमे सायं कमलानां दलानि संबध्यन्ते संकुचन्ति । किंभूतानि । गलितेनातपेन क्लाम्यन्ति निष्प्रभाणि । तेषां दिम एव कान्त्युदयात् । एवं मकरन्देन मत्तस्य मधुकरस्य चलपक्षाभ्यामुत्प्रोञ्छितो मधुरसो येषु तानि । मकरन्दतुन्दिलतयोड्डयितुमपारयतोऽबहिर्भवतोऽपि दलेषु पतनेन पक्षयोरसंवरणादिति भावः । मत्तस्य पतनमुचितमेवेति ध्वनिः ॥११॥ विमला-दिवस का अवसान होने पर आतप के विनाश से क्लान्त कमलदल संकुचित हो गये एवं मकरन्द से मत्त मधुकरों के चंचल पंखों ने उनका मधुरस पोंछ डाला ॥११॥ अथ रविरावणयोरवस्थातौल्यमाह वीवन्ति दो वि सरिसा कइचलणाइद्धमहिर असमकता । भत्थाअन्तो प्र रई आसण्णविणासणिप्पहो दहवप्रणो ॥१२॥ [ दृश्येते द्वावपि सदृशौ कपिचरणाविद्धमहीरजःसमाक्रान्तो। अस्तायमानश्च रविरासन्नविनाशनिष्प्रभो दशवदनः ॥] अस्तायमानोऽस्तं गच्छन् रविः, निकटवर्तिना विनाशेन निष्प्रभो रावणश्च द्वावपि सदृशो दृश्येते । बीजमाह-कपीनां चरणैराविद्धान्युत्थापितानि यानि सुवेलमहीरजांसि तैः समाक्रान्तौ। अत्र धूलीनां रविपर्यन्तगमनेन कपीनामुद्धतचलनम् । रवेरपि निष्प्रभत्वं च सूच्यते । शिरसि कपिचरणोद्भूतधूलिपतनं सहत एवेत्यस्ता. यमानरविसाम्येन रावणस्याचिरेण मृत्युरुक्तः । आसन्न मृत्युः स्वत एव निष्प्रभो भवतीति ध्वनिः ॥१२॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ३६६ विमला-उस समय सूर्य और रावण दोनों की अवस्था समान थी; क्योंकि कपिचरणों से उड़ायी गयी धूल से दोनों समाक्रान्त थे तथा एक अस्ताचल को जाने से निष्प्रभ था तो दूसरा ( रावण ) विनाश के निकट होने से ( निष्प्रभ था) ॥१२॥ अथ रवेरस्तमनमाह अद्धस्थपिदिणअरो तुङ्गोवासपरिसंठिाअवसेसो। गनणे मुक्कमहिअलो परिप्पवन्ततलिणो झिलिम्मइ दिअसो॥१३॥ [ अर्धास्तमितदिनकरस्तुनावकाशपरिसंस्थितातपशेषः । गगने मुक्तमहीतलः परिप्लवमानतलिनः क्लाम्यति दिवसः ॥] मुक्तं भूतलं येन स दिवसो गगने परिप्लवमान इव तलिनस्तनुः क्लाम्यति विशिष्ट प्रकाशाभावात् । कीदृक् । अर्धनास्तमितो जले मग्नो दिनकरो यत्र । एवं तुङ्गावकाशे उच्चप्रदेशे गिरिशिखरादौ परिसं स्थितमातपशेषं यत्र । बहूनामस्तमितत्वादिति भावः । अत्र प्लनवनकर्तृवृश्चिकत्वेनोत्प्रेक्षितस्य दिनस्य रविरर्धमग्नो मूर्धा, उपरि संचरन्नातपशेषः करचरणादिः, गगनं च समुद्रः इति व्यञ्जनयोत्प्रेक्षितम् । प्लवनकर्तापि जलोपर्येव मज्जन्मूर्धा चलत्करचरणादिः क्लाम्यतीति ध्वनिः ॥१३॥ विमला-दिवस भूतल को छोड़ चुका था, सूर्य आधा अस्तंगत हो चुका था, ( गिरिशिखरादि ) ऊँचे स्थानों पर ही कुछ आतप शेष था, अतएव दिवस मानों गगन में तैरता हुभा दुर्बलता को प्राप्त हो क्लान्त हो रहा था ॥१३॥ अथ रविकिरणानामूर्ध्वतामाहविअसेण वणगएण व परंमुहाइपाअवस्स व रविणो। दीसइ थोरकरालो उद्घो मूलणिवहो व्व करपब्भारो॥१४॥ [ दिवसेन वनगजेनेव पराङ्मुखाविद्धपादपस्येव रवः । दृश्यते स्थूलकराल ऊो मूलनिवह इव करप्राग्भारः ॥] रवेः करप्राग्भार ऊो दृश्यते । रवेरधोवृत्तितया तेजसामूर्ध्वगमन मिति भावः । क इव । मूल निवह इव । मूलं शिरा । एवं स्थूलः प्रौढः पुजीभूतो वा। करालो मध्ये मध्ये सच्छिद्रः, तुङ्गो वा । प्राग्भारनिवह्योरपि विशेषणम् । रवेः किभूतस्येव । वनगजेनेव दिवसेन पराङ्मुखमन्यतोमुखं प्रेरितस्य सतः पादपस्य वृक्षस्येव । अत्र दिनगजयोः, रविपादपयोः, करशिरःसमूहयोश्च साम्यम् । विदि. क्पातितत्वात्स्थूल:, तुङ्गतया विरलत्वेन च करालः शिरास्तोम एव दृश्यो न तु वृक्ष इति किरणा एव दृश्यन्ते, न रविरिति भावः ॥१४॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००] सेतुबन्धम् [ दशम विमला-पादप को वनगज के समान, दिवस ने सूर्य को उखाड़ कर ऐसा फेंक दिया था कि उसका शिरोभाग नीचे की ओर और अधोभाग ऊपर की ओर हो गया था, अतएव उसका किरण समूह स्थूल एवं तुङ्ग मूलसमूह के समान ऊपर दिखायी देता था ॥१४॥ अथ संध्यागमनमाह णवरि अदिणअरबिम्बं संझामहम्मिणिप्रअरुहिरप्पके । दहवनणस्स भरपरं पढ़ मसिरच्छेप्रमण्डलं व णि उडढ़म् ॥१५॥ [अनन्तरं च दिनकरबिम्बं संध्यामये निजकरुधिरपङ्के। दशवदनस्य भयंकरं प्रथमशिरश्छेदमण्डलमिव निमग्नम् ॥] दिवसपतनान्तरं च दशवदनस्य मण्डलाकार प्रथम शिरःखण्ड मिव दिनकरबिम्बं संध्यामये निजकरुधिरपङ्के निमग्नम् । लौहित्यात्तद्रुधिरस्वरूपत्वेनोत्प्रेक्षिता संध्या। तथा च संध्या बभूवेति भावः । भयंक रमित्युभयविशेषणम् । रविपतनस्यापि रात्रिहेतुत्वेन तत्त्वात् । अत्र प्रथमपदेन प्रधानीभूतं शिवाराधनेऽप्यकृत्तमिति रावणमृत्योरावश्यकत्वादचिरकर्तनीयत्वेनाकृत्तमपि कृत्तत्वेनोत्प्रेक्षितमिति भावः । यद्वा तदानीमेव शिवाराधनाय यत्प्रथमं निकृत्तवान् तेन समं सहोपमा ॥१५॥ विमला-इसके अनन्तर सूर्यबिम्ब रावण के भयंकर मण्डलाकार प्रथम सिरखण्ड-सा अपने ही सन्ध्यामय रुधिरपङ्क में निमग्न हो गया ।।१५।। अथ कमलानां मुकुलीभावमाहभमरभरोवत्ताइं परिणअकेसरपलोट्टरअगरुपाई। र विविरहमिलन्ताई वि होन्ति करालाइ पङ्कआण दलाई ।।१६।। [भ्रमरभरापवृत्तानि परिणतकेसरप्रलुठितरजोगुरुकाणि । रविविरहमिलन्त्यपि भवन्ति करालानि पङ्कजानां दलानि ॥] पङ्कजानां दलानि करालानि सच्छिद्राणि भवन्ति । किभूतानि । रविविरहे सति परस्परं मिलन्त्यपि । बन्धुविरहे सर्वे मिलन्त्येवेति ध्वनिः । अपिरत्र मिलतां सच्छिद्रता न तिष्ठतीति विरोधाभाससूचनाय । सच्छिद्रत्वे हेतुमाह-भ्रमराणां भरेणापवृत्तान्यवनतानि । बहिर्भवतामपि मकरन्दतुन्दिलत्वेनोड्डयनासमर्थत्वात् । एवं परिणतानां केसराणां प्रलुठितरजोभिर्गुरुकाणि । केसराणां परिणत्या भ्रमराणां किंचिदभिघातेनैव रजःस्खलनात्पत्त्रेषु गुरुत्वम् । अतोऽप्यवनतिः सच्छिद्रताहेतुरिति भावः॥१६॥ विमला-कमलदल सूर्य के विरह से परस्पर मिलने-संकुचित होने पर भी ( छक कर मकरन्द पीने से उड़ने में असमर्थ ) मधुपों के भार से अवनत होने Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४० १ तथा केसर के पक जाने के कारण मधुपों के हलके अभिघात से भी रज के झड़ने, अतएव भारी पड़ जाने से परस्पर विघटित हो रहे थे ।। १६ ।। अथ प्रतीच्या रविकान्तिच्छटामाह अवरविसावित्थिण्णो दीहम ऊहविसमप्पहासंघाओ । अभि व् दीसइ कालमुहविखसदिअसकड्ढणमग्गो ॥ १७॥ [ अपरदिशाविस्तीर्णो दीर्घ मयूखविषमप्रभा संघातः । रजोनिर्भर इव दृश्यते कालमुखक्षिप्तदिवसकर्षणमार्गः ॥ ] दीर्घाणां मयूखानां विषमा नतोन्नता या प्रभा रूपं तस्याः संघातः समूहः अपरा दिक् प्रतीची तत्र विस्तीर्णः प्रौढो दृश्यते, सर्वेषामेव तदा तत्र वर्तुली - भावात् । कीदृक् । रजः परागः तद्वन्निर्भरः पूर्णः । पिञ्जरत्वात् । क इव । कालो यमः संध्यासमयश्च तन्मुखादाक्षिप्तस्य दिवसस्य कर्षणमार्ग इव । कालेन कवलितस्य दिवसस्य निजबुद्धया रविणातिक्रम्य गृहीत्वाकृष्टस्य स्वेनैव सार्धं नीयमानस्य कर्षणमार्ग इत्यर्थः । अन्यत्रापि कस्यचिन्मुखादाकृष्टस्य भूम्यादौ कर्षणमार्गे दीर्घो विबमो रजो धूलिस्तन्निर्भरश्च भवतीति ध्वनिः ॥१७॥ विमला - दीर्घ किरणों की ऊँची-नीची प्रभा का समूह पश्चिम दिशा में विस्तीर्ण एवं रजपूर्ण-सा दिखायी दे रहा था, जो मानों सूर्य के द्वारा काल ( १ - सन्ध्यासमय, २ - यम ) के मुख से निकाले गये एवं साथ ले जाये जाते हुये दिवस का कर्षण - मार्ग है || १७ || अथ संध्यारागमाह - उद्घोवअत्तबिम्बे वेएण मह व दिणअरम्मि अइगए । उच्छलिआअवअम्बा संझाराअमिहिआ णहम्मि निहित्ता ॥ १८॥ [ ऊर्ध्वापवृत्तबिम्बे वेगेन महीमिव दिनकरेऽतिगते । उच्छलितातपाताना संध्यारागमेघिका नभसि निहिता ॥ ] संध्यारागविशिष्टा मेघिका स्वल्पमेघो नभसि निहिता लग्ना । उत्प्रेक्षतेकीदृशी । ऊर्ध्वादपवृत्तं स्खलितं बिम्बं यस्य तादृशि दिनकरे वेगेन महीमिवातिगतेऽपगते सत्युच्छलितेनाताम्रा । अन्यस्यापि वृक्षादितो भूमौ पतित्वा चूर्णितस्थ रुधिरादिकमूर्ध्वमेवोच्छलतीति ध्वनिः ॥ १८ ॥ विमला -- सन्ध्यारागयुक्त मेघिका ( स्वल्पमेघ ) नभ में व्याप्त हो गयी, जो मानों ऊपर से स्खलित रविबिम्ब के पृथिवी पर गिरने से उसके उछले हुये ( रुधिरसदृश ) आतप से लाल हुई है || १८ || अथ संध्यारागप्रतिमाह - अत्यसिहरन दीसह मेरुअडुग्घुट्ठकण अकद्दमभम्बो । वलमाणतुरिअरविरहपडिउट्ठि अधअवडो व संज्ञा राम्रो ॥ १६ ॥ २६ से० ब० Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] सेतुबन्धम् [ दशम [ अस्तशिखरे दृश्यते मेरुतटोद्धृष्टकनककर्दमाताम्रः । वलमानत्वरितरविरथपतितोत्थितध्वजपट इव संध्यारागः ॥] अस्ताचलस्य शिखरे संध्यारागो दृश्यते । क इव । वलमानोऽवतरणाय वक्रीभवन सन् त्वरितो यो रविरथस्तस्य पतितः सन्नुत्थितो ध्वजपट इव । अस्ताचलादवतीर्णस्यैव रथस्यातिनिम्ने पतनात्पतितः, पुन रुच्चारोहणादुत्थितः । तत एव न दृश्यते । किं तु पताकामात्रमिति भावः । लौहित्ये हेतुमाह-ध्वजपट: कीदृक् । मेरुलटे उद्धृष्टो मृष्टो यः कनककर्दमः । सूर्यतेजःसंबन्धेन द्रवीभावात् । तेन मा ईषत्ताम्रः ॥१६॥ विमला-अस्ताचल के शिखर पर सन्ध्याराग, रविरथ का ध्वजपट-सा दिखायी पड़ा, जो अस्ताचल से उतरे हुये रथ के अधःपतन से पतित तथा पुनः ऊँचे पर रथ के चढ़ने से उत्थित है एवं ( सूर्य के तेज से द्रवित ) कनक के पङ्क के लगने से थोड़ा लाल हो गया है ॥१६।। अथ कुमुद विकासमाहविप्रसइ धवलाप्रम्बं गअरुहिरालिद्ध केसरिसडच्छाअम् । पवणन्दोलणचडुलं संझारज्जन्तकेसरं कुमुअवणम् ॥२०॥ [विकसति धवलातानं गजरुधिरालीढकेसरिसटाच्छायम् । पवनान्दोलनचटुलं संध्यारज्यमानकेसरं कुमुदवनम् ॥] कुमुदवनं विकसति । कीदृक् । धवलमाताम्र च । अत एव गजरुधिरेणाश्लिष्टा या केसरिसटा तद्वच्छाया कान्तिर्यस्य तत्। एवं पवनकृतेनान्दोलनेन चञ्चलम् । संध्यया रज्यमानानि रागं प्राप्तानि केसराणि यस्य । तदानीं शोणत्वेनोपलम्भादिति भावः ॥२०॥ विमला-कुमुदवन विकसित हो गया। वह धवल तथा कुछ लाल है, अतएव गज के रुधिर से आश्लिष्ट सिंह की सटा ( गर्दन के बाल ) की शोभा को प्राप्त है तथा पवनकृत आन्दोलन से चञ्चल हो रहा है ॥२०॥ अथ च्छायामाहहोइ अपाअडदीहा दरवोच्छिज्जन्तविसमसंझारा। ओध सरिअदसदिसा अबद्धतिमिरा दिणावसाणच्छापा ॥२१॥ [ भवत्यप्रकटदीर्घा दरव्यवच्छिद्यमानविषमसंध्यारागा। अवधूसरितदशदिक् अबद्धतिमिरा दिनावसानच्छाया ॥] दिनावसाने छाया। वृक्षादीनामित्यर्थात् । भवति । कीदृशी । अप्रकटा सती दीर्घा । सायं सर्वैव च्छाया पूर्वाभिमुखी दीर्घा । किन्तु विशिष्य न गृह्यते, आगन्तुकच्छाययास्ताचलच्छायया वा सर्वासामेकीकरणात । एवं दर ईषद् व्यवच्छिद्य Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४०३ मानः क्वचित्क्वचिल्लग्नत्वात् अत एव विषमः संध्यारागो यत्र सा । एवम् अवधूसरिता दश दिशो यत्र सा । प्रकाशप्रौढिविरहात् एवम् अबद्धमसंबद्धं तिमिरं यत्र । द्वित्रिक्षणोत्तरमागन्तुकत्वेन तदा विरलत्वात् । केचित्तु भवति च प्रकटदीर्घा प्रकटा सती दीर्घा भवति चेत्यर्थमाहुः || २१ ॥ विमला - दिन का अवसान होने पर ( वृक्षादिकों की ) छाया लम्बी हो गयी, किन्तु ( सभी की छाया पूर्वाभिमुखी होने से ) विशेष रूप से किसी एक वृक्ष की छाया पृथक् प्रकट नहीं है । उसमें सन्ध्याराग बराबर नहीं, किन्तु कहीं-कहीं लगा है । दसो दिशायें ( प्रकाश स्वल्प रह जाने से ) धूसरित हो गयीं एवं अभी अन्धकार घना नहीं हुआ है ||२१|| अथ संध्याशान्तिमाह संझा अवमुच्चन्तं जलिअप सम्मन्तहु अवहट्ठाणणिहम् । दूरस्थमिअदिणअरं जाअं संवत्तसरिसरूअं गअणम् ।।२२।। [ संध्यातपमुच्यमानं ज्वलितप्रशाम्यद्भुतवहस्थाननिभम् । दूरास्तमितदिनकरं जातं संवर्तसदृशरूपं गगतम् ॥ ] दूरे अस्तमितो दिनकरो यत्र तद्गगनं संवर्तेन प्रलयेन सदृशं रूपं यस्य तादूग्जातम् । कीदृक् । संध्याकालीनेन संध्यारूपेण वा आतपेन मुच्यमानम् । अत एव प्रथमं ज्वलितं पश्चात्प्रशाम्यन्निर्वाणतां गच्छद्यद्वह्निस्थानं तत्तुल्यम् । यथा यथा संध्या तपत्यागः, तथा तथा श्यामिकोदयात् । संध्यातपदहनयोर्विपदग्निस्थानयोश्च साम्यम् । प्रलयोऽपि संध्यातपरविशून्यः कालानलोपशमान्निर्वाणालातनीलीकृतविश्वश्चेति समता । प्रलयतुल्यतया चागन्तुकतमसा नीलिमातिशयः सूचितः । सव्वत्थेति पाठे सर्वत्र सदृशरूपमित्यर्थः । भविष्यत्तमः प्रागल्भ्यादित्यर्थः ॥ २२॥ । विमला - गगन में दूर दिनकर अस्तंगत हो गया । वह ( गगन ) सन्ध्याकालीन आतप से मुक्त किया जा रहा है, अतएव पहिले ज्वलित और बाद में बुझते हुये अग्निस्थान के तुल्य है । इस प्रकार उस ( गगन ) का रूप प्रलय के सदृश हो गया । विमर्श -- प्रलय भी सन्ध्याकालीन आतप एवं सूर्य से शून्य होता है तथा कालाग्नि के बुझने से विश्व श्यामल हो जाता है ||२२|| अथ दीपोयोतमाह संझार अत्थइआ दरसंरूढन्धआरकअपरभाआ । दिअसच्छविपरिसेसे झिज्जन्ते निव्वलन्ति दीवज्जोप्रा ||२३|| [ संध्यारागस्थगिता दरसंरूढान्धकारकृतपरभागाः । दिवसच्छविपरिशेषे क्षीयमाणे निर्वलन्ति दीपो योताः ॥ ] Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] सेतुबन्धम् [ दशम दिवसस्य च्छविः शोभा तत्परिशेषेऽवशिष्टभागे क्षीयमाणे सति दीपानामुद्दयोता निर्वलन्ति अभिभावकाभावात्पृथग्भवन्ति । किंभूताः । संध्यारागेण स्थगिता: किंचित्प्रकाशसत्त्वेनावरुद्धप्रसाराः अनन्तरं ईषत्संरुद्धनान्धकारेण कृतः परभागः अन्यतः शोभा येषां ते ॥२३॥ विमला-दिवस के अवशिष्ट भाग के भी क्षीण होने पर दीपों का प्रकाश फैलने लगा, जो अबतक सन्ध्याराग के द्वारा ( कुछ प्रकाश शेष रह जाने से ) अवरुद्ध था, किन्तु अब कुछ अन्धकार बढ़ गया और उसने दीपों की एक दूसरी ही शोभा कर दी ॥२३॥ अथ चक्रविघटनमाहविहडन्तराणिप्रलं उहअतडठिअमिलन्त दिठिरइसुहम् । अवसं चक्काजुअं हुंकाराप्रत्तजीवि वोच्छिण्णम् ॥२४॥ [ विघट्टमानरागनिगडमुभयतटस्थितमिलदृष्टिरतिसुखम् । अवशं चक्रवाकयुगं हुकारायत्तजीवितं व्यवच्छिन्नम् ।। ] चक्रवाक युगं व्य वच्छिन्नं विश्लिष्टम् । कीदृक् । विघट्टमानो निरोधाक्षमो रागोऽनुरागरूपो निगडो यस्य तत् । निगडविघटने व्यवच्छेदो युज्यत एवेति भावः । एवं नद्यादेरुभयकूल स्थितं सद्रत एव मिलन्तीभ्यां दृष्टिभ्यां रतिसुखं यस्य तथाभूतम् । स्थितान्तं दृष्टिविशेषणं वा । एवम् अवशमस्वतन्त्रं हंकाराधीनं जीवितं यस्य तथा। तथा च दृष्टिमिलनेऽपि स्यन्दनिमेषयोरभावेन परस्परं संशयितस्व जीवितस्य स्वस्ववृत्त परिज्ञापनाय कृतेन विरहपीडोद्गमजनितेन वा हुंकारेणानुमित्या धारणमिति भावः ॥२४॥ विमला-चक्रवाक और चक्रवाकी एक-दूसरे से वियुक्त हो गये । अनुराग का बन्धन विघटित हो गया और वह उन्हें रोकने में असमर्थ हो गया। वे ( नदी के ) दोनों तटों पर स्थित रह कर दूर से ही दृष्टि मिलाकर रति का सुख ले रहे थे एवं अवश एक दूसरे की हुङ्कार ध्वनि को सुनते हुये जीवन धारण किये हुए थे ॥२४॥ अथ तिमिरप्रादुर्भावमाह ताव अ तमालकसणो कञ्चणकड व बहलसंझाराअम् । परिपेल्लिऊण अ तमो हिमकद्दमसुरगइन्दणिहसो व्व ठिमो ॥२५॥ [ तावदेव तमालकृष्णं काञ्चनकटकमिव बहलसन्ध्यारागम् । प्रतिप्रेयं च तमो हृतकर्दमसुरगजेन्द्रनिघर्ष इव स्थितम् ॥] यावत्संध्या गच्छति तावदेव तमालवत्कृष्णं तमः कर्तृ बहलं संध्यारागं काश्चनकटक मिव प्रतिप्रेयं अवपात्य स्थितम् । क इव । हृतकर्दमस्य सुरगजेन्द्रस्य निघर्ष Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४०५ गावघर्षणस्थानमिव । सोऽपि गात्र संबद्ध कर्दम संबन्धात्कृष्णः कण्डूयनादिविधिना गिरिकटकं भक्त्वा तिष्ठतीति साम्यम् । सुरगजगात्रीयत्वेन महत्त्वमप्युक्तम् । हृतकर्दमो निघषं इवेति वा ॥२५॥ - विमला – सन्ध्याकाल बीतते-बीतते तमालतुल्य श्याम अन्धकार ( काञ्चनगिरि के ) काञ्चनकटक ( उपत्यका खण्ड ) के समान प्रभूत सन्ध्याराग को अवपतित कर सुरगज ( ऐरावत ) के उस गात्रघर्षण के स्थान के समान उपस्थित हुआ, जिसमें सुरगज के शरीर का कर्दम ( प ) घर्षण के समय लगा हुआ है ||२५|| अथ तमसः प्रसरण माह आसण्णम्मि पविरलं बहलं थोअन्तरम्मि दूरम्मि घणम् । भग्गदिठिपसरं सव्वस्थ समट्ठि पि दीसह तिमिरम् ||२६|| [ आसन्ने प्रविरलं बहलं स्तोकान्तरे दूरे घनम् । अवभग्नदृष्टिप्रसरं सर्वत्र समस्थितमपि दृश्यते तिमिरम् ॥ ] सर्वत्र समतया स्थितमपि तिमिरमीदृशं दृश्यते । कीदृशम् । आसन्ने निकट के प्रविरलं स्तोकव्यवधानं बहलं निकटापेक्षया बहुलं दूरे घनम्, तदपेक्षयापि निि डम् । अत एव अवभग्नो दृष्टिप्रसरो यत्र विषयाणामग्रहात् । सर्वत्रासन्नादिषु भग्नदृष्टिप्रसरमिति वा ॥२६॥ विमला - यद्यपि अन्धकार सर्वत्र समान रूप से स्थित है तथापि भत्मन्त निकट में वह अत्यन्त विरल, उससे कुछ और दूरी पर अपेक्षाकृत अधिक और उससे भी अधिक दूरी पर अत्यन्त घना दिखायी देता है, अतएव दृष्टि का प्रखर भवभग्न हो गया -- आँखों से कुछ सुझाई नहीं पड़ता है ॥ २६ ॥ re द्रुमादीनामदृश्यतामाह घण विवट्ठिअतिमिरा तिमिरालिद्धमइलन्त मुद्धकिसलआ । किसल अणि सण्ण कुसुमा कुसुमामोएण णवर णज्जन्ति वुमा ॥२७॥ [ घनविटपस्थिततिमिरास्तिमिरालीढ मलिनायमानमुग्ध किसलयाः । किसलयनिषण्णकुसुमाः कुसुमामोदेन केवलं ज्ञायन्ते द्रुमाः ॥ ] ब्रुमाः केवलं कुसुमानामामोदेन ज्ञायन्ते । किंभूताः । घनेषु वनानि वा विषेषु स्थितान्यनुच्छेदनीयानि तिमिराणि येषु ते । एवं तिमिरैरालीढानि स्पृष्टानि, अब एव मलिनायमानानि मुग्धानि किसलयानि येषाम् । एवं किसलयेषु निषण्णानि न तु दृष्टानि कुसुमानि येषामिति । शाखापत्रकुसुमेषु सत्स्वपि दृष्टिप्रसराभावेन मोरममेवानुमापयतीति भावः । श्रृङ्खलाबन्धोऽयम् ||२७|| Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] सेतुबन्धम् [ दशम विमला - वृक्षों के घने पत्तों में तिमिर स्थित है, अतएव मनोहर किसलय तिमिराच्छन्न होने से मलिन से हो रहे हैं । कुसुम, किसलयों में स्थित ( किन्तु अदृश्य ) हैं एवं वृक्षों का ज्ञान केवल सौरभ से ही होता है ॥२७॥ अथ सर्वत्र तिमिरस्याभिव्याप्तिमाह- मेलविसव्वदिसं श्राणण्णम्मि वि पण ठण आलोअम् । सूएश्रयमहिधलं जाअं सूरवडणाणुरूअं तिमिरम् ||२८|| [ मेलित सर्व दिगासन्नेऽपि प्रनष्टनयनालोकम् । सूचयितव्यमहीतलं जातं सूरपतनानुरूपं तिमिरम् ॥ ] मेलिता एकीकृताः सर्वा दिशो येन, भेदज्ञापकचिह्नाभावात् । आसन्नेऽपि प्रनष्टो नयनस्यालोकस्तेजो, नयनेनालोको दर्शनं वा यस्मात् विषयतिरोधाय - कल्वात् । अत एव सूचयितव्यं चक्षुरन्यप्रमाण वेदनीयं स्मर्तव्यं वा महीतलं यत्र तादृशं तिमिरं सूर्य पतनस्यानुरूपं योग्यं जातम् । यथा सूर्ये सत्यत्यन्तप्रकाशोत्कर्षहेतुरत्यन्तमन्धकारापकर्ष, तथा तत्पतने सत्यत्यन्तप्रकाशापकर्ष हेतुरत्यन्तमन्धकारोत्कर्षः । किं वा सूर्यपतनं प्रलय इति तदनुरूपमिति भावः ||२८|| विमला - तिमिर ने सब दिशाओं को एक कर दिया । नेत्र से निकटवर्ती वस्तु भी नहीं दिखायी देती है । भूतल का ज्ञान नेत्र से नहीं: अपितु अन्य साधन से ही हो पाता है । सूर्य के रहते अन्धकार का जितना अपकर्ष था, अब सूर्य का पतन होने पर उसका उतना ही उत्कर्ष है ||२८|| अथ गाढतामाह — ओक्खण्डेश्रव्वदढों पसरइ उक्खम्मिअव्ववहलग्धाश्रो । अवलम्बिअव्वजोगो ससिणा भेअव्वसंघओ तमणिवहो ॥ २६॥ [ अवखण्डयितव्यदृढ: प्रसरत्युत्खनितव्य बलोद्धातः । अवलम्बितव्ययोग्यः शशिना भेत्तव्य संहतस्तमोनिवहः ॥ ] ? तमोनिवहः प्रसरति । कीदृक् । वृक्षादिवदवखण्डयितव्यः सन्दृढः । तथा च नावखण्डयितव्यः । पृथिव्यादिवदुत्खनितव्यः सन् बहलोद्धातो निबिडावयवसंस्थानः तथा च नोत्खनितव्यः । अवलम्बितव्यः सन् भित्त्यादिवद्योग्यो यदवष्टम्भेन स्थीयते । शशिना भेत्तव्यः सन् वज्रादिवत्संहतो निःसंधि मिलितः तथा च तेनापि न भेत्तव्य इति भावः । भेदनं द्विधाकरणम् तेन तिर्यक्छेदनरूपादवखण्डनाद्भेदः ॥ सर्वत्र कर्मणि तव्यः । अवखण्डयितव्येऽवखण्डने वृक्षादिवदृढ इत्येवंरूपेण सर्वत्र भावे वा । शशिना परं भेत्तव्यः संहतो मिलितश्चेत्यपि कश्चित् । संप्रदायस्तु अवखण्डयितव्यः सन् दृढः इति क्रमेण व्याचष्टे ||२६|| Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४०७ विमला---यह तमसमूह ( बृक्षादिवत् ) अवखण्डनयोग्य होते हुए भी दृढ़ है, ( अतएव इसका अवखण्डन नहीं हो सकता ), खनने योग्य होते हुए भी अत्यन्त निबिड है ( अतएव इसका खनन नहीं हो सकता ), अवलम्बितव्य होते हुये योग्य है तथा चन्द्रमा से भेत्तव्य होते हुए भी ठोस है ( अतएव इसका भेदन भी नहीं हो सकता ) । इस प्रकार इसका प्रसार बढ़ता ही जा रहा है ॥२६॥ अथ गुरुतामाहवहइ व महिलभरिओ गोल्ले व पच्छओ धरेइ व पुरमो। पेल्लेइ व पासगओ गरुआइ व उवरिसंठिओ तमणिवहो ॥३०॥ [वहतीव महीतलभृतो नोदयतीव पश्चाद्धारयतीव पुरतः । प्रेरयतीव पार्श्वगतो गुरुकायत इवोपरिसंस्थितस्तमोनिवहः ।।] तमसो निवहो महीतले भृतो व्याप्तः सन् भूमिष्ठं वस्तुजातं वहत्युद्वहतीन भूमिवदाधारीभूतत्वात् । पश्चात्पृष्ठतो नोदयतीव पृष्ठचर इव पुरोवतिनम् । पुरतोऽग्रे धारयतीव पृष्ठपातुकं पुरोवर्तीव पृष्ठतोऽनोदनेऽप्यपतनात् । पार्श्वयोः स्थितः सन् प्रेरयतीव यन्त्रयतीव यन्त्रवत्सिद्धार्थम् । तेषामेवोपरि स्थितः सन् गुरुकायत इव पतितगृहवदिति वहननोदनधारणप्रेरणगुरुत्वानुभवेन व्यापकत्वविशिप्टमूर्तत्वमुत्प्रेक्षितम् ॥३०॥ विमला-अन्धकार महीतल पर ऐसा व्याप्त है कि मानों ( भूमि के समान ही सकल वस्तुओं का आधार बन जाने से ) वह (भूमि की सकल वस्तुओं को) वहन कर रहा है, पीछे प्रेरित-सा कर रहा है, सामने धारण-सा कर रहा है, दोनों ओर स्थित होकर यन्त्रित-सा कर रहा है एवम् ऊपर स्थित होकर दबा-सा रहा है ॥३०॥ अथ शशिकरोद्गममाह दोसइ प्रतिमिरमिलिमो कसणसिलाभिण्णसलिलसीभरधवलो। थोउम्मिल्लन्तदिसो उअअन्तरिअतणुओ ससिअरुज्जोओ ॥३१॥ [ दृश्यते च तिमिरमिलितः कृष्णशिलाभिन्नसलिलशीकरधवलः । स्तोकोन्मीलद्दिगुदयान्तरिततनुकः शशिकरोद्योतः ॥] उदयेनोदयाचलेनान्तरितः, अत एव तनुक : कृशः । शशिकराणामुद्दयोतः पुरःप्रकाशो दृश्यते च । कीदृक् । तिमिरेण मिलितोऽतएव कृष्णशिलया भिन्नः संभिन्नो यः शलिलशीकरस्तद्वद्धवलः । शिलातिमिरयोः श्यामत्वेन शीकरोड्योतयोः श्वत्येन साम्यम् । तत एव स्तोकमल्पमुन्मीलन्ती प्रकाशं गच्छन्ती दिक्प्राची यस्मात्स तथा। किंचिदवच्छेदेन धवलिम्ना तिमिरापहारादिति भावः ॥३१॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] सेतुबन्धम् [ दशम विमला-चन्द्रमा का प्रकाश दिखायी पड़ा, जो अभी उदयाचल से छिपा हुआ, अतएव कृश है तथा जो तिमिर से मिलित होने के कारण कृष्ण शिला से मिलित सलिलशीकर के समान धवल है एवम् उससे प्राची दिशा थोड़ा-थोड़ा प्रकाशमय हो रही है ॥३१॥ अथ पूर्वदिक्प्रकाशमाहदीसइ जु अक्खअम्मि व महिलपरभाअससिमराहअतिमिरा। णिव्वडिअधूमहुअवहडसन्तसमुद्दसंणिहा पुवदिसा ॥३२॥ [ दृश्यते युगक्षय इव महीतलपरभागशशिकराहततिमिरा । निर्वलितधूमहुतवहदह्यमानसमुद्रसन्निभा पूर्वदिक् ॥] पूर्वा दिक् दृश्यते । कीदृशी। महीतलस्य परभाग एकदेशः । अर्थात्प्राच्यवच्छिन्न एव । तत्र शशिकरैराहतं स्पृष्टं ईषद्विघटितं वा तिमिरं यत्र तादृशी । तदवच्छेदेनैव तदानीं भूमेः शशिकरसंबन्धात् । उत्प्रेक्षते-युगक्षय इव निर्वलितः पृथग्भूतो धूमो यस्मादेतादृशो यो हुतवहः प्रलयाग्निस्तेन दह्यमानो यः समुद्रस्तत्संनिभा । तथा च रात्रेस्तमोमयतया प्रलयेन, शशिकराणां क्वचित्किचित्तिमिरसंबन्धादूम्रतया धूमेन, चन्द्रोदयकालीनलौहित्यस्य दहनेन, पूर्वदिशश्च तिमिरपूर्णत्वेन श्यामतया दह्यमानसमुद्रेण साम्यम् ॥३२॥ विमला-पूर्व दिशा में पृथिवी के एक भाग में चन्द्रमा के स्पर्श से तिमिर कुछ दूर हो चला, अतएव प्राची दिशा प्रलय काल में निर्धूम अग्नि से दह्यमान समुद्र के समान दिखायी दे रही है ॥३२॥ अथ चन्द्रकलोद्गममाह णवरि अ अच्छालोआ उअप्रगिरिक्खलिअबहलजोहाणिवहा। जामा पणतिमिरा मुद्धमिश्रङ्कपरिपण्डुला पुन्वदिसा ।।३३॥ [ मनन्तरं चाच्छालोका उदयगिरिस्खलितबहलज्योत्स्नानिबहा। जाता प्रनष्टतिमिरा मुग्धमृगाङ्कपरिपाण्डुरा पूर्वदिशा ॥] चन्द्रालोकदर्शनानन्तरं च पूर्वदिक् मुग्धेन बालेन लेखारूपेण मृगाङ्केन परिपापुरा माता। धूसरत्वे हेतुमाह-कीदृशी । उदयगिरौ स्खलितः प्रतिहतो बहलो निविडो ज्योत्स्नासमूहो यत्र सा सकलतेजसामनागमनाद्धसरत्वमिति भावः । अत एक किचिज्ज्योत्स्नासंबन्धात्प्रनष्टं तिमिरं यत्र । अत एव तिमिराभावादच्छो निमंस भालोको दर्शनं यस्याः । 'गूढमिअङ्क-' इति क्वचित्पाठः । तत्र गूढः संमुत्तः ॥३३॥ विमला-उदयगिरि पर निबिड ज्योत्स्ना-समूह के प्रतिहत होने के कारण ( अभी सकल तेज का भागमन न होने से ) पूर्व दिशा बाल मृगाङ्क से धूसर हो Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४०६ गयी, अतएव ( किंचित् ज्योत्स्ना से ) तिमिर नष्ट हो गया और वह साफ दिखायी देने लगी ॥३३॥ अथ शशिबिम्बोदयमाह णवकमलोअरप्रम्बं केसरसउमारसंगलन्तमऊहम् । विरलेइ समासणं णीसेसेइ तिमिरं ण ता ससिबिम्बम् ।।३४।। [ नबकमलोदरातानं केसरसूकूमारसंगलन्मयूखम् । विरलयति समासन्नं निःशेषयति तिमिरं न तावच्छशिबिम्बम् ।।] शशिबिम्बं कर्तृ यावत्प्रौढं न जातम्, तावत्समासन्नं निकटवर्ति तिमिरं विरलयति, न तु नाशयति । तथा च यथा यथा विधुव्यवधानं तथा तथा घनमेव तमः स्थितमिति भावः । किंभूतम् । नवकमलोदरवदीषत्ताम्र उदितमात्रत्वात् । एवं केसरवत्सुकुमाराः सुखस्पर्शाः संगलन्तः पतन्तो मयूखा यस्य । तथा च शोणकमलकेसरसाम्यं चन्द्रतत्किरणयोरित्युपमा ॥३४॥ विमला-चन्द्र बिम्ब ( अभी उदित-मात्र होने से ) नवकमल के भीतरी भाग के समान थोड़ा-सा लाल है तथा केसर के समान सुकुमार उसकी किरणें भूतल पर पड़ने लगी हैं, अतएव वह अभी निकटवर्ती तिमिर को केवल विरल ही कर पा रहा है, पूर्ण रूप से विनष्ट नहीं कर रहा है ।।३४॥ अथ मण्डलप्रौढिमाह तो उअअसिहरमिलिअंजा उप्पुसितिमिरधवलच्छामम् । इअत्तच्छिन्नसुरगप्रदन्तच्छे अपरिमण्डलं ससिबिम्बम् ॥३५॥ [ तत उदय(गिरि)शिखरमिलितं जातमुत्प्रोच्छिततिमिरधवलच्छायम् । इतोऽभिमुखस्थितसुरगजदन्तच्छेदपरिमण्डलं अशिविम्बम् ॥ ] तत उद्गमानन्तरमितोऽभिमुखः पश्चिमाभिमुखः सन् स्थितो यः सुरगजः ऐरावतस्तद्दन्तच्छेदवत्तरिमण्डलं वर्तुलं शशिबिम्ब मुदयगिरिशिखरे मिलितं सदुत्प्रोच्छितमपसारितं तिमिरं येन तथाभूतत्वेन धबलच्छायं जातम् । तिमिराभावा. दिति भावः ॥३५॥ विमला-उदित होने के अनन्तर, पश्चिमाभिमुख स्थित ऐरावत गज के [ दन्तच्छेद ] माथे के अगले भाग के समान गोल चन्द्रमण्डल उदयगिरि के शिखर से मिला हुमा एवं तिमिर को दूर कर धवल कान्तियुक्त सुशोभित हुआ ॥३५॥ मथ नभोनीलिमोत्कर्षमाहणवरि अ ससिअरगिसुठिअविवलाइअतिमिरकलुसताराणिवहम् । जाअं बहुकुसुमोस्थलसिलामारसंणिहं गणमलम् ॥३६॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] सेतुनन्धम् [ दशम [ अनन्तरं च शशिकरनिपातितविपलायिततिमिरकलुषतारानिवहम् । जातं बहुकुसुमावस्तृतशिलाकारसंनिभं गगनतलम् ॥] चन्द्रधावल्यानन्तरं गगनतलं जातम् । कीदृशम् । शशिना करैनिपातितम् । अत एव विपलायितं तिमिरं यस्मात्तथाभूतं च तत्कलुषम् । चन्द्रातपेनाभिभूतत्वान्मन्दच्छविस्ताराणां निवहो यत्र तादृशं चेति कर्मधारयः । अत एव बहुकुसुमेनावस्तृतं व्याप्तं यच्छिलातलं तस्याकारं स्वरूपं तत्तुल्यम् । तथा च श्यामत्वेन शिलागगनयो:, श्वत्येन ताराकुसुमयोस्तौल्यमित्युपमा ॥३६॥ विमला- चन्द्र के धवल होने के अनन्तर चन्द्रमा की किरणों से आहत होकर तिमिर के भाग जाने से आकाश अपनी पूर्वनीलिमा को प्राप्त हो गया तथा तारागण ज्योत्स्ना से अभिभूत होने से मन्द पड़ गये, अतएव गगनतल बहुकुसुम से व्याप्त शिलातल के स्वरूपतुल्य सुशोभित हुआ। विमर्श-श्याम होने से शिला और गगन की तथा श्वेत होने से ताराओं और कुसुमों का साम्य समझना चाहिये ।।३६।। अथ दुमच्छायामाहवरमिलिअचन्दकिरणा वरघुवन्ततिमिरपरिपण्डुरालोआ। दरपाअडतनु विडवा दरबद्धच्छाहिमण्डला होन्ति दुमा ।।३७॥ [ दरमिलितचन्द्रकिरणा दरधाव्यमानतिमिरपरिपाण्डुरालोकाः । दरप्रकटतनुविटपा दरबद्धच्छायामण्डला भवन्ति द्रुमाः ।।] द्रुमा भवन्ति । कीदृशाः । ईषन्मिलिताश्चन्द्रकिरणा येषु । अत एव ईषद्धाव्यमानं क्षाल्यमानं यत्तिमिरं तेन परिपाण्डुरा आलोकाश्चन्द्रकान्तिच्छटा यत्र । किंचितिमिरसत्त्वेन पाण्डुरत्वमित्यर्थः । अत एव चन्द्रक रतिमिरयोरुभयोरपि सत्त्वादीपत्प्रकटाः कृशा विटपा येषाम् । प्रौढविटपानां तु प्रकटत्वमेवेति भावः । एवम् ईषद्वद्धं छायामण्डलं यस्ते । 'ईषदर्थे दरोऽव्ययम्' इति विश्वः ॥३७॥ विमला-वृक्षों के भीतरी भागों में चन्द्रमा की किरणें प्रविष्ट हो गयीं और तिमिर कुछ-कुछ धुल गया और कुछ विद्यमान है, अतएव चन्द्रमा की कान्ति धूसर है, इसलिए छोटे विटप थोड़े-थोड़े ही प्रकट हैं और उनकी छाया का मण्डल अभी थोड़ा ही हो पाया है ।।३७।। अथेन्दुमण्डलप्रौढिमाहहोइ णहलङ्घण सहं जाअत्थामकिरणाहउक्खअतिमिरम् । विअलि अमुद्धसहाअ जरठाअन्तधवलं णिसाअरबिम्बम् ।।३।। [ भवति नभोलङ्घनसहं जातस्थामकिरणाहतोत्खाततिमिरम् । विगलितमुग्धस्वभावं जरठायमानधवलं निशाकरबिम्बम् ।।] Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४११ __ विगलितो मुग्धस्वभावो बालत्वं यस्य तत्प्रौढं निशाकरविम्बं नभोलङ्घने क्षम भवति । कीदृक् । जातं स्थाम स्थैर्य येषां तैः किरणैराहतं ताडितं सदुत्खातमुत्पाटितं तिमिरं येन । अत एव जरठायमान वर्धमानं चिरंतनं वा सद्धवलम् ।।३८॥ विमला-चन्द्रमण्डल का बालत्व समाप्त हो गया। वह प्रौढता को प्राप्त होकर नभ को लाँघने में समर्थ हो गया और प्रौढ किरणों से उसने तिमिर का विनाश कर दिया। इस प्रकार क्रमशः बढ़ता हुआ वह धवल हो गया ।।३।। अथ ज्योत्स्नाप्रौढिमाहतहपरिसंठिअसेलं विस्थिण्णदिसं तहुज्जुअणइप्पवहम् । खन्तूण व उक्किणं ससिगा तमसंचरं पुणो वि महिअलम् ॥३६॥ [ तथापरिसंस्थितशैलं विस्तीर्णदिक्तथर्जुकनदीप्रवाहम् । खनित्वेवोत्कीणं शशिना तमःसंचयं पुनरपि महीतलम् ॥] शशिना तमःसंचयं खनित्वा महीतलं पुनरप्युत्कीर्णमिव काण्डीकारितमिव । कीदृक् । तथा पूर्ववत्परिसंस्थिताः शैला यत्र । एवम् तथा पूर्ववदेव विस्तीर्णा दिशो यत्र । तथा पूर्ववदेव ऋजवो नदीनां प्रवाहा यत्र तादृशम् । तथा च यथा काष्ठादिकं खनित्वानपेक्षितभागमपसार्य करचरणचिबुकादिमत्प्रतिमादिकं क्रियते, तथा तमोलिप्तमपि गिरिगहनगृहादिसहितं भूतलं तिमिरमपसार्य तत्तदवयवसंस्थान विशिष्टं शशिना प्रकाशितमिति भावः । अथवा-'तथापरिसंस्थितशैलम्' इत्यादि क्रियाविशेषणम् । तथा च महीतलं खनित्वेव तमःसंचय उत्कीर्णः क्षितिगर्भ निक्षिप्त इत्यर्थः । तत एवावरकाभावाच्छैलादीनां प्रकाश इत्यभिप्रायः ॥३६॥ विमला-चन्द्रमा ने तम के समूह को खोद कर दूर करके महीतल को फिर से उत्कीर्ण-सा कर दिया और उस पर पर्वत पूर्ववत् संस्थित हो गये, दिशायें पूर्ववत् विस्तीर्ण हो गयीं एवं पूर्ववत् नदियों के ऋजु प्रवाह सुशोभित हो गये ॥३६॥ पुनश्छायामेवाहबहलाम्म वि तमणिवहे णिव्वालेऊण सच्चविअरूवाओ। अणबन्धन्ति ससिअरा घेत्तंण चअन्ति पाअवच्छाआओ ॥४०॥ [ बहलेऽपि तमोनिवहे निर्वाल्य सत्यापितरूपाः ।। अनुबध्नन्ति शशिकरा ग्रहीतुं न शक्नुवन्ति पादपच्छायाः ॥] शशिकराः पादपानां छायाः कर्माणि ग्रहीतुं स्रष्टुं नाशयितुमित्यर्थः । न शक्नुवन्ति वृक्षतले तासामतिघनत्वात् । किं तु-अनुबध्नन्ति वेष्टयन्ति । किंभूताश्छायाः । बहलेऽपि तमोनिवहे निर्वाल्य पृथक्कृत्य सत्यापितं रूपं यासां ताः । ग्राह्यत्वेन स्थिरीकृतरूपा इत्यर्थः । यथा कोऽपीश्वरो धाटिकया विद्रावितारिसैन्या Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] [ दशम त्पृथक्कृत्य किं च ध्रियमाणमरण्याश्रितं ग्रहीतुमपारयन्वेष्टयति तथा शशिकरा अपि लमोनिवहमुन्मूल्य ततः पृथक्कृत्यापि वृक्षतलमाश्रितां छायां स्रष्टुमपारयन्तः परितो वेष्टयन्तीत्यर्थः ॥ ४० ॥ ॥ सेतुबन्धम् विमला - ( जैसे कोई राजा आक्रमण कर शत्रु की सेना को खदेड़ कर शत्रु को उससे अलग कर देता है, फिर शत्रु भी जब भाग कर अरण्य का आश्रय ले लेता है तब उसे विनष्ट करने में असमर्थ वह केवल शत्रु के चारो ओर घेरा डा रहता है, वैसे ही ) चन्द्रमा की किरणों ने प्रचुर तिमिरसमूह को दूर कर वृक्षों की छाया को उसने पृथक् तो कर दिया, किन्तु छाया ने वृक्षतल का आश्रय ले लिया, अतएव वे उसका विनाश करने में असमर्थ हो केवल घेरे हुये हैं ॥४०॥ अथ कुमुदोत्फुल्लतामाह णवर करालेइ ससी मुहपरिहट्टणसमुससन्त बलउडम् । Mafsच्छिएक मेक्का विसअं फालेन्ति महुअर चिचअ 'कुम अम् ।।४१।। [ केवलं करालयति शशी मुखपरिघट्टनसमुच्छ्वसद्दलपुटम् । अप्रतीष्टैकैके विशदं पाटयन्ति मधुकरा एव कुमुदम् ॥ ] शशी कुमुदं केवलं करालयति सच्छिद्रयति मुखं दलानामीषद्विभागात् । किं तु विशदं स्पष्टं यथा स्यादेवं अप्रतीष्टैकैकेऽनपेक्षितपरस्परा मधुकरा एव पाटयन्ति । विकासयन्तीत्यर्थः । किंभूतम् । मुखे परिघट्टनेन करचरणाद्यभिघातेन समुच्छ्वसन्ति दलपुटानि यस्य तत् । स्वस्यैव मुखेन परिघट्टनादिति बा । हठादेव मधुसम्धीच्छया स्वभावतो वा मुखेनैव प्रवेश इति तन्मुखमुल्य प्रविशन्तीत्यर्थः । तथा च – मुकुलीकरणेन वत्मं प्रदर्शकत्वमात्रं चन्द्रस्य, विकासस्तु सहजसिद्धस्तत्काबानपेक्ष एव । मधुकरोत्कण्ठाधीन इत्यनेन परस्परानपेक्षया च मधूनामाधिक्वं क्याञ्जि ॥४१॥ विमला - चन्द्रमा ने केवल कुमुद के दलों को थोड़ा-सा खोल भर दिया, उसको पूर्ण विकसित करने का कार्य तो एक-दूसरे की अपेक्षा विना किये ही मधुपों ने कर दिया, जो ( हठात् ) कुमुद के अग्रभाग को चरणादि के अभिभा उद्वेल्लित कर प्रविष्ट हो गये ||४१ ॥ अथ सर्वत्र तमः शून्यतामाह पुसिओ णु णिरवसेसं समअं थोरकरपेल्लिनो णु विराओ । प्रोत्थम्रो ण समत्तो ससिणा पीओ णु णिद्दअं तमणिवहो ॥४२॥ [ प्रोन्छितो नु निरवशेषं समं स्थूलकर प्रेरितो नु विशीर्णः । अवस्तृतो नु समस्तः शशिना पीतो नु निर्दयं तमोनिवहः ॥ ] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४१३ शशिना तमोनिवहः अवशेषशून्यं यथा स्यात्तथा प्रोञ्छितो नु । करैरित्यर्थात् । यत्कर्दमादि प्रोञ्छयते तत् किंचिदपि करे लगति, तमस्तु न तथा इत्यत आह--- सममेकदैव स्थूलकरैः प्रेरितो नु । प्रेरितमपि निकटं त्यक्त्वा दूरे तिष्ठति, प्रकृतं तु न तथा, इत्यत आह - विशीर्णः खण्डखण्डीभूतः । विशीर्णमप्येकदेशे तिष्ठति, इत्यत आह——समस्त एव समन्ताद्वावस्तृतो नु । विकीर्ण इत्यर्थः । अवस्तृतमपि aण्डस्फुटितं दिशि दिशि तिष्ठत्येव इत्यत आह-पीतो नु । यद्वा – समन्तत इत्यत्रैवानेतव्यम् तेन पीतो नु समाप्तः कथाशेषं गत इत्यर्थः । पीतावशिष्टमपि चषकादौ लगति, इत्यत उक्तम् — निर्दयमिति क्रियाविशेषणम् । तेन शत्रुवतिकमपि न रक्षितमिति भावः ॥ ४२|| , विमला - चन्द्रमा ने तिमिरसंघात को क्या एकदम पोंछ डाला अथवा स्थलकरों से दूर हटा दिया अथवा खण्ड-खण्ड कर दिया अथवा विकीर्ण कर दिया अथवा उसने निर्दयतापूर्वक पी डाला ? ॥४२॥ अथ गगनोज्ज्वलतामाह - मंसल चिक्खिल्लणिहं हत्थग्गेज्झं व महलिअदिसानवकम् । खन्तूण व तमणिवहं चन्द्रज्जोएण खउरिअं व गहअलम् ॥ ४३ ॥ [ मांसलकर्दमनिर्भ हस्तग्राह्यमिव मलिनित दिक्चक्रम् । उत्खायेव तमोनिवहं चन्द्रोदयोतेन मुण्डित ( धवलित) मिव नभस्तलम् || ] चन्द्रोदयोतेन तमोनिवहमुत्खाय केशा दिव च्छित्त्वा नभस्तलं मुण्डितमिव धवतिमिवेति वा । तमोनिवहं किंभूतम् । चिक्खिल्लशब्दः कर्दमे देशी । तेन घनीभूतकर्दमनिभम् । अत एव हस्तेन ग्राह्यमिव निबिडत्वात् । एवं मलिनितं दिक्चक्रं येन तत्तथा । ' शशिना' इति पूर्वस्कन्दका दनुषञ्जनीयम् । तेन शशिना नापितेनेवेत्यर्थात् । चन्द्रोदयोतेन क्षुरादिवत्करणीभूतेन नभस्तलं मुण्डितमित्यन्वय इति वयम् ॥४३॥ विमला - ( नापितवत् चन्द्रमा ने ), चन्द्रोद्योत ( छूरा ) से, ( केशवत् ) घनीभूत पङ्कसदृश अतएव हाथ से ग्राह्य तथा दिङ्मण्डल को मलिन करने वाले तिमिरसंघात को छिन्न कर गगनतल को मुण्डित अथवा धवलित-सा कर दिया ||४३|| वनमाह भिण्णत मदुद्दिणाई बिडवन्तर विरलपडिश्रचन्दकराई । थोअ सुहालोआई पअडन्ति व्व मुद्धपल्लवाई वणाई ।। ४४ ।। [ भिन्नतमोदुर्दिनानि विटपान्तरविरलपतितचन्द्रकराणि । स्तोकसुखालोकानि प्रकटयन्त इव मुग्धपल्लवानि वनानि ॥ ] Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] सेतुबन्धम [ दशम शशिना वनानि प्रकटयन्ते स्फुटीक्रियन्त इव । किंभूतानि । विटपानामन्तरेण रन्ध्रेण विरलं यथा स्यात्तथा पतिताश्चन्द्रस्य करा येषु । अत एव भिन्नं खण्डितं तम एव, तमसा वा, दुर्दिनं येषु । अत एव स्तोकमल्पं सुखालोकानि । ईषत्करपातात् । आलो कस्तेजश्छटा वा। अत एव छटासंबन्धान्मुग्धं मनोरमं पल्लवं येषां तानि । यद्वा-वनानि कत"णि मुग्धपल्लवानि क्षुद्रपल्लवान्यपि कर्माणि प्रकटयन्ति प्रकाशयन्ति चन्द्रोत्कर्षादित्यर्थः। विशेषणानि वनवत्पल्लवानामपीति ध्येयम् । विट'पान्तरपतितचन्द्र करत्वात्किरणैरेव प्रगलन्ति स्रवन्तीवेति केचित् ॥४४॥ विमला-चन्द्रमा ने वनों को प्रकट कर दिया। उसकी किरणें विटपों के रन्ध्र से विरल रूप में पृथिवी पर पड़ने लगीं, तिमिररूप दुदिन का अवसान हो गया, अतएव वृक्षों का स्वल्प एवं सुखद दर्शन होने लगा तथा उनके पल्लव मनोरम हो गये ॥४४॥ कुमुदसाम्राज्यमाह परिमलिअद्दुमकुसुमा उअत्तदिसागइन्दमअणीसन्दा । निविठ्ठपङ्कवणा प्रोवग्गन्ति कुम ओभराइ महुअरा ॥ ४५ ॥ [परिमृदितद्रुमकुसुमा उपभुक्तदिग्गजेन्द्रमदनिस्यन्दाः। निवृष्टपङ्कजवना आक्रामन्ति कुमुदोदराणि मधुकराः ।।] परिमृदितानि द्रुमाणां कुसुमानि यः, उपभुक्ता दिग्गजेन्द्राणां स्यन्दमाना मदा यः, एवं निघुष्टमुपभुक्तं पङ्कजवनं यः, तेऽपि मधुकराः कुमुदानामुदराण्याक्रामन्ति, न तु दलानि । विलासोत्कर्षेण दलानामधोगमनात्प्रसह्योदर एव पतनादिति भावः । एतेन रात्रौ द्रुमकुसुमाद्यपेक्षया सामायिकत्वेन कुमुदमधूनामास्वादसाम्राज्यं सूचितम् ।।४।। विमला-भ्रमर यद्यपि द्रुमकुसुमों, दिग्गजेन्द्रों के मद तथा पङ्कज वन का उपभोग कर चुके थे तथापि उन्होंने कुमुदों के उदर को आक्रान्त किया ॥४५॥ अथ चन्द्रस्योर्ध्वारोहणमाह होइ णिराअ अलम्बोगवखपडिओ दिसागअस्स व ससिणो। कसणमणिकूट्टिम अले गेल्लन्ती सरजलं व करपब्भारो॥ ४६ ॥ [ भवति निरायतलम्बो गवाक्षपतितो दिग्गजस्येव शशिनः । कृष्णमणिकुट्टिमतले गृह्णन्सरोजलमिव करप्राग्भारः ॥] दिग्गजस्येव शशिनः करप्राग्भार इन्द्रनीलघटितकुट्टिमतले गवाक्षेण पतितः सन् सरोजलमिव गृहन्निरायतलम्बो भवति । गजस्य करः शुण्डा तदग्रभागः सरोजलं गृह्णन् दीर्घाकृतः संल्लम्बो भवत्येवेत्याशयः । तथा च-श्वत्येन दिग्ग Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४१५ जचन्द्रयोः, श्यामत्वेन सरोजलकुट्टिमयोः, दैर्पण करपदश्लेषेण च शुण्डाकिरणयोः साम्येनोत्प्रेक्षा ॥४६।। विमला-चन्द्रमा का किरणसमूह इन्द्रनील मणि के फर्श पर झरोखों से गिरता हुआ दीर्घ हो रहा है, मानों दिग्गज की सूड का अग्रभाग सरोवर के जल को ग्रहण करने के लिये लम्बा हो रहा है ॥४६॥ अथेन्दोरूर्ध्वस्थितिमाहदोसन्ति गाउलणिहे ससिधवलमइन्दविदुए तमणिवहे। भवणच्छाहिसमूहा दोहा गोसरिअकद्दमपअच्छाआ ॥४७॥ [ दृश्यन्ते गजकुलनिभे शशिधवलमृगेन्द्रविद्रुते तमोनिवहे । भवनच्छायासमूहा दीर्घा निःसृतकर्दमपदच्छायाः ॥] भवनानां छायासमूहा दीर्घा दृश्यन्ते । चन्द्रस्य तिर्यगूर्ध्वस्थितत्वादित्याश यः । किंभूताः । श्यामत्वाद्गजकुलतुल्ये तमोनिवहे चन्द्र एव धवलो मृगेन्द्रस्तेन विद्रुते सति नि:सृतः कर्दमो यत्र तादृशं यत्पदं पदार्पणस्थानं तद्वच्छाया शोभा येषां तथाभूताः । तथा च पङ्कादुत्तीर्णस्य करिणः पदपङ्क्तिः पङ्कमयी भवतीति तथा. भूतस्य विधुसिंहभिया पलायितस्य तमोगजस्य पदपङ्क्तितुल्यत्वं गृहच्छायानामित्यर्थः । सिंहस्य स्वभावत एव धवलत्वमिति निरर्थकत्वमाशय पूर्वनिपाता नियमेन मृगेन्द्रवद्धवलशशिविद्रुते इति योजयन्ति केचित् । केचित्तु-तमोगजाविनाशक्षमत्वसूचनाय धवलो धुरंधरः इत्यर्थमाहु: ॥४७॥ विमला-भवनों के दीर्घ छायासमूह, धवल चन्द्र रूप सिंह के भय से भागे हुये तिमिरगज की पङ्कमयी पदपङ्क्ति के समान दिखाई दे रहे हैं ॥४७॥ अथेन्दोनभोमध्येऽवस्थितिमाहतंसुण्णमन्तबिम्बो जालन्तरणिग्गओसरन्तमऊहो। भिण्ण विवरन्धआरो भग्गच्छाहिपसरो विलग्गइ चन्दो ॥४८॥ [तिर्यगुन्नमबिम्बो जालान्तरनिर्गतापसरन्मयूखः । भिन्नविवरान्धकारो भग्नच्छायाप्रसरो विलगति चन्द्रः ।। ] चन्द्रो विलगति नभोमध्यमारोहतीत्यर्थः । कीदृक् । तिर्यग्देशादुन्नमदूर्ध्वमुपरिगच्छबिम्बं यस्य । मस्तकोपरि स्थितेरिति भावः । यद्वा-प्रथमं तिर्यग्भूतं सत्पश्चादुपरिगच्छबिम्बं यस्य । ऊ/रोहणेन तीर्यग्भावादप्यसमत्वादित्यर्थः । एवं प्रथमं जालान्तरेण निर्गता निःशेषतो गृहं प्रविष्टाः, अथापसरन्तो गृहाबहिनिगच्छन्तो मयूखा यस्य । यदा चन्द्रस्तिर्यस्थित:, तदा तिर्यग्वर्तिजालसांमुख्येन निःशेषतो गृहं प्रविष्टा रुचयः, संप्रति गृहमस्तकोपरि स्थित इति गृहं न प्रविशन्ती Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] सेतुबन्धम् [दशम त्यर्थः । एवं भिन्नो विवरस्यान्धकारो येन । संमुखतया किरणानां तत्र प्रवेशात् । एवं च भग्नच्छायानां प्रसरो बहिर्गमनं येन । तथा निशामध्ये छायानां वृक्षादिमूल एव स्थितेरिति भावः ॥४८॥ विमला-चन्द्रमा अब नीचे से ऊपर की ओर जा रहा है। उसकी किरणें जो ही पहिले खिड़की के रास्ते से घर में प्रविष्ट हो चुकी थीं वे अब घर से बाहर निकल रही हैं तथा (सीधी किरणें पड़ने से) विवर का अन्धकार नष्ट हो गया एवं छाया का प्रसार भग्न हो गया ॥४८॥ पुनर्योत्स्नामाहविच्छड्डिअचुण्णनिहा आवीसुअविसेसिअन्भच्छामा। विप्रडगवक्खोवइमा दीवुज्जोअमिलिआ किलिम्मइ जोला ॥४६॥ [विच्छदितचूर्णनिभा आपीतांशुकविशेषिताभ्रच्छाया। विकटगवाक्षावपतिता दीपोद्दयोतमिलिता क्लाम्यति ज्योत्स्ना॥] विकटेति हेतुगर्भम् । तथा च प्रौढोपरिस्थगवाक्षेणावपतिता गृहं प्रविष्टा ज्योत्स्ना दीपोद्दयोतेन मिलिता सती क्लाम्यति । स्वल्पत्वादभिभवेन मन्दीभवतीत्यर्थः । अत एव पुजीकृतचूर्ण निभा प्रभाविरहात् । एवं दीपरुचिसंबन्धादापीतेनेषत्पीतच्छविना प्रभारूपेणांशुकेन विशेषिता सदृशीकृताभ्रस्य छाया कान्तिर्यया । मृष्टत्वादीषत्पीतवस्त्रसदृशीकृताभ्रतुल्यकान्तिर्वा । यद्वा-आपीतांशुकेन पीतवस्त्रेण विशेषितं विशिष्टं यदभ्रकं तद्वच्छाया यस्याः । वस्त्रपीतिमप्रतिबिम्बादभ्रकस्यापि किर्मीरि. तत्वादिति भावः । 'अच्छच्छाया' इति पाठे आपीतोंऽशुकेषत्पानविषयीकृतप्रभा सती विशेषिताल्पीकृताच्छा निर्मला छाया कान्तिर्यस्याः सा। ईषत्पीतवस्त्रवदच्छा निर्मला छाया यस्येत्यर्थो वा ॥४६॥ विमला-बड़े गवाक्ष के मार्ग से गृह में प्रविष्ट ज्योत्स्ना दीप के प्रकाश से मिलकर मन्द हो रही है, अतएव ( प्रभारहित होने से ) पुजीकृत चूर्णस दृश तथा थोड़ी पीली प्रभा से अभ्र की कान्ति को प्राप्त हो रही है ॥४६॥ पुनः कुमुदविशेषमाहपरिणामवरुम्मिल्लं ओवत्तेअव्वबहलजोलाभरिमम् । थोप्रत्थोअमउलि भरवित्थारिदलं व वेवइ कुमुअम् ॥५०॥ [परिणामदरोन्मीलमपवर्तयितव्यबहलज्योत्स्नाभृतम् । स्तोकस्तोकमुकुलितं भरविस्तारितदलमिव वेपते कुमुदम् ॥] स्तोकस्तोकक्रमेण मुकुलितं जातमुद्रम् । दिवसे इत्यर्थात् । कुमुदं निशि परिणामेन क्रमजरठतया ईषदुन्मीला उन्मीलनं तद्विशिष्टं सद्वेपते । अत एव अपवर्त - यितव्यया घनीभावेन हस्तादिना बहिष्करणयोग्यया बहलज्योत्स्नया भृतं पूर्णम् । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४१७ अत एव भरेण ज्योत्स्नागौरवेण विस्तारितपत्रमिव । अयमर्थः -दिवाजातमुद्रमपि कुमुदं स्वभावादेव निशि किंचिद्विकसितम् । अथ वर्मलाभेन ज्योत्स्नया पूरितत्वात्तद्भरेण दलानामधोगमनादुत्फुल्लमासीदित्युन्मीलनकारणस्य वा तद्धतुकस्य वा स्पन्दस्य भरहेतुकत्वोत्प्रेक्षया मुकुलनसमकालमेव विकासोत्कर्ष इति व्यज्यते । अन्योऽपि वयःपरिणामेनेषदुन्मील: कम्पत इति ध्वनिः ।।५०।। बिमला-(दिन में ) जो कुमुद मुंदा हुआ था वह रात में किंचित् विकसित हो गया और इस प्रकार मार्ग मिलने से प्रचुर ज्योत्स्ना से भर गया, जिसके भार से उसकी पंखुड़ियाँ नीचे की ओर झुक गयीं तथा बह पूर्णरूप से उत्फुल्ल हो स्पन्दनशील हो गया ॥५०॥ वृक्षावस्थामाह --- पवणाम्पिअसिहरा गमोणिअत्तन्तविडवविहुअच्छाआ। ससिकिरणपरिक्खित्ता जोहावेअवडिआ पवन्ति व रुक्खा ।। ५१ ।। [पवनाकम्पितशिखरा गतापनिवर्तमानविटपविधूतच्छायाः । शशिकिरणपरिक्षिप्ता ज्योत्स्नावेगपतिताः प्लवन्त इव वृक्षाः ॥] ___ शशिकिरणः परिक्षिप्ता वेष्टिताः, अत एव ज्योत्स्ना नवसलिलमिव तस्या वेगे प्रवाहे पतिताः सन्तो वृक्षाः प्लवन्ते इव प्लवनं कुर्वत इव । किंभूताः । पवनेनाकम्पितं शिखरं येषाम् । अत एव । गतैः, अथापनिवर्तमानैरागतैविटपैविधताः कम्पिताश्छाया येषां ते। अन्योऽपि प्रवाहे पतित: करचरणादिव्यापारेण प्लवत इति वृक्षाणां शाखाकम्पहेतुकच्छायाचाञ्चल्येन प्लवनमुत्प्रेक्षितमिति ज्योत्स्ना. बाहुल्यम् ॥५१॥ विमला-वृक्ष शशिकिरण से वेष्टित हैं, पवन से उनका अग्रभाग कुछ कम्पित है, शाखाओं के हिलने-डुलने से छाया चञ्चल हो रही है, इस प्रकार मानों वे ( वृक्ष ) ज्योत्स्ना के प्रवाह में पड़कर तैर रहे हैं ॥५१॥ पुनर्योत्स्नामाहघरमणिमऊहभिण्णो लिलाहअबहलचन्दणरसच्छाओ। उद्देसुल्ललिअतमो दीस इ विवरविसमो व्व जोहाणिवहो ।। ५२ ।। [ गृहमणिमयूखभिन्नो सलिलाहतबहलचन्दनरसच्छायः। उद्देशोल्लुलिततमो दृश्यते विवरविषम इव ज्योत्स्नानिवहः ॥] गृहमणीनां दीपानां मयूखैभिन्नः संगतः सन् । गृह इत्यर्थात् । सलिलेनाहतस्य सिक्तस्य चन्दनरसस्येव च्छाया कान्तिर्यस्य पीतधवलत्वात् । तथाभूतो ज्योत्स्नानिवहः । उद्देशे क्वचित्क्वचिदुल्लुलित विपर्यस्य स्थितं तमो यत्र, शाखापत्रादिच्छायारूपत्वात् । तथाभूतः सन् । विवरैनिम्नप्रदेशैविषमो विसदृश इव दृश्यते । बहि २७ से० ब० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८] सेतुबन्धम् [दशम रित्यर्थात् । क्वचित्क्वचिदवस्थिता शाखापत्रादिच्छाया विवरबुद्धि जनयतीत्यर्थः । 'दशेन्धनो गृहमणिः स्नेहाशः कज्जलध्वजः' इति हारावलिः ।।५३।। विमला-( घर में ) दीपों की किरणों से मिलकर ज्योत्स्ना की कान्ति (पीत एवं धवल होने से ) सलिलसिक्त चन्दनरस की कान्ति के समान हो रही है तथा ( बाहर ) ज्योत्स्ना में कहीं-कहीं ( शाखाओं एवं पत्तों आदि की छाया के रूप में ) विपर्यस्त स्थित तम, विवर की भ्रान्ति पैदा करता है ॥५२॥ अथ ताराणां तानवमाहविअलिअणिअअच्छाअं जाअं जोलापरिप्पवन्तमिअङ्कम् ।। विच्छूढव्वमऊहं अविभाविअसतारअं गगण मलम् ।। ५३ ।। [विगलितनिजकच्छायं जातं ज्योत्स्नापरिप्लवमानमृगाङ्कम् । विक्षेप्तव्यमयूखमविभावितश्लक्ष्णतारकं गगनतलम् ॥] गगनतलं जातम् । कीदृशम् । विगलिता अपगता निजकच्छाया श्यामरूपता यत्र, ज्योत्स्नाबाहुल्यात् । एवं ज्योत्स्नासु परिप्लवमान इव तरन्निव मृगाङ्को यत्र, जले फेनवत्संचारशीलत्वात् । एवं विक्षेप्तव्या हस्तादिस्फेटनीया मयूखाश्चन्द्रकान्तयो यत्र, घनीभूतत्वात् । अत एव अविभाविताः अलक्षिता: श्लक्ष्णाश्चन्द्रालोकेनाभिभूतत्वात्कृशास्तारका यत्र तथाभूतम् ॥५३॥ विमला-आकाश में (ज्योत्स्ना के आधिक्य से ) उसकी अपनी श्यामरूपता विनष्ट हो गयी है। चन्द्रमा ज्योत्स्ना में तैर-सा रहा है तथा चन्द्र की किरणें ( घनीभूत होने के कारण ) हाथ आदि से इधर-उधर फेंकी जा सकती हैं, अतएव (चन्द्रालोक से अभिभूत होने के कारण ) कृश तारागण अलक्षित हो रहे हैं ॥५३।। पर्वतावस्थामाह - णिव्वडिअतुङ्गसिहरा धवला वीसन्ति दिमहिअलबन्धा । णहमज्झठ्ठि अससहरवोच्छिण्णच्छाहिमण्डला धरणिहरा ॥५४॥ [निर्वलिततुङ्गशिखरा धवला दृश्यन्ते दृष्टमहीतलबन्धाः । नभोमध्यस्थितशशधरव्यवच्छिन्नच्छायामण्डला धरणीधराः ।।] धरणीधरा धवला दृश्यन्ते, ज्योत्स्नाबाहुल्यात् । कीदृशाः । निर्वलितानि पृथग्भूतानि तुङ्गानि शिखराणि येषाम् । एवं दृष्टो महीतले बन्धः संधिर्येषाम् । एवं नमोमध्यस्थितेन शशधरेण व्यवच्छिन्नोऽपनीतश्छायामण्डलो येषां ते। चन्द्रस्योपरिस्थित्या तल एव छायाव्यवस्थितिरिति भावः ।।५४।। विमला-( ज्योत्स्ना के आधिक्य से ) पृथग्भूत तुङ्गशिखरों वाले पर्वत धवल दिखायी दे रहे हैं, भूतल पर उनकी सन्धि दीख पड़ रही है तथा Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४१६ आकाश के मध्य में चन्द्रमा के स्थित होने से पर्वतों की छाया उनके तले ही स्थित है ॥४४॥ ज्योत्स्नाप्रकर्षमाहविवरं ति परिहरिउ नइ बहलद्दुमच्छाहिमण्डलागअतिमिरम् । ओच्छन्दइ वीसत्थं जोहाणिवहरि अं थलं विअ विवरम् ॥५५।। [विवरमिति परिह्रियते बहलद्रुमच्छायामण्डलागततिमिरम् । आक्रम्यते विश्वस्तं ज्योत्स्नानिवहभृतं स्थलमिव विवरम् ॥] बहलं बहुलं यद्रुमाणां छायामण्डलं तेनागतं प्राप्तं तिमिरं यत्र तत्स्थानमित्यर्थात् । 'विवरमिदम्' इति बुद्धया परिह्रियते रन्ध्रस्यापि तमोमयत्वात् । एवं ज्योत्स्नानिवहेन भृतं पूर्ण विवरं रन्ध्रप्रदेशो विश्वस्तं निःशङ्कं यथा स्यादेवं स्थलमिवाक्रम्यते गम्यते तमोविरहात् । अत्र भ्रान्तिमानलंकारः । तदुक्तं कण्ठाभरणे'भ्रान्तिविपर्ययज्ञानं द्विधा सा प्रतिपद्यते । अतत्त्वे तत्त्व रूपा वा तत्त्वे वातत्त्वरूपिणी' ॥५॥ विमला-जहाँ वृक्षों की घनी छाया से तिमिर है उस स्थान को लोग रन्ध्र समझ कर त्याग देते हैं और रन्ध्र को ज्योत्स्ना से पूर्ण देखकर स्थल समझ वहां निःशङ्क होकर जाते हैं ॥५५॥ अथ निशाचरीणां संभोगवर्णनमुपक्रमते युग्मकेनइस वम्महजग्गाविअतीरविसूरन्तमिव्वलिपचक्काए । जाम्मि मलिउप्पलदुक्खपहप्पन्तमहअरम्मि पोसे ॥ ५६ ॥ सम्महपरवसाई रामागमणपरिवढिावेआई। अहिलक्खन्ति मुअन्ति अ रइवावारं विलासिणीहिअआई॥५७।। (जुग्गअम्) [ इति मन्मथजागरिततीरखिद्यमाननिर्वलितचक्रवाके । जाते मुकलितोत्पलदुःखप्रभवन्मधुकरे प्रदोषे ॥ मन्मथपरवशानि रामागमनपरिवधितावेगानि । अभिलषन्ति मुञ्चन्ति च रतिव्यापार विलासिनीहृदयानि ॥] (युग्मकम् ) इत्यनेन प्रकारेण प्रदोषे निशाभागे जाते सतीत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः । वस्तुतस्तु-प्रदोषे रजनीमुखे जातेऽतीते सतीत्यर्थः। तेन निशामध्यभागो लभ्यते । कोशि-मन्मथेन जागरितावुज्जागरितो जागरितमन्मथो वा । अत एव तीरयोनदोक्लयोः खिद्यमानी संगमाभावानिर्वलितो विश्लिष्टी चक्रवाको यत्र । एवं Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] सेतुबन्धम् [ दशम मुकुलितेषूत्पलेषु दुःखेन प्रभवन्तो मान्तो मधुकरा यत्र । रात्रौ तेषां मुद्रणादलि. तुल्यप्रमाणोदरत्वाच्चेति भावः । विलासिनीनां हृदयानि प्रदोषाम्राज्यान्मन्मथे परवशान्यस्वतन्त्राणि सन्ति रविव्यापारं सुरतोत्सवं अभिलषन्ति, रामागमनेन परिवर्धित आवेगः कष्टं यत्र तथाभूतानि सन्ति मुञ्चन्ति च । निजनिज स्वामिविधुरशङ्कित्वादिति हर्षत्रासभावयोः संधिः ॥ ५६-५७।। जागते हुये, नदी के दोनों तटों पर खिन्न वियुक्त हो गये एवं मुकुलित कमल के रहे थे उस समय विलासिनियों के हृदय, मदन से त्सव का अभिलाष कर रहे थे तो दूसरी ओर राम के आगमन से ( अपने-अपने उद्विग्नता बढ़ जाने से उसका परित्याग विमला - इस प्रकार जब सन्ध्याकाल बीत गया और मदन के कारण चक्रवाक -युगल एक-दूसरे से मधुकर कठिनाई से अमा परवश हो एक ओर सुरतो. स्वामियों के वियोग की शङ्का कर ) कर रहे थे ।। ५६-५७।। तदेवोपपादयति होते हुये भीतर बन्द लद्वगलन्तासाअं प्रावेअविहिष्ण बम्महुल्ल लिअसुहम् । छिष्णघटिज्जन्तरसं नावज्जइ दइअचुम्बणं जुवईणम् ॥ ५८ ॥ [ लब्धगलदास्वादमावेगविभिन्नमन्मथोल्ललितसुखम् छिन्नघटय मानरसं नाबध्यते दयितचुम्बनं युवतीनाम् ॥ ] 1 युवतीनां स्वविषये दयितकर्तृकं दयितविषये स्वकर्तृकं वा चुम्बनं नाबध्यते चिरं न तिष्ठति । विषादोदयाद्धृदये न लगतीति केचित् । वस्तुतस्तु — गाढं न संबध्यते । विरोधिरसोपस्थित्याधरोष्ठशैथिल्यादित्यर्थः । कीदृशम् । प्रथमं कामवशाल्लब्धस्तदैवावेगवशाद्गलन्नपगच्छन्नास्वादः सौहित्यं यत्र । एवं आवेगेनोद्वेगेन विभिन्नं संबद्धं खण्डितं वा मन्मथेनोल्ललितमुत्तरलीकृतं सुखं यत्र । यद्वा आवेगेन विभिन्न: संबद्धः खण्डितो वा मन्मथस्तेनोल्ल लितमुत्तरलीकृतं सुखं यत्र । एवं छिन्नः सन्घट्यमान: स्थाप्यमानो रसः शृङ्गारादिको यत्र । हर्षविषादयोस्तुल्यत्वादिति भावः ॥ ५८ ॥ विमला - युवतियों का चुम्बन चिरस्थायी नहीं हुआ, क्योंकि ज्यों ही कामवश आस्वादलब्ध हुआ त्यों ही उद्वेगवश वह नष्ट हो गया, आवेश के कारण मन्मथ खण्डित हो गया और सुख जाता रहा और इस प्रकार शृङ्गारादि रस छिन होता रहा और स्थापित होता रहा ||५८ | पुनस्तदेवाह - das ससइ किलिम्मइ सअणे प्रामुखइ णीसहो अङ्गाई 1 ण विणज्जइ कि भीओ ओ मअणपरव्वसो विलासिणिसत्थो ॥५६॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४२१ [ वेपते श्वसिति क्लाम्यति शयने आमुञ्चति निःसहोऽङ्गानि । न विज्ञायते किं भीत उत मदनपरवशो विलासिनीसार्थः ॥] विलसिनीनां सार्थो वेपते श्वासं त्यजति क्लान्ति याति, निःसहः सञ्शयनेऽङ्गान्यामुञ्चति त्यजति तन्न विशिष्य ज्ञायते किं रामाद्भीत उत पक्षान्तरे मदनपरतन्त्रः । वेपनादिकार्याणां भयमदनोभयसाधारणत्वादिति भावः ॥५६॥ विमला-विलासिनी-वृन्द काँपता, साँसें छोड़ता, क्लान्ति को प्राप्त होता, निःसह होता शयन पर अंगों को त्यागता था। इस बात का पता नहीं चलता था कि वह राम से भयभीत है अथवा मदनपरवश है ॥५६॥ राक्षसीनां कातरतामाहपिअ अमवच्छेसु वणे ओवइमदिसागइन्दवन्तुल्लिहिए। वेवइ दळूण चिरं संभाविअसमरकाअरो जुवइजणो ।। ६० ।। [प्रियतमवक्षःसु व्रणानवपतितदिग्गजेन्द्रदन्तोल्लिखितान् । वेपते दृष्ट्वा चिरं संभावितसमरकातरो युवतिजनः ॥] संभावित उपस्थितो यः समरस्तेन कातरो युवतिजनश्चिरं वेपते । किं कृत्वा । प्रियतमवक्षःसु व्रणान्दष्टवा । किंभूतान । भवपतितस्य प्रहर्तुमागतस्य दिग्गजेन्द्रस्य दन्ताभ्यामुल्लिखितान्कृतचिह्नान् । तथा च वक्षःक्षतदर्शनेन शूरत्वनिर्णयात्सङ्ग्रामावश्यकत्वज्ञानसचिवेन पूर्वमिन्द्रयुद्धे सक्षता अपि भाग्येन जीविताः संप्रति किं स्यादिति संदेहेन' कम्प इति त्रासरूपभावोदयः ।।६०॥ विमला-युवतियां अपने-अपने प्रियतम के वक्षःस्थल में, (प्रराहार्थ) नीचे उतरे हुये दिग्गजेन्द्र के दाँतों से किये गये क्षत के दाग को देखकर (पहिले तो इन्द्रयुद्ध में भाग्य से जीवित बच गये थे, लेकिन इस रामयुद्ध में न जाने क्या हो, इस संदेह में पड़ कर ) उपस्थित युद्ध से त्रस्त हो अत्यन्त कम्पित हो उठीं ॥६०॥ पुनस्त्रासमेवाहसुरअसुहद्धमउलिअं भमरदरक्कन्तमाल ईमउलणिहम् । साहइ समरुप्पेसं उप्पित्थुम्मिल्लतार णअणनु प्रम् ।। ६१ ।। { सुरतसुखार्धमुकुलितं भ्रमरदराक्रान्तमालतीमुकुलनिभम् । शास्ति समरोत्पेषमुत्पित्सोन्मीलत्तारकं नयनयुगम् ।।] तासां नयनयुगं कर्तृ समरोत्पेषं समरत्रासं शास्ति कथयति । कीदृक् । सुरतसुखेनार्धमुकुलितं किंचिन्मुद्रितम् । अत एव भ्रमरेण ईषदाक्रान्तं यन्मालतीमुकुनं तत्तुल्यम् । मुकुले दरप्रविष्ट एव भ्रमर इति मुकुलिताक्षितारकातील्यम् । अथो Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] सेतुबन्धम् [ दशम त्पित्सया उद्वेगेनोन्मीलन्ती बहिर्भवन्ती तारका यस्य तत् । तथा च प्रथमं कामवशात्सुखभावनया किंचिदन्तहितापि तारका पुनरुद्वेगवशात्सुखविच्छेदादुन्मीलिताभूत् । अत एव भयं ज्ञापयतीति भावः ।।६१॥ विमला-उनके नेत्र जो ( पहिले ) सुरतसुख से किंचित् मुदे हुये थे, अतएव (तारकारूप ) भ्रमर से स्वल्प आक्रान्त मालतीमुकुल के समान हो रहे थे, अब समरजन्य उद्वेग से उन्मीलित तारका ( कनीनिका ) द्वारा समरजन्य त्रास को सूचित कर रहे थे ॥६१।। अथासां त्रासोपमर्दकस्य शृङ्गारस्योत्कर्षमाह अह ससिजणिग्रामोए मअपरिवढिअपिआहिसारणसोक्खे। मअणुम्मलिअमाणे राअपराहोणर इसुहम्मि परोसे ॥६२।। बलइ' अमिअकुविओ अवसाइअहरिसिओ प्रईइ सरीरम् । ससइ अचुम्बिअसुहिनो मनपाअडिअहिअ प्रो विवसिणिसत्थो॥६३॥ (जुग्गअम् ) [ अथ शशिजनितामोदे मदपरिवर्धितप्रियाभिसारणसौख्ये । मदनोन्मूलितमाने रागपराधीनरतिसुखे प्रदोषे॥ वलति अदूनकुपितोऽप्रसादितहर्षितोऽत्येति शरीरम् । श्वसिति अचुम्बितसुखितो मदप्रकटितहृदयो विलासिनीसार्थः॥] (युग्मकम् ) अथ रतिभयविरुद्धभावोत्पत्त्यनन्तरं प्रदोषे सतीति संदंशकेनोत्तरस्कन्धके क्रिया कर्तृ समन्वयः कर्तव्यः । कीदृशे । शशिना जनितः प्रहर्षो यत्र । एवं मदेन परिवधितानि प्रियाभिसारणरूपसौख्यानि यत्र । यद्वा मदेन कामोत्कर्षेण परिव. धितं प्रियाभिसारणेन प्रियस्यानयनेन सौख्यं यत्र । 'मदाज्ञया सकामः प्रिया स्वयमेवाभिसरति' इति नायिकायाः, 'मदुत्कण्ठासमकाल मेवाहमनयाहूतः' इति नाय. कस्य चेति भावः । यद्वा परिवधितेन मदेन नायिकाया यदभिसारणं तेन सौख्यं यत्र, द्वयोरित्यर्थात् । 'सकामोऽयमभिसारयति माम्' इति नायिकायाः, 'मदं कृतार्थयितुमाहूतेयमागतैव' इति नायकस्य चेति भावः । एवं मदनेनोन्मूलितो मानो यत्र । यद्वा मदनस्योन्मूलितं मानमियत्ता यत्र । एवं रागोऽनुरागस्तत्पराधीनं रतिसुखं यत्र । कदाचिदनुरागं विनापि रतिसुखमुत्पद्यत इति, तदानीं चन्द्रिकासाम्राज्येन सर्वेषां सर्वत्रानुरागपूर्वकमेव तदासीदिति भावः । यद्वा 'राजपराधीन-' इति [पाठे ] राज्ञो रावणस्य पराधीनं रतिसुखं यत्रेत्यर्थः। यदीदानीं रावणो योद्धुमा १. अत्र 'दूमिअकुविओ' इत्यस्य व्याख्या त्रुटिता प्रतीयते । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४२३ कारयेत्, तदा सर्वेऽपि तत्र गच्छेयुरिति रतिसुखं न भवेदिति भावः । विलासिनीनां स्वार्थों वलति च परावर्तते च। त्रासमुत्सृज्य शृङ्गारे प्रवर्तते इत्यर्थः । मानमुत्सृज्य नायकसंमुखीभवतीति वा। तदेवाह-(?............) प्रियतमैरप्रसादितोऽपि हर्षितः सन् शरीरमत्येति । प्रियतमोपरि समर्पयतीत्यर्थः । अथ नायकेन चुम्बितस्तेन सुखितः सन् श्वसिति श्वासं त्यजति च सुखवशात् । कीदृक् । मदेन प्रकटितं व्यक्तं हृदयं यस्येति सर्वत्र हेतुः। स्वायत्त्यभावादिति भावः । वयं तु-'पूर्वस्कन्धकविशेषणचतुष्टयेन सह क्रमेणोत्तरस्कन्धकवाक्यार्थचतुष्टयस्य समन्वयः। तथाहि-यतः शशिजनितामोदे, अत एवादूनकुपितः, कुपितोऽप्यदूनोऽनुपतप्तः सन्वलति चन्द्रजनितानन्देन कोपजन्योपतापशान्त्या नायकानयनोद्योगमाचरतीत्यर्थः। एवं यतो मदपरिवधितेत्यादि अत एव प्रियागमनानन्तरं प्रियरप्रसादितोऽपि हर्षितः सन् शरीरमत्येति । तदुपरि पातयतीत्यर्थः । एवं यतो मदनोन्मूलितमाने अत एव प्रियेणाचुम्बितोऽपि सन् सुखितः श्वसिति तदीयपरिरम्भणजनितसुखाविष्काराच्छ्वासं मुञ्चतीत्यर्थः । एवं यतो रागपराधीनेत्यादि अत एव मदप्रकटितहृदयोऽनुरागसाम्राज्यात्' इति ब्रूमः ॥६२-६३॥ विमला-तदनन्तर प्रदोषकाल आने पर चन्द्रमा के द्वारा जनित प्रहर्ष से विलासिनियों का समूह कुपित होने पर भी ( कोपजन्य सन्ताप के शान्त होने के कारण ) प्रसन्न हो नायक को ले आने में प्रवृत्त हो गया, कामोत्कर्ष से प्रिय के ले आने का सुख परिवर्धित होने पर प्रिय के द्वारा विना प्रसन्न किया गया ही हर्षित हो उसने प्रियतम के ऊपर शरीर-समर्पण कर दिया, मदन द्वारा मान विनष्ट कर दिये जाने पर प्रिय के द्वारा विना चुम्बित ही सुखित हो वह श्वसित हो उठा तथा रतिसुख के अनुरागाधीन होने के कारण उसका हृदय कामोत्कर्ष से प्रकटित हो गया ॥६३-६३।। नवोढाकोपमाह रोसपुसिआहराणं दहअबलामोलि चुम्बणपण्णाणम् । णि व्वलिअमण्णुगरुअंहरइ पराहुत्तजम्पि जुमईणम् ।।६४॥ [ रोषप्रोञ्छिताधराणां दयितबलामोटितकचम्बनप्ररुदिता(दती)नाम् । निर्वलितमन्युगुरुकं हरति पराङ्मुखजल्पितं युवतीनांम् ।। ] दयितस्य बलादामोटितकेन बलादामोद्य । बलात्कारेणेत्यर्थः। कृतं यच्चुम्बनं तेनानभिमत्या प्ररुदतीनां पराङ्मुखेन दयितसांमुख्यपरिहारेण जल्पितं सोपालम्भवचनं निर्वलितेन स्पष्टेन मन्युना ईकरोषेण गुरुकं परिपुष्टं सत् हरति । दयितस्य चित्तमित्यर्थात् । यथा यथा किंचिदुक्त्वा स्मारयति तथा तथा मनोहारि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] सेतुबन्धम् [ दशम भवतीत्यर्थः । किंभूतानाम् । रोषेण प्रोञ्छितोऽधरो याभिस्तासाम् । त्वच्चुम्बन मिदमस्वीकृतमिति ज्ञापयितुमञ्चलेन हस्तेन वाधरोष्ठं प्रोञ्छतीति स्त्रीणां स्वभावः ॥६४॥ विमला-प्रिय द्वारा बलात् ( अनभिमत ) किये गये चुम्बन से रोती हुई एवम् ( ईर्ष्याजन्य ) रोष से ( चुम्बन की अस्वीकृति सूचित करने के लिये ) पोंछे गये अधर वाली युवतियों का, मुंह फेरकर सोपालम्भ वचन' स्पष्ट दोष से परिपुष्ट होकर ( प्रिय के चित्त को ) हर रहा था ।।६४॥ अभिसारिकाणां विषादमाह अहिसारणं ण गेलइ ण संठवेइ अलअंण पुच्छइ दूइम् । चन्दालोअपडिहओ वेवइ मूढहिअओ विलासिणिसत्थो ।। ६५ ॥ [ अभिसारणं न गृह्णाति न संस्थापयत्यलकं न पृच्छति दूतीम् । चन्द्रालोकप्रतिहतो वेपते मूढहृदयो विलासिनीसार्थः ॥] चन्द्रस्यालोकेन दर्शनेन तेजसा वा प्रतिहतो निवारितगमनोत्साहो विलासिनीनामभिसारिणीनां सार्थ: अभिसारणं न गृह्णाति कर्तव्यतया न स्वीकरोति, न च अलकं संस्थापयति संयमयति नायकनिकटगमनाय प्रसाधनभावेनेत्यर्थः । न च दूतीं पच्छति कथं गमनं स्यादित्यादिकमित्यर्थः । किं तु ममावज्ञामवैदग्ध्यमस्वायत्त वा कि ज्ञास्यति प्रियः कथं वा तत्समागमः स्यादिति मूढहृदयः केवलं वेपते मदनागमनेन' स चेदन्यमाश्रयेत्, अथ वा मामन्यानुरक्तामवगच्छेत्, तदा मया न जीवितव्यमिति भावः ॥६५॥ विमला-विलासि नियों का समूह चांदनी के कारण उत्साह भग्न हो जाने से न अभिसार कर पा रहा था, न ( नायक के निकट जाने के लिये) अलक को संयत कर रहा था और न ही दूती से ( अभिसार का उपाय ) पूछता था, केवल मूठहृदय हो ( कहीं प्रिय अन्य नायिका के पास न चला जाय अथवा मुझे अन्य पुरुष में अनुरक्त न समझ ले, यह सोच कर ) कांप रहा था ॥६५।। अथ शृङ्गारसाम्राज्यमाहअवमाणिअरामकहं जहापुरपअट्टजअइजणवावारम् । सोहइ रअणिअराणं प्रासधिअदहमुहं पओसागमणम् ।। ६६ ।। [ अवमानितरामकथं यथापुरःप्रवृत्तयुवतीजनव्यापारम् । शोभते रजनीचराणामध्यवसितदशमुखं प्रदोषागमनम् ॥] रजनीचराणां प्रदोषो रात्रिस्तदागमनं शोभते प्रीति जनयतीत्यर्थः । कीदृक् । अध्यवसितो विपक्षनिवारकत्वेनावधारितो दशमुखो यत्र तादृशम् । यतः, अत Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४२५ एव - अवमानितानादरविषयीकृता रामस्य कथा यत्र तथाभूतम् । सति रावणे को राम इत्येवंरूपनिश्चयात् । अत एव यथापुरो यथापूर्वं प्रवृत्तो युवतीजनानां व्यापारः संभोगादिर्यत्रेति रतिभावस्योदयः ॥६६rr विमला -- रजनीचरों को रात्रि का आगमन बहुत अच्छा लगा, क्योंकि उन्हें शत्रु (राम) का निवारण करने में रावण के समर्थ होने का पूर्ण विश्वास है, अतएव राम की चर्चा तक भी कोई नहीं करता और युवतियाँ अपने ( सम्भोगादि ) व्यापार में पूर्ववत् प्रवृत्त रहीं ।। ६६ । । स्त्रीणामनुरागातिशयमाह - पिपासाहि णिश्रत्तो समुहं अलिअं पि जं भणइ दुइजणो । तं चित्र कामिणिसत्थो दूमेन्त पि बहुसो णिअत्तेइ कहम् ||६७ || [ प्रियपार्श्वान्निवृत्तः संमुखमलीकमपि यद्भणति दूतीजनः । १ तामेव कामिनीसार्थो दुन्वन्ती (ती) मपि बहुशो निवर्तयति कथाम् ॥ ] प्रियस्य पार्श्वत्समीपान्निवृत्त आगतो दूतीजनः संमुखमग्रत एव अलीकमपि 'स न स्वयमेष्यति न वा त्वां नेष्यति, किं तु तवापराधानुक्त्वा परस्यामनुरज्यति' इत्यादि मिथ्यापि यद्भणति दुन्वन्ती (ती) मुपतापयन्तीमपि तामेव कथां कामिनीसार्थो बहुशो निवर्तयति रस निर्भरत्वात्पुरुषरूपामपि दूति ! स मां प्रति किमुक्तवान्, कि वा करिष्यति, मया किंचिदत्र न श्रुतम् किंचिदत्र न बुद्धम्' इत्यादिव्याजेन शतधा परावर्त्य शृणोतीत्यर्थः ॥६७॥r विमला – प्रिय के पास से लौटी दूतियों ने ( नायिका के ) सामने जो मिथ्या बात ( 'नायक न तो आयेगा और न ही तुमको अपने पास बुलायेगा' इत्यादि ) कही, नायिकाओं का समूह उस सन्तापदायिनी बात को भी बार-बार दूती से कहला कर सुनता था ।। ६७ ।। तासां वैदग्ध्यमाह सअणेसु पणअकल हे समुहणिसण्णपिअवेल विज्जन्तीहि । परिवत्तिउं ण चइअं वरं णअणेसु विप्रलिअं बाहजलम् ॥ ६८ ॥ [ शयनेषु प्रणयकलहे सं मुखनिषण्णप्रियव्यावर्त्यमानाभिः । परिवर्तितुं न शक्तिं केवलं नयनयोर्विगलितं बाष्पजलम् ॥ ] प्रणयकलहे सति शयनेषु संमुखनिषण्णैः संमुखस्थेः प्रियैर्व्यावर्त्यमानाभिः । 'इतो बहिर्व्रज, किं तव प्रयोजनम्' इत्याद्युक्त्वा कराभ्यामन्यतोऽभिमुखीकर्तुं प्रेरिताभिः कामिनीभिः परिवर्तितुं पराङ्मुखीभवितुं न शक्तिम् । तथा सति १. 'अलीकामपि यां भणति' इति भवेत् । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६] सेतुबन्धम् [दशम चेदयं न वादयेत्तदा रसविच्छेद एव स्यादिति परामर्शात् । किं तु केवलं नयनयोष्पिजलं विगलितं त्यक्तम् । एवमनुरक्तामपि मामयमित्थं गञ्जयतीति भावः । रोदनादप्ययमनुरज्यत्विति वा । यद्वा कलहे सति पराङ्मुखीभूय सुप्ताया एव प्रियायाः प्रसादनाय गत्वा संमुखीभूय स्थितस्य प्रियस्य वृत्तान्तो वर्ण्यते । तथाहि-अत्र पक्षे 'वेलविज्लन्तीहिं' व्याकुलीक्रियमाणाभिरित्यर्थः । तथा च संमुख निषण्णः प्रियैरालिङ्गनचुम्बनादिव्यापारेण व्याकुलीक्रियमाणाभिः परिवर्तितुं न शकितम्, मनसा किंचित्प्रसन्नत्वात् । अन्यथा रसाभासः स्यात् । किं तु नयन योर्बाष्पजलं त्यक्तं तदा तथापराधं कृत्वा संप्रति प्रसादयतीति भावः । तथाभूतापराधस्यापि संमुखीभूयत इति वा ॥६८ विमला-प्रणय-कलह होने पर शय्या पर सम्मुख-स्थित प्रियजनों से मुंह फेर लेने के लिये और बाहर जाने के लिये कही गयी नायिकायें मुंह फेर न सकी, केवल उन के नेत्रों से अश्रुबिन्दु टपक पड़े ॥६८।। मानिनीमानभङ्गमाह अणुणअखणलद्धसुहे पुणो वि संभरिअमण्णुदूमिअविहले। हिमए माणवईणं चिरेण पणअगरुओ पसम्मइ रोसो ॥६६॥ [ अनुनयक्षणलब्धसुखे पुनरपि संभृतमन्युदुःखितविह्वले । हृदये मानवतीनां चिरेण प्रणयगुरुकः प्रशाम्यति रोषः ॥ ] मानवतीनां हृदये रोषश्चिरेण प्रशाम्यति । किंभूते । अनुनयः प्रसादनं तत्क्षणे सन्धं सुखं येन | अनुनयेन क्षणं न्याप्य लब्धसुखे इति वा । पुनरपि संभृतेन मन्युनापराधेन दुःखिते अत एव विह्वले व्याकुलीभूते । रोषः कीदृक् । प्रणयेन गुरुकोऽनुन्मूलनीयः । तथा च यथा यथा प्रणयाधिक्यं तथा तथापराधे सति कोपाधिक्यामित्यनुनथेन प्रसादोन्मुखमपि हृदयं मन्युबी जस्मरणेन निवर्तत इति चिरकालेन प्रसादो भवतीति भावः ॥६६॥ विमला-मानिनी नायिकाओं के हृदय में प्रवद्ध (अपराधजन्य ) रोष चिरकाल में शान्त हुआ; क्योंकि अनुनय-विनय करने से उनके हृदय को क्षण भर सुख तो मिला,किन्तु नायक द्वारा किये गये अपराध के मूल कारण को स्मरण कर पुनः दु.खित एवं विह्वल हो गया ॥६६॥ स्त्रीणां वैलक्ष्यमाह अलअंछिवइ विलक्खो पडिसारेइ वल जमेइ णि अस्थम् । मोहं आलवइ सहि दइ पालोअणडिओ विलासिणि सत्थो ।॥ ७० ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४२७ [ अलकं स्पृशति विलक्षः प्रतिसारयति वलयं यमयति निवसनम् । मोघमालपति सखीं दयितालोकनतितो विलासिनीसार्थः ।।] कुतश्चिदकस्मादागतस्य दयितस्यालोकेन दर्शनेन नतितश्चञ्चलीकृतो विलासिनी. सार्थो विलक्षः प्रतिभाशून्य ः। सलज्ज इति वा। अलकं स्पृशति । एवं वलयं प्रतिसारयति स्थानान्तरं प्रापयति, निवसनं संयमयति इतस्ततः समाकृष्य संवृणोति, मोघमफलं यथा स्यात्तथा सखीमालपति सख्या सह तुच्छमालापं करोतीत्यर्थः । तथा च स्तोमहेतुकं सर्वमिदं नायिकाया दयितेऽनुरागं व्यनक्ति। तदुक्तं कण्ठाभरणे-'आत्मप्रकाशनपरा चेष्टा चपलतोच्यते' ॥५०॥ विमला-विलासिनियों का समूह ( कहीं से अकस्मात् आये हुये ) प्रिय के दर्शन से चञ्चल कर दिया गया। वह कभी अलक का स्पर्श करता, कभी कङ्कण को यथास्थान करने के लिये खिसकाता, कभी वस्त्र को ठीक करता और कभी सखी से निष्प्रयोजन बात करता ॥७०।। नायकोत्कण्ठामाह अब्भुणतुरि आणे सोहइ दइअोवऊहणविराआणम् । असमत्तमण्डणाणं तहेअ सअणगमणं विलासवईणम ।। ७१।। [ अभ्युत्थानत्वरितानां शोभते दयितोपगृहनविशीर्णानाम् । असमाप्तमण्डनानां तथैव शयनगेमनं विलासवतीनाम् ॥] असमाप्तमपूर्ण मण्डनं प्रसाधनं यासां तासां विलासवतीनां तथैव असमाप्तमण्डनावस्थमेव शयने गमनं शोभते रसनीयतां याति । नायकस्य प्रीति जनयती. त्यर्थः । किंभूतानाम् । अभ्युत्थाने प्रियतमागमने सति विनयविशेषेण त्वरितानाम् । तदैव दयितस्योपगृहनेनालिङ्गनेन विशीर्णानां व्याकुलानाम् । अस्वायत्तानामिति यावत् । तथा चाकस्मादागतं वल्लभमवलोक्यासमाप्त प्रसाधनापि कामिनी यावदभ्युत्थानमाचरति तावदेव तेन शय्यायामारोपितेति नायिकायाः सौभाग्यं व्यज्यते ।।७१॥ विमला-विलासिनी-वृन्द शरीर को अलङ्कृत कर ही रहा था कि सहसा आगत वल्लभ का स्वागत करने के लिये उठ पड़ा और वल्लभकृत आलिङ्गन से परवश हो मण्डन-क्रिया के समाप्त हुये विना ही शय्या पर जाकर प्रिय के लिये प्रीतिकारक हुआ ।।७१।। नवोढामानमाह अवसाइअदिण्णसुहो सहीहि थिरदिठिणिहुअवारिअविडिओ। हित्यहिअओ सुणिज्जइ पिएहि अलि अकुविओ विलासिणिवत्थो॥७२॥ [ अप्रसादितदत्तसुखः सखीभिः स्थिरदृष्टिनिभृतवारितव्रीडितः । त्रस्तहृदयो ज्ञायते प्रियैरलीककुपितो विलासिनीसार्थः ॥] Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] सेतुबन्धम् [ दशम विलासिनीनां सार्थः प्रियैरलीकं मिथ्या तेन कुपित इति ज्ञायते । कुल इत्यत आह - कीदृक् । अप्रसादितः सन् संभाषणादौ दत्तसुखः प्रत्युत्तराद्याचरणात् । दिण्णमुह दत्तमुखो वा वैमुख्यत्यागात् । अथ सखीभिः परावेद्य किंचिद्भृकुटयादिचेष्टाविशिष्टया स्थिरदृष्ट्या निवारितः सन् व्रीडितो लज्जितः । अहमिदानीमभरेव मानं कर्तुमुपदिष्टा तथा कृतवत्यपि रक्षितुमजानती दयितवशत्वेन सकामा संभावितास्मीति भावः । अत एव त्रस्तहृदयः पश्चादेता रूक्षं वदिष्यन्तीत्याशयात् । तथा च संभाषणादौ प्रवृत्तापि सखीमुखमवलोक्य निवृत्तेति शिक्षया कोपोऽयम् । न तु पारमार्थिक इति प्रियैरज्ञायीति निगर्वः ॥ ७२ ॥ विमला - ( सखियों से मान की शिक्षा पाकर मान करने में प्रवृत्त हुई ) विलासिनियाँ, प्रिय के द्वारा प्रसादन- क्रिया न की जाने पर भी ( संभाषण आदि से ) प्रिय को सुख देने लगीं । सखियों ने नेत्रों को स्थिर कर ( चेष्टाविशेष से ) उन्हें वैसा करने से जब मना किया तब वे ( मान करने में अपनी असफलता से ) लज्जित हो गयीं तथा उनका हृदय ( सखियों के द्वारा बाद में फटकारे जाने की शङ्का से ) त्रस्त हो गया । उनके इस आचरण से प्रियजनों ने यह समझ लिया कि उनका वह कोप सखियों के सिखाने से झूठ-मूठ किया गया है ||७२ || प्रौढस्त्रीणां मदमदनोत्कर्षमाह - सहवढि सहि विअ वदन्ति पित्रअमा हिसारणविग्धे । वारेइ चिरेण मश्रो लज्जं विच्छुहद्द वम्महो चिचअ पढमम् ||७३ | [ सहवधितां सखीमिव वर्धमानां प्रियतमाभिसारणविघ्ने । बारयति चिरेण मदो लज्जां विक्षिपति मन्मथ एव प्रथमम् ॥ ] मदश्विरेण लज्जां वारयति, प्रथमं मन्मथ एव विक्षिपति । लज्जापगमसाध्यस्य प्रियाभिसारणरूपमन्मथव्यापारस्य प्रथमत एवोत्पत्तेः, आलिङ्गनचुम्बनादिरूपमदव्यापारस्य च प्रियसमागमोत्तरकालीनत्वेन पश्चादिति भावः । किंभूताम् । प्रियतमेन यदभिसारणं नायिकायाः स्वसमीपनयनं तद्विघ्ने सखीमिव वर्धमानाम् । 'वट्ठन्तीम्' इति पाठे वर्तमानाम् । यथा प्रियाभिसारणविघ्नहेतुः सखी लज्जाभूमित्वात्, तथा लज्जापीत्युपमा प्रियतमस्य यदभिसारणं नायिकया समानयनं तद्विघ्ने इति वा । एवं सहवधितां सह प्रौढिमागतामिति सख्यामपि । तथा चाजन्मसंगतापि लज्जा कामिनीभिरभिसरणे संगमे च मुच्यत इति शृङ्गारोत्कर्ष: । मम तु व्याख्या -' मन्मथ एव प्रथमं लज्जां विक्षिपति दूरं प्रापयति येनाभिसार: संपद्यते । मदस्तु चिरेण प्रियसमागमोत्तरं वारयति मन्मथविक्षिप्तामेव लज्जां प्रियदर्शनेन सत्यागन्तुमुत्कण्ठितामपि दूरत एव निषेधतीत्यर्थः । तत एव Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्विलम् [ ४२६ निर्भरमालिङ्गनचुम्बनादिकं जायत इति भावः । अत्र मदनरपेक्ष्यवाचिना मन्मथसंगतैवकारेण प्रियसमागमोत्तरमेव मदस्योत्पत्तिः, तदानीं च मदकृत्ये कामस्यापि सहकारित्वमित्येवकारशून्य मदशब्दसाहचर्याद्वयञ्जयता( नया ) नाय( यि )काया धीरत्वं व्यज्यते । 'मदो विकारः सौभाग्ययौवनाद्यवलेपजः' ॥७३॥ विमला-प्रियतम को अपने पास ले आने में नायिका की आजन्म सङ्गिनी के समान बाधिका लज्जा को कामदेव ने पहिले ही दूर कर दिया ( जिससे उस प्रौढा ने निर्विघ्न सफल अभिसार किया ), आलिङ्गन-चुम्बनादि मद-व्यापार ने तो प्रिय-समागम के बाद (प्रियदर्शन से आने वाली ) लज्जा को भी दूर किया ॥७३॥ दूतीषु शिक्षामाह सहिअलहत्याहि महं दरर इअविसेस समक्खेतण। जुवईहि वलिअविसमं अप्पाहिज्जइ ससंभमं दूइजणो॥७४॥ [ सखीजनहस्तान्मुखं दररचितविशेषकं समाक्षिप्य । युवतीभिर्वलितविषममध्याप्यते ससंभ्रम दूतीजनः ॥ युवतीभितीजनः ससंभ्रमं सादरमध्याप्यते शिक्ष्यते । किं कृत्वा । ईषद्रचित विशेषकं यत्र तन्मुखं वलितं साचीकृतम् । अत एव विषमं तिर्यग्यथा स्यादेवं सखीननहस्तात्समाक्षिप्याकृष्य । तथा च-प्रियसमीपगमनाय मुखमण्डनं कारयन्तीभिः प्रसाधकसखीहस्तान्मुखमाकृष्य तिर्यक्कृत्वा प्रथमप्रेषित एव दूतीजन: पुनराहूय 'तदैव स्फुरितं किंचित्प्रियस्त्वया मद्वाचिकमित्थं वक्तव्यो मदागमनं च हठान्न वक्तव्यम्' इत्यादिकमतिनिभृतमुपदिश्यत इति वैदग्ध्यं सूचितम् । 'तमालपत्रं तिलक मुखबिन्दुविशेषकम् ॥७४।। विमला-युवतियों ने, जो प्रिय के समीप जाने के लिये सखी से मुखमण्डन करा रही थीं, मण्डन के पूरा हुये विना ही, सची के हाथ से अपना मुह हटा कर तथा मोड़ कर दूती को सादर एवं गुप्त रूप से प्रिय से कहा जाने वाला सन्देश सिखा दिया ।।७४।। अथासां रसमत्ततामाह अण्णं सहिअणपुरनो अप्पाहेन्तो अ अण्णहा दूइजणम् । जम्पह विमुक्कधीरं अण्णं चिन दइग्रदसणे जुवइजणो ॥७॥ [ अन्यत्सखीजनपुरतोऽध्यापयंश्चान्यथा दूतीजनम् । जल्पति विमुक्तधीरमन्यदेव दयितदर्शने युवतीजनः ।। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] सेतुबन्धम् युवतीजनः सखीजनस्य पुरतोऽन्यद् अन्यथा च दूतीजनमध्यापयन्नग्रिमकृत्यमुपदिशन्नन्यदेव विमुक्तधैर्यं यथा स्यात्तथा दयितदर्शने जल्पतीति मूढतया रसमग्नत्वं व्यज्यत इति संप्रदायः । वस्तुतस्तु — युवतीजनः सखीजनस्य पुरतः प्रता`रणायाचाञ्चल्यमपहस्तयन्गुरुपरतन्त्रा भवामि, संप्रति मदागमनं तत्र न स्यादित्या - दिकमन्यदेव दूतीजनं जल्पति संप्रत्येताः प्रतारिताः, मया तत्रावश्यमेतासामक्षि वारयित्वा समागन्तव्यम्, तेन च तावदमुकस्थाने स्थातव्यमित्यादिक्रमेण सखीभ्योऽपि संगोप्य दूती जन मध्यापयन्नुपदिशन्नक्षि ध्रुवादिविकारेणान्यथा जल्पति तथाकृते च दयितदर्शने सत्यतः परं भवन्तो दृष्टा गुरुजनमसंबोध्यैवागतास्मीत्यनुज्ञा दीयतां गमनायेत्यादिकं विमुक्तधैर्यंतया तात्कालिकसंभोगतात्पर्यकमन्यदेव जल्पतीति चातुर्यचतुरस्रता सूचितेति मदुन्नीतः पन्थाः ॥ ७५ ॥ विमला - युवतियों ने सखियों के सामने ( उन्हें धोखे में डालने के लिये ) दूतियों से विपरीत ढंग की बात अर्थात् हम गुरुजनों के अधीन हैं, हमारा आगमन वहाँ न हो सकेगा इत्यादि कहा, जिसका वास्तविक आशय यह था कि हम सखियों को भ्रम में डाल रही हैं, उनकी आँख बचा कर हम वहाँ अवश्य आयेंगी, उन ( प्रिय ) को भी वहाँ हमारे आने तक ठहरना चाहिये । इस कौशलपूर्ण व्यापार के फलस्वरूप प्रिय का दर्शन होने पर अधीरतापूर्वक प्रिय से विपरीत ढंग की बात अर्थात् आप का दर्शन हो चुका, हम गुरुजनों को विना सूचित किये ही भायी हैं; अतः अब हमें जाने की अनुज्ञा दी जाय इत्यादि कहा, जिसका वास्तविक आशय यह था कि हम सखियों एवं गुरुजनों की आँख बचाकर आपके पास आयी हैं और अधिक समय तक ठहर नहीं सकतीं; अतः यथासम्भव शीघ्र रतिक्रीडा सम्पन्न कर ली जानी चाहिये ||७५ || [ दशम नवोढासंगममाह कहं विसमुहाणिअङ्क कह कह वि वलन्तचुम्बिश्रीवत्तमु हो । देइ खलन्तुल्लावे णववहुसत्थे विसूरिअरअं वि धिइम् ।। ७६ ।। [ कथमपि संमुखानीताङ्के कथं कथमपि वलच्चुम्बितापवृत्तमुखे । ददाति स्खलदुल्लापे नववधूसार्थे खिन्नरतमपि धृतिम् ।। नववधूनां सार्थे विषये खिन्नता व्याकुलता तत्प्रधानं रतमपि धृति प्रीति ददाति यूनामित्यर्थात् । किंभूते । पूर्वनिपातानियमात् कथमपि कष्टसृष्ट्या संमुखं यथा स्यात्तथाङ्कानीते मुक्तादिसमर्पण दिव्यदानका कूक्तिबलात्कारादिनाङ्कमुत्सङ्गमानीतेऽनन्तरं वलच्चुम्बितं सदपवृत्तं तिर्यग्भूतं मुखं यस्य तत्र । चुम्बनासहत्वात् । एवं चुम्बनसमकालमेव स्खलन् व्रीडापीडाकामैर्भङ्गुरत्वाद व्यक्त उल्लापो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४३१ निषेधादिवचनं यत्र । तथा च यथा यथा वास्यमासामधिकं तथा तथा कामोद्दीप्त्या नायकस्य परा निर्वृत्तिरिति । उक्तं च कण्ठाभरणे - 'अभीष्टार्थस्य संप्राप्ती स्पृहापर्याप्तता धृतिः ॥७६॥ विमला - युवकों के द्वारा नवोढायें किसी तरह ( बलात् ) सामने अङ्क में भर ली गयीं और किसी तरह ( बड़ी कठिनाई से ) उनका चुम्बन किया गया, परन्तु ( चुम्बन न सह पाने के कारण ) उन ( नवोढाओं ) ने मुँह घुमा लिया एवं निषेधार्थ अव्यक्त वचन कहा । इस प्रकार व्याकुलताप्रधान रत भी नववधुओं के प्रति युवकों का प्रीतिविधायक ही रहा ॥ ७६ ॥ मानिनीभङ्गाभिव्यक्तिमाह सासद् विमुक्कमाणो वहलुभिण्णपुल उग्गमेण पिआणम् । पुरोहत्तजि सण्णो गोणितहिओ विलासिणिसत्यो ॥७७॥ [ शास्यते विमुक्तमानो बहलोद्भिन्नपुलकोद्गमेन प्रियाणाम् । पुरतोऽभिमुखनिषण्णो गतापनिवृत्तहृदयो विलासिनीसार्थः ॥ ] प्रसादनया विमुक्तमानो विलासिनीसार्थः प्रियाणां कृते । प्रियेभ्य इत्यर्थः । बहलो घन उद्भिन्नः स्फुटो यः पुलकोद्गमस्तेन प्रथमं गतम्, अथ मानच्युतावपनिवृत्तं नायकाभिमुखमागतं हृदयं यस्य तथाभूतः शास्यते कथ्यते । वधूजनः प्रसन्न इति पुलकेन प्रियैरनुमीयते इत्यर्थः । कीदृक् । पुरतो नायकस्याग्रे तदभिमुखनिषण्णोऽपि प्राचीमुखस्य प्रियस्य पुरः प्राचीमुख एव स्थित इति मानसमये पराङ्मुखीभूत इत्यर्थं इति हृदयापरिज्ञानसामग्री । यद्वा पुरतो नायकस्याग्रेऽभिमुखस्थितोऽपि । तथा च हृदयज्ञापकसं मुखावस्थितिसत्त्वेऽपि पुलकेनैव हृदयं ज्ञायत इत्यर्थः ॥७७॥ विमला - विलासिनियों के घने एवं स्फुट पुलकों से प्रियजनों ने अनुमान लगा लिया कि उनका मान छूट चुका और वे प्रसन्न हैं । तत्फलस्वरूप मान के समय पराङ्मुखी वे अब नायक के सामने अभिमुख हो स्थित हैं तथा उनका हृदय, जो नायक की ओर से फिर गया था, पुन: अभिमुख आ गया ।।७७॥ ॥ विश्रब्धनवोढारतमाह ण पिइ दिण्णं पि मुहं ण पणामेइ अहरं ण मोएइ बला । कह वि पडिवज्जइ रअं पढमसमागमपरम्मूहो जवइजणो ॥७८॥ [ न पिबति दत्तमपि मुखं न प्रणामयत्यधरं न मोचयति बलात् । कथमपि प्रतिपद्यते रतं प्रथमसमागमपराङ्मुखो युवतिजनः ॥ ] Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] सेतुबन्धम् [दशम प्रथमसमागमेन पराङ्मुखो लज्जया विरुद्धवृत्तिर्युवतिजनः प्रियेण दत्तमपि तन्मुखे विन्यस्तमपि मुखं न पिबति । प्रियस्याधरपानं न करोतीत्यर्थः । प्रियेण चुम्बनाय याचितमप्यधरं न प्रणामयति नोन्नतं करोति । न प्रणाययति न ददातीति वा । न च बलान्मोचयति प्रियस्याधरौष्ठेनाकृष्टमपि बलान त्याजयतीत्यर्थः । एवं कथमप्य निर्वचनीयप्रकारेण कष्टेन वा रतं प्रतिपद्यते । न तु व्यक्तं स्वीकरोतीत्यर्थः । प्रियेणालिङ्गितं शरीरं न मोचयतीति केचित् । 'पढमसमागमपरव्वसो' इति पाठे परवश इत्यर्थः ।।७।। विमला-प्रथम समागम के समय ( लज्जा से ) पराङ्मुख हो ( विश्रब्ध नवोढा ) युवतियों ने प्रिय के द्वारा मुख पर रख दिये गये मुख ( अधर ) का पान नहीं किया, न ही प्रिय के चूमने के लिये अपना अधर ऊपर उठाया और न प्रिय से आलिङ्गित शरीर को बलात् छुड़ाया ही । इस तरह अनिर्वचनीय रीति से सुरत कार्य प्रतिपन्न किया ॥७८।। सख्यां दूतीपरिहासमाह अवलम्बिज्जउ धीरं ग अ सो एहिइ इहुग्गए वि पोसे । इस दूईहि तुलिज्जइ पढमाणिपिअअमो विलासिणीसत्यो ॥७९॥ [ अवलम्ब्यतां धैयं न च स एष्यति इहोद्गतेऽपि प्रदोषे। इति दूतीभिस्तुल्यते(?)प्रथमानीतप्रियतमो विलासिनीसार्थः ॥] प्रथममानीतः प्रियतमो यस्य तादशो विलासिनीसार्थो दूतीभिरित्यनेन प्रकारेण तुल्यते(?)। किं वदति किं वा चेष्टत इत्यादिहृदयनिरूपणाय पूर्वमानीतस्यापि प्रियस्य संगोपनादुपहस्यत इत्यर्थः । इति कथमित्यत आह हे सखि ! धैर्यमवलम्ब्यताम् । सः । तव प्रिय इत्यर्थात् । उद्गतेऽपि प्रदोषे इह न च एष्यति । तथा च त्वयैव तत्र गम्यताम् । तेन यत्स्यात्तत्स्यादित्यर्थः । अथ च सत्यमेवोक्तम् । त्वया धैर्यमबलम्ब्यताम् । स इह प्रदोषे नैष्यति, किन्तु संप्रत्येवागत इति च्छलोक्तिः ।।६।। विमला--( देखें वह क्या कहती है अथवा क्या करती है, यह जानने के लिये ) पहिले ही लाये गये प्रियतम को सामने उपस्थित न कर दूतियों ने अपनीअपनी सखी नायिकाओं से मनोरंजनार्थ कहा-सखि ! धैर्य धारण करो, रात हो जाने पर भी वह ( प्रिय ) यहाँ ( तुम्हारे पास ) नहीं आयेगा ॥७॥ मदिरायोगमाह देइ विलासवईणं सुहे अ दुक्खे अ पाअडिअसम्भावा । अणवेक्खि अलज्जाई सहि व्व वीसत्थन म्पिआइ पसण्णा ॥८०॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४३३ [ ददाति विलासवतीनां सुखे च दुःखे च प्रकटितसद्भावा । अनपेक्षितलज्जानि सखीव विश्वस्तजल्पितानि प्रसन्ना ॥] प्रसन्ना वारुणी विलासवतीनामिति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। विलासवतीभ्यः विश्वस्तजल्पितानि ददाति । मादकतया सदसद्विश्रम्भवचनानि वादयतीत्यर्थः । कीदशानि । अनपेक्षिता लज्जा यत्र तानि । सखीव । यथा सखी लज्जानपेक्षाणि विश्रम्भजल्पितानि ददातीत्यर्थः । सहोपमा। कीदृशी । प्रसन्ना। सुखे च संभोगरूपे दुःखे च विप्रलम्भरूपे प्रकटितः प्रकाशितः सद्भावः श्रेष्ठो भावः कामजनितो यया सा। [ तथा सा ) उभयदशायामपि वारुण्या सात्त्विकभावोदयात। सख्यपि सुखदुःखयोरपि प्रकाशितसौहार्दा प्रसन्ना चेति साम्यम् ।।८०॥ - विमला-(सम्भोगरूप ) सुख तथा (विप्रलम्भरूप ) दुःख में सद्भाव (१-सात्त्विक भाव, २-सौहार्द ) प्रकट करने वाली [प्रसन्ना ] मदिरा ने सखी के समान विलासवतियों से (मस्ती में) सत्-असत् विश्रम्भ वचन कहलाये, जिनमें लज्जा अपेक्षित नहीं रही ॥८०॥ उद्दीपन विभावानाह चन्दुज्जोएण मनो मएण चन्दावो णु बढिरपसरो। दोहि वि तेहिं गु मअणो मप्रणेण णु दो वि ते णिआ अइभूमिम्।।८१॥ [ चन्द्रोद्योतेन मदो मदेन चन्द्रातपो नु वधितप्रसरः । द्वाभ्यामपि ताभ्यां नु मदनो मदनेन नु द्वावपि तो नीतावतिभूमिम् ॥] नुशब्दो वितर्के । चन्द्रोद्योतेन मदः किं वधितप्रसरो वृत्तः । मदेन किं चन्द्रातपो वधितप्रसरः । द्वाभ्यामपि ताभ्यां चन्द्रोद्योतमदाभ्यां मदन: किं वधितप्रसरः । मदनेन च द्वावपि तो चन्द्रोद्योतमदौ किमतिभूमिमुत्कर्षकाष्ठां नीतौ । यद्वा वधितप्रसरो मदश्चन्द्रोद्योतेन किमतिभूमि नीतः । तथाभूतश्चन्द्रातपो मदेन किमतिभूमि नीतः । द्वाभ्यामपि ताभ्यां तथाभूतो मदनः किमविभूमि नीतः । द्वावपि तथाभूतौ तौ मदनेन किमित्यादि योजनीयम् । परस्परोद्दीपकत्वादिति भावः । परिवृत्तिरलंकारः । 'संमोहान न्दसंभेदो मदो मद्यप्रयोगजः' ।।८१॥ विमला-इस बात का पता नहीं चलता कि चन्द्रिका ने ( मद्यजन्य ) मद का प्रसार बढ़ा दिया अथवा मद ने चन्द्रिका का प्रसार बढ़ा दिया अथवा चन्द्रिका और मद दोनों ने मदन का प्रसार बढ़ा दिया अथवा मदन ने उन ( चन्द्रिका और मद ) दोनों को उत्कर्ष की सीमा पर पहुंचा दिया ॥१॥ २८ से० ब० Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् आश्वासं विच्छिन्दन्नाह चन्द अरेण पोसे णिज्जइ मअणेण महुमएण अ सम अम् । दूरं दूरारूढो जुवईण पिएसु बहरसो अणुराओ ।।२।। इअं सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकव्वे दसमो आसासओ ॥ [ चन्द्रकरण प्रदोषे नीयते मदनेन मधुमदेन च समम् । दूरं दूरारूढो युवतीनां प्रियेषु बहुरसोऽनुरागः॥] ____ इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये दशम आश्वासः । युवतीनां प्रियेषु बहुरसोऽनुरागः प्रदोषे रात्री चन्द्रक रेण मदनेन मधुमदेन च सममेकदैव दूरमारूढः परां वृद्धिमुपागतः सन् दूरं नीयते उत्कर्षकाष्ठां प्राप्यत इत्यर्थः । यद्वा मदनेन मधुम देन च समं सह चन्द्र करेण नीयत इति संबन्धः ।।८।। कामिनीकेलिदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णाभूदशमी शिखा ।। विमला-रात्रि में मदन और मधुमद के साथ चन्द्रकिरण के द्वारा युवतियों का प्रियजन के प्रति बहरस अनुराग वृद्धि को प्राप्त होता हुआ उत्कर्ष की सीमा पर पहुंचा दिया गया ॥२॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालीदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में दशम आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई ।। -***** Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश आश्वासः अथ जानकीदर्शनोद्दीपितमदनस्य रावणस्य विरहावस्थामाह - इअ पडिसारिचन्दे दूरुक्खण्डिअणिसापअत्तविरामे । चित्तविश्रका मिणिश्रणे जामच्छेअविसमं गम्मि पनोसे ।। १ दोहं रक्खसवइणा चिन्तारेअविअधीरदाविश्अहिअअम् । दसहि वि मुहेहि समअं आलोइ सुण्णदसदिसं णोससिश्रम् ॥ २ ॥ ( जुग्गअम् ) [ इति प्रतिसारितचन्द्रे दूरोत्खण्डितनिशा प्रवृत्तविरामे । चेतितकामिनीजने यामच्छेदविषमं गते प्रदोषे ॥ दीर्घ राक्षसपतिना चिन्तारेचितधैर्य दर्शितहृदयम् । दशभिरपि मुखैः समकमालोकितशून्यदशदिग्निः श्वसितम् ॥ ] ( युग्मकम् ) इत्यनेन दूतप्रेषणप्रसाधनसंभोगादिना प्रकारेण प्रदोषे गते सतीत्यग्रिमस्कन्धकेन समन्वयः । कीदृशे प्रदोषे । प्रतिसारितो दूरं प्रापितश्चन्द्रो येन । तत्र । यामिनीशषत्वात् । एवं दूरमुत्खण्डितानीकृता या निशा तया प्रवृत्तः प्रदत्तो वा विरामोऽवसानं संभोगव्यतिरेको वा यत्र । एवं चेतितः प्राप्तचैतन्यः कामिनीजनो यत्र पूर्ण कामतया मदापगमात् । यामस्य च्छेदेनापगमेन विषमं यथा स्यादिति क्रियाविशेषणम् । यामच्छेदेन निशाहासात्संभोग (?) साम्राज्याभावेनोद्वेजकत्वादिति भावः । राक्षसपतिना दशभिरपि मुखैः सममेकदैव दीर्घं यथा स्यात्तथा निःश्वसितम् । सीतालाभोपायाभावादिति भावः । 'रामः संनिहितः, सीता न संमुखी वृत्ता' इत्यादिचिन्तया रेचितं शून्यीकृतं यद्धेयं तेन दर्शितं व्यक्तीकृतं हृदयमान्तरं यत्र तद्यथा स्यात् । अवलम्बितमपि धैर्यं तुच्छतया गोपनं न जनयतीत्यर्थः । एवं दशभिरपि मुखैरित्यर्थात् । आलोकिताः शून्या दश दिशो यत्र तद्यथा स्यात् । सीतां विना सर्वमेव शून्यं भासत इत्यर्थः । यद्वा सीतागतमनस्कतया शून्यं यदालोकितं तद्विषयीकृतदशदिगित्युभयमपि क्रियाविशेषणम् । 'ध्यानं चिन्ता हितानाप्तेः शून्यताश्वासतापकृत्' इति चिन्तारूपावस्थोक्ता ॥२॥ विमला - इस प्रकार धीरे-धीरे चन्द्रमा दूर ( अस्ताचल ) को चला गया, निशा के उत्खण्ड़ित होने से, ( नवदम्पतियों ने सुरत-क्रीडा से ) विराम लिया, कामिनियों में ( मद दूर हो जाने से ) चेतनता आ गयी, रात बीत गयी, जिसका बीतना ( नवदम्पतियों को ) उद्वेगकारक ही रहा । उस समय रावण का धैर्य Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [ एकादश चिन्ता से विनष्ट हो गया, जिससे उसके हृदय की मनोभाव-गोपनशक्ति का पता चल गया और ( सीता को अनुकूल न कर सकने से) दसो मुखों से दीर्घ निःश्वास छोड़ता हुआ दसो दिशाओं में उसने दृष्टि डाली, किन्तु ( सीता के विना ) उसे चारों ओर सूना ही दिखायी पड़ा ॥१-२॥ रावणस्योन्मादावस्थामाहचिन्तेइ ससइ जूरइ वाहुं परिपुसइ धुणइ मुहसंघाअम् । हसइ परिओससुण्णं सीआणिप्पसरवम्महो वहवअणो ॥३॥ [चिन्तयति श्वसिति खिद्यते बाहुपरिप्रोञ्छति धुनोति मुखसंघातम् । हसति परितोषशून्यं सीतानिष्प्रसरमन्मथो दशवदनः ॥] सीतायां निष्प्रसरो निरुद्धवृत्तिर्मन्मथो यस्य । सीताया वैमुख्यात् । तादृशो दशवदनश्चिन्तयति सीतालाभोपायमर्थात् । तं चालभमानः श्वसिति रम्भाशापस्मृत्या बलात्कारोऽपि न संपद्यत इति मनःखेदात् । एवं रामावष्टम्भात्सीता मामपि रावणं न गणयतीति खिद्यते । अत एव बाहं परिप्रोञ्छति परिमाष्टि । राम चेदेभिर्हनिष्यामि तदा सीता मामासादयिष्यामिति भावः । यद्येभिः कैलासमिव सर्वपर्वतानालोड्य नष्टानकरिष्यम्, तदा सेतुरेव न स्यादिति वा । एवं मुखसंघातं धुनोति । यद्येतानि मुखानि प्रीतं पिनाकिनं मनुष्यादप्यवध्यत्वमयाचिष्यन्त तदा रामावध्योऽहमभविष्य मिति राम एव मया हते सीता सुलभा भवेदित्यसंतोषादिति भावः । तथा परितोषशून्यं हसति धिक् त्रिदशान्, अमी यत्स्व. यमसमर्था मनुष्यद्वारा मामभिभवितुमिच्छन्तीति हेलावशादिति भावः । यद्वा दूरस्थितेऽपि रामे या न वशीकृता सा कथ मिदानीं सविधस्थिते वशमेप्यतीति नैराश्याच्छ्वसिति । अत एव सीताहरणप्रयासो मम निष्फलो भविष्णरिति खिद्यते । अथ धन्योऽयं बाहुः, येनाहरणसमये सीतां वक्षःस्थलमारोप्य किंचिदपि जन्मसाफल्यमजितमिति सत्कुर्वन्बाहुं परिप्रोञ्छति परामृशतीत्यर्थः। अत एवालब्धसीतामुखचुम्बनत्वादवज्ञाविषयत्वेन सुखसंघातं धुनोति । तथा जटाचीरपरिग्रहेऽपि रामे दृढानुरागेयमुत्तमनायकं मामवजानातीत्यहो सीताया मौग्ध्यमिति परितोषशून्यं हसति । 'जूरइ' इत्यत्र 'कुप्पई' इति पाठे रामे दत्तभरेयमिति अध्य. तीत्यर्थः। तत्र बाहुं परिप्रोञ्छति रामाद्यभिभावकत्वेन बाहोरेव सहायत्वात् ।' अत एव मुखसंघातं धुनोति । एकमुखोऽपि मादक् पराभवितुमयोग्यः, किं पुनर्दशमुख इति भावः । एवं परितोषशून्यं हसति अहो रामस्य मौग्ध्यं यत्कपिभिर्मत्पराभवमिच्छतीति भावः । शिरःकम्पहासौ क्रोधानुभावौ । क्रियादीपकम् । 'उन्मादश्चापरिच्छेदश्चेतनाचेतनेष्वपि । तथां-'अस्थानहासरुदितगीतप्रलपनादिकृत् ॥३॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४३७ विमला-सीता में रावण की कामवृत्ति सफल न हो पायी, अतएव वह ( सीता को अनुकूल करने के उपायों के विषय में ) सोचता, ( कभी निराश होकर ) निःश्वास छोड़ता, ( कभी ) भुजाओं को (सीताप्राप्ति का साधन समझ कर ) सहलाता, कभी ( असन्तोष से ) दसो मुखों को हिलाता, ( कभी) परितोष-शून्य हँसता था ॥३॥ स्मृतिरूपावस्थामाह बहु मण्णइ वच्छ होरन्तुव्वत्तजणतणवालिद्धम् । णिन्द अवअणणिवहं प्रप्पत्तपिप्रामुहाम अरसासाप्रम् ॥ ४ ॥ [ बहु मन्यते वक्षस्तटं ह्रियमाणोवृत्तजनकतनयाश्लिष्टम् । निन्दति च वदननिवहमप्राप्तप्रियामुखामृतरसास्वादम् ।।] रावणो वक्षस्तटं बहु मन्यतेऽभिनन्दति । कुतस्तदाह कीदृक् । ह्रियमाणया सत्या उत्तया संमुखीकरणायोर्तितया । अन्तर्भावितणिच् । जनकतनयया आश्लिष्टम् । यतः । वदननिवहं निन्दति च । कुतस्तदाह-अप्राप्तः प्रिया सीता तन्मुखामृतरसस्यास्वादो येन तम् । बहुष्वपि सत्सु मुखेष्वेकस्यापि कृतकार्यत्वं नाभूदिति हर्ष विषादरूपभावसंधिः ॥४॥ विमला-हरण के समय (पुरोभाग को सम्मुख करने के लिये ) सामने की ओर सीता जब घुमा ली गयी थी, उस समय उस (सीता) से ( विवशतापूर्वक) रावण का वक्षःस्थल आलिङ्गित हुआ था। अतएव (हर्ष से ) वह ( रावण ) उस ( वक्षःस्थल ) का बहुत अभिनन्दन करता, किन्तु (दस मुह होते हुए भी) एक भी मुख प्रिया (सीता) के अधरामृत का रसास्वाद न प्राप्त कर सका था, अत एव (विषाद से ) अपने दसो मुखों की निन्दा करता ॥४॥ चिन्तासंगममाह पडिरुद्धन्तस्स वि से भग्गणिप्रत्तपरिसंठविअभिज्जन्ते । विसमुद्धाइअकम्पे हिमए उल्ललइ अलहुमम्मि वि धीरम् ।। ५॥ [प्रतिरुन्धतोऽप्यस्य भग्ननिवृत्तपरिसंस्थापितभिद्यमाने । विषमोद्धावितकम्पे हृदये उल्ललत्यलघुन्यपि धैर्यम् ॥] अस्य रावणस्यालघुन्यपि धैर्यशालित्वाद्गुरुण्यपि हृदये धैर्यमुल्ललति चञ्चलीभवति। ततो बहिर्भवतीति यावत् । कीदृशस्य । प्रतिरुन्धतोऽपि । चलितं धैर्यमित्यर्थात् । निवर्तयतोऽपि । धैर्य रक्षतोऽपि न तिष्ठतीत्यर्थः । किंभूते । प्रथमं सर्वतोऽपि भग्ने सीतां प्रत्यनुरूपबुद्ध धा गते अनन्तरं विवेकान्नलकूबरशापस्मरणाद्वा निवृत्ते सति परिसंस्थापिते स्थिरीकृते। पुनः सीतासौन्दर्यातिशयोपलम्भाद्भिद्यमाने स्थैयं त्यजतीत्यर्थः । यद्वा मनुष्य एवायं महाबल इति चिन्तया भग्ने ततोऽसौ विष्णुरूपेणापि मां प्रत्यशक्तः कथं मनुष्यरूपेण शक्तो भवेदित्यवष्टम्भान्निवत्ते Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] सेतुबन्धम् [ एकादश साध्यवसाये ततो मया रामे सर्वथा विक्रम्य निहते सीता वशीकर्तव्येति परिसंस्थापिते स्थिरीकृते पश्चाद्वालिखरादिविनाशजलधिलङ्घनादिस्मृत्या रामस्यातिबलत्वज्ञानाद्भिद्यमानेऽध्यवसायं त्यजतीत्यर्थः । अत एव विषमं यथा स्यात्तयोद्भावित उद्गतः कम्पो यत्र । चिन्तावेगादिति धेर्यरूपभावशान्तिः ।। ५ ।। विमला - ( मनुष्य रूप में राम बड़ा बलवान है, यह सोच कर ) रावण का हृदय भग्न ( अध्यवसायशून्य ) हो जाता और तुरन्त ही ( विष्णुरूप में वह मेरा कुछ न बिगाड़ सका तो मनुष्यरूप से क्या कर सकेगा, यह सोच कर ) निवृत्त ( साध्यवसाय ) हो जाता । तदनन्तर ( राम को मारने के बाद सीता को वश में कर ही लूंगा, यह सोच कर ) सुस्थिर हो जाता, किन्तु ( राम के द्वारा वालि एवं खरादि निशाचरों का संहार तथा समुद्र-लङ्घन आदि का स्मरण कर ) बुरी तरह काँप जाता, इस प्रकार उसके गम्भीर हृदय में रोकने पर भी धैर्य ( बाहर निकलने के लिये ) चञ्चल हो जाता था || ५|| विषादरूपभावोदय माह तो से विसमुष्वत्तिअविरल पसारिक रङ्गुलिदरत्थइअम् । खलिअं अंसम्मि मुहं विअम्मिआआसगलिअवाहुप्पीडम् ॥ ६ ॥ [ ततोऽस्य विषमोद्वर्तितविरलप्रसारितकराङ्गुलिदरस्थगितम् । स्खलित मंसे मुखं विजृम्भितायासगलितबाष्पोत्पीडम् ॥ ] ततो धैर्यत्यागानन्तरमस्यांसे मुखं स्खलितं संबद्धम् । किंभूतम् । चिन्तासौष्ठवेन विषमं विसदृशं यथा स्यादेवमुद्वर्तितोत्तानीकृता । अथ च विरलं प्रसारिता याः कराङ्गल्यस्ताभिरीषत्स्थगितमवष्टब्धम् । चिन्तावशात्करावष्टम्भेन स्कन्धे मुखं स्थापितमित्यर्थः ः । एवं विजृम्भितेन वर्धितेनायासेनोद्वेगेन गलितो वाष्पोत्पीडो यस्मादिति रोदनमुक्तम् । 'उपायाभावजन्मा तु विषादः सत्त्वसंक्षयः । निश्वासोच्छ्वासहृत्तापसहायान्वेषणादिकृत् ||६|| विमला — धैर्य छूट जाने के बाद ( चिन्ता से ) रावण का सिर ( झुक कर ) कन्धे पर स्थित हुआ, जिसे वह हाथ की विषमरूप से उत्तान की गयी तथा विरलरूप से प्रसारित की गयी अङ्गुलियों से थामे रहा एवम् उद्वेग बढ जाने से नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी ॥६॥ विषयनिवृत्तिमाहविसमुग्गा हिश्रमहुरं दृमिश्रदन्तव्वणाहरपरिक्वलिअम् । श्राअण्णेइ पिआणं वलन्तहिअभावहोरिअं जनसद्दम् ॥ ७ ॥ [ विषमोद्ग्राहितमधुरं दूनदन्तव्रणाधरपरिस्खलितम् । कर्णयति प्रियाणां वलमान हृदयावधीरितं जयशब्दम् ॥ ] Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४३६ स प्रियाणां मन्दोदरीप्रभृतीनां जयशब्दं वलमानेन सीतां प्रति भजता हृदयेनावधीरितमवज्ञाविषयीकृतमाकर्णयति । सीतागतचित्ततया सम्यक्श्रवणाभावादरस्यापादकत्वाच्चानादर इत्याशयः । किंभूतम् । पूर्वनिपातानियमात् । दन्तव्रणेन दूनादधरात्परिस्खलितम् । ओष्ठ्यवर्णस्यासम्यगुच्चारणादपरिस्फुटमित्यर्थः । अत एव विषमं नानारूपतयोद्ग्राहितमुच्चारितं तत एव मधुरमास्वादनीयम् । तथा च तथाविधजयशब्दस्याप्यवहेलया चिन्तासङ्गोऽप्युक्तः ॥७॥ दिमला-वह ( रावण ) प्रियाजन के, दन्तक्षत से पीडित अधर से भस्फुट एवं नाना रूप में उच्चारित होने से मधुर जयशब्द को, सीता में हृदय नगा रहने के कारण अनादरपूर्वक सुनता ॥७॥ विषयान्तरेऽरतिमाह आमनाइ महइ सम्रणं मग्गइ रअणिबिरमं ज उच्छह दिनसम् । णोइ णिप्रत्तेइ पुणो रइलम्भोवाअमग्गणारहिअओ ॥ ८ ॥ [ आमुञ्चति महति शयनं मार्गति रजनीविरामं जुगुप्सते दिवसम् । निरैति निवर्तते पुना रतिलम्भोपायमार्गणातुरहृदयः॥] रतिः सीतासंबन्धिसुरतं तत्प्राप्त्युपायस्य मार्गणमन्वेषणं तेन । यद्वा रतिः कामपत्नी तत्प्राप्त्युपायो यस्य स कामस्तस्य मार्गणैर्बाणैरातुरहृदयो व्याकुलचित्तो रावणः शयनमामुञ्चति अध तिवशात्त्यजति पुनरुत्थानखेदवशान्महति वाञ्छति । शेते इत्यर्थः । एवं रजन्या मादकत्वात्तद्विरामं मार्गति आकाङ्क्षति । जाते च रजनी. विरामे दिवसं जुगुप्सते निन्दति । तदा आकारसंगोपनाभावात् । अतएव निरैति आकारसंगोपनाय लोकानामग्रतो बहिनिर्गच्छ ति, ततः कुत्र गच्छामि बलात्कारेणैव सीतामानयामीति । निवर्तते पूर्वस्थानमेवायाति । यद्वा संकल्पोपनीतसीतालिङ्गनाय शयनं मुञ्चतीति हर्षः । पश्चाभ्रमशान्तौ स्वप्नेऽपि सीतां पश्यामीति शयनं महति शेते इति विबोधः। अथ निद्रानुत्पत्त्या मादकत्वेन र जन्या विराममेवेच्छतीति दैन्यम् । पुनस्तथा सति लोकानामग्रतो बलात्कारोऽपि न स्यादिति दिवसं जूगुप्सते निन्दतीति ब्रीडा । तदिदानीमेव निशि बलात्तामानयामीति निरैति निर्गच्छतीत्यर्थः । पुनर्निवर्तते रम्भाशापस्मरणादिति धृतिः । तथा च नानाभावशवलत्वमुक्तम् । क्रियादीपकम् ॥८॥ विमला-( सीतासम्बन्धी ) सुरत की प्राप्ति का उपाय ढूंढने में रावण का हृदय इतना आतुर हो गया कि वह शय्या छोड़ उठ खड़ा होता, पुन: ( खेदवश ) लेट जाता, ( नींद न आने से ) रात्रि का अवसान चाहता, ( रात्रि का अवसान होने पर) दिन की निन्दा करता, उठ कर बाहर निकल जाता, पुनः लौट पड़ता॥८॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] सेतुबन्धम् [ एकादश गोत्रस्खलनमाह पच्छाअन्तस्स वि से बहुसो हिअअट्टिओ पिआण वि पुरओ।। सम मुहणिवहेम्मि वि सीआमइप्रो पट्टइ समुल्लावो ।।६।। [प्रच्छादयतोऽप्यस्य बहुशो हृदयस्थितः प्रियाणामपि पुरतः। समकं मुखनिवहेऽपि सीतामयः प्रवर्तते समुल्लापः ॥] प्रच्छादयतोऽप्यर्थादालापमेव संगोपयतोऽप्यस्य रावणस्य हृदय स्थितः सीतामयः समुल्लापः प्रियाणां मन्दोदरीप्रभृतीनामप्यने मुखनिवहेऽपि सममेकदैव बहुषः प्रवर्तते । सीता सीतेति बहुशो जल्पतीत्यर्थः । तेनावहित्था सूचिता । 'भयगो'रवलज्जादेहर्षाद्याकारगुप्तिरवहित्था। व्यापारान्तरशक्त्यन्यथा-(भा)-वभाषणविलोकनादिकरी' ॥६॥ विमला-यद्यपि रावण बहुत छिपाने की चेष्टा करता, तथापि हृदयस्थित (सीतासम्बन्धी ) समुल्लाप ( मन्दोदर्यादि ) प्रिया-जन के भी सामने उसके दसो मुंह से एकबारगी निकल ही जाता था ॥६॥ रागाधिक्यमाहतं पुल इअम्मि पेच्छइ उल्लावन्तो अ तीम गेहूइ गोत्तम् । ठाइ अ तस्स समप्रणे अण्णम्मि वि चिन्तिमम्मि सच्चिअहिए ॥१०॥ [ तां प्रलोकिते पश्यत्युल्लपंश्च तस्या गृह्णाति गोत्रम् । तिष्ठति च तस्य समदनेऽन्यस्मिन्नपि चिन्तिते सैव हृदये ।।] चो हेतौ । यतस्तस्य रावणस्य समदने सकामे हृदयेऽन्यस्मिन्नप्यभीष्टवस्तुनि चिन्तिते सति सैव तिष्ठति । संकल्पवशात्सीतैव चिन्ताविषयीभवतीत्यर्थः । अतः प्रलोकिते दर्शने दर्शनकर्मणि वा तामेव पश्यति । रावण इत्यर्थात् । उल्लपंश्च तस्या एव गोत्रं नाम गृह्णाति जल्पतीति मनसि वचसि चक्षुषि सर्वत्रैव सैव स्फुरतीति विषयनिवृत्तिचिन्तासङ्गसंकल्पादीनां सांकर्यम् ॥१०॥ विमला-रावण अपने सकाम हृदय में यदि किसी अन्य अभीष्ट वस्तु का ध्यान करता तो भी सीता ही उसके ध्यान का विषय होती। यदि देखता तो सीता ही उसे दिखायी देती एवं उच्च स्वर से किसी का नाम लेकर पुकारता तो ( उसके नाम के स्थान पर ) सीता का ही नाम लेता था ॥१०॥ अथ व्याध्यवस्थामाहसाहइ से संतावं वासहरद्धन्तविसमपुजिअकुसुमो। आअअणीसासहओ किलिन्तसग्गतरुपल्लवो उवारों ॥११॥ [ शास्त्यस्य संतापं वासगृहार्धान्तविषमपुञ्जितकुसुमः । आयतनिःश्वासहतः क्लाम्यत्स्वर्गतरुपल्लव उपचारः ॥] Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४४१ अस्य संतापमुपचारो विरहोपशान्तिहेतुत्वेनोपादीयमानः पदार्थसंचय शास्ति कथयति । किंभूतः । वासगृहस्यावस्थितिगृहस्यार्धान्ते एकदेशे विषमं पुञ्जितानि कुसुमानि यत्र सः । एवं यत आयतनिःश्वासेन हतः अतः क्लाम्यन्तस्तत्संबन्धान्म्लायन्तः स्वर्गतरूणां पल्लवा यत्र । तथा च पुष्पाणां वर्तुलीकरणेन यानि कथंचिदपि न म्लायन्ति तेषामपि पारिजातपल्लवानां वैवर्येन तापोत्कर्षोऽनुमीयत इत्यर्थः । 'व्याधिस्तु दीर्घ निःश्वासपाण्डुताकृशतादयः' ॥११॥ विमला-उसके ( सन्तापशान्ति के लिये ) वासगह के अर्ध भाग में बहुत अधिक एकत्र किये गये पुष्पों की राशि तथा लम्बी ( उष्ण ) सांसों से मलिन हुये पारिजात के पल्लवों से उसके सन्ताप के उत्कर्ष का पता लगता था ॥११॥ देहविक्षेपादिना तदेवाह वेहपरिणाहविनडे वलइ भरोद्वत्तदलिप्रपासद्धन्ते । दूरोणामिप्रमज्ञ विसमं भूमिसपणे पहोलिरहत्थो ॥१२॥ [ देहपरिणाहविकटे वलति भरोद्वृत्तदलित पार्वार्धान्ते । दूरावनामितमध्ये विषमं भूमिशयने प्रघूर्णनशीलहस्तः ॥] भूमौ यच्छयनं पुष्पपल्लवादिमयं तल्पं तत्र प्रघूर्णनशीला इतस्ततः क्षिप्यमाणा हस्ता यस्य तथाभूतो रावणो विषम संतापवशाद्विपर्यस्तं यथा स्यात्तथा बलति । पाश्वपरिवर्तनमाचरतीत्यर्थः। किंभूते शयने । देहो रावणशरीरं तस्य परिणाहो देध्यं तद्वद्विकटे तदनुसारित्वात् । एवं तस्य देहभरादेवोवृत्तौ विपर्यस्तो अथ च दलितो खण्डितौ पार्श्वयोरर्धान्तावेकदेशौ यत्र। एकपार्वे पूर्व स्थित्यापरपार्वे च तदानीं गत्या पार्श्वद्वयस्यापि विपर्यास इत्यर्थः । एवं दूरमवनामितमधः कृतं मध्यं यस्य । उदरस्याल्पत्वादत्यन्तसंबन्धाभावादवनमनमात्रमित्यर्थः । तथा च भूमिशयनेन 'विरक्तिः सुखहेतूनाम्' इत्यरतिरप्युक्ता ॥१२॥ विमला-भूमि पर ( पुष्पपल्लवादि से रचे गये ) तल्प पर पड़ा हुआ वह ( रावण ) हाथों को इधर-उधर डुलाता हुआ ( सन्तापवश ) बुरी तरह छटपटाता, जल्दी-जल्दी और बार-बार करवटें बदलता, जिससे उसके शरीर के समान दीर्घ तल्प के दोनों पार्श्व भाग विपर्यस्त एवं खण्डित हो गये थे तथा उसका मध्य भाग अत्यन्त नीचे को झुक गया था ।।१२।। दाक्षिण्यमाह दक्खिण्णमेत दिण्णो जणअसुप्राहुत्तहिमअदिण्णुक्कण्ठो। उल्ललइ खणविलक्खो णिप्रअन्तेउरमहेसु से महणिवहो ॥१३॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] सेतुबन्धम् [ एकादश [ दाक्षिण्यमात्रदत्तो जनकसुताभिमुखहृदयदत्तोत्कण्ठः । उल्ललति क्षणविलक्षो निजकान्तःपुरमुखेष्वस्य मुखनिवहः ॥] अस्य मुखनिवहो निजकान्तःपुराणां मन्दोदरीप्रभृतीनां मुखेषूल्ललति चञ्चलीभवति । चुम्बनान्निवर्तत इत्यर्थः । क्षणं विलक्षो लज्जयाप्रसन्नः सन् । किंभूतः । दक्षिणो नायकस्तस्य भावो दाक्षिण्यं तन्मात्रेणानुरोधात्, न तु स्नेहात् । दत्तोऽपितः । एवं जनकसुता सीता तदभिमुखेन हृदयेन दत्तोत्कण्ठा यस्मै । सीतामेव द्रष्टुमित्यर्थात् । तथा च दाक्षिण्येन राक्षसीमुखे लग्नोऽपि सीतामुखदर्शनोत्कण्ठया कृष्यमाण: सम्यग्न संबध्यत इत्यर्थः । 'यो गौरवं भयं प्रेम सद्भावं पूर्वयोषिति । न मुञ्चत्यन्यचित्तोऽपि ज्ञेयोऽसौ दक्षिणो यथा ।।' इति कण्ठाभरणम् ।।१३।। विमला-रावण दाक्षिण्य (दक्षिण-नायक का शिष्टाचार ) के अनुरोध से, मन्दोदरी आदि प्रिया-जन के मुखों पर (चुम्वनार्थ) अपने मुखों को रखता, किन्तु तत्काल सीतामुख के दर्शन की उत्कण्ठा से वह अपने मुखों को क्षणभर लज्जित होता हुआ हटा लेता था ॥१२।। संतापोत्कर्षमाह--- जा अण्णण हसन्तो गमेइ उमछरं विलासिणिसत्थम् । ता दूसहसंतावं अण्णं से सोग्रदुम्मणं होइ मुहम् ॥१४॥ [ यावदन्येन हसन्गमयत्युन्मात्सर्यं विलासिनीसार्थम् । तावद्दुःसहसंतापमन्यदस्य शोकदुर्मनस्कं भवति मुखम् ॥ ] अन्येन मुखेन हसन्यावद्गमयति प्रतारयति रावणः, तावदेवास्य दुःसहः संतापो येन तादृशमन्यन्मुखं शोकेन दुर्मनस्कं भवति । सीतालाभोपायाभावादिति भावः । तथा च तासामीाशान्त्यर्थ मेकेन सकपटं हसतोऽप्यन्यन्मुखमालिन्येन संतापहेतुकेन संगोपनं तिष्ठतीत्यवहित्थाविषादरूपभावसंधिः ॥१४॥ विमला-रावण जब तक एक मुख से हँस कर विलासिनियों की ( सीता के प्रति उत्पन्न ) ईर्ष्या का शमन करता तब तक उसका दूसरा मुख दुःसह सन्ताप से मलिन हो जाता था ।।१४।। सीतामग्न चित्ततामाह--- णिउणहसिआणुविद्धं सीआलम्भावहारणविसंवाअम् । सुणइ ण लक्खेइ फुडं अण्ण विइण्ण हिमओ पिआण दहमहो। १५॥ [ निपुणहसितानुविद्ध सीतालम्भावधारणविसंवादम् । शृणोति न लक्षयति स्फुटमन्यवितीर्णहृदयः प्रियाणां दशमुखः ॥] दशमुखः प्रियाणां निपुणं चातुर्येण यद्धसितं तेनानुविद्धं संबद्धं सीतायां लम्भस्य प्राप्तेरवधारणमनेनोपायेन सीतालाभ इति निश्चयस्तस्य विसंवादमन्यथाकरणं साध्वी Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४४३ सीता कथमनेन लब्धव्येत्यादिवचनरूपं शृणोति किं तु स्फुटं न लक्षयति । तत्र हेतुमाह--अन्यत्र सीतायां वितीर्ण हृदयं येन । तथा च सोपहासमेताभिरुक्तं वचनं श्रुत्वापि सीतामग्नचित्ततया तत्तदर्थवत्तया न प्रतिसंधत्त इत्यर्थः । यद्वाप्रियाणामुक्तरूपं विसंवादवचनमन्यचित्ततया शृणोति न, किं तु हसितानुबन्धात्स्फुटं लक्षयति । सीता मया न लब्धव्येति मामेता उपद्रावयन्तीति हसितेनानुमिनोतीत्यर्थः ॥१५॥ विमला-रावण के हृदय में सीतालाभ का निश्चय होने पर उसके विपरीत मन्दोदर्यादि कह बैठती थीं कि सीता ऐसी पतिव्रता को प्राप्त कर सकना असम्भव है। रावण अन्यमनस्कता के कारण उनके उक्त कथन को सुन' नहीं पाता था। केवल उन लोगों के चातुर्यपूर्ण हास्य से ही यह अनुमान करता कि ये मुझे निरुत्साह कर रही हैं ॥१५॥ सीतापरतामाह ईसामच्छर गरुए साहिक्वेवपरिवढितोवालम्भे । कह कह वि गमेइ खणं विलक्खहसिह कामिणिसमुल्लावे ॥१६॥ [ ईमित्सरगुरुकान् साधिक्षेपपरिवधितोपालम्भान् । कथं कथमपि गमयति क्षणं विलक्षहसितैः कामिनीसमुल्लापान् ।।] निजानां कामिनीनां समुल्लापान्कथं कथमपि कष्टसृष्टयानुरूपव्याजाभावाद्वैलक्ष्यमप्रतिभा तया हसितै रावणो गमयत्यतिवाहयति । वञ्चयतीति यावत् । कीदृशान् । ईjया सीतागुणासहिष्णुतया यो मत्सरोऽमर्षस्तेन गुरुकानप्रतिक्षेप्यान् । एवम्-अधिक्षेपस्तर्जनासंवलिता निन्दा तत्सहितः परिवर्धित उपालम्भोऽपकारोक्तिर्यत्र तान् । तथा च यदा ताभिरुपालम्भादि क्रियते तदा सापराधत्वादाहार्यहास्येनैता: प्रसादयतीत्यर्थः । 'ईामाहुः समानेषु दानमानापकर्षणात्' इति कण्ठाभरणम् ॥१६।। . विमला-सीता के प्रति उत्पन्न ईजिन्य अमर्ष से गम्भीर ( अकाट्य ), निन्दापूर्ण उपालम्भमय कामिनियों की बात को रावण लज्जामिश्रित हंसी हंस कर किसी तरह टाल जाता और उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करता था ॥१५॥ पुनश्चिन्तासंगममाहतस्स पडिरुद्धसेसं वाहोत्थअकण्ठविसमपणिक्खेवम् । सङ्किज्जइ विमणाहिं फुडं ण णज्जइ पिआहि गोत्तखलिअम् ।।१७।। [ तस्य प्रतिरुद्धशेषं बाप्पावस्तृतकण्ठविषमपदनिक्षेपम् । शङ्कयते विमनोभिः स्फुटं न ज्ञायते प्रियाभिर्गोत्रस्खलितम् ॥] Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४] सेतुबन्धम् [ एकादश तस्य गोत्रस्खलितं नामविपर्यास: सीतानामरूपस्तत एव विमनस्काभिः प्रियाभिः शङ्कयते परम्, किंतु स्फुटं व्यक्तं न ज्ञायते। कीदृशम् । प्रतिरुद्धं स्वरभङ्गरूपभावोदयाच्चैतन्ये सति एतासां त्रासाद्वानुच्चरितं शेषमेकवद्वर्णरूपं यत्र । एवम्-बाष्पावस्तृतेन कण्ठेन विषमः स्फूटास्फुट: पदनिक्षेपः पदोच्चारणं यत्र । अत एव शेषानुच्चारणेन गद्गदकण्ठतया च सीतां प्रति किमप्ययमुच्चरतीति तर्कयन्तीत्यर्थः ।।१७॥ विमला-रावण कामिनियों के सामने न चाहने पर भी सीता का नाम ले बैठता, तुरन्त ही (उनके त्रास से) बाष्पगद्गद कण्ठ से कुछ स्पष्ट कुछ अस्पष्ट शब्द बोल कर रुक जाता। उसके इस आचरण से वे ( कामिनियां ) अनमन हो जातीं और यह भी जान जाती थीं कि वह (रावण) सीता के प्रति कुछ कह रहा है, किन्तु क्या कह रहा है यह स्पष्ट नहीं जान पाती थीं ॥१७॥ पुनरवहित्थामाहकह वि ठवेइ दहमुहो कि ति अणालविअमोहदिण्णालावम् । दइआहि गलिप्रवाहं रोसणिरुत्तरपुलोइअं अप्पाणम् ॥१७॥ [ कथमपि स्थापयति दशमुखः किमित्यनालपितमोघदत्तोल्लापम् । दयिताभिर्गलितबाष्पं रोषनिरुत्तरप्रलोकितमात्मानम् ॥ ] दशमुख आत्मानं स्वं कथमपि स्थापयति । किंभूतम् । किमिति कृत्वानालपितेऽवादिते । अप्रश्न इति यावत् । अत एव मोघः प्रश्न विना कृतत्वान्निष्फलो मोहे. नाज्ञानेन वा दत्त उल्लापो येन तम् । अतएव गलितं बाष्पं गलितास्र यथा स्यादेवं दयिताभी रोषेण निरुत्तरमवचनं यथा स्यादेवं प्रलोकितं दृष्टं संकल्पेनोपस्थितायाः सीतायाः प्रश्नभ्रमात् किमित्युक्ते रुष्टाभिर्मन्दोदरीप्रभृतिभिः सक्रोधकटाक्षनिरीक्षि. तमात्मानं ज्ञाने सति स्त्रीकृतामवहेलां सोढवा कृच्छातिककर्तव्यतामूढ़ः संवरणं कृत्वा प्रकृति प्रापयतीत्यर्थः ॥१८॥ विमला-रावण इस भ्रम से कि सीता मुझसे कुछ कह रही है, विना किसी के प्रश्न किये ही 'क्या कहा'-ऐसा व्यर्थ वाक्योचारण कर बैठता। उस समय मन्दोदर्यादि उसकी प्रियायें अश्रुपातपूर्ण उसे सक्रोध कटाक्षों से देखतीं। ( अपनी सही स्थिति का ज्ञान होने पर ) वह किसी तरह ( स्वीकृत अवहेला को सह कर ) अपने को सुस्थ रख पाता था ।।१८।। भ्रमोत्कर्षमाहअणहिसओ वि पिआणं उन्मच्छपसारिअग्धविअहंकारम् । अहिणन्दइ वहवअणो समत्तणिवेलिआहरोठ्ठपुलइमम् ॥१६॥ [ अन्यहृदयोऽपि प्रियाणामुन्मत्सरप्रसारितापितहुकारम् । अभिनन्दति दशवदनः समस्तनिर्वेल्लिताधरोष्ठप्रलोकितम् ।।] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४४५ सीतागतचित्तत्वादन्यहृदयो दशवदनः प्रियाणां समस्तं संपूर्ण निर्वेल्लितं प्रस्फुरितमधरोष्ठं यत्र तादृशं प्रलोकितं दर्शनमभिनन्दति श्लाघते । कामविलास - प्रसूतत्वभ्रमादिति भावः । किंभूतम् । उद्गतेन मत्सरेण प्रसारितः समुत्थापितः, अथ च – अन्यचित्तत्वाद्रावणेन विलासबुद्ध्याधितोचितः सत्कृतो हुंकारो यत्र तम् । अयमर्थः--अनभिप्रेतकर्तारमोष्ठावी षत्पुरः प्रेर्य सभ्रभङ्गि सहुंकारमालोक्योपहसन्ति लोका इति प्रियाभिरपि सीतायामस्यासक्तिमसहमानाभिस्तथा कृतमुपहासत्वेन न जानाति, प्रत्युत कामविलास प्रसूतत्व भ्रमाद्वहु मन्यते इति शून्यहृदयत्वाच्चि - तासङ्ग एवोक्तः ॥ १६॥ विमला - सीता के प्रति रावण की आसक्ति को न सह पाने के कारण उसकी प्रियायें रावण की ओर हुङ्कारपूर्वक देखतीं किन्तु वह सीतागतचित्त होने के कारण उनके इस आचरण का, कामविलासजन्य समझ कर आदर ही करता था ।। १६॥ भाश्वासः ] अथ संकल्पमाह दुच्चिन्ति आवसेसं पिआहि उन्मच्छसंभमक आलोधम् । हसइ खणं अध्पाणं प्रणहिअअविसज्जिआसणणिअत्तन्नम् ॥२०॥ [ दुश्चिन्तितापदेशं प्रियाभिरुन्मत्सरसंभ्रमकृतालोकम् । हसति क्षणमात्मानमन्य हृदय विसृष्टासननिवर्तमानम् ॥ ] स क्षणमात्मानं हसति । कथंभूतम् । अन्यहृदयेन सीतारूपान्यगतचित्तत्वेन विसृष्टं संकल्पोपस्थितसीताभ्युत्थानाय त्यक्तं यदासनं तस्मान्निवर्तमानं बहिर्भू भूमावेवोपविशन्तम् । 'निसम्मन्तम्' इति पाठे - विवेके सति पुनर्निषीदन्तम् । एवम् — प्रियाणां तथाबुद्धयजन कत्वादुश्चिन्तितोऽपदेशो विवेकोत्तरं किंचिन्मिथ्यादूषणमुद्भाव्य नैतदासनं मह्यं रोचत इत्यादिर्व्याजो येन तम् । अत एव प्रियाभिरुन्मत्सरेणोद्गतेर्थ्येण संभ्रमेणोद्वेगेन कृत आलोको दर्शनं यस्य । तथा च--स्वस्य वृथासनत्यागेन प्रियाणामीयदृष्ट्या चैवंविधोऽहमसमीक्ष्यकारीत्यात्मानं निन्दतीत्यर्थः । यद्वा—कीटसत्त्वभ्रमादेतदासनं वृथैवोज्झितवानस्मीत्यहो मम मौग्ध्यमिति लब्धविवेकस्तासां प्रतारणाय स्वयमेव स्वमात्मानमुपहसतीत्यर्थः । अत एव दुश्रिन्तित एवंरूपो व्याजो येन तासां तथाप्रतीत्यजननात् । 'दुच्चिन्ति ओवएसम्' इति पाठे—रम्भानलकूबरयोः शापतः स्वनाशहेतुत्वेन दुश्चिन्तितो बलादेव सीतामान - यामीत्येवंरूप उपदेशः सीताप्राप्त्युपायो येनेत्यर्थः ||२०|| विमला - रावण का मन सीता में इतना रमा रहता था कि उसे सीता के आ जाने का भ्रम हो जाता और उसका स्वागत करने के लिये स्वयम् आसन छोड़ कर उठ पड़ता । अतएव जब उसकी प्रियायें उद्गत ईर्ष्या और उद्वेग से Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [ एकादश उसकी ओर देखती और उसे भी अपनी गलती का आभास होता तो (क्या कहूँ,यह आसन मुझे अच्छा नहीं लगता इत्यादि) कोई न कोई गूढ बहाना बना कर भूमि पर बैठ जाता और अपनी मूर्खता पर स्वयम् ( मन में ) अपने को हंसता था॥२१॥ विप्रलम्भप्रकर्षमाहतहस गो अइभूमि जह ण विणिज्जन्तणं पित्राहि ण णाम्रो । ण अ णाऊण ण हसिओ ण अ हसिऊण अणुसोइउंण अतिण्णो ॥२१॥ [ तथा स गतोऽतिभूमि यथा न विनियन्त्रणं प्रियाभिन ज्ञातः । न च ज्ञात्वा न हसितो न च हसित्वानुशोचितुं न च तीर्णः ॥] स रावणस्तथा तेन प्रकारेणातिभूमि सीतां प्रत्यनुरागस्य परमकाष्ठां विरहवेदनातिमर्यादां वा गतो यथा प्रियाभिर्मन्दोदरीप्रभृतिभिर्विनियन्त्रणं सप्रकाशमव्याज वा सीतानुरागमूच्छितोऽयमिति न न ज्ञातः, अपि तु ज्ञात एव । ज्ञात्वा च अहो मूढोऽयमननुरक्तायामप्येवमनुरज्यतीत्यादिरूपेण न न हसितः, अपि तु हसित एव । हसित्वा च हा कष्टम्, ईदृशी विरहवेदनामुष्य, कथं वा जीवेत्, अस्माभिरपि तथा क्रियतां येन सीता भजत्येनमित्यादिप्रकारेणानुशोचितुमनुकम्पितुं न च न तीर्णः शकित:, अपि तु शकित एवेति । प्रकारान्तराचिकित्स्यत्वेन कादाचित्की मूर्छा सूचिता ॥२१॥ विमला-वह रावण इस प्रकार विरहवेदना की पराकाष्ठा को प्राप्त हो गया। उसकी प्रियाओं ने भी स्पष्ट रूप से यह जान लिया कि यह ( रावण ) सीता के प्रति अनुराग से मूच्छित है। यह जानकर उन्होंने उस (रावण) की हंसी भी उड़ायी कि यह कैसा मूर्ख है जो ऐसी स्त्री पर अनुराग रखता है जो इसे सर्वथा नहीं चाहतो। ऐसी हँसी उड़ाने पर भी उस ( रावण ) की दयनीय स्थिति पर उनके हृदय में रावण के प्रति सहानुभूति का उदय हो ही जाता ॥२१॥ अथ रावणस्य चिन्तामेवाहचिन्तेउं अ पउत्तो अवहोवासपसरन्तणीसासहअम् । दोसु णिमेऊण सम एक्कं आसण्णमुहकवोलेसु करम् ।।२२॥ [ चिन्तयितुं च प्रवृत्त उभयावकाशप्रसरनिःश्वासहतम् । द्वयोनियोज्य सममेकमासन्नमुखकपोलयोः करम् ॥] रावणश्चिन्तयितुं प्रवृत्तश्च । सीताप्राप्त्युपायमित्यर्थात् । किं कृत्वा। आसन्ने मुखकपोलस्य नानात्वेन तत्करस्य निकटवर्तिन्यनायासलभ्ये मुखे कपोले च द्वयोरेकं करं समं तुल्यवनिक्षिप्य । करं कीदृशम् । उभयावकाशे उभयपावें प्रसरद्भिर्नि: Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४४७ श्वासर्हतं ताडितम् । मुखस्य नानात्वेनोभयदिशि वर्तमानत्वादिति निःश्वासाधिक्येन चिन्ताधिक्यम् । न च करस्याधेयत्वं लब्धम्, न त्वाधारत्वमिति वाच्यम् । संयोगमात्रस्य तदवस्थाया एव वा विवक्षितत्वादिति भाव: । 'अभिलाषः स्पृहा चिन्ता प्राप्त्युपायानुचिन्तनम्' इति साहित्यदर्पण: ||२२|| विमला - ( नाना मुख और कपोल होने के कारण ) आसन्न मुख और कपोल दोनों पर, दोनों बगल में प्रसरणशील निःश्वासों से प्रताडित एक कर को समान रूप से रख कर रावण सीताप्राप्ति का उपाय सोचने में लग गया ।। २२॥ अथ सप्तभिश्चिन्ताप्रकारमाह अङ्कागअं सहिज्जइ पओसरइविग्धसं किएण कइबलम् । तं कस्स वि सोअत्थं वलइ अलद्धसुरअं महं चिअ हिअश्रम् ॥ २३ ॥ [ अङ्कागतं सह्यते प्रदोषरतिविघ्नशङ्कितेन कपिबलम् । तत्कस्यापि शोकार्थं वलत्यलब्धसुरतं ममैव हृदयम् ॥ ] प्रदोषे रजन्यां या रतिः सुरतं तद्विघ्नशङ्कितेन तद्विघ्नशङ्कावता मयाङ्के क्रोडे आगतं कपिबलं सह्यते क्षम्यते । तद्धेतोरलब्धसुरतं सन्ममैव हृदयं यद्वलति सुरताभावाकुलतया यच्चञ्चलीभवति तत्कस्यापि रामस्य वा सीताया वा ममैव वा शोकार्थम् । यदीदानीमीया युध्यामि तदा प्रदोषसुरतं विनितं स्यादिति शङ्कया प्रदोषयुद्धं परिहृतम् । अथापि चेत्तन्न संपत्स्यते तदैतत्कालुष्येण क्रुद्धो रामं हनिव्यामि तदा सीतायाः शोकः । तदभावे सीतामेव व्यापादयिष्यामि तदा रामस्य शोकः स्यात् । अथ स्त्रीकृपया तदपि चेन्न करिष्यामि तदाहमेव विरहदुःखमितोऽपि लप्स्ये इति ममैव शोकः स्यादिति । तथोपायः क्रियताम् । येनैषा वशवर्तिनी भवेदिति भावः । यद्वा- - प्रदोषसुरतार्थिनी मया कपिबलं यत्सह्यते तत्कस्य विशोकार्थं शोकाभावाय, अपि तु न कस्यापि । यतोऽलब्धसुरतं ममैव हृदयं वलति । तथा च यस्य सुरतार्थे क्षमा क्रियते तदलाभेन श्वः प्रातस्तथा रौद्रं कर्म करिष्यामि यथा रामादीनां सर्वेषामुपतापः स्यादिति भावः । यद्वा- - यत्सह्यते तत्कस्य विशोकार्थम् अपि तु न कस्यापि राक्षसस्य । यत्र सुरतमात्रालाभेन ममैव धीरस्य हृदयं व्याकुलीभवति तत्र शत्रुकृतमुपरोधं दृष्ट्वा केषां राक्षसानां हृदयं व्याकुलं न स्यादितीदानीमेव युद्धं युज्यत इति भावः ||२३|| विमला- -रावण अपने मन में सोचता कि यदि रात में ईर्ष्या से कपिसैन्य के साथ युद्ध करूँगा तो रात के सुरत में बाधा पड़ेगी, इसलिये मैं इस समय कपिसैन्य को क्षमा कर दूं, किन्तु सुरतलाभ भी न हुआ जिससे मेरा हृदय व्याकुल हो चञ्चल हो रहा है। इसका परिणाम राम के लिये अथवा सीता के लिये Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] सेतुबन्धम् [ एकादश अथवा मेरे लिये शोकप्रद ही होगा ( क्योंकि क्रुद्ध हो राम को मारूंगा तो सीता को शोक होगा, यदि सीता को ही मार डालू तो राम को शोक होगा और यदि ऐसा न करूं तो मुझे ही विरह-दुःखजन्य शोक होगा ) ॥२३॥ अतएव युद्धकोटिक विकल्पमाहकि भुविवरपहोलिरसंखोहफिडिअगहिअकढिप्रणिहअम् । अस्थाक्कासण्णठिअं गिफलचटुलमुहलं मलेमि कइबलम् ॥२४॥ [ किं भुजविवरप्रघूर्णनसंक्षोभस्फेटितगृहीतकृष्टनिहतम् ।। अकस्मादासन्नस्थितं निष्फलचटुलमुखरं मृदुनामि कपिबलम् ॥] अकस्मादकाण्डे आसन्नस्थितं निकटवर्ति कपिबलं किं मृद्नामि । करभुजादिना मर्दयामीत्यर्थः । कीदृशम् । भुजानां विवरेष्वन्तरालेषु प्रथमं प्रघूर्णमानं पश्चात्संक्षोभेण भयेन स्फेटितं भ्रष्टम् । पलायितमिति यावत् । ततो गृहीतं पुनधृतं ततः कृष्टमाकृष्टं पश्चान्निहतं ताडितम् । अत एव निष्फलं वृथा चटुलं चञ्चलं मुखरं शब्दायमानम् । तथा च तथा सति रामे भग्नमनोरथा सीता मामेवाश्रयेदिति भावः ॥२४॥ विमला-तो युद्ध कर ना ही समीचीन है। अकस्मात मेरे अङ्क में यह कपिसेना आ गयी है, इसका विनाश करूँ। यह पहिले तो मेरे भुजाओं के बीच में घुमड़े, पश्चात् भय से भागे, फिर मैं पकडूं और मारूं और यह वृथा चञ्चल हो चिल्लाये ॥२४॥ बलात्कारपक्षमाह ओ ससिकराहनुम्मिलल्लोअणन्दोलमाणवाहतरङ्गम् । आसाएमि कअग्गहणिरुत्तरुत्ताणिआणणं जणअसुअम् ॥२५॥ [ उत शशिकराहतोन्मीलल्लोचनान्दोलमानबाष्पतरङ्गाम् । आस्वादयामि कचग्रहनिरुत्तरोत्तानिताननां जनकसुताम् ॥ ] उत यदि प्रथमः पक्षो न स्यात्, तदा कचग्रहेण केशाकर्षणेन निरुत्तरं निःशब्द सत् उत्तानितमूर्ध्वमुखीकृतमाननं यस्यास्तां जनकसुतामास्वादयामि सकचग्रहं चुम्बनाद्युपभोगविषयीकरोमि नक्तमेवेत्यर्थात् । बलादिति भावः । आसादयामि वा। किंभूताम् । शशिकरैराहतयोः स्पृष्टयोः । अत एव मदतिक्रमजन्यमूर्छाविरामादुन्मीलतोर्लोचनयोरान्दोलमाना घूर्णमाना बाष्पतरङ्गा यस्यास्ताम् । अनभिमत्या रुदतीमित्यर्थः ॥२५॥ __विमला-अथवा चन्द्रमा की किरणों से संस्पृष्ट एवम् उन्मीलित नेत्रों में घुमड़ते आँसुओं वाली तथा केशाकर्षण से चुपचाप ऊपर किये मुख वाली जनकसुता का ( रात में ही ) उपभोग करूँ ॥२५।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४४६ रम्भाशापादयमपि पक्षो नेत्याशयमाशङ्कयाह -- कह विरहप्पडिकला होहिइ समुहहिअआ पइम्मि उवगए । णेच्छइ इअरा वि सनि कि पूण दिम्मि दिणप्रारम्मि कमलिणी ॥२६॥ [ कथं विरहप्रतिकूला भविष्यति संमुखहृदया पत्यावुपगते । नेच्छतीतरथापि शशिनं किं पुनदृष्टे दिनकरे कमलिनी ॥] पत्युविरहे प्रतिकूला मां प्रत्यसंमुखी सीता संप्रति पत्यावुपगते सति कथं संमुखहृदया भविष्यति । अर्थान्तरन्यासमाह-कमलिनी इतरथाप्यनुदितेऽपि दिनकरे शशिनं नेच्छति, किं पुनर्दष्टे सति । तथा च तदानीमिच्छाशङ्कापि नास्तीत्यर्थः । अत्र कमलिनीप्राया सीता, शशिप्रायो रावण : सूर्यप्रायो रामः ॥२६॥ विमला-किन्तु सीता अपने पति के विरह में मेरे प्रतिकूल पहिले से ही है, अब तो उसका पति भी यहाँ पहँच चुका है तो अब वह क्यों मेरे अनुकूल होगी ? कमलिनी सूर्य के उदित न होने पर भी चन्द्रमा को नहीं चाहती तो सूर्य के दिखायी पड़ने पर क्या चाहेगी ? ॥२६॥ अभ्यर्थनादिप्रकारोऽपि नास्तीत्याहअब्भत्थणं ण गेल्इ तिरई तिहुअणसिरीन वि ण लोहे उम् । ण गणेइ सरीरवहं कह मण्णे होज्ज जाणई साणुणा ॥२७॥ [ अभ्यर्थनां न गृह्णाति शक्यते त्रिभुवनश्रियापि न लोभयितुम् । न गणयति शरीरवधं कथं मन्ये भवेज्जानकी सानुनया ॥] __ जानकी अभ्यर्थनां काक्वा याच्चां न गृह्णाति न स्वीकरोति । त्रिभुवनश्रियापि दीयमानया लोभयितु न शक्यते । किमपरमस्माभिः क्रियमाणं शरीरवधमपि न गणयति । तदेवं दैन्योक्तिदानप्राणग्रहणरूपोपायत्रयवैगुण्यान्मन्ये तर्कयामि कथं सानुनया गृहीतानुनया प्रसन्ना भवेत् । न भविष्यतीत्यर्थः। तथा च प्रकारान्तरमनुसरणीयमिति भावः ॥२७।। विमला-जानकी अनुनय-विनय भी नहीं मानती, तीनों लोक की सम्पत्ति देकर भी वह लुभायी नहीं जा सकती और न ही वह मार डाले जाने की परवाह करती है तो जानकी कैसे प्रसन्न होगी? इसके लिये कोई अन्य ही उपाय करना होगा ॥२७॥ अतस्तदेवाहपइमाहप्पणिसण्णा अवमाणि प्रसेससप्पुरिससौडीरा। जइ गवर होज्ज व वसा लुअराहवसीसवंसणा जणअसुआ ॥२८॥ [पतिमाहात्म्यनिषण्णावमानितशेषसत्पुरुषशौटीर्या यदि केवलं भवेद्वा वश्या लूनराघवशीर्षदर्शना जनकसुता ॥] २६ से० ब० Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] सेतुबन्धम् [ एकादश पत्युर्माहात्म्ये स्वाभाविके वालिवधादिजनिते च गौरवे निषण्णा दत्तभारा, अत एवावमानितमवज्ञाविषयीकृतं शेषस्य रामभिन्नस्य सत्पुरुषस्य शौटीर्य महंकारी यया। तथा सा जनकसुता केवलं लूनस्य राघवशीर्षस्य दर्शनं यस्यास्तथाभूता सती। यदीति संभावनायाम् । तेन यदि वा वश्या भवेत्तदा भवेदित्यर्थः । प्रकारान्तरं नास्तीति भावः ॥२८॥ विमला-( अच्छा ! उपाय सूझ गया) सीता ने अपने पति के गौरव पर निर्भर हो अन्य बड़े-बड़े पुरुषों के अहङ्कार का अपमान कर दिया है तो राम के कटे हुये सिर को देख कर ही वह मेरे वश में हो सकती है। और कोई उपाय नहीं है ॥२८॥ तत्रोपपत्तिमाह मद्दिठ्ठलज्जणिज्जो भग्गपरित्ताणविअलिआसाबन्धो । अवसो अबन्षुलहुप्रो भएण ठिइभङ्ग-साहसं कुणइ जणो॥२६॥ [ अदष्टलज्जनीयो भग्नपरित्राणविगलिताशाबन्धः। अवशोऽबन्धुलघुको भयेन स्थितिभङ्गसाहसं करोति जनः ।।] अदृष्टं लज्जनीयं लज्जास्थानं येन । लज्यतेऽस्मादस्मिन्निति वा । 'कृत्यल्युटो वहुलम्' इत्यनीयर् । एवं भग्नं यत्परित्राणं रक्षणं तेन विगलित आशाबन्धो मनोरथो यस्य । यद्वा भग्नपरित्राणश्चासौ विगलिताशाबन्धश्चेति कर्मधारयः । अवशोऽस्वाधीनः । अविद्यमानबन्धुत्वेन लघुकोऽनादरणीयः सुखसाध्यो वा जनो भयेन स्थितिरित्थंकर्तव्यतानिश्चयः स्वभावदाढयं वा तद्भङ्गरूपं साहसमशक्यानुष्ठानं कर्म करोति । तथा च राघवमृत्युज्ञानाल्लज्जास्थानाभावेन भयेन च मदशवर्तिनी भवेदिति भावः ॥२६॥ विमला-लज्जा का जो कारण होता है उनके नष्ट हो जाने, रक्षण भङ्ग होने एवम् आशाबन्ध के टूट जाने से मनुष्य स्वाधीन नहीं रह जाता तथा बन्धुओं की अविद्यमानता से सरलता से दूसरों की अधीनता स्वीकार कर लेता है, सत्परिणामस्वरूप भय से अपने स्वभाव की दृढ़ता को दूर करने का साहस करता है । ( राम का मरण जान कर लज्जास्थान के न रहने तथा मेरे भय से सीता मेरे वश में कदाचित् हो जाय) ॥२६॥ अथ सेवकाह्वानमाहणवरि प्रणं खेआलसजिम्भाअत्तवलिउद्धमुहसंघाअम् । भमआभजाणत्तो समअं पासेस परिप्रणो अल्लीणः ॥३०॥ [ अनन्तरं चैनं खेदालसजृम्भायमाणवलितोर्ध्वमुखसंघातम् । भ्रभङ्गाज्ञप्तः समकं पार्श्वयोः परिजन आलीनः ॥] Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४५१ एतच्चिन्तानन्तरं चैनं रावणं भ्रूभङ्गमात्रेणाज्ञप्तः परिजनः समकमेकदैव पार्श्व योमिदक्षिणयोरालीनः संनिहितः । परमप्रभोविशिष्य व्याकुलचित्तस्य संमुखे स्थातुमशक्यत्वादिति भावः । सेवकाह्वानहेतुभ्रूसंज्ञासमकालीनं चेष्टान्तरमाहकिंभूतमेनम् । खेदेन विरहजन्यदुःखेनालसं यथा स्यादेवं जृम्भायमाणोऽथ च वलितः सेवकाहानाय तिर्यग्भूतः सन्नूवो गगनाभिमुखो मुखानां संघातो यस्य तम् । कामोभेदाज्जृम्भादिमत्त्वमूर्ध्वमुखत्वं चेति भावः । नानादिग्वर्तिनानासेवकाहानाय नानामुखानामेकदैव भ्रूसंज्ञायामेषावस्थाभूदिति सूचयितुं संघातपदमुक्तम् ॥३०॥ विमला-ऐसा सोच कर विरहजन्य दुःख से अलसाये हुये तथा जम्हाई लेते हुये, रावण ने मुड़ कर दसो मुंह को गगनाभिमुख करते हुये भ्रूभङ्गमात्र से सेवकों को उस सोचे हुये उपाय को क्रियान्वित करने के लिये बुलाया और बुलाते ही वे सब ( सेवक ) रावण के दायें-बायें एक साथ आकर खड़े हो गये ॥३०॥ अथाज्ञापूर्वावस्थामाह तो एक्कहिन अगुणि वसहि वि सम मुखेहि अप्पाहेउम् । ण पहुप्पइ दहवअणो चिरकङ्खिअलम्भगभिणक्खरगुरुअम् ।।३१॥ [ तत एकहृदयगुणितं दशभिरपि समकं मुखरध्यापयितुम् । न प्रभवति दशवदनश्चिरकाङ्कितलम्भगर्भिताक्षरगुरुकम् ॥] तत: सेवकागमनोत्तर मेकेन हृदयेन मनसा गुणितं चिन्तितं प्रमेयं दशभिरपि मुखैः समकमेकदैवाध्यापयितु शिक्षयितु दशवदनो न प्रभवति न क्षमते। अत्र हेतुमाह-कीदृशम् । चिरकाङ्कितो यः सीताप्राप्त्युपायस्तस्य लम्भेन प्राप्त्या गभितानि तत्कालोत्पन्नहर्षेण गद्गदकण्ठतयास्फुटीभूतानि यानि वक्तव्याक्षराणि तेगुरुकमतिशयितम् । तदुक्तम्-'हर्ष स्त्विष्टावाप्तेमनःप्रसादोऽश्रुगद्गदादिकरः' इति । तथा च-बाष्पस्थगितकण्ठत्वेन बहुभिरपि मुखैर्वक्तव्यस्य न निष्पत्तिरिति स्वरभङ्गस्वरूपभावोदयः ॥३१॥ विमला-सेवकों के आने पर रावण एक हृदय से गुने हुये वक्तव्य को अपने दस मुह से भी नहीं कह पा रहा था, क्योंकि सीताप्राप्ति के उपाय की सफलता की प्रसन्नता से कण्ठ के गद्गद हो जाने के कारण मुंखों से अक्षर ही निकल नहीं पाते थे ॥३१॥ अथानन्दादौत्सुक्यमाहअण्णेण समारद्धं वअणं अण्णेण हरिसगहिअफिडि अम् । अण्णेण अद्धभणि मुहेण अण्णेण से कह वि णिम्मविप्रम् ॥३२॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] सेतुबन्धम् हर्ष गृहीतस्फेटितम् । [ अन्येन समारब्धं वचनमन्येन अन्येनार्ध भणितं मुखेनान्येनास्य कथमपि निर्मि (र्मापि ) तम् ॥ ] अस्य रावणस्याज्ञारूपं तद्वचनमन्येन मुखेन समारब्धं वक्तुमिच्छा विषयीकृतम् । अन्येन मुखेन हर्षेण गृहीतं वक्तुमुपक्रान्तं सत्पश्चात्स्फेटितमानन्दोद्गतस्वरभङ्गेन गद्गदकण्ठतया भ्रष्टं वक्तु न पारितमित्यर्थः । अन्येनार्धमेव भणितं सत्पश्चादस्य स्वरभङ्गादिरूपप्रतिबन्धकाभावेऽप्यन्येनोत्कण्ठावशादस्मादाच्छिद्य गृहीत्वा कथमप्यवशिष्टमर्धमुक्त्वा निर्मि (र्मापि ) तं समापितम् । यद्वा - अन्येनार्धमेव भणितं पुनर्भा - वोदयादथान्येन कथमपि भावोदयादेव कष्टसृष्ट्याव शिष्टमर्धमुक्त्वा समापितमित्यर्थः । ‘इष्टानवाप्तेरौत्सुक्यं कालक्षेपासहिष्णुता । चित्ततापस्वराः स्वेददीर्घनिश्वसितादिकृत्' ॥३२॥ विमला - रावण के ( आज्ञारूप ) वचन को किसी अन्य मुख ने ( सेवकों से ) कहना प्रारम्भ किया, किसी अन्य मुख ने हर्ष से कहना तो प्रारम्भ किया किन्तु आनन्दोद्गत स्वरभङ्ग के कारण गद्गद कण्ठ से वह कह नहीं सका, अन्य मुख ने आधा ही वचन कहा और इसके अवशिष्ट आधे वचन को अन्य ने किसी तरह कह कर समाप्त किया ||३२|| अथ वाक्योपक्रमे निःश्वासमाह - तो उग्गा हिमसोअं तेण भणन्तेन मुहपहोलिरधूमम् । संताविक्कहिअअं दसकण्ठक्वलिमपलहुअं णीससिअम् ||३३|| [ तत उद्ग्राहितशोकं तेन भणता मुखप्रघूर्णनशीलधूमम् । संतापित हृदयं दशकण्ठस्खलितप्रलघुकं निश्वसितम् ॥ ] ततो वक्तव्य स्थिरीकरणानन्तरं भणता वक्तुमुपक्रान्तेन तेन रावणेन निश्वसितं निश्वासः कृतः । सीतासमागमाय कातरकल्पनीयं कर्म चरामीति मनः खेदादिति भावः । उद्ग्राहितः प्रकाशितः शोको मनोदुःखं यत्र एवम् मुखेषु प्रघूर्णमानो धूमो यत्र मनस्तापादेवम्, संतापितमेकं हृदयं चित्तं यत्र तद्यथा स्यादेवं दशसु कण्ठेषु स्खलितं हृदयादेकमेव प्रस्थितमन्तरा दशधाभूतम् अत एव प्रलघुकं स्वल्पं च यथा स्यादिति । सर्वं क्रियाविशेषणम् । सीतासमागमं प्रति कश्चिदुपायश्चिन्तितोऽस्ति स क्रियतामिति वाक्यपरत्वेन पूर्वस्कन्धकद्वयव्याख्यानं केचित्कुर्वन्ति । तत्प्रकृतस्यैव संगतत्वादुपेक्षणीयम् ||३३|| विमला — वक्तव्य कहते समय रावण ने ( खेद से ) निःश्वास किया, जो हृदय से तो एक ही चला किन्तु बीच में दस कण्ठों में दस भागों में विभक्त होने से स्वल्प हो गया किन्तु उसमें उसका शोक प्रकट हो रहा था, ( मनस्ताप के कारण ) मुखों में धूम घुमड़ रहा था तथा चित्त सन्तापित था ॥ ३३ ॥ [ एकादश Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४५३ अथ रावणवचनं प्रस्तौतिपाहासइ अगसिअरे आण्णासमकालदिण्णपांडसंलावे। महिणिमित्रोहअकरअलतंसट्ठि अतिअभहण्णमिप्रदेहद्धे ॥३४॥ [आभाषते च निशिचरानाज्ञासमकालदत्तप्रतिसंलापान् । महीनिवेशितोभयकरतलतिर्यस्थितत्रिकभरोन्नमितदेहार्धान् ॥] स निशिचरानाभाषते च । किंभूतान् । आज्ञासमकालं दत्तः प्रतिसंलापः प्रत्युतरं यस्तान् । अतिसंनिहितत्वात् । एवं मह्यां निवेशितं यदुभयकरतलं तेन तिर्यस्थितं यात्रिकं तत्र भरेणोन्नमितो देहा? देहपश्चाद्भागो नितम्बरूपो यैस्तान् । भूमिनिवेशितजानुकरतल शिरस्कान् । तदुक्तम्-'पञ्चाङ्गचुम्बिभूमीक: प्रणमेदीश्वरं नरः' इति । प्रभुत्वमुक्तम् ॥३४॥ विमला-आज्ञा के साथ ही प्रत्युत्तर देने वाले तथा भूमि पर जानु, करतल और सिर रक्खे हये एवं नितम्ब भाग को ऊपर उठाये हुये निशिचरों से रावण ने ( वक्ष्यमाण ) वचन' कहा ।।३४॥ अथ तद्वचनस्वरूपमाहत माआणिअम्मविअं रिउदंसणविसमवलिमणिच्चलणअणम् । दावेह कण्ठरहिअं सीआइ विप्रोअपण्डुरं रामसिरम् ॥३५॥ [ तन्मायानिमि(र्मापि)तं रिपुदर्शनविषमवलितनिश्चलनयनम् । दर्शयत कण्ठरहितं सीताया वियोगपाण्डुरं रामशिरः ॥] हे निशाचराः ! मायया निर्मितमनलीकवद्दशितं तत्कण्ठशून्यं रामशिरः सीतायाः कृते सीताय वा दर्शयत । किंभूतम् । रिपुदर्शनाय विषमं क्रोधेन भयानकं यथा स्यादेवं वलिते वक्री भूते सती निश्चले स्थिरे नयने यत्र तत् । धनुःसंधानकालीनचेष्टाविशिष्टलोचनमित्यर्थः । एवं वियोगेन सीताया विरहेण पाण्डुरमिति सर्व विशेषणमनलीकत्वज्ञापनार्थम् ।।३।। विमला-निशाचरों ! राम का ऐसा कण्ठशून्य सिर माया से बनाकर सीता को दिखाओ ( जो अवास्तविक होते हुये भी सीता को वास्तविक ही प्रतीत हो ) वह (सिर ) सीता के वियोग से पाण्डुर (पीलापन लिये हुये सफेद रंग का) हो तथा उसके नेत्र रिपुदर्शन के लिये क्रोध से भयानक, वक्र एवं निश्चल हों ॥३५॥ अथ मायाशिरोघटनमाहतो अमरिसमेलाविअभुमउग्गाहिअतरङ्गिअणि लाडअडम् । छिण्णाणि व्य तं चिम ताहे चित्र तेहि णिम्मि रामसिरम् ॥३६॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] सेतुबन्धम् [एकादश [ ततोऽमर्षमेलितभ्रू ग्राहिततरङ्गितललाटतटम् । छिन्नानीतमिव तदैव तदेव तैनिर्मितं रामशिरः ।।] ततस्तदाज्ञानन्तरं तैः सेवकैस्तदैव तत्क्षण एव तदेव साक्षादेव न तु कृतकत्वेन ज्ञाप्यमानम्, रामशिरश्छिन्नानीतमिव छिन्नं सद्यस्तदानीतं तदिव निर्मितम् । कीदशम् । अमर्षेण मेलिताभ्यामेकीभूताभ्यां भ्र भ्यामुग्राहितमुत्क्षिप्तम् । अत एव तरङ्गितं सभृकुटीकं ललाटतटं यत्र । तथा च युद्धकालीनावस्थाविशिष्टत्वेन पारमाथिकमेव तदिति घटनायवमुक्तम् ॥३६॥ विमला-रावण की आज्ञा के अनन्तर सेवकों ने तत्क्षण ही वैसा ही राम का सिर माया से निर्मित कर दिया, जो युद्धकालीनावस्था में अवस्थित-सा होने के कारण कृत्रिम नहीं ज्ञात होता था और यही ज्ञात होता था कि युद्ध करते समय यह काट कर लाया गया है । अमर्ष से उनकी दोनों भौंहें मिलकर एक हो गयी थीं तथा भ्रुकुटीसहित ललाट प्रदेश तना हुआ था ॥३६।। अथ सेवकानां प्रस्थानमाहसंपत्थिा असंभमचलणोवडणविसमुठ्ठिमा पमअवणम् । कह वि समत्तप्पाहिदशवअणाणत्तिवावडा रअणिपरा ॥३७॥ [संप्रस्थिताश्च संभ्रमचरणावपतनविषमोत्थिताः प्रमदवनम् । । कथमपि समस्ताध्यापितदशवदनाज्ञप्तिव्यापृता रजनीचराः ।।] रजनीचराः प्रमदवनं सीतावस्थितिवनं प्राप्ताश्च । किंभूताः । संभ्रमेण भयेनादरेण वा यच्चरणयोरवपतनं त्वरया विन्यासस्तस्मै विषमं युगपदुत्थितास्त्वरया मन्तु सत्वरमुत्थिता इत्यर्थः । यद्वा--चरणयोरवपतनेनाधो विन्यास विशेषेण विषममुत्थिता इत्यर्थः । कथमपि लज्जानिबन्धनकष्टेन समस्तमध्यापिता । यथा रामशिरः श्रद्धत्ते मां च स्वीकरोति सा, तथा कर्तव्यमित्याधुपदिष्टाः सन्तो दशवदनाज्ञप्ती मायायां मस्तकोपनयनरूपायां व्याप्ताः सयत्नाः । यद्वा--समस्तं यदध्यापितमुपदिष्टरूपं वस्तु तदेव दशवदनाज्ञप्तिस्तत्र व्यापृता इत्यर्थः ॥३७॥ विमला-रावण ने राक्षसों को किसी प्रकार से यह बताया कि ऐसा करना कि जिससे सीता को विश्वास हो जाय कि यह राम का ही सिर है (कृत्रिम नहीं) तथा वह मुझ ( रावण ) को स्वीकार कर ले । रावण की आज्ञा का पालन करने के लिये प्रयत्नशील निशाचर रावण के चरणों में सिर झुका कर जल्दी जाने के लिये उठ खड़े हो गये और प्रमदवन की ओर चल पड़े ॥३७॥ अथ प्रमदवनप्राप्तिमाह पत्ता अ फडिप्रमणिअडविवरुट्ठिअसलिलबद्धपकअमउलम् । पवणसुअभग्गपावभगुग्गनबालकिसल पमप्रवणम् ॥३८॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ प्राप्ताश्च स्फुटितमणितटविवरोत्थितसलिलबद्धपङ्कजमुकुलम् । प्रमदवनम् ॥ ] [ ४५५ पवनसुतभग्नपादपभङ्गोद्गतबालकिसलयं ते प्रमदवनं प्राप्ताश्च । किंभूतम् । हनूमत्कृतोपमर्देन स्फुटितं यद्वापीषु मणितटं तद्विवरेणोत्थितं यत्सलिलं तत्र बद्धः संबद्ध उत्पन्नः पङ्कजानां मुकुलो यत्र । एवं पवनसुतेन भग्ना ये पादपास्तेषां भङ्गेषु भङ्गस्थानेषूद्गतानि बालकिसलयानि यत्र । एतेन हनूमद्विमर्दस्याचिरंतनत्वमुक्तम् । एवंविधमादकस्थानस्थित्यापि सीताया मनोविकारो नाभूदिति सतीत्वमुपदर्शितम् ॥३८॥ विमला - वे (निशाचर ) प्रमदवन में पहुँच गये जहाँ ( हनुमान् के किये गये संघर्ष में ) बावलियों के मणितट टूट-टाट गये थे और उनके छिद्रों से ऊपर उठे हुये जल में कमल - कलियाँ उत्पन्न हो गयी थीं तथा हनुमान् जी के द्वारा भग्न किये गये पादपों के भङ्ग स्थानों में छोटे-छोटे पत्ते निकल आये थे ||३८|| अथ द्वादशभिः स्कन्धकैरादिकुलकेन सीतावस्थामाह पेच्छन्ति न सइसठि अव अणविसंवइअथणणिसण्णकर प्रलम् | दहवअणागमसङ्कअपअसदुप्पित्थलोअणं जण असुम् ॥३६॥ [ प्रेक्षन्ते च सदासंस्थितवदनविसंवादितस्तन निषण्णकरतलाम् । दशवदनागमशङ्कितपदशब्दोत्पित्सलोचनां जनकसुताम् ॥ ] रजनीचराः जनकसुतां पश्यन्ति चेति समन्वयः । किंभूताम् । सदासंस्थिता - द्वदनाद्विसंवादितं स्खलितं पश्चात्स्तनयोनिषण्णं करतलं यस्यास्ताम् । एवं पूर्वनि पातानियमात् - शङ्कितदशवदनागमः शङ्कितः शङ्खविषयीकृतो दशवदनस्यागमो येन तथाभूतो यो राक्षसानां पदशब्दस्तेनोत्पित्सोद्वेगो ययोस्ते उद्विग्ने लोचने यस्याः । रावणागमनजिज्ञासावशात् । तथा च निशाचराणां पदशब्दं श्रुत्वा रावणागमत्रासेन व्याकुलमालोकयन्त्या सीतया 'आ, किं वृत्तम्' इति क्षोभेण कपोतः करो हृदि न्यस्त इत्यर्थः । दशवदनागमशङ्किता चासौ पदशब्दोद्विग्नलोचना चेति तामिति केचित् । ' उप्पित्थ ' शब्दस्त्रस्तव्याकुलवाची देशीति कश्चित् ||३६|| विमला — रजनीचरों ने ( प्रमदवन में पहुँच कर ) जनकसुता को देखा । उनके नेत्र राक्षसों की पदध्वनि से रावण के आगमन की शङ्का होने के कारण उद्विग्न हो रहे थे एवम् ( 'अरे ! यह क्या हुआ' - इस क्षोभ से ) उन ( सीता ) ने कपोल से हाथ को हटा कर स्तनों ( हृदय ) पर रख लिया था ||३६|| पिश्रमसहत्यपेसिअमणि सुष्णइ असि ढिलद्धवेणीबन्धम् । घोअकलधो पाण्डुरपडन्तबाह पहउष्ण अत्थणअलसम् ॥४०॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] [ प्रियतमस्वहस्तप्रेषितमणिशुन्यीकृत शिथिलार्ध वेणीबन्धाम् । धौतकलधौतपाण्डुरपतवाष्पप्रतोन्नतस्तन कलशाम् [ ] पुनः किंभूताम् । प्रियतमस्य कृते स्वहस्तेनाभिज्ञानाव प्रेषितो यो मणिस्तेन शून्यीकृतोऽत एव शिथिलो ग्रन्थिशून्योऽर्धवेणीबन्धो यस्यास्ताम् | अद्याप्यसंवृतकेशीमित्यर्थः । एवं धौतं मार्जितं यत्कलधौतं रूप्यं कज्जलविरहात् । तद्वत्पाण्डुरैः पतद्भिर्बाष्पैरश्रुभिः प्रहृतौ ताडितावुन्नतौ स्तनकलशौ यस्यास्ताम् । उन्नतत्वेन स्तनयोरेवारूणां पात इत्यर्थः । यद्वा-धौतं जलेन क्षालितं यत्कलधौतं सुवर्णं तदाकृती पाण्डुरबाष्पप्रहतौ स्तनकलशौ यस्या इत्यर्थः । निरन्तरमस्र पतनाज्जलक्षालितसुवर्णतुल्यत्वेन स्तनयोस्तस्या अतिगौराङ्गीत्वमुक्तम् ॥४०॥ विमला — प्रियतम राम के लिये भेजी गयी मणि से शून्य उनकी वेणी बँधी नहीं थी । निरन्तर आँसुओं के गिरते रहने से उनके पाण्डुर स्तनकलश जल से ) धोये गये सुवर्णतुल्य हो रहे थे ॥४ ॥ こ अजमिअप हलवेणि वाहजलपहाविआलश्रोत्यइअ मुहिम् । सणासुण्णणिअम्ब विच्छड्डित्रमण्डणगग्घविश्र लावण्णम् ॥ ४१ ॥ [ अयमितपक्ष्मलवेणी बाष्पजलप्रधावितालकावस्तृतमुखीम् । रसनाशुन्य नितम्बां विच्छर्दितमण्डनाघितलावण्याम् ॥ ] किंभूताम् । अयमिता असंयता, अत एव पक्ष्मला जातपक्ष्मा रूक्षा वेणी यस्यास्ताम् । एवं बाष्पजलैरस्रभिः प्रधावितैः प्रक्षालितैर्बाष्पजलेषु प्रधावितैरितस्ततोगामिभिर्वा, अलकैरवस्तृतं व्याप्तं मुखं यस्याः । एवं रसनया शून्यो नितम्बो यस्या । एवं विच्छर्दितं त्यक्तं यन्मण्डनमङ्गरागोऽलंकारश्च तेनार्धितमुत्कर्षितं लावण्यं शोभा यस्याः । औपाधिक रूपादपि स्वाभाविकरूपस्याह्लादकत्वमिति स्वभावसौन्दर्यमुक्तम् ॥४१॥ 2 सेतुबन्धम् विमला — उनकी वेणी बाँधी न जाने के कारण पक्ष्मल ( बालदार एवं रूखी ) हो गयी थी, नितम्ब करधनी से शून्य था, आँसुओं से धुली अलकें मुँह पर बिखरी हुई थीं तथा अङ्गराग एवम् अलङ्कारों का परित्याग किये जाने से उनका स्वाभाविक लावण्य उत्कृष्ट था ॥ ४१ ॥ थोप्रमउआ अट्ठिअपिअन मग अहि प्रसुण्णणिच्चलणप्रणम् । कइवलसद्दाअण्णणवाहतरङ्गपरिघोलमाणपहरिसम् ॥ ४२ ॥ [ एकादश [ स्तोकमुकुलायतस्थितप्रियतमगतहृदय शुन्यनिश्चलनयनाम् । कपिबलशब्दाकर्णनबाष्पतरङ्गपरिघूर्णमान प्रहर्षाम् [] स्तोमीषन्मुकुलिते, अत एवायतस्थिते दीर्घीभूते, अथ च प्रियतमे रामे गतं यहृदयं मनस्तेन हेतुना शून्ये विषयाग्राहके, अत एव निश्चले बाह्यसंवेदनाभावास्थिरे नयने यस्यास्ताम् । भावनोपस्थित रामदर्शनसमुत्थ सुखास्वादेन नयनयोर्मु Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदोष-विमलासमन्वितम् [ ४५७ कूलन मिति भावः । एवं पिरल: शादानां कोलाहलानामाकर्णनाद्भावनाविच्छेदे सत्युपजाते वापतरङ्गेषु परिपूर्णमान: प्लान इब प्रहों यस्याः । मामगि रामः स्मरतीत्यनुजनकत्वेनानन्दस्य स्कुट त्वादिति भावः । वस्तुतस्तु-कोलाहलेन भावनाविच्छेदे रामदर्शनसुखविच्छेदाद्विपादेनोपजातेषु वाष्पेषु मदुद्धारायते कपयः समागता इत्यानन्दाश्रुभिरुपचितेषु दोलायमान इव प्रहर्ष इत्याक्षिप्त विषादहर्षयोः संधिरिति मदुन्नीतः पन्थाः ॥४२॥ विमला--मन प्रियतम राम में रमा होने के कारण, थोड़ा मुकुलित उनके नेत्र जड़ ( किसी वस्तु को देखने में असमर्थ ) एवं निश्चल थे। वानरों का कोलाहल सुनने से ( रामविषयक ध्यान भङ्ग होने के कारण विषादजन्य अश्रुधारा बह चलती किन्तु तत्काल ही 'मेरे उद्धार के लिये वानर आये हैं' -इस कारण आनन्द के आँसू उमड़ पड़ते, इन दोनों प्रकार के ) अश्रुतरङ्गों में उनका प्रहर्ष दोलायमान-सा हो रहा था ।।४२।। ईसरअभिण्ण पाडलवसुआ अप्फरुसवाहबिन्दुटठाणम् । विच्छड्डिअपरिधू सरणि अग्रसहावपरिसंठिाहरराअम् ॥४३॥ [ ईषद्रजोभिन्नपाटलशुष्कपरुषबाष्पबिन्दुस्थानम् । विदितपरिधूसरनिजकस्वभावपरिसंस्थिताधररागम् ॥] एवम् ईषद्रजोभिर्भिन्नं संबद्धम, अत एव गौरिमसंबन्धात्पाटलं श्वेतरक्तम् । अस्रणामभावाच्छुष्कं सत्परुषं रूक्षं वाष्पबिन्दूनां स्थानं यस्यास्ताम् । 'पाअड' इति पाठे प्रकटमित्यर्थः । अत्र स्थानेषु धूलिसंबन्धाच्छुष्कत्वं पाटलत्वं प्रकटत्वं वा, रूक्षत्वं चेति भावः । एवं विच्छर्दितोऽलक्तकताम्बूलत्यागात्त्यक्तः अत एव परिधूसरः सन्निजकस्वभावे परिसंस्थितः कृत्रिमारुण्यरहितोऽधरस्य रागो यस्या इति कुलस्त्रीत्वमुक्तम् । केचित्तु-अग्रिमस्कन्धकस्थवदनविशेषणतया नपुंसकान्तत्वेन सर्वमिदं योजयन्ति ।।४३॥ विमला-कपोलगत सूखी एवं रूखी अश्रुरेखा कुछ धूल से ढक जाने से पाटल ( श्वेत-रक्त) वर्ण की दिखायी दे रही थी। अलक्तक-ताम्बूलादि का परित्याग कर दिये जाने के कारण परिधूसर अधर की लाली अपने स्वाभाविक रूप में दर्शनीय थी ॥४३॥ वअणं समवहन्ति ओलग्गकओलणिव्वलन्ताप्रामम् । असमत्तकलादीहं कइदिअहासण्णपूरिअव्वं व ससिम् ॥४४॥ [वदनं समुद्वहन्तीमवरुग्णकपोलनिर्वलदायामम् । असमस्तकलादीर्घ कतिदिवसासन्नपूरयितव्यमिव शशिनम् ॥] Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८] सेतुबन्धम् [एकादश ___ एवम्-अवरुग्णौ दुर्बलौ यौ कपोलो ताभ्यां निर्वलन्स्पष्टीभवन्नायाम ऊधिःक्रमेण देध्यं यत्र तत् वदनं समुद्ववहन्तीम् । अत्रोत्प्रेक्षते--असमस्ताभिरसमाप्ताभिर पूर्णाभिर्वा कलाभिर्दीर्घाकार शशिनमिव । शशिनं कीदृशम् । कतिपयैर्दिवसरासन्नं निकटवर्ति पूरयितव्यं पूरणं यस्य तम् । भावे तव्यः । कतिदिवसरासन्ने निकट एव पूरयितव्यमिति कर्मणि वा। वदनमपि द्वित्रदिनरेव रामसंदर्शनात् कलावृद्ध्या पूरयितव्य मित्यभिसंधिः ।।४४॥ विमला-दुर्बल कपोलों से उनके मुख का विस्तार, अपूर्ण कलाओं से दीर्घाकार चन्द्रमा के समान स्पष्ट दिखायी दे रहा था, जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में कतिपय दिनों में होने ही वाली है ।।४४।। देहच्छविणिव्वलिए भिण्णदरुव्वत्तरोअणासच्छाए। भूसणबन्धणमग्गे लक्खिज्जन्ततलिणतणे वहमाणम् ॥४५॥ [ देहच्छविनिर्वलितान्भिन्नदरोवृत्तरोचनासच्छायान् । भूषणबन्धनमाल्लिक्ष्यमाणतलिनत्वान्वहमानाम् ॥] एवम्-भूषणस्य वलयादेवन्धनं योजना तस्य मार्गान् स्थानानि वहमानाम् । भूषणशून्यामित्यर्थः । किंभूतान् । लक्ष्यमाणं तलिनत्वं स्तोकत्वं काश्यं येषां तान् । तत्तदनंकारस्थानानां तत्तदाकारेण कृशीभूय परिणतत्वादिति भावः । पुनः कीदशान् । देहस्य स्वभावसिद्धा या छविगौरता तया निर्वलितान् पृथग्भूय प्रकाशमानान् । अन्यत्र छविमालिन्यादिपिहिता तत्र तत्रैव परं तदभावादुज्ज्वलेति भावः । यद्वा-देहच्छविभिनिर्वलितान् अन्यदेहापेक्षया छविविशेषेण पृथग्भूतानित्यर्थः । बत एव भिन्ना संबद्धा पश्चादीषदुर्तिता या रोचना तया सच्छायानिवेत्युत्प्रेक्षा न्यङ्गया। रोचनोद्वर्तनाादेव कान्ति विशेषं गतानित्यर्थः । अन्यशरीरापेक्षया गौरिमविशेषोदयादिति भावः । भिन्ना पिष्टोद्वतिता लोडिता या रोचना तत्तुल्यकान्तीनिति केचित् । 'तलिनं विरले स्तोके' इति विश्वः ॥४५।। विमला-शरीर में भूषणधारण के स्थान भूषणशून्य तथा कृश लक्षित हो रहे थे, देह की गोराई से वे स्थान शरीर के अन्य भागों से पृथक् ऐसे उज्ज्वल प्रकाशमान थे मानों रोचना लगाने से कान्तिविशेष को प्राप्त हो गये थे ॥४५॥ दव्वचलणणं उवऊहणलालसप्फुरिअवाहुलअम् । आसण्णमिदइ रसेण एक्कसम्म व विसूरन्तिम् ।।४६॥ [ द्रष्टव्यचटुलनयनामुपगृहनलालसस्फुरितबाहुलताम् । आसन्नस्थितदयितां रसेनैकशयन इव खिद्यमानाम् ॥] Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४५६ एवम् - आसन्ने निकटे स्थितो दयितो रामो यस्यास्ताम् । अत एव - रसेनोत्कण्ठया द्रष्टव्ये रामे रामदर्शने वा चटुले चञ्चले नयने यस्यास्ताम् । एवम् - उपगूहने तदालिङ्गने लालसेन लोभेन स्फुरिते सस्पन्दे बाहुलते यस्याः । सन्निहित एव प्रियः कदा द्रष्टव्यः कदा वा तदालिङ्गनं लब्धव्यमित्युत्कण्ठितामित्यर्थः । अत एव तदुभयप्राप्त्यभावात्खिद्यमानम् । उत्प्रेक्षते — एकशयन इव । यथैकत्र शयने काचिदासन्नस्थितदयिता रसेन पूर्वोक्तविशेषणद्वयवती सती मानपरिग्रहादिना तदुभयालाभात्खिद्यत इत्यर्थः । यद्वा-भावनाव शादासन्नस्थितदयितामुक्तविशेषणद्वयवतीं च । अत एव तदुभयासिद्ध्या रसेनैकशयन इव खिद्यमानाम् ||४६॥ विमला - (भावनावशात् ) राम उनके समीप में ही स्थित थे, अतएव उत्कण्ठा से राम के दर्शन के लिये उनके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा आलिङ्गन के लोभ से बाहुलतायें स्फुरित हो रही थीं किन्तु दर्शन और आलिङ्गन दोनों की सिद्धि न होने के कारण वे वैसे ही खिन्न हो रही थीं जैसे एक ही शयन पर निकट प्रिय की स्थिति में चाहने पर भी मानादि के कारण दर्शन और आलिङ्गन की सिद्धि न होने पर कोई सुन्दरी खिन्न होती है ॥४६॥ दूस मिश्रङ्कदंसणदुउणअरुक्कण्ठणीसह णिसण्णङ्गिम् गअजीविअपरिसङ्किमणिसिश्ररिहत्थपरिमट्ठणिच्चल हिअश्रम् ॥४७॥ [ दुःसहमृगाङ्कदर्शनद्विगुणतरोत्कण्ठानिः सहनिषण्णाङ्गीम् 1 गतजीवितपरिशङ्कित निशिचरी हस्तपरिमृष्टनिश्चलहृदयाम् ॥ ] एवम् - विरहिणीनामतिपीडाकरत्वादुःसहेन मृगाङ्कस्य दर्शनेन द्विगुणतरा योत्कण्ठा तया निःसहानि निश्चेष्टानि सन्ति निषण्णानि । भूमावित्यर्थात् । अङ्गानि यस्यास्ताम् । मूच्छितामित्यर्थः । अत एव गतजीवितेयमिति परिशङ्किताभिः शङ्कावतीभिर्निशिचरीभिरवेक्षिताभिर्हस्तेन परि सर्वतोभावेन श्वासानवाप्त्या मृष्टं श्वासनिरोधान्निश्चलं हृदयं यस्यास्ताम् ॥४७॥ विमला- - चन्द्रमा के दुःसह दर्शन से दूनी हुई उत्कण्ठा के कारण उनके अङ्ग ( भूमि पर ) निश्चेष्ट स्थित थे अर्थात् सीता मूर्च्छावस्था में भूमि पर पड़ी थीं । निशाचरियाँ 'सीता मर गयी' - ऐसी शङ्का कर ( हृदय की गति मालूम करने के लिये ) उनके निश्चल हृदय को हाथ से बार-बार स्पर्श करती थीं ॥४७॥ हत्येण वाहगरुइअदूरपलम्बाल प्रोत्थएण वहन्तिम् । पिपेसिणगुली अअ मणिप्पहापाअडेक्कपासं व मुहम् ||४८ || [ हस्तेन वाष्पगुरूकृतदूरप्रलम्बालकावस्तृतेन वहन्तीम् । प्रिय प्रेषिताङ्गुलीयकमणिप्रभाप्रकटैकपार्श्वमिव मुखम् ॥ ] Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] सेतुबन्धम् [ एकादश एवम् बाप्पैर श्रधिः स्तिमितत्वाद गुरूकृतः अत एव दूरं व्याप्य प्रलम्बैरलकरवस्तृतेनाच्छादितेन हस्तेन मुखं वहन्तीम् । मुखं हस्ते कृत्वा तिष्ठन्तीमित्यर्थः । किमिव । प्रियेण रामेण प्रेषितं बदङ्गुलीयकं तन्मणिप्रभाभिः प्रकटं व्यक्तमेकं पाश्वं यस्य तथाभूतमिव । तथा च--एकपार्श्वस्य करालकपिहितत्वादप्रकटत्वमेव, उपरिगतपार्श्वस्व तु प्रकटत्वम् । स्वच्छमुखान्तनिर्गताभिरधःस्थितकरामुलीयकप्रभाभिः कृतमिवेत्युत्प्रेक्षितम् । यद्वा-'पाविएक्कपास व मुहम्' इति पाठः । तथा चमणिप्रभाप्रावृतै कपार्श्वमिव । तेन मणिप्रभाभिः प्रावृतं छन्नमेकं पार्वं यस्येत्यर्थः । तथा च मणेरिन्द्रनीलत्वेन तत्प्रभावृतकपार्श्वत्वमुत्प्रेक्ष्यमाणमलकेषु नीलतया तत्प्रभात्वमवगमयतीति निरवद्यम् ॥४८ । विमला-दूर तक लम्बी और आँसुओं से भारी कर दी गयी अलकों से आच्छादित हाथ पर वे मुह रख कर स्थित थीं ( मुह का एक पार्श्व भाग हाथ और अलकों से ढका होने के कारण अप्रकट था) दुसरा ऊपर वाला पार्श्व भाग जो व्यक्त था वह मानों प्रिय राम के द्वारा भेजी गयी मुद्रिका की मणिप्रभा से ही व्यक्त था ॥४८॥ आसण्णजज्जविमणं रामभुआसङ्घभणिविसंतावम् । हिमआवलिप्रदहमुहं कि मण्णे होहिइ ति विमुहिज्जन्तिम् ।।४६।। [ आसन्नयुद्धविमनसं रामभुजाध्यवसायनिष्ठापितसंतापाम् । हृदयापतितदशमुखां किं मन्ये भविष्यतीति विमुह्यन्तीम् ॥ ] एवम्-आसन्नमचिरभावि यद्युद्धं तेन विमनस्का युद्धे चानियतो जय इत्याशयात् । अथ रामभुजयोरध्यवसायेन निष्ठापितो नाशितो युद्धे किं स्यादित्यादिसंतापो यस्यास्ताम् । रामो जेष्यत्येवेति निश्चयात् । पश्चात हृदये आपतितो दशमुखो यस्यास्ताम् । तथा च तस्य लब्धवरत्वं पौरुषं च स्मृत्वा पुन: संदिहानामित्यर्थः । अत एव मन्ये विचारयामि । मनसि वा । एकत्र रामोऽपरत्र रावण इति कोटिद्वयतौल्यात्कि भविष्यतीति विमुह्यन्ती मूर्च्छन्तीं संशयानां वा ॥४६॥ विमला-कभी तो निकट भविष्य में होने वाले युद्ध से ( जय की संदिग्धता के कारण ) वे उदास होती और कभी ( राम अवश्य विजयी होंगे-ऐसा विश्वास होने से ) राम की भुजाओं के अध्यवसाय से उनका सन्ताप नष्ट हो जाता, तत्पश्चात् हृदय में रावण आ जाता-उसके प्राप्त वर और पौरुष को स्मरण करतीं तो राम की विजय में उन्हें पुनः सन्देह हो जाता। इस प्रकार (एक तरफ राम और दूसरी तरफ रावण है ) युद्ध में क्या होगा, यह समझ न पाने के कारण वे विमोहित-सी हो रही थीं ॥४६।। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६१ समुहालोणविडिअं विडिप्रणिमिल्लपि असणुसुप्रहि अअम् । ऊसुअहिउम्मिल्लं उम्मिल्लोसरिअपइमुहकिलिम्मन्तिम् ॥५०॥ ( आइकुलअम् ) [ संमुखालोकनब्रीडितां वीडितनिमीलितप्रियदर्शनोत्सुकहृदयाम् । उत्सुकहृदयोन्मीलितामुन्मीलितापसृतपतिमुखक्लाम्यन्तीम् ॥] (आदिकुलकम् ) एवम्-संकल्पोपस्थितस्य रामस्य संमुखालोकनेन वीडितां त्वद्विरहेऽपि जीवितास्मीति लज्जिताम् । ततो वीडितत्वेन पुननिमीलितां निमीलितनेत्राम् । अनन्तरं प्रियस्य दर्शन उत्सुकहृदयामिति कर्मधारयः । तदनु(दु)त्सुकहृदयत्वात्पुन रुन्मीलितां प्रियं द्रष्टुमुन्मीलितनेत्राम् । पश्चादुन्मीलितेन नयनोन्मीलनेन भावनापरित्यागादपसृतेऽदृष्टे सति पतिमुखे क्लाम्यन्ती पुनदर्शनोत्कण्ठावशात् । अथवा वृथैव भावनाविन्छेदकारिनयनोन्मीलनं कृतमिति चिन्तावशाखिद्यमानाम् ॥ आदिकुलकम् ॥५०॥ विमला-(भावनावशात् उपस्थित ) राम को सामने देखकर ( उनके विरह में जीवित रहने के कारण ) वे ( सीता जी ) लज्जित हो जाती, लज्जित होने के कारण आँखें मूद लेतीं, तत्पश्चात् प्रिय के दर्शन के लिये उनका हृदय उत्सुक हो जाता और हृदय के उत्सुक होने पर प्रिय के दर्शन के लिये आँखें खोल लेतीं, किन्तु आखें खुलते ही ( भावनापरित्याग से) पति ( राम ) का मुख न दिखायी पड़ने पर खिन्न हो जाती ॥५०।। अथामीषां सीतासमीपगमनमाहदठूण अणं दूमिप्रहिमअपहोलन्तसंभरिअकाअन्वा । अल्लोणा माप्रामअरामसिरुल्लाणकापरा रअणिअरा ॥५१॥ [ दृष्ट्वा चैनां दूनहृदयप्रघूर्णमानसंस्मृतकर्तव्याः ।। आलीना मायामयरामशिरउल्लयनकातरा रजनीचराः ॥] स [च] पुनः शोच्यामेनां सीतां दृष्ट्वा दयावशाढ्ने दुःखिते हृदये प्रघूर्णमानम् । विस्मृतमित्यर्थः । पश्चात्पुनर्लङ्कशभयात्संस्मृतं कर्तव्यं मायाशिरःप्रदर्शनरूपं यस्ते रजनीचरा मायामयं यद्रामशिरः, तस्योल्लयनेऽर्पणे कातराः सन्त: आलीनाः सीतासमीपमुपगताः जीवत्येव रामे स्वत एव म्रियमाणा वराकी कथमसत्येन व्यापादनीयेति घृणावशादलीकं शिरो न तु दर्शयामासुरिति भावः ।।५१॥ विमला-उक्त अवस्था में अवस्थित सीता को देख कर निशाचरों का हृदय दुःखी हो गया और उन्हें अपने कर्तव्य का स्मरण ही नहीं रह गया। कुछ समय Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] सेतुबन्धम् [एकादश के पश्चात् (लङ्केश के भय से) उन्हें कर्तव्य का संस्मरण तो हुआ, किन्तु उस समय वे ( सीता की दशा से दयार्द्र होने के कारण ) मायानिर्मित राम के सिर को सीता के सामने रखने का साहस न कर सके ॥५१॥ अथ शिरःप्रदर्शनमाह अह तेहि तीअ पुरओ छेअसमुव्वत्तमासदिण्णावेढम् । ठवि राहववअण लुअमज्झविलग्गवामहत्थं च धणुम् ।।५२॥ [ अथ तैस्तस्याः पुरतश्छेदसमुद्वृत्तमांसदत्तावेष्टम् । स्थापितं राघववदनं लूनमध्यविलग्नवामहस्तं च धनुः ॥] अथ सीतासमीपगमनानन्तरं छेदेन कर्तनेन समुदत्तमुच्छ्वासितं यन्मांसं तेन दत्तमावेष्टं सर्वतो वेष्टनं यत्र तादृशं राघववदनं लूनश्छिन्नः सन्मध्ये विलग्नः संबद्धो वामहस्तो यत्र । राघवस्येत्यर्थात् । तद्धनुश्च तैनिशाचरैस्तस्याः सीतायाः पुरतः स्थापितम् । तथा च-एकव्यापारेणैव शिरो धनुर्लग्नः करश्च द्वयमपि छिन्न मिति भावः ॥५२॥ विमला-सीता के समीप पहुँचने के कुछ समय पश्चात्, काटने के समय बाहर निकले हुये मांस से वेष्टित राम का सिर तथा धनुष जिसमें राम का कटा हुआ बायाँ हाथ संलग्न था, निशाचरों ने सीता के सामने रख दिया ।।५२।। अथ सीतामोहमाह मालोइए विसण्णा उवणिज्जन्तम्मि वेविसं पाढत्ता । सीआ रप्रणिअरेहि रामसिर त्ति भणिए गअ चिचअ मोहम् ।।५३।। आलोकिते विषण्णोपनीयमाने वेपितमारब्धा । सीता रजनीचरै रामशिर इति भणिते गतव मोहम् ॥] शिरसि दूरादालोकिते सति सीता विषण्णा विषादमुपगता। कस्यैतदिति कृत्वेत्यर्थः । अथ रजनीचरैरुपनीयमाने निकटं प्राप्यमाणे सति वेपितुमारब्धा । ममैव निकटं यदानयन्ति तत्प्रायो रामस्यैव भवेदिति कृत्वा कम्पवती बभूवेत्यर्थः । पश्चातैरेव रामशिर इति भणिते सति निःसंदेहा सती मोहमेव मूर्छामेव गता। नतु मृत्युमपि । सीताजीविताभिन्न रामजीवितस्य विद्यमानत्वादिति भावः ॥५३॥ विमला सीता ने जब सिर को दूर से ही देखा तब ( किसका है-ऐसा सोचती हुई ) विषाद को प्राप्त हुई। राक्षस जब उन्हीं की ओर उसे लेकर चले तब ( यह राम का ही होगा-सोच कर ) कांपने लगी और जब उन्होंने कहा कि यह राम का सिर है तब वे मूच्छित हो गयीं ॥५३॥ अथ सीताया भूमौ पतनमाहपडिमा अ हत्थसिढिलिअणिरोहपण्डरसमूलसन्तकवोला। पेल्लिअवामपओहरविसमुण्ण अदाहिणत्थणी जणअसुआ॥५४॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६३ [पतिता च हस्तशिथिलितनिरोधपाण्डुरसमुच्छ्वसत्कपोला । प्रेरितवामपयोधरविषमोन्नतदक्षिणस्तनी जनकसुता ॥ ] जनकसुता पतिता च भूमावित्वर्थात् । केवलं मोहमेव गतेति न, किं तु पतितापीति चार्थः । किंभूता । हस्तेन शिथिलितो निरोधो यत्र तथाभूतः, पश्चाद्विरहेण करतलयन्त्रणापसारितरुधिरत्वेन वा पाण्डुरः सन् समुच्छ्वसन् यन्त्रितमांसोत्फुल्लतया पुष्टि वजन् कपोलो यस्यास्तथाविधा। ज्ञानदशायां करावरुद्ध ः कपोलस्थितो मूर्छायां कर: शिथिलीभूय बहिः स्खलित इत्यर्थः । एवम्---प्रेरितेन वामपार्श्वन पतितत्वाद्वामभुजयन्त्रणया तिर्यगुत्थापितेन वामपयोधरेण विषमोन्नतः स्वानुसारेण तिर्यगुत्थापितो दक्षिणः स्तनो यस्याः । तथा च कुचयोः काठिन्यमुक्तम् ॥५४॥ विमला-जनकसुता केवल मूच्छित ही नहीं, भूमि पर गिर भी गयीं। उस समय हाथ से जो कपोल अवरुद्ध था उसका वह अवरोध शिथिल हो गया तथा कपोल जो हाथ के दबाव से दबा हुआ था, दबाव हट जाने से पुन: समुच्छ्वसित (पूर्वावस्था को प्राप्त) हो गया एवं वामपार्श्व के दबने से वामपयोधर उन्नत हो गया और उसके अनुसार दायाँ पयोधर अत्यन्त अधिक उन्नत हो गया ॥५४॥ भूम्यवष्टम्भेन सीता जीवितेत्याह मरणम्मि बन्धवाणं जणस्स कि होइ बन्धवो च्चिअ सरणम् । तह गुरुसोअकलिआ धरम्मि पडिआ विमुच्छिमा धरगिसुप्रा ॥५५॥ [ मरणे बान्धवानां जनस्य किं भवति बान्धव एव शरणम् । तथा गुरुशोककवलिता धरायां पतिता विमूच्छिता धरणिसुता ॥] बान्धवानां मरणे सति जनस्य बान्धव एव शरणं किं भवति । बान्धव एव प्राणावलम्बनं भवतीत्यर्थः। तत्रोपपत्तिमाह-तथा रामविपत्तिज्ञानजेन गुरुणा शोकेन कवलिता समाक्रान्ता सती विमूच्छिता धरणिसुता सीता धरायां पतिता, यतस्तत्काले तस्या मातृत्वाद्धरणिधरेवावलम्बनमभूदिति भावः ।।५।। विमला-क्या बान्धवों के मरने पर मनुष्य का शरण बान्धव ही होता है जो महान् शोक से समाक्रान्त धरणिसुता (सीता) मूच्छित हो धरणी पर गिर गयीं ? ॥५५।। अथ सीतायां मोहोत्कर्षमाह ण कओ वाहविमुक्खो गिवण्णेपि ण चइ रामसिरम् । णवर पडिवण्णमोहा गअजीविअणीसहा महिम्मि णिसण्णा ॥५६॥ [ न कृतो बाष्पविमोक्षो निवर्णयितुमपि न शकितं रामशिरः । केवलं प्रतिपन्नमोहा गतजीवितनिःसहा मह्यां निषण्णा ।।] तया बाष्पविमोक्षो न कृतः, रामशिरो निर्वर्णयितुं विशेषेण द्रष्टुमपि न शकि Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] सेतुबन्धम् [एकादश तम् । केवलं प्रतिपन्न: स्वीकृतो मोहो यया तथाभूता सती गतजीवितो मृतस्तद्वनिःसहा निश्चेष्टा सा मयां निषण्णा लिखितेव स्थिताभूदित्यर्थः । रोदनदर्शनादीनां ज्ञानसाध्यत्वेन तदानीं प्रसह्य मोहोदयात्तत्किमपि न वृत्तमिति भावः । वस्तुतस्तु-दर्शनविच्छेदः स्यादिति बाष्पत्यागो न कृतः, दर्शने सति महदुखं स्यादिति दर्शनमपि न कृतम्, कि तु मोहे सति किमपि दुःखं न लब्धव्यमिति मोह एक परं स्वीकृतः, तत एवाचैतन्यान्मह्यां लिखितेव स्थितेत्यर्थः ।।५६॥ विमला-राम के सिर के दर्शन में बाधा पड़ने के भय से सीता ने अश्रुपात नहीं किया, दर्शन से अत्यन्त दुःख होगा इसलिये उन्होंने राम के सिर का दर्शन नहीं किया । अतः मोह को ही उन्होंने स्वीकार किया ( जिसमें कोई भी दुःख न होगा) तदनन्तर ही मृतवत् निश्चेष्ट पृथिवी पर लिखित-सी स्थित रहीं ॥५६॥ अथ मूर्छावस्थामाह खणणिच्चलणीसासं जाअं मोहन्धप्रारसामच्छाअम् । विरलमिलिअच्छिवत्तं मच्छाहीरन्ततारअं तीअ महम् ॥५७॥ [क्षणनिश्चलनिःश्वासं जातं मोहान्धकारश्यामच्छायम् । विरलमिलिताक्षिपत्रं मू ह्रियमाणतारकं तस्या मुखम् ॥] तस्यां मुखं जातम् । कीदृशम् । क्षणं व्याप्य निश्चलो निःश्वासो यत्र, मूर्च्छया प्राणवायोरवरोधात् । एवम्-मोहो ज्ञानाभावस्तद्रूपेणान्धकारेण श्यामा छाया कान्तिर्यस्य, प्रसादाभावात् । एवम्-विरलमल्पं मिलिते किञ्चिन्मुद्रिते अक्षिपत्रे पक्ष्मणी यत्र तथाभूतं सन्मूर्च्छया ह्रियमाणे परावर्तिते तारके दृष्टिगोलके यत्र तादृशम् । मूर्छापूर्वावस्था मोहः । यद्वा मोहोऽज्ञानमात्रम्, मूर्छा तु मनोविक्षोभविशेष इति भेदः ।।५७।। विमला-( मूर्छा से प्राणवायु के अवरुद्ध हो जाने के कारण ) क्षण भर निःश्वास निश्चल रहा। मोहरूप अन्धकार से मुख की कान्ति श्याम हो गयीं, पलकें थोड़ा-सा मुद्रित हो गयीं तथा पुतलियाँ मूर्छा से फिर गयीं ।।५७।। मूर्च्छया दुःखसंवेदनाभावमाहविसरिअविओअदुक्खं तक्खणपब्भराममरणापासम । जणअतणआइ गवरं लद्ध मुच्छाणिमोलिअच्छीम सुहम् ॥५८।। [ विस्मृतवियोगदुःखं तत्क्षणप्रभ्रष्टराममरणायासम् । जनकतनयया केवलं लब्धं मूर्छानिमीलिताक्ष्या सुखम् ॥] मूर्छामुद्रिताक्ष्या जनकपुत्र्या तदानीं केवलं सुखं लब्धम् । ज्ञाने सति दुःखमात्रानुभवादज्ञाने दुःखाभाव एव तदिति भावः । सुखं कीदृक् । विस्मृतं विरहदुःखं यत्र । एवम्-तत्क्षणे प्रभ्रष्ट: प्रस्मृतो रामस्य मरणेनायासः पीडा रामनिष्ठा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४६५ स्वनिष्ठा च यत्र तत् । यद्वा-'विस्मृतवियोग-' इति विशेषणद्वयविशिष्टं यथा स्यादेवं मूर्छानिमीलिताक्ष्या तया केवलं सुखं लब्धमित्यन्वयः। नयनानिमीलनेन शिरोदर्शनजन्यमपि दुःखं नाभूदिति भावः ॥५८।। विमला-मूर्छा से मुंदी आखों वाली जनकपुत्री को विरह का दुःख बिसर गया, तत्क्षण राम-मरणजन्य पीड़ा विस्मृत हो गयी, इस प्रकार उन्हें उस समय केवल सुख प्राप्त हुआ ॥५८|| अथ कालेन श्वासपरावृत्तिमाहथणपरिणाहोत्थइए तीए हिअअम्मि पअणुअंपि ण दिट्ठम् । दोहं पि समूससि सूइज्जइ गवर वेविरे अहरोठे ॥५६॥ [ स्तनपरिणाहावस्थगिते तस्या हृदये प्रतनुकमपि न दृष्टम् । दीर्घमपि समुच्छ्वसितं सूच्यते केवलं वेपनशीलेऽधरोष्ठे ॥] स्तनयोः परिणाहेन विशालतयावस्थगिते व्याप्ते तस्या हृदये प्रतनुकमल्पमपि न दृष्टम् । चक्षुःस्पन्दापरिज्ञानान्न लक्षितम् । दीर्घ महदपि समुच्छ वसितं निश्वासः केवलमधरोष्ठे वेपनशीले कम्पिते सति सूच्यते । श्वासं विना कथमधरोष्ठकम्प इति परं तर्यंत इत्यर्थः। एतेन स्तनयोराभोगशालित्वमधरोष्ठस्य च तनुत्वं सूचितम् ॥५६॥ विमला-उनकी लम्बी सांस भी स्तनों की विशालता से व्याप्त हृदय पर तनिक भी नहीं दिखायी पड़ी; केवल काँपते अधरोष्ठ पर सूचित हो रही थी ( सांस के विना अधरोष्ठ कांपता क्यों ? ) ॥५६॥ अथ मोहोपशान्ती चक्षुरुन्मीलनमाहअपरिप्फुडणीसासा तो सा मोहविरमे विणीसहपरिमा। अणुवज्झबाहगरुइअदुक्खसमध्वूढतारअं उम्मिल्ला ॥६०॥ [ अपरिस्फुटनिःश्वासा ततः सा मोहविरामेऽपि निःसहपतिता। अनुबद्धबाष्पगुरूकृतदुःखसमुद्वयूढतारकमुन्मीलिता ॥] ततः श्वासपरावृत्त्यनन्तरं न परि सर्वतोभावेन स्फुटो व्यक्तो निश्वासो यस्यास्तथाविधातळमाणनिश्वासा सा मूर्छाविरामेऽपि निःसहं निश्चेष्टं यथा स्यादेवं पतिता सत्युन्मीलिता चक्षुरुन्मुद्रणं चकारेत्यर्थः । अनुबद्धेन ज्ञाने सति तदानीमु. त्पन्नेन बाष्पेणाश्रुबिन्दुगुरूकृते यन्त्रिते अत एव दुःखेन समुद्वय ढे उत्तानिते तारके गोलके यत्र तद्यथा स्यादित्युन्मील क्रियाविशेषणम् ॥६०।। विमला-साँस आ जाने के बाद निःश्वास पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हुआ तथा मूर्छा समाप्त होने पर भी वे निश्चेष्ट पड़ी रहीं। कुछ ज्ञान होने पर उन्होंने आँखें खोली और आँसुओं से भारी कर दिये जाने के कारण कठिनाई से पुतलियाँ सीधी हुईं ॥६॥ ३० से० ब० Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [ एकादश अथ चतुर्भिरादिकुलकेन चैतन्ये सति शिरोदर्शनार्थमीषदुत्थितायाः सीतायाः शिरोदर्शनमाह पेच्छइ अ सरहसोहरिअमण्डलग्गाहिघाअविसमच्छिण्णम् । दूरधणुसंधिअञ्चिअसरपुङ्खालिद्धसामालप्रआवङ्गम् ॥६१।। [ पश्यति च सरभसावहृतमण्डलाग्राभिघातविषमच्छिन्नम् । दूरधनुःसंहिताञ्चितशरपुङ्खालीढश्यामलितापाङ्गम् ॥] सीता रामशिरः पश्यति चेत्यग्रेतनचतुर्थस्कन्धकेन सह समन्वयः। कीदृशम् । सरभसं वेगेनावहृतस्य पातितस्य मण्डलाग्रस्य खड्गस्याभिघातेन विषमं तिर्यक्क्रमेण छिन्नम् । एवं दूरं व्याप्य धनुःसंहिताञ्चितस्य धनुरारोपिताकृष्टम् शरस्य पुङखेनालीढी स्पृष्टी, अत एव नित्यं शराकर्षणेन पुङ्खावमर्षाज्जातकिणत्वेन श्यामलितावपाङ्गौ यत्र तदिति सव्यसाचित्वमुक्तम् ॥६१।। विमला-संज्ञा प्राप्त कर सीता ने राम का सिर देखा। वह वेग से प्रहार किये गये खड्ग के अभिघात से तिरछा कटा हुआ था तथा धनुष पर चढ़ा कर दूर ( कान ) तक खींचे गये बाणों के पुच्छ भाग से बार-बार स्पृष्ट होने के कारण उनके नेत्रों की कोर श्यामल हो गयी थी ॥६॥ णिवढरुहिरपण्डरमउलन्तच्छे अमासपेल्लि अविवरम् । भज्जन्तपडिअपहरणकण्ठच्छे अदरलग्गधाराचण्णम् ॥६२॥ [निव्यूंढरुधिरपाण्डुरमुकुलायमानच्छेदमांसप्रेरितविवरम् । भज्यमानपतितप्रहरणकण्ठच्छेददरलग्नधाराचूर्णम् ॥] पुनः किंभूतम् । निःशेषतो व्यूढेन गलितेन रुधिरेण पाण्डुरं सन्मुकुलायमानं संकुचबच्छेदस्थानमांसं प्रेरितं तेन मुद्रितं विवरं कण्ठनालरन्ध्र यत्र तत् । मांसस्योत्फुल्लनादिति भावः । एवं पतितस्य सतो भज्यमानस्य भग्नस्य प्रहरणस्य खड्गस्य कण्ठच्छेदे तत्स्थाने लग्नं धाराचूर्णं यत्र । खड्गभङ्गेन चूर्णाकारस्य धारासंनिहितलौहकणिकारूपस्य धाराचूर्णस्य च संबन्धेन' कण्ठस्य काठिन्यमुक्तम् ॥६२।। विमला पूर्ण रूप से रुधिर निकल जाने से छेदस्थान संकुचित हो गया था और कण्ठनाल का छिद्र उससे मुंद गया था एवं खड्ग का जब प्रहार किया गया था उस समय ( कण्ठ के कठोर होने के कारण ) खड्ग भग्न हो जाने से कण्ठ के छेदस्थान पर खड्ग की धार का लौह कणरूप चूर्ण लगा हुआ था ॥६२।। णिदअसंदट्ठाहरमूलक्खित्तदर दिदाढाहीरम् । संखाअसोणिअप्पङ्कपडल पूरेन्तकसणकण्ठच्छेअम् ॥६३॥ [निर्दयसंदष्टाधरमूलोत्क्षिप्तदरदृष्टदंष्ट्राहीरम् । संस्त्यानशोणितपङ्कपटलपूर्यमाणकृष्णकण्ठच्छेदम् ॥] एवं शरसंधानकालीनक्रोधान्निर्दयं संदष्टाधरस्य मूले उत्क्षिप्तमुत्थापितम्, अत Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६७ एव बहिर्भूतत्वेन किंचिदृष्टं दंष्ट्राहीरकं दंष्ट्राग्रं यत्र, दंष्ट्रारूपं हीरक मणि विशेष इति वा । एवं संस्त्यानशोणितस्य विष्टब्धरुधिरस्य पङ्कपटलेन पूर्यमाणः, अत एव कृष्णः श्यामवर्णः कण्ठच्छेदो यत्र तत् । विष्टब्धरुधिरस्य श्यामत्वादिति भावः । 'सूच्यग्रेण समं श्लक्ष्णं दंष्ट्राग्रं हीरकं विदुः' ।।६३।। विमला-(शरसन्धान के समय ) निर्दयतापूर्वक संदष्ट अधर के मूल में उठा हुआ दंष्ट्राग्र थोड़ा-सा बाहर दिखायी दे रहा था। उसका कण्ठच्छेद, जम गये रुधिर के पङ्कपटल से पूर्य माण एवं श्यामवर्ण हो गया था ॥६३॥ णिसिपरकअग्गहाणिप्रणिलाडअडणभिडिभुममाभङ्गम् । गलिअरुहिरद्धलहुअं अणहिअउम्मिल्लतार रामसिरम् ॥६४॥ (कुलअम् ) [निशाचरकचग्रहानीतललाटतटनष्टभ्रुकुटिभ्रूभङ्गम् ।। गलितरुधिरार्ध लघुकमहृदयोन्मीलत्तारकं रामशिरः ॥], (कुलकम् ) एवं निशाचरैः कचग्रहेण केशपाशमाकृष्यानीतम्, अत एव ललाटतटे नष्टौ भ्रकुटिभ्रूभङ्गी यत्र । केशाकर्षणेन ललाटत्वगुन्न यनात्क्रोधोपजातयोर्धकुटिभ्रूभङ्गयो॥श इति भावः । नष्टो भृकुटया भ्रुवोश्च भङ्गो यत्रेति वा। एवं गलितरुधिरत्वेनार्धलघुकम् । एवम् अहृदयमचैतन्यादनाभिप्रायमुन्मीलन्त्यौ प्रकाशमाने तारके गोलके यत्र । कचाकर्षणान्नयनपक्ष्मणोरप्युन्नयनादिति भावः । सत्यत्वख्यापनाय सर्वमिदं कल्पितं रूपम् ॥६४॥ विमला-निशाचर केशपाश पकड़ कर उसे ले आये थे, अतएव भृकुटी और भौंहों का तनाव नष्ट हो गया था। रुधिर बह जाने के कारण वह अर्धलघु हो गया था तथा नेत्रों की पुतलियाँ ( चैतन्याभाव के कारण ) निरभिप्राय प्रकाशमान थीं ॥६४॥ अथ शिरोदर्शनानन्तरं पुनः सीतापतनमाहतह णिमिअ च्चिअ दिछी मुक्ककवोलविहुरो उर च्चिअ हत्थो। गअजीविअणिच्चेठा णवरं सा महिअलं थणभरेण गआ ॥६॥ [ तथा नियोजितैव दृष्टिमुक्तकपोलविधुर उरस्येव हस्तः । गतजीवितनिश्चेष्टा के त्रलं सा महीतलं स्तनभरेण गता ॥ ] सीताया दृष्टिस्तथैव नियोजिता, यथा पूर्व शिरसि नियोजितासीत्, पुनदर्शनानन्तरमपि तथैव स्थितेत्यर्थः । एवं मुक्तः कपोलो येन तथाभूतः सन् विधुरो विह्वलो हस्तो यथा पूर्व मुर सि स्थितः, तदानीमपि तथैव स्थितः, किन्तु गतेन जीवितेन निश्चेष्टा । यद्वा-गतजीवितं मृतक शरीरं तद्वन्निश्चेष्टा सती सा सीता केवलं स्तनयोर्भरेण महीतलं गता । अयमर्थः---पूर्व निशाचरनिवेदनजनित Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] सेतुबन्धम् [ एकादश ज्ञानजन्यशोकेन पतिताभूत्, तदानीं पुनरुत्थाय निपुणनिभालनोपजात निर्णयवशात्तात्कालिक मोहोत्कर्षेण पुरो दृश्यमानरामशिरः संमुखेवाघोमुखीभूय पतितेति दृष्टिरप्यभीष्टत्रिजटादिमुखं न गता, करोऽप्युरस्ताडनादिव्यापृतो नाभूदिति निरवद्यम् । देहान्तरनैरपेक्ष्येण स्तनभरस्य भूमिसंबन्धादुत्तङ्गिमा काठिन्यं च सूचितमिति केचित् ॥ ६५॥ विमला - राम के सिर को पुनः देखने के बाद भी सीता ने अपनी दृष्टि उसी प्रकार ( पूर्ववत् नीचे की ओर ) रक्खी ( त्रिजटादि अभीष्ट निशाचरियों के मुख की ओर नहीं की ), हाथ भी कपोल से हटा कर हृदय पर ही रक्खा ( उरस्ताडन आदि उन्होंने नहीं किया ) केवल मृतवत् निश्चेष्ट हो स्तन के बल भूमि पर गिर पड़ीं ॥ ६५ ॥ अथ पुनश्चैतन्ये सति पूर्वनिश्चयाप्रामाण्यशङ्कया पुनर्दर्शनेन सुदृढनिर्णयाय पुनरुत्थितेत्याह सो मुच्छिउट्ठआए कि एअं ति गअणे दिसासु अ समअम् । सुणपरिघोलिअच्छं जाअं मूढपरिदेविअं तोअ मुहम् ॥६६॥ [ ततो मूच्छितोत्थितायाः किमेतदिति गगने दिक्षु च समकम् । शुन्यपरिघूर्णिताक्षं जातं मूढपरिदेवितं तस्या मुखम् ॥ ] ततः पुनः पतनानन्तरं प्रथमं मूच्छितायाः पश्चाच्चैतन्ये सत्युत्थितायास्तस्या मुखं मूढस्येव परिदेवितं दुःखप्रकाशनं यत्रेति मूढपरिदेवितमनक्षरपरिदेवितं जातम् । चेष्टयैव परिदेवनं चकारेत्यर्थः । तच्चेष्टामाह - किंभूतम् । किमेतदिति कृत्वा किमेतदित्यभिलप्य गगने दिक्षु च सममेकदैव शून्ये मनोवैकल्येन विषयाग्राहके सति परि सर्वतोभावेन घूर्णिते अक्षिणी यत्र । तथा च - रामपतने सति दिवाकरः प्रकाशत एव, नक्षत्राण्यपि न च्यवन्ते, न वा दिग्दाहधूमवत्वोत्पातपवनादिकं दृश्यते, तत्कथमिति जिज्ञासावशादिति भावः । किमेतदिति कृत्वोत्थिताया इति केचित् ।।६६।। विमला - सीता जी इस प्रकार भूमि पर पुनः गिरने के बाद पहिले तो मूच्छित हो गयीं, तत्पश्चात् चैतन्यावस्था में आकर उठीं और निःशब्द फूट-फूटकर रोने लगीं । तदनन्तर 'यह क्या हो गया' - ऐसा कह कर ( राम का मरण होने पर सूर्य का प्रकाश नष्ट हुआ या नहीं, नक्षत्र आकाश से गिरे या नहीं, दिग्दाह हुआ या नहीं - - यह सब जानने के लिये ) अपने जड़ नेत्रों को आकाश और दिशाओं की ओर एक साथ उन्होंने घुमाया ॥ ६६ ॥ अथ वाक्स्तम्भमाह णिव्वण्णेऊण प्रणं तत्तोहुत्तट्ठिओसियन्तणिमण्णो । काङ्खन्तीअ ण पत्तो अणं मरणं च से कह वि अप्पाणो ॥ ६७॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ निर्वर्ण्य चैतत्ततोऽभिमुखस्थिताव सीदन्निः संज्ञः । काङ्क्षन्त्या अपि न प्राप्तो वचनं मरणं चास्या कथमप्यात्मा || ] च पुनः अस्या आत्मा वचनं मरणं च न प्राप्तः, रामजीवनायत्तजीवनत्वान्मरणाभाव:, तत एव संप्रति जीवाम्येवेत्यप्रतिभया वचनाभाव इति भावः । किंभूतायाः । एतद्रामशिरो निर्वर्ण्य निरीक्ष्य काङ्क्षन्त्याः, तदुभयमर्थादिच्छन्त्याः । आत्मा कीदृक् । रामशिरोभिमुखस्थितः सन्नवसीदन्निः सहो भवन्, अथ च निःसंज्ञः । यद्वा ततोऽभिमुख स्थितत्वेनावसीदन्नत एव निषण्णस्तत्रैव स्थितः समीपगमनसामर्थ्याभावादिति भावः ॥ ६७ ॥ आश्वासः ] विमला - राम के सिर को भली-भांति देखकर उसकी ओर मुख कर निश्चेष्ट एवं संज्ञाशून्य सीता जी बहुत चाहने पर भी न मर सकीं और न ही कुछ बोल सकीं ॥६७॥ पुनरप्यवेगात्पतितेत्याह [ ४६६ वरि अ पसारिअङ्गी रमभरिउप्पहपइण्णवेणीबन्धा । पडिया उरसंवाणिअमही अलचक्कलि अत्थणी जणप्रसुता ॥ ६८ ॥ [ अनन्तरं च प्रसारिताङ्गी रजोभृतोत्पथ प्रकीर्णवेणीबन्धा । पतितोरः संदानित महीतलचक्रीकृतस्तनी जनकसुता ॥ ] निर्वचनानन्तरं च जनकसुता पतिता भूमौ' इत्यर्थात् । भूमावपि निपत्यात्मानं व्यापादयामीत्याशयात् । किंभूता । प्रसारितमङ्गं यया तादृशी । क्वचिदप्यङ्गे मृत्युहेतुरभिघातो जायतामितीच्छ्येति भावः । एवं रजोभृतो धूलिपूर्ण उत्पथ प्रकीर्णः पृष्ठमपहास्य यत्र कुत्रचिद्विपर्यस्तो वेणीबन्धो यस्याः । एवम् उरः संदानितेनाधोमुखपतनादुरसावष्टब्धेन महीतलेन चक्रितो यन्त्रणावशाच्चक्रवन्मण्डलाकृतीकृतौ स्तनो यस्याः सा । एतेन स्तनयोरुन्नतकठिनत्वमुक्तम् ॥ ६८ ॥ विमला - तदनन्तर ( आत्मघात के उद्देश्य से ) सीता जी अपने अङ्गों को प्रसारित कर छाती के बल पृथ्वी पर गिर पड़ीं, जिससे उनकी वेणी पीठ पर से हट कर इधर-उधर बिखर कर धूलिधूसर हो गयी एवम् भूतल पर छाती सट जाने से उनके स्तन पृथिवी से दब कर मण्डलाकार हो गये || ६८ || स्तनजवनोन्नतिमाह सव्वङ्गणिमण्णा वि णोसेसक्खविअवलिविभङ्गणिराओ । तीए मज्झपएतो थणजहणकरालिओ ण पावइ वसुहम् ॥६६॥ [ सर्वाङ्गनिषण्णाया अपि निःशेषक्षपितवलीविभङ्गनिरायतः । तस्या मध्यप्रदेश: स्तनजघनकरालितो न प्राप्नोति वसुधाम् ॥ ] भूमावधोमुखीभूय सर्वाङ्गेण निषण्णाया अपि तस्या मध्यप्रदेश उदरं स्तनजघ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] सेतुबन्धम् [ एकादश नेन करालितः सान्तरालीकृतः सन् वसुधां न प्राप्नोति । स्तनयोर्जघनस्य चोन्नतत्वादुभयतोऽप्युत्तोल्य धृतत्वादवनीं न स्पृशतीत्यर्थः । अत एव करालितपदेनोदरस्यातिकृशत्वमुक्तम् । कीदृक् । निःशेषतः क्षपिता अपगता वलीविभङ्गा यस्य तथाभूतः सन्निरायतो दीर्घः । दुभयतोऽप्याकर्षण त्रिवलिव्यपगम इत्यर्थः ॥६६॥ होकर सर्वाङ्ग से भूमि पर गिरीं कारण व्यवधानवश उनका मध्य भाग सका तथा ( स्तन और जघन दोनों की ओर खिंच जाने से ) उसकी त्रिवली ( नाभि के ऊपर की तीन सिमिटनें ) मिट गयीं एवं वह दीर्घ हो गया ॥ ६ert विमला - यद्यपि सीता जी अधोमुखी तथापि स्तन और जघन के उन्नत होने के ( उदर प्रदेश ) पृथिवी का स्पर्श नहीं कर अथ चैतन्यसमकालमश्रुपातमाह सहसालोअ विराअं दप्रमुहे तम्मि साणुसअद ठव्वे | मोहं गतूण चिरं समअं वाहेण प्रागअं से हिश्रश्रम् ||७० || [ सहसालोकविशीर्णं दयितमुखे तस्मिन्सानुशयद्रष्टव्ये । मोहं गत्वा चिरं समं वाष्पेणागतमस्या हृदयम् ॥ ] अस्या हृदयं मनो बाष्पेणाश्रुणा सममागतमिति सहोक्तिः । द्वयमप्येकदाविर्भू - तमित्यर्थः । किंभूतम् । अनुशयः पश्चात्तापः तथा च सानुशयं द्रष्टव्ये वियोगेन रावणवधविलम्बेन च सक्रोधं द्रष्टव्यमित्यवधारिते तस्मिन् दयितस्य रामस्य मुखे सति यत्सहसा आलोको निकृत्तस्य तस्याकस्मिकदर्शनं तेन विशीर्ण व्यपगतम् अत एव चिरं मोहमप्रतिपत्तिदशां गत्वा समागतमिति संबन्धः । तथा च पुनर्ज्ञानं वृत्तमिति भावः ॥७०॥ विमला - ( रावणवध करने तथा दर्शन देने में विलम्ब करने के कारण ) राम के जिस मुख को क्रोध से देखने का निश्चय सीता जी ने किया था, उसी को सहसा कटा हुआ देखकर उनका हृदय ( चेतना ) चला गया, अतएव चिर मोह प्राप्त होकर आँसू के साथ ही पुनः आ गया ||७०॥ अथ शिरोदर्शनाय व्यापारमाह तो कह विलद्धसण्णा वाहवग्गिश्रकवोल संदट्ठम् । मग्गइ संगोवे अलअं तीअ विहलो ण पावइ हत्थो || ७१ ॥ [ ततः कथमपि लब्धसंज्ञा बाष्पाक्रान्तकपोलतलसंदष्टम् । मार्गति संगोपयितुमलकं तस्या विह्वलो न प्राप्नोति हस्तः ॥ ] ततो मनः समागमोत्तरं कथमपि लब्धसंज्ञा प्राप्तचैतन्या सा बाष्पेणाक्रान्तयोः कपोलतलयोः संदष्टमश्रुसम्बन्धाल्लग्नमलकं संगोपयितुं संगमयितुं मार्गति व्यापारं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४७१ करोति । किंतु तस्या विह्वलो विपर्यस्तो हस्तो न प्राप्नोति । रामशिरोदर्शनाय दृष्टिव्यवधायकालकसंयमनाय व्यापारितोऽपि हस्तः शोकवशादस्वायत्त्यालकपर्यन्तमपि नोत्तिष्ठतीत्यर्थः ।।७१॥ विमला-किसी तरह संज्ञा प्राप्त करने पर सीता जी ने अश्रु से आर्द्र कपोलों पर बिखरी हुई ( अतएव राम के सिर को देखने में बाधक ) अलक को सुलझाने एवं व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया, किन्तु ( शोकवश अस्वाधीन) उनका हाथ अलक तक उठ ही नहीं सका ॥७१।। अथ सीताया विहस्ततामाह आवेअसमक्खित्तं तो से खेआगमोसिमन्तावत्तम् । पडिअंणिअउच्छङ्ग अप्पत्तं चिअ पोहरे करजु अलम् ॥७२॥ [ आवेगसमुत्क्षिप्तं ततोऽस्याः खेदागमावसीददपवृत्तम् । पतितं निजोत्सङ्गेऽप्राप्तमेव पयोधरौ करयुगलम् ॥] ततोऽलकासंवरणानन्तरमस्या: करयुगलमावेगेनोद्वेगेन' समुत्क्षिप्तमुत्थापितं सत् पयोधरौ अप्राप्तमेव । अस्पृष्टस्तनमेवेत्यर्थः । निजोत्सङ्गे क्रोड एव पतितम् । कुतस्तदाह-खेदागमेनावसीदत्पीडया विह्वलम्, अत एवापवृत्तं स्खलितम् । स्तनतटं ताडयितुमभीप्सोरपि तस्याः खेदावसन्नतया करयुगं तावदूरमपि न गतम् । किन्तु क्वचिदन्यत्रैव स्खलित्वा पतितमित्यर्थः ।।७२।।। विमला सीता जी ने उद्वेगवशात् छाती पीटने के लिये दोनों हाथों को उठाया किन्तु वे पीडा से विह्वल होने के कारण पयोधर (छाती ) तक (भी) न पहुँच सके, बीच में ही लड़खड़ा कर गिर गये ॥७२।। अथ कटाक्षेण शिरोदर्शनमाह मूढहिअाइ दटुं अचअन्ती समुहं कह वि रामसिरम् । तंसोणमन्तणोसहवअणच्छन्दवलिआलाइ पृलइअम् ॥७३॥ [ मूढहृदयया द्रष्टुमशक्नुवत्या संमुखं कथमपि रामशिरः । तिर्यगवनमन्निःसहवदनच्छन्दवलितालकया प्रलोकितम् ॥] मूढहृदयया तया रामशिरः संमुखं द्रष्टुमपारयन्त्या सत्या कथमपि कष्टेन प्रलोकितं दृष्टम् । दर्शनप्रकारमाह-किंभूतया । तिर्यग्विवृतं सद्भूमिष्ठस्य तस्य दर्शनसिद्धयर्थमवनमन्नम्रम्, अथ च निःसहं दौर्बल्येन हठाद्वयापारयितुमयोग्यं यद्वदनं तस्य छन्देन वशेन वलिता वक्रीभूता अलका यस्यास्तया। यथा यथा शिरोदर्शनाय मुखं तिर्यक्कृत्यावनतं क्रियते तथा तथा विकीर्णा अलका अपि तिर्यगवनमन्तीत्यर्थः । तथा च दर्शने सति छेदकालीनरामदुःखज्ञानादर्शने सति निजोत्कण्ठावशादित्युभयः Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] सेतुबन्धम् [ एकादश थापि कष्टमिति मध्यवृत्त्या कटाक्षेण दृष्टमिति भाव: । 'अभिप्रायवशी छन्दो' इत्यमरः ॥ ७३ ॥ विमला - मूढहृदय सीता सामने राम का सिर यद्यपि देख नहीं सकती थीं तथापि उसे देखने के लिये मुखमण्डल को घुमाकर उन्होंने नीचे किया, जिससे अलकें भी तिरछी और अवनत हो गयीं एवं किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से उसे देखा || ७३|| अथ वक्षस्तानसहितं परिदेवन माह - परिदेविउ उत्ता गिअअसरीरपडिमुक्कराहवदुक्खम् । करमग्गुट्ठिअसोणिअविवरण उष्ण अपनोहरा जणअसुश्रा ||७४ || [ परिदेवितुं प्रवृत्ता निजकशरीरप्रतिमुक्तराघवदुःखम् । करमार्गोत्थितशोणितविवर्णोन्नतपयोधरा जनकसुता ॥ ] रामशिरोदर्शनानन्तरं जनकसुता परिदेवितुं विलपितुं प्रवृत्ता । निजकशरीरे प्रतिमुक्तं करप्रहारादिना संक्रमितं राघवदुःखं यत्रेति क्रियाविशेषणम् । किंभूता । करमार्गेण प्रहारद्वारा कररूपेण वत्र्त्मना । यद्वा - करप्रहारस्थानेनोत्थितं तेन विवण श्यामताम्रीकृतौ पयोधरौ यस्या इति मार्दवमुक्तम् ।। ७४ ।। विमला - राम के सिर को देखती हुई सीता ने विलाप करना प्रारम्भ कर दिया तथा राघव के दुःख को अपने शरीर में सङ्क्रान्त करती हुई हाथ से छाती को पीट-पीट कर उत्थित रक्त से पयोधरों को विवर्ण श्याम एवं लाल ) कर दिया ||७४ | अथ दशभिः स्कन्धकैः परिदेवनवाक्यमाह आवाअभअरं चित्र ग होइ दुक्खस्स दारुणं णिव्वहणम् । जं महिलावोहत्थं दिट्ठ सहिअं च तुह मए अवसाणम् ॥७५॥ [ आपातभयंकरमेव न भवति दुःखस्य दारुणं निर्वहणम् । यन्महिलाबीभत्सं दृष्टं सोढं च तव मयावसानम् ॥ ] आपात उपक्रम एव भयंकरम् । दुःखमित्यर्थात् । यद्वा -- षष्ठीनिर्देशाद्दुःखस्यापातभयंकरत्वमेव । निर्वहणं तु पर्यवसानं तु दारुणं न भवतीति विज्ञायते । यद्धेतोर्मंहिलानां बीभत्सं स्त्रीणां निन्दाकरं तवावसानं मरणं मया दृष्टम्, अपि तु सोढं च । मरणरूपतदनुरूप व्यापाराभावात् । तथा च -- एतस्य दर्शनमेवायोग्यम् । सहनं तु दूर एवेत्यहमारम्भे मूच्छिता परम्, न तु पर्यवसाने मृतेत्येकस्या मम निन्दया मत्सजातीयानां सर्वासामेव महिलानां मत्कृत्या निन्दाभूदिति भावः ॥ ७५ ॥ विमला - सीता जी ने विलाप के समय कहा- ऐसा मालूम होता है कि - Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४७३ दुःख आरम्भ में ही भयंकर होता है, उसका अन्त दारुण नहीं होता; क्योंकि (जिसका सहना तो दूर रहे, देखना भी उचित नहीं ) मैंने तुम्हारा अन्त देखा ही नहीं सहा भी, ( मैं आरम्भ में मूच्छित हुई किन्तु अन्त में मरी नहीं) मेरी वजह से स्त्रीजाति की निन्दा हुई ॥७५।। वाहुलं तुज्झ उरे जं मोच्छिहिमि ति संठि मह हिआए। घरणिग्गमणपअत्तं साहसु तं कम्मि णिव्वविज्जउ दुक्खम् ॥७६॥ [ बाष्पोष्णं तवोरसि यन्मोक्ष्यामीति संस्थितं मम हृदये। गृहनिर्गमनप्रवृत्तं शाधि तत्कस्मिन्निर्वाप्यतां दुःखम् ॥] गृहनिर्गमनात्प्रभृति प्रवृत्तं बाष्पेणोष्णम्, उष्णबाष्प वा दुःखं तवोरसि मोक्ष्यामि त्वामुपलभ्य रावणवधे सति त्वयि निवेद्य वा शमयितव्यमिति यन्मम हृदये संस्थितमवधारितम्, तच्छाधि कथय कस्मिन्निर्वाप्यतां कस्य द्वारा शान्ति नीयताम् । त्वय्यपगते स्थानाभावादिति संप्रदायः । मम तु व्याख्या-गृहनिर्गमनप्रवृत्तं दुःखं बाष्पेणोष्णं सत्तवोरसि मोक्ष्यामि तवोरसि रुदित्वा त्यक्ष्यामि रोदनेनैव तज्ज्ञापनात् । अन्यत्समानम । शोकजत्वेन बाष्पस्योष्णतया दुःखस्याप्युष्णत्वमिति मन्तव्यम् ॥७६।। विमला-मैं ( सीता ) ने सोचा था कि घर छूटने के समय से प्रारम्भ हुये शोकाश्रु से उष्ण दुःख को रावणवधोपरान्त आप के मिलने पर आप के हृदय पर रोकर शान्त करूंगी, किन्तु अब कहिये, आप के न रह जाने से उस दुःख को किसके द्वारा शान्त करूं ॥७६॥ विरहम्मि तुज्झ धरिअंदच्छामि तुमं त्ति जीविअं कह वि मए । तं एस मए दिठो फलिमा वि मणोरहा ण पूरेन्ति गहम् ।।७७॥ [विरहे तव धृतं द्रक्ष्यामि त्वामिति जीवितं कथमपि मया। तदेव मया दृष्टः फलिता अपि मनोरथा न पूर्यन्ते मम ॥ ] त्वां कदाचिदपि द्रक्ष्यामीति प्रत्याशया तव विरहे मया कथमपि जीवितं धृतम् । तदेष मृतस्त्वं दृष्टोऽसि । अतः फलिता अपि मनोरथा मम म पूर्यन्ते । त्वदर्शनं जातमिति फलिताः, मृतो दृष्टोऽसीति न पूर्यन्ते । संभाषणाद्यभावादिति भावः । यद्वा-'न पूरयन्ति महम्' दृष्टोऽसीति फलिता अपि महमुत्सवं न पूरयन्ति । मरणदर्शनादिति भावः ।।७७।। विमला-आप ( राम ) का दर्शन निकट भविष्य में होगा, इस आशा से मैं किसी तरह जीती रही; किन्तु आप का दर्शन' हुआ भी तो इस ( मृत ) रूप में; अतः मनोरय फलित होते हुये भी पूरे नहीं हुये ॥७७॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] सेतुबन्धम् पुहवी होहि पई वहुपुरिसविसेसचञ्चला राजसिरी । कह ता महं चित्र इस णीसामण्णं उग्रस्थिअं वेहव्वम् ॥७८॥ [ पृथिव्या भविष्यति पतिर्वहुपुरुषविशेषचश्चला राजश्रीः । कथं तावन्ममैवेदं निःसामान्यमुपस्थितं वैधव्यम् ॥ ] ! एकादश पृथिवी, तराजलक्ष्मीः, अहं च तव तिस्रः पत्न्य; तत्र त्वद्विगमे पृथिव्या: पतिभविष्यति । य एव राजा भवेत्स एव तस्याः पतिरित्याशयः । तया - बहुषु पुरुषविशेषेषु चञ्चला राजश्रीः, अतः सापि राज्ञो लक्ष्मीरिति पृथिव्यनुगामिनी राजानमेव यास्यति । तावदित्यवधारणे । ममैव कथं निःसामान्यमेतदुभयापेक्षयासाधारणमिदं वैधव्यमुपस्थितम् । तथा चासत्यौ ते भवत्पारोक्ष्यमेवेच्छतः । कुलस्त्रिया मम परं गतिरन्या नास्तीति मया मर्तव्यमेवेति भावः ॥ ७८ ॥ विमला - ( आप की तीन पत्नियों में से ) पृथिवी का ( जो राजा होगा वही ) पति होगा, राजलक्ष्मी भी बहुत से पुरुषविशेषों के प्रति चञ्चल है-वह भी ( पृथिवी के साथ ही ) पति को प्राप्त करेगी, अतः केवल मुझे ही यह असामान्य वैधव्य दुःख कैसे उपस्थित हुआ - मेरी तो आप के अतिरिक्त कोई शरण नहीं ||७८ || कि एअ ति पलत्तं विसउम्मिल्लेहि लोअणेहि श्र बिट्ठम् । विअलिअलज्जाइ मए होइ फुड गाड़ तुह मुहं ति परुष्णम् ॥७६॥ [ किमेतदिति प्रलपितं विषमोन्मीलिताभ्यां लोचनाभ्यां च दृष्टम् । विगलितज्जया मया भवति स्फुटं नाथ तव मुखमिति प्ररुदितम् || ] दूरादेव शिरोदर्शनानन्तरं मया किमेतदिति प्रलपितमनर्थकमुक्तम्, विशिष्य ज्ञानाभावात् । अथ संनिधानाच्छिर इति निर्णीते भवदीयत्वशङ्कया विषमं यथा स्यादेवमुन्मीलिताभ्याम् । यद्वा -- जिज्ञासावशाद्विशदमुन्मीलिताभ्यां विकासिभ्यां लोचनाभ्यां दृष्टम् । एतत्संभवेदपि । हे नाथ ! संप्रति विशेषदर्शनात् स्फुटं तव मुखं भवतीति ज्ञाने विगलितलज्जया मया प्ररुदितम् । यद्वा -- स्फुटं तव मुखमिति ज्ञाते निर्लज्जया मया प्ररुदितं भवतीत्यन्वयः । तथा च-- निर्णयानन्तरमपि यन्न मृतमिदं न संभवतीति निर्लज्जत्वमिति भावः ॥७६|| विमला - ( दूर से ही सिर को देख कर ) ' यह क्या है' – ऐसा प्रलाप मैं ( सीता ) ने किया, ( कुछ निकट आने पर यह ज्ञात हुआ कि सिर है, अतः जिज्ञासा से ) मैंने नेत्र खोल कर देखा । हे नाथ ! अब भलीभाँति देख कर, यह स्पष्टतः आप का सिर है' - ऐसा ज्ञात होने पर ( मैं मरी नहीं ) निर्लज्ज रो रही हूँ ॥७६॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४७५ रूहिओ तुज्झ विओओ रगिरिहि समअं सही हि व वत्थम् । दटुं तुमं ति होतं जइ एत्ता हे वि जीविअं विअलन्तम् ||८०|| [ सोढस्तव वियोगो रजनीचरीभिः समकं सखीभिरिव व्युषितम् । द्रष्टुं त्वामिति भवद्यदीदानीमपि जीवितं विगलत् ॥ ] तव विश्लेष: सोढः, तथा च प्रथमं तदेवाशक्यम् । तदुपरि यथा सखीभिः सह स्थीयते तथा रजनीचरीभिः समं व्युषितमिति ततोऽप्यशक्यमित्येतद्द्वयं त्वां द्रष्टुं कृतमिति तदा भवदभविष्यत् । लृङर्थे शतृ वक्तव्य: । यदीदानीमपि त्वद्विपर्य यज्ञानानन्तरमपि जीवितं विगलद्वयगलिष्यत् । तथा च तदानीमेव मया मृतं स्यात्, तथा सति भवद्दर्शनं न भविष्यतीति न मृतमिति वक्तुं तदा शक्येत यदि संप्रति त्वद्दर्शनसंभावनाविरहे म्रियेत, न चेत्तत्संपद्यते । तदा केवलं प्राणरक्षायै तत्कृतमिति पर्यवसन्नमिति भावः ||८०|| विमला - यदि अब भी मैं ( सीता ) मर जाती तो यह होता कि आप ( राम ) के दर्शन के लिये ही मैं ( सीता ) ने आप के वियोग को सहा, निशाचरियों को सखी मान कर उनके साथ रही ( अन्यथा उसी समय मर गयी होती ||८०|| जाए परलोअगए तुमम्मि ववसाअमत्तसुहृदट्ठब्वे । हरिसछाणे वि महं डज्झइ अद्दिट्ठदहमुहवहं हिअअन ॥८१॥ [ जाते परलोकगते त्वयि व्यवसायमात्रसुखद्रष्टव्ये । हर्षस्थानेऽपि मम दह्यतेऽदृष्टदशमुखवधं हृदयम् ॥ ] परलोकगते त्वयि व्यवसायमात्रेणानुमरणादिना सुखद्रष्टव्ये जाते सति हर्षस्थानेऽपि भवद्दर्शने संप्रति ममापत्तिर्जातत्यानन्दस्थानेऽपि न दृष्टो दशमुखवधो येन तथाभूतं मम हृदयं दह्यते भवदपकर्ता हतो न दृष्ट इत्येव परं विषादबीजमिति वीरपत्नीत्वमुक्तम् ॥ ८१ ॥ विमला- आपके परलोकगामी होने पर मैं मरकर वहाँ आप के दर्शन का सुख प्राप्त करू, इसमें भी प्रसन्नता के स्थान पर हृदय को विषाद हो रहा है; क्योंकि उसने अभी रावण का वध नहीं देखा ॥ ८१ ॥ वाहं ण धरे मुहं प्रासाबन्धो वि मे ण रुम्भइ हिमअम् । वरि न चिन्तिज्जन्ते ण विणज्जइ केण जोविअं संरुद्धम् ॥८२॥ [ बाष्पं न धारयति मुखमाशाबन्धोऽपि मे न रुणद्धि हृदयम् । अनन्तरं च चिन्त्यमाने न विज्ञायते केन जीवितं संरुद्धम् ॥ ] मम मुखं कर्तृळे बाष्पं न धारयति न प्रतिबध्नाति नित्यं प्रवहद्रूपत्वात् । एवम्— नाशाबन्धोऽपि रामदर्शन मनोरथोऽपि हृदयं न रुणद्धि न संकोचयति नित्यमुप Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६] सेतुबन्धम् [एकादश चीयमानत्वात् । यद्वा--संप्रति पुनदर्शनशङ्काविरहेण स्वस्माद्वहिर्भवदपि मनो न स्वास्पदीकरोति । अनन्तरं चिन्त्यमाने विचार्यमाणे सति न विज्ञायते जीवितं केन संरुद्धम् । तथा च बाष्पहृदयजीवितानाभ्यन्तरमेकमेव स्थानं तत्र तदुभयोरव. रोधः केनापि न क्रियते जीवितस्यैव परं क्रियत इति विधिना किमपरं दर्शनीयास्मीति भावः। केचित्तु--मुखं बाष्पं न धारयति । अश्रु विनैव रोदनम् । रामदर्शनप्रत्याशापि नास्तीत्युभयं मरणलक्षणम् ; तथापि यत्र म्रिये तन्न जानामि जीवितं केन रुद्धमित्यर्थमाहुः ।।८२॥ विमला-मुख आँसुओं को नहीं रोक रहा है, राम के पुनर्दर्शन की आशा हृदय को नहीं रोक रही है, पता नहीं मेरे जीवन को कौन' ( जाने से ) रोके हुए है ।। ८२ ॥ वोलीणो मअरहरी मज्झ कएण मरणं पिदे पडिवण्णाम् । णिवढं णाह तुमे अज्ज वि धरइ अकअण्णअ मह हिअअम् ॥५३॥ [ व्यतिक्रान्तो मकरगहो मम कृतेन मरणमपि ते प्रतिपन्नम् । निव्यूढं नाथ त्वयाद्यापि ध्रियतेऽकृतज्ञं मम हृदयम् ॥] ते त्वया मम कृतेन कारणेन मकरगृहः समुद्रो व्यतिक्रान्तो लचितः। किमपरम् । मरणमपि प्रतिपन्नं स्वीकृतम् । हे नाथ ! अतस्त्वया नियूं ढं निस्तीर्णमद्यापीदशत्वद्वयापारोत्तरमपि मम हृदयमकृतज्ञं यतः, ततो ध्रियते तिष्ठति । स्थातुं न युक्तमित्यर्थः । 'धृङ् अवस्थाने' धातुः । तथा च-अतः परमस्यानुमर्तुमुचितम्, तत्र करोति चेत्तदा यत्त्वया कृतम्, तत्र जानातीत्यकृतज्ञत्व मिति भावः ॥८३॥ विमला-मेरे ही लिये आप ने समुद्र लांघा। इतना ही नहीं, आप ने अपना मरना भी स्वीकार किया । इस प्रकार आपने अपने कर्तव्य-पालन से अपना तो निस्तार कर लिया, किन्तु आपके इतना त्याग करने पर भी मेरा अकृतज्ञ हृदय रुका हुआ है ।। ८३॥ उग्गाहिइ राम तुमं गुणे गणेऊण पुरिसमइओ त्ति जणो। गलिधमहिलासहावं संभरिऊण अममं णिअत्तिहिइ कहम् ॥८४॥ [ उद्गास्यति राम त्वां गुणान्गणयित्वा पौरुषमय इति जनः । गलितमहिलास्वभावां संस्मृत्य च मां निवर्तयिष्यति कथाम् ।।] हे राम ! जनस्ते गुणाञ्शौर्यादीन्गणयित्वा त्वां पौरुषमय इति कृत्वोद्गास्यति स्तोष्यति । उद्गाहयिष्यत्युदाहरिष्यतीति वा । तत्रैव गलितो महिलायाः स्वभावः पत्यनुमरणादिर्यस्यास्तथाविधां मां संस्मृत्य कथामेव निवर्तयिष्यति। समासच्चरि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः 1 रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४७७ ताया नामापि न ग्राह्यमिति त्यक्ष्यतीत्यर्थः । यद्वा - कथां निवर्तयिष्यति सत्पुरुषेषु त्वाम् असच्चरितासु मामुदाहृत्य कथां संपादयिष्यतीत्यर्थः । 'महं' इति पाठे मम गलितं महिलास्वभावं संस्मृत्येत्यन्वयः || ८४ ॥ " विमला - राम ! लोग तुम्हारे ( शौर्यादि ) गुणों का आदर कर एवं तुम्हें पौरुषमय मानकर तुम्हारी स्तुति ( प्रशंसा ) करेंगे और आप के मरने पर मेरा जो मरण नहीं हुआ, अतः मुझ असच्चरित्रा को याद कर ( नाम लेने योग्य भी न समझकर ) मेरी चर्चा करना छोड़ देंगे ॥ ८४ ॥ तुह वाणुक्ख अणिहमं दच्छिम्मि दहकण्ठमुहणिहाअंति कआ । मह भामधे अवलिया विवराहुत्ता मणोरहा पल्हत्या ॥८५॥ [ तव बाणोत्खातनिहतं द्रक्ष्यामि दशकण्ठमुखनिघातमिति कृताः । मम भागधेयवलिता विपराङ्मुखा मनोरथाः पर्यस्ताः ॥ ] तत बाणेनोत्खातमुत्खण्डितमत एवं निहतं निपातितं दशकण्ठस्य मुखनिघातं द्रक्ष्यामीति कृता मम मनोरथा भागधेयेन दुरदृष्टेन वलिताः प्रतिहताः । अत एव विपराङ्मुखा विपरीताः सन्तः पर्यस्ता विशीर्णाः । रामशरलूनं रावणशिरो द्रष्टव्यमेव रूपतायां रावणशरलूनं रामशिरो दृष्टमतो वैपरीत्यमिति भावः ॥८५॥ विमला - आप ( राम ) के द्वारा उत्खण्डित एवं निपातित रावण के सिरों को देखूंगी, यह मनोरथ जो मैंने किया था, विपरीत ( आप का हो रावण के द्वारा मरण होने से ) परिवर्तित हो गया एवम् उसे दुर्दैव ने पूरा नहीं होने दिया ।। ८५ ।। जं तणु अम्मि वि विरहे पेमाबन्धेण सङ्कइ जणस्स जणो । पेच्छन्तीए प्र तारिसं मज्झ फलम् ॥ ८६ ॥ प्रेमाबन्धेन शङ्कते जनस्य जनः । पश्यन्त्याश्च तादृशं मम फलम् ॥ ] तं जाअं णवर इमं [ यत्तनुकेऽपि विरहे तज्जातं केवलमिदं जनोऽल्पेऽपि विरहे प्रेमाबन्धेन स्नेहवशेन जनस्य यच्छङ्कते तत्तादृशं फलमिदं शिरः पश्यन्त्याः केवलं ममैव जातम् । तथा च विश्लेषेणादर्शनाज्जनो जनस्य मरणमाशङ्कते तदा शङ्कामात्रं मम । लून शिरोदर्शनेन प्रत्यक्षमेव तज्जातमिति भावः ||८६ ॥ विमला - लोग तनिक भी विरह होने पर स्नेहवश अपने प्रिय के मरण की शङ्का कर बैठते हैं, किन्तु उनकी शङ्का केवल शङ्का ही रहती है और वही शङ्का आप के सिर को देखती हुई केवल मुझे फलित हुई ।। ८६ ।। अथ सीतां प्रति समाश्वासनपरं त्रिजटावाक्यं प्रस्तौति तो विलविश्रणिष्कन्दं गलन्तहिश्रअपरिसुण्गलो जण अलम् । महुरं आसासन्ती हत्थुष्णामिअमुही भणइ णं तिजडा ॥ ८७॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८] सेतुबन्धम् [ एकादश [ततो विलपितनिःस्पन्दां गलद्धृदयपरिशुन्यलोचनयुगलाम् । __ मधुरमाश्वासयन्ती हस्तोन्नामितमुखी भणत्येनां त्रिजटा॥] ततस्तत्परिदेवनोत्तरं हस्तेनोन्नामितं मुखं यथा । सीताया इत्यर्थात् । एवंभूता त्रिजटा मधुरं प्रियं यथा स्यादेवमाश्वासयन्ती सती एनां सीतां भणति । किभूताम् । विलपितेन निस्पन्दाम् । एवं स्थानाद्मश्यता हृदयेन परिशून्यं विषयाग्राहकं लोचनयुगलं यस्यास्ताम् ॥८७।। विमला-तदनन्तर विलाप करते रहने से निश्चल तथा हृदय के स्थानभ्रष्ट होने के कारण जड़ नेत्रों वाली सीता से त्रिजटा ने हाथ से उन (सीता) के मुख को ऊपर उठा कर आश्वस्त करती हुई ( वक्ष्यमाण) मधुर वचन कहा ।। ८७ ॥ अथ द्वादशभिस्त्रिजटावाक्यस्वरूपमाह प्रवरिगलिओ विसामो अखण्डिा मुद्धआ ण प्रेच्छइ पेम्मम् । मूढो जवइसहाओ तिमिराहि वि दिणअरस्स चिन्तेइ भअम ॥८॥ [ अपरिगलितो विषादोऽखण्डिता मुग्धता न प्रेक्षते प्रेम । मूढो युवतिस्वभावस्तिमिरादपि दिनकरस्य चिन्तयति भयम् ॥] अपरिगलितः पूर्णो विषादः, अक्षुण्णा मुग्धता, प्रेम च, त्रयमपि न प्रेक्षते । वस्तुविचारक्षमं न भवतीत्यर्थः । एतानि यथा, तथा युवतिस्वभावोऽपि मूढो न पश्यति । विचारक्षमो नेत्यर्थः । यतस्तिमिरादपि नाश्यान्नाशकस्यापि दिनकरस्य भयं चिन्तयति । तथा च विषादादिसत्त्वं विचारविरोधीति तच्चतुष्टयवती भवती तिमिरादिव रावणाद्दिनकरस्येव रामस्य भयं चिन्तयति शङ्कते । इदं तु शङ्कास्पदमपि नेति भावः । केचित्तु-पूर्वार्धं पूर्ववद्वयाख्याय विषादादिवस्तुत्रयस्वरूपो युवतिस्वभावो मूढोऽज्ञः। यतस्तिमिरादपि-इत्यादिव्याख्यानमाहुः । 'अवरिगणिओ' इति पाठे अपरिगणितः । 'अपण्डिआ' इति पाठे अपण्डिता प्रज्ञाशून्येत्यर्थः ।।८८। __विमला—पूर्ण विषाद, अखण्डित मुग्धता; प्रेम तथा युवती का मूढ स्वभाव ( इनमें से एक भी ) वस्तु स्थिति का विचार करने में समर्थ नहीं होता ( आप के पास तो ये चारो हैं ) इसी से आप ( वस्तुस्थिति न समझ पाने के कारण राम का मरण सच समझकर ) सूर्य को अन्धकार से भय होने की शङ्का कर रही हैं ।। ८८ ॥ तिहअणमूलाहारं विसढमहिन्दपडिमक्कवढरणधुरम् । जामन्ती कोस तुमं तुलेसि सेसपुरिसाणुमाणेण पइम् ॥८६॥ [ त्रिभुवनमूलाधारं विह्वलमहेन्द्रप्रतिमुक्तव्यूढरणधुरम् । जानती किमिति त्वं तुलयसि शेषपुरुषानुमानेन पतिम् ।। ] Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४७६ हे जानकि ! पति राममेतादृशं जानती त्वं शेषपुरुषाणां प्राकृतजनानामनुमानेन मनुष्यत्वादिसाधर्म्यण कि तुलयसि सदृशीकरोषि । कीदृशम् । त्रिभुवनानां मूलस्य कारणस्याधारमाश्रयम । कारणमित्यर्थः । तेन जगत्स्रष्टारम् । तथा हिरण्याक्षतः पराजयाद्विह्वलेन महेन्द्रेण प्रतिमुक्ता त्यक्ता अथ स्वयं विष्णुरूपेण व्यूढा धृता रणधुरा येन तम् । तथा च हिरण्याक्षवधात्त्रयीमार्गरक्षया स्थिति कर्तारमित्युत्पत्तिस्थितिहेतुतया प्रलयहेतुमपीति नारायणरूपोऽय मिति साधारणजनवत्कस्यापि वध्य इति मा बुध्यस्वेति भावः ॥८६॥ विमला-आप का पति, जो त्रिभुवन का मूलाधार (जगत्स्रष्टा) है तथा जिसने (हिरण्याक्ष से ) विह्वल इन्द्र के द्वारा रण का भार मुक्त किये जाने पर उसे अपने ऊपर लिया (हिरण्याक्ष का वध कर जगत् का रक्षक हुआ) उसकी तुलना सामान्य जन ( जो किसी से भी मारा जा सकता है) से क्यों करती हैं ? || ८६ ॥ अमिलिप्रसाअरसलिला अणहट्ठिअमहिहरा अणुव्वत्तमला। रामस्स छिण्णपडिअं कह पत्तिअसि धरणी धरेइ त्ति सिरम् ॥१०॥ [ अमिलितसागरसलिला अनघस्थितमहीधरानुवृत्ततला । रामस्य छिन्नपतितं कथं प्रत्येषि धरणी धारयतीति शिरः ॥] अमिलितानि न परस्परमेकीभूतानि सागराणां सलिलानि यत्र । एवम् अनघा अविशीर्णाः स्थिता महीधरा यत्र । तथा अनुद्वत्तमुपरि नागतं तलमधोभागो यस्यास्तथाभूता धरणी छिन्नं सत्पतितं रामशिरो धारयतीति कथं प्रत्येषि । तथा च यदि सत्यं रामशिरःपतनं स्यात्, तदा सागरमिलनादिरूपा प्रलयादस्योत्पातावस्था वा भवेदित्येतदभावादिदमप्यसत्यं मन्यस्वेति भावः । वयं तु यदि रामशिरःपतनं सत्यं स्यात्तदा त्वन्मातृत्वेन त्वमिव धरण्यपि व्याकुला भवेदिति सागरमिलनादिकं स्यात्, अतो मायेयमिति मत्वा सुस्था भवेति भावमुत्पश्यामः । रामस्य पतने तत्कार्यस्य त्रिभुवनस्य पतनं स्यादेवेति केचित् । तथा च रामजीवनमर्थापत्त्या निर्णीतमित्यवधेयम् ॥१०॥ विमला-पृथिवी के सागरों के जल मिलकर भी एक नहीं हुये,पर्वत भी अविशीर्ण ही स्थित है तथा पृथिवी का निचला भाग भी ऊपर नहीं हो गया ( पृथिवी उलट नहीं गयो ) तो आप कैसे विश्वास करती हैं कि राम के कटे एवं गिरे सिर को पृथिवी अपने ऊपर धारण किये है ॥ ९० ॥ मारुअमोडिअविडवं मिअङ्ककिरणपडिमासमाउलिअकमलम् । कह होइ रामवडने इस णिच्छाअं दसाणणवत्राणम् ॥६१।। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०] सेतुबन्धम् [एकादश [ मारुतमोटितविटपं मृगाङ्ककिरणप्रतिमर्षमुकुलितकमलम् । कथं भवति रामपतने इति निच्छायं दशाननगृहोद्यानम् ॥] रामपतने सति इत्यनेन प्रकारेण दशाननगृहोद्यानं कथं निच्छायं कान्तिशून्यं भवति । प्रकारमाह-कीदृशम् । मारुतेन मोटितं विटपं यत्र । एवं मृगाङ्ककिरणानां प्रतिमर्षात्संस्पर्शान्मकुलितं कमलं यत्र तथा। तथा च रामपतनं यदि सत्यं स्यात्, तदा मारुतेन शाखाभङ्गश्चन्द्रेण कमलसंकोचः कतु किं शक्येत । भवति च तथा । तज्जानीहि रामप्रतापो जागरूक इति भावः ॥११॥ विमला-यदि ( सचमुच ) राम का मरण हो गया है तो रावण का गृहोद्यान इस प्रकार कान्तिशून्य कैसे है ? उसके वृक्षों की शाखायें वायु के द्वारा भग्न हो गयी हैं तथा चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से कमल संकुचित हो गये हैं ॥१॥ मा रुससु पुससु वाहं उपऊहेऊण अंसपरिअत्तमहम् । संभरिम विरहदुक्खं रोत्तव्वं दे पुणो पइस्स वि अङ्क ॥१२॥ [ मा रोदीः प्रोञ्छ बाष्पमुपगूह्यांसपरिवृत्तमुखम् । संस्मृत्य विरहदुःखं रुदितव्यं ते पुनः पत्युरप्य३॥] त्वं मा रोदीः, बाष्पं प्रोञ्छ, स्वस्य पत्युर्वा असे परिवृत्तं तिर्यग्भूतं मुखं यत्र तद्यथा स्यादेवमुपगृह्यालिङ्गय । पतिमित्यर्थात् । विरहदुःखं च स्मृत्वा ते त्वया पुनरपि पत्युरङ्के रोदितव्यं विश्लेषदुःखानन्तरं मिलने बन्धवो बन्धुमालिङ्गय रुदन्तीति तत्रापि पुनर्मिलनं रोदनं च स्यादित्यस्थाने नामङ्गलमाचरेति भावः ।।६२॥ विमला-आप रोयें नहीं, आंसू पोंछ डालें। आपको ( निकट-भविष्य में) पति के कन्धे पर मुंह रखकर, उसका आलिङ्गन कर विरह के दुःख को याद कर पुनः भी रोना है ॥१२॥ अइरा अ दच्छिहि तुम तुह विरहोलुग्गपण्डुरं मुहच्छाग्रम् । गमरोससुहालोअं मोआरिअवाणिव्वुअं दासरहिम् ॥१३॥ [अचिराच्च द्रक्ष्यसि त्वं तव विरहावरुग्णपाण्डुरमुखच्छायम् । गतरोषसुखालोकमवतारितचापनिवृतं दाशरथिम् ॥] अचिराच्च त्वं दाशरथि द्रक्ष्यसि । कीदृशम् । तव विरहेणावरुग्णा दुर्बला अथ च पाण्डुरा मुखच्छाया यस्य तम् । एवं रावणवधेन गतरोषत्वात्सुखदृश्यम् । तथा कृतकार्यत्वादवतारितेन हस्तादपसारितेन चापेन निर्वृतं सुखितम् । व्यग्रताविरहादिति भावः ॥ ४॥ विमला-आप शीघ्र ( कतिपय दिनों में ) ही विरह से दुर्बल एवं पाण्डुर मुखकान्ति वाले, ( रावण का वध कर चुकने से ) रोषरहित, अतएव सुख से दर्शनीय, धनुष उतार देने से सुखित राम का दर्शन करेंगी ॥६३।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् पत्तिहि अमरिसभरिअं हरेण वि अपत्थणिज्जकण्ठच्छे अम् । फुट्टन्त जड़ होन्तं छिणं वि कअग्गहुग्गअं रामसिरम् ||१४|| [प्रतीह्यमर्षभरितं हरेणाप्यप्रार्थनीयकण्ठच्छेदम् । स्फुटयदि भवच्छिन्नमपि कचग्रहोद्गतं रामशिरः ॥ ] प्रह इदं यदि च्छिन्नमपि रामशिरो भवदभविष्यत्, तदा कचग्रहेणोद्गतमुत्थापितं सत् स्फुटदस्फुटिष्यत् । तिरस्कृतत्वादिति भावः । कीदृक् । अमर्षेण भृतं पूर्णम् । यतोऽन्यदन्तः पूर्णं स्फुटत्येवेति ध्वनिः । एवं रावणोपजीव्येन हरेणाप्यप्रार्थनीयो वक्तुमप्यशक्यः कण्ठच्छेदो यस्य तम् । अतोऽप्यलीकमिदमिति भावः । लृङर्थे शतृ प्रत्ययः । 'प्रार्थितः शत्रुसंसद्धे याचितेऽभिहितेऽपि च ' ॥६४॥ विमला- - आप विश्वास करें, यदि यह राम का सिर होता तो कट जाने पर भी जिस समय ( राक्षसों के द्वारा ) केश पकड़ कर उठाया गया है तुरन्त ( तिरस्कारवश ) भ्रमर्ष से भर उठता और तत्परिणामस्वरूप फट जाता । ( यह राम का सिर नहीं है ) उसे कण्ठ से छिन्न करने की बात तो ( रावण के सेव्य ) शङ्कर जी भी नहीं कह सकते ( छिन्न करना तो बहुत दूर है ) ॥ ९४ ॥ मुज्झसि वहवअणदध्वभङ्गुष्कालम् । रामाणत्तिअरपव अआविद्धदुमम् ||१५|| पेच्छन्ती कि ति समाससिअ पमअवणं [ किमिति समाश्वसितव्ये मुह्यसि दशवदनदर्पभङ्गोत्फालम् । प्रमदवनं रामाज्ञप्तिकरप्लवगाविद्धद्रुमम् ॥ ] पश्यन्ती दशवदनस्य यो दर्पंभङ्गस्तदुत्कालं तत्सूचकं प्रमदवनं पश्यन्ती त्वं समाश्वसितव्ये हर्षस्थाने किमिति मुह्यसि रामशिरः शङ्कित्वा विषीदसि । दर्पभङ्गसूचकतामाह -- रामाज्ञप्तिकरेण हनूमता आविद्धाः पातिता द्रुमा यत्र तत् । तथा च तदानीमेकेनैव प्लवगेन वाटिकाभङ्गलङ्कादाहाक्षमारणादिशूरकर्म निष्प्रत्यूहमाचरितम्, इदानीं तादृशकोटिकोटिप्लवगसमेतयो रामलक्ष्मणयोः का वार्तेति भावः ।। ६५।० [ ४८१ विमला - आप ( इस ) प्रमदवन को देख रही हैं, जिसके वृक्षों को राम के आज्ञापालक हनुमान् ने गिरा दिया है। यह ( प्रमदवन ) ही रावण के दर्पभङ्ग की सूचना दे रहा है तथापि आप हर्ष के स्थान पर ( इस सिर को राम का समझ कर ) क्यों विषाद करती हैं ? ||५|| हि उक्ख असुरलोअ दरिअणिसाअरणिहा अपल्हत्थन्तम् । 3 कह तेण खणं वि विना धरेद्द जस्स भुअणं भुअवव ट्ठम्भम् ॥६६॥ [ निहतोत्खातसुरलोकं दृप्तनिशाचर निघातपर्यस्यमानम् । कथं तेन क्षणमपि विना ध्रियते यस्य भुवनं भुजव्यवष्टम्भम् ॥ ] ३१ से० ब० Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] सेतुबन्धम् [ एकादश भुजो व्यवष्टम्भ आश्रयो यस्य तद्भुजव्यवष्टम्भम् । तथा च निहतः सन्नुत्खातः स्थानान्तरं प्रापितः सुरलोको यत्र तत् । एवं दप्तेन निशाचराणां निघातेन पर्यस्यमानं व्याकुली क्रियमाणं भुवनं विन श्वरमपि यस्य भुजव्यवष्टम्भम् । यद्भुजावाश्रित्य विद्यमानम् । तेन रामेण विना क्षणमपि कथं ध्रियते तिष्ठति । नद्याश्रये भग्ने सत्याश्रितं तिष्ठतीत्यर्थापत्त्यापि ज्ञायते रामो जीवतीति भावः ॥ ६६ ।। विमला-(यह ) भुवन भी जहाँ सुरों को निहत कर अन्य स्थान को भेज दिया गया है और जो दृप्त निशाचरों के द्वारा व्याकुल किया जा रहा है, जिस (राम ) की भुजाओं के सहारे से विद्यमान है, उस राम के विना यह ( भुवन ) क्षण भर भी कैसे रुका रहता ? ॥६६॥ तह त सि गा मोहं मुच्छागअपडिअणीसहविसण्णङ्गी। रक्ख समाएति फुड जाणन्ती जइ इमं अहं वि विसण्णा ॥७॥ [ तथा त्वमसि गता मोहं मूर्ध्वागतपतितनिःसहविषण्णाङ्गी। राक्षसमायेति स्फुटं जानती यथेयमहमपि विषण्णा ॥] हे सीते ! मूर्छाप्राप्तम् अत एव पतितं सन्निःसहं निश्चेष्टं विषण्णमवसत्रं [ 'निसण्णाङ्गी' इति पाठे निषण्णम् ] अङ्गं यस्यास्तादशी त्वं तथानिर्वचनीयं मोहं गतासि, यथा इयं राक्षसमाया न तु शिर इति स्फुटं जानती अहमपि विषण्णा । शिरोदर्शनेन मम विषादो नाभूत्, किं तु त्वद्विषादेन' सत्यमेवैतत्स्यादिति भ्रान्त्या विषादो जात इति भावः ॥१७॥ विमला-आपका अङ्ग मूर्छा को प्राप्त, अतएव पतित एवं निश्चेष्ट हो गया और आप ऐसे मोह को प्राप्त हो गयीं कि जिससे मैं 'यह राक्षसों की माया है'—ऐसा स्पष्ट जानती हुई भी ( आपके विषाद को देखकर इसे सत्य समझ ) विषादाभिभूत हो गयी ।। ६७ ॥ मिलिअणिसाअरपुरमो सुवेल मल अन्तरालणिम्मविप्रवहे। पेल्लिअतिऊडसिहरे अज्ज वि किं तुज्झ राहवे अग्गहणम् ॥१८॥ [मिलितनिशाचरपुरतः सुवेलमलयान्तरालनिर्मापितपथे। प्रेरितत्रिकूटशिखरेऽद्यापि किं तव राघवेऽग्रहणम् ।।] मिलितानां विभीषणादीनां शत्रुसमागमादेकीभूतानामिन्द्रजित्प्रभृतीनां वा निशाचराणां पुरतः सुवेलमलययोरन्तराले निर्मितः सेतुपथो येन तथाभूते । तदनु प्रेरितान्यान्दोलितानि त्रिकूटस्य सुवेलस्य शिखराणि येन तादृशि राघवे । अद्यापि तद्वयापारप्रत्यक्षानन्तरमपि । यद्वा-निशाचरैरप्रतिरोधेऽपि । किं प्रश्ने विस्मये वा । तव । अग्रहणमनादरः। यत्तस्मिन्नप्येवं संभावयसीति भावः । ‘ग्रहणं त्रयमिच्छन्ति शानमादानमादरम्' ॥६॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८३ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् विमला-राम ने परस्पर संघटित निशाचरों के सामने ( उनके देखतेदेखते ) सुवेल और मलयगिरि के बीच सेतुपथ का निर्माण कर लिया, तत्पश्चात् सुवेल के शिखरों को आन्दोलित कर दिया तो अब भी उनमें आपका विश्वास क्यों नहीं होता ? ॥१८ मलिमा मल अणिप्रम्बा थले व्व चम्मि महोअहिसलिले । वुत्थं सुवेलसिह रे अज्ज वि किं तुज्ज राहवे अग्गहणम् ।।६।। [ मर्दिता मलयनितम्बा स्थल इव चङ्क्रमितं महोदधिसलिले । व्युषितं सुवेलशिखरेऽद्यापि किं तव राघवेऽग्रहणम् ॥] येन कपिद्वारा मलयनितंबा मर्दिताः, स्थले यथा संचारः क्रियते तथा महोदधिसलिलेऽपि कृतः । सेतुं कृत्वेत्यर्थात् । किमपरं सुवेलशिखरे व्युषितम् । अद्यापि किं तत्र राघवे तवाग्रहणम् । तथा च त्वमतिमूढा पुनरपि मैवं शकिष्ठा इति भाव: ॥६ विमला-राम ने ( वानरों के द्वारा ) मलय गिरि के नितम्बों ( उपत्यका भाग ) को मर्दित किया, ( सेतु की रचना कर ) सागर के सलिल पर उसी प्रकार वे चले जिस प्रकार स्थल पर चला जाता है और सुवेल के शिखर पर आकर टिके । अब भी आपको उनमें विश्वास क्यों नहीं होता ? ॥ ६६ ॥ अथ सीतायास्त्रिजटाहृदि पतनमाह तो अगहिरोवएसा गओणिअत्तन्तजीविअमहिज्जन्ती। तिअडान जणअतणमा सहिसब्भावसरिसं उरम्मिणिषण्णा ! १००। [ ततोऽगृहीतोपदेशा गतापनिवर्तमानजीवितमुह्यन्ती। त्रिजटाया जनकतनया सखीसद्भावसदृशमुरसि निषण्णा ॥] ततस्त्रजिटावचनोत्तरं जनकतनया सख्यां यः सद्भावः सौहार्दै तत्सदृशं तद्योग्यं यथा स्यादेवं त्रिजटाया उरसि निषण्णा। ईदृशविपत्ती य एवानुकूलं वक्ति तत्रवाङ्गसमर्पणं क्रियत इति भावः । किंभूता । अगृहीत इदमित्थमेवेत्यस्वीकृतास्त्रिजटाया उपदेशो यया। अत एव प्रथमं व्यतिरेकनिश्चयाद्गतेन पश्चात्रिजटावाचा संदेहादपनिवर्तमानेन परावृत्त्यागतेन जीवितेन मुह्यन्ती प्राणसंदेहे सति मोहोत्कर्षादिति भावः । केचित्तु पुनर्मोहात्पतन्ती तदुपरि निषण्णेति भावमाहुः ॥६६॥ विमला-त्रिजटा के समझाने के पश्चात् सीता का जीवन जो ( पहिले विपरीत निश्चय के कारण) चला गया था, पुनः लौट आया किन्तु उन्होंने त्रिजटा के उपदेश को ( विश्वास न होने के कारण) स्वीकार नहीं किया और वे मोह को प्राप्त होकर त्रिजटा के हृदय पर गिर पड़ीं ।। १०० ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] अथ तदवस्थायां सीताया रोदनमाह लोअणवइअरलग्गं तंसणिसण्णाश्र तोअ तिअडावच्छे | गलिअं कपोलपेल्लणपी डिज्जन्ताल उग्गअं वाहजलम् ॥ १०१ ॥ [ लोचनव्यतिकरलग्नं तिर्यङ्गनिषण्णायास्तस्यास्त्रिजटावक्षसि । गलितं कपोलप्रेरणपीड्यमानालकोद्गतं बाष्पजलम् ॥ ] त्रिजटाया वक्षसि तिर्यनिषण्णायास्तस्या बाष्पजलं लोचनयोर्व्यतिकरेण संपर्केण । लग्नं सत् । वक्षसीत्यर्थात् । गलितं त्रिजटावक्षसि सांमुख्येनैव पतितत्वाल्लोचनसंबन्धादश्रुसंबन्ध इति भाव: । किंभूतम् । कपोलेन यत्प्रेरणं तेन पीड्यमानालकेभ्य उद्गतं निःसृतं तिर्यनिषण्णत्वादश्रुणोरैक्यमिति भावः ॥ १०१ ॥ सेतुबन्धम् विमला — त्रिजटा के हृदय पर तिरछी स्थित सीता का आँसू नेत्रों के सम्पर्क से उस (त्रिजटा ) के हृदय में लगा और ( अश्रु से आर्द्र ) अलकें जब कपोल के सम्पर्क से पीड्यमान हुईं तब उनसे भी आँसू उसी स्थान पर गिरा ।। १०१ ।। पुनश्चैतन्ये सति जल्पनमाह तो जम्पिउ पत्ता पुणो वि अत्र्थक्कउट्ठि समूससिया । उरघोलिरबेणीम् हणल्लग्गुग्घुट्टमहिरमा जनमसुआ ।। १०२ ।। [ ततो जल्पितुं प्रवृत्ता पुनरप्यकस्मादुत्थितसमुच्छ्वसिता । उघूर्णनशील वेणीमुखस्तन लग्नोदृष्टमहीरजा जनकसुता ॥ ] ततोऽश्रुत्यागानन्तरं जनकसुता जल्पितुं प्रवृत्ता । अकस्मादुत्थितं समुच्छ्वसितं प्राणवायुर्यस्याः सा पुनरागतप्राणा सतीत्यर्थः । त्रिजटावक्षःस्थलादुत्थिता सती समुच्छ्वसिता कृतोच्छ्वासा इति वा । पुनः किंभूता । उरसि घूर्णमानेन वेणीमुखेनोद्धृष्टमुत्प्रोञ्छितं स्तनलग्नं महीरजो यस्याः ॥ १०२ ॥ विमला - सीता जी ने अकस्मात् ( त्रिजटा के वक्षःस्थल से ) उठ कर उच्छुबास किया और उनकी छाती पर हिलती-डुलती वेणी के अग्रभाग से उनके स्तन में लगी धूल पोंछ उठीं एवम् ( वक्ष्यमाण वचन ) कहने लगीं ॥। १०२ ॥ अथ चतुभिः पुनर्जल्पनस्वरूपमाह [ एकादश साहमुज चिचअ पढमं दट्ठण अहं इमं महिम्मि णिसण्णा । सचिव मोहमिल्ला पेच्छामि अ णं पुणो धरेमि अ जोअम् ॥१०३॥ [ शाधि यैव प्रथमं दृष्ट्वाहमिदं मह्यां निषण्णा । सैव मोहोन्मीलिता पश्यामि चैतत्पुनर्धारयामि च जीवम् ॥ ] हे त्रिजटे ! शाधि कथय । इदं रामशिरो दृष्ट्वा प्रथमं यैवाहं मह्यां निषण्णा मूच्छितास्मीत्यर्थः । संवाहं मोहे सत्युन्मीलिता पुनः प्राप्तचैतन्या सत्येतच्छिरः ab Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४८५ पश्यामि च जीवं धारयामि च । तत्कि यया रामशिरो दृष्टं सान्या, या च मूच्छिता साप्यन्या, इदानीमहमप्यन्येति । ईदृगवस्थं यथा रामशिरो दृष्टम्, सा जीवितुं न योग्येति धिङ्मां निष्ठुरहृदयां मा प्रथमत एव न मृतास्मीति भावः ।। १०३॥ विमला - त्रिजटे ! तू कह; जो मैं राम के सिर को देख कर पहिले मूच्छित हो पृथिवी पर गिर पड़ी, मोह के अनन्तर चैतन्य प्राप्त कर वही मैं पुन: इस सिर को देख रही हूँ और जी भी रही हूँ ( मुझ निष्ठुर हृदय को धिक्कार है जो पहिले ही न मर गयी ) ॥ १०३ ॥ सहिया रक्खसवसही विट्ठ तुह नाह एरिसं अवसाणम् । अज्ज विवअणिज्जहअं घूमाइ चिचत्र ण पज्जलइ मे हिअअम् ।। १०४॥ [ सोढा राक्षसवसतिर्दृष्टं तव नाथ ईदृशमवसानम् । अद्यापि वचनीयतं धूमायत एव न प्रज्वलति मे हृदयम् ॥ ] हे नाथ ! मयासह्यापि राक्षसवसतिस्त्वद्दर्शनप्रत्याशया सोढा । तत्रापि तवेदृशमयोग्यमवसानं च दृष्टम् । एतत्ततोऽप्यशक्यमिति भावः । अद्याप्येतद्दर्शनोत्तरमपि वचनीयेन वाच्यतया हतं मम हृदयं धूमायत एव संतापेन मोहान्धकाराविष्टं सदुःखमेवानुभवति, न तु प्रज्वलति । तथा च ज्वलनपूर्वकालीना धूमायमानावस्थेति ज्वलिष्यत्यवश्यम् । किं तु राक्षसवासागमनकाल एव ज्वलितुं योग्यमवसानदर्शनेऽपि न ज्वलतीति लोकानामपवादेन परास्तमित्यहमधन्येति भावः ॥ १०४ ॥ विमला- - नाथ ! मैंने ( आपके दर्शन की आशा से ) राक्षसों के बीच रहना सहा ( मरी नहीं ), उस पर भी आप का इस प्रकार का अन्त भी देखा, अब भो लोकापवाद से परास्त मेरा हृदय जल नहीं जाता, केवल सुलगता ही है ।। १०४ ।। पुरिससरिसं तुह इमं रक्खससरिसं कअं णिसारवणा । कह ता चिन्तिमसुलहं महिलासरिसं ण संपडइ मे मरणम् ॥ १०५ ॥ [ पुरुषसदृशं तवेदं राक्षससदृशं कृतं निशाचरपतिना । कथं तावच्चिन्तितसुलभं महिलासदृशं न संपद्यते मे मरणम् ॥ ] तव इदमवसानरूपं कर्म पुरुषाणां सदृशम् । पुंसा दारहरणे सति युद्धादिना तदुद्धारः कर्तव्यः, संमुखे वा मर्तव्यमिति योग्यमित्यर्थः । निशाचरपतिना च राक्षसानां सदृशं क्रूर कर्म कृतम्, चोरिकया ममापहरणं कृतम्, भवानपि हत्वा ममोपदर्शितः । तद्योग्यमेवेति कथं तावन्महिलानां सदृशं चिन्तितेनेच्छया सुलभं मे मरणं न संपद्यते भर्तुरनुमरणं स्त्रीभिः क्रियत इति तद्योग्यम् । तथा च यस्य यद्योग्यम्, तेन तत्कृतम् । मया तु न कृतमित्यहमविश्वसनीयेति भावः ॥ १०५ ॥ । विमला - ( आप ने जो मेरे उद्धार के लिये युद्ध में लड़ते हुये मरण स्वीकार Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] . सेतुबन्धम् [ एकादश किया) आप का यह कार्य पुरुष के योग्य ही है, रावण ने भी ( चोरी से जो मेरा अपहरण किया और आप को भी मार कर मुझे दिखाया ) राक्षसोचित कर्म किया तो महिलोचित चिन्तित सुलभ मेरा ही मरण कर्म क्यों नहीं सम्पन्न हो रहा है ( जिसके लिये जो योग्य था उसने वह किया किन्तु मैंने नहीं किया, अतः मैं निन्दनीय हूँ)॥ १०५ ।। पवणसुप्रसिट्ठरिअं इह एन्तस्स अवलम्बिउ मह जीअम् । विरहल हुअं वि राहव मए जिअन्तीम जीविरं तुज्झ हिअम् ॥१०६॥ [ पवनसुतशिष्टत्वरितमिहागच्छतोऽवलम्बितुं मम जीवम् । विरहलघुकमपि राघव मया जीवन्त्या जीवितं तव हृतम् ।।] सीता जीवतीति पवनसुतेन शिष्टे कथिते सति त्वरितं यथा भवत्येवं विरहेण लघुकमपि गत्वरमपि मम जीवमवलम्बितुरक्षितुमिहागच्छतस्तव जीवितं जीवन्त्या मया हुतम् । यदि विरहात्तदैवामरिष्यम्, तदा मृतवाहमिति ज्ञात्वा त्वमपि नागमिष्यः । तत्कथमिमामवस्थामासादयिष्य इति भावः ।।१०६॥ विमला-'सिता जी रही है'-ऐसा हनुमान के कहने पर आप, विरह से गतप्राय मेरे जीव को बचाने के लिये यहाँ आये किन्तु जी कर भी मैंने आप के जीवन का हरण किया-यदि पहिले ही मर गयी होती तो हनुमान् से मेरे मर जाने का समाचार पाकर आप भी न यहाँ आते और न इस दशा को प्राप्त होते ॥१०६॥ अथ पुनरस्या मोहमाहअलअन्धआरिअमुही समुहागअकण्ठभमिप्रवेणीबन्धा । मोहपडिवण्ण हिमश्रा वरजम्पिअणीसह पुणो वि गिसण्णा ॥१०७१ [ अलकान्धकारितमुखी संमुखागतकण्ठभ्रमितवेणीबन्धा। मोहप्रतिपन्नहृदया दरजल्पितनिःसहं पुनरपि निषण्णा ॥ अलकैविकीर्णतया श्यामत्वेनान्धकारीकृतं मुखं यस्याः, तथा संमुखागतः सन् कण्ठे भ्रमितो वेणीबन्धो यस्याः, इतस्ततः संचारात । सा सीता मोहेन' प्रतिपन्नमाक्रान्तं हृदयं यस्यास्तथा सती ईषज्जल्पितेनापि निःसहं कण्ठादिशोषादसामथ्य यथा तथा निषण्णा पुनरपि मह्यां निपतितेत्यर्थः । निःसंज्ञा वासीदित्यर्थः ॥१०७॥ विमला-थोड़ा भी बोलना सहय न होने के कारण सीता का हृदय मोहाक्रान्त हो गया और वे पृथिवी पर पुनः गिर गयीं। उनके मुख को ( बिखरी ) अलकों ने आच्छादित कर अन्धकारमय कर दिया एवं वेणी सामने आकर कण्ठ में संचरणशील हुई ।। १०७ ॥ भूमो पतनमेव स्फुटयति तो फुडिअवेणिबन्धणभङ्गग्गअविसमकेसपल्हत्थरणे । पडिआ रामोरत्थलसअणणिरासहिअआ महिअलच्छङ्ग ॥१०८।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४८७ [ततः स्फुटितवेणीबन्धनभङ्गोद्गतविषमकेशपर्यास्तरणे।। पतिता रामोरःस्थलशयननिराशहृदया महीतलोत्सङ्गे॥] ततः किंचिद्विलापानन्तरं रामस्योरःस्थले यच्छयनं तत्र निराशं हृदयं यस्यास्तथा सती सीता महीतलस्योत्सङ्गे पतिता । एवंविधविपत्तौ पुत्र्यो मातुः क्रोड एव पतन्तीति भावः । किंभूते । स्फुटितस्य शिथिलत्वात्स्थानभ्रष्टस्य वेण्या बन्धनस्य बन्धनपाशस्य भङ्गेनापगमेनोद्गताः प्रसृताः, अत एव विषमा व्यस्ता ये केशास्त एव पर्यास्तरणं यत्र तत्र । केशानां तृणादिवदास्तरणीभावेन बाहुल्यमुक्तम् ॥१०८॥ विमला-तदनन्तर सीता जी का हृदय राम के वक्षस्थल पर शयन के विषय में निराश हो गया, अतएव वे (सीता ) माता पृथिवी की गोद में जा गिरी, जहाँ वेणीबन्धन के शिथिल एवं छूट जाने से उनके बिखरे केशों ने ही बिछौने का काम किया ॥ १०७ ।। पुनरपि शिरोदर्शनानुकूलव्यापारमाहतीअ णवपल्लवेण व पहराअम्बविहलेण हत्थेण महम् । परिमज्जिण चइ एक्ककवोल मिलिआलअं कह वि कअम् ।।१०।। [ तया नवपल्लवेनेव प्रहाराताम्रविह्वलेन हस्तेन मुखम् । परिमाष्टुं न शकितमेककपोलमिलितालकं कथमपि कृतम् ॥] . नवपल्लवेनेव वक्षस: प्रहारादाताम्रण अत एव विह्वलेन मार्जनाद्यसमर्थन हस्तेन तया सीतया मुखं परिमाष्टुं न शकितम् । किंतु एकस्मिन्कपोले मिलिताः संवरणाद्वर्तु लीकृता अलका यत्र तादृशं कृतम् । तथा च मुखमार्जनाभावेऽपि मुखोपरि विकीर्णत्वेन शिरोदर्शनप्रतिबन्धकत्वादलकानां संवरणं क्रियमाणमेककपोल एव निष्पन्नं करस्य विह्वलत्वाद्दर्शनस्य तावताप्युपपत्तेः, अपरकपोले तु विकीर्णा एव ते स्थिता इत्यसामर्थ्य मुक्तम् ॥१०६॥ विमला-छाती पीटने से नव पल्लवसदृश लाल एवम् असमर्थ हाथ से सीता जी अपने मुंह को ( राम का सिर ठीक से देखने के लिये ) पोंछ न सकीं, केवल एक कपोल पर ही ( सिर देखने में बाधा डालने वाली बिखरी) अलकों को उन्होंने समेट लिया ( दूसरे कपोल पर की अलकों को हाथ के विह्वल होने के कारण ज्यों का त्यों रहने दिया, क्योंकि उतने से भी दर्शन का काम चल गया) ॥१०६ ॥ अथास्र मार्जनमाहसमुहमिलिअं वि जाहो रूअं वाहविहला ण गेहूइ विट्ठी। ताहे कह कह वि क उहअकरप्पुसिअलोअणं तीम महम् ॥१०॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] सेतुबन्धम् [ संमुखमिलितमपि यदा रूपं बाष्पविह्वला न गृह्णाति दृष्टिः । तदा कथं कथमपि कृतमुभयकरोत्प्रोच्छितलोचनं तस्या मुखम् ।। ] बाष्पैरश्रुभिर्विला छन्ना दृष्टि: । तस्था इत्यर्थात् । संमुखमिलितमपि रूपं घटादिस्वरूपं यदा न गृह्णाति न विषयीकरोति तदा तया सीतया मुखं कथं कथमपि वक्षः प्रहारजन्य वैकल्ये सत्यप्युभयकरेणोत्प्रोच्छिते माजितास्रुणी लोचने यत्र तथाभूतं कृतम् । शिरोदर्शनोत्कण्ठावशादिति भावः ।। ११० ।। विमला - सीता जी की दृष्टि आँसुओं से आच्छन्न होने से सम्मुख मिले हुए भी रूप को जब देख न पायी तब उन्होंने ( सिर देखने की उत्कण्ठा से ) लोचनों के आँसुओं को ( छाती पीटने से विकलता होने पर भी ) किसी-किसी तरह पोंछा ।। ११० ।। अथ पुनः शिरोदर्शन माह तो सा भमन्तमारुअविसमपइणाल उपसिअवाहजला । पेच्छ राहववग्रणं णिसाअरोच्छुण्णमहिअलपहोलन्तम् ॥ १११ ॥ [ ततः सा भ्रमन्मारुतविषम प्रकीर्णालकोत्प्रोच्छित बाष्पजला | प्रेक्षते राघववदनं निशाचरावक्षुण्ण महीतलप्रघूर्णमानम् ॥ ] ततोऽस्रु मार्जनानन्तरं सा राघववदनं पश्यति । कीदृशी । भ्रमता मारुतेन बाह्य ेन श्वासरूपेण वा विषमं प्रकीर्णेरितस्ततश्चालित रलकैरुत्प्रोच्छितानि मार्जितानि बाष्पजलानि यस्याः सा । वदनं कीदृक् । निशाचरैरवक्षुण्णं कृतं सन्महीतले प्रघूर्णमानं प्रलुठत् ॥ १११ ॥ विमला -- तदनन्तर उन ( सीता ) के ( रहे - सहे शेष ) आँसुओं को चञ्चल वायु से इधर-उधर डोलती अलकों ने पोंछ दिया और उन्होंने निशाचरों से मर्दित किया गया एवं भूतल पर लुढका हुआ राम का मुख देखा ।। १११ ।। [ एकादश अथ पुनरपि रोदनमाह लक्खिज्जन्त बिसाआ अब्भहिउम्मिल्लणिच्चलट्ठि अण प्रणा । रामसिरबद्धलक्खा धुव्वइ वाहेण से ण रुम्भइ दिट्ठी ॥ ११२ ॥ [ लक्ष्यमाणविषादाभ्यधिकोन्मीलन्निश्चलस्थितनयना - 1 रामशिरोबद्धलक्ष्या धाव्यते बाष्पेणास्या न रुध्यते दृष्टिः ॥ ] रामशिरसि रामशिरोरूपं वा बद्धमनुबद्धं लक्ष्यं यया तादृश्यस्या दृष्टिबष्पिण धाव्यते क्षाल्यते, न तु रुध्यते म्रियते । वाष्पस्याविश्रान्तपतनादालोकनाप्रतीघातादिति भावः । किंभूता । लक्ष्यमाणो विषादो यस्याम् । एवम् - अभ्यधिकमुन्मीलिते तत्त्वजिज्ञासा सम्यग्विस्तारिते । अथ च - विस्मयान्निश्चलस्थिते नयने गोलके यस्या: । दृष्टिरेकैव दर्शनं वा ॥ ११२ ॥ 1 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४८६ बिमला - राम के सिर पर लगी हुई सीता की दृष्टि में विषाद ( स्पष्ट ) दिखायी पड़ रहा था, उसकी दोनों पुतलियाँ अच्छी तरह विस्तृत तथा ( विस्मय से ) निश्चल थीं एवं वह ( दृष्टि ) आँसुओं के निरन्तर गिरते रहने से धुल गयी, ( आँसुओं से ) भरी नहीं ॥ ११२ ॥ अथ तस्या दैन्यमाह - तो तं वठूण पुणो मरणेककरसाद आउच्छसु मं ति कअं तिमडाग अलोअणाइ पुनर्भरणैकरसया वाहणी सारच्छम् । वीणविहसिअम् ॥ ११३ ॥ बाष्पनिःसाराक्षम् । [ ततस्तद्दृष्ट्वा आपृच्छस्व मामिति कृतं त्रिजटागतलोचनया दीनविहसितम् ॥ ] ततः पुनरस्र, मार्जनानन्तरं पुनस्तच्छिरो दृष्ट्वा त्रिजटायां गते उन्मुखे लोचने यस्यास्तथाभूतया तया मामापृच्छस्व संवद मरणकृतोद्यमां मामनुजानीहीति दीनं शोच्यं सकरुणं वा हास्यं कृतं बाष्पेण गलितत्वान्निःसारे अक्षिणी यत्र तद्यथा स्यादेवम् । किंभूतया । मरण एव एकस्मिन्नेको वा रसो यस्यास्तादृश्या । तथा च - राक्षसीमध्ये मरणमिति दैन्यम्, मृत्वा हठादेव रामो द्रष्टव्य इति हास्यम् । यद्वा लून शिरोदर्शनोत्तरमियत्कालमेव जीवितास्मीत्यात्मनिन्दावशाद्दीन विहसितमिति भावः ॥ ११३ ॥ विमला -- तदन्तर राम के सिर को पुनः देख कर सीता ने केवल मरने का निश्चय किया और नेत्रों को अश्रुरहित कर 'मुझे मरने की अनुज्ञा दे इस आशय से त्रिजटा की ओर देखती हुई सकरुण हास्य किया ।। ११३ ।। अथ त्रिजटां प्रत्यस्या वचनमाह - सहिअम्मि रामविरहे दारुणहिअअपडिच्छिए वेहव्वे । सह गहलअं मह जिल्लज्जमरणं इमं ति परुष्णा ॥ ११४ ॥ [ सोढे रामविरहे दारुणहृदयप्रतीष्टे वैधव्ये | सहस्व गतस्नेहलघुकं मम निर्लज्जमरणमिदमिति प्ररुदिता ।। ] हे त्रिजटे ! प्रथमं रामविरहे सोढे सत्यनन्तरं दारुणहृदयेन प्रतीष्टेऽङ्गीकृते वैधव्ये च सति गतो यः स्नेहस्तेन लघुकमनादरणीयम् । यत्र विरह एव मतुं मुचितं तत्र वैधव्यमपि सोढवतीत्यहो निःस्नेहा दारुणा चेति दुर्वादविषयत्वादिति भावः । अत एव निर्लज्जम रणमिदं मम सहस्व क्षमस्व नोपहासविषयीकुर्या इत्युक्त्वा सीता पुनः प्ररुदिता । ममाप्येवमनक्षरं प्रसक्तमिति भावः ॥ ११४ ॥ विमला - त्रिजटे ! प्रथम मैं ( सीता ) ने राम का विरह सहा ( प्राणों को नहीं त्यागा), तदनन्तर दारुण हृदय ने वैधव्य स्वीकार किया तब भी नहीं Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] सेतुबन्धम् [ एकादश मरी)। स्नेहरहित होने के कारण अश्लाघनीय एवं निर्लज्ज मेरे मरण को क्षमा करना-ऐसा कह कर वे ( सीता ) पुनः रो पड़ीं ॥ ११४ ॥ पुनर्विलापमाह सम्वम्स म एस गई ण उणो माणुण्ण आण इममवसाणम् । अणुसरिसं ति भणन्ती पाहतूण पणिआ थिरं थणप्रलसम् ।।११५॥ [ सर्वस्व चैषा गतिर्न पुनर्मानोन्नतानामिदमवसानम् । अनुसदृशमिति भणन्ती आहत्य पतिता स्थिरं स्तनकलशम् ॥] सर्वस्यैषा गतिः । उत्पत्त्यनन्तरं विनाशरूपेत्यर्थः। मानोन्नतानां पुनरिदमवसानम् । एवंरूपेण मरणं नानुसदृशं न योग्यमिति भणन्ती सीता स्तनकलशमाहत्य कराभ्यां प्रहृत्य स्थिर पतिता। भूमावित्यर्थात् । यद्वा सर्वस्य स्त्रीजनस्यैषा वैधव्यरूपा गतिः । मानोन्नतानां पुनरिदमवसानं न योग्यमित्यन्वयः । तथा चप्रियस्य मरणेन' स्वस्य वैधव्येन वा तथा न दुःखम् यथा भर्तु रसदृशमृत्युनेति भावः । एतेन मरणनिश्चयः सूचितः ॥११॥ विमला-( उत्पन्न हुये ) सभी लोगों की यह गति ( मृत्यु ) होती है किन्तु मानोन्नत लोगों का ऐसा मरण योग्य नहीं है-ऐसा कहती हुई सीता ( दोनों हाथों से ) छाती पीट कर ( पृथिवी पर ) गिर पड़ीं ॥ ११५ ॥ आत्मन्यवज्ञामाहतह जीवलज्जिआए विलवन्तीम वि विसाअणोसहमउअम् । दासरहि ति पलन्तं पिओ त्ति सीआइ ण चइ वाहत्तुम् ।।११६॥ [ तथा जीवलज्जितया विलपन्त्यापि विषादनिःसहमृदुकम् । दाशरथिरिति प्रलपितं प्रिय इति सीतया न शकितं व्याहर्तुम् ॥] तथा लूनशिरोदर्शनानन्तरमपि जीवो जीवितं तेन लज्जितया सीतया विषादेन निःसहमसामर्थ्यम् । अत एव मृदुकं लघु लघु यथा स्यादेवं विलपन्त्यापि सत्या रामसंबोधने 'दाशरथे' इति प्रभूताक्षरमपि प्रल पितम् । प्रियेत्यल्पाक्षरमपि व्याहतु न शकितम् । निःसहप्रलापे सुखोद्यवर्णोच्चारणेऽस्य योग्यत्वेऽपि लूनशिरोदर्शनमात्रेणामृताया मम कुतः प्रियत्वमस्मिन्निति भावः । स्नेहनि बन्धनमरणशालित्वेन दशरथस्यौचितमपत्यमसीति विशिष्य तन्नामग्रहणे तात्पर्यम् ॥११६॥ विमला-राम का कटा सिर देखने के बाद भी जीती रहने से लज्जित सीता ने निश्चेष्ट थोड़ा-थोड़ा विलाप करती हुई, राम के सम्बन्ध में 'दाशरथिः' तो कहा किन्तु ( छोटा सा शब्द ) 'प्रिय' नहीं कह सकी, जिसका तात्पर्य यह था कि आप Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ४१ दशरथ के सच्चे पुत्र थे जो उन्हीं की भाँति स्नेह के कारण मरे किन्तु मैं तब भी नीवित हूँ अत: आप मेरे प्रिय कहाँ रह गये-मैं आप को प्रिय शब्द से सम्बोधित करने की अधिकारिणी रह ही नहीं गयी ।। ११६ ॥ अथ प्रलापे निवृत्तिमाहअणुसोहउण इच्छह ण देह अङ्गम्मि सा परम्मि पहारम् । वाहं मुअइ ग रुम्भइ मरिअन्वे लद्धपच्चअं से हिनम् ॥११७॥ [ अनुशोचितुं नेच्छति न ददात्यङ्गे सा परस्मिन्निव प्रहारम् । बाष्पं मुञ्चति न रुणद्धि मर्तव्ये लब्धप्रत्ययमस्या हृदयम् ।। सा सीतानुशोचनं कर्तुं नेच्छति कण्ठशोषात्, परिस्मिन्निव शत्राविव अङ्गे प्रहारं न ददाति निःसहत्वात्, बाष्पं न मुञ्चति किं तु रुणद्धि बहुरोदनदुःस्थचक्षुःपीडाकरत्वात् शिरोदर्शनविलोपकत्वाच्च । तहि प्रणयस्य न्यूनत्वमतो हेतुमाहअस्या हृदयं मनो मर्तव्ये लब्धप्रत्ययं यतो लब्धः प्रत्ययो निश्चयो येन तज्जातनिश्चयमित्यर्थः । तथा च मरणरूपसर्वाधिक व्यापारे दत्तभरत्वादिति भावः ॥११७॥ विमला--सीता के हृदय ने मरण का निश्चय कर लिया, अत: उन्होंने शोक करना, शत्रुतुल्य शरीर पर प्रहार करना एवम् अश्रुपात करना बन्द कर दिया ॥ ११७ ॥ अथ त्रिजटायाः सान्त्वनवचनं प्रस्तौति तो तं मरणणिमिते अणिप्रत्तन्त हिअ पअत्ता वत्तम् । तिअडा अग्गकरअलदरपडिच्छिअङ्गविसमो अण्णम् ॥११॥ [ ततस्तां मरणनिमित्ते अनिवर्तमानहृदयां प्रवृत्ता वक्तुम् । त्रिजटा धुतानकरतलदरपतितप्रतीष्टाङ्गविषमावनताम् ॥] ततः सीताया अनुशोचनादिनिबत्त्यनन्तरं त्रिजटा तां सीतां वक्तुं प्रवृत्ता। कीदृशीम् । मरणनिमित्त अनिवर्तमानं हृदयं यस्यास्ताम् । कृतमरणनिश्चयाम् । एवं धुताग्राभ्यां करतलाभ्यां किंचित्पतितं सत्प्रतीष्टमवलम्बितं यदङ्गं तेन विषमं व्यस्तं यथा स्यात्तथावनतां भूमिपतनादिरूपमरणव्यापाराविष्टसीतादेहस्य यथा यथा तत्प्रतिबन्धकत्रिजटाकरतलाभ्यां धारणम्, तथा तथा तत्त्याजनाय तदङ्गभङ्गया तदवनतत्वम् । अत एव त्रिजटाकरतलयोरपि सीताङ्गभङ्गया धुताग्रत्वमिति भावः ॥११॥ विमला-सीता ने मरने का विश्चय कर लिया और उनका शरीर भूमिपतन आदि मरण व्यापार में व्याप्त हो गया। त्रिजटा ( भार न सम्हाल सकने के कारण ) अपने कांपते करतलों से सीता के किञ्चित् पतित शरीर को ज्यों-ज्यों Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] सेतुबन्धम् [ एकादश सम्हाली त्यों-त्यों वह बुरी तरह अवनत हो जाता । इस अवस्था को प्राप्त सीता से तब त्रिजटा ने ( वक्ष्यमाण वचन ) कहना प्रारम्भ किया ।। ११८ ।। त्रिजटावचनस्वरूपमाह- जाणइ सिणेहभणिअं मा रअणिअरित्ति मे जुउच्छसु वअणम् । उज्जाणम्मि वणम्मि अ जं सुरहि तं लआण गेलइ कुसुमम् ।११९ ॥ [ जानकि स्नेहभणितं मा रजनीचरीति मे जुगुप्सस्व वचनम् । उद्याने बने च यत्सुरभि तल्लतानां गृह्यते कुसुमम् ॥ ] हे जान ! स्नेहेन भणितमुक्तम् । 'भरिअम्' इति पाठे भृतं पूर्णम् । मे वचनमहं रजनीचरीति मा जुगुप्सस्व मा गये । अर्थान्तरन्यासमाह - उद्याने गृहारामे वनेऽरण्ये च लतानां यत्कुसुमं सुरभि तदेव गृह्यते । नोद्यानमिति बदरीविभीतकादीनां गृह्यते, न वा वनमिति सुगन्धिपाटलादीनां त्यज्यते । 'वणम्मि व' इति पाठे उद्याने वने वा बदरादीनामुपादानम्, बकुलादीनां चानुपादानम् । एवं न किंतु यत्र यत्सुरभि तत्र तदुपादीयते तदन्यत्त्यज्यत इति ग्रहणपरिहारयोरुवनादित्वमुपाधिनं प्रयोजक: किं तु सौरभादिरितिवत्प्रकृतेऽपि वचनस्य प्रियत्वं विचार्यतां राक्षसीत्वमप्रयोजकमिति भावः ॥ ११६॥ विमला - सीते ! 'मैं राक्षसी हूँ' यह समझ कर मेरे स्नेहवश कहे गये वचन का तिरस्कार मत करो । लताओं का जो पुष्प सुगन्धित होता है वही ग्रहण किया जाता है, चाहे वह गृहोद्यान में हो चाहे अरण्य में हो ॥ ११६ ॥ अथ त्रिजटा स्वोक्तेनिरुपाधित्वं व्यञ्जयति किमु जीअन्ती तुमे जइ अलिअं सहि ण होञ्ज राहवमरणम् । अण उण रहुणा हे तुह मे मरणविदुरं किलिम्मइ हिअअम् ||१२०॥ [ किमु जीवन्त्या त्वया यद्यलीकं सखि न भवेद्राघवमरणम् । अनघे पुना रघुनाथे तव मे मरणविधुरं क्लाम्यति हृदयम् ॥ ] हे सखि ! राघवमरणं यद्यलीकं मिथ्या न भवेत्तदा त्वया जीवन्त्या किमु । किं प्रयोजनमित्यर्थः । तहि तव मरणमेव श्रेष्ठमिति भावः । यद्वा -- यद्येतन्नालीकं तदा त्वया जीवन्त्या किमु होञ्ज किं भूयत इत्यर्थं । तदा त्वयापि मृतमेव स्याद्युवयोरेकजीवत्वात् । तथा च त्वज्जीवितमेव तज्जीवने प्रमाणमिति भावः । रघुनाथे पुनरनधेऽक्षते जीवति वा तव मरणेन विधुरं दुःखितं मम हृदयं यतः; ततः संप्रति क्लाम्यति । तथा च रामो जीवत्येव त्वं वृथा नात्मानं व्यापादयेति भावः ॥१२०॥ } Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः] सि.] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६३ विमला-सखि ! यदि राममरण मिथ्या न होता तो आप क्यों जीती रहती ( क्योंकि आप और राम दोनों ) एक प्राण हैं। रघुनाथ के जीते रहने पर आप मरणोद्यत हैं, अतः मेरा हृदय दुःखित एवं क्लान्त हो रहा है ।। १२० ॥ पुननिरुपाधित्वमेव द्रढयतिचिन्ते पिण लम्भइ जह संभावेसि तह इमं जइ होन्तम । तो दाणि कि जणम्मि व तुमम्मि संठावणा महं अणुरूवा ॥१२॥ [चिन्तयितुमपि न लभ्यते यथा संभावयसि तथेदं यदि भवत् । तदेदानीं किं जन इव त्वयि संस्थापना ममानुरूपा ॥] हे सीते ! यथा त्वं संभावयसि तर्केण जानासि । राममरणमित्यर्थात् । तथा चिन्तयितुमपि आहार्योपस्थितिविषयीकर्तुमपि न लभ्यते न युज्यते । अथ तथा सत्यमेवेदं यदि भवदभविष्यत् । लुङर्थे शतृ प्रत्ययः। तदेदानी राम विना जन इव साधारणजन इव त्वयि मम संस्थापना जीवयितुं व्यवसाय: समाश्वासना किमनुरूपा योग्या । अपि तु नेत्यर्थः । तथा च रामादरनिबन्धनस्त्वय्यादरः, प्रत्युत पत्यनुमरणरूपधर्मप्रतिषेधः पापजनक इत्यतोऽपि जानीहि रामो जीवतीति भावः ॥१२१॥ विमला-सखि ! जैसा आपने समझ लिया कि राम का मरण हो गया, ऐसा तो सोचना भी युक्त नहीं और यदि यह ( राममरण) सच होता तो मैं, सामान्यजन की तरह आपको ( जीवित रखने के लिये ) जो समाश्वासन दे रही हूँ क्या यह उचित होता? ( राम का मरण सच होने पर मैं कभी आप को मरने से न रोकती ) ॥ १२१ ।। पुनरपि सोपपत्तिमर्थापत्तिमाहसमला निसापरपुरी घरपरिवाडिसमणीहरिअरुण्णरवा । एकेण कमा कइणा कह होइहि अणहरक्खसं रहुवडणम ॥१२२॥ [ सकला निशाचरपुरी गृहपरिपाटिसमनिहूदितरुदितरवा । एकेन कृता कपिना कथं भविष्यत्यनघराक्षसं रघुपतनम् ॥] सकला संपूर्णा कलासहिता मनोरमा बा निशाचरपुरी लङ्का गृहपरिपाटयां गृहपर्याये समं युगपन्निह्र दितः शब्दान्तरोत्पादी रुदितरवः । राक्षसानामित्यर्थात् । यस्यां तादृशी । यद्वा गृहपरिपाटया समस्तुल्यो निहदितो यथा दाहजन्यशब्दद्वारा गृहपरिपाटि: शब्दान्तरोत्पादिका तथा रुदितरवोऽपि यस्यामित्यर्थः । गृहदाहशब्दराक्षसरोदनशब्दयोस्तुल्यवदुत्पत्तेः । एवंभूता। एकेनासहायेनानिर्धारितविशेषण साधारणेन वा हनूमता कृता । अतः कथमधः क्षतादि तद्रहिता राक्षसा यत्र तथा Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] सेतुबन्धम् [ एकादश भूतं रघुपतनं भवेत् । तथा च तथाविधकोटिवानरसहाये तस्मिन्निहते कोटिकोटिराक्षसा अपि निहताः स्युः, अतस्तदभावे तत्कथं तर्कयसीति भावः ॥ २२ ॥ विमला - एक ( असहाय ) कपि ( हनुमान् ) ने पूरी लङ्का को जला दिया और उसमें गृहदाह शब्द के साथ ही साथ राक्षसों के रोने का शब्द हुआ तो ( वैसे करोड़ों वानरों के आ जाने से ) यह कैसे होगा कि राक्षस जीते रहें और राम का मरण हो जाय ।। १२२ ।। अथ राक्षसप्रलयं सिद्धान्तयति णत्थि णिहम्मद रामो अइरा लोहिइ श्ररक्खसं तेल्लोक्कम दिट्ठति भणामि फुडं पत्ति कस्स वि पिओ कुलस्स विणासो || १२३ [ नास्ति निहन्यते रामोऽचिराद्भविष्यत्यराक्षसं त्रैलोक्यम् । दृष्टमिति भणामि स्फुटं प्रतीहि कस्यापि प्रियः कुलस्य विनाशः ॥ ] निहन्यते राम इति पक्षो नास्ति नारायणरूपत्वात् । यद्वा-स नास्ति येन निहन्यते रामः | 'न' इति पाठे स नास्ति यं न हन्ति रामः । न केवलमेतावदेव किंत्वचिरात्त्रैलोक्यमराक्षसं राक्षसशून्यं भविष्यति । इदं मया स्फुटं व्यक्तं दृष्टमिति भणामि योगेन । पुराणादिना वेत्यर्थः । यद्वा — दृष्टं ज्ञातमिति स्फुटं भणामि । रावणादपि न बिभेमीत्यर्थः । विपक्षे बाधकमाह - प्रती हि कस्यापि कुलस्य विनाशः प्रियः । काक्वा-न प्रिय इत्यर्थः । तथा च कुलविनाशमलीकमभिधाय परसमाश्वासनं केनापि न क्रियत इति मद्वचनमन्यथा मा शङ्किष्ठा इति भावः ॥ १२३॥ - विमला - 'राम मारे गये – ऐसा तो नहीं है, हाँ अलबत्ता यह त्रैलोक्य शीघ्र ही राक्षसों से शून्य होगा - ऐसा मैंने जान लिया, इसीलिये स्पष्ट (रावण से भी न डर कर ) कह रही हूँ। मेरी इस बात पर आप विश्वास करें, अन्यथा किसी को भी अपने कुल का विनाश प्रिय नहीं होता ( जो वैसा कह कर दूसरे को सात्वना दे ) ।। १२३ ।। अनिष्टापत्तिमुखेन शोकं त्याजयति - उठसु मुसु सोअं पुस एवं वाहमइलिअं थणवट्ठम् । सुणसु सउणेण वट्ठः समराहिमुहे पइम्मि अंसुणिवाओ ||१२४|| [ उत्तिष्ठ मुञ्च शोकं प्रोच्छ बाष्पमलिनितं स्तनपृष्ठम् । शृणु शकुनेन वर्तते समराभिमुखे पत्यावश्रुनिपातः ।। ] उत्तिष्ठ, शोकं मुख, वाष्पैरस्रभिः श्वासैर्वा मलिनितं स्तनपृष्ठं प्रोच्छ । उपपवृत्तिमाह-शृणु, पत्यौ समराभिमुखे सत्यश्रुनिपातः शकुननिमित्तं न वर्तते । : कित्वमङ्गल निमित्तमिति भावः ॥ १२४ ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४६५ विमला - अतः आप उठें, शोक छोड़ें और आंसुओं से मलिन स्तनतल को पोंछ डालें, क्योंकि सुनें, पति युद्ध करने जा रहा हो, उस समय आँसू गिराना शकुन ( शुभ ) का निमित्त नहीं ( किन्तु अमङ्गल का निमित्त ) होता है ॥ १२४ ॥ अथ रामसत्तायामनुमानमाह मोत्तण अ रहणाहं लज्जाग असे अबिन्दुइज्जन्तमुहो । केण व अण्णेण कअ पामारन्तरिप्रणिप्पहो दहवअणो ।। १२५ ।। [ मुक्त्वा च रघुनाथं लज्जागतस्वेदबिन्दूयमानमुखः । केन वान्येन कृतः प्राकारान्तरितनिष्प्रभो दशवदनः ॥ ] च पुना रघुनाथं मुक्त्वा केन वान्येन दशवदनः कपिरुद्धत्वात्प्राकारमात्रेणान्तरितः सन् निष्प्रभः कृतः । तथा च रामेणैव कृत इत्यर्थः । कीदृक् । अवरोधजन्यया लज्जयागतैः स्वेदैबिन्दूयमानं बिन्दुभिः पूर्यमाणं मुखं यस्य स तथा । तथा च - संनिहितमृत्योर्मुखश्रीरन्यथा प्रतिपद्यत इत्यतोऽपि रावण मृत्युमनुमाय रामजीवनमनुमीयतामिति भाव: । यद्वा-- -सीताप्राप्तिव्यतिरेकनिश्चयान्निष्प्रभ रामजीवनमनुमीयतामिति भावः ॥ इत्यर्थः । तेन ततोऽपि तदनुमीयतामिति वा ।। १२५ ।। विमला - रघुनाथ को छोड़ कर और किसने रावण को इस अवस्था में कर दिया है कि वह घर के अन्दर छिपा और निष्प्रभ हो गया है तथा लज्जा के कारण आ गये पसीने की बूँदों से उसका मुख पूर्ण हो गया है ।। १२५ ।। यद्वा-सीताप्राप्तिव्यतिरेक निश्चयान्निष्प्रभ अथ भाविनं रामस्यानुरागव्यापारमभिधाय सीतां शीतलयति अइरा अ दे रहुसुओ तण्णाअन्तग्गहत्थम उइ अपहम् । मोच्छिहि वेवन्तङ्गुलिगुप्पन्न क्खित्तविसमभाअं वेणिम् ॥ १२६ ॥ [ अचिराच्च ते रघुसुतो आर्द्रायमाणाग्रहस्तमुकुलितपक्ष्माम् । मोक्ष्यति वेपमानाङ्गुलिगुप्यन्नुत्क्षिप्तविषमभागां वेणीम् ॥ ] अचिराच्च रघुसुतस्ते वेणीं मोक्ष्यति । किंभूताम् । आर्द्रायमाणाभ्यां त्वत्स्पर्शात् स्विद्यद्भयां हस्ताग्राभ्यां मुकुलितानि स्वेदसंबन्धात्संवृत्तानि पक्ष्माणि असंयमनादुत्थितलोमाग्राणि यस्यास्ताम् । एवं भावोदयादेव वेपमानाभिरङ्गुलीभिरुक्षिप्ताः समीकृता विषमभागा यस्याः । प्रोषितो भर्ता समागत्य प्राक्कृतं विरहिण्या वेणीबन्धं मोचयतीति भावः ॥ १२६ ॥ विमला - राम शीघ्र ही आप के वेणीबन्ध को छोड़ेंगे। वे ( आपके स्पर्श के कारण उत्पन्न स्वेद से ) आर्द्र हाथों से उस ( वेणी ) के असंयत बालों को सँवारेंगे तथा ( आप के स्पर्श से ) काँपती हुई अंगुलियों से उसके विषमभाग को सम करेंगे ।। १२६ ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् ४६६ ] अथ रावणस्य निन्दया मरणध्रौव्यमाह विअलि लज्जालहूअं ए करन्तस्स रहुवइम्मि धरन्ते । ण अ तह दुक्खामि तुमे जह पविवत्तम्मि दहमुहस्स सहावे ॥ १२७॥ [ विगलित लज्जालघुकमेतत्कुर्वतो रघुपतौ ध्रियमाणे । न च तथा दूये त्वया यथा परिवृत्ते दशमुखस्य स्वभावे ॥ ] अहं त्वया हेतुभूतया तथा न दूये यथा दशमुखस्य स्वभावे परिवृत्तेऽन्यथाभूते सतीत्यर्थः । अन्यथाभावमेवाह । किंभूतस्य । रघुपतौ ध्रियमाणे जीवति सति विगलिता या वचनमूलिका लज्जा तथा लघुकमश्लाघनीयमेतन्मायामस्तकरूपं छलं कुर्वतः । तथा चैवंविधत्वदुः खेनापि मम तथा न दुःखम्, यथा लोकनिन्दितेकच्छल तदुत्थलज्जापरित्यागरूपप्रकृतिविपर्ययाभ्यां रावणस्यासन्नमृत्युज्ञानादिति [ एकादश भावः ॥१२७॥ विमला - राम के जीवित रहने पर उनका मायानिर्मित कटा सिर आप के समक्ष प्रस्तुत करते हुए रावण को अपने इस लोकनिन्दित कर्म से लज्जा नहीं आई । उसके इस परिवर्तित स्वभाव से जितना मुझे दुःख है उतना आपके इस दुःख से भी नहीं ।। १२७ ।। अथ रामस्योत्कर्षेण परानभिभाव्यत्वमाहवालिवहविट्ठसारं " वाणगल स्थिअसमुद्दिष्णचल वहम । रोहिअलङ्कावलअं मा लहुअं प्रेच्छ राहवस्स भुअबलम् ॥ १२८ ॥ [ वालिवधदृष्टसारं बाणगलहस्तित समुद्रदत्तस्थलपथम् । रोधितलङ्कावलयं मा लघुकं पश्य राघवस्य भुजबलम् ॥ ] हे जानकि ! राघवस्य भुजबलं मा लघुकमल्पं पश्य जानीहि । कीदृक् । वालिनो वधे दृष्टसारं ज्ञातवध्यरावण बाधकत्वरूपनिगर्वम् । अथ बाणेन गलहस्तित: प्रेरितो यः समुद्रस्तेन दत्तो रामायेत्यर्थात् स्थलरूपः पन्था यस्मात् । अथ रोधितं लङ्कावलयं येन । तथा च रामे नैतत्संभाव्यमिति भावः || १२८ ॥ विमला -- सखि ! आप राघव के भुजबल को कम न समझें । उसकी वास्तविकता वाली का वध करते समय देखी जा चुकी है । उसी के कारण बाण के द्वारा गला दबाये जाने पर समुद्र ने राम को स्थलरूप मार्ग दिया है और उसी ने लङ्का को चारों ओर से घेर लिया है । ( अतः यह सम्भव नहीं है कि राम का सिर काटा जाय ) ।। १२८ ॥ अथ शकुनदर्शनेन सत्यापयति दिट्ठासि मए सिविणे ससिसूरालिहणसोहि उम्मुहपडिमा । खन्धुट्ठिअसुर अकण्णआल विहुअधवलं सु अवसद्धन्ता ॥ १२६ ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६७ [ दृष्टासि मया स्वप्ने शशिसूर्यालिहनशोभितोन्मुखप्रतिमा । स्कन्धोत्थितसुरगजकर्णतालविधुतधवलांशुकदशान्तिा ॥] हे सीते ! त्वं मया स्वप्ने दृष्टासि । कीदृशी । शशिसूर्ययोरालिहनेन मिलनेन शोभिता उन्मुखी प्रतिमा आकृतिर्यस्याः सा । एवं स्कन्धेनोत्थित उन्नतस्कन्धो यः सुरगजस्तत्कर्णतालेन विधुतो धवलांशुकस्य दशार्धान्तो यस्यास्तथा चैरावतस्कन्धोपरि पार्श्वद्वयवर्तिचन्द्रसूर्या श्वेताम्बरा च त्वत्प्रतिमा दृष्टेति । पुष्पकोपरि रामलक्ष्मण साहित्यं सीतायाः सूयमानं रावणक्षयेण राज्यलक्ष्मीप्राप्ति सूचयति । तदुक्तं स्वप्नाध्याये-'आरोहणं गोहयकुञ्जराणाम्' इत्यादि ॥१२६॥ विमला-सीते ! मैंने स्वप्न में आप को देखा है कि आप ऐरावत गज पर सवार हैं, चन्द्रमा और सूर्य दोनों आप के पास वर्तमान हैं, जिससे आप शोभित हो रही हैं, (प्रसन्नता से) माप का मुख ऊपर उठा हुआ है तथा उन्नत-स्कन्ध ऐरावत के डोलते कानों की हवा से आप का श्वेत वस्त्र फहरा रहा है ।। १२६ ।। पुनः स्वप्नेनैव रावणाशुभं स्फुटयतिदिट्ठो अ मे दहमुहो वहमुहपरिवाडिविअडकड्ढणमग्गो। कालदढ पासकढिबरडिउग्घडिमखडिअमुहसंघामो ॥१३०॥ [ दृष्टश्च मे दशमुखो दशमुखपरिपाटिविकटकर्षणमार्गः। कालदृढपाशकृष्टदरघटितोद्घाटितस्खलितमुखसंघातः ॥] मे मया दशमुखश्च दृष्टः । स्वप्ने एवेत्यर्थात् न केवलं त्वमेवेत्यर्थः । कीदक । दशानां मुखानां परिपाटयानुक्रमेण विकटो विस्तीर्णः कर्षणमार्गः छेदनस्थानं यस्य सः। तथा-छिन्न शिरस्कतया मुखावलम्बनस्थानस्य विकटत्वमित्याशयः । अत एव कालस्य यमस्य दृढपाशेन कृष्टः सन् पुनः किंचिद्धटितः संबद्ध उत्पन्न इति यावत् । पुनरुद्धाटितः छिन्नोऽतः पतितो भूमावित्यर्थान्मुखसंघातो यस्य । वारं वारं यमपाशाकृष्टः छिद्यते उत्पद्यते पतति चेत्यर्थः । तथा वासन्नो मृत्युः सूचितः ॥१३०॥ विमला-मैंने रावण को भी ( स्वप्न में ) देखा है कि उसके मुख यम के पाश से खींचे जाते थोड़ा-सा उत्पन्न हुये और फिर काट दिये गये एवं भूमि पर गिर गये, इस प्रकार सिर कट जाने से उनका अवलम्बन स्थान विकट हो गया ॥ १३०॥ अथ मस्तकस्य मायात्वं सिद्धान्तयतितं अवलम्बसु धीरं णासउ संपइ अमङ्गलं जाव इमम् । मणिअपरमत्थलहई अवहीरिअणिप्फला णिअत्तउ माआ॥१३।। ३२ से० ब० Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८] सेतुबन्धम् [एकादश [ तदवलम्बस्व धैर्य नश्यतु संप्रत्यमङ्गलं यावदिदम् । ज्ञातपरमार्थलघुकावधीरितनिष्फला निवर्ततां माया ।।] तत्पूर्वोक्तहेतोधैर्यमलम्बस्व । यावदिति परिच्छेदे । इदममङ्गलं रोदनादिरूपं संप्रति नश्यतु । इयं च शिरोघटनरूपा माया निवर्तताम् । कीदृशी। ज्ञातपरमार्था सती लघुका तुच्छा कपटस्य विशेषादर्शनमात्रावधिकत्वात् । अतोऽवधीरितानादृता सती निष्फला भ्रमाजनिका । तथा च कपटत्वेन निर्णीयावहेलया निष्फलयेति भावः ॥१३॥ विमला-अतः आप धैर्य धारण करें, यह ( रोदनरूप ) अमङ्गल समाप्त हो और ( राक्षसों की) यह माया निवृत्त हो । इसकी वास्तविकता मालूम हो गयी, अतएव यह तुच्छ, अनादृत एवं निष्फल है ।। १३१ ।। अथ शिरोलीकत्वनिगमनेन त्रिजटाया वचनमुपसंहरन्नाहहोत्तं जइ रामसिरं एप्रावत्थं पि तो समुससमाणम् । अम मिव णाअरसं आसाएउण तुह क्करप्फरिससुहम् ॥१३२।। [ भवद्यदि रामशिर एतावदवस्थमपि ततः समुच्छ्वसत् । अमृतमिव ज्ञातरसमासाद्य तव करस्पर्शसुखम् ।।] एतद्यदि रामशिरो भवदभविष्यत्तदा एतावदवस्थं छिन्नमपि ज्ञातरसं तव करस्पर्शसुखममृतमिवासाद्यास्वाद्य वा समुच्छ वसत्समुदश्वसिष्यदजीविष्यदित्यर्थः । सृतमप्यमतेन जीवतीति रामशिरः सर्वथा नैतदिति भावः । लुङर्थे शतृप्रत्ययः ।।१३२॥ विमला-यदि यह राम का सिर होता हो इस अवस्था में भी अमृतोपम आप के करस्पर्श, निसका रस यह जान चुका है--का सुख पाकर उससे अवश्य ही जी उठता ।। १३२॥ अथ नूनमनिष्टाशङ्कीनि बन्धुजनहृदयानीति पुनरपि सीताया रोदनमाह इन रामपेम्मकित्तगदूसहवउजाहिघाअदूमिमहि । संभरिअ मुक्ककण्ठमण्णम मरणणिच्चमा वि पहण्णा ।।१३३॥ [इति रामप्रेमकीर्तनदुःसहवज्राभिघातदुःखितहृदया। __ संस्मृत्य मुक्तकण्ठमन्यमयं मरणनिश्चयापि प्ररुदिता ।।] इत्यनेन प्रकारेण त्रिजटाकृतं यद्रामप्रेमकीर्तनं तदेव दुःखहेतुत्वाद्दुःसहो यो वज्राभिघातस्तेन दुःखितहृदया सती सीता संस्मृत्य । पूर्वप्रेमव्यवहारमित्यर्थात् । मुक्तकण्ठमुच्चर्यथा स्यादेवं मरणे कृतनिश्चयाप्यन्यमयं पूर्वरोदनापेक्षयापि शृङ्गारा. त्मकत्वेन विलक्षणं यथा भवत्येवं प्ररुदिता । यथामृतस्यानुबन्धस्मरणं तथा तथा रोदनाधिक्यं भवतीति भावः ।।१३३।। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [४६६ विमला-इस प्रकार (त्रिजटाकृत ) रामप्रेम कीर्तनरूप दुःसह वज्राभिघात से सीता का हृदय दुःखित हो गया और मरने का निश्चय करने पर भी उन्होंने ( राम के पूर्व प्रेमव्यवहार को) याद कर उच्च स्वर से विलक्षण रोदन किया ।। १३३ ॥ अथ प्रकारान्तरेण सीतासमाश्वासनमाह-- तो ति मडावप्रणेहि वि ण संठिा जाव तो पवअकलअलो। रणसंणाहगभीरो ण सुओ राहवपहाअमङ्गलपडहो ॥१३४॥ [ ततस्त्रिजटावचनैरपि न संस्थिता यावत्तया प्लवगकलकलः। रणसंनाहगभीरो न श्रुतो राघवप्रभातमङ्गलपटहः ॥] ततश्चरमरोदनानन्तरं सीता त्रिजटावचनैरपि तावन्न संस्थिता रावणसंबन्धित्वान्न समाश्वस्ता, यावत्तया प्लवगानां कलकलः, तथा राघवस्य प्रभातकालीनमङ्गलपटहध्वनिश्च न श्रुतः । पटहध्वनिः कीदृक् । रणसंनाहनिमित्तं गभीरः । सर्वे श्रुत्वा संनयन्त्विति तारतारीकृतः तथा च प्लवगकोलाहलपटहनिर्बादयोः श्रुत्या त्रिजटावचसि प्रामाण्यग्रहात्प्रतीता सती आश्वासीदित्यर्थः । 'रणसण्णागम्भीरो' इति पाठे रणसंज्ञा रणसंकेतस्तदर्थ गभीर इत्यर्थः । प्लवगकलकलरूपो मङ्गलपटहध्वनिरित्यर्थ इति केचित् ॥१३४।। विमला-इस अन्तिम रोदन के बाद सीता जी त्रिजटा के वचनों से भी तब तक समाश्वस्त नहीं हुई जब तक युद्धार्थ सन्नद्ध होने के लिये बजाये गये, राघव के प्रभातकालीन मङ्गलपटह ( नगाड़ा) की गम्भीर ध्वनि तथा वानरों का कलकल निनाद नहीं सुना (इनके सुनायी पड़ने से ही त्रिजटा की बात पर विश्वास कर समाश्वस्त हुई)॥ १३४ ॥ अय समाश्वस्तायाः सीताया निश्वसितमाह-- जह बहुविहसंठावणपच्चाणिज्जन्तजीविासाबन्धम् । तीन गसोअविस दूरुण्णामिअपओहरं णीससिअम् ॥१३॥ [ अथ बहुविधसंस्थापनप्रत्यानीयमानजीविताशाबन्धम् । तया गतशोकविषदं दूरोन्नामितपयोधरं निश्वसितम् ॥] अथ प्रत्ययानन्तरं तया निश्वसितं निश्वासः कृतः । असंभावितप्लवगकोलाहलादिना रामसत्तानिश्चयादिति भावः । बहुविधसंस्थापनेन त्रिजटाकृतसमाश्वासनेन प्रत्यानीयमानस्य गच्छतः परावर्तितस्य जीवितस्याशाबन्धो यस्मादिति क्रियाविशेषणम् । सीतया हर्षनिश्वासः कृत इति त्रिजटादीनामपि सीताजीविताशाबन्ध Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] सेतुबन्धम् [ एकादश उत्पन्न इत्यर्थः । एवं गतेन शोकेन विषदमानन्दजत्वादनुष्णम् । एवं दूरमुन्नामिती पयोधरौ यत्रेत्यपि द्वयं क्रियाविशेषणम् । तथा च ' दीहं पि समूससिअम्' इति पूर्वोक्तशोकहेतुक निश्वासापेक्षयाप्यानन्दहे तुक निःश्वासस्य महत्त्ववर्णनेन शोकोत्तरकालीनत्वादानन्दस्य शोकापेक्षयाप्युत्कर्षः सूचितः ॥ १३५ ॥ विमला - तदनन्तर सीता ने शोक त्याग कर ( हर्षजन्य ) शीतल निःश्वास किया, जिससे उनके पयोधर उस समय अत्यन्त उन्नत हो उठे और त्रिजटाकृत बहुविध समाश्वासन से सीता के लौटते जीवन की आशा त्रिजटादिक को भी हो गयी ।। १३५ ।। अथ पुनः सीताया विरहदुःखोत्पत्तिमाह तो आसासिअसुहिए तीए पुणरुत्तसच्चविअवीसत्थे । विनिवेहम्यभए पुणो वि संघढइ विरहदुक्खं हिमए ।। १३६ ।। [ तत आश्वासित सुखिते तस्याः पुनरुत्तः सत्यापित विश्वस्ते | विघटित वैधव्यभये पुनरपि संघटते विरहदुःखं हृदये ॥ ] ततो रामसत्ता निश्चयेन जीवधारणोत्तरं तस्या हृदये विरहदुःखं पुनरपि संघटने लगतीत्यर्थः । अन्तर। शिरोदर्शनेन विरुद्धबीभत्सादिरसोत्पत्त्या जागरूक स्थापि विप्रलम्भस्य विच्छेदादिति भावः । किंभूते । प्रथमं त्रिजटावचसाश्वासिते सति सुखिते । अथ रामसत्ताया रूपकार्थतया पुनरुवतेन प्लवगकोलाहलादिना यत्सत्यापितं रामोऽस्तीति स्थितिकरणम् । भावे क्तः । तेन विश्वस्ते प्रमाण संभवेन विशेषेणाश्वस्ते | अत एव विगलितं वैधव्यभयं यत्र तथाभूते ॥ १३६ ॥ विमला - राम के जीवित होने का निश्चय होने से जीवन धारण करने के पश्चात् सीता के हृदय, जो प्रथम ( त्रिजटा के वचन से ) आश्वस्त एवं सुखित हुआ, पुनरुक्त वानरों के कोलाहलादि द्वारा सत्यापन किये जासे से विश्वस्त हुआ एवं जिसमें वैधव्य का भय नष्ट हो गया - में विरह का दुःख पुनः अनुभूत होने लगा ।। १६६।। अथ सीतायास्त्रिजटानुरागकथनमुखेनाश्वासकं विच्छिनत्तिमाआमोहम्मि गए सुए प्र पवआण समरसंणाहरवे । जनमतणना दिट्ठ तिअडाणे हाणुरामभणिअस्स फलम् ॥१३७॥ इअं सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकव्वे एआरहो आसासओ ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५०१ [ मायामोहे गते श्रुते च प्लवगानां समरसंनाहरवे । जनकतनयया दृष्टं त्रिजटास्नेहानुरागभणितस्य फलम् ॥] इति श्रीप्रवरसेन विरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये एकादश आश्वासः॥ जनकपुश्या सीत या त्रिजटायाः स्नेहो वात्सल्यं दया अनुरागः प्रीतिस्तत्पूर्वकस्य भणितस्य फलं तात्पर्यपर्यवसानं वा दृष्टम् । मत्प्रीत्या यथैवानया कथितं तथैव जातमिति ज्ञातमित्यर्थः । कुत्र सति । मायया जनिते मोहे गते प्लवगानां समरनिमित्ते संनाहस्य रवे संनयतां संनयतामित्यादिरूपे च श्रुते सति । द्वाभ्यां रामसतानिश्चयादिति भावः ॥१३७।। मायोत्तमाङ्गदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य संपूर्णकादशी शिखा ।। विमला-जनकपुत्री ने मायाजन्य मोह के नष्ट होने पर एवं वानरों की समरनिमित्तक संनद्ध होने की ध्वनि को सुनने पर त्रिजटा के द्वारा स्नेहानुरागपूर्वक कहे गये वचन का फल देख लिया (जैसा त्रिजटा ने मेरी प्रीति के कारण कहा था वैसा ही हुबा यह जान लिया ) ॥१३७॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में एकादश आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश आश्वासः अथ प्रत्यूषमाहताव अ दरबलि उप्पलपलोधूलिमइलन्तकलहंसउलो। जाओ दरसंमोलिअहरिआअन्तकुमुआअरो पच्चूसो ॥१॥ [ तावच्च दरदलितोत्पलप्रलुठितधूलिमलिनायमानकलहंसकुलः । जातो दरसंमीलितहरितायमानकुमुदाकरः प्रत्यूषः ॥] यावत् प्लवङ्गकलकलः श्रुतः, सीता विलापादुपरता वा, तावदेव प्रत्यूषो जातः । कीदृक् । दरदलितेभ्य ईषद्विकसितेभ्य उत्पलेभ्यः प्रलुठिताभिनिर्गताभि—लीभिर्मलिनायमानानि कलहंसानां कुलानि यत्र सः । तथा-न केवलमुत्पलानां विकासारम्भः, किंतु कुमुदानामपि मुद्रणारम्भ इत्याह-दरसंमीलितानि किंचिन्मुकुलितानि अत एव हरितपृष्ठस्य प्रान्तपत्रचतुष्टयस्योपरि स्थित्या हरितायमानानि कुमुदानि यत्र तथाभूता आकरा. सरोवरादयो यत्र ॥१॥ विमला-तब तक प्रभात हो गया। कमल कुछ-कुछ विकसित हो गये। उनसे निकले हुये रज से कलहंस मलिन होने लगे। सरोवरों में कुमुद कुछ-कुछ मुंद गये तथा ( नीचे के चार पत्तों, जिनका पृष्ठभाग हरा होता है-के ऊपर हो जाने से ) हरे वर्ण के दिखायी देने लगे ॥१॥ अथ निशावसानमाह अरुणासम्बच्छाओ णवसलिलाकलुसन्धिमाहप्रमूलो । धाउकलङ्कक्खउरो ओसरह तडो व रमणिपच्छिमभाओ ॥२॥ [ अरुणाताम्रच्छायो नवसलिलाकलुषचन्द्रिकाहतमूलः ।। धातुकलङ्ककलुषोऽपसरति तट इव रजनीपश्चिमभागः ॥] रजन्याः पश्चिमो भागश्चरमयामोऽपसरति । प्रभातं जातमित्यर्थः । कीदृक् । अरुणेनारुणोदयेन संध्यारागेण वाताम्रच्छायः । एवं नवसलिलं वन्या(?)तोयं कर्दमाविलत्वात्तद्वदाकलुषा प्राभातिकत्वाद्धूसरा या चन्द्रिका तयाहतं स्पृष्टं मूलं यस्य । उदयाचलावच्छेदोऽग्रभागस्तत्रारुणसंबन्धात्ताम्रत्वम् । अस्ताचलावच्छेदो मूलभागस्तत्राविलचन्द्रिकासंबन्धासरत्वमिति भावः । तट इव । यथा धातुकलङ्कन गैरिकक्षोदेन कलुषो विचित्रो नद्यादीनां तट: कलुषवन्याजलाहतमूलः सन्नपसरति पतति सोऽपि धातुयोगात्ताम्र इत्युपमा । यद्वा-रजनिशेषः पश्चिमाचलस्यैवारुणत्वाद्गरिकमयस्तटश्चन्द्रिकारूपजलाहतमूलत्वात्पततीत्युत्प्रेक्षा ॥२॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५०३ विमला-जैसे गेरू के घोल से लाल नदी का तट, नूतन (बाढ़ के ) मटमैले जल से मूल भाग में आहत हो नष्ट-भ्रष्ट होता है वैसे ही अरुणोदय से लाल रजनी का अन्तिम भाग मटमैली (धूसर ) चन्द्रिका से आदृत (स्पृष्ट ) हो नष्ट होने लगा ॥२॥ अथ वृक्षच्छायानां दुर्लक्ष्यत्वमाहणिव्वणिज्जइ रूअं अरुणसिहोलग्गचन्दिमम्मि महिमले। ओन्वत्तधूसराणं गवर चलन्तीण पाप्रवच्छाआणम् ॥३॥ [ निर्वर्ण्यते रूपमरुण शिखावरुग्णचन्द्रिके महीतले । अपवृत्तधूसराणां केवलं चलन्तीनां पादपच्छायानाम् ॥] अरुणशिखाभिरवरुग्णा मृष्टा चन्द्रिका यत्र तत्र महीतले केवलं चलन्तीनामेव पादपच्छायानां रूपं स्वरूपं निर्वर्ण्यते लक्ष्यते न तु स्थिराणामित्यर्थः । किंभूतानाम् । अपवृत्तानामपगतानाम् । अत एव नीलिमापगमाद्धूसराणाम् । अरुणचन्द्रिकयोरेकतरप्रागल्भ्याभावाच्छाया विविच्य न गृह्यन्ते किंतु पवनान्दोलितशाखावशतया चलनादीषदाकारतया च लक्ष्यन्त इति भावः ॥३॥ विमला-महीतल पर लाली से चन्द्रिका का स्पर्श होने के कारण वृक्षों की छाया अपगत ( नीलापन से रहित ) अतएव धूसर हो गयी। (वायुवेगवश ) शाखाओं के डोलने से छाया भी चञ्चल हो जाती है, इसी से पता लगता है कि यह वृक्ष की छाया है ( अन्यथा स्थैर्य दशा में यह समझना कठिन हो जाता है कि यह छाया है) ॥३॥ प्राभातिक रूपमाह संमोल इ कुमुअवणं अद्धथमिप्रगलिअप्पहं ससिबिम्बम् । विमलइ रअणिच्छाआ अरुणाहअमुद्धारा पुवदिसा ॥४॥ [ संमीलति कुमुदवनमर्धास्तमितगलितप्रभं शशिबिम्बम् । विगलति रजनीच्छायारुणाहतमुग्धतारका पूर्वदिक् ॥] कुमुदवनं संकुचति, शशिबिम्बमर्धास्तमितत्वाद्गलितप्रभमनुज्ज्वलम् । भवतीत्यर्थात् । रजन्याश्छाया कान्तिविगलति प्रभातवशात् । अरुणेनारुणकान्त्याहता स्पृष्टा अत एव मुग्धा मन्दा: क्षुद्रा वा तारका यत्र तादृशी पूर्वदिक् । भवतीत्यर्थः ॥४॥ विमला-कुमुदवन मुद्रित हो गया, चन्द्रमा आधा डूब गया, अतएव उज्ज्वल नहीं रहा, रजनी की कान्ति नष्ट हो गयी तथा पूर्व दिशा में अरुणकान्ति के स्पर्श से तारे मन्द पड़ गये ॥४॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [द्वादश अथ गगनस्य परुषताम्रत्वमाहदोसइ अ तिमिररेइअपल्लवअम्बतरुणारुणाहअमिहिनम् । विसमविहिण्णमण सिलाभङ्गप्फरसमणिपव्वअद्ध व णहम् ॥५॥ [ दृश्यते च तिमिररेचितपल्लवाताम्रतरुणारुणाहतमेधिकम् । विषमविभिन्नमनःशिलाभङ्गपरुषमणिपर्वतार्धमिव नभः ॥] तिमिरेण रेचितं त्यक्तं सत्पल्लववदाताम्रण तरुणेनारुणेनाहता छन्ना । अरुणीकृतेति यावत् । तादृशी मेधिका स्वल्पमेघो यौवंभूतं प्राच्यवच्छिन्न नभो विषम विभिन्ना खण्डखण्डीकृता या मनःशिला तस्या भङ्गेन चूर्णेन परुषं रूक्षं विचित्रं वा मणिपर्वतस्यामिव दृश्यत इत्यन्वयः । तथा च गगनस्य नीलतया पर्वतेन, प्राच्यवच्छिन्नस्य तस्यारुणोदयारुणमेधिकाविशिष्टस्य पद्मरागादिमणि विशिष्टपर्वता. धन, तत्रवेतस्ततःप्रसृतानामरुण कान्तीनां मनःशिलाचूर्णेन तौल्यमित्युपमा ॥५॥ विमला-(प्राची दिशा में ) तिमिर से परित्यक्त पल्लव के समान ताम्र तरुण अरुण से आच्छन्न होने से बादल लाल हो गया, अतएव (नीला) आकाश, खण्ड-खण्ड की गयी मनःशिला ( मैनसिल ) के चूर्ण से विचित्र मणिपर्वत के अर्ध भाग के समान सुशोभित दीख पड़ा ॥५॥ अथ चन्द्रस्यास्तमनमाहताव प्र अस्थणिअम्बं णवसलिलाउण्णगअपअच्छविकलुसो। पत्तो अरुणण्णामिअपासल्लन्तगअणोसरन्तो व्व ससी ॥६॥ [ तावच्चास्तनितम्बं नवसलिलापूर्णगजपदच्छविकलुषः। प्राप्तोऽरुणोन्नामितपाायमानगगनापसरनिव शशी ॥] यावदरुणप्रागल्भ्यं भवति तावदेव शशी अस्ताचलनितम्बं प्राप्तः । कीदृक् । नवसलिलेनापूर्ण यद्गजस्य पदं मण्डलाकृतिपदस्थानं तस्य या छविस्तद्वत्कलुषः पाण्डुरः । तात्कालिकवृष्टिजलस्य कर्दमावि लत्वादिति भावः । उत्प्रेक्षतेअरुणेनोन्नामितमुत्तोलितम् अत एव पार्वायमानं पूर्वपार्वेनोत्थितं सत्पश्चिमपायेंनावनतं तथा प्रतिभासाद्यद्गगनं तस्मादपसरन्निव । अन्यत्रापि गृहादावेकपावे. नोत्थाप्यमाने शिरःस्थितं वस्त्वपरपान पततीति ध्वनिः ॥६॥ विमला-(तात्कालिक वृष्टि के ) नूतन जल से अत्यन्त पूर्ण, हाथी के ( मण्डलाकार ) पदचिह्न की छवि के समान पाण्डुर चन्द्रमा तब तक अस्ताचल के नितम्ब भाग ( उपत्यका भाग) पर पहुँच गया, मानों अरुण से गगन ऊपर को उठा दिया गया, जिससे उसका पूर्व वाला पार्श्व भाग उन्नत और दूसरा पार्श्व भाग अवनत हो गया, अतः ( शिरोभाग पर स्थित ) चन्द्रमा, अवनत हुये दूसरे पार्श्व भाग की ओर लुढक कर गिर गया ॥६॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५०५ गय वनानामवस्थामाहहोन्ति पवणाहप्राइ फुडमहुरविहंगणीहरन्तरुआई। गुञ्जन्तमहुअराई धुससिल्हालहुअफिसलाइ वणाई॥७॥ [ भवन्ति पवनाहतानि स्फुटमधुरविहंगनिहदद्रुतानि । गुञ्जन्मधुकराणि धुतशीतलघुककिसलयानि वनानि ।।] वनानि पवनेनाहतानि सन्ति धुतं पतितं यच्छीतं तेन लघूनि किसलयानि येषां तथाभूतानि भवन्ति । वायुना शीतपतनात्पत्त्राणां लघुत्वमित्यर्थः । कि भूतानि । स्फुटं मधुराणि विहंगानां निह दन्ति शब्दान्तरोत्पादीनि रुतानि यत्र तानि । प्रातर्विहंगादिशब्दोत्पत्तेरिति भावः। एवं गुञ्जन्तो मधुकरा येषु । सिल्हा शीते देशी ॥७॥ विमला-वनों में पक्षियों की मधुर स्पष्ट ध्वनि-प्रतिध्वनि उठने लगी, भौरे गूजने लगे तथा वायु से आहत होने से वनों के किसलय शीत झड़ जाने के कारण हलके हो गये ॥७॥ अथ चन्द्रस्य पतनमाहअरुणक्कन्तविअलिअ णिअङ्काणुग अबहलजोलाभरिअम् । अत्यसिहराहि पडि उक्खडिअकरावलम्बणं ससिबिम्बम् ॥८॥ [ भरुणाक्रान्तविगलितं निजाङ्कानुगतबहलज्योत्स्नाभृतम् । अस्तशिखरात्पतितमुत्खण्डितकरावलम्बनं शशिबिम्बम् ।।] अस्तशिखराच्छशिबिम्बं पतितम् । कीदृक् । अरुणेनाक्रान्तत्वादुत्तानीकृतत्वाद्विगलितं स्थानभ्रष्टम् । एवम्-बहिरसत्त्वान्निजाऽनुगताभिर्वहलज्योत्स्नाभिर्भूतं पूर्णम् । गुरुत्वात्पतनं युक्तमेवेत्याशयः । एवम्-उत्खण्डितं विघटितं करैः किरणरवलम्बनं यस्य । किरणानामसत्त्वात् । अन्योऽपि वृक्षादी वर्तमानस्त्याजितशाखादिनिष्ठहस्ताद्यवलम्बनः सन्गुरुत्वादधः पततीति ध्वनिः ॥८॥ विमला-चन्द्रमा की प्रचर ज्योत्स्ना उसके अङ्क में अनुगत हो गयी (बाहर न रह गयी ) अतएव उससे पूर्ण होने के कारण वह हलका नहीं रह गया ( भारी हो गया ) और किरणों का अवलम्बन भी छूट गया, इसी से अरुण द्वारा पकड़ कर स्थानभ्रष्ट किये जाने पर वह ( नीचे ) गिर गया ॥८॥ अथ चक्रयोः संघटनमाहपिअमवियोअदुक्खं कह वि गमेऊण जामिणी पहाए। अणुधाइ पडिकअन्ती अभट्ठाउं व सहमरी चक्काअम् ।।६।। [प्रियतमवियोगदुःखं कथमपि गमयित्वा यामिन्यां प्रभाते । अनुधावति प्रतिरुवत्यभ्युत्थातुमिव सहचरी चक्रवाकम् ॥] Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.६] सेतुबन्धम् [ द्वादश सहचरी चक्री प्रभाते चक्रवाकमनु लक्ष्यीकृत्य धावति गच्छति । उत्प्रेक्षतेअभ्युत्थातुमिव चक्रस्यागमनं ज्ञात्वाभ्युत्थानं कर्तुमिव । यथैकस्मिन्नागच्छत्यन्योऽभ्युत्थानं करोतीत्यर्थः । पाठान्तरे-वाति गच्छति 'वा गतिगन्धनयोः' इति धातुः । किं कृत्वा । यामिन्यां रात्रौ यामिन्या वा करणभूतया प्रियतमस्य चक्रस्य वियोगेन दुःखं कथमपि कष्टेन गमयित्वातिवाह्य। कीदृशी। प्रतिरुवती एतज्जिज्ञासानिमित्तं चक्रेण रुते कृते सति प्रतिरवं कुर्वती । प्रतिरोदनं कुर्वतीत्यर्थे प्रतिरुदतीति वा । एतेनोत्कण्ठा सूचिता ॥६॥ विमला-[ सहचरी ] चक्रवाकी [ प्रियतम ] चक्रवाक के वियोग-दुःख को रात में किसी प्रकार ( कठिनाई से ) झेल कर प्रातः ( चक्रवाक की ध्वनि को सुन कर ) उसका आगमन जान कर प्रतिरव करती हुई मानों अभ्युत्थान ( आगे बढ़ कर मिलने ) के लिये उसकी ओर दौड़ पड़ी ॥६॥ अस्ताचलस्यावस्थामाह जा समल्लिअन्ते अब्भहियोस हिसिहाकरालिअपासम् । अत्थसिहरं मिअङ्क अण्णमअपअट्टचन्दमणिणीसन्दम् ॥१०॥ [ जातं समालीयमानेऽभ्यधिकौषधिशिखाकरालितपार्श्वम् । अस्तशिखरं मृगाङ्केऽन्यमयप्रवृत्तचन्द्रमणिनिःस्यन्दम् ।।] मृगाङ्के समालीयमाने संबद्धे शिखरेणैव तिरोहितत्वाल्लीनतां गच्छति वास्ताचलशिखरं जातम् । कीदृक् । अभ्यधिका भिश्चन्द्रस्य संनिधानेन प्रौढाभिरोषधीनां शिखाभिः करा लितं दन्तुरितं पाश्वं यस्य तथाभूतम् । एवम्-अन्यमयमन्यादर्श तथा स्यात्तथा प्रवृत्तश्चन्द्रमणीनां निःस्पन्दो जलनिर्गमो यत्र । चन्द्रस्यातिसंनिहितत्वेन बाहुल्यादिति भावः । चन्द्रम्य लीनतापक्षेऽभ्यधिकानां नानाविधानामोषधीनामित्यन्वयः कर्तव्यः । एवं च-अन्यमयमल्पमित्यर्थः । तथा च-चन्द्रस्यास्तमनादोषधिप्रभाणां दन्तुरितत्वमात्रं न तु प्रौढ़िः, चन्द्रमणीनामपि जलनिगमः पूर्वापेक्षया स्वल्प एव सूर्योदयकालमांनिध्यादिति भावः ।।१०।। विमला-(अस्ताचल के शिखर से ) चन्द्रमा का सम्बन्ध होने पर (चन्द्रमा के निकट होने के कारण ) ओषधियों की प्रभा अत्यन्त अधिक हो गयी, जिससे अस्त शिखर का पार्श्व भाग [ करालित ] दाँतेदार हो उठा तथा वहाँ चन्द्रमणियों से जल [ अन्यमयम् ] अधिकता से बहने लगा ॥१०॥ अथारुणोदयमाहदूरोण अणक्खत्त अरुणसिहाहअगलत्थिओणअजोलम् । । अस्थमइ व ससिसहिअं उठेइ व उअअपव्वयाहि णहअलम् ॥११॥ [ दूरावनतनक्षत्रमरुणशिखाहतगलहस्तितावनतज्योत्स्नम् । अस्तायत इव शशिसहितमुत्तिष्ठतीवोदयपर्वतान्नभस्तलम् ॥] Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५०७ दुरादवनतानि नक्षत्राणि यस्मात् । एवम्-अरुणशिखाभिराहताः स्पृष्टा अत एव--गलहस्तिताः प्रेरिताः सत्योऽवनताः प्रतीच्यां पतिता ज्योत्स्ना यत्र तादृशं नभस्तलं शशिना सहितमस्तायतेऽस्तं यातीवोदयपर्वतादुत्तिष्ठतीव । चन्द्रास्तमनारुणोद्गमाभ्यां तथा बुद्ध्युत्पत्तेरियमुत्प्रेक्षा ॥११॥ विमला-गगनतल से नक्षत्र दूरावनत हो गये । अरुण प्रभा से स्पृष्ट होने से भगायी गयी ज्योत्स्ना का (पश्चिम में ) पतन हो गया, अतएव नभस्तल. ( चन्द्रमा के अस्तंगत होने से ) चन्द्रमासहित अस्तंगत होता हुआ तथा ( अरुणोदय से ) उदयगिरि से ऊपर उठता हुआ-सा प्रतीत हुआ ॥११॥ अथ प्रत्यूषापगममाहपइलम्भेण पोसो जाओ दिण्णप्फलो रइसुहेण णिसा। आणिअविरहक्कण्ठो गलइ अगिविण्णवम्महो पच्च सो ॥१२॥ [पतिलम्भेन प्रदोषो जातो दत्तफलो रतिसुखेन निशा। आनीतविरहोत्कण्ठो गलत्यनिविण्णमन्मथः प्रत्यूषः ।।] .. स्त्रीणां पतिप्राप्त्या प्रदोषो निशाद्यभागो दत्तफलो जातः । असति पतिसमागमे दूतीगतागतेन तच्चर्चया सति च तद्दर्शनादिनापूर्वरसोत्पत्तेरिति भावः । तदुत्तरमालिङ्गनचुम्बनादिना रतिसुखेन निशापि दत्तफला । जातेत्यर्थात् । आनीता विरहादुत्कण्ठा येन । अत एव-अनिविण्णोऽनिर्वाण उद्दीप्तो वा मन्मथो यत्र तथाभूतः सन् प्रत्यूषः परं गलति गच्छति । प्रियविश्लेषशङ्कया रसविच्छेदकत्वेन हृदये न लगतीत्यर्थः ॥१२॥ विमला-स्त्रियों का प्रदोषकाल (रात्रि का प्रथम भाग) पति के मिलने से सफल हुआ और रात भी रतिसुख ( आलिङ्गन चुम्बनादि ) सफल रही किन्तु प्रभातकाल प्रियवियोग की उत्कण्ठा और मन्मथ ( काम ) की उद्दीप्ति के कारण ( निष्फल एवं दुःखद ) बीता ।।१२।। अथ प्राभातिकं सुरतमाहवीसम्भवढि अरसं अइराग्रक्वलिबसेससंठिपरसणम् । विअलिअमएण णिउणं पच्चूसर पओसदूरभहिअम् ।। १३॥ [विश्रम्भवधितरसमतिरागस्खलितशेषसंस्थितरसनम् । विगलितमदेन निपुणं प्रत्यूषरतं प्रदोषदूराभ्यधिकम् ॥] प्रत्यूषरतं प्रदोषरताद्रेणाभ्यधिकं प्राथमिकादपि प्रदोषरताद्रसनीयतयातिश्लाघनीयं जातमित्यर्थः । तदेवाह-कीदृक् । विश्रम्भेण प्रत्यासत्या वर्धितो रसः संभोगरूपः शृङ्गारो मनःप्रीतिर्वा यत्र । द्वितीयरते विश्रम्भेण लज्जाविरहादुत्कण्ठाया यथावदभिव्यञ्जनात् । न तु प्रथमरत इति भावः । अतिरागेणात्यनुबन्धेनात्यास Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] सेतुबन्धम् [ द्वादश ङ्गेन वा स्खलितापगता शेषेणैकदेशेन संस्थिता रसना मत्र । शेषसंस्थिता अपि रसना अतिरागेण स्खलिता इत्यर्थः। प्रदोषरते लज्जासत्त्वेनोत्कण्ठावशादल्पकालव्याप्त्या च तथाविधोपमर्दाभावादसनादिकं शेषावच्छेदेन स्थितमेव, द्वितीयरते तु विश्रम्भापगतलज्जत्वेनाधिक समयव्याप्त्या च बहुविधोपमर्दाच्छेषावच्छेदेनापि न स्थितमिति रसनारूपोऽप्यन्तरायः सुरते न स्थित इति भाव इति वयम् । सांप्रदायिकास्तु-अतिरागेण स्खलिता अपि रसना शेषेण संस्थितां यत्रेत्यर्थमाहुः । 'वसणम्' इति पाठे शेषेणाञ्चलादिनेत्यर्थः । तथा च-प्रथमरते लज्जासत्त्वादङ्गावरणार्थमञ्चलादीनां भूयो भूयः समर्पणादेकदेशेन वसनं स्थितमेव । द्वितीयरते त्वतिरागेण तदपि स्वलितम् । अन्यत्पूर्ववद्वयाख्येयम् । एवं च विगलितमदत्वेन हेतुना निपुणं चतुरं ज्ञानपूर्वकतयालिङ्गनचुम्बनादिव्यापारवैशिष्ट्यविशिष्टमित्यर्थः । प्रथमरते तु मदसत्त्वेन रसविशेषमग्नचित्ततया तादृशनैपुण्याभावादिति भावः । 'दूरन्तरिअम्' इति पाठे प्रत्यूषरतं प्रदोषरतापेक्षया दूरान्तरितम् । चिरकालेन जातमित्यर्थः । विगलितमदेन निपुणं सलज्जम् । प्रथमं मदाधिक्याल्लज्जा नासीदित्यपि केचित् । अचिराच्चेति सं[त्युप]स्कृत्य प्रदोषरतानन्तरमचिरादेवोत्कण्ठया प्रत्यूषरतं जातमित्यर्थः । तेन प्रथमरतस्य चिरकालव्यापकत्वमित्यन्ये ।। १३॥ विमला-(प्रदोषकालीन सुरत प्राथमिक, अतएव रसनीय होने के कारण मनाघनीय होता ही है किन्तु ) प्रत्यूषकालीन सुरत प्रदोषकालीन से भी अधिक रसनीय एवं श्लाघनीय रहा, क्योंकि इसमें-विश्रम्भ ( घनिष्ठता ) के कारण ( लज्जा न होने से ) रस बढ़ जाता है ( जबकि प्रदोषकालीन में लज्जा की 'विद्यमानता से वह बात नहीं आ पाती है ) तथा प्रत्यूषरत में अत्यन्त आसक्ति के कारण शेषसंस्थित रसना भी हट कर दूर हो जाती है ( जबकि प्रदोषरत में लज्जा की विद्यमानता से वैसा उपमर्दन नहीं हो पाता, अतएव रसना अपने स्थान पर कुछ न कुछ स्थित रह कर सुरत में व्यवधान डालती है ) ॥१३॥ चषकमाहसंकन्ताहरराअं थोप्रसुरासंठिउप्पलद्धत्थइमम् । चस कामिणिमुक्कं किलिन्तवउलतणुओ ण मुञ्चइ गन्धो ॥१४॥ [संक्रान्ताधररागं स्तोकसुरासंस्थितोत्पलार्धस्थगितम् । चषकं कामिनीमुक्तं क्लाम्यद्बकुलतनुको न मुञ्चति गन्धः ॥] कामिनीभिर्मुक्तं त्यक्तमपि चषकं क्लाम्यन्म्लायद्यद्बकुलपुष्पं तद्गन्धवत्तनुकः स्वल्पो गन्धो न मुञ्चति । ईषत्सुरागन्धस्तिष्ठत्येवेत्यर्थः। कीदृशम् । संक्रान्तः पानसमये लग्नोऽधरस्य रागस्ताम्बूलादिकृतो यत्र । एवम्-स्तोकसुरायां संस्थिते Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५०६ नोत्पलेनार्धस्थगितमर्धाच्छादितम् । सुराया निपीतत्वेन किंचिदवशेषसत्त्वात्तत्र चोत्पलानामवशिष्टत्वादिति भावः । क्लाम्यता बकुलेन तनुरल्पीयानित्यपि केचित् ॥१४॥ विमला-(सुरापान के समान ) कामिनी के अधर का ( ताम्बूलादि से किया गया ) राग, चषक (प्याला) में लग गया। पीने से थोड़ी सी बची सुरा में ( सुरा को सुवासित करने के लिये डाले गये ) स्थित कमल से आधा भरे हये चषक (प्याला) को मुरझाते हुये बकुलपुष्प ( मौलसिरी का फूल ) के गन्ध के समान स्वल्प गन्ध ने नहीं त्यागा ( थोड़ी सी सुगन्ध रहती ही है ), यद्यपि उस (चषक ) को कामिनी ने त्याग दिया ॥१४॥ स्त्रीणां रतान्तावस्थामाह पसिढिलकेसफलाओ उत्तिअमेहलावद्धणिसम्बो। छामालग्गपरिमलो पिअअममुक्कतणुओ विलाणिसिसत्थो ॥१५॥ [प्रशिथिलकेशकलाप उर्तितमेखलावरुद्धनितम्बः। छायालग्नपरिमलः प्रियतममुक्ततनुको विलासिनीसार्थः ॥] विलासिनीनां सार्थः प्रियतमेन मुक्तः संभोगानन्तरं त्यक्तः संस्तनुको दुर्वलो जात इति शेषः । अतिसुरतोपमर्दात् । भाविविरहादित्यन्ये । किभूतः । प्रशिथिलो विकीर्णः केशकलापो यस्येति विपरीतरतावस्था । एवम्-उद्वर्तितयोर्ध्वमुखीभूय स्थितया मेखलयावरुद्धो नितम्बो यस्येति साहजिकरतावस्था। तथा च-उभयरूपं रतमासीदिति भावः। एवम्-छायया आभामात्रेण यत्किचिदित्यर्थः । लग्नः परिमलः कस्तुरिकादिविमर्दोत्थतद्गन्धो वा यस्य । एतेनात्युपभोगः सूचितः । यद्वा–संभोगानन्तरमुषसि नारीणां गृहगमनाय शरीरसंयमनावस्थेयम् । तथाहि -प्रशिथिलोऽक्षमतया बन्धदाढर्याभावेन दिशि दिशि पतितः । एवम्-उर्तितया आलस्यात्त्वरया वा यथा तथार्पणेन पूर्व विपरीतयेत्यर्थः ॥१५॥ विमला-(विपरीत रत करने के कारण ) विलासिनी-वृन्द का केशकलाप बिखर गया एवं ( स्वाभाविक रत करने के कारण ) उलटी हुई मेखला ने उसके नितम्ब को अवरुद्ध कर दिया तथा छायामात्र ( थोड़ी-सी ) उनकी गन्ध लगी रह गयी। इस अवस्था में प्रियतम ने उसे जब छोड़ा तो वह (भावी विरह से) क्षीण हो गया ॥१५॥ तदैतासां गृहगमनारम्भमेवाह दुणिमिवामचलणं वलन्तपीणोरुविसमपाउद्घारम् । दुक्खेण संठविज्जइ पिअत्तणिवत्तपत्थि जुवईहि ॥१६ [ दुनियोजितवामचरणं वलत्पीनोरुविषमपादोद्धारम् । दुःखेन संस्थाप्यते प्रियाभिमुखनिवृत्तप्रस्थितं युवतीभिः ॥] Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] सेतुबन्धम् [ द्वादश युवतीभिः प्रियाभिमुखान्निवृत्तं प्रियं पश्चात्कृत्य प्रवृत्तम् । प्रियपराङ्मुखमि - त्यर्थः । यत्प्रस्थितं गृहगमनोद्यमस्तद्दुःखेन संस्थाप्यते । स्थिरीक्रियते तात्कालिक - विरहात्संभोगश्रमाच्चेति भावः । किंभूतम् । दुःखेन नियोजितं भूमावर्पितं वामचरणं यत्र । एवम् - पीनत्वाद्वलता संमुखमुत्थापयितुम सामर्थ्याद्वक्रीभवतोरुणा हेतुभूतेन विषमः श्रमसाध्यतया विपर्यस्तो दक्षिणपादस्योद्धार उत्थापनं यत्र । स्त्रियो हि प्रथमं वामपादमये विन्यस्य पश्चाद्दक्षिणपादमुत्थाप्य चलन्तीति स्वभावः । तथा च-तथाकतुमुद्यता अपि संभोगोत्कर्षाज्जङ्घानितम्बस्य जडीभूतत्वेन झटित्युत्थापनमर्पणं वा चरणयोः कर्तुं न शक्नुवन्तीति भावः ॥ १६ ॥ विमला – प्रिय की ओर से मुँह फेर कर घर जाते समय ( तात्कालिक विरह एवं सम्भोगश्रम के कारण ) युवतियों ने बायाँ पैर भूमि पर बड़े दुःख से रक्खा और दायें पैर को आगे बढ़ाने के लिये उठाने में असमर्थ होने के कारण उनका पीन ऊरु ( जंघा ) झुक गया तथा उसका उठाना कठिन हो गया । इस कार बड़ी कठिनाई से ही वे घर को प्रस्थान कर सकीं ॥१६॥ अथ दिनागमनमाहसंखोहिअकमलसरो संझा अवधा उद्दमिअमुहो । ठाफिडिन व गओ रति भमिऊण पडिणिअत्तो दिअसो ॥ १७ ॥ संध्या तपाताम्रधातुकर्दमितमुखः । [ संक्षोभितकमलसराः स्थानस्फिटित इन गजो रात्रि भ्रमित्वा प्रतिनिवृत्तो दिवसः ॥ ] स्थान एव स्फिटितो भ्रष्टोऽपगतो दिवसो रात्रि व्याप्य भ्रमित्वा द्वीपान्तरं गत्वा -गज इव प्रतिनिवृत्तः पुनरागतः । यथा बन्धनस्थानादु भ्रष्टो गजो रात्री भ्रमित्वा प्रतिनिवर्तते प्रातः स्वस्थानमायातीत्यर्थः । साम्यमाह -- कीदृक् । संक्षोभितं विकासितं कमल प्रधानं सरो येन । पक्ष-संक्षोभितं शुण्डाद्यभिघातेनोपमदतम् । एवम् -- संध्यातप एवाताम्रो धातुकर्दमो गैरिकपङ्कस्तद्विशिष्टं मुखमुपक्रमो यस्य । 'पक्षे --संध्यातपवदाताम्र इत्यर्थः । तटाभिघातादिना मुखे गैरिकसम्पर्कादिति - भावः ॥ १७ ॥ विमला - जैसे कमलप्रधान सर को ( संक्षोभित ) उपमदित करने वाला तथा सन्ध्या तप के समान लाल गेरू के पङ्क से लिप्त मुख वाला गज बन्धन- स्थान से भ्रष्ट हो रात भर घूम घाम कर प्रातः पुनः अपने स्थान को आता है वैसे ही दिवस, जिसने कमलप्रधान सर को ( संक्षोभित ) विकसित कर दिया तथा जिसका मुख ( आरम्भ ) सन्ध्यातपरूप गेरू के पङ्क से विशिष्ट है, अपने • स्थान से भ्रष्ट हो रात भर अन्य द्वीपों में घूम कर पुनः लौट कर आ गया ||१७| Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् अथ कमल प्रकाशमाह अरुणपडिबोहिआए अग्भूत्थन्तीम आश्रअं व दिणश्ररम् । साहेन्ति विहडिआइ दिमिअं कमलाई णिश्रसलच्छीअ पनम् ॥ १८ ॥ [ अरुणप्रतिबोधिताया अभ्युत्तिष्ठन्त्यागतमिव दिनकरम् । [ ५११ शासति विघटितानि नियोजितं कमलानि दिवसलक्ष्म्याः पदम् ॥ ] विघटितानि विकसितानि कमलानि आगतं दिनकरमध्युत्तिष्ठन्त्येव तदभ्युत्थानमाचरन्त्येव दिवसलक्ष्म्या नियोजितमर्पितं पदं चरणं शासति कथयन्ति । दिनकरप्रत्युद्भजने दिन श्रियात्र चरणं निहितमिति कमलदल विघटनेन ज्ञायत इति भावः । किंभूतायाः । अरुणेन प्रतिबोधिताया जागरिताया निशि तत्र सुप्ताया इत्यर्थात् । अरुणोदयमुपक्रम्य प्रथमं कमलवन एव तदुद्भवादिति तात्पर्यम् । अन्योऽपि — 'केनचिदयं मान्यो भवति, अस्योपस्थानं क्रियताम्' -- इत्यादिप्रतिबोधितस्त्वरया गच्छन् यत्र न्यस्यति तत्राभिघातादन्यथा संस्थानं भवतीति ध्वनिः । यद्वाror प्रतिबोधिताया: 'तव स्वामी दिनकर इहागतः' इति ज्ञापितायाः । इत्यादिरूपेण समासोक्त्या प्रोषितभर्तृ कावृत्तान्त एव सूचितः || १८ || विमला - अरुण के द्वारा ( स्वामी सूर्य के आगमन का समाचार ) जान कर, सूर्य का स्वागत करने के लिये अभ्युत्थान करती हुई दिनश्री ने कमल पर अपना चरण रख दिया - यह कमलदलों के प्रस्फुटित होने से विदित हुआ || १८ || कम्बूनां व्यवस्थामाह एकेक्कमवोच्छिणं पोसवोसत्यविहडिगं उअहिजले । जण व चन्दपडिमं अल्लिनइ विहाअकामरं सङ्ख उलम् । १el [ एकैक क्रमव्यवच्छिन्नं प्रदोषविश्वस्तविघटितमुदधिजले । जननीमिव चन्द्रप्रतिमामालीयते विभातकातरं शङ्खकुलम् ।। ] प्रदोषे विश्वस्तमभयं यथा स्यात्तथा विघटितं सदेकैकक्रमेण व्यवच्छिन्नं विश्लिष्टं शङ्खकुलं प्रभाते कातरं विश्लेषेण दुःखितं सज्जननीं मातरमालीयते एकस्या एवै - कदा शतावधिशङ्खा उत्पद्यन्ते । तथा च - ते सहैव संचरन्तः सायं विश्लिष्टाः प्रातः पुनर्जननीमनुसंधाय तत्समीपे वर्तुलीभवन्तीत्यर्थः । किंभूतामिव । उदधिजले चन्द्रप्रतिमामिव स्थितामित्यर्थः । प्रातश्चन्द्रस्य प्रतिबिम्बस्य तत्र स्फुटत्वादिति भावः । श्वैत्येन साम्यम् । यद्वा - -जननीमिव चन्द्रप्रतिमामालीयते इत्युत्प्रेक्षा । -जननीभ्रमाच्चन्द्रप्रतिबिम्बमाश्लिष्य वर्तलीभवन्तीत्यर्थः । यद्वा -- यथा जननीभ्रम आलीयते तथा तद्भ्रमाच्चन्द्रप्रतिबिम्बमपीति सहोपमा ॥ १६ ॥ विमला -- शङ्खकुल सायंकाल निर्भय एक-एक करके वियुक्त हो गया था । प्रातः ( रात के वियोग से ) दुःखित वह उदधिजल में चन्द्र बिम्ब को जननी समझ कर उसके समीप एकत्र हो गया ॥ १६ ॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] सेतुबन्धम् [द्वादश अथ कमलसौरभोद्गममाहहोइ कमलाअराणं समूससन्ताण चिरणिरोहेक्कमुहो। संचालिअमहुमहरो मारुअभिण्णो वि मंसलो च्चिअ गन्धो॥२०॥ [भवति कमलाकराणां समुच्छ्वसतां चिरनिरोधैकमुखः । संचालितमधुमधुरो मारुतभिन्नोऽपि मांसल एव गन्धः ॥ ] समुच्छ्वसतां विकसतां कमलाकराणां गन्धः प्राभातिकेन मारुतेन भिन्नोऽपि दिशि दिशि क्षिप्तोऽपि मांसलो घन एव भवति । अत्र बीजमाह-चिरं विरोधेन मुद्रणाबहिर्गमन प्रतिबन्धेनैकमुख एक मुखं यस्येत्यहमहमिकया बहिर्भवितुमुत्कण्ठित इत्यर्थः । यद्वा-चिरनिरोधे सत्येकं मुखं द्वारं यस्येत्यर्थः । तेन प्रतिरुद्धानामीषत्कमलविकासे तत्पथेन बहिर्भवतामनिलेनाप्यल्पता कतुन शक्यत इति भावः । एवं संचालितेन मधुना मधुरो मनोहारी ॥२०॥ विमला-विकसित होते हुये कमलों की गन्ध संचालित मधु से मनोहारी है तथा चिरकाल तक कमलों के मुंदे रहने से अभी पूरा विकास न होने के कारण गन्ध के निकलने का एक ही मुख ( द्वारा) है, अतएव वायु उस मार्ग से निकलती हुई उस (गन्ध ) को दिशाओं में फैलाता हुआ भी कम नहीं कर सका ( गन्ध घनी ही है ).॥२०॥ अथ राक्षसानामपशकुनमाह जं चिअ कामिणिसत्यं पाउच्छताण मुक्कवाहत्थबअम् । रक्तसभडाण तं चिअ जाअं णिप्पच्छिमोवऊहणसोक्तम् ॥२१॥ [य एव कामिनीसार्थः आपृच्छयमानानां मुक्तवाष्पस्तबकः । राक्षसभटानां स एव जातो निष्पनिमोपगूहनसोख्यः ॥] आप्रश्न युद्धाय संवदनं कुर्वतां राक्षसभटानां य एव कामिनीसार्थः समरशङ्कया त्यक्ताश्रुपूरो वृत्तः स एव निष्पश्चिममपुनर्भावि उपगृहनसौख्यमालिङ्गनसौख्यं यस्य तथाभूतो जातः । तथा च संवदनकालीनपरिरम्भणातिरिक्तं परिरम्भणं नास्तीत्यमङ्गलं तात्कालिकाश्रुनिर्गमेन सूचितमिति संग्रामे रक्षसां क्षय उक्तः ॥२१॥ विमला-राक्षसों ने अपनी-अपनी कामिनियों से युद्धार्थ जाने की अनुमति मांगी ! उस समय कामिनियों की आँखों से ( पति के मरण की भावी शङ्का से) जो आँसू गिरे उसी से यह विदित हो गया कि पति द्वारा उनका किया गया यह आलिङ्गन अन्तिम है, अब पुनः नहीं होगा ॥२१॥ अथ रामस्य निद्राभङ्गमाहअह समरन्तरिअसुहो दहमहवेरपरिमञ्चणाअअदिअहो । लद्धामरिसावसरो अलद्धणिद्दो वि राहओ पडिउद्घो॥२२॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् ५१३ [ अथ समरान्तरितसुखो दशमुखवैरप्रतिमोचनागतदिवसः। लब्धामर्षावसरोऽलब्धनिद्रोऽपि राघवः प्रतिबुद्धः ॥] अथ प्रत्यूषोत्तरं देवतारूपत्वाद्विरहदुःखाद्वाऽलब्धनिद्रोऽपि राघवः प्रतिबुद्धो जागरितः । लौकिक चक्षुर्मुद्रणं विरहजन्यमोहं वा तत्याजेत्यर्थः । कीदृक् । समरेण युद्धरसेनान्तरितं विनितं संकल्पोपनीतसीतासमागमजन्यं सुखं यस्य । यद्वा-समरेणान्तरितमन्तःप्रापितं सुखं यस्य । विरहदुःखे सत्येव वीररसोद्रेकेण परं सुखोत्पत्तिरित्यर्थः । एवं दशमुखे यद्वैरं तत्प्रतिमोचनाय प्रत्यपकारायागतो दिवसो यस्य । एवं लब्धोऽमर्षस्यावसरो येन । तथा च--तात्कालिकामर्षोद्गतयुद्धरसेन शृङ्गारोऽन्तरित इति भावशान्त्युदयौ ॥२२॥ विमला-( विरहदुःख से ) नींद न आने पर भी राम जाग गये ( विरहजन्य मोह को छोड़ कर अवश्यंभावी युद्ध के लिये जागरूक हो गये)। समर ने उनके हृदय को बड़ा सुख पहुँचाया और अमर्ष करने तथा रावण से वैर का बदला लेने का उपयुक्त अवसर एवं दिन उन्हें मिल गया ॥२२॥ अथ रामस्य मनःखेदमाह-. सीमाविमोअदुक्खं विसहन्तस्स च उजाममेत्तन्तरिअम् । दोहो अ गओ कालो ण समा एक्का असा णिसा रहुवइणो ॥२३॥ [ सीतावियोगदुःखं विषहमाणस्य चतुर्याममात्रान्तरितम् । दीर्घश्च गतः कालो न समैका च सा निशा रघुपतेः ॥] चत्वारो यामाः प्रहरचतुष्टयं तन्मात्रेणान्तरितं सीतावियोगदुःखं विषहमानस्य । प्रातस्तदुःखोपशमादिति भावः । रघुपतेर्दी! बहुतरश्च कालो गतः । सैका निशा परं न गता न गतव । संनिहितसीतासमागमोत्कण्ठयातिवाहयितुं दुःसहा बभूवेत्यर्थः । कीदृशी । न समातीव बहुतरकालेनापि न तुल्या तावत्समयजन्यविरहदुःखापेक्षया तद्रात्रिजन्यतददुःखाधिक्यादियमेवाधिकेत्यर्थः । काकाक्षिगोलकन्यायादुभयत्रान्वयो नकारस्य । वस्तुतस्तु रघुपतेर्दीर्घश्च कालो गतः सा च निशा गता, किं त्वियं न समा दुःखहेतुत्वात्ततोऽधिकेत्यर्थः ॥२३॥ दिमला–यों तो सीता के वियोग का दुःख सहते हुये राम को बहुत लम्बा समय बिताना पड़ा किन्तु ( उस रात के ) केवल चार पहर में हृदय को जो वियोग-दुःख प्राप्त हुआ उसे सहते हुए राम को वह रात दुःसह हो गयी, अतः वह एक रात गत लम्बे समय के बराबर नहीं, बल्कि अधिक लम्बी प्रतीत हुई ॥२३॥ ३३ से० ब० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४] सेतुबन्धम् [द्वादश अथ रामस्य धनुर्दर्शनमाह उम्मिल्लन्ती चिअ से णिहासेसोण अच्छिवत्तक्खलिया। गुरुओलइभरणभरेदिट्ठी विठ्ठसमरे धणुम्मि णिसण्णा ॥२४॥ [ उन्मीलन्त्येवास्य निद्राशेषावनताक्षिपत्रस्खलिता। गुरुकावलगितरणभरे दृष्टिदृष्टसमरे धनुषि निषण्णा ॥] उन्मीलन्त्येवोन्मेषसमकालमेवास्य दृष्टिर्धनुषि निषण्णा । कीदृशी । निद्रायाः शेषेण तन्द्रीरूपावशिष्टभागेन निद्राविच्छेदेन वावनताभ्यामक्षिपत्राभ्यां स्खलिता पृथग्भूता । तथा च -- निद्राजन्यालस्येन किंचिन्मिलदप्यक्षिपत्रद्वयं विजित्य प्रबोधसमकालमेव निखिलविषयपरित्यागेन धनुषि लग्नेति वीर रसोत्कर्षः सूचितः । किंभूते। गुरुकोऽन्यानिर्वाह्योऽवलगितो रणभरो यत्र । एवम् --- दृष्टः समरो यस्येति सर्वत्र जयशीलत्वादध्यवसाय उक्तः ।।२४।। विमला-[ निद्राशेष ] निद्राजन्य आलस्य से [ अवनत ] मुदी हुई पलकों से ( उन्हें परास्त कर ) पृथक् हुई राम की दृष्टि जागते ही उस धनुष पर स्थित हुई जिस पर युद्ध का भारी भार निर्भर था और जो अनेक युद्धों को देख चुका था ( अनेक युद्धों में सफलता प्राप्त कर चुका था )॥२४।। अथ रामस्योत्थानमाहमुअइ अ किलिन्तकुसुमं अवहोवासमलिग्रोवहाणद्धन्तम् । सइपरिअत्तणविसमं हिअमावेपिसुणं सिलासअणोअम् ।।२५।। [ मुञ्चति च क्लाम्यत्कुसुममुभयावकाशमृदितोपधानार्धान्तम् । सदापरिवर्तनविषमं हृदयावेगपिशुनं शिलाशयनीयम् ।। ] रामो न केवलं धनुः पश्यति, अपि तु शिलारूपं शयनीयं मुञ्चति च । शिलायाः शीतलत्वेन शयनीयतया विरहतापस्याधिक्यमुक्तम् । कीदृशम् । सदापरिवर्तनेन पान्तिरशयनेन विषमं निम्नोन्नतम्, अत एव क्लाम्यन्ति कुसुमानि यत्र । एवं वामदक्षिणावकाशद्वये मुदितौ घृष्टावुपधानस्यार्धान्तौ यत्रेति स्थैर्याभावेन संतापस्याधिक्यमुक्तम् । अत एव हृदयावेगस्य मनस्तापस्य पिशुनं कथकम् । एभिरेव संतापोत्कर्षोऽनुमीयत इति भावः ।।२५॥ विमला-राम ने (धनुष पर दष्टि डालने के साथ ही) उस शिलारूप शय्या को भी छोड़ा, जिस पर बिछे हुये फूल निरन्तर करवट बदलने से कुम्हला गये थे तथा जो कहीं ऊँची कहीं नीची हो गयी थी एवम् तकिये के दायें-बायें भाग मसल उठे थे ॥२५॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] अथ जटासंवरणं संदानितकेनाहतो सेलसारगरुअ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् अइराहोन्तबइनासमागमपिसुणम् । अहिन्दिऊण सुइरं फुरमाणम्भहिअपीवरं वामभुअम् ॥ २६ ॥ खणसंमाणिअधम्मो कड् ढणमग्गमोअपरिट्ठविनम् । बन्धइ मखिअविसज्जितमालसअण सुरहि जडापब्भारम् ॥२७॥ ( जुग्गअम् ) [ ततः अभिनन्द्य सुचिरं स्फुरदभ्यधिकपीवरं शैलसारगुरुकमचिराद्भविष्यद्दयितासमागमपिशुनम् । [ ५१५ वामभुजम् ॥ क्षण संमानितधर्मो धनुः कर्षणमार्गमोचितपरिस्थापितम् । बध्नाति मृदितविसृष्टतमालशयनसुरभि जटाप्राग्भारम् ॥ ] ( युग्मकम् ) ततस्तल्पत्यागानन्तरं जटाप्राग्भारं बध्नाति । राम इत्यर्थात् । इत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः । किं कृत्वा । स्फुरत्स्पन्दमानम् । अत एवाभ्यधिकं मांसलं वामभुजं सुचिरमभिनन्द्य स्तुत्वा । तथा च- - शकुनसाद्गुण्यस्याभिनन्दनं कर्तव्यमिति सूचि - तम् । किंभूतम् । शैलवत्सारेण बलेन गुरुकम् । एवम् - अचिराद्भाविनः सीतासमागमस्य पिशुनं कथकम् । इति कार्यसिद्धिरुक्ता । स कीदृक् । क्षणं क्षणेनोरसवेन वा संमानितो धर्मो येन । देवपूजादेस्तत्काल कर्तव्यत्वादिति मङ्गलसूचनम् । जटाप्राग्भारं किंभूतम् । धनुःकर्षणमार्गान्मोचितं शरत्यागकाले करस्खलनशङ्कया कर्णमूलाद्वहिष्कृतम् । अथ च - परिस्थापितं संयतम् । एवम् - पार्श्वपरिवर्तनादिना मृदितं तदनु तदानीं विसृष्टं यत्तमालपुष्पशयनं तेन सौरभयुक्तम् ।।२६-२७॥ विमला - शय्या छोड़ने के अनन्तर राम ने प्रसन्नता से नित्यक्रिया निपटा कर देवपूजन किया और शैलवत् बल से भारी, शीघ्र ही होने वाले प्रियासमागम के सूचक, फड़कते हुये अत्यन्त अधिक मांसल वामभुज का अभिनन्दन कर धनुः कर्षण के मार्ग ( कर्णमूल ) से हटाये गये एवं संयत जटा के अग्रभाग को बाँध लिया, जो मृदित एवं परित्यक्त तमालपुष्पशयन से सौरभयुक्त था ।।२६-२७॥ अथ धनुर्ग्रहणमाह दाऊण गलिअवाहं चिरधरिमाऊरमाणरोसा अम्बम् । दिठि लङ्काहिहि समस्थणिव्वडिअतारना दुप्पेच्छम् ||२८|| गेल्लइ गहिअत्थामं सीआसुष्णइअस अणमग्गठविअम् । बहुसो विरहुक्कण्ठिअणि मिश्र मुहोरुण्ण मइअकोडि चावम् ||२६|| ( जुग्गअम् ) Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६] सेतुबन्धम् [ द्वादश [ दत्त्वा गलितबाष्पां चिरधृतापूर्यमाणरोषातानाम् । दृष्टि लङ्काभिमुखीं समस्तनिर्वलिततारकादुष्प्रेक्ष्याम् ॥ गृह्णाति गृहीतस्थामं म) सीताशुन्यीकृतशयनमार्गस्थापितम् । बहुशो विरहोत्कण्ठितनियोजितमुखावरुदितमृदितकोटि चापम् ।।] (युग्मकम) लङ्काभिमुखी दृष्टि दत्त्वा । लङ्कां दृष्ट्वेत्यर्थः । रामश्चापं गृह्णातीत्युत्तरस्कन्धकेन संदानितकम् । किंभूताम् । गलितो बाष्पो यत इति सीतापहाराद्दुःखमुक्तम् । एवम्-चिरं धृतेन संचितेन तदानीं समयलाभादापूर्यमाणेन संनद्धेन रोषेणाताम्राम् । अत एव समस्तं निर्वलितया रोषेण विस्फारणात्पृथग्भूतया तारकया दुष्प्रेक्ष्यामिति सपक्षस्यापि दुष्प्रेक्षणीयतया विपक्षनाशकत्वमुक्तम् । चापं कीदृशम् । गृहीतं ज्ञातं स्थाम बलं यस्य तम्(त)। एवम् -सीताया शून्यीकृते शयनस्य मार्गे वामपार्श्वरूपे स्थाने सीताप्रातिनिध्येन स्थापितम् । एवम्-विरहा. दुत्कण्ठितेनोत्कण्ठया। यद्वा-विरहोत्कण्ठितं संनियोजितं सीताभ्रमेण प्रागिव तन्मुखबुद्ध या निवेशितं यन्मुखं तस्य रुदितैस्तदलाभेन भ्रम निवृत्ती मन खेदोद्गतैरस्र भिमंदिता कोटिर ग्रं यस्य । इति वामनेत्रापाङ्गसंगताटनित्वमुक्तम् ॥२८-२६।। विमला-राम ने लङ्का की ओर दष्टिपात किया। उस समय ( सीतापहरणजन्य दुःख से ) उनके नेत्रों से आँसू गिर पड़े तथा बहुत समय से संचित एवम् उस समय आपूर्यमाण क्रोध से लाल अतएव भली-भाँति पुतलियों के फिर जाने से नेत्र दुष्प्रेक्ष्य ( भयंकर ) हो गये । तदनन्तर अपने उस धनुष को ग्रहण किया जिसका बल अच्छी तरह मालूम है तथा जो सीता से शून्य किये गये शयन के वाम पार्श्व भाग में ( सीता के प्रतिनिधिरूप में) स्थापित है एवम् बहुत बार ( सीता का मुख समझ कर ) निवेशित अपने मुख के आँसू से जिसकी कोटि ( अग्रभाग ) आर्द्र हो चुकी है ॥२८-२९॥ अथ ज्यारोपणमाह तो तं महिअलणि विसं वामकरावेढणि परिग्गहिअम् । दाहिणहत्थेण कसं वलन्तदेहभरणामि सज्जीअम् ॥३०॥ [ ततस्तन्महीतलनिवेशितं वामकरावेष्टनिष्ठुरपरिगृहीतम् । दक्षिणहस्तेन कृतं वलद्देहभरनामितं सजीवम् ।।] ततो ग्रहणानन्तरं तद्धनुस्तेन रामेण प्रथमं महीतले निवेशितम् एकाटन्यावष्टब्धम् । अनन्तरं वामकरस्यावेष्टेन मुष्टिना निष्ठुरं दृढं यथा स्यादेवं परिगृहीतं धृतम् । तदनु ज्यारोपणसमये वलतस्तिर्यग्भूतस्य देहस्य भरेण नामितं सद्दक्षिण - Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् वासः ] [५१७ हस्तेन सजीवं जीवा ज्या तत्सहितं कृतम् । यथा यथा देहस्य नम्रता तथा तथा तद्भरणे धनुषोऽपीति जातिरलंकारः । 'ज्या जीवा जीवनं जीवो जीवौ कर्णबृहस्पती' !॥३०॥ विमला-धनुष ग्रहण करने के अनन्तर राम ने पहिले उसे, एक सिरा पृथ्वी पर रख कर खड़ा किया, तत्पश्चात् बायें हाथ की मुष्टि से अच्छी तरह पकड़ कर अपने शरीर को झुकाते हुये उसके भार से धनुष को झुका दिया और दाहिने हाथ से उस पर डोरी चढ़ा दी ॥३०॥ अथ रामस्य प्रस्थानमाहकाऊण ससिअमन्थरगरुप्रसिरोअम्पत जिज पडिवक्खम् । चलिओ चलन्तपवअविल इअधणुमेत्तसाहणो रहुणाहो ॥३१॥ [कृत्वा श्वसितमन्थरगुरुकशिरःकम्पतजितं प्रतिपक्षम् । चलितश्चलत्पर्वतविलगितधनुर्मात्रसाधनो रघुनाथः ।। ] रघुनाथश्चलितः । युद्धायेत्यर्थात् । किंभूतः । चलति पर्वते विलगितं निवेशितं यद्धनुस्तन्मानं साधनं सिद्धि सामग्री यस्य । विरहदौर्बल्येन संचाराय धनुःकोट्यावष्टब्धस्य सुवेलस्य चलनेन बलप्रकर्ष उक्तः । किं कृत्वा । प्रतिपक्षं रावणं सीतादु:खस्मरणजन्यश्वसितेन मन्थरस्तद्विलम्बेन विलम्बितो यः शिरःकम्पस्तेन जितं भीषितं कृत्वा । श्वसितहेतुको वास्तविक: शिरःकम्पस्तर्जनरूपेणोत्प्रेक्षितः ॥३१॥ विमला-राम (युद्धार्थ ) चल पड़े। उनका सिद्धि साधन केवल वही धनुष था जिससे ( विरह-दौर्बल्य के कारण ) टेक-टेक कर चलने से ( दबाव के कारण ) सुबेल गिरि डगमगा उठा। उस समय ( सीता के स्मरण से जनित ) निःश्वास के विलम्ब से विलम्बित शिरःकम्पन से मानों राम ने प्रतिपक्ष ( रावण ) को भयभीत कर दिया ॥३१॥ अथ कपिसैन्यसंचारमाहचलिअ तुलिअपव्व अमिलन्तासहरणहणिम्मिएक्कमहिहरम् । प्रणुरूअभुपरिअिविडवमुणिज्जन्तपाअवं कइसेणम् ॥३२॥ [ चलितं च तुलितपर्वतमिलच्छिखरनभोनिर्मितैकमहीधरम् । अनुरूपभुजपरिस्थितविटपज्ञायमानपादपं कपिसैन्यम् ॥ ] न केवलं राम एव चलितः, किंतु कपिसैन्यमपि चलितम् । कीदृक् । तुलितानामुत्यापितानां पर्वतानां मिलद्भिः शिखरैर्नभसि निर्मित एको महीधरो । येन तदेकाकारत्वादित्यर्थः । एवम्-अनुरूपेषु कपीनां सदृशाकारेषु भुजेषु परिसंस्थिताः सन्तो विटपैञ्जयमानाः पादपा यत्र तादृशम् आकारतौल्यात् । भुजैः समं भेदा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] सेतुबन्धम् ग्रहसामग्रीसत्त्वेऽपि विटपरूपस्य विशेषस्य दर्शनेन वृक्षोऽयमिति विविच्य ग्रह इति कपीनां महत्त्वं पर्वतवृक्षादीनामस्त्रीकृत्योत्थापनादुद्योगशीलत्वं सूचितम् । स्वानुरूपैर्भुजरूपैः परिस्थितैविटपर्शायमानवृक्षस्वरूपं भजेषु विटपभ्रमाद्वृक्षत्वेन भ्रमविषय इत्यर्थ इति केचित् ॥३२॥ विमला-( राम ही नहीं) वानरों का दल भी चल पड़ा। उस समय ( अस्त्र के रूप में ) उनके द्वारा उठाये गये पर्वतों के, मिल कर एकाकार हुये शिखरों से नभ में एक पर्वत निर्मित हो गया तथा उन ( वानरों) की अनुरूप भुजाओं पर स्थित वृक्षों और भुजाओं में भेद, वृक्षों की शाखाओं से ही परिलक्षित होता था ॥३२॥ कपीनां तेजःप्रकर्षमाहसंणज्झन्ति कूउरिसा संणाहभरेण कि करेन्ति समत्था । णि अवलं चिअ कवअं कइणाप्पडिहा भुआ अपहरणम् ॥३३॥ [सन्नह्यन्ति कुपुरुषाः सन्नाहभरेण किं कुर्वन्ति समर्थाः । निजकवलमेव कवचं कपीनामप्रतिहतौ भुजौ च प्रहरणम् ।।] __कुपुरुषा अशूराः संनाहं कुर्वते, समर्थाः पुनः संनाहरूपेण भरेण देहगौरवापादकमात्रेण किं कुर्वन्ति, अपि तु न किमपीत्यर्थः । इति कृत्वा कपिभिः संनाहो न कृत इति भावः । अत एव कवचादेरन्यथासिद्धि माह-कपीनां निजकवलमेव कवचं परशस्त्रेभ्यस्तनुत्राणकारणमित्यर्थः । एवं च-अप्रतिहतौ परानभिभाव्यौ भुजावेव प्रहरणं पराभिभवकारि शस्त्रम् । खडगादीनां तु कदाचित्प्रतिघातशङ्का. पीति भावः ।।३३॥ विमला-कवच तो वे धारण करते हैं जो शर नहीं होते, समर्थ पुरुषों को कवच से क्या करना है । वह तो उनके शरीर पर एक और भार ही होता हैयह सोच कर वानरों ने कवचादि नहीं धारण किया। कवच तो उन कपियों का अपना बल ही है और ( शत्रुओं को अभिभूत करने वाला) शस्त्र, उनकी भुजायें ही हैं जिन्हें शत्रु कभी अभिभूत नहीं कर सकते ।।३३।। अथ सेनासंनिवेशप्रकारमाह णा अणिसाअरसारं माणिक्कलुसजुज्झगइप्पबुद्धम् । अग्गक्खन्धम्मि क लङ्कामगणि उणं विहीसणसेणम् ॥३४॥ [ ज्ञातनिशाचरसारं मायानिष्कलुषयुद्धगतिप्रबुद्धम् । अग्रस्कन्धे कृतं लङ्कामार्गनिपुणं विभीषण सैन्यम् ।।] , Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५१६ विभीषणसैन्यमनस्कन्धे सैन्याने कृतं स्थापितम् । सुग्रीवादिभिरित्यर्थात् । कुत इत्यत आह-ज्ञातं निशाचराणां सारं बलं निगूढमन्त्रणा वा येन । एवं मायया निष्कलुषा निरुपद्रवा वा मायासु निष्कलुषा वा ये राक्षसास्तेषां युद्धप्रकारे प्रबुद्ध प्रवीणम् । यद्वा-मायया कपटेन निष्कलुषेण कपटव्यतिरेकेण च या युद्धगतिस्तत्रोभयत्र प्रवीणम् । एवं च--लङ्काया मार्गस्यान्तर्वतिदुरूहनानास्थानस्य निपुणं ज्ञातारं यत इति राजनीतिरुक्ता ॥३४॥ विमला-( सुग्रीवादिक ने ) विभीषण की सेना को सब से आगे किया, क्योंकि वह ( सेना) निशाचरों के बल एवं निगूढ मन्त्रणा को जानती थी, कपट एवं निष्कपट भाव से किये जाने वाले दोनों प्रकार के युद्ध की गति में प्रवीण थी तथा लङ्का के मार्ग को भी अच्छी तरह जानती थी ॥३४।। अब रामस्य युद्धग्रहणमाहसमरतुरिअस्स सुक कह मोत्तव्वं ति दूमियो सुग्गीवो। गहिाउहम्मि रामे सोअइ अ विहीसगो निसाअरवंसम् ॥३५॥ [ समरत्वरितस्य सुकृतं कथं मोक्तव्यमिति दुःखितः सुग्रीवः । गृहीतायुधे रामे शोचति च विभीषणो निशाचरवंशम् ॥] रामे गृहीतायुधे सति समरे त्वरितस्य स्वयमेव युयुत्सतो रामस्येत्यर्थात् । सुकृतं शोभनं कृतमुपकारो बालिवधादिरूपः कथं मोक्तव्यं प्रत्युपकारेण सदृशीकर्तव्यमिति कृत्वा सुग्रीवो दुःखितो रामस्यामोघशस्त्रतया रावणवधादेरित एव संभवादस्माक. मन्यथा सिद्धिः स्यादिति भावः । एवं विभीषणोऽपि निशाचरवंशं शोचनाविषयीकरोति सकलराक्षसक्षयध्रौव्यादिति भावः ॥३५॥ विमला-राम ने जिस समय आयुध ग्रहण किया उस समय सुग्रीव यह सोच कर दुःखित हुआ कि राम स्वयं युद्ध के लिये उद्यत हैं। इन्हीं से रावण-वध हो जायगा तो इन्होंने मेरे साथ वालिवधरूप जो उपकार किया है उसका बदला कैसे चुका सकूँगा। विभीषण भी निशाचर वंश के प्रति शोक करने लगा कि राम से सकल निशाचरों का संहार होना निश्चित है ॥३५॥ अथ धनुरास्फालनमाहअफालिए धन म्मि प्र खोहिअगिरिविहुप्रसाअरे रहुवइणा । कम्पिअघरपाआरा अङ्गक्खिवणविसमं व वेवइ लङ्का ॥३६॥ [ आस्फालिते धनुषि च क्षोभितगिरिविधुतसागरे रघुपतिना। कम्पितगृहप्राकाराङ्गक्षेपणविषममिव वेपते लङ्का ॥] क्षोभितः कम्पितो गिरिः सुवेलस्तेन विधुतस्तस्कम्पेन' भूमिकम्पाल्कम्पितः सागरो यस्माद् एवंभूते धनुषि रघुपतिनास्फालिते सति कम्पिता गृहाः प्राकाराश्च Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] सेतुबन्धम् [द्वादश यत्र तथाभूता लङ्काङ्गानामवयवानां यत्क्षेपण मितस्ततः प्रापणं तेन' विषमं यथा स्यादेवं वेपत इव । अन्यस्यापि कम्पे करचरणादिक्षेपणं भवतीति ध्वनिः। तथा च गृहप्राकारादिकमङ्गत्वेनोत्प्रेक्ष्य तत्कम्पे लङ्काकम्पत्वमुत्प्रेक्षितमित्यास्फालनशब्दस्य सकलकम्पहेतुत्वादुच्चस्त्वं सूचितम् । ३६॥ विमला-जिससे सुवेल गिरि काँप गया, उसके काँपने पर पृथ्वी कांप गई और पृथ्वी के काँपने पर समुद्र भी काँप गया, ऐसे धनुष को राम ने जिस समय आस्फालित किया उस समय सारी लङ्का बुरी तरह काँप-सी उठी, उसके गृह और प्राकाररूप अङ्ग कम्पित हो इधर-उधर हो गये ॥३६।। अथास्फालनशब्कस्य सीताकर्णगोचरतामाह झीणपुल आइअङ्गी अउवहरिसमिलि प्राणणा जणअसुआ। सोऊण समासत्था पढमुल्लावं व राहवस्स धणुरवम् ।।३७।। [क्षीणपुलकाचिताङ्गयपूर्वहर्षमिलितानना जनकसुता । श्रुत्वा समाश्वस्ता प्रथमोल्लापमिव राघवस्य धनूरवम् ॥] राघवस्य प्रथमसंभाषणमिव प्रथमाह्वानमिव धनुःशब्दं श्रुत्वा जनकसुता समाश्वस्ता मत्प्रत्युद्धारः स्यादित्यध्यवसायेन प्रीतहृदयाभूदित्यर्थः । कीदृशी। क्षीणं चिन्तादुर्बलम् । अथ च--पुलकैराचितमङ्ग यस्यास्तादृशीति रामधनुःशब्देन सात्त्विकभावोदय उक्तः । एवम्--अपूर्वेण प्राग नाशङ्कितेन हर्षेण मिलितमाननं यस्या इति विकसितत्वादिरूपमुखचेष्टासूचनम् । अन्योऽपि देशान्तरादागत्याहूय कुशलप्रश्नादिना विरहिणीमाश्वासयतीति ध्वनिः ॥३७॥ विमला-राघव का प्रथम आह्वान-सा धनुष का शब्द सुन कर सीता ( अपना उद्धार हो जाने के निश्चय से ) प्रसन्न-हृदय हो उठीं; उनका (चिन्ता से) क्षीण शरीर पुलकों से भर गया तथा उनका मुख अप्रत्याशित हर्ष से युक्त हो गया ॥३७॥ अथ कपीनां कलकलमाह-- मुच्छाविप्रजुवइजणो रक्ख सवइहिअअमहिहराणिधानो। वामोहेइ पुरिप्रणं सीआकण्णसुहमओ पवङ्गकलअलो॥३८॥ [ मूच्छितयुवतीजनो राक्षसपतिहृदयमहीधराशनिघातः । व्यामोहयति पुरीजनं सीताकर्णसुखदः प्लवङ्गकलकलः ।। ] प्लवङ्गानां कलकलः पुरी लङ्का तज्जनं व्यामोहयति गभीरत्वादाकस्मिकत्वाच्च । कीदृक् । मूच्छितो राक्षसयुवतीजनो येन । युवतीत्वेन पतिविनाशशङ्कया कातरताधिक्यात् । एवम्-राक्षसपतेहृदयमेव दृढत्वात्तुङ्गत्वाच्च महीधरस्तत्राशनिघात एव । भेदकत्वादश निपर्वते पततीति ध्वनिः । एवंभूतो दुःसहः सीता. कर्णयोः परं सुखदः सुभगो वा । पतिसंबन्धित्वादिति भावः ।।३८।। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५२१ विमला-राक्षसों की युवतियों को ( पतिविनाश की शङ्का से ) मूच्छित कर देने वाले तथा रावण के हृदयरूप पर्वत को नष्ट करने के लिये वज्रपातरूप वानरों के कलकल निनाद ने लङ्का-निवासियों को व्याकुल कर दिया, किन्तु वही सीता के कानों को सुखद हुआ ॥३८॥ अथ कपीनां दिशि दिशि धावनमाहकहवररहमुद्धाइअधु असमअपहाविओअहिसमकन्तो । सलिल भरेन्तरिमुहो रमइ सम्मन्तपडिरवं धरणिहरो ॥३६॥ [ कपिवररभसोद्धावितधुतसमयप्रधावितोदधिसमाक्रान्तः । सलिलभ्रियमाणदरीमुखो रसति प्रशाम्यत्प्रतिरवं धरणीधरः ।।] धरणीधरः सुवेलो रसति शब्दायते ! कीदृक् । कपिवराणां रभसेन यदुद्धावितं वेगस्तेन धुतसमयो मुक्तमर्यादोऽतः प्रधावित उत्पथगामी व उदधिस्तेन समाक्रान्तः । अत एव--सलिलेन भ्रियमाणं पूर्यमाणं दरीमुखं यत्र तथाभूतः । तथा च दरीषूच्छलितसमुद्रजलप्रवेशादुत्थितशब्दत्वेन रसतीत्यर्थः । अत एव-प्रशाम्यन्ननुत्तिष्ठन् प्रतिरवो यत्र तद्यथा स्यादिति क्रियाविशेषणम्। कंदराणां जलपूर्णत्वात्प्रतिध्वनेरनुत्पत्तिरिति भावः ।।३।। विमला-वेग से वानरों के दौड़ पड़ने से समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ कर उछल पड़ा, जिससे सुवेल गिरि समाक्रान्त हो गया, अतएव कन्दराओं में उछले हुये समुद्र का जल प्रविष्ट होने से वह शब्दायमान हो गया तथा ( कन्दराओं के जलपूर्ण होने से ) प्रतिध्वनि उत्पन्न नहीं हुई ॥३६॥ अथ रामधनुःशब्द निवृत्तिमाह-- णिज्जिअसेसकलअलो पढमफालिरसन्तधणुणिग्घोसो। सामरिसविअम्भिप्राणणदहवअणाअणिमो चिरेण पसन्तो॥४०॥ [ निजिताशेषकलकलः प्रथमास्फालितरसद्धनुर्निर्घोषः । सामर्षविजम्भिताननदशवदनाकणितश्चिरेण प्रशान्तः ॥] रामेण प्रथममास्फालितस्य, अत एव--रसतो धनुषो निर्घोषः प्रतिरव एतावानतिगभीरोऽयमिति सामर्षत्वाद्विजम्भितमाताम्रभृकुटिमत्त्वादुद्धतमाननं यर य तेन दशवदनेनाकर्णितः संश्चिरेण प्रशान्तो गभीरत्वात् । कीदृक् । निजितोऽशेषः सकलः शेषः स्वभिन्नो वा कलकलो येन । तथा च सामर्षेणापि रावणेन श्रुत एव न तु तद्गाम्भीर्यमुषितचित्तेन प्रत्युत्तरमाचरितं पारितमिति भावः । श्रुतिबाहुल्येनाकर्णनवैलक्षण्यप्रतिपादनाय दशवदनपदेनोपन्यासः ॥४०॥ विमला-राम ने प्रथम वार जो आस्फालित किया, अतएव शब्दायमान धनुष की प्रतिध्वनि इतनी गम्भीर थी कि उसने सम्पूर्ण कलकल निनादों को Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] सेतुबन्धम् दबा दिया तथा उसे उद्धत आनन वाले रावण ने वह प्रत्युत्तर न दे सका) एवम् उसे प्रशान्त होने में खथ रावण जागरणमाह- ताव अ रक्खसणाहो पाआरन्तरिमकडइन कइसेणम् । रणमहिअ अगणेन्तो णिअए विद्दापरिक्खश्रम्मि विउद्धो ॥४१॥ प्राकारान्तरितकटकितं कपिसैन्यम् । निद्रापरिक्षये विबुद्धः ॥ ] यावद्रामधनुर्ध्वनिः शाम्यति तावदेव निजके स्वभावसिद्धे न तु भयादिनिमित्त के निद्रापरिक्षये सति राक्षसनाथो विबुद्धो जागरितः । किं कुर्वन् । प्राकारेणान्तरितं व्यवहितम्, अथ च कटकितं कटकत्वेन सेनात्वेन व्यवस्थितम् । यद्वा-कटकं वलयस्तद्वल्लङ्कामावेष्ट्य स्थितं कपिसैन्यं रणे महितं सत्कृतमप्यगणयन् । एतेनाहंकारित्वमुक्तम् ॥४१॥ 1 विमला - ( जब तक राम के धनुष की ध्वनि प्रशान्त हुई ) तब तक रावण अपनी नींद पूरी होने पर जागा । उसने, प्राकार से आड़ में पड़ी हुई, व्यवस्थित तथा अनेक युद्धों में सत्कृत ( विजयी ) कपिसेना की भी परवाह नहीं की ॥४१॥ अथ रावणस्य पार्श्व परिवर्तनमाह वह विवलाअणिद्द विइओवासपरिअत्तणावद्धसुहम् । विसमसुअमङ्गलरवं श्रोहीप्रन्तपनलाइ दहवअणो ॥ ४२ ॥ [ वहति विपलायमान निद्र द्वितीयावकाशपरिवर्तनाबद्धसुखम् । विषमश्रुतमङ्गलरवमवहीयमानप्रचलायितं दशवदनः ॥ ] [ तावच्च राक्षसनाथः रण महित मगणयन्निजके [ द्वादश अमषंयुक्त होकर सुना ( किन्तु अधिक समय लगा ||४०|| दशवदनोऽवहीयमानं क्रमेण ह्वसमानं प्रचलायितं तल्पे आलस्याद्वर्णनं वहति । किभूतम् । विपलायमानापगच्छन्ती निद्रा यत्र, एवं द्वितीयावकाशे तल्पस्यापरभागे परिवर्तनेन पार्श्वशयेनाबद्धं सुखं येन । अत एव किंचित्तन्द्रीसत्त्वाद्विषममपरिस्फुटं श्रुतो मङ्गलरवो जयजीवेत्यादिरूपश्चारणादिकृतो मृदङ्गादिसमुत्थो वा यत्र तथाभूतम् । इति मङ्गलरवस्याकर्णन वैषम्येणासन्नविनाशत्वमपि ध्वनितम् । 'घूर्णितं प्रचलायितम्' इत्यमरः ॥ ४२ ॥ विमला- - रावण की नींद टूट चुकी थी, आलस्यमात्र शेष था, अतएव वह शय्या पर इधर से उधर करवट बदलता रहा यद्यपि उसमें कुछ कमी आ रही थी । शय्या के दूसरे भाग में करवट के बल लेटने में सुख मिलने से प्रातःकालीन मङ्गलध्वनि भी ( आलस्यवश ) उसने ठीक से नहीं सुनी ||४२ ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५२३ अथामुष्य तन्द्रीभङ्गमाह तो महमअमुच्चन्तामसिणोहीरन्तलोहिअच्छिणिहाअम् । घणुसद्दामरिसह णिद्दासेसं वसाणणस्स विअलिअम् ॥४३॥ [ ततो मधुमदमुच्यमानामसृणापह्रियमाणलोहिताक्षिनिघातम् । धनुःशब्दामर्षहतं निद्राशेषं दशाननस्य विगलितम् ॥] ततो घृणितानन्तरं दशाननस्य निद्राशेषमालस्यरूपं विगलितमपगतम् । किंभूतम् । मधुमदेन मुच्यमानः अत एव आ ईषन्मसृणमपह्रियमाणो मन्दं मन्दमुन्मी-- ल्यमानो लोहिताक्षिसमूहो यत्र । दशमुखत्वान्मुद्रणादिव्यापारेण मधुमदश्चक्षुषि तिष्ठतीति भावः । 'ही अन्त'-इति पाठे--अवहीमानमपचीयमानं लौहित्यं यत्र तथाभूताक्षिवृन्दमित्यर्थः । 'मुच्चन्तम्' इति पाठे--निद्राशेषस्यैव विशेषणम् । मधुमदस्यापि तदानीमपगमादित्यर्थः । पुनः किंभूतम् । मदग्रेऽप्येवं प्रौढ़िरिति रामधनुःशब्दामर्षेण हतं खण्डितम् । वीररसोत्पत्तेरिति भाव: ।।४३।।। विमला-राम के धनुष का शब्द सुनने से रावण को जो अमर्ष हुआ उससे रही-सही निद्रा ( आलस्य ) भी दूर हो गयी। उसकी लाल-लाल आँखें अब कुछ-कुछ खुल गयीं और उनमें मधुमद नहीं रह गया ॥४३॥ अथामुष्याङ्गभङ्गिमाह-- तुङ्गमणितोरणाइ व एक्कक्कमलङ्घिअङ्गुलिकरालाई । उद्ध भुअजुअलाई मुअइ वलेऊण णिअअसअणुच्छङ्ग ॥४४।। [ तुङ्गमणितोरणानीव एकैकक्रमलवितागुलिकरालानि । ऊध्वं भुजयुगलानि मुञ्चति वलयित्वा निजकशयनोत्सङ्गे ॥] रावणो भुजयुगलानि ऊर्ध्वं वलयित्वा उत्थाप्य तिर्यग् नीत्वा वलित्वा स्वयमेक पार्वायितो भूत्वा निजकमात्मीयं न तु सीतागतमनस्कत्वादरुचिविषयमन्दोदरीप्रभृतीनामपि यच्छयनं तदुत्सङ्गे मुञ्चति क्षिपति । विशतिभुजत्वाद्वयोर्द्वयोर्वामदक्षिणभुजयोरङ्गभङ्गावेकीकरणाद्युगलानीति बहुत्वोपन्यासः । किंभूतानि । एकैकक्रमेण लङ्घिताः परस्परसंधिभिनिर्गत्य परस्परमतिक्रम्य संबद्धा या अंगुलयः । करयोरित्यर्थात् ! ताभिः करालानि दन्तुराणि, अत एव तुङ्गानि यानि मणिवि. शिष्टानि तोरणानि पुरद्वाराणि तानीव तत्सदृशानि । भुजयोरिपार्श्ववर्तिस्तम्भाभ्यामगुलीनामुपरिस्थकङ्गुराभिस्तुल्यत्वादित्याशयः । अङ्गदादिसत्वान्मणिशब्दोपादानम् ।।४४॥ विमला-( अंगड़ाई लेते समय ) रावण ने अपने भुजयुगलों को ऊपर उठाया। उनकी अँगुलियां एक-दूसरे की सन्धियों से निकलकर एक-दूसरे से Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४] सेतुबन्धम् [ द्वादश सम्बद्ध हो गयीं । इस प्रकार उसके भुजयुगल ऊँचे मणिनिर्मित पुरद्वारों के समान सुशोभित हुये ( दो भुजायें द्वार के दोनों बगल के स्तम्भ के समान और अंगुलियाँ ऊपर स्थित कंगूरे के समान हुई )। तदनन्तर उन्हें तिरछे लाकर करवट लेते हुये रावण ने अपनी शय्या के उत्सङ्ग में छोड़ दिया ।।४४।। अथ युद्धोद्योगसूचकं रावणवाद्यरवमाहअह भ प्रचलिएरावणभज्जन्तक्खम्भदिण्णसुरसंखोहम् । आहम्मिउं पप्रत्तं रणसंणाहपिसुणं दशाणणतूरम् ।।४।। [अथ भयचलितैरावणभज्यमानस्तम्भदत्तसुरसंक्षोभम् । आहन्तुं प्रवृत्त रणसंनाहपिशुनं दशाननतूर्यम् ।।] अथ रावणोत्थानानन्तरं रणाय यः संना हस्तस्य ज्ञापकं दशाननस्य तूर्य पटह आहन्तुं प्रवृत्तं वादयितुमारब्धम् । किंभूतम् । भयाच्चलितेन पलायमानेनैरावणेन भज्यमानो यो बन्धनस्तम्भस्तेन दत्तः सुरेभ्यः संक्षोभो येन तत् । तदानीमन्योपरोधनिबन्धनत्वेनातिगम्भीरतया तादृशरवस्य कदाप्यसंभवादिति भावः ॥ ५॥ विमला-रावण के उठने के पश्चात् युद्ध के लिये सन्नद्ध होने की सूचना देने वाले, रावण के नगाड़े को बजाना आरम्भ कर दिया गया, जिसके गम्भीर शब्द को सुन कर भयभीत हो ( स्वर्ग में ) ऐरावत गज अपने बन्धनस्तम्भ को तोड़ ताड़ कर जो भगा तो देवता भी संक्षुब्ध हो गये ॥४५॥ अथ सप्तभिः स्कन्धकैरबलाभिः सह शयितानामपि रक्षसां शृङ्गारजित्वरं वीररसमाह रणसण्णापडिउद्धा गहिअजहासण्णपहरणा रअणिअरा। मीलन्तकण्ठलग्गं थोअ घेत्तण णिग्गा ज अइजणम् ॥४६॥ [ रणसंज्ञाप्रतिबुद्धा गृहीतयथासन्नप्रहरणा रजनीचराः। मीलत्कण्ठलग्नं स्तोकं गृहीत्वा निर्गता युवतिजनम् ।। ] रजनीचरा मीलन्नेव निद्रालस्येन मुद्रितनेत्र एव कण्ठलग्नः समराय गच्छतीति कृतालिङ्गनो यस्तं युवतिजनमपि स्तोकं गृहीत्वापि श्रित कभुजव्यापारादिनैव तत्सं. तोषाय प्रत्यालिङ्गय निर्गता मदने मा केऽपि गच्छन्त्वित्यहमहमिकया प्रस्थिता इति वीरोत्कर्षः सूचितः । अत एवोक्तं रणाय संज्ञा संकेतो वाद्यरवः परकृतकरादिव्यापारो वा तेन प्रतिबुद्धा जागरिताः सन्तो गृहीतं यथा निकटवर्तिखड्गमारभ्य लगुडपर्यन्तं प्रहरणमस्त्रं यस्तथाभूता इति सत्वरता सदसद्विचारवैमुख्येन जितकाशित्वं च सूचितम् ।।४।। विमला-युद्धसूचक नगाड़े की ध्वनि से जाग कर राक्षस, (आलस्यवश ) आँखों को मूंदे हुये ही आलिङ्गन करती हुई युवतियों का ( उनके सन्तोषार्थ ) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५२५ थोड़ा सा प्रत्यालिङ्गन कर, जो ही अस्त्र निकट था उसी को लेकर ( सब से पहिले पहुँचने के लिये ) निकल पड़े ॥४६॥ आउच्छमाणगहिआ सुअम्मि अत्थेक्कसमरसण्णावडहे। जुअइमुहाहि पियाण णेन्ति अमुक्कसिढिलट्ठिआ अहरोहा ।।४७॥ [ आपृच्छयमानगृहीताः श्रुते आकस्मिकसमरसंज्ञापटहे । युवतिमुखात्प्रियाणां निर्यान्त्यमुक्तशिथिलस्थिता अधरौष्ठाः ॥] अकस्मात्समराय संज्ञा संकेतस्तत्सूचकपटहे तध्वनौ श्रुते सति आपृच्छयमानाभिर्यो मनुज्ञाप्यतामित्यादिसंवदन विषयोक्रियमाणाभिः स्त्रीभिहीतास्तदानीमुत्कण्ठया निजाधरौष्ठेन पातुमाक्रान्ताः प्रियाणामधरौष्ठा युवतिमुखान्निर्यान्ति बहिर्भवन्ति । किंभूताः । अमुक्ताः प्रियस्तासामनुरोधेनात्याजिता अपि संग्रामचित्तत्वादव्यापारितत्वेन शिथिलस्थितास्ताभिरपि वैमनस्येन' तथानाक्रान्ततया दृढं न संबद्धाः। अतः स्वयमेवापसरन्तीति भावः । यद्वा-प्रियाभिरेवामुक्ता अपीत्यर्थः । ऊोष्ठस्य पानावर्णनेन' अधः स्थिता अधररूपा वा ओष्टा इत्यर्थः । यद्वाअधरसहिता ओष्ठा गृहीताश्चुम्बिता इत्युभयोरन्वयः ॥४७॥ विमला-युद्धसूचक नगाड़े का शब्द सुन कर पुरुषों ने अपनी-अपनी स्त्रियों से युद्ध के लिये जाने की अनुमति मांगी, उस समय ( उत्कण्ठावश) स्त्रियों ने अपने अधरोष्ठ से पीने के लिये पुरुषों के अधरोष्ठों को आक्रान्त कर लिया, किन्तु स्त्रियों के द्वारा न छोड़े जाने पर भी ( पुरुषों का चित्त संग्राम में लग जाने के कारण ) अधरोष्ठ स्वयं शिथिल होकर युवतियों के मुख से बाहर हो गये ॥४७॥ पिअअमकण्ठोलइ जु अईण सुअम्मि समरसण्णाहरवे । ईसिणिहं णवर भअं सुरअक्खेएण गलइ बाहाजुअलम् ॥४८॥ [ प्रियतमकण्ठावलगितं युवतीनां श्रुते समरसंनाहरवे । ईषन्निभं केवलं भयं सुरतक्षेपेण गलति बाहायुगलम् ॥ ] युद्धाय गच्छतीति प्रियतमस्य कण्ठेऽवलगितमालिङ्गनाय नियोजितं युवतीनां बाहा बाहुस्ता गलमकस्मात्समरसंनाहाय रवे ढक्कायाः श्रुते सति नायकस्य युद्धरसोत्पत्त्या सुरतस्य क्षेपेण त्यागेन गलति स्खलति । तत्र भयं केवलं किंचिन्निभं व्याजः । तथा च संभावितयुद्धभिया बाहू विश्लथाविति व्याजमात्रम् । वस्तुतस्तु रसान्तरितनायकौदास्येन विलक्ष्य चित्ततया नायिकानामप्यालिङ्गनं विघटितमिति भावः । रसभङ्गवर्णनमशकुनत्वेन वीररसपोषकत्वेन च न दोषावहमित्यवधेयम् ।। 'बाहा भुजायां वाहस्तु मानभेदे वृषे हये ।।४।। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] सेतुबन्धम् [ द्वादश बिमला-प्रियतम के कण्ठ में आलिङ्गन के लिये लगा हुआ,-युवतियों का बाहुयुगल, युद्ध के लिये सन्नद्ध होने की सूचना देने वाले शब्द को सुनने पर नायक द्वारा सुरत का त्याग कर दिये जाने से शिथिल हो गया, इसके लिये संभावित युद्ध का भय तो एक थोड़ा-सा बहाना-मात्र था ।।४।। सुअसण्णारवतुरिआ पडिवाणाउहत्थवलि अकरअला। उव्वेल्लन्ति णिसिअरा वच्छवलन्तत्थणं पिआवेढसहम् ॥४६॥ [ श्रुतसंज्ञारवत्वरिताः प्रतिपन्नायुधविहस्तवलितकरतलाः । उद्वेल्लयन्ति निशाचरा वक्षोवलत्स्तनं प्रियावेष्टसुखम् ॥] श्रतेन संज्ञारवेण युद्धसंकेतशब्देन । ढक्कादीनामित्यर्थात् । त्वरिता निशाचरा: प्रतिपन्नं प्राप्तं यदायुधं तत्र वीरकामरसयोरुपत्त्या विहस्तं व्यग्रमत एव धर्तुमधतु वा एकतरपरिच्छेदाभावाद्वलितं वक्रत्वेनासम्यक् संबद्धं करतलं येषां तथाभूताः सन्तो वक्ष सि वलन्तौ स्थिरत्वाभावादालिङ्गनदाढर्याभावेन तिर्यग्लुठन्तौ स्तनौ यत्र तादृशं प्रियाणामावेष्टमालिङ्गनं तत्सुखमुद्वेल्लयन्ति चञ्चल यन्ति । द्विचित्ततया न स्थिरीकुर्वन्तीत्यर्थः । स्तनादिपरिहारेण खड्गादावेव हस्तस्य व्यग्रतयापि वीरस्यवोत्कर्ष इति भावः । उद्वेल्लयन्ति त्या जयन्ति करस्य व्यापृतत्वाद्वक्षसैवेति भाव इति केचित् ॥४६॥ विमला-नगाड़े आदि के युद्ध-संकेतक शब्द से निशाचर जल्दबाजी में पड़ पये, किन्तु ( वीररस और कामरस दोनों के होने से ) उनका करतल, प्राप्त अस्त्र पर, व्यग्र होने के कारण दृढ़ न हो सका और न ही वक्षःस्थल पर तिरछे लुढ़कते हये स्तनों वाली प्रिया के आलिङ्गन सुख को ही स्थिर कर सके ॥४६।। रुम्भन्तीण पिप्रअमे अक्क अउम्वे वि पणअभङ्गम्मि कए। जुमईण चिरपरूढो भअहित्थम्मि हिनए ण लग्गइ माणो ॥५०॥ [ रुन्धतीनां प्रियतमानकृतपूर्वेऽपि प्रणयभङ्गे कृते । युवतीनां चिरप्ररूढो भयोद्विग्ने हृदये न लगति मानः ।।] नायकैरकृतपूर्वेऽपि अकर्तव्येऽपि वा प्रणयस्य भङ्गे नायिकान्तरासङ्गादिना कृते सति चिरप्ररूढो युवतीनां मानो युद्धे कि स्यादिति भयोद्विग्ने हृदये न लगति । किंभूतानाम् । प्रियतमान् रुन्धतीनां युद्धान्निवर्तयन्तीनाम् । तथा चानिवर्तने गमिष्यत्येवेत्यवगत्यैव तत्प्रतिबन्धाय मनोऽपगच्छतीत्यर्थः । यद्वा प्रियतमान् रुन्धतीनां भाविविश्लेषशङ्कया सुरते नियोजयन्तीनामित्यर्थः ।। ५० ।। विमला-नायकों ने यद्यपि पहिले प्रणय-भङ्ग नहीं किया था तथापि ( अन्य नायिका में आसक्ति होने से ) प्रणय-भङ्ग करने पर युवतियों का मान Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५२७ बहुत समय से बढ़ा हुआ था किन्तु इस समय ( युद्ध के ) भय से उद्विग्न हृदय में मान टिक न सका, और वे ( भावी वियोग को शंका से ) प्रियतमों को सुरत कार्य में नियुक्त होने की प्रेरणा देने लगीं ॥५०॥ जह जह पिआइ रुब्भइ संभाविअसामिआवमाणब्भहिअम् । तह तह भस्स वड्ढइ संमाणि मच्छरेण समरुच्छाहो || ५१ ॥ । [ यथा यथा प्रियया रुध्यते संभावितस्वाम्यपमानाभ्यधिकम् । तथा तथा भटस्य वर्धते संमानितमत्सरेण समरोत्साहः ॥ ] भटस्य समरोत्साहः प्रियया यथा यथा रुध्यते निवर्तनेनालिङ्गनचुम्बनादिरसान्तरापादनेन वा विघटते तथा तथा संभावितेन तर्कितेन स्वामिनोऽपमानेनाभ्यधिकं यथा स्यादेवं संमानितेनादृतेन शत्रुं प्रति मात्सर्येण सह वर्धते अगमने सति स्वामी रावणोऽपमानं कुर्यादित्युत्साहमात्सर्ययोराधिक्यमिति भावः ॥ ५१॥ विमला – प्रिया वीरों के समरोत्साह को ( आलिङ्गन - चुम्बनादि से रसान्तर की उत्पत्ति कर ) ज्यों-ज्यों विघटित करती, रावण द्वारा किये जाने वाले अपमान तथा शत्रु के प्रति आहत मत्सर से वह त्यों-त्यों अत्यन्त अधिक बढ़ता जाता था ॥ ५१॥ अथ राक्षसानां प्रयाणमाह दहाकरेहि धरिमा खलिया पणएण पेम्मराएण हिश्रा । माणेण ववविआ रणपरिओसेण निग्गआ रअणिअरा ॥५२॥ [ दयिताकराभ्यां धृताः स्खलिताः प्रणयेन प्रेमरागेण हृताः । मानेन व्यवस्थापिता रणपरितोषेण निर्गता रजनीचराः ॥ ] प्रथमं दयितानां कराभ्यां धृताः, अथ प्रणयेन स्खलिता विहतगमनोद्यमाः, तदनु प्रेम्णा रागेण च हृता दयिताभिमुखीकृता एवंभूता अपि रजनीचरा मानेनाहंकारेण व्यवस्थापिता गमनाय स्थिरीकृताः सन्तः संभोगापेक्षया रणे परितोषेण पक्षपातेन निर्गता इति प्रस्थाने निवर्तनेनामङ्गलमुक्तम् । प्रणय प्रेमरागाणामुत्तरोत्तरमुत्कर्षेण भेदः ।। ५२ ।। विमला - निशाचरों को कामिनियों ने अपने हाथों से पहिले पकड़ा, तदनन्दर प्रणय से उन्हें जाने से रोक दिया, तत्पश्चात् प्रेम एवं राग से अपनी ओर उन्हें आकृष्ट कर लिया तथापि वे अहङ्कारवश जाने का निश्चय कर ( संभोग की अपेक्षा ) रण में परितोष होने के कारण निकल पड़े ॥५२॥ कियद्भिः संनहनं न कृतमित्याह सुरसमरुच्चच्छन्दा कइमसीसलहुआ इम्मि रणभरे । लज्जन्ति संगहिउं ण अविसहन्ति पसरं परस्स णिसिमरा ॥५३॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] सेतुबन्धम् [ द्वादश [ सुरसमरोच्चच्छन्दाः कपिसमशीर्षलघुकायिते रणभरे । लज्जन्ते च संन न च विषहन्ते प्रसरं परस्य निशिचराः ।। ] निशिचराः सुराणां समरे उच्चच्छन्दोऽभिप्रायो येषां तथाभूताः, अत एव कपिभिः समं समशीर्षण स्पर्धया लघुके श्लाघनीये प्रकृते रणभरे संनद्धं संनाहं कतुं लज्जन्ते सुरसमर एव संनाहो युक्त इत्याशयात् । तहि युध्यन्ति कुत इत्यत आह-चो हेतौ । यतः परस्य शत्रोः प्रसरमतिक्रमं न विषहन्ते । तथा च परातिक्रमभञ्जनाय परं युध्यन्ति । सत्संनाहेन विनापि स्यादिति गर्वः सूचितः । 'अभिप्रायवशी छन्दौ' इत्यमरः ॥५३॥ विमला-वानरों के साथ स्पर्धा से युद्ध करना छोटी बात है, सुरों के साथ समर करने में ही कवच धारण करना युक्त है-यह सोच कर निशाचर कवच धारण करते लज्जित हुये । किन्तु शत्रु के आक्रमण को सह नहीं सकते; अतः युद्धोद्यत हुये ॥५३॥ अथ प्रभूणां कियतांचिन्नीतिसिद्धत्वे पुनः संनहनमाहवणविवरेसु करालं वणवेढेसु मुहलं खलन्तद्धन्तम् । होइ उरत्थल विसमं पुद्विणिराअटिट्ठ महोअरकवअम् ॥५४॥ [ व्रणविवरेषु करालं वणवेष्टेषु मुखरं स्खलदर्धान्तम् । भवत्युरःस्थलविषमं पृष्ठनिरायतस्थितं महोदरकवचम् ॥] महोदरस्य रावणभ्रातुः कवचं भवति । कीदृशम् । संधुक्षितानां व्रणानां विवरेषु करालं सच्छिद्रम् । एवं व्रणानां वेष्टेषु उच्छ्वासितसंधुक्षितमांसभागेषु बुबुदाकारेषु मुखरं मिथः संघट्टाच्छब्दायमानम् । अत एव तत्रैव स्खलन्नवरोधेन हठादनपसरन्नेकदेशो यस्य । एतेन बहुयुद्धविजयित्वमुक्तम् । एवमुरःस्थले विषममुदरस्य महत्त्वेन निम्नोन्नतम् । एवं पृष्ठे निरायतं दीर्घ सस्थितं स्थिरम् । समत्वेन मिलितत्वादिति भावः ॥५४॥ विमला-( रावण के भाई ) महोदर ने कवच धारण किया। वह कवच व्रणों के विवरों पर छिद्रयुक्त था, व्रणों के उठे हुये मांसभागों पर ( रगड़ खाने से ) शब्दायमान तथा उसका एक भाग हटा हुआ था एवं महान् उदर होने से ) वह वक्षःस्थल पर नीचा-ऊँचा था, किन्तु पृष्ठ भाग पर दीर्घ सटा हुआ स्थित था ॥५४॥ प्रहस्तस्य संनहनमाह सुरसमरदिसारो रक्खसणाहस्स जङ्गमो पाआरो। सरमोक्खेसु सुहत्थो संणज्झइ हरिसिप्रो कमेण पहत्थो ।।५।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ सुरसमरदृष्टसारो राक्षसनाथस्य जङ्गमः प्राकारः । शरमोक्षेषु सुहस्तः संनह्यते हर्षितः क्रमेण प्रहस्तः ॥ ] प्रहस्तो रावणमातुलः सेनापतिः क्रमेणासंभ्रमाद्यथोचितप्रकारेण संनह्यते । कीदृक् । सुराणां समरे दृष्टं सारं बलं यस्य । तत्र कृतकार्य इत्यर्थः । एवं राक्षसनाथस्य जङ्गमो गतिशीलः प्राकारो महत्त्वादावरकत्वाच्च । एवं शराणां मोक्षेषु सुहस्तो लघुहस्तः । अत एव हर्षितो युद्धरसत्वादिति भावः । ' पाआवो' इति पाठे प्रताप इत्यर्थः ।। ५५ ।। विमला - ( रावण के मामा तथा सेनापति ) प्रहस्त ने प्रसन्नतापूर्वक यथोचित प्रकार से कवच धारण किया । उस ( प्रहस्त) का बल देवताओं के समर में देखा जा चुका था । वह रावण का चलता-फिरता प्राकार कहा जाता था और बाण चलाने में सिद्धहस्त था ॥ ५५ ॥ [ ५२६ त्रिशिरसस्तदाह तिसिरस्स समुक्खित्तो बहुकण्ठन्तरकरा लियो संणाहो । सिढिलं चिअ ओसरिओ एक्क मुहुविखत्तहत्यतणु अस्मि उरे ॥५६॥ [ त्रिशिरसः समुत्क्षिप्तो बहुकण्ठान्तरकरालितः संनाहः । शिथिलमेवापसृत एकमुखोत्क्षिप्तहस्ततनुके उरसि ॥ ] त्रिशिरसो रावणपुत्रस्य मस्तकत्रयप्रवेशसौकर्याय उदूर्ध्वं क्षिप्तः संनाहो बहूनां कण्ठानामन्तरेषु मध्येषु करालितः सच्छिद्रः सन्नुरसि शिथिलं मन्दमेवापसृतोऽधोगतो न तु हठात् । उरसि कीदृशे । एकमुखेनकोपक्रमेणोत्क्षिप्तैः संनाहबाहुमध्यप्रवेशनायोत्तोलितैर्हस्तस्तनुके । मिलितोत्थापितहस्तषट्तया कृष्ट्या कृशीभूतेऽपीत्यर्थः । अत एव कण्ठत्रयकरषट्तया वैषम्येण तिर्यग्भूतत्वात्प्रतिरुद्ध गतित्वेनापसरणे शैथिल्यमिति भावः ॥ ५६ ॥ विमला - ( रावणपुत्र ) त्रिशिरा का कवच ( तीनों सिरों को सुगमता से प्रविष्ट कराने के लिये ) ऊपर उठाया गया, जिसके बीच में तीन कण्ठों के लिये तीन छिद्र बने थे । उसमें छः भुजाओं को एक साथ डालने के जब ऊपर उठाया तो खिंचाव से उसका वक्षःस्थल यद्यपि कृश हो वह् कवच वक्षःस्थल पर धीरे-धीरे ही नीचे गया || ५६ ॥ महोदरस्य तदाह दिण्ण महिअम्पगरुअं संचालेन्ते महोधरे अध्वाणम् । वच्छत्थलपुञ्जइनो ओसरइ भरेण अध्पणो संणाहो ॥५७॥ [ दत्तमहीकम्पगुरुकं संचालयति महोदर आत्मानम् । वक्षःस्थलपुञ्जितोऽपसरति भरेणात्मनः संनाहः ॥ ] ३४ से० ब० लिये त्रिशिरा ने गया था तथापि Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३०] सेतुबन्धम् [ द्वादश दत्तेन महीकम्पेन गुरुकं यथा स्यादेवं महोदरे आत्मानं शरीरं संचालयति सति वक्षःस्थले पुञ्जितो वतु लीभूतोऽपि संनाह आत्मनः संनाहस्यैव भरेण गौरवेणापसरति । उदरमहत्त्वेन प्रतिरुद्धगतिरपि देहसंचारजनितसंचारादधः पततीत्यर्थः । इति संनाहमहत्त्वेन देहमहत्त्वमुक्तम् । पूर्वमुरसि विषमस्थितत्वमात्रमुक्तमिदानी परिधानपर्यन्तमित्यपौनरुक्त्यम् । अन्य एव महोदरोऽयमिति वा ॥५७॥ विमला-(पूर्वोक्त महोदर से भिन्न ) महोदर का कवच ( उदर के महान् होने के कारण ) वक्षःस्थल पर रुक गया, उस समय उसने अपने शरीर को ऐसा हिलाया कि पृथ्वी काँप उठी और कवच वक्षःस्थल के नीचे अपने-आप सरक गया ।। ५७॥ इन्द्रजितस्तदाहणीसरिएरावणदन्तमुसलदोसन्तमसिणणिहसच्छाअम् । कवअंमज्झकरालं उत्तम्भिज्जइ उरत्थले इन्दइणो।।५८।। [निःसृतैरावणदन्तमुसलदृश्यमानमसृणनिघर्षच्छायम् । कवचं मध्यकरालमुत्तभ्यते उरःस्थले इन्द्रजितः ॥ ] इन्द्रजितो रावणपुत्रस्य उर:स्थले कवचमुत्तभ्यते उत्तानीक्रियते । हृदयस्योन्नतत्वेनेत्यर्थात् । किंभूतम् । निःसृतानां भित्त्वा बहिर्गतानामैरावण दन्तमुसलानां दृश्यमानस्य मसृणस्य नूतनत्वाच्चिककणस्य निघर्षस्य निघर्षणस्थानस्य च्छाया कान्तिरुज्ज्वलता यत्र तत् । अत एव मध्ये करालं सच्छद्रम् ।।५८।। विमला-( रावणपुत्र ) इन्द्रजित् का कवच ( हृदय के उन्नत होने के कारण ) वश्नःस्थल पर रुक गया ( नीचे नहीं जा सका ) । ( यह वही कवच है, जिसे इन्द्रजित् ने इन्द्र के साथ युद्ध करते समय धारण किया था) जिसमें ऐरावत गज ने अपने मुसलसदृश दाँतों को धंसा कर पुनः निकाल लिया था, उसका चिकना निघातस्थान अब भी स्पष्ट बना हुआ है, अतएव वह कवच छिद्रयुक्त है ॥५॥ अतिकायस्य तदाह अइकाअस्स वि कवए चिरेण ऊरूस ठिअपलम्बोसारे। देहप्पहाविमक्कं जाअं वोच्छिण्णकणमिहिअं व णहम ॥५६॥ [ अतिकायस्यापि कवचे चिरेणोर्वो: स्थितप्रलम्बावसारे । देहप्रभाविमुक्तं जातं व्यवच्छिन्नमेधिकमिव नभः ॥] चिरेण देहदैाद्विलम्ब्यावपतनेनोर्वोः स्थितः प्रलम्बोऽवसारः प्रस्तारो यस्येत्यूरूपर्यन्त लम्बितेऽतिकायस्यापि रावणपुत्रस्य कवचे नभो गगनं व्यवच्छिन्ना पृथग्भूय संगता कृष्णमेघिका यत्र तथाभूतमिव जातम् । नभसि मेघवन्नीलं कवचमपि Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५३१ लग्नमित्यर्थः । नभः कीदृशम् । देहस्य कवचान्तरितत्वेन तत्प्रभया विमुक्त त्यक्तमिति स्वरूपनिर्वचनमात्रम् । 'कवचम्' इति प्रथमान्तपाठे देहप्रभया श्यामया विमुक्त त्यक्त सत् व्यवच्छिन्नापगता कृष्ण मेधिका यत्र तथाभूतं नभ इव जातम् । यथा निघतया केवलमेव नभो लक्ष्यते तथा देहकान्तितिरोधानात्कवचमपीत्यर्थः । वस्तुतस्त्वत्र पक्षे 'देहप्पहाणुविद्धम्' इति पाठः, तथा च देहप्रभाभिरनुविद्धं लौहवलयच्छिद्रैर्बहिर्भय संबद्धं जातं तत्र व्यवच्छिन्ना पृथग्भूता कृष्णमे घिका यत्र तादृशं नभ इवेति श्यामत्वेन कवचनभसोर्देहप्रभामेघयोश्च तौल्यमिति यथा नभसि मेधो लक्ष्यते, तथा कवचे देहप्रभापीत्यर्थः ।।५।। विमला-(रावणपुत्र ) अतिकाय का कवच ( शरीर की दीर्घता के कारण ) नीचे बहुत देर में आया, इस प्रकार वह जब जाँघों तक लटक चुका, उस समय ( कवच से आच्छादित होने के कारण ) अतिकाय की ( श्याम ) देहप्रभा से त्यक्त गगन कृष्ण-मेघ से रहित-सा लगा ।।५।। धूम्राक्षस्य तदाहसमरतुरिओ विसूरइ उरत्थलुम्वत्तदाविसोवासम् । प्रावन्धिऊण कव वज्जमहच्छिण्णवन्धणं धम्मक्खो॥६॥ [समरत्वरितः खिद्यते उरस्थलोद्धृतशितांसावकाशम् । आबद्धय कवचं वज्रमुखाच्छिन्नबन्धनं धूम्राक्षः ।।] समराय त्वरितो धूम्राक्षः कवचमाबद्धय खिद्यते योऽहमिन्द्रेण समं युद्धवान् स एव कपिभिर्योद्ध, संनह्यामीत्याशयात् । किंभूतम् । वज्रमुखेन छिन्नं बन्धनं यस्य तथाभूतम् । अत एव उरःस्थले उद्धतं बन्धनाभावेन विपरीत्य पतितम्, अतो दशितोऽसावकाशोऽसप्रदेशो येनेति संमुखघातेन शूरत्वक्तम् ।।६०॥ विमला-समर के लिये उतावला हुआ धूम्राक्ष ( वानरों से लड़ने के लिये ) कवच धारण कर दुःखी हुआ, क्योंकि ( वह इन्द्र के साथ युद्ध कर चुका था, अतएव) उसके कवच का बन्धन वज्र के अग्रभाग से छिन्न हो चुका था, अतएव वक्षःस्थल पर बँधा न होने से स्कन्ध प्रदेश दिखायी दे रहा था ॥६०॥ अशनिप्रभस्य तदाह रोसेण चिरप्परूढे फुडिए असणिप्पहस्स वणसंघाए। कव अविवरेहि गलिअं सुइरं उप्पाअजलहरस्स व रुहिरम् ॥६१।। [ रोषेण चिरप्ररूढे स्फुटितेऽशनिप्रभस्य व्रणसंघाते । कवचविवरैर्गलितं सुचिरमुत्पातजलधरस्येव रुधिरम् ।।] अशनिप्रभस्य रावणमातुलस्य रुधिरं कवचविवरैः सुचिरं गलितम् । कस्मिन्सति । चिरात्प्ररूढे उन्नतमांसीभूय संधुक्षिते व्रणसंघाते रोषेण स्फुटिते सति । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२] सेतुबन्धम् [ द्वादश रोषजन्यस्पन्दनेनोत्फुल्लतया कवचघर्षणात् । किंभूतस्येव । उत्पातजलधरस्येव । तथा तस्माद्रुधिरं गलतीत्यर्थः । श्यामत्वादनिष्टसूचकत्वाच्च तेनोपमा ।।६१।। विमला-अशनिप्रभ (रावण के मामा) के शरीर के घावों को भरे हुये यद्यपि काफी दिन हो गये थे और उस स्थान पर नया मांसादि चढ़ चुका था तथापि उसने जब कवच धारण किया उस समय रोष से ( फूल आने के कारण ) वे घाव फट गये और कवच के छिद्रों से उसी प्रकार रुधिर गिरा, जिस प्रकार उत्पातजलधर से गिरता है ।।६।। निकुम्भस्य तदाह उक्खिप्पन्तणिराआ अमरिसवेअवलिए णि उम्भस्स उरे। फुडदाविअसीमन्ता विअलिअलोहवलआ विसट्टइ माढी ।।६२।। [ उत्क्षिप्यमाणनिरायतामर्षवेगवलिते निकुम्भस्योरसि । स्फुटदर्शितसीमन्ता विगलितलौहवलया विशीर्यते माढी ॥] निकुम्भस्य कुम्भकर्णसुतस्यामर्षस्य क्रोधस्य वेगेन त्वरया समुद्गमेन वलिते उच्छ्वसिते उरसि माढी। देश्यां लौहाङ गुलीयघटितो 'जिरह' इति प्रसिद्धः । संनाहो विशीर्यते द्विधा भवति । किंभूता। उत्क्षिप्यमाणा सती निरायता दीर्घा । एवम्स्फुटं दशित: सीमन्तो द्विधाभावरेखा यया। अत एव विगलितानि त्रुटित्वा पतितानि लोहवलयानि यस्याः । तथा च क्रोधेन हृदयस्योत्फुल्लतया कवचस्यातिपीडनाद् द्विधाभावेनामङ्गलं सूचितम् ॥६२॥ विमला-निकुम्भ (कुम्भकर्ण का पुत्र ) ने अपना लम्बा कवच ऊपर उठा कर जब पहना उस समय क्रोध के वेग से उसका वक्षःस्थल इतना उत्फुल्ल हो उठा कि कवच दो खण्डों में फट गया, अतएव उसके लौहवलय टूट कर गिर गये तथा दो खण्डों में फटने की रेखा स्पष्ट दिखायी पड़ी ॥६२।। शुकस्य तदाह सुरपहरणधाअसहं सुओ वि सुपरिच्छअं णिवन्धइ कवअम् । समुट्ठि ण आणइ पुरओ दुवाररामसर दुज्जाअम् ।।६३।। [सुरप्रहरणघातसहं शुकोऽपि सुपरिच्छदं निबध्नाति कवचम् । संमुखस्थितं न जानाति पुरतो दुर्वाररामशरदुर्जातम् ।।] रावणमन्त्री शुकोऽपि सुरप्रहरणानां घातसहं सुपरिच्छदं कवचं निबध्नाति । किन्तु पुरतोऽग्रे भावि [दुर्वारेभ्यो] रामशरेभ्यो दुर्जातमुपद्रवं (तेषां दुर्जातं) देहं भित्त्वा दुनिर्गम वा संमुखस्थितं पुरोवर्त्यपि न जानाति न पश्यति । अत एव संनह्यतीत्यर्थः । रामशरनिपाते कवचेनापि न रक्षेति भावः ॥६३॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५३३ विमला-( रावणमन्त्री ) शुक ने सुरों के अस्त्रों की चोट को सहने वाला सुपरिच्छद कवच धारण किया, किन्तु संमुखस्थित भी दुर्वार रामशरों के भावी उपद्रव को नहीं देख पाया ( राम के शरों से कवच भी बचा नहीं सकेगा-यह नहीं समझ सका)॥६३॥ सारणस्य संनहनाभावमाहतुरिआउच्छिषकामिणिवलन्तधणिओवाहणाहिण्णाणम् । थणपरिमलं दअन्तो णोइ जिवन सारणो ण बन्धइ कवनम् ॥६४॥ [ त्वरितापृष्टकामिनीवलद्धन्योपगृहनाभिज्ञानम् स्तनपरिमलं दयमानो निरैत्येव सारणो न बध्नाति कवचम् ॥] अपरो मन्त्री सारणो निरैति युद्धाय गच्छत्येव । परं कवचं न बध्नाति । किंभूतः । त्वरितमापृष्टाया वक्ष्यामीति संभाषितायाः कामिन्यास्तदैव वलतो धन्योपगृहनस्य गाढालिङ्गनस्याभिज्ञानं चिह्न स्तनयोः परिमलम् । कस्तूरिकादिपङ्कलेपमालिङ्गनकाले स्ववक्षसि लग्नमित्यर्थात् । दयमानो रक्षन् कवचोपमर्दैन न तिष्ठेदिति शृङ्गारितया प्रियायामनुरागित्वमुक्तम् ॥६४॥ विमला-सारण ( रावण का दूसरा मन्त्री ) अभी-अभी प्रिया से युद्ध गमन की अनुमति लेकर आया था। प्रिया ने चलते समय उसका जो गाढ़ालिङ्गन किया, उससे स्तनों का कस्तूरिकादिपङ्कलेप वक्षःस्थल में लग गया था। कवच धारण करने से कहीं यह नष्ट न हो जाय, इसलिये उसकी रक्षा करता हुआ वह विना कवच धारण किये ही युद्धार्थ चल पड़ा ॥६४॥ अथ रथानां घटनमाह जुत्ता कुम्भस्स रहे माआबद्धमुहलन्धआरधअवडे । सुररुहिर'दकेसरगुप्पन्तभुअङ्गपग्गहा केसरिणो॥६५॥ [ युक्ताः कुम्भस्य रथे मायाबद्धमुखरान्धकारध्वजपटे । सुररुधिर दृष्टकेसरव्याकुलभुजङ्गप्रग्रहाः केसरिणः ॥] मायाबद्धो मुखरो गर्जन्नन्धकार एव ध्वजपटो यत्र तत्र कुम्भकर्णपुत्रस्य कुम्भस्य रथे केसरिणो युक्ता योजिताः । कीदृशाः । सुराणां रुधिरैर्दष्टषु३ केस रेषु व्याकुला भुजङ्गा एव प्रग्रहाः खलीनरज्जवो येषु ते । शुष्कशोणितसंबन्धात्स्कन्धवालानां कार्कश्येन दुःस्थतथा भुजङ्गानां व्याकुलत्यमिति भावः ॥६५।। विमला-( कुम्भकर्णपुत्र ) कुम्भ के, मायाबद्ध मुखर अन्धकाररूप ध्वजपट १-३. दिग्धशब्दोऽपि पुस्तकान्तरे दृश्यते । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४] सेतुबन्धम् [ द्वादश वाले रथ में सिंहयुक्त किये गये जिनके केसर सुरों के शुष्क शोणित से कर्कश थे, अतएव प्रग्रह ( रास ) के रूप में लगे हुये भुजङ्ग व्याकुल हो रहे थे ।।६।। अथ राक्षसानां खड्गग्रहणमाहणिम्माएइ अमरिसं पडिहत्थेइ गरु पि सामिअसुकअम् । बिहण इ पराहिमाणं णिमिओ मटिम्मि मण्डलग्गस्स करो।॥६६॥ [ निर्मापयत्यमष प्रतिहस्तयति गुरुकमपि स्वामिसुकृतम् । विधुनोति पराभिमानं नियोजितो मुष्टौ मण्डलाग्रस्य करः ॥] अयं खड्गोऽमर्ष जनयति । अतो गुरुकमपि स्वामिनः सुकृतमुपकारं प्रतिहस्तयति प्रतिस्वीकरोति प्रत्युपकरोतीत्यर्थः । एवं परेषाम भिमानमहंकारं विधुनोतीति कृत्वा करो हस्तो मण्डलाग्रस्य खड्गस्य मुष्टौ खड़गधारणस्थाने नियोजितो वीरैरित्यर्थात् । मिलिओ इति पाठे मिलित इत्यर्थः ।।६६।। विमला-यह खड्ग अमर्ष उत्पन्न करता है, अतएव स्वामी के महान उपकार का भी बदला चुका देता है एवं शत्रु के अहङ्कार को नष्ट करता है—ऐसा सोच कर वीरों ने खड्ग की मूंठ पर हाथ लगाया–खड्ग ग्रहण किया ॥६६॥ अथ देवस्त्रीणां स्वयंवरोत्कण्ठामाहसंणज्झन्ति समत्था ण सहिज्जइ कलकलो विसूर इf अम् । विरएइ सुरवहजणो विमाणतोरण गधागो वच्छन् ॥६७॥ [संनह्यन्ति समर्था न सह्यते कलकल: खिद्यते हृदयम् । विरचयति सुरवधूजनो विमानतोरणगतागतो नेपथ्यम् ।।] समर्था राक्षसा: संनह्यन्ति । तैरेव कलकलः । कपीनामित्यर्थात । न सह्यते । तेषामेव हृदयं खिद्यते । युद्धालाभादित्यर्थात् । इति कृत्वा सुराणां वधजनो विमानस्य तोरणे द्वारि गतागतः सन् नेपथ्यमलङ्कारं विरचयति । वीराणां वरणाय युद्धजिज्ञासया विमानस्य द्वारपर्यन्तमागच्छति तदानीं युद्धाभावान्नेपथ्यचिकीर्षया पुनरन्तर्गच्छति चेति संग्रामे भविष्यद्वहुशूरपतनं सूचितम् ॥६७॥ विमला-समर्थ राक्षस सन्नद्ध हो रहे हैं, कपियों का कलकल निनाद उन्हें सह्य नहीं है एवं ( युद्ध में विलम्ब होने से ) उनका हृदय खिन्न हो रहा है, अतएव ( वीरों के वरण के लिये युद्धजिज्ञासा से ) सुरवधुयें विमान के द्वार सक आतीं और (युद्ध का आरम्भ न देख कर लौट कर मण्डन करने लगती।।६७।। अथ लङ्कावरोधमाह इअ जा समरसप्रलो संणज्झइ हरिसिओ णिसाअरलोओ। ता रहुवइदीसन्तं अल्लीणं चि समन्तओ कइसेणम् ।।६।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५३५ [ इति यावत्समरसतृष्णः संनयति हर्षितो निशाचरलोकः । तावद्रघुपतिदृश्यमानमालीनमेव समन्ततः कपिसैन्यम् ॥] इत्यनेन प्रकारेण समरे सतृष्णो निशाचरलोको हर्षितः सन् यावत्संन ह्यति तावदेव रघुपतिना दृश्यमानं कपिसैन्यं समन्तादालीनमेव संगतमेव । लङ्कायामित्यर्थात् । अतिहठाल्लङ्कावरोधेन कपीनामहंकारित्वमुक्तम् ।।६८॥ विमला-इस प्रकार युद्ध के प्यासे निशाचर जब तक प्रसन्न हो सन्नद्ध हुये, तब तक राम के द्वारा देखी जाती कपिसेना ने चारो ओर से लङ्का को घेर लिया ।।६८॥ अथ लङ्कोपमर्दमाह --- भग्गारामविनोलं दलिउज्जाणभवणोवणिग्गमलहइम् । प्रोवग्गन्ति पवङ्गा सोहाविणिसणं णिसाअरण परिम् ।।६६॥ [ भग्नारामविलोलां दलितोद्यानभवनोपनिर्गमलघुकाम् । अवक्रामन्ति प्लवङ्गाः शोभाविनिदर्शनं निशाचरनगरीम् ।। ] प्लवङ्गाः शोभाया विशेषतो निदर्शनं दृष्टान्तभूतां निशाचरनगरी लङ्कामवक्रामन्ति उपमर्दयन्ति । अत्र प्रकारमाह-कीदशीम् । भग्नैरारामैः साधारणोपवनविलोलां भग्नारामां विलोलां चेति वा । एवम्-दलितैरुद्यानै राजोपवनैर्भवना हैरुपनिर्गमैरिलघुकामल्पीभूताम् । शोभैव विशिष्टं निवसनं वस्त्र यस्या इत्यर्थो वा । 'आरामः स्यादुपवनम्', 'पुमानाक्रीड उद्यानम्' इत्यमरोभयत्र ॥६६॥ विमला-जो लङ्कापुरी शोभा का दृष्टान्त थी उसी को वानरों ने तहसनहस कर डाला। साधारण उपवनों को भग्न कर उसे विक्षुब्ध कर दिया तथा उद्यानों, भवनों एवं द्वारों को दलित कर उसका स्वरूप छोटा कर दिया ॥६६॥ अथ प्लवगानां कोलाहलमाह अङ्काप्रअरअणिअरं धीरान्तपवआहिवधरिज्जन्तम् । रसइ विसमाअप्रप रोसुद्धाइअपरिट्ठिअं पवनबलम् ॥७॥ [अङ्कागतरजनीचरं धीरायमाणप्लवगाधिपध्रियमाणम् । रसति विषमागतपदं रोषोद्धावितपरिस्थितं प्लवगबलम् ।।] अङ्क आगता लङ्कातः प्रत्यासन्ना रजनीचरा यस्य तथाभूतं प्लवगबलं रसति शब्दायते । राक्षसान्दृष्ट्वेत्यर्थात् । किंभूतम् । धीरायमाणेन प्लवगाधिपतिना ध्रियमाणमवेक्ष्यमाणम् । हे कपयः! मा धावत रजनीचरा निर्यान्तु ततो मारयतेत्युक्त्वा निरुध्यमानं वा । अत एव निशाचरानागच्छतो दृष्ट्वा हन्तु रोषेणोद्धावितं पश्चात्सुग्रीव निषेधेन परिस्थितम् । एवम्-विषमं व्यस्तमागतं पदं यस्य तथा । जातिस्वाभाव्यादित्यर्थः ॥७॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] सेतुबन्धम् [द्वादश विमला-वानरों की सेना ( अङ्कागत ) समीपस्थ रजनीचरों को देख कर गर्जना करती, किन्तु धीर सुग्रीव के द्वारा निरुद्ध होने से उन्हें मारती नहीं, पुनः मारने के लिये रोष से दौड़ती, किन्तु सुग्रीव के रोकने से रुक जाती और उसका आगे बढ़ा पग पुन: ( अपने स्थान पर ) आ जाता ॥७॥ अथ नभसि देवतावतरणमाह रहसल्लिअन्तगविप्रकइसेण्णच्छन्दणहमलल्लोणसुरम् । वन्दित्तणदछन्वं पेच्छइ सुरवहुजणो णिसाअरणअरिम् ॥७१॥ [ रभसाल्लीयमानवितकपिसैन्यछन्दनभस्तलालोनसुराम् । बन्दीत्वद्रष्टव्यां प्रेक्षते सुरवधूजनो निशाचरनगरीम् ।। ] सुराणां वधूजनो निशाचरनगरी लङ्का प्रेक्षते । हर्षेणेत्यर्थात् । किंभूताम् । पूर्व बन्दीत्वेन बन्दीभावेन द्रष्टव्यां न तु रावण भिया स्वारसिकतयेति रावणप्रतापभङ्गः सूचितः । पुनः कीदृशीम् । रभसेन वेगेनालीयमानं संगतं सद्गवितं यत्कपिसैन्यं तच्छन्देन तद्वशेन नभस्तले आलीना अवतीर्णाः सुरा यत्र तथाभूताम् । येनैव क्रमेण प्राकारं परितः कपयः स्थितास्तेनैव क्रमेण राक्षस भिया कपिसंनिधिमाश्रित्य लङ्कोपरि नभसि देवता अपि स्थिता इत्यर्थः ।।७१।। विमला-ज्यों-ज्यों प्राकार के चारो ओर गर्वीले वानर स्थिर होते गये त्यों-त्यों लङ्का के ऊपर गगन में सुर भी ( विमान द्वारा ) आकर एकत्र होते गये और सुरवधूवृन्द जो पहिले बन्दी के रूप में लङ्का को देखा करता था अब गगनतल से देख रहा था ।।७१।। अथ प्लवगानामितस्ततो धावने वेगातिशयमाहरणरहसपत्थिप्राण उरुवेअविसट्टसेलसिहरक्खलिआ । पवप्राण पढमभग्गा पडन्ति समइञ्छिाण मग्गेण दुमा ॥७२॥ [ रणरभसप्रस्थितानामूरुवेगविशीर्णशैलशिखरस्खलिताः । प्लवगानां प्रथमभग्नाः पतन्ति समतिकामतां मार्गेण द्रुमाः ॥ ] रणे रभसादुत्साहात्प्रस्थितानां प्लवगानां समतिकामतामतिक्रम्य गच्छतां सतां मार्गेण पश्चादूर्वोर्वे गेन विशीर्णेभ्यः शैल शिखरेभ्यः स्खलिताः पृथग्भूता द्रुमाः पतन्ति । भूमावित्यर्थात् । किंभूताः। प्रथमं भग्ना वेगवशाद्दूरमय गतेनोरुवातेन प्रथमं भग्ना अप्यतिक्रम्य गतेषु कपिषु पश्चात्पतन्तीति बलवेगवपुःप्रकर्ष उक्तः । केचित्तु प्रस्थितानामागतानामथातिक्रामतामागच्छतामित्ये केनैव पथा गतागतमाचरतामित्यर्थे प्रथमं गमनसमये भग्ना अपि भञ्जकवेगमारुता क्रान्तत्वादेव न पतिता अथागमनोत्तरं तन्निवृत्ती इत्यर्थमाहुः ।।७२॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५३७ विमला-युद्धार्थ उत्साह से वानरों ने जिस समय गमन किया उस समय जाँघों के वेगवायु से विशीर्ण शैलशिखरों से स्खलित भग्न वृक्ष (जो उसी तीव्र वायु से आक्रान्त होने से नहीं गिरे थे) उसी मार्ग से उनके आगमन पर (वेगवायु के निवृत हो जाने से ) गिर गये ।।७२।। अथ रावणस्य गजव्यूहर नामाह णहमलसमुट्ठिएहिं पाआरन्तरिअधअवडेहिं पवङ्गाः । सूएन्ति गडिअवारणर इसघडाबन्धसंठिए रअगिपरे ।।७३।। [ नभस्तलसमुत्थितैः प्राकारान्तरितध्वजपटैः प्लवङ्गाः । सूचयन्ति गुटितवारणरचितघण्टाबन्धसंस्थितान्रजनीचरान् ॥] प्लवङ्गा गुटितानां कृतसंनाहानां वारणानां रचितेषु घण्टाबन्धेषु संस्थितान्रजनीचरान् सूचयन्ति तर्कयन्ति । कैः। नभस्तले ममुत्थितः प्राकारान्तरितानां ध्वजानां पटैः । तथा च प्राकारव्यवधानाददृष्टानप्युत्थितपताकासमूहेन गजाननुमायानुमिन्वन्तीत्यर्थः ।।७३॥ विमला-यद्यपि ध्वज ( दण्ड ) प्राकार की ओट में अदृश्य थे तथापि उनके पट गगनतल में उठे फहरा रहे थे । उन्हीं से वानरों ने यह अनुमान कर लिया कि रजनीचर सन्नद्ध गजों के रचित घण्टाबन्धों में संस्थित हैं । ७३॥ अथ कपीनां परस्परालापमाहभमइ पवणाणु सारी पवअबलस्स खलिउटिअपउच्छलिओ। दुमभङ्ग-सद्दविसमो महिणीहरिअगरुप्रो समुल्लवणरओ।।७४।। [ भ्रमति पवनानुसारी प्लवगबलस्य स्खलितोत्थितपदोच्छलितः । द्रुमभङ्गशब्दविषमो महीनिहूदितगुरुकः समुल्लपनरवः ॥] प्लवगबलस्य समुल्लपनरवो निशाचरागमनशङ्काजनितयुद्ध व्यवस्थानुकूलपरस्पराभाषणकोलाहलः पवनानुसारी सन् भ्रमति । वेगजनितः साहजिको वा वायुयंदा यद्दिशि वाति तदा तत्रायमपीत्यर्थः । किंभूतः । प्रथमं स्खलितं त्वरावशाद्भूमावेव विपर्यस्तपतितम्, अथोत्थितमुत्थापितं यत्पदं तस्मादुच्छलितः संचारशब्दावृद्धया ऊवं परितश्च प्रापित इत्यर्थः । अथास्त्रार्थ द्रुमाणां भङ्गाच्छब्देन विषमो नीचोच्चः । तदनु मह्या निह दितेन गुरुको मांसलः ॥७४।। विमला-वानरों ने युद्धव्यवस्था के विषय में परस्पर जो वार्ता की उसका कोलाहल उनके स्खलित एवम् उत्थित पद के संचारशब्द से बढ़ कर चारो ओर पहुँच गया। ( अस्त्र के रूप में प्रयुक्त करने के लिये ) वृक्षों के टूटने के शब्द से वह ( कोलाहल ) विषम हो गया, तत्पश्चात् पृथिवी के शब्द से और महान् हो Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८] सेतुबन्धम् [ द्वादश गया एवं वायु जिस दिशा में जाता तदनुसार ही वह कोलाहल भी उसी दिशा को जाने लग। ।।७४।। अथ लङ्कापरिखातटभङ्गमाहगिद्दलिअमणिअडाणं देन्ति जहासमा विवरपल्हत्थाणम् । विहडिम सुवेललम्बिअदिसावलन्तोज्झरत्तणं फडिहाणम् ॥७५ ॥ [ निर्दलितमणितटानां ददति यथासन्नविवरपर्यस्तानाम् । विघटितसुवेललम्बितदिग्वलन्निर्झरत्वं परिखाणाम् ॥] निर्दलितं प्लवङ्गसंचारात्त्रुटितं मणिमयं तटं यासां तासाम् । अतएव यथासन्नविवरैनिम्नभागः पर्यस्तानामितस्ततो गतानां लङ्कापरिखानां तद्वतिजलानां विघटितात्कपिचक्रमणात्क्वचिद्विशीर्णात्सुदेलाल्लम्बिताः पतिता दिक्षु वलन्तो वक्रीभूय वहन्तो ये निर्झरास्तद्भाव ददति । वानरा इत्यर्थात् । कपिचङ्क्रमण द्विधाभूतनानासुवेलप्रवेशानुस्यूतनानामहीनिम्नप्रदेशेन परिखाजलानि सुवेलमूलमतिक्रम्य गतानि सुवेलावतीर्ण निर्झर बुद्धि जनयन्ति तत्सवं बद्ध मणिमयपरिखातटविदलनद्वारा वानरा निष्पादयन्तीत्यर्थः ।।७।। विमला-परिखाओं (नगर या गढ़ के बाहर तद्रक्षार्थ खोदी गयी नहर ) के मणिमय तट को बानरों ने विनष्ट कर दिया, अतएव उनमें वर्तमान जल निकटवर्ती निम्न प्रदेशों से इधर-उधर फैल गया और वह ( कपियों के कूदने से ) विशीर्ण सुवेल से गिर कर चारो ओर बहता हुआ, सुवेल से उद्भत निर्झरसा प्रतीत हुआ ।।७।। अथ लङ्कागोपुरातिक्रममाह जे चिरआल परूढा समराइञ्छिअमहिन्दपप्रणिक्खेवा । ते णवर गोनु रन्तर विहडणचडुलेहि वागरेहि दिडहिया ॥७६।। [ये चिरकालप्ररूढाः समरातिक्रान्तमहेन्द्रपदनिक्षेपाः । ते केवलं गोपुरान्तरविघटनचटुलैर्वानरैर्विघटिताः ।। समरादतिक्रान्तस्य पलायितस्य महेन्द्रस्य ये पदनिक्षेपाश्चरणविन्यासस्थानानि चिरकालमारभ्य प्ररूढा उपचिता: प्रव्यक्ता इति यावत् । ते गोपुरस्य पुरद्वारस्य यदन्तरमभ्यन्तरं तस्य विघटने विमर्दने चटुलैश्चञ्चलानरैः केवलं विघटिता विदिता नान्यै रित्यर्थ । पूर्वं लङ्कावरोधसमये पुरद्वारत एव महेन्द्रः पलायितस्त. च्चरणचिह्नानि सर्वे पश्यन्त्विति रावणे नाद्यापि रक्षितानि, पुनस्तदा वानरैरेव स्वचरणविमर्दैरन्तरितानीति महेन्द्रापकीर्तिः कपिभिरपहस्तिता । तत्र रावणेन प्रतिबन्धः कर्तन शकित इति भावः । केऽपि न लक्षयन्त्विति राक्षसानामप्य गम्येनातिनिगूढेन क्वाचित्कलङ्कान्तःप्रवेशेन पलायितस्य महेन्द्रस्याद्यापि स्थितानि Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५३६ चरणचिह्नानि कपिभिविलुलितानीति तत्प्रदेशगमनेन कपीनामतिप्रसरः सूचित इति वा ।।७६॥ विमला-बहुत पहले ( लंकावरोध के समय ) समर में ( पुरद्वार से ही । भागे हुये इन्द्र के चरणचिह्न, जिन्हें ( सब के देखने के लिये ) चिरकाल से रावण ने सुरक्षित रखा था, पुरद्वार को विनष्ट कर अपने चरणों से केवल वानरों ने ही मिटाया ॥७६॥ अथ परिखाजलक्षोभमाहजात्रा णिमा अरपुरी पाआरब्भन्तरावसेसध अधडा। खणावाणरसंवेल्लिअफलिहाविज्झविअरक्खसेन्दपआवा ॥७७॥ [ जाता निशाचरपुरी प्राकाराभ्यन्तरावशेषध्वजपटा। क्षणवानरसंवेल्लितपरिखाविध्मापितराक्षसेन्द्रप्रतापा ।।] राक्षसपुरी जाता । कीदृशी। प्राकाराभ्यन्तरेऽवशेषा अवशिष्टा ध्वजपटा यस्यां तथा सा। गोपुरासन्नध्वजपटानां कपिभिरपनीतत्वादिति भावः । एवम्-क्षणं व्याप्य वानरैः संवेल्लिताभिश्च क्रमाच्चञ्चलीकृताभिः परिखाभिविध्मापितो निर्वापितः । प्रशमं नीत इति यावत् । राक्षसेन्द्रस्य प्रतापो यत्र । तथा च बहिस्तातापरूपो वह्निर्नास्तीति तत्प्रशमे विक्षोभितपरिखाजलप्रसरणहेतुकत्वमुत्प्रेक्षितम्, अन्योऽपि वह्निर्जलेन शाम्यतीति ध्व निस्तेन प्राकाराभ्यन्तरमात्रपर्यवसायी रावणप्रतापः स्थित इति तात्पर्यम् ॥७॥ विमला-लङ्का में अब प्राकार के भीतर ही ( रावण के प्रतापसूचक ) ध्वजपट अवशिष्ट रह गये, बाहर ( पुरद्वार को नष्ट-भ्रष्ट करते समय ध्वजपट विनष्ट ही हो चुके थे ) रावण का प्रताप भी नहीं रह गया, क्योंकि क्षण भर वानरों से चञ्चल किये गये खाइयों के जल से वह बुझा दिया गया ॥७७।। अथ परिखावेष्टनमाहविअडगिरिऊडसंणिहणिरन्तरासण्णवाणरपरिक्खित्ता । जाआ पाप्रारोहअमझक डफडिह व्व खसणअरी ॥७८॥ [ विकटगिरिकूटसंनिभनिरन्तरासन्नवानरपरिक्षिप्ता । जाता प्राकारोभयमध्यव्यूढपरिखेव राक्षसनगरी ॥] विकटानि यानि गिरीणां कूटानि शृङ्गाणि तत्संनिभैस्तत्तुल्यै निरन्तरमासन्नैमिलितर्वानरैः परिक्षिप्ता वेष्टिता राक्षसनगरी प्राकारद्वयमध्ये व्यूढोपचिता परिखा यस्यास्तादृशीव जाता। परिखाया एक: प्राकारः स्थित एव, अपरः परदिशि मण्डलाकारः स्थितः कपिव्यूह एवाभूदित्युत्प्रेक्षा। तथा चोक्त रघौ–'द्वितीयं हेमप्राकारं कुर्वद्भिरिव वानरैः' इति ।।७८।। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] सेतुबन्धम् [द्वादश विमला-पर्वतों के विकट शृङ्गों के तुल्य वानरों ने लङ्का को ऐसा घेर लिया कि उसकी परिखा । खाई ) दो प्राकारों के मध्य में फैली हुई-सी प्रतीत हुई ( परिखा का एक प्राकार तो था ही, दूसरी तरफ दूसरा प्राकार मण्डलाकार स्थित कपियों का जमघट हो गया ) ॥७॥ अथ द्वारलग्नः क पिभिरिमतिक्रम्य प्राकारेऽधिरूढमित्याह-- तो तं वलन्तविप्रडं वाणरसेण्णं विहत्तदाराहोअम् । जाअं णिवहणिरन्तरलङ्कापाआरघडिअमण्डलिबन्धम् ॥७९॥ [ ततस्तद्वलद्विकटं वानरसैन्यं विभक्तद्वाराभोगम् । जातं निवहनिरन्तरलङ्काप्राकारघटितमण्डलीबन्धम् ।।] ततः परिखोपरोधानन्तरं तद्वानरसैन्यं वलद्वारप्रदेशात्प्रवेशाय दिशि दिशि गच्छत्स द्विकटं विस्तीणं ततो विभक्तः संकीर्णत्वाद्युगपत्प्रवेशक्षमविस्ताराय राक्षस निर्गमाय च भग्नो द्वारस्याभोगो विस्तारो येन तथाभूतं सन्निवहैः सजातीयनिरन्तरं मिलितं यथा स्यात्तथा लङ्काप्राकारे घटितो निमितो मण्डलीबन्धो मण्डलाकारावस्थितियन तथा जातम् । प्राकारोपरि प्राकारक्रमेण स्थितमित्यर्थः । विभक्तः कपिमुख्येभ्यो विभज्य दत्तो द्वाराणामाभोगो येन । लङ्काद्वाराणां बहुत्वादित्यर्थः ॥७॥ विमला-तदनन्तर वानरों की सेना द्वारप्रदेश से प्रवेश करने के लिये चल पड़ी, किन्तु संख्या में अधिक होने के कारण इधर-उधर फैल गयी। अतः एक साथ प्रवेश कर सकने के लिये उसने द्वार का विस्तार भग्न कर दिया और एक साथ मिल कर लङ्का के प्राकार पर मण्डलाकार ( प्राकार के ऊपर प्राकारवत् ) अवस्थित हो गयी ।।७।। ___अथापरेऽपि परिखाप्रान्तवर्तिनस्तदृष्ट्वा परिखामतिक्रम्य प्राकारं लचितवन्त इत्याह बिइओअहिगम्भीरे फलिहावत्तम्मि बिइप्रबद्धगिरिवहा । आढत्ता लङ्घउ बिइअसुवेलं व वाणरा पाआरम् ।।८०॥ [ द्वितीयोदधिगम्भीरे परिखापृष्ठे द्वितीयबद्धगिरिपथाः । आरब्धा लवयितुं द्वितीयसुवेलमिव वानराः प्राकारम् ॥] वानरा द्वितीयं सुवेलमिव प्राकारं लवयितुमारब्धाः । लवितवन्त इत्यर्थः । किंभूताः । द्वितीयसमुद्रवद्गम्भीरे परिखापृष्ठे तन्मण्डले द्वितीयो बद्धो गिरिभिः पन्था यैस्ते। एको गिरिपथः समुद्रे दत्तः परः परिखायामित्यर्थः । तथा च यथा सुवेलमूले समुद्रस्तथा प्राकारमूले परिखेत्युभयोरुभयत्वेनोत्प्रेक्षया महत्त्वमुक्तम् ।।८०॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५४१ विमला-जो वानर अब भी परिखा के पास ही रह गये थे, उन्होंने द्वितीय समुद्र-सी गहरी परिखा पर पर्वतों से दूसरा सेतुपथ बना कर द्वितीय सुवेल-सा प्राकार लाँघना आरम्भ कर दिया ॥८॥ अथ रक्षोबलप्रयाणमाहणवरि अ मुक्ककलअलं वाणरतुलिअम्मि दहमुहाहिठाणे । चलि रअणि अरबलं खअग्गिविहुए व महिअले उअहिजलम् ॥८॥ [ अनन्तरं च मुक्तकलकलं वानरतुलिते दशमुखाधिष्ठाने । चलितं रजनीचरबलं क्षयाग्निविधुत इव महीतल उदधिजलम् ॥] प्राकारातिक्रमानन्तरं रजनीचराणां बलं मुक्तकलकलं सच्च नितम् । युद्धायेत्यर्थात् । क्व सति । दशमुखस्याधिष्ठाने पुरे वानरस्तुलिते आक्रान्ते सति । एतदुपरिस्थातुं न युक्तमित्याशयात् । किमिव । उदधिजल मिव । यथा क्षयः प्रलयस्तत्कालीनाग्निभिर्विधुते व्याप्य व्याकुलीकृते महीतले तन्निर्वापणाय समुद्रजलं चलतीति क पिशत्वेन वह्निक पिसैन्ययोः, श्यामत्वेन जलधिजलरावणबलयोः, महत्त्वेन च लङ्कामहीतलयोस्तौल्यम् ।।८१॥ विमला-प्राकार लाँघने के अनन्तर वानरों ने जब दशानन के पुर को आक्रान्त कर लिया तब ( अब ठहरना युक्त नहीं है, ऐसा सोचकर ) राक्षसों की सेना ( युद्ध के लिये ) उसी प्रकार कलकल करती चल पड़ी, जिस प्रकार प्रलयकालीन अनल से भूतल के व्याकुल होने पर उसे बुझाने के लिये समुद्र का जल चलता है ॥८१॥ अथ निकुम्भस्य प्रयाणमाह__ आरूढो णीइ रहं आसण्णगइन्दलङ्गणवलन्तेहि। सरहेहि समरतुलिनो जुत्तं जुप्रभग्गकेसरेहि णि उम्भो ।।२।। [ आरूढो निरैति रथमासन्नगजेन्द्रलङ्घनबलमानैः । शरभैः समरत्वरितो युक्तं युगभग्नकेसरैनिकुम्भः ॥] समराय त्वरितो निकुम्भः शरभैरष्टापदैर्युक्तं रथमारूढः सन्निरै ति निर्गच्छति । किंभूतैः । आसन्नाः पुरोवर्तिनो ये गजेन्द्रास्तल्लङ्घनाय बलमानैः सारथिना प्रतिरोधात्तिर्यग्भवद्भिः। सिंहाभिभावकत्वेन हस्तिलङ्घनसमर्थत्वात् । एवं युगेन स्कन्धवर्ति काष्ठविशेषेण संघर्षणाद्भग्नाः केसरा येषां तैरित्यभ्यासतः सुशिक्षितत्वमुक्तम् ।।२।। विमला-समर के लिये उतावला निकुम्भ (कुम्भकर्ण का पूत्र ) शरभों (आठ पैर वाला जन्तुविशेष, जिसे सिंह से भी बलवान और मजबूत बताया गया है ) से युक्त रथ पर आरूढ हो निकल पड़ा। वे शरभ निकटस्थ गजेन्द्रों Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] सेतुबन्धम् [द्वादश को अतिक्रान्त करने के लिये ( सारथि के रोकने पर भी ) उधर ही मुड़ जाते थे तथा ( चिरकाल से रथ में जोते जाने से ) उनके केसर ( गरदन के बाल ) रथ के जुए की रगड़ खाते-खाते झड़ गये थे ।।८२॥ अथ प्रजङ्घस्य प्रयाणमाहकर वि पडिबद्धकवओ ममरासङ्घिअसमत्थवाणरलोओ। णीइ घण कोडिताडगत रविप्रतुरङ्गमो रहेण पअञ्जो ॥३॥ [ कथमपि प्रतिबद्धकवचः समराध्यवसितसमस्तवानरलोकः । निरैति धनुष्कोटिताडनत्वरिततुरङ्गमो रथेन प्रजङ्घः ॥] प्रजङ्घनामा राक्षसो रथेन निरैति । कीदृक् । कथमपि त्वरया यथा तथा प्रतिबद्धः कवचो येन । एवम्-समरेऽध्यवसितः सर्वैः सह मयैव योद्धव्य मिति स्थिरीकृतः समस्तवानरलोको येन । तथा धनुष्कोटया ताडनेन प्रेरणया त्वरी कारितास्तुरङ्गमा येनेति युद्धोत्साहः सूचितः ।।८३।।। विमला-प्रजङ्घनामक राक्षस समस्त वानरों से अकेला ही लड़ने का निश्चय कर शीघ्रता में ज्यों-त्यों कवच धारण कर रथ पर सवार हुआ और धनुष के अप्रभाग से कोंच-कोंच कर घोड़ों को तेज करता चल पड़ा ॥८३।। अथेन्द्रजिनिर्गमनमाह चडलवडाआणिवहो कञ्चणधर भितिविअडकवर बन्धो। इन्ट इणो वि पसरिओ एक्कुद्देसो व्य रक्खल उराश रहो।।८४॥ [चटुलपताकानिवहः काञ्चनगृहभित्तिविकटकूबरबन्धः । इन्द्रजितोऽपि प्रसृत एकोद्देश इव राक्षसपुर्या रथः ॥] इन्द्रजितोऽपि रथः प्रसृतश्च लितः । कीदृक् । चटुलश्चञ्चल: पताकानिवहो यत्र ! काञ्चनगुहभित्तिव द्वि कटो विस्तीर्णः कूबरस्य बन्धो विन्यासो यत्र । क इव । राक्षसपुर्या लङ्काया एक उद्देशः प्रदेश इव चलित इत्युत्प्रेक्षा। तत्रापि पताकानां कनकगृहभित्तीनां च सत्त्वादिति भावः । 'कूबरस्तु युगंधरः' ।।४।। विमला-~-इन्द्रजीत का रथ भी चल पड़ा, जिस पर पताकायें फहरा रही थीं तथा जिसमें काञ्चनगृह की दीवार के समान विस्तीर्ण कूबर ( रथ के अगले भाग की वह लम्बी निकली हुई लकड़ी, जिसमें जुआ अटकाया जाता है ) विन्यस्त था, अतएव जो लङ्कापुरी का एक प्रदेश-सा लग रहा था ॥४॥ एतस्य तुरङ्गानाह खणपरिअत्तमिइन्दा खणलक्खि अकुञ्जरा खणन्तरमाहिसा । तस्स खणमेत्तमेहा रहं वहन्ति खणपव्वा अ तुरङ्गा ।।८।। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५४३ [क्षणपरिवृत्तमृगेन्द्राः क्षणलक्षितकुञ्जराः क्षणान्तरमहिषाः । तस्य क्षणमात्रमेघा रथं वहन्ति क्षणपर्वताश्च तुरङ्गाः ॥] तस्य रथं तुरङ्गा वहन्ति । कीदृशाः । क्षणं परिवृत्तास्त्यक्ततुरङ्गरूपा गन्तव्यदिग्विपरीतमुखा वा चरणाक्रान्त रथा वा मृगेन्द्राः सिंहाकाराः क्षणं लक्षिताः कुञ्जराः, क्षणान्तरे महिषाः, क्षणमात्रं मेघाः, क्षणं गतिमन्तः पर्वताः । इतीन्द्रजितो मायावित्वमुक्तम् ।।८।। विमला-उस ( इन्द्र जित् ) के रथ को जो घोड़े ले जा रहे थे ( इन्द्रजित् के मायावी होने से ) कभी अश्वरूप छोड़ कर मृगेन्द , कभी कुञ्जर, कभी महिष, कभी मेघ और कभी ( गतिशील ) पर्वत के आकार के दिखाई देते थे ॥८॥ अथ योधानामितरानपेक्षं निर्गमनमाहअविसज्जिअणिक्कन्ते अत्थाणक्खोहहलहलटि प्रमुहले। दहवअणस्स सुहावइ आण्णाभनो वि तक्खणं णि अअबले ॥८६॥ [ अविसर्जितनिष्क्रान्ते अस्थानक्षोभहलहलोत्थितमुखरे । दशवदनस्य सुखायत आज्ञाभङ्गोऽपि तत्क्षणं निजकबले ॥] तत्क्षणं निर्गमावस रेऽविसर्जिते गन्तुमनाज्ञापिते, एकैकं न गन्तव्यं किंतु संभूयेति निवारितनिर्गमेऽपि वा, निष्क्रान्तेऽहमहमि कया पुरोगते निजकबले दशवदनस्याज्ञाभङ्गोऽपि सुखायते । 'आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणाम्' इति निषेधेऽपि धन्या अमी अन्निवारिता अपि न तिष्ठन्तीति मदाप्ताः शूराश्चेति मनःप्रीतिमुत्पादयन्तीत्यर्थः । किंभूते । अस्थानक्षोभादाकस्मिकक्षोभादुत्थितेन हलहलेन' कलकलेन मुखरे शब्दायमाने पूर्वनिपातानियमात् । यद्वा-हलहलशब्दो युद्धोत्कण्ठायां देशी। युद्धोकण्ठया मुखर इत्यर्थः । वस्तुतस्तु हलमलिराित(?) प्रसिद्धार्थवाची। तेन हलहलस्योत्थितेनोत्थानेन मुखर इत्यर्थः ।।८६॥ विमला-आकस्मिक क्षोभ से उठे हुये कलकल निनाद से मुखर अपनी सेना को गमन निषेध की आज्ञा देने पर भी चल पड़ी देख कर रावण को यह आज्ञाभङ्ग भी सुखद ही लगा ॥८६॥ अथ तत्काले सेनासज्जीकरणमाह---- गडि अगडिज्जन्तभड सोइ रणतुरिअजत्तजज्जन्तरहम् । घडिअघडेन्तगअघड चलिप्रचलन्ततुरअं णिसाअरसेणम् ।।८७॥ [ गुटितगुटयमानभटं शोभते रणत्वरितयुक्तयुज्यमानरथम् । घटितघटयमानगजघटं चलितचलतुरङ्गं निशाचरसैन्यम् ॥] Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४] सेतुबन्धम् [द्वादश निशाचरसैन्यं शोभते । कीदृक् । गुटिताः कृतसंनाहा गुटयमानाः संनह्यमाना भटा यत्र । केचित्संनद्धाः, केचित्संनयन्तीत्यर्थः । एवम्--रणत्वरितेन' वीरेण केचिद्युक्ताः केचिद्युज्यमाना रथा यत्र । तुरङ्गादिभिरित्यर्थात् । एवं काश्चिद्धटिताः काश्चिद्धट्यमाना गजघटा यत्र । तथा केचिच्च लिताः केचित्तदाचलन्तस्तुरङ्गा यत्र तथाभूतमिति रणसंरम्भ उक्तः ।।७।। विमला-राक्षससेना इस प्रकार शोभित हुई—कुछ लोग सन्नद्ध हो चुके, कुछ सन्नद्ध हो रहे थे। रण के लिये उतावले हुये कुछ वीरों ने रथों में घोडे लगा लिये, कुछ लगा रहे थे। कुछ वीरों ने हाथियों को सजाकर तैयार कर लिया, कुछ तैयार कर रहे थे। कुछ वीरों ने घोड़ों को चालू कर दिया, कुछ चालू करने जा रहे थे ॥७॥ अथ बलस्य निष्क्रमणमाह-- हत्थिगअवरिअराअं रहगअसच्चविश्नपवप्रवइसोमेत्ति। प्रासगअवरिअहणुमं भूमीगअवरिअफइबलंणीइ बलम् ।।८८॥ [हस्तिगतवृतरामं रथगतसत्यापितप्लवगपतिसौमित्रि । अश्वगतवृतहनूमद्भूमीगतवृतकपिबलं निरैति बलम् ।। ] हस्तिगतवृतोऽनेन सममस्माभिर्योद्धव्य मिति स्वीकृतो रामो यत्र । तस्य नायकत्वान्मुख्यबलेन युद्धमिति भावः। एवम्--रथगतैः सत्यापितावेताभ्यां सहास्माभिर्योद्धव्यमिति स्थिरीकृतौ सौमित्रिप्लवगपती यत्र । एवम्-अश्वगतैर्वतो योद्धव्यत्वेन स्वीकृतो हनूमान्यत्र । तथा-भूमिगतैः पत्तिभिर्वतं स्वीकृतमवशिष्टं कपिबलं यत्र तबलम् । निशाचराणामित्यर्थात् । निरैति । केचित्तु 'वरिअ' इत्यत्र वारितः परिवारित इत्यर्थः । तेन हस्तिगतरितो वेष्टितो रामो यत्रेति क्रमेण सर्वत्रार्थमाहुः ॥१८॥ विमला-निशाचरों की वह सेना चल पड़ी, जिसमें से गजसवारों ने राम के साथ युद्ध स्वीकार किया, रथ के सवारों ने सुग्रीव और लक्ष्मण से युद्ध करना निश्चित किया, घुड़सवारों ने हनुमान से युद्ध स्वीकर किया और पैदल चलने वालों ने शेष कपिसैन्य से युद्ध स्वीकार किया ॥८॥ अथ बलस्य निष्क्रमणप्रकारमाह रहसंघट्टक्खलिअं गोउरमुहपुजइज्जमाणगप्रघडम् । भवणन्तरगप्पन्तं अघडेन्तेक्कमणिग्गमं वलइ वलम् ।।८६॥ [ रथसंघट्टस्खलितं गोपुरमुखपुज्यमानगजघटम् । भवनान्तरव्याकुलमघटमानकमुखनिर्गगमं वलति बलम् ।।] Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५४५ तबलमघटमानोऽसंपद्यमान एकमुखेनैकोपक्रमेण । एकदेति यावत् । निर्गमो यस्य तथा सबलति । निर्गमन्यग्रतया दिशि दिशि मण्डलीमाचरतीत्यर्थः । किंभूतम् । रथानां संघट्टेन संमन स्खलितं प्रतिहतगति । एवम् -गोपुरमुखेन पुञ्ज्यमाना: संकीर्णतया वर्तुलीक्रियमाणा गजघटा यत्र युगपनिर्गमनाभावात् । तथाभयनयोरन्तरे मध्ये व्याकुलम् । ऋजुमार्गालाभादिति भावः ॥८६॥ विमला-राक्षसों की वह सेना फैलकर एक साथ चल पड़ी, अतएव रथों के परस्पर संमर्द से उसकी गति प्रतिहत हो जाती थी, गजसमूह एक ही साथ, पुरद्वार के सङ्कीर्ण होने से निकल न सकने के कारण एकत्र हो गया तथा ( मार्ग के दोनों पार्श्व में स्थित ) दो भवनों के मध्य में सेना (सीधामार्ग न पाने के कारण ) व्याकुल हो रही थी ॥८६॥ अथ रथानां बहिर्भावमाह दुक्खेण गोउराइ वलन्तजअकोडिबिहडिकबाडाई। वोलन्ति रक्खसरहा तंसोणामिअधाहनोवरितडिमा ॥६॥ [ दुःखेन गोपुराणि वलयुगकोटिविघटितकपाटानि । व्यतिक्रामन्ति राक्षसरथास्तिर्यगवनामितध्वजाहतोपरितडिमाः॥] राक्षसरथा गोपुराणि पुरद्वाराणि संकीर्णतया दुःखेन व्यतिक्रामन्ति लङ्घन्ते । किंभूतानि । कपाटयोरन्तरासंकीर्णतया लग्नकोटित्वेन वलतो वक्रीभवतो युगस्य तुरगस्कन्धकाष्ठस्य कोटिभ्यां प्रान्ताभ्यामतिक्रम्य संचारेण विघटिते कपाटे यत्र तानि । रथाः किंभूताः । उच्चतया निर्गमसौकर्याय तिर्यगवनामितेन । सारथिनेत्यर्थात् । ध्वजेन आहतं स्पृष्टमुपरितडिमं द्वारस्योपरिभागो यैः ॥१०॥ विमला-राक्षसों के रथ पुरद्वारों से बड़ी कठिनाई से निकल पा रहे थे। (द्वार का विस्तार सङ्कीर्ण होने से ) रथों के जुए टेढ़े हो गये और ( उनके किनारे के दोनों भागों के फंस जाने पर बलात् रथ आगे बढ़ने के कारण ) कपाट टूट गये । ( सारथि के द्वारा ) यद्यपि ध्वज झुका दिया जाता था तथापि वह द्वार के ऊपरी भाग में जा लगता था ॥९॥ अथ भूमेरिमाहणिसुढिअदिसागइन्दै भग्गभुअङ्गफणं दलि अपाआलम् । गरुमं पि रक्ख साणं अइराहोन्तलहुभरं सहइ मही ॥६॥ [निपातितदिग्गजेन्द्रं भग्नभुजङ्गफणं दलितपातालम् । गुरुकमपि राक्षसानामचिराद्भविष्यल्लघुकं भरं सहते मही॥] मही सर्वसहा राक्षसानां गुरुकमपि भरं सहते। कुत इत्यत आह-अचिरादल्प कालेनेव भविष्यल्लघुकं लघूभविष्यन्तम् । राक्षसानां भयादिति भावः । ३५ से० ब० Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [द्वादश 'होन्त' इति लुङर्थे शतृ । वस्तुतस्तु-भविष्यती लघुता यस्येति भविष्यल्लघुकम् । भविष्यदल्पताक मित्यर्थः । भरं पुनः किंभूतम् । निपातिता दिग्गजेन्द्रा येन । भूमेरवनमनेन दन्तावष्टम्भत्यागादिति भावः। अत एव-भग्ना भुजङ्गस्य शेषस्य फणा यस्मात् । तथा-दलितं पातालं येन । भूपतनादित्यर्थः । अन्येनापि गुरुकमपि दुःखमल्पकालव्यापि बुध्वा सह्यते इति ध्वनिः ॥११॥ विमला-राक्षसों के भार से यद्यपि दिग्गज स्थिर न रह सके, शेषनाग के फन भग्न हो गये और पाताल तहस-नहस हो गया तथापि पृथिवी ने उस भार के दुःख को अल्पकाल में हलका हो जाने वाला जान कर सह लिया ।।१।। अथार्धबल निर्गममाह अग्गक्वन्धावडिअं मज्झे दारमुहरुद्धपुञ्जिअपिलम् । ऊसासिमसाहिमह कलाभरिअभवणङ्गणं गोइ बलम् ।।२।। [ अग्रस्कन्धापतितं मध्ये द्वारमुखरुद्धपुञ्जितपृथुलम् । उच्छ्वासितरथ्यामुखं कुलभृतभवनाङ्गणं निरैति बलम् ॥ ] बलं निरैति बहिर्भवति । कीदक । अग्रस्कन्धेन सैन्याग्रभागेन आपतितं बहिभूय प्रसृतम् । यद्वा-अग्रस्कन्धे वर्तिकपिसैन्याने आपतितं स्वाग्रभागेनैवेत्यर्थात् । मध्ये मध्यभागे संकीर्णतया द्वारमुखेन रुद्धं सत्पुञ्जितं वर्तुलीकृतमत एव पृथुलं पुष्टम् । अथ-उन्छ्वासितं कियतां निर्गमनादसंबाधीकृतं रथ्यामुखं येन । साहिशब्दो राजमार्गे देशी। तया--कलेन पश्चाद्धागेन भृतं झटिति निर्गमनाभावात्पूरितं रथ्यासंनिहितं भवनाङ्गणं येनेति बलबाहुल्यमुक्तम् ॥१२॥ विमला-आगे वाली सेना (किसी प्रकार ) बाहर होकर फैल गयी। बीच वाली सेना ( बाहर निकलने के लिये जब आगे बढ़ी तो) द्वारमुख से रुद्ध होकर एकत्रित हो विशाल हो गयी। तदनन्तर ( कितनों के आगे निकल कर बाहर होने पर ) सड़क का अगला भाग निर्वाध हुआ तो तुरन्त पीछे वाले भाग ने उसे भर दिया, किन्तु निकल न पाने के कारण इधर-उधर फैल कर सड़क के समीपवर्ती भवनों के आँगन को भीड़ से भर दिया ॥१२॥ अथ बलस्य बहिर्गमनमाहइस दारक अस्थम्भं जीड विहिण्णविग्रडं णिसाअरसेणम् । एक्कम हदरिविणिग्गअसमत्थलत्ताणपस्थिअणइच्छाप्रम् ॥६३|| [ इति द्वारकृतस्तम्भ निरैति विभिन्नविकटं निशाचरसैन्यम् ।। एकमुखदरीविनिर्गतसमस्थलोत्तानप्रस्थितनदीच्छायम् ॥] निशाचरसन्यमित्यनेन प्रकारेण द्वारे कृतस्तम्भं संकीर्णतया पुञ्जितं सन्निर्गच्छति । अत एव-विभिन्न बहिर्भूय दिशि दिशि प्रसृतं सद्विकटं विस्तीर्णम् । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५४७ पुनः किभूतम् । एकमुखी या दरी ततो विनिर्गता । अर्थात् - - बहिः । समस्थले उत्तानप्रस्थिता गभीरप्रसृता या नदी तद्वच्छाया कान्तिर्यस्य तथाभूतम् । बलबाहुल्येन द्वारस्यैक्य प्रतिभासादेकमुखेत्युक्तम् । तथा च--यथा कन्दरातो जलं निर्गत्य बहिः प्रसरति तथा लङ्कातः सेनापीति दरीलङ्कयोर्जल सैन्ययोः साम्यम् ||३|| विमला - निशाचरों की सेना इस प्रकार द्वार से पुञ्जित होती हुई बाहर freit और चारो ओर फैल कर विस्तीर्ण हो गयी जैसे एक मुख वाली कन्दरा से नदी निकल कर बाहर समतल भूमि पर फैल जाती है ||३|| rr लङ्कायां सेनाशून्यतामाह- जाआइ तं मुहुत्तं पुण्णज्झोणसरिआपुलिणसोहाइँ । रक्खसघरङ्गणाई गअसमराहिमहजोहपरिक्काई || १४ || पूर्णक्षीणसरित्पुलिनशोभानि । [ जातानि तन्मुहूतं राक्षसगृहाङ्गणानि गतसमराभिमुखयोधप्रतिरिक्तानि ॥ ] तन्मुहूर्तं व्याप्य राक्षसानां गृहाङ्गणानि गतैः समराभिमुखयोधैः प्रतिरिक्तानि शून्यानि सन्ति । प्रथमं जलेन पूर्णमथ क्षीणं वन्याजलनिर्गमात्तुच्छं यत्सरितां पुलिनं तत्समानशोभानि जातानि । यथा जलनिर्गमात्पुलिनं तुच्छं भासते तथा सेनानिर्गमाद्गृहाङ्गणान्यपीत्यर्थः ॥ ६४ ॥ विमला - समराभिमुख योधाओं के चले जाने से राक्षसों के घरों के आँगन उसी प्रकार सूने लगते थे जैसे बाढ़ के जल से पूर्ण नदी का तट जल के निकल जाने पर उदास लगता है ||६४ || अथ कपिसैन्यस्य राक्षस सैन्यसं मुखागमनमाह लङ्कावेढणतुरिओ आलोइअदारणिन्तरक्वसलोओ । रसिऊण पवअणिव हो खरपवणा इद्धवणदओ व्व पचलिओ ॥ ६५॥ [ लङ्कावेष्टनत्वरित आलोकितद्वारनिर्यद्राक्षसलोकः । रसित्वा प्लवगनिवहः खरपवनाविद्धवनदव इव प्रचलितः ॥ ] लङ्कावेष्टनत्वरितः प्लवगनिवह आलोकितो द्वारान्निर्य राक्षसलोको येन तथाभूतः सन् रसित्वा सिंहनादं कृत्वा प्रचलितः । क इव । वनदव इव । यथा खरपवनेनाविद्धः क्षिप्तः । प्रसारित इति यावत् । तादृशो वनदवः प्रचलति तथा राक्षसान् दृष्ट्वा कपयः प्रचेलुरित्यर्थः । वनदवकपिसैन्ययोः कपिशत्वेनोद्धतत्वेन परेषां दाहकत्वेन च साम्यम् ||१५|| विमला -- लङ्का घेरने के लिये आतुर कपिसमूह, द्वार से निकलते राक्षसों Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८] सेतुबन्धम् [ द्वादश को देख कर सिंहनाद करते हुये, तीव्र पवन से उत्तेजित दावानल के समान, उनकी ओर चल पड़ा ।।६।। अथ राक्षसबलसंचारक्रममाह पहरुज्जअपाइक्कं परिवड्ढ़इ पक्खपसरिआसारोहम् । मुक्ककुसमाअङ्ग सिदिलिपरहपग्गहं णिसाअरसेणम् ।।६६॥ [प्रहारऋजुकपदाति परिवर्धते पक्षप्रसृताश्वारोहम् । मुक्ताङ्कुशमातङ्गं शिथिलितरथप्रग्रहं निशाचरसैन्यम् ।।] तन्निशाचर सैन्यं परिवर्धते उत्तरोत्तरं भटानामागमनादिति भावः । किंभूतम् । प्रहारे ऋजुका वेध्यसंमुखीकृतकुन्ताः पदातयो यत्र । एवम्-पक्षयोः पार्श्वयोः प्रसृता अश्वारोहा अश्ववारा यत्र । एवम्-मुक्ताकुशास्त्यक्ताङ्कुशावरोधा मातङ्गा यत्र । तथा--शिथिलिता हयसंचारार्थमनाकृष्टा रथानां प्रग्रहा रश्मयो यत्र तथाभूतमिति युद्धरीतिरुक्ता ।।९६॥ धिमला-निशाचरों की सेना में गजों को अकुश द्वारा रोकना बन्द कर दिया गया, रथ के घोड़ों की रास ढीली कर दी गयी, पैदल सेना ने अपने अस्त्र ( वेध्य प्रतिपक्षी के ) सम्मुख कर लिये और उसके दोनों पार्श्व में घुड़सवार फैल गये ; इस प्रकार वह उत्तरोत्तर बढ़ती गयी ॥६६॥ अथैतदुपरि कपिसैन्यसंचारक्रममाह तो एक्कामअवेअं एक्कक्कमण्णिमहिलभहिअपमम् । ठाइ अणोहीणभडं तह परिमण्डलपहाविरं कइसेणम् ।।१७।। [ तत एकागतवेगमेकैकक्रमदत्तमहीतलाभ्यधिकपदम् । तिष्ठत्यनवहीनभटं तथा परिमण्डलप्रधावितं कपिसैन्यम् ॥] ततो रक्षोबला गमनोत्तरं कपिसैन्यं तथा तेन प्रकारेण तिष्ठति । प्राकारतटमवलम्ब्येत्यर्थात् । किं भूतम् । एकागत एक क्रमागतो वेगो यस्य तत् । प्रथममेतान्दृष्ट्वा एकरूपेण धावितमित्यर्थः । अथ कियद्रमागत्य एकैकक्रमेण परस्परमपेक्ष्य दत्तं महीतलेऽभ्यधिक मुत्तरोत्तर भूम्यतिक्रामकं पदं येन । प्रतिपक्षचेष्टां निरूप्य लघुलघुकृताग्रिमाग्रिम भूमिग्रहण मित्यर्थः। अथानवहीना अनपगतधैर्या भटा यत्र । तथा सत्परिमण्डलेन मण्डलीमुपक्रम्य प्रधावितं पुनः कृतवेगमित्यर्थः ॥१७॥ विमला-राक्ष ससेना के आ जाने के बाद बानरों की सेना पहिले एक (सामान्य ) क्रम से च ली। कुछ दूर आने पर एकएक करके उसने छलाँग भरना प्रारम्भ किया, तदनन्तर धैर्य न खोकर मण्डल बनाकर सामूहिक रूप से वह दौड़ पड़ी ।।६७॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५४६ अयोभयसैन्यसंघट्टमाहपत्थन्ति प्राअरोसा पस्थिज्जन्ति प्र महग्घरणसोडीरा । णिहणन्ति णिहण्णन्ति अ अणुराएण णवरं ण भज्जन्ति भडा ॥१८॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकव्वे बारहो आसासओ । [प्रार्थयन्ते जातरोषाः प्रार्थ्यन्ते च महाधरणशौटीर्याः । निघ्नन्ति निहन्यते चानुरागेण केवलं न भज्यन्ते भटाः ॥] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालीदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये द्वादश आश्वासः । जातरोषा भटाः प्रार्थयन्ते परानुपरुन्धन्ति युद्धायाकारयन्ति वा। न केवलं प्रार्थयन्ते किंतु परैः प्रार्थ्यन्ते उपरुध्यन्ते च योद्धमाहूयन्ते वा । एवम्-महाघमुत्कृष्टं रणे शौटीर्यमहंकारो दर्पो वा तथाभूताः सन्तो निघ्नन्ति । परानित्यर्थात् । न केवलं निघ्नन्ति किंतु निहन्यन्ते च । परैरित्यर्थात् एवं व्यतिरेके सति अनुरागेण युद्धोत्साहेन केवलं न भज्यन्त इति शौर्यमुक्तम् । 'प्रार्थितः शत्रुसंरुद्ध याचितेऽभिहितेऽपि च' इति कोषः ॥१८॥ सैन्यसंघट्टदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णाभूद्वादशी शिखा ।। -***विमला--वीरों को रोष आ गया। वे अपने अपने प्रतिपक्षियों को युद्ध के लिये चुनौती देने और प्रतिपक्षियों के द्वारा चुनौती पाने लगे। इस प्रकार युद्धविषयक दर्प के कारण शत्रुपक्ष पर प्रहार करते और शत्रुपक्ष उन पर प्रहार करता, किन्तु केवल युद्धोत्साह से वे हटते नहीं थे ॥१८॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में द्वादश आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश आश्वासः अथ पुरःसराणां द्वन्द्वयुद्धमाह अह णिग्गअमिलिएहि अल्लीणसमागएहि अ विमुक्करवम् । रअणि भरवाणरेहिं दिण्णं सहिअं च गरुअरणपत्थाणम् ॥१॥ [ अथ निर्गममिलिताभ्यामालीनसमागताभ्यां च विमुक्तरवम् । रजनीचरवानराभ्यां दत्तं सोढं च गुरुकरणप्रस्थानम् ॥] अथ मिथः सैन्यसमागमानन्तरं रजनीचरेण वानरेण च द्वाभ्यां द्वाभ्यां गुरुक रणप्रस्थानं रणयात्रोचितं कर्म एकेन प्रहारादिना दत्तमन्येन सोढं च देहस्याग्रे समर्पणादिना प्रतीष्टं चेत्यर्थः। किंभूताभ्याम् । एकः स्वव्यूहानिर्गतः परः पुरो गत्वा मध्ये मिलितः संनिहितस्तथाभूताभ्याम् । एवं च विमुक्तरवं ससिंहनादं यथा स्यादेवमालीनावाश्लेषादेकीभूतो सन्तौ समागतौ समं तुभ्यं संगतौ ताभ्यामित्यर्थः । यद्वा-रजनीचरवानरैरिति संस्कृत्य लङ्कातः सुवेलतश्च निर्गतैरन्तरा मिलितैरिति क्रमेण सर्वं पूर्ववद्वयाख्येयम् । विमुक्तरवमिति सर्व क्रियाविशेषणं वा ।।१।। विमला-दोनों सेनाओं के समागम के बाद रजनीचरों और वानरों ने दो-दो ( एक राक्षस और एक वानर ) करके महान् रणयात्रोचित कर्म आरम्भ कर दिया । एक पक्ष का एक (अपने व्यूह से ) निकला तो दूसरे पक्ष का एक आगे जाकर मध्य में उससे मिला एवं सिंहनादपूर्वक एक होकर दोनों भिड़ गये तथा एक ने प्रहार किया और दूसरे ने उसे झेल लिया ॥१॥ अथ पश्चादागतानां व्यापारमाहतह प्र पुरिल्लणिवाइअदेहोवरिणिमिअचलणपत्थणतुरिआ। एक्कक्कम अहिगआ थोअंजह पहरलालसा ओसरिआ ॥२॥ [ तथा च पुरोगनिपातितदेहोपरिनिवेशितचरणप्रस्थानत्वरिताः। एकैकमभिगता स्तोकं यथा प्रहारलालसा अपसृताः ।।] ते योधा एकैकं परस्परं तथाभिगताः संगता यथा प्रहारलालसा प्रहारसस्पृहाः सन्तः स्तोकमीषदपसृताः पश्चादागताश्च । मिश्रणे सति खड्गादिप्रहारो न घटते इति किंचिद्वयवहिता इत्यर्थः। किंभूताः । पुरोगाणां निपातितम् । परैः प्रहृत्येत्यर्थात् । यद्देहं तदुपरिनिवेशिताभ्यां चरणाभ्यां यत्प्रस्थानं पराभिमुखगमनं तत्र त्वरिताः । स्थानाभावान्मृतकोपरि चरणौ दत्वेत्यर्थः । तेन स्वीयानां मरणं दृष्ट्वाप्यने गता इति शौर्यमुक्तम् । पुरोगैनिपातितं यद्देहं परस्येत्यर्थात्परव्यूहमतिक्रम्य संगता इति दन्धित्वमुक्तमिति वा ॥२॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५५१ विमला--वे योद्धा एक-दूसरे से ऐसे भिड़ गये कि प्रहार की लालसा से उन्हें अपने स्थान से कुछ पीछे हटना पड़ता था (क्योंकि बिल्कुल निकट से ठीक प्रहार नहीं हो सकता)। आगे वाले वीर को यदि शत्रु ने प्रहार कर मार गिराया तो पीछे वाला ( स्थानाभाव के कारण ) उसके मृतदेह के ऊपर ही पैर रख कर शत्रु के सामने पहुँचने के लिये शीघ्रता करता था ॥२॥ अथ भटानां शीघ्रकारितामाह जह हिअहि ववसि रप्रकलुसेहि णअणेहि जह सच्चविअम् । रप्रणि अरेहि रणमुहे तह पडिवक्वम्मि पहरणं ओहरि अम् ।।३।। [ यथा हृदयैर्व्यवसितं रजःकलुषाभ्यां नयनाभ्यां यथा सत्यापितम् । रजनीचरै रणमुखे तथा प्रतिपक्षे प्रहरणमवपातितम् ॥] रणमुखे रजनीचरैर्यथा हृदयैर्व्यवसितमिदमस्त्रमित्थं व्यापारयितव्यमिति चिन्तितं तदनुपदमेव रजोभिः कलुषाभ्यामीषन्मुकुलिताभ्यां नयानाभ्यां यथा सत्यापितमयमत्र प्रहर्तव्य इति निर्धारितं तथा तत्समकालमेव रजोमुद्रितदृष्टिनापि प्रतिपक्षे प्रहरणं खड्गाद्यवपातितं प्रक्षिप्तमिति कायव्यापारस्य हृदयादिव्यापारतुल्यतया सत्त्वोत्कर्ष उक्तः ।।३।। विमला--युद्ध में रजनीचरों ने ज्यों ही हृदय से ऐसा सोचा कि इस अस्त्र को इस प्रकार चलाना है, त्यों ही धूल से मुंदे नेत्रों से यह निर्धारित किया कि इस पर प्रहार करना है तथा उसी समय उस पर अस्त्र चला दिया ।।३।। भटानां तेजःप्रकर्षमाहपअलम्भन्भहिअजवा मुठ्ठिपरिवि अणिप्पअम्पक्खग्गा । सच्चविअलद्धलक्खा पढमपहारविसआ ण भज्जन्ति भडा ॥४॥ [पदलम्भाभ्यधिकजवा मुष्टिपरिस्थापितनिष्प्रकम्पखड्गाः । सत्यापितलब्धलक्ष्याः प्रथमप्रहारविषया न भज्यन्ते भटाः ॥] पदलम्भेन परव्यूहरूपस्थानप्राप्त्याभ्यधिकवेगाः, तथा मुष्टौ परि सर्वतोभावेन स्थापितत्वेन स्थिरखड्गाः, तथा सत्यापितो निजव्यूहादेव हन्तव्यत्वेन स्थिरीकृतः पश्चादागत्य लब्धो लक्ष्यः शत्रुयैस्तथाभूता भटा राक्षसा: प्रथमप्रहारस्य विषया अपि यावदमीभिः प्रहारः क्रियते तावत्स्थायिभिरेव लक्ष्यैः कपिभिर्वृक्षादिना प्रहृता अपि न भज्यन्ते नापसरन्ति, किंतु प्रतिप्रहारं प्रयच्छता संनिधौ कृतवेगेन लब्धो यावत्प्रतिक्रियते तावदेव कृतप्रहारोऽपि कपिखड्गादिना ताडित इत्यर्थः । यद्वा प्रथमं निजव्यूहादेव कपिभिः शिलादिना ताडिता राक्षासास्तदनु अनेनाहं ताडित इति क्रुधा सत्यापितं लक्ष्यं कपि वेगेनागत्य लब्धा न भज्यन्ते न पराजयन्ते किंतु Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२] सेतुबन्धम् [त्रयोदश तमभिहत्य जयन्तीत्यर्थः । 'विसआ' इत्यत्र विशदाः स्पष्टा इति वा । 'भडा' इत्यत्र 'भवा' इति क्वचित्पाठः ॥४॥ विमला--शत्रु के व्यूहरूप स्थान को पाकर रजनीचरों का वेग बहुत अधिक हो गया। उन्होंने मुठ में खड्गों को दृढता से स्थिर किया और प्राप्त लक्ष्य ( शत्रु ) पर प्रहार करना निश्चित किया, किन्तु त्यों ही शत्रुओं ( कपिसमूह ) ने प्रथम प्रहार उन पर कर दिया, तथापि वे पीछे नहीं हटे ॥४॥ प्रहृतगजानां वैकल्यमाहविहुणन्ति चलि अविडवे मुहमण्डलघोलणप्पुसिसिन्दूरे। पवअसहत्थाइद्ध कुम्भअडुक्खुत्तपाअवे माअङ्का ॥५॥ [विधुन्वन्ति चलितविटपान्मुखमण्डलघूर्णनोत्प्रोञ्छितसिन्दूरान् । प्लवगस्वहस्ताविद्धान् कुम्भतटभग्नपादपान् मातङ्गाः ॥] प्लवगैः स्वहस्तेनाविद्धान् क्षिप्तानथ कुम्भतटे भग्नान्पादपान्मातङ्गा विधुन्वन्ति पातनाय चालयन्ति नतु पातयितुं पारयन्तीति कपीनां प्रहारदाढर्य मुक्तम् । विधुन्वन्ति अवधूय पातयन्तीति गजप्रकर्ष एवेति केचित् । किंभूतान् । शिरोविधूननेन चलितविटपानत एव विटपैरेव मुखमण्डलघूर्णनेनोत्प्रोञ्छितमपासितमलंकारीभूतं सिन्दूरं यस्तान् ॥५॥ विमला-वानरों ने अपने हाथों से शत्रुपक्ष के गजों के कुम्भस्थल पर इतने जोर से वृक्ष फेंके कि वे कुम्भस्थल से टकरा कर भग्न हो गये। उन्हें गिराने के लिये गजों ने हिलाया, किन्तु वे गिर न सके, केवल उनकी शाखायें ही हिली और सिर हिलाने से शाखाओं द्वारा उनके मस्तक का ( अलंकारीभूत ) सिन्दूर पोंछ उठा ॥५॥ रावणं प्रति रणस्य दुरन्ततामाह रोसस्स दास रहिणो मप्रणस्स अ दूसहस्स रक्ख सवइणो। समअ चिअ अड्ढत्तो दोएह वि अणुरूपदारुणो परिणामो ॥६॥ [ रोषस्य दाशरथेर्मदनस्य च दुःसहस्य राक्षसपतेः । सममेवारब्धो द्वयोरप्यनुरूपदारुणः परिणामः ॥] दाशरथे रोषस्य राक्षसपतेर्मदनस्य च द्वयोरप्यनुरूपो योग्यो दारुणो दुरन्तः परिणामः पर्यवसानं सममेकदैवारब्धो देवेनेत्यर्थात् । युद्धेन वा। जगन्मातुः सीताया अभिलाषुकस्य रावणस्य य: कामस्तस्य तदुदाहरणहेतुकस्य रघुपतेरवन्ध्यस्य च कोपस्य राक्षसनाश एव योग्यो विपाक इति भावः । दुःसहस्येति मदनरोषयोरपि विशेषणम् ॥६॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५५३ विमला-सीताभिलाषी रावण के दुस्सह काम तथा राम के दुस्सह कोप दोनों का दारुण परिणाम ( निशाचरनाश ) प्रारम्भ हो गया, जो दोनों के अनुरूप ही था ॥६॥ परिमाणस्य दारुणतामाहणिहणन्ति गएहिं गए तुरएहिं तुरङ्गमे रहेहि अ रहिणो। जाअं पवङ्गमाणं पडिवक्खो पहरणं च रक्ख ससेण्णम् ॥७॥ [निघ्नन्ति गजैर्गजांस्तुरगैस्तुरङ्गमान् रथैश्च रथिनः । जातं प्लवङ्गमानां प्रतिपक्ष्यः प्रहरणं च राक्षससैन्यम् ।।] प्लवङ्गमानां प्रतिपक्ष्यो हननकर्म प्रहरणं च तत्करणमायुधं द्वयमपि राक्षससैन्यमेव जातम् । यतो गजादिभिः सजातीय रेव गजादीनिघ्नन्तीति रामरोषप्रभाव एवायमिति भावः ॥७॥ विमला-वानरों ने ( शत्रु के ) गजों से उन्हीं के गजों को, अश्वों से अश्वों को और रथों से रथियों को निहत किया, इस प्रकार राक्षस सेना उनका हन्तव्य और अस्त्र दोनों हुई ॥७॥ अथ रक्षसां पौरुषमाहसविक्किण महिहरा सरविहडिअसेसमुग्गराहअसेला। पहरणमग्गाइञ्चिअभुअचुण्णिअपव्वआ भमन्ति णिसिअरा ॥८॥ [ शरविकीर्णमहीधराः शरविघटितशेषमुद्गराहतशैलाः । प्रहरणमार्गाञ्चितभुजचूणितपर्वता भ्रमन्ति निशाचराः ॥] __ शरैविकीर्णाः कणशः कृत्वा विक्षिप्ता महीधरा: कपीनामस्त्राणि यैस्ते निशाचरा भ्रमन्ति । किंभूताः । शरैविघटितानामर्थात्पर्वतानां शेषा अवशिष्टाः शरैरपि भेत्तुशक्या ये ते मुद्गरैराहताः खण्डिताः शैला यैस्ते । मुद्गराहतशरभिन्नावशिष्टकपिशैला इत्यर्थः । यद्वा-रामादिशरविघटितानामर्थान्मुद्गराणां ये शेषा मुद्गरास्तैराहतशैला इत्यर्थः । यद्वा-शरैविघटिताः, शेषे यश्चा(पश्चात् ) मुद्गरैराहताः शैला यैरित्यर्थः । एवम्-प्रहारमार्गे प्रहरणस्थानेऽञ्चिता अभिषिक्ताः। प्रहरणीकृता इत्यर्थः। ये भुजास्तैश्चूणिताः पर्वता यरित्यर्थः । यद्वा-प्रहरणमार्गाच्छत्रुणामस्त्रपातस्थानादञ्चिता अतिक्रान्ता ये भजास्तैश्चर्णिताः पर्वता यैरित्यर्थः । 'मग्गाइञ्छि' इति पाठेऽप्ययमेवार्थः । यद्वा प्रहारमार्गमतिक्रान्तास्तद्विषया (न, ते)भुजश्चूर्णिता इत्यादि । येऽस्त्रैर्न लब्धास्ते भुजैरेव चूर्णिता इत्यर्थः । तथा च दूरतरे शरैर्दू रे मुद्गरैः संनिधौ भुजः। सर्वत्रैव(?) शैला विदारिताः, किंतु भुजश्चूर्णिता इति शरादिविकरणोत्कर्षक्रमेण विघटनादिक्रियोत्कर्षक्रमादितरापेक्षया भुजानामाधिक्यमायाति ।।८।। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश विमला - ( युद्धभूमि में ) निशाचर घूम रहे थे । कपियों ने अस्त्र के रूप में जिन पर्वतों का उपयोग किया ( उनमें जो दूरतर थे ) उन्हें शरों से चूर-चूर कर निशाचरों ने भूमि पर डाल दिया, शेष ( जो दूर थे ) को मुद्गरों से विनष्ट कर दिया तथा जो अत्यन्त निकट थे, उन्हें भुजारूप अस्त्र से ही चूर्ण कर दिया || 5 || कपीनामाकारस्थौल्यमाह- भाडो विवित्थअगिरिपरिणाहविप्रडे पवङ्गक्खन्धे । पहुष्पन्ता वेढो उल्ललइ गअस्म थोरकरपब्भारो ॥६॥ [ भागपतितोऽपि विस्तृत गिरिपरिणाहविकटे प्लवङ्गस्कन्धे । अप्रभवदावेष्ट उल्ललति गजस्य स्थूलकरप्राग्भारः ॥ ] गजस्य स्थूलः करः शुण्डा तस्य प्राम्भारोऽग्रभागः प्लवङ्गानां स्कन्धे भागे योग्यस्थाने एकदेशे वा पतितोऽपि । भागेनैकदेशेन पतितोऽपि वा अप्रभवन्मातुमसमर्थमावेष्टं मण्डलीभावो यस्य । यद्वा अप्रभवदसंपद्यमानमावेष्टनमाक्रमणं येनेति स्कन्धस्य बृहत्त्वादावेष्टय धर्तुमपारयन्सन्नुल्ललति चञ्चलीभवतीत्यर्थः । हेतुमाह— किभूते । विस्तृतो यो गिरिस्तस्यैव यः परिणाहो विस्तारस्तेन विकटे दुर्ग्राये । गिरिपरिणाहवद्विकटे विस्तीर्ण इति वा ॥६॥ विमला - निशाचरों के गजों की स्थूल सूंड का अग्रभाग वानरों के स्कन्ध के एक भाग पर पड़ कर भी उसे लपेट कर धरने में असमर्थ होता हुआ चञ्चल हो रहा था, क्योंकि उनके स्कन्ध विस्तृत पर्वत के विस्तार के समान विस्तार वाले थे, अतएव ( सूंड से ) दुर्ग्राह्य थे ||६|| रक्षोवक्षोनिक्षोभमाह अणि अरोरत्थलचण्णिस्स कइरोसपेसिअस्स सिहरिणो । उद्ध' उद्धाइ रओ ओसरइ अहोमुहो सिलासंघातो ॥ १० ॥ [ रजनीचरोरःस्थलचूर्णितस्य कपिरोषप्रेषितस्य शिखरिणः । रजोऽपसरत्यधोमुखः शिलासंघातः ॥ ] ऊर्ध्वमुद्धावति रजनीचराणामुरःस्थले चूर्णितस्य कपिना रोषेण प्रेषितस्य शिखरिणो रजो धूलि रूर्ध्वमाकाशमुद्धावति लघुत्वात् । चूर्णित शिलासंघातोऽधोमुखः सन्नपसरति गुरुत्वात्पततीत्यर्थेन क्रुद्धकपिक्षिप्तपर्वतैरपि निशाचरा न पातिताः । तथा सति चूर्णनं न स्यात् । प्रत्युत स्थिरीभूतानां तेषां वक्षोभिस्त एव चूर्णिता इति कवीनां प्रहारे रक्षसां तु वक्षसि दाढचं मुक्तम् ॥१०॥ विमला — वानरों ने रोष से राक्षसों के वक्ष:स्थल पर जिन पर्वतों का प्रहार किया उनसे निशाचर गिरे नहीं, उल्टे उनके दृढ़ वक्षःस्थल से टकरा Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५५५ कर पर्वत ही चूर-चूर हो गये और उनकी धूल ( हल्की होने से ) ऊपर आकाश को उड़ गयी एवं (भारी होने के कारण ) चूणित शिला-संघात नीचे ( भूमि पर ) गिर गया ॥१०॥ बलयोः साधारण मुत्कर्षमाहरिउवलमज्झणिराआ णिहअणिरन्तरणिसुद्धणज्जन्तभडा। विक्कमणीसामण्णा द? पि भडाण दुक्करा गइमग्गा ।।११।। [रिपुबलमध्यनिरायता निहतनिरन्तरनिपातितज्ञायमानभटा। विक्रमनिःसामान्या द्रष्टुमपि भटानां दुष्करा गतिमार्गाः ॥] भटानां गतिमार्गाः संचारवानि द्रष्टुमपि दुष्करा अशक्याः। किंभूताः । रिपूणां बलस्य मध्ये निरायता दीर्घाः। एवम्-निहताः, अत एव निरन्तरं निपातिताः सन्तो ज्ञायमाना दृश्यमाना भटा यत्र। वस्तुतस्तु-पूर्वनिपातानियमात् भटज्ञायमानाः। तथा च निपातितैर्भटेञ्जयमाना लक्ष्यमाणाः । रिपु. बलमध्ये येन पथा वीरा गच्छन्ति तत्र शतशो रिपवः पतन्तीति निरायतभटनिपातनाकारेण ज्ञायतेऽनेन [ पथा] वीरो गत इ[तीत्यर्थः । अत एव विक्रमेण निःसामान्या असाधारणा: ॥११॥ विमला-रिपु की सेना के मध्य में वीर जिस मार्ग से घुसे, ( उनकी गति न रुकने से ) वह मार्ग बहुत लम्बा हो गया तथा मार कर निरन्तर ( सघन ) गिराये गये वीरों से ही यह ज्ञात होता था कि इस मार्ग से कोई वीर गया है। इस प्रकार वीरों के, विक्रम से असाधारण गगनमार्ग देखे भी नहीं जा. सकते थे ॥११।। पुनस्तदेवाहणिन्दुभइ सोडीरं अप्पडिहत्थलहुओ हसिज्जइ पहरो। वड्ढइ वेरावन्धो अइसंधिज्जन्ति साहसेसु समत्था ॥१२ [निर्वाह्यते शौण्डीर्यमप्रतिहस्तलघुको हस्यते प्रहारः । वय॑ते वैराबन्धोऽतिसंदधति साहसेषु समर्थाः ॥] शौण्डीयं युद्धे चातुर्यमहंकारो वा निर्वाह्यते तदनुरूपव्यापारेण निष्पाद्यते । सुभटैरिति शेषः । तथा-अप्रतिहस्तत्वादसदृशत्वाल्लघुकोऽनादरणीयः प्रहारो हस्यत उपहासविषयीक्रियते । अथ-प्रहारे सति वरस्य आबन्धो वय॑ते वैरमधिकं वयत इत्यर्थः । हेतुमाह-समर्थाः साहसेषु प्राणानपेक्षकर्मसु अतिसंदधति अति(भि)निविष्टा भवन्तीत्यर्थः । अतिसंधीयन्ते वा समर्थैः सहाभियुज्यन्त इत्यर्थः ।।१२।। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] सेतुबन्धम् [गयोदश विमला-वीरों ने ( अनुरूप शौर्य दिखा कर ) अपने अहंकार का निर्वाह किया, अयोग्य एवं लघु प्रहार की हँसी उड़ायी ( उचित प्रहार होने पर ) बैर को अधिक बढ़ाया; क्योंकि समर्थ पुरुष ही साहस के कामों में अभिनिविष्ट होते हैं ।।१२॥ पुनस्तदाहण पडइ पडिए वि सिरे सूलविहिणं पि अभिज्जइ हिअमम् । दुष्परिइ ण लग्गइ लाविज्जन्तं पि पडिभडाण रणभनम् ॥१३॥ [न पतति पतितेऽपि शिरसि शूलविभिन्नमपि नैव भिद्यते हृदयम् । दुष्परिचितं न लगति लाग्यमानमपि प्रतिभटानां रणभयम् ॥] प्रतिभटानां शिरसि पतितेऽपि न पतति । कबन्ध इति शेषः । युद्धसंस्कारसत्त्वादिति केचित् । वस्तुततस्तु-शिरसि पतितेऽपि हृदयं न पतति नाधी मच्छति न कातरतामवलम्बत इत्यर्थः । एवम्-हृदयपदच्छलाद्वक्षोरूपं हृदयं शूलेन विभिन्न विदीर्णमपि तथापि मनोरूपं तत्र भिद्यते । किंतु युयुत्सायामेव तिष्ठतीत्यर्थः। तथा लाग्यमानमपि शत्रुभिराधीयमानमपि रणभयं न लगति न संबध्यते दुष्परिचितम् । यतः शूराणां रणभयेन संबन्धो न घटते । कदाप्यपरिचितत्वादित्यर्थः ॥१३॥ विमला-प्रतिभटों के सिर के गिर जाने पर भी हृदय ( मन ) नहीं गिरता था ( कातरता को नहीं प्राप्त होता था) तथा वक्षरूप हृदय शूल से भिन्न होने पर भी मनरूप हृदय विदीर्ण नहीं होता था ( युद्ध-विरत नहीं होता था ) एवं शत्रुओं के द्वारा उत्पन्न किया जाता भी युद्धभय नहीं लगता था, क्योंकि शूरों से उसका परिचय ( सम्बन्ध ) ही नहीं रहता ।।१३।। पुनस्तदेवाह सहइ पहरेसु दप्पो दप्पट्ठाणेसु सहइ पुरिसासङ्घो । जिद्दोसेमु भडाणं ओसारेसु वि ण ओसरइ रोसरसो ॥१४॥ [ सहते प्रहारेषु दो दर्पस्थानेषु सहते पुरुषाध्यवसायः । निर्दोषेषु भटानामपसारेष्वपि नापसरति रोषरसः ।।] प्रहारेषु । शत्रोरित्यर्थात् । भटानां दर्पः सहते। शौर्यादेव प्रहारः सात इत्यर्थः । एवम्-दर्पस्थानेष्वभिमुखागमनादिव्यापारेषु पुरुषाध्यवसायः सहते प्रहारपूर्वकालीनोऽभिमुखागमनादिलक्षणशौर्य व्यापारो जेतव्यमेव मयेत्यध्यवसायेन सह्यते इत्यर्थः । तत एव तदानीं पुरो गत्वा मिलन्ति न तु भज्यन्ते इति भावः । एवं निर्दोषेष्वपसारेषु न भयेन । किंतु प्रहारसोकर्याय। पश्चादागमनेष्वपि Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५५० रोषरसो नापसरति । कित्वग्रे धावति वर्धते इत्यर्थः । यद्वा-दर्पः सहते क्षमते समर्थों भवति । ददेव प्रहारः क्रियते इत्यर्थः । तथा दर्पस्थाने पुरोगमनादिव्यापारेषु अध्यवसायः क्षमते तेनैव तक्रियत इत्यर्थः ।।५०।। विमला-भट दपं से ही प्रहार करते थे, अध्यवसाय के कारण शत्रु के अभि. मुख आते थे तथा निर्दोष ( प्रहार के सौकर्य के लिये ) पीछे हटने पर भी उनका रोष कम नहीं होता था ( बढ़ता ही जाता था)॥१४॥ अथ कपीनां पतनावस्थामाहरिउगअभिण्ण विखत्ता रोसविहुम्वन्तचडुलकेसरणिवहा । दढवठ्ठदन्तमूला रसिऊण समच्छरं णिमिल्लन्ति कई ॥१५॥ [रिपुगजभिन्नोत्क्षिप्ता रोगविध्यमानचटुलकेसरनिवहाः । दृढदष्टदन्तमूला रसित्वा समत्सरं निमीलन्ति कपयः ।।] रिपूणां गर्गदाभिर्वा भिन्ना अथोरिक्षप्ताः कपयो रसित्वा शब्दं कृत्वा समत्सरं निमीलन्ति मात्सर्यसहिता एव मूर्च्छन्ति म्रियन्ते वा। मात्सर्यज्ञापकमाहकिंभूताः । रोषेण विधूयमानोऽतएव चटुल: केसरनिवहो येषां ते । एवम्दृढमूर्ध्वदन्तैर्दष्टमधोदन्तमूलं यैरिति केसरकम्पदन्तमूलदंशरूपं क्रोधलक्षणमुक्तम् ॥१५॥ विमला-जिन कपियों को शत्रु के गजों ने विदीर्ण कर ऊपर (आकाश की ओर ) फेंक दिया वे गर्जन कर क्रोधसहित ही मूच्छित होते अथवा मरते थे, उस समय उनके केसर ( गरदन के बाल ) क्रोध से कम्पायमान, अतएव चञ्चल हो जाते तथा वे ऊपर के दांतों से नीचे के दन्तमूल को काटते ॥१५॥ पुनः शूराणां प्रकर्षमेवाहअवहीरणा ण किज्जइ सुमरिज्जइ संसए वि सामिअसुकअम् । ण गणिज्जइ विणिवाओ दर्दू वि भ अम्मि संमरिज्जइ लज्जा।।१६।। [अवधीरणा न क्रियते स्मयते संशयेऽपि स्वामिसुकृतम् । ___न गण्यते विनिपातो दृष्टेऽपि भये स्मर्यते लज्जा ॥] भटैरवधीरणानास्था न क्रियते जये यशसि वा। तथा-प्राणसंशयेऽपि स्वामिनः सुकृत मुपकारः सत्कारो वा स्मर्यते । तथा-विनिपातो मरणमपि न गण्यते न विचार्यते । एवम्-भये दृष्टेऽपि लज्जा स्मयते । तथा च कीर्तिसुकृतलज्जादिरक्षानिमित्तं प्राणानुपेक्ष्य युध्यते, न तु भयं क्रियत इति भावः ॥१६॥ विमला-कीर्ति के विषय में वीर अनास्था नहीं करते, प्राणसंशय में भी स्वामी के उपकार का स्मरण करते और मरने की भी परवाह न करते तथा Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८] सेतुबन्धम् [त्रयोदश भय देख कर भी लज्जा का स्मरण करते-कीर्ति, सुकृत तथा लज्जा रखने के लिये प्राणों की भी उपेक्षा कर लड़ते और तनिक भी भय नहीं खाते थे ।।१६।। अथ शूरनिशाचराणां मृत्युमाह पडमाणि आहि सुइरं जे जीविअसंसम्मि दि परिच्छदा। ते च्चिअ अहिमुहणिहा सुरबन्दीहि अहिसारिआ रअणिअरा ॥१७॥ [प्रथमानीताभिः सुचिरं ये जीवितसंशयेऽपि परिक्षिप्ताः । त एवाभिमुखनिहताः सुरबन्दीभिरभिसारिता रचनीचराः ॥] प्रथमं पूर्व बन्दीकृत्यानीताभिः सुरसुन्दरीभिः सुचिरं व्याप्य विभीषिककृते जीवितसंशयेऽपि ये रजनीचराः परिक्षिप्ता जात्यपकर्षेण त्यक्तास्त एव संग्रा. माभिमुख निहताः सन्तः पुनरभिसारितास्तदानीं शौर्य मृत्युना प्राप्तदेवत्वात्ताभिवंता इत्यर्थः ॥१७॥ विमला-पहले बन्दी बना कर लायी गयीं सुर-सुन्दरियों ने जिन रजनीचरों को ( जाति से निकृष्ट होने के कारण ) उपेक्षापूर्वक त्याग दिया था, रण में सम्मुख मरे हुये उन्हीं को उन ( सुरसुन्दरियों ) ने आगे आकर स्वीकार किया (क्योंकि शूरों का कर्तव्य करने से वे देवत्व को प्राप्त हो चुके थे ) ॥१७॥ अथ कपीनां तेज प्रकर्षमाहर अणि अरबद्धलक्खो अबद्धरुहिरपरिपण्डुरङ्गच्छेओ। प्रगणिप्रवणसंतावो उपहपहारसरसो समल्लिअइ कई ॥१८॥ [ रजनीचरबद्धलक्ष्योऽबद्धरुधिरपरिपाण्डुराङ्गच्छेदः । अगणितव्रणसंताप उष्णप्रहारसरसः समालीयते कपिः ।।] रजनीचरे । कृतप्रहार इत्यर्थात् । बद्धं लक्ष्यं येनेति प्रहर्तरि दत्तदृष्टिः कपिः समालीयते । प्रथम येन हतस्तत्रैव प्रतिहतुं मिलतीत्यर्थः । कीदृक् । उष्णे तात्का. लिके शत्रुकृते प्रहारे सरसः क्रोधवशात्प्रतिहन्तुं सानुरागः । सक्रोधरसो वा । एवम्-अबद्धेन प्रवहता रुधिरेण परिपाण्डुरोऽङ्गच्छेदः क्षतं यस्य तथा। तथा च व्रणसंतापविचारशून्य इति विजिगीषुत्वमुक्तम् ।।१८।। विमला-रजनीचर ने जिस किसी वानर पर पहिले प्रहार किया, वह वानर बहते हुये रुधिर से शरीर का घाव परिपाण्डु र ( श्वेत-रक्त ) होने पर भी व्रणसन्ताप की परवाह न कर तात्कालिक शत्रुकृत प्रहार से क्रुद्ध हो उस प्रहारकर्ता रजनीचर पर दत्तदृष्टि, प्रतिघात करने के लिये मिलता ॥१८॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वासः ] पुनः श्राणां स्वभावमाह न पक्खिन्ति अवसरं ओच्छुन्दन्ति जणिअं परेण पआवम् । बोलेन्ति जहा भणिअं साहुक्कारपुरनो अइन्ति समत्था ||१६|| [ न प्रतीक्ष्य (क्ष) न्तेऽवसरमाक्रामति जनितं परेण प्रतापम् । व्यतिक्रामन्ति यथाभणितं साधुकारपुरत आयान्ति समर्थाः ॥ ] समर्था अवसरं न प्रतीक्ष्य (क्ष ) न्ते । स्वसामग्रीन्यूनतया अदेशेऽप्यकालेऽपि मिलन्ति प्रहरन्ति च । दर्पोन्नतत्वादिति भावः । एवम् — परेण जनितं प्रतापमाक्रामति । स्वप्रतापोत्कर्षजननात् । एवम् - ताडयिष्यामीत्यादि यथाभणितं व्यतिक्रामन्ति निर्वाहयन्ति । तदैव ताडनादिव्यापारात् । तथा - साधुकारपुरतः प्रतिपक्ष प्रहारादिकं दृष्ट्वा साधु साध्विति कृत्वा आयान्ति । तमेव [ प्रति ] - प्रहर्तुमित्यर्थात् । एतद्वयापारोत्कर्षेण विपक्षकृतसाधुकारस्य पुरतः संमुखे आयान्ति इति वा । वयं तु — पुरतोऽग्रतः स्थान एव प्रथमं स्वेनैव कृतः साधुशब्दाभिलापो यावदायाति विपक्षबलं, तावत्स्वयमेवागच्छन्तीति शब्दापेक्षयाप्यधिकवेगवत्तया सत्त्वोत्कर्ष उक्त इति ब्रूमः ||१६|| विमला - समर्थ वीर अवसर की प्रतिक्षा नहीं करते थे । वे शत्रुजनित प्रताप को स्वजन्य प्रताप से आक्रान्त करते एवं जैसा कहते, कर्म द्वारा उसका वैसा ही निर्वाह भी करते थे । वे शत्रुकृत योग्य प्रहार पर प्रसन्न हो साधु शब्द का उच्चारण करते, किन्तु उस साधु शब्द की ध्वनि जब तक विपक्ष सेना तक पहुँचती, उससे पहिले ही वे स्वयं प्रतिघात करने के लिये शत्रु के सम्मुख पहुँच जाते थे ||१६|| [ ५५६ अथ द्वादशभिः कुलकेन शूराणां युद्धमाह -- इअ ताण तं विश्रम्भइ सुरङ्गणासुर अलम्भसं के अहरम् । भग्गजमलो अवन्थं महेन्दभवणुज्जु आइ अवहं जुज्झम् ||२०|| [ इति तेषां ('तयोर्वा) तद्विजृम्भते सुराङ्गनासुरतलम्भसंकेतगृहम् । भग्नयमलोकपथं महेन्द्रभवनऋजु कायितपथं युद्धम् ॥ ] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण तेषां वानराणां राक्षसानां च तयोः कपिराक्षस सैन्ययोर्वा तद्युद्धं विजृम्भते वर्धते । कीदृक् । सुराङ्गनासुरतस्य प्राप्तौ संकेतगृहम् । भटानामिति शेषः । अत्रैव ताभिस्तेषां वरणात्तदुत्पत्तेरिति भावः । इति शौर्येण मरणमुक्तम् । अत एव महेन्द्रभवनस्य कृते ऋजुकायितः संमुखीकृतः पन्था येन । सर्वेऽपि वृत्वा ताभिस्तत्रैव नीयन्ते इति भावः । अत एव भग्नोऽहतीकृतो यमलोकस्य पन्था येन । कातराणामसत्त्वादित्याशयः ॥२०॥ १. पाठसंभावना पक्षान्तरे । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६.] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश विमला-वानरों और राक्षसों का युद्ध जो देवाङ्गनाओं के सुरत का सङ्केतगृह तथा स्वर्ग का सीधा मार्ग था तथा जिसने यमलोक के मार्ग को मिटा दिया था, इसी ( वक्ष्यमाण ) प्रकार से उत्तरोत्तर बढ़ता गया ॥२०॥ कइवच्छत्थलपरिणअणिअअमुहत्थमिअदन्तिदन्तप्फलिहम् । णिहअभडमहिमिवडिअसुरवहुचलवलअमुहलपव प्रगइवहम् ॥२१॥ [ कपिवक्षःस्थलपरिणतनिजकमुखास्तमितदन्तिदन्तपरिघम् । निहतभटमहितनिपतितसुरवधूचलवलयमुखरप्लवगगतिपथम् ॥ ] युद्धं कीदृक् । कपीनां वक्षःस्थलेषु परिणतानां पश्चादागत्य दत्तदन्तप्रहाराणां पूर्वनिपातानियमादत्राकर्षणाद्दन्तिनां निजकमुख एवास्तमिता वक्षसो दृढत्वेन स्फो. टनाभावान्मूलेनैव स्कन्धपर्यन्तं गतत्वाददृश्या दन्तपरिघा यत्र तदिति गिरिवत् स्थितत्वेनापतनादक्षोभनत्वं बलवत्त्वमाकारमहत्त्वं च कपीनाम्, गजानां तु प्रहारदायम, तेजस्वित्वं वक्षोनिर्भेदनादेव संनिधिर्भवतीति जानतां क्रोधमूच्छितत्वं च सूचितम् । केचित्तु यथा यथा गजो दन्तौ निर्यन्त्रयति तथा तथा कपिरपि वक्षः पुरः करोतीत्युभयोरपि सत्त्वोत्कर्ष इति वदन्ति । परिणताः कृतप्रहारा इति दन्तपरिघस्यैव विशेषणमिति वा । भावे क्तन परिणतेन प्रहारेणास्तमिता इति वा । एवम्--निहतभटानां महितेन समीहया निपतितानां स्वर्गादागतानां सुरवधूनां चलवलयमखरा : प्लवङ्गानां गतिपथा यत्रेति । परव्यूहे प्लवगा येन पथा संचरन्ते तत्र बहवो म्रियन्त इति बह्वीनामागमनावरणव्यापाराय नानाकरचमत्कारेण वलयानां झणझणत्काराच्छब्दायमानत्वमिति भावः । वस्तुतस्त्वेकमेव वीरं करेण धारयन्तीनां परस्परं कलहेन करप्रतिक्षेपाय करव्यापारतो वलयझणत्कारोपचयेन मौखर्यमिति वयम् ॥२१॥ विमला-शत्रुओं के गजों ने पीछे हटकर दृढ़ता से वानरों के वक्षःस्थल पर दन्तप्रहार किया, किन्तु वक्षःस्थल में फँस न पाने के कारण उनके दन्दपरिघ वक्ष:स्थल के ऊपर-ऊपर स्कन्ध तक चले जाने और मुखभाग वक्षःस्थल पर टिक जाने से दिखाई नहीं देते थे। वानर जिस पथ से शत्रु के व्यूह में घुसते वह, मरे हुये वीरों का वरण करने की इच्छा से स्वर्ग से आयी हुई देवाङ्गनाओं के चञ्चल कङ्कणों से शब्दायमान हो रहा था ।।२१।। ओवअणोसुद्धरहं उप्पअणोच्छित्तविहडमाणगइन्दम् । गहि अप्फिडिअतुरङ्गं अणुधाविअपवअणिहअरक्ख सजोहम् ॥२२॥ [ अवपतनावपातितरथमुत्पतनोत्क्षिप्तविघटमानगजेन्द्रम् । गृहितस्फेटिततुरङ्गमनुधावितप्लवगनिहतराक्षसयोधम् ॥] Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ५६१ एवमवपतनेनोत्प्लवनादाकाशतः पतनेनावपातिता अन्तरिक्षस्था एव निजकभरेण महीमानीय चूर्णिता रथा यत्र । कपिभिरित्यर्थात् । एवम् — उत्पतनेनोस्फालेन उत्क्षिप्ताः स्वशरीरेण प्रेर्याकाशं नीताः, अत एव विघटमानाः स्फुटितदेहसंधयो गजेन्द्रा यत्र । एवम् — गृहीताः सन्तः स्फेटिताच वलत्वाद्वहिर्गतास्तुरङ्गा यत्र । अत एवानुधावितास्तदश्वपश्चालग्ना ये प्लवगास्तैनिहता राक्षसयोधास्तदश्ववारीभूता यत्रेत्युत्फालाफाल वेगबलप्रकर्ष उक्तः ॥ २२॥ विमला - वानरों ने शत्रुओं के रथों को उठाकर ऊपर आकाश की ओर फेंक दिया और वहाँ से नीचे पृथ्वी पर गिर कर वे चूर-चूर हो गये । हाथियों को उछाल कर आकाश में फेंक दिया तो उनके अङ्ग विशीर्ण हो गये । घोड़ों को जो पकड़ा तो चञ्चल होने के कारण वे भाग खड़े हुये, किन्तु तब भी वानरों ने उनका पीछा कर उन पर सवार राक्षसों को निहत कर दिया ||२२|| रसणिव्वा ओरस्थल सुविस हिज्जन्तचन्दण दुमप्यहम् कल अललोहग्घाडिअमुहबोलीण सर मग्गणिन्तणिणाअम् [ रसनिवृतोरःस्थलसुखविषह्यमानचन्दनद्रुमप्रहारम् कलकललोभोद्धाटितमुखव्यतिक्रान्तशरमार्गनिर्यन्निनादम् ॥ ] आश्वासः ] विमला- -भट वीररस से पूर्ण वक्षःस्थल पर चन्दनद्रुम के सह लेते थे । कलकल करने की इच्छा से खोले गये मुख का शर के मार्ग से ही बाहर निकलता था ॥२३॥ भिण्णघडिज्जन्तघडं एवम् — रसेन । चन्दनस्यैवेत्यर्थात् । निर्वृते उरःस्थले सुखेन विषह्यमानश्वन्दनद्र ुमप्रहारो यत्र । - प्रियाविरहोत्तप्तत्वेऽपि रसेन शैत्यजननात्प्रहारस्यापि सुखदत्वमिति भावः । रसेन वीरेण निबृत इति वा । वीररसात्प्रहारोऽपि सुखद इत्यर्थः । तथा—कलकलस्य लोभेन चिकीर्षया उद्घाटिताद्वयात्तान्मुखाद्वघतिक्रान्तस्य बहिर्भूतस्य शरस्य मार्गेण रन्ध्रेण निर्यन् बहिर्गच्छन्निनादो यत्र । क्षतदशायामप्यन्यकलकलश्रुत्या तचिकीर्षया वीररसोत्कर्षः सूचितः ॥ २३॥ 1 ॥२३॥ - पडिरुद्धो सरिअचक्कलिअपाइक्कम् । प्रहार को सुख से निनाद बाहर हुये रुहिरो हिण्णरवह मुहसुक्ख फेण णिहुअ हे सितुरअम् ||२४|| प्रतिरुद्वापसृतचक्रिपदाति । [ भिन्नघटयमानघटं रुधिराभिन्नरथपथं मुखशुष्कफेननिभृत हे सिततुरगम् ॥ ] किंभूतम् । प्रथमं कपीनां संचारेण भिन्ना द्विधाभूताः, अथ हस्तिपकैर्घटयमानाः पूर्ववत्स्थाप्यमाना गजघटा यत्र । एवम् — अग्रतः प्रतिरुद्धा अतएवापसृताः पश्चाद्गताः सन्तश्चक्रिताश्चक्रवघूर्णन्तः प्रतिरोधकमावेष्टयितुं मण्डलीमाचरन्तो वा पदातयो यत्र । एवम् - रुधिरेणापभिन्नः प्रतिहतो रथानां पन्था यत्र । जलबहुत्वेन ३६ से० ब० Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] सेतुबन्धम् [त्रयोदश रथसंचाराभावात् । तथा-मुखे शुष्को यः फेनस्तेन निभृतं मन्दं हृषितं येषां ते तुरगा यत्र । मुखशोषे स्फुटं शब्दानिष्पत्तेरिति भावः ॥२४॥ विमला-( वानरों के संचार से ) हाथी तितर-बितर हो गये, किन्तु हाथीवानों ने उन्हें पुनः पूर्ववत् स्थित किया। पैदल चलने वाले वीरों को सामने से रोक दिया गया, अतएव वे पीछे हट कर ( रोकने वालों को आवेष्टित करने के लिये ) मण्डल बनाते थे। रुधिर से रथों का मार्ग रुक गया। मुख में सूखे फेन के कारण घोड़ों के हिनहिनाने का शब्द भी धीमा निकलता था ॥२४॥ रिउपहरणपरिमोसिअसाहक्काररवगन्भिणपडन्तसिरम् । गिभिण्णपहरमुच्छि प्रवअणब्भन्तर 'विदाअभडचक्कारम् ॥२५॥ [रिपुप्रहरणपरितोषितसाधुकाररवभितपतच्छिरम् । निभिन्नप्रहारमूच्छितवदनाभ्यन्तरविशीर्णभटचुक्कारम् ॥] एवम्-रिपूणां प्रहारेण परितोषितानां वीराणामस्त्रकण्ठस्पर्शसमकालीन: साधुकाररवो गभितो गर्भस्थो यत्र तथाभूतं सत्पतच्छिरो यत्रेति प्रहारलाघवमुक्तम् । एवम्-निर्भिन्नेन दृष्टेन प्रहारेण मूच्छितानाम् । प्राकृतत्वादत्राकर्षणाद्भटानां वदनाभ्यन्तरे विशीर्णो मूर्च्छया मुखमुद्रणादस्फुटीभूतश्चुक्कारोऽर्थात्सिहनादो यत्र । मूर्च्छितेन मूर्च्छया विशीर्णो भटानां चुक्कारो यत्रेति वा । चुक्कारशब्दो देश्यां शब्दवाची ॥२५॥ विमला-शत्रुओं के प्रहार के परितुष्ट किये गये वीरों का उच्चारित साधुशब्द मुख में ही रह जाता था और तत्काल ही सिर गिर पड़ता था। अचूक प्रहारजन्य मूर्छा से भटों का सिंहनाद मुख के भीतर ही विशीर्ण हो जाता था ॥२५॥ सेलपहरुविआइअदुक्खववविअहत्थिपत्थिअजोहम् । भग्गधअचिह्णविमुहिमपणणिअप्रभडदुक्खणज्जन्तरहम् ॥२६।। [ शैलप्रहारोद्वेदितदुःखव्यवस्थापितहस्तिप्रार्थितयोधम् । भग्नध्वजचिह्नविमुषितप्रनष्टनिजकभटदुःखज्ञायमानरथम् ॥] एवम्-शैलप्रहारोद्वेदितैः, अत एव दुःखेन व्यवस्थापितैः स्थिरीकृतैर्हस्तिभिः प्रार्थिता रुध्यमाना योधा यत्र । एवम्-भग्नैर्ध्वजचिह्न: पताकाभिर्विमुषितवच्चोरितवत्प्रनष्टा अदृश्या अलक्ष्याः सन्तो निजकभटानां दुःखेन ज्ञायमाना रथा यत्र तादृशम् ॥२६॥ १. 'विसट्ठ' इति पाठः। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५६३ विमला-पर्वतों के प्रहार से गज व्याकुल हो गये, अतएव उन्होंने योद्धाओं को रुद्ध कर दिया। पताकाओं के छिन्न भिन्न हो जाने से रथ चुराये हुये-से अदृश्य थे, केवल उन पर स्थित वीरों के दुःख से ही उनकी प्रतीति होती थी।॥२६॥ गिरिपेल्लिअरहकड्ढणविहलविसारिअमुहत्थणन्ततुरङ्गम् । महिअलपलोट्टमहिहर रअपरसोमलिअभिण्णपण्डुररुहिरम् ॥२७॥ [गिरिप्रेरितरथकर्षणविह्वलविस्तारितमुखस्तनत्तुरङ्गम् । महीतलप्रलुठितमहीधररजतरसावमृदितभिन्नपाण्डुररुधिरम् ॥] एवम्-गिरिभिः प्रेरिता यन्त्रिता ये रथास्तेषां कर्षणेन विह्वलाः, अत एव विस्तारितमुखा व्यात्तमुखाः सन्तः स्तनन्तः खेदाविष्कारं कुर्वन्तस्तुरङ्गा यत्र । तथा महीतले प्रलुठितानां पतितानां वानरायुधीभूतानां महीधराणां रजतरसेन रूप्यक्षोदेनावमृदितानि घृष्टानि अत एव भिन्नान्येकीभूतानि सन्ति पाण्डुराणि श्वेतरक्तानि रुधिराणि यत्र तत्तथा ॥२७॥ विमला-पर्वतों से नियन्त्रित रथों को खींचने से विह्वल घोड़े मुंह बाये हये जोर-जोर से साँस ले रहे थे। पृथिवी पर गिरे ( वानरों के अस्त्ररूप ) पर्वतों के रजतचूर्ण मिलने से, बहता हुआ रुधिर पाण्डुर ( श्वेत-रक्त) हो गया था ।।२७।। कइमुक्कचुण्णिअठ्ठि असेलमुणिज्जन्त सरससरिआमग्गम् । ओहरि अवञ्चिासिमग्गोवडन्तवाणरजोहम् ॥२८॥ [ कपिमुक्तचूर्णितस्थितशैलज्ञायमानसरससरिन्मार्गम् । अवपातितवञ्चितासिमार्गावपतद्वानरयोधम् ॥] एवम्-कपिमुक्तत्वात्प्रहारदाढन यत्र पतितास्तत्र चूर्णितस्थिता ये शैलास्तेषां ज्ञायमानाः सरसा: सरिन्मार्गाः स्रोतांसि यत्र । जलमिश्रणाच्चूर्णानां सरसत्वेन ज्ञायतेऽत्र स्रोतः स्थितमित्यर्थः । एवम्-रक्षोभिरवपतितानामथ च कपिभिर्नि:सृत्य वञ्चितानामसीनां मार्गे पतनपथेऽवपतन्तो वानरयोधा यत्र तथाभूतम् । तथा च यत्र ये स्थितास्ते बहिर्गताः, अन्ये पुनस्तत्र पतन्तः खण्डिता इति कपिबाहल्यमुक्तम् ॥२८॥ विमला-वानरों के द्वारा ( अस्त्ररूप में ) फेंके गये पर्वत जहाँ गिरे वहीं चूर-चूर हो स्थित थे। उन चूर्गों के ( जलमिश्रण से ) सरस होने के कारण ही ज्ञात होता था कि यहाँ नदी के स्रोत थे एवं राक्षसों के द्वारा चलायी गयी तलवार के मार्ग में जो वानर रहते थे वे तो वहाँ से हट कर उस वार को बचा जाते थे किन्तु ( वानरों की भारी भीड़ होने से ) अन्य वानर उसके मार्ग में पड़ जाते और वे खण्डित हो जाते थे ।।२८।। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] सेतुबन्धम् [त्रयोदश अहिधावन्तपवङ्गममुक्कंसणिराजकेसरसडुग्घाअम् । मज्झन्तभाअणिवडिअदण्डाउहभिण्णमाहिलोविद्धभडम् ॥२६॥ [ अभिधावत्प्लवङ्गममुक्तांसनिरायतकेसरसटोद्धातम् । मध्यान्तभागनिपतितदण्डायुधभिन्नमहीतलापविद्धभटम् ॥] एवम्-अभिधावतां प्लवङ्गमानां मुक्तो विकीर्णः सन्नंसेषु निरायतो दीर्घः केसरसटानामुद्धातो यत्र। जवजन्यसंस्कारात् । एवम्-मध्यस्यान्तभागेन निपतितं यद्दण्डरूपमायुधं तेन भिन्नाः सन्तो महीतलेऽपविद्धा पातिता भटा यत्र तत् ॥२६॥ विमला-वेग से दौड़ने के कारण वानरों के लम्बे-लम्बे केसर ( गरदन के बाल ) कन्धे पर बिखर गये थे एवं मध्यान्त भाग के बल गिरे हुये दण्डरूप आयुध ने भटों को महीतल पर गिरा दिया था ॥२६॥ गहिअसिरदवाणरणिसाबरोरत्थलद्धरोविअदाढम् । णहधरिअपव्वप्रोज्झरसीअरतण्णाअगरुइओसण्ण रअम् ॥३०॥ [ गृहीतशिरोदष्टवानरनिशाचरोरःस्थलार्धरोपितदंष्ट्रम् । नभोधृतपर्वतनिर्झरशिकरार्द्रगुरुकितावसन्नरजः ॥] एवम् -गृहीते आक्रम्य धृते शिरसि दष्टा ये वान रास्तनिशाचराणामुरःस्थ लेडधरोपिता दंष्ट्रा यत्र । रक्षोभिः कपीनां शिरः कवलितम, कपिभिस्तेषां वक्षसि दंष्ट्रा निखातेत्यर्थः । तत्र शिरसः कवलितत्वेन दंष्ट्राणामत्यन्तप्रेरणाभावादर्धनिमग्नत्वमिति भावः। एवम्-नभसि धृतानां पर्वतानां निर्झरशीकरैरार्द्रत्वाद्गुरूणि सन्त्यवसन्नानि पतितानि रजांसि यत्रेति युद्धसोकर्यमुक्तम् ॥३०॥ विमला-राक्षसों ने आक्रमण कर वानरों का सिर पकड़ कर उसे कवलित कर लिया तब वानरों ने उनके वक्षःस्थल में अपनी दंष्ट्रा घुसेड़ दी, किन्तु सिर कवलित होने के कारण दंष्ट्रा आधी ही घुस पायी। आकाश में धृत पर्वतों की धूल जो भूमि पर गिरती थी वह निर्झर शीक रों से आर्द्र होने के कारण कुछ गुरु ( हल्की नहीं) थी ( अतएव उससे युद्ध में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी)॥३०॥ सरहिहत्थअलाहअमहपडिउटिठअतुरणि व्व ढरहम् । सरघास चुष्णिोडिअपवावीअरुहिरसरिआसोत्तम् ॥३१॥ _(आइकुलअम्) [ सारथिहस्ततलाहतमुखपतितोत्थिततुरङ्गनियूं ढरथम् ।। शरघातचूणितावपतितपर्वतापीतरुधिरसरित्स्रोतः ॥] (आदिकुलकम् ) किंभूतम् । प्रथम संभ्रमेण पतिताः, तदनु सारथिना हस्ततलेनाहलमुखत्वादुत्थिता ये तुरङ्गास्तै नियूंढाः संचारिता रथा यत्र । एवम्-रक्षःशरघातेन चूर्णिताः सन्तः Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५६५ क्षितो अवपतिता ये कपीनां पर्वतास्तैश्चूर्णद्वारा पीतानि शोषितानि रुधिरसरितां स्रोतांसि यत्र तत् ॥३१॥ विमला-रथ के घोड़े घबड़ा कर ( मुंह के बल ) गिर गये, अतएव उनका मुख आहत हो गया, तत्पश्चात् सारथि ने अपने करतल से उनके मुंह को थामा जिससे उठ कर घोड़ों ने पुनः रथ को संचारित किया। राक्षसों के शरप्रहारों से चूर-चूर हो पृथिवी पर गिरे पर्वतों ने ( अपने चूर्ण द्वारा ) रुधिर की नदियों के स्रोतों को शुष्क कर दिया ॥३१॥ अथ बलयोरावर्तनमाह अट्टन्ति असहणाई खण्डिज्जन्तवडिसारिअद्धन्ताई। वोच्छिज्जन्तमुहाई भिज्जन्तोसरिअपडिभडाई बलाई ॥३२॥ [ आवर्तन्तेऽसहनानि खण्डयमानप्रतिसारितार्धान्तानि । व्यवच्छिद्यमानमुखानि भिद्यमानापसृतप्रतिभटानि बलानि ।।] बलान्यावर्तन्ते । परस्परमुपर्युपरि पतन्तीत्यर्थः । किंभूतानि । परेषां प्रहारमुत्कर्ष वासहमानानि । तथा--खण्डयमानाः सन्तः प्रतिसारिताः पराङ्मुखीकृता अर्धान्ताः कतिपये यत्र । अत एव व्यवच्छिद्यमानमुखानि । मानभङ्गप्रसङ्गात् पुनः स्वीयैः कैश्चिदागत्य भिद्यमानाः सन्तोऽपसृताः पश्चाद्गताः प्रतिभटाः प्रहर्तारो येषां तानि । तथा च कैश्चित्केचित्प्रथमं निहत्यापसारितास्तदृष्ट्वा तत्पक्षपूरणाय तदीयैरन्यैरागत्यामी पुननिहत्य निवर्त्यन्ते तदृष्ट्वा पुनरेतदीयैरेते पराभूयन्ते, पलायितास्तु स्वपक्ष(पूरकपक्ष)पूरणाय पुनः परावर्तन्ते इति क्रमेणोत्तरोत्तरमप्युन्मत्तकेलिरिव युद्धमभूदिति भावः ॥३२॥ विमला-सेनायें शत्रुओं के प्रहारों अथवा उत्कर्ष को न सह पाने के कारण एक-दूसरे पर फाट पड़ रही थी। प्रथम सेना के अग्रभाग के वीरों ने द्वितीय सेना के अग्रगामी वीरों को खण्डित करते हुये उन्हें पराङ्मुख कर दिया और अग्रभाग व्यवच्छिन्न हो गया; इतने में ही द्वितीय सेना के कतिपय वीरों ने उन आक्रमणकारियों को आहत कर पीछे हटा दिया, ऐसा देखकर प्रथम सेना के वीर उन्हें पराभूत करते और भागे हुये लोग पुनः लौट कर अपने पक्ष में शामिल हो जाते थे। यही क्रम निरन्तर चलता रहा ॥३२॥ राक्षसानां जिगीषामाह-- वाणरपहरुक्खडिआ अणिरूविअलक्खपेसिआसिपहरणा । मुच्छाणिमोलिअच्छा ओहोरन्ता वि अल्लिअन्ति णिसिरा ॥३३॥ [ वानरप्रहारोत्खण्डिता अनिरूपितलक्ष्यप्रेषितासिप्रहरणाः । मूर्छानिमीलिताक्षा अपह्रियमाणा अप्यालीयन्ते निशिचराः ॥] Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६] सेतुबन्धम् [त्रयोदश वानराणां प्रहारेणोत्खण्डिता व्रणिताः । अत एव अपह्रियमाणा: स्वीयः पश्चान्नीयमाना अपि निशिचरा मूर्च्छया निमीलिताक्षाः । अत एवानिरूपितमदृष्टं यल्लक्ष्यं चान्त्यं (?) तत्र प्रेषितं प्रेरितमसिरूपं प्रहरणं शस्त्रं यैस्तथाभूताः सन्तस्तेनैव लक्ष्येण शत्रुणा आलीयन्ते मिलन्ति । प्रथमं यहतास्तानात्मीयजनकृतप्रतिबन्धमुपेक्ष्य मूच्छितत्वेनादृष्टवापि संगम्य प्रहरन्तीति रक्षसां तेजस्वित्वमुक्तम् ॥३३॥ विमला-वानरों के प्रहार से क्षत-विक्षत जिन निशाचरों को उनके आत्मीय जन पीछे कर रहे थे वे उन ( आत्मीय जन ) के आग्रह की उपेक्षा कर, मूर्छा से मुदी आँखों से लक्ष्य ( पूर्वप्रहारक शत्रु ) को भली-भाँति न देख पाने पर भी उस पर तलवार अस्त्र चला कर ही उससे मिलते थे ।।३३।। अथ कपीनां पतनप्रकारमाह--- चुणिअगरुपपडिभडो फरइ अणल्लीणरक्खसाहअविहलो। खण्डिज्जन्तपप्रट्टो प्रोलिच्छिण्णपडिप्रो पवङ्गमजोहो ॥३४॥ [ चूर्णितगुरुकप्रतिभटः स्फुरत्यनालीनराक्षसाहतविह्वलः। । खण्डयमानप्रवृत्तः पङ्क्तिच्छिन्नपतितः प्लवङ्गमयोधः ॥] प्रथमं चूर्णितो गुरुकः प्रतिभटो येन । तदनु येन सह प्रवृत्तयुद्धस्तदन्येन केनचिदनालीनेन दूरवर्तिना राक्षसेन पश्चादलक्षितमागत्य हतः सन् विह्वलो मूच्छितः। अथ मूच्र्छादशायां खड़गादिना खण्डयमानोऽपि तत एव लब्धचैतन्यः पुनः प्रवृत्तः । योधुमित्यर्थात् । अनन्तरम् । ओलिरिति पङ्क्तौ देशी। तैरेव पङ्क्तिक्रमेण छिन्नः सन् पतित: प्लवङ्गमयोधः स्फुरति कम्पते । मरणोत्तरमपि क्रोधसंस्कारसत्त्वादिति भावः ।।३४।। विमला-जिस वानरयोद्धा ने अपने महान् प्रतिद्वन्द्वी राक्षस को चूर्णित किया, तत्पश्चात् दूसरे दूरवर्ती राक्षस ने ( चुपके से आकर ) उसे आहत कर मूच्छित कर दिया और ज्यों ही खड़गादि से खण्डित किया जाने लगा, त्यों ही होश में आ गया और पुनः युद्ध में प्रवृत्त हो गया। इस प्रकार पंक्तिक्रम से राक्षसों के द्वारा छिन्न किये गये अत एव गिरे हुये वानरयोद्धा ( क्रोध से) कांप रहे थे ।॥३४॥ उभयत्र शूराणां शरीरनिरपेक्षतामाहसोडोरेण पआवो छाप्रा पहरेहिं विक्कमेहि परिप्रणो। जीएण अ अहिमाणो रखिज्जइ अ गरुओ सरीरेण जसो ॥३५॥ [ शौण्डीर्येण प्रतापश्छाया प्रहारैविक्रमैः परिजनः । जीवेन चाभिमानो रक्ष्यते च गुरुकं शरीरेण यशः ॥] सुभटैः शौण्डीर्येणाहंकारेण युद्धचातुर्येण वा प्रतापो रक्ष्यते । संकटे सति तथा Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् ५६७ शौण्डीर्यमाचरन्ति यथा सर्वेषामप्यक्षुब्धत्वेन प्रतिभासन्त इति प्रतापरक्षा भवतीत्यर्थः । प्रहारैश्छाया रक्ष्यते । तत्रैव तथा प्रहरन्ति यथा कान्तिरक्षा भवतीत्यर्थः । विक्रमैः परिजनः । संकटपतितः सेवकादिः पराक्रम्य रक्ष्यत इत्यर्थः । जीवेन वाभिमानो गर्वः । अतिसंकटे जीवनमप्युपेक्षन्ते नतु परावृत्त्य गर्वं नाशयन्तीत्यर्थः । शरीरेण च यशः । परप्रहारोपस्थितौ शूरचिह्नमभिमुखक्षतादिकमप्यङ्गीकृत्य यशो गृह्णन्ति नतु शरीरे लावण्यव्ययभिया दयां कुर्वन्तीति सत्त्वोद्रेकः सूचितः । रक्ष्यत इति सर्वत्रान्वितम् । अतः क्रियादीपकम् ||३५|| विमला - शूर अपने युद्धकौशल से ( अक्षुब्ध प्रतीत होते हुये ) प्रताप की, प्रहार से कान्ति की, विक्रम से परिजनों की, जीव देकर अभिमान की तथा शरीर देकर महान् यश की रक्षा कर रहे थे ||३५|| रक्षसां रणाभिलाषमाह - भिज्जइ उरो ण हिअअं गिरिणा भज्जइ रहो ण उण उच्छाहो । छिज्जन्ति सिरणिहाम्रा तुङ्गा ण उण रणदोहला सुहडाणम् ||३६|| [ भिद्यते उरो न हृदयं गिरिणा भज्यते रथो न पुनरुत्साहः । छिद्यन्ते शिरोनिघातास्तुङ्गा न पुना रणदोहदाः सुभटानाम् ॥ ] सुभटानामुरो वक्ष:स्थलं शस्त्रैर्भिद्यते । नतु हृदयं चित्तं भिद्यते । क्षतादपि मनो रणोत्सुकमेव तिष्ठतीत्यर्थः । एवम् — कपीनामस्त्रेण गिरिणा रथो भज्यते न पुनः समरोत्साहो भज्यते । किं तु रथभङ्गे सति दीप्यत इत्यर्थः । एवम् — शिरोनिघाताश्छिद्यन्ते । निघातः समूहः । न पुना रणदोहदा रणाभिलाषाः । ते तु मरणोत्तरमम शरीरेऽप्यनुवर्तन्ते इति जिगीषुत्वमुक्तम् ||३६|| विमला - सुभटों का उर ( वक्षःस्थल ) विदीर्ण हो गया; किन्तु हृदय ( मन ) नहीं ( वह रणोत्सुक ही रहा) । ( कपियों के अस्त्ररूप ) पर्वतों से रथ भग्न हो गया, किन्तु उत्साह नहीं ( अपितु वह बढ़ता गया ) । तुङ्ग शिरःसमूह छिन्न हो गये, किन्तु रणाभिलाष नहीं ( रणाभिलाष बना ही रहा ) ॥ ३६ ॥ अथ प्रथमोत्थितरजः प्रशममाह- सेलोज्झरे हि गअणे धुनलोहिअसी अरेहि धारामागे । मप्र सलिलेहि धडासु अ वोच्छिउजइ पसरिअं महिरउट्ठाणम् ॥३७॥ [ शैलनिर्झरै गगने धुतलोहितशीकरैर्धारामार्गे । मदसलिलैर्घटासु च व्यवच्छिद्यते प्रसृतं महीरजउत्थानम् ॥ ] प्रसृतमूर्ध्वाधोब्यापि महीरजसामुत्थानमुद्गमो गगने कपिभिरुत्तोलितानां शैलानां निर्झरेर्व्यवच्छिद्यते प्रशाम्यते । एवम् -- धारामार्गे रणस्थाने धुतैरितस्ततो Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश गतैर्लोहितानां शोणितानां शीकरैः । एवं गजानां घटासु च मदजलैः । व्यवच्छिद्यत इत्यनुषज्यते ||३७| विमला -- आकाश में व्याप्त धूल ( कपियों के द्वारा ऊपर उठाये गये ) पर्वतों के झरनों से, रणस्थल में इधर-उधर गये हुये शोणितशीकरों से तथा गजसमूह में मदजल से प्रशान्त हो गयी ||३७|| अथ कपीनां भुजभङ्गमाहविस हिअखग्गरपहरा गइन्ददन्तोल्लिहिअग्गलापडिरूआ | सेलाइञ्छगवलिआ विसमं भज्जन्ति पवअबाहुप्फडिहा ||३८| [ विसोढ़खड्गप्रहारा गजेन्द्रदन्तोल्लिखितार्गला प्रतिरूपाः । शैलातिक्रमवलिता विषमं भज्यन्ते प्लवङ्गबाहुपरिघाः ॥ ] प्लवङ्गानां बाहुपरिघा भज्यन्ते त्रुट्यन्ति । विषमं विसदृशं यथा स्यात्तथा । किंभूताः । विसोढः खड्ग प्रहारो यैः । अत एव गजेन्द्रदन्ताभ्यां लिखिता याला तत्प्रतिरूपास्तत्तुल्याः । खड्गव्रणानां दन्तोल्लेखचिह्न रर्गलाभिश्च बाहूनामुपमा । यद्वा गजेन्द्रदन्तोल्लिखिताश्च अर्गला प्रतिरूपाश्चेति कर्मधारयः । भिन्नत्वे हेतुमाह - शैलानामतिक्रमेण क्षत्तोत्पत्त्या धारणासामर्थ्यादधःपतनेन वलिता यन्त्रणमासाद्य वक्रीभूताः । अत एव द्विधा भवन्तीत्यर्थः ||३८|| विमला - वानरों की भुजायें, जिन्होंने खड्गप्रहारों को सहा, जो गजेन्द्रों के दाँतों से उल्लिखित ( उल्लेखचिह्नों से युक्त ) अतएव अर्गलातुल्य हो रही थीं तथा जो क्षत-विक्षत होने के कारण ) पर्वतों को धारण करने में असमर्थ होने से झुक गयीं, अतएव बुरी तरह टूट गयीं ॥ ३८ ॥ अथ पक्षिणां रुधिरत्यागमाह तेव्हाइओ वि सुदरं संणाहच्छे अगम्भिणम्मि वणमुहे । णिव्वलि लोहविरसं ण पिअइ प्रमुअइ चक्खिऊण विहङ्गो ||३९ ॥ [ तृषितोऽपि सुचिरं संनाहच्छेदर्गाभते व्रणमुखे । निर्वलितलोहविरसं न पिबत्यामुश्वत्यास्वाद्य विहङ्गः ॥ विहङ्गो गृध्रादिः सुचिरं तृषायुक्तोऽपि सन् संनाहस्य छेदेन खण्डेन गर्भिते गर्भस्थतच्छेदे व्रणस्य मुखे रुधिरनिर्गमस्थाने रुधिरमास्वाद्येषज्जिह्वयालिह्य न पिबति । किंत्वामुञ्चति त्यजति । अत्र हेतुमाह - - किंभूतम् । निर्वलितेन पृथग्भूतेन संनाहस्य लोहेन तत्कणेन विरसम् । लोहकणिका संपर्काद्विस्वादमित्यर्थः || ३६ || विमला - ( गृध्रादि ) पक्षी बहुत समय से प्यासे होने पर भी संनाह के छेद से गर्भित रुधिर निकलने के स्थान पर रुधिर को थोड़ा-सा जिह्वा से चाट लेने के बाद नहीं पीते थे, क्योंकि वह ( रुधिर ) संनाह के पृथक् हुये लोहकण के सम्पर्क से स्वादरहित हो गया था ।। ३६॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५६६ अथ कबन्धानां वेगमाह-- वेवइ पडिओ वि भुमो ओसुद्धम्मि वअणम्मि धरइ अमरिसो। लुप्रसीसं वि कबन्ध धावइ उक्खित्तकण्ठलोहिअधारम् ।।४०॥ [ वेपते पतितोऽपि भुजोऽवपातिते वदने ध्रियतेऽमर्षः । लूनशीर्षोऽपि कबन्धो धावत्युत्क्षिप्तकण्ठलोहितधारः ॥] छिन्नाः सन् पतितोऽपि भुजोऽपि वेपते । भटानामित्यर्थात् । अस्त्रोद्यमनादिरूपकर्मसंस्कारसत्त्वादिति भावः । एवम्-छित्त्वावपातितेऽपि मुखेऽमर्षों भ्रकुटयाद्यारुण्यादि तच्चिह्न ध्रियते । तदवस्थायां कतनलाघवात् । एवम्--गतशीर्षोऽपि छिन्नमौलिरपि कबन्ध उत्क्षिप्ता ऊर्ध्वंगता कण्ठस्य लोहितधारा यत्र तथाभूतः सन धावति । पूर्ववेगोत्कर्षादिति भावः ॥४०॥ विमला--कट कर गिर जाने पर भी भुज कांप रहा था, काट कर गिरा दिये जाने पर भी मुख पर अमर्ष विद्यमान था, सिर कट जाने पर भी कवन्ध जिसके कण्ठ की रुधिरधारा ऊपर की ओर जा रही थी, दौड़ता था ॥४०॥ वीराणां रणरसवत्तामाह-- देह रसं रिउपहरो वहइ धरं विक्कमस्स वेरावन्धो। आअड्ढिमरणरहसो दप्पं बड़े ढइ आप्रओ अइभारो॥४१॥ [ ददाति रसं रिपुप्रहारो वहति धुरं विक्रमस्य वैराबन्धः । आकृष्टरणरभसो दर्प वर्धयत्यागतोऽतिभारः ।।] वीराणां रिपुकृतः प्रहारो रसमुत्साहं ददाति । नत्वनुत्साहम् । मल्लयोरिव प्रतिप्रहारचिकीर्षोत्कर्षकत्वात् । तथा--वैराबन्धो वैरासञ्जनं विक्रमस्य धुरा वहति । तस्माद्विक्रमो वर्धत इत्यर्थः । एवम्--आगत उपरि पतितोऽतिभारः कठिनकार्यगौरवं दपं बलं वर्धयति । कीदृक् । आकृष्ट आनीतो रणे रभस उत्कण्ठा येन । मत्कृत्यमेवैतदित्यभिसंधानादिति भावः ॥४१॥ विमला-शत्रु द्वारा किया गया प्रहार वीरों को उत्साह देता, वैर के अभिनिवेश से विक्रम बढ़ता तथा ऊपर पड़ा हुआ गुरुतर भार, जिसने युद्ध के प्रति उत्कण्ठा ला दी, दर्प को बढ़ाता था ॥४१॥ भटानां रणे कालक्षेपासहिष्णुतामाहसाहेइ रिउं व जसं ण सहइ आआरिअं व कालक्खेवम् । लहइ सुहं मिव णासं जीअ मुअइ समुहं पहरणं व भडो॥४२॥ [ साधयति रिपुमिव यशो न सहते आकारितमिव कालक्षेपम् । लभते सुखमिव नाशं जीवं मुञ्चति संमुखं प्रहरणमिव भटः ॥] Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] सेतुबन्धम् [त्रयोदश भटो यशः साधयति । रिपुमिव यथा रिपुं विजित्यात्मसात्करोति तथा तत एव यशोऽपीत्यर्थः। एवम्---यथा आकारितं युद्धाय परेषामाक्षेपवचनं न सहते तथा कालक्षेपमपि । तस्मिन् सति तत्कालमेव युध्यतीत्यर्थः । किंच--यथा परप्रहारादिना सुखं लभते तथा तेनैव नाशमपि । पश्चादनागमनादिति भावः । एवम्संमुखं यथा प्रहरणमस्त्रं मुञ्चति तथा स्वयमेव जीवमपि । शूराणां सम्मुखमरणस्य कमनीयत्वादिति सर्वत्र सहोपमा । नाशजीवत्यागयोरन्यथासिद्धत्वकृतत्वभेदादुक्तिवैचित्र्यमित्यवधेयम् ॥४२॥ विमला-वीर जिस प्रकार शत्रु को जीत कर अपने अधीन करता उसी प्रकार शत्रु को जीतने से यश भी सिद्ध करता, यथा युद्धार्थ शत्रुओं के आक्षेपवचन को नहीं सहता उसी प्रकार कालक्षेप भी नहीं सहता ( शत्रु के आक्षेपवचन को सुन कर तत्काल युद्ध करता), जिस प्रकार ( शत्रुप्रहारादि से ) सुख पाता उसी प्रकार ( पीछे न हटने से ) नाश भी प्राप्त करता तथा जिस प्रकार शत्रु के सम्मुख अस्त्र छोड़ता ( अस्त्र से प्रहार करता) उसी प्रकार जीव भी छोड़ता ॥४२॥ कपीनां मूर्छावस्थामाहविसहिप्रखग्गप्पहरा विअलि अलोहिअकिलिन्तणीसारभुआ। मच्छिज्जन्तो अल्ला अक्कन्ता णिअअमहिहरेहि पवङ्गा ॥४३॥ [ विशोढ़खड्गप्रहारा विगलितलोहितक्लाम्यनिःसारभुजाः। मूर्छायमाना अवमीलन्त आक्रान्ता निजकमहीधरैः प्लवङ्गाः।। ] विसोढः खड्गप्रहारो यः बाहावित्यर्थात् । अत एव विगलितशोणितत्वात्क्लाभ्यन्तो विह्वला नि:सारा बलशून्या भुजा येषां ते प्लवङ्गा अस्त्रीकृत निजकमहीधररेवाक्रान्ता यन्त्रिता: । सव्रणस्य बाहोरबलत्वेन धर्तुमक्षमतया गिरीणां पतनादिति भावः। अत एव--पर्वतभरान्मूीयमानाः सन्तोऽवमीलन्तो निमीलन्नययना: ॥४३॥ विमला-वानरों ने शत्रुकृत खड्गप्रहारों को भुजाओं पर ही झेला, जिससे उनकी भुजायें रुधिर के अधिक निकल जाने से विह्वल एवं बलशून्य हो गयीं, अत एव ( अस्त्ररूप) पर्वतों के गिर जाने से उनके भार से दब कर मूच्छित होते हुये आँखें मूद लीं ॥४३॥ पञ्चभिरुभयत्र शूराणां जीवनिरपेक्षतादिरूपमुत्कर्षमाहवनइ कुसुअं व माणं वड्ढन्तं पि अणहं ण पत्तिाइ जसम् । ण करेइ लोअगरुए जीअ च्चिअ णवर आअरं भडसत्थो ।।४४।। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५७१ [ दयते कुसुममिव मान वर्धमानमप्यनघं न प्रत्येति यशः । न करोति लोकगुरुके जीव एव केवलमादरं भटसार्थः ॥] भटानां सार्थः कुसुममिव मानमहंकारं दयते रक्षति । यथा कुसुमे कोमल[त्व]बुद्धचा विमदं विरहेणाभङ्गुरत्वमम्लानत्वं च मृग्यते तथा मानेऽपीत्यर्थः । संमुखमरणादिना वर्धमानमप्यनघं निष्कलुषं यशो न प्रत्येति । मम यशः प्रौढं जातमिति न जानाति । तथा चापरिपूर्णत्वभ्रमणोत्तरोत्तरमपि तस्य विद्धे कालुष्याभावाय च प्राणव्ययेन यतत इत्यर्थः । केवलं लोकेषु गुरुके श्लाघनीये जीव एवादरमुपेयबुद्धि न करोति किंतु तृणाय मन्यते । इति जीवमपि दत्त्वा मानं यशश्च वर्धयतीत्यर्थः ॥४४॥ विमला-भट समूह अपने मान की रक्षा उसी प्रकार करता था जिस प्रकार (कोमल) कुसुम सावधानी के साथ, दबने से नष्ट होने अथवा मुरझाने से बचाया जाता है। यद्यपि ( वीरोचित कर्म करने से ) उसका यश उज्ज्वल हो बढ़ रहा था, तथापि उसे यश के प्रौढ़ होने की प्रतीति नहीं होती थी ( अतएव अपरिपूर्ण ही समझ कर उसे अधिक उज्ज्वल करने तथा बढ़ाने के लिये प्राणपण से यत्न करता था)। वह, लोगों में श्लाघनीय जीव के ही प्रति केवल आदर की भावना नहीं रखता था ( अपितु मान और यश को जीव से अधिक उपेय मानता था, अतएव उसकी रक्षा के लिये जीव को तृण समझ कर त्यागने में नहीं हिचकता था) ॥४४॥ गिहालक्खि अजोहे जाए लहुअम्मिणिपअधारामग्गे। परिवड्ढन्ताइभरं गरुकं परसंकुलं अइन्ति समस्थाः । ४५॥ [निहतालक्षितयोधे जाते लघौ निजकधारामार्गे। परिवय॑मानाजिभरं गुरुकं परसंकुलमायान्ति समर्थाः ॥] अलक्षितं क्षिप्रकारितया कुतः को मारयतीत्यनाकलितं यथा स्यादेवं निहताः परयोधा यत्र तथाभूते निजकधारामार्गे स्वारब्धसंग्रामे लघौ जाते सति निर्वाहिते सति समर्थाः परसंकुलं परचक्रमायान्ति । कीदृशम् । परिवयंमान आजिभरो येन । स्वपक्षक्षयं दृष्ट्वा एतत्पक्षमतिकाम दित्यर्थः । अत एव गुरुकमनभिभाव्यम् । तथा च बहुशः कृतयुद्धा अपि शत्रोरुपस्थितौ परिश्रममगणयित्वा पुनर्युध्यन्तीत्यर्थः ।।४।। विमला-समर्थ ( वीर ) अपने ऊपर शत्रुकृत प्रहारों की ओर तनिक भी ध्यान देकर शत्रुयोद्धाओं को मार कर अपने संग्राम को लगभग निपटा चुकने पर भी महान् शत्रुव्यूह में घुस जाते थे, क्योंकि शत्रुपक्ष ने ( अपना क्षय देख कर प्रबल आक्रमण से ) संग्राम के भार को बढ़ा दिया था ॥४५॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश धारेन्ति जसरस धुरं एन्तं ण सहन्ति विक्कमस्स परिहवम् । रोसस्स करेन्ति धिहं माणं व ढन्ति साहसस्स समत्था ॥४६॥ [धारयन्ति यशसो धुरामायान्तं न सहन्ते विक्रमस्य परिभवम् । रोषस्य कुर्वन्ति धृति मानं वर्धयन्ति साहसस्य समर्थाः ॥] समर्था यशसो धुरां धारयन्ति । परानतिक्रम्य यशो निर्वाहयन्तीत्यर्थः । आयान्तं संभाव्यमानं विक्रमस्य परिभवं न सहन्ते । दुष्करयुद्धेनापि विक्रम रक्षन्तीत्यर्थः । एवम्-रोषस्य धति धारणं कुर्वन्ति । अत एव साहसस्य प्राणान'पेक्षकर्मणो मानं परिमाणं वर्धयन्ति । यशोविक्रमयो रक्षाय रुष्ट वा साहसमपि कुर्वन्तीत्यर्थः ॥४६॥ विमला-समर्थ ( वीर ) शत्रुओं को अतिक्रान्त कर यश निभा रहे थे, आने वाले विक्रम के पराभव को सह न सकने के कारण घोर युद्ध कर विक्रम की रक्षा करते थे तथा रोष धारण कर साहम का परिमाण बढ़ा रहे थे ॥४६॥ पहरासाइअहरिसं खणमुच्छागलिमरणमणोरहसोक्खम् । जीअविढन्तच्छरसं सिरपरिवत्तिअजसं विअम्भ समरम् ॥४७॥ [प्रहारासादितहर्षः क्षणमूर्ध्वगलितरणमनोरथसौख्यम् । जीवार्जिताप्सराः शिरःपरिवर्तितयशा विजृम्भते समरः ।।] प्रहारेण प्रहारं दत्त्वा आसादितो हर्षो यत्र । परप्रहारेण वा। एवम् -क्षणं "परप्रहारात् मूर्च्छया गलितं रणाभिलाषसौख्यं यत्र । केवलं मूर्छासमये सङ्ग्रामसुखं न जायत इत्यर्थः । एवम्-जीवेनाजिता जीवं दत्त्वा लब्धा अप्सरसो यत्र । शोर्यात् । तथा-शिरसा परिवर्तितानि शिरो दत्त्वा गृहीतानि यशांसि यत्र । एवंभूतः समरो विज़म्भते वर्धते । सर्व क्रियाविशेषणं वा ॥४७॥ विमला-वीर स्वकृत प्रहार अथवा शत्रुकृत प्रहार से हर्ष प्राप्त करते थे। उनका संग्रामसुख केवल मूर्छा के समय क्षणभर तक नष्ट रहता था ( अन्यथा निरन्तर बना रहता था)। वे जीव देकर अप्सराओं की प्राप्ति करते तथा सिर देकर यश अजित करते थे। इस प्रकार संग्राम चरम उत्कर्ष पर था ॥४७।। संदेहेसु हसिज्जइ रज्जिज्जइ साहसे रमिज्जइ वसणे।। 'मुच्छासु वीसमिज्जइ णिव्वढं ति णवरं गणिज्जइ मरणे ॥४॥ [ संदेहेषु हस्यते रज्यते साहसेषु रम्यते व्यसने । मूर्छासु विश्रम्यते निव्यूं ढमिति केवलं गण्यते मरणे ॥] भटैः प्राणसंदेहेषु जीवने लक्ष्म्याः , मरणे देवस्त्रीणाम्, कीर्तेरुभयत्र लाभ इत्यानन्दतो हास्यं क्रियते। परेषामनध्यवसितत्त्वबुद्धिपरिहाराय वा संदेहादेव प्राणानपेक्षकर्मरूपसाहसेऽनुरज्यते। युद्धेनेत्यर्थात् । अथ तत्र व्यसने प्राणसंकटे Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५७३ सति रम्यते । जीवनादपीदानीं मरणमतिश्रेयः स्वर्गहेतुत्वादित्युत्साहः क्रियते तत्रैव प्रहारे सति मर्छा परं विश्रामो लभ्यतेऽपरथा युध्यत एव तदुत्तरं मरणे सति निर्दीढं स्वकृत्यं निर्वाहितमिति गण्यते । शत्रुविनाशनरूपं स्वामिनः, सुरस्त्रीलाभस्वर्गवासरूपं चात्मनः प्रयोजनं सिद्धमिति बुध्यत इत्यतिशूरत्वमुक्तम् ॥४८॥ विमला-प्राणसन्देह में वीर हँसते, साहस में अनुरक्त होते, व्यसन' में उत्साह करते; केवल मूर्छा के समय विश्राम करते तथा मरण होते समय भी केवल यही समझते थे कि अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया ॥४८।। अथैकादशभिः स्कन्धकै रणरेणूत्थानमाह चलिओ अ चरणपहओ अनुम्वदिण्णरइमण्डलगहासङ्को। अस्थेक्ककढिप्रणिसो अभाअभग्गदिप्रसो महिर उग्घाओ॥४६।। [चलितश्च चरणप्रहतोऽपूर्वदत्तरविमण्डलग्रहाशङ्कः । अकस्मादाकृष्टनिशोऽभागभग्नदिवसो महीरजउद्धातः॥] कपिहस्त्यश्वादीनां चरणः प्रहतः प्रेरितो महीरजसामुद्धातो घनीभूतः समहश्चलित उत्थितश्चेत्यर्थः । कीदृक् । अपूर्वोऽद्भुतो दत्तो रविमण्डले ग्रहस्य राहोराशङ्का वितर्को येन स तथा । रजश्छन्ने रवी सर्वग्रासो राहुणा कृत इति वितर्कोऽमावास्यां विनैव जायत इत्यद्भुतत्वम् । अत एवाकस्माद्दिवाप्याकृष्टा आनीता निशा येन । तथा-अभागेऽस्थाने प्रहरद्वयेऽपि भग्नो विनाशितो दिवसो येन । सूर्यस्यास्तमितत्वादित्यन्धकारमयत्वमुक्तम् ।।४६।। विमला-चरणों से प्रहत पृथिवी की धूल ऐसी उठी कि सूर्य ढक गया, अतएव लोग अद्भुत वितर्क करने लगे कि ( अमावस्या के विना ही ) राहु द्वारा सूर्यमण्डल का ग्रास क्यों हो गया तथा दिन में ही रात मा गयी एवं विना चार प्रहर व्यतीत हुये दो ही प्रहर में दिन व्यतीत हो गया ।।४।। अथैषां प्रस रणक्रममाहमले वहलग्घाओ मज्मोआसे पसारिअत्तणडियो। णहपुजिअविथरिओ पडइ दिसासु गरुअत्तणेण महिर ओ ॥५०॥ [ मूले बहलोद्धातं मध्यावकाशे प्रसारितत्वतडिनम् । नभःपुञ्जितविस्तृतं पतति दिक्षु गुरुत्वेन महीरजः ॥] मूले उद्गमस्थाने बहलो निबिड उद्घातो यस्य । अथ-मध्यावकाशे किंचिदूप्रदेशे करिकर्णतालादिना प्रसारितत्वेन तडिनं विरलम् । तदुक्तम्-'तडिनं विरले तुच्छे' । अनन्तरम्-नभसि सर्वतः समेत्य पुञ्जितं सद्विस्तृतं प्रसृतं मही-- रजः कर्तृ पश्चाद्दिक्षु पतति । प्रसारि भवतीत्यर्थः । केन । गुरुत्वेन । तथा च लघुत्वादुत्थितं वियति सर्वतो घनीभूय लब्धगुरुत्वं सत्पततीत्यर्थः ॥५०॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश विमला - रजसमूह पृथिवी पर घना था, किन्तु कुछ ऊपर पहुँच कर वही धूल फैल जाने से विरल हो गयी और आकाश में पहुँचने पर पुञ्जित एवं विस्तृत हो गयी, अतएव गुरुता के कारण सकल दिशाओं में गिरने लगी ।। ५०|| अथैषामेकीभावमाह C मुअइ भरेइ ण वसुहं गोड दिसाहि थएइ णु दिसाक्कम् । अद्दिट्ठणिग्गमवही पडइ हाहि गाणं विलग्गइ णु रओ ।। ५१ । [ मुञ्चति बिर्भात नु वसुधां निरैति दिग्भ्यः स्थगयति नु दिक्चक्रम् | अदृष्ट निर्गमपथं पतति नभसो गगनं विलगति नु रजः ॥ ] जो वसुधां मुञ्चति तु । अन्यत्र गमनात् । अथवा बिर्भात पूरयति नु । वसुधा- यामेव घनीभूय स्थितत्वात् । अथ - दिग्भ्यो निरैति निर्गच्छति नु । अत्रैव ततः -समागमादित एव गमनाद्वा । दिक्चक्र स्थगयति व्याप्नोति नु । अथवा अत्रैव नभसः पतति नु । इतो गमनं विलगति आक्रामति नु । सर्वत्र हेतुमाह - अदृष्टो निर्गमस्य प्रादुर्भावस्य पन्था यस्य तत् । तथा च- - सर्वत्र स्त्यानीभूतत्वेन कुतो निर्गच्छति वा गच्छतीत्येतरनिश्चयाभावादवस्तिर्यगूर्ध्वप्रसरण वितर्केण सकलव्यापकत्व - -मुक्तम् ।। ५१ ।। विमला -- सर्वत्र धूल की प्रगाढता के कारण यह निश्चय नहीं हो पाता था कि धूल कहाँ से उद्भूत हो रही है और कहाँ जा रही है । धूल पृथिवी को छोड़ रही है या पूर्ण कर रही है, दिशाओं से पृथिवी पर आ रही है या पृथिवी से उठकर दिशाओं को आच्छादित कर रही है, आकाश से पृथिवी पर गिर रही है या पृथिवी से आकाश को आक्रान्त कर रही है ॥५१॥ अथैषां सर्वदेहव्यापकत्वमाह - दीसइ रअणि अरबलं पवङ्गजोहेहि मंसलर अन्तरिअम् । प्रोसाहप्रस्स ठिअं पुरओ मणिपब्वअस्स व हअच्छाअम् ।। ५२ । [ दृश्यते रजनीचरबलं रजनीचरबलं प्लवङ्गयोधैर्मांसलरजोन्तरितम् । अवश्यायहतस्य स्थितं पुरतो मणिपर्वतस्येव हतच्छायम् ॥ ] प्लवङ्गयोधैः सह मांसलैर्घनै रजोभिरन्तरितं छन्नमत एव हतच्छायं हतप्रभं रजनीचरबलं दृश्यते । किंभूतमिव । अवश्यायेन तुषारेण हतस्य च्छन्नस्य मणिप्रधानपर्वतस्य पुरतः स्थितमिव । तथा च - स्वभावेन क्रोधेन चारुणवर्णाः प्लवङ्गा अपि रजश्छन्ना इत्यवश्यायच्छन्न मणिपर्वतत्वेनोपमिता इति सर्वेपां धूलिच्छन्नत्वमुक्तम् ।। ५२ ।। विमला - वानरयोद्धाओं समेत रजनीचर- सेना प्रगाढ धूल से आच्छादित, अतएव तुषाराच्छादित मणिपर्वत के सामने स्थित सी हतप्रभ दिखायी देती थी । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५७५ विमर्श-वानर स्वभावतः तथा क्रोध से लाल थे, अतएव धूल से आच्छादित मणिपर्वत के तुल्य कहे गये ॥५२॥ अथैषां नभसि प्रसरणमाह प्रोधसरि अधअवडो पसरइ मइलिअतुरङ्गममुहप्फेणो। कसमिहिअ व तणुओ णहम्मि सामलइयाअवो रमणिवहो ॥५३।। [ अवधूसरितध्वजपटः प्रसरति मलिनिततुरङ्गममुखफेनः । कृष्णमेधिकेव तनुको नभसि श्यामलितातपो रजोनिवहः ॥] तनुकः स्वल्प एव रजोनिवहो नभसि प्रसरति व्यापको भवति । कृष्णमेघिकेव । यथा कृष्णः स्वल्पो मेघो नभसि प्रसरति । किंभूतः । श्यामलितः पयामीकृत आतपो येन स तथा। मेघोऽप्येवम् । एवम्-मलिनितस्तुरङ्गममुखफेनो येन । तथा-अवधूसरिता ध्वजपटा येनेति भूमेरुत्थाय तुरङ्गमुखे लगित्वा पताकासु मिलित्वा क्रमेण गगनं व्याप्तवानित्युक्तम् ।।५३।। विमला-स्वल्प ही रज पृथिवी से उठ कर घोड़ों के मुंह में लग कर फेन को मलिन करती, तत्पश्चात् पताकाओं को धूसर करती हुई नभ में कृष्ण स्वल्प मेघ के समान आतप को श्याम ( मन्द ) करती व्याप्त हो गयी ॥५३।। अथैषां नैबिड्यमाह वाणररहसविसज्जि अणहङ्गणोवइअसेलमग्गणिराम्रो। रइणो कलुमच्छाओ पडइ पणालोझरो व्व किरणुज्जोओ ॥५४॥ [ वानररभसविसजितनभोलणावपतितशैलमार्गनिरायतः । रवेः कलुषच्छायः पतति प्रणालनिर्झर इव किरणोद्दयोतः ॥] रवेः किरणोद्दघोतः किरणप्रकाशः पतति । प्रणालनिर्झर इव प्रणालस्य सौधादिस्थितजलनिर्गमरन्ध्रस्य निर्झरो जलधारा यथा पतति तथैवेत्यर्थः । साम्ये बीजमाह-कीदृक् । वानर रभसेनोत्साहेन विसर्जितास्त्यक्ता अत एव नभोङ्गणादवपतिता ये शैलास्तेषां मार्गेण पतनवर्त्मना निरायतो दीर्घः । तथा च गिरिभिः स्वशरीरेणावष्टभ्य निजवम॑धूलीनामधोनयनादप्रतिबन्धेन तरणितेजसामधःपतनादन्यत्र तु धूलिभिः प्रतिरोधान्न तथेति भावः । पुनः कीदृक् । कलुषच्छायः परितः समागतरजःसंपर्कादिति कलुषत्वेन वर्तुलत्वेन दीर्घत्वेन च तत्तौल्यादुपमा ॥५४॥ विमला-वानरों ने उत्साह से जिन पर्वतों को ऊपर उठाकर आकाश से छोड़ा, उन्होंने गिरते समय अपने मार्ग की धूल को नीचे पहुंचा दिया था, अतएव उस मार्ग से सूर्य की किरणों का प्रकाश ( विना किसी प्रतिबन्ध के) नीचे सीधा आने के कारण दीर्घ हो गया और ( चारों ओर से समागत धूल के सम्पर्क से ) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] सेतुबन्धम् [त्रयोदश मटमैला भी हो गया, अतएव ( उच्चगृहों की छत में लगे हुये ) पनाले की जलधारा के समान वह नीचे ( पृथिवी पर ) गिर रहा था ॥५४॥ अथैषां खड्गादौ पिण्डीभावमाह कुविओहरिप्रणिसापरपवअदढक्खन्धपूरिअद्धन्तासु । मंसलमहुकोसणिहो बज्झउ बज्झरुहिरासिधारासु रओ॥५५॥ [ कुपितावहृतनिशाचरप्लवगदृढस्कन्धपूरितार्धान्तासु । मांसलमधुकोषनिभं बध्यते बद्धरुधिरासिधारासु रजः ॥] बद्धं स्त्यानीभूतं रुधिरं यासु तासु असिधारासु रजो बध्यते संबध्यते । दृढी. भवतीति यावत् । किंभूतासु । कुपितैर्निशाचरैरवहृतोऽवपातितोऽत एव प्लवगानां दृढ़ेऽपि स्कन्धे पूरितो व्याप्तः। मग्न इति यावत् । अर्धान्तो अग्रभागो यासां तासू । अत एवोत्थापनानन्तरं तत्रैव रुधिरसंपर्कादाईत्वेन संदानि[तत्वान्मांसलः स्थूलो यो मधुकोषश्छत्राकृतिमधूत्पत्तिस्थानं तत्तुल्यम् । वर्तुलत्वादिति भावः ।।५॥ विमला-कुपित निशाचरों ने तलवार का कस कर प्रहार किया, अतएव धार का अग्रभाग वानरों के दृढ स्कन्ध में धंस गया। उसे वहाँ से निकालने के बाद उस पर लगा रुधिर कुछ गाढ़ा हो गया, उस समय उस पर जो धूल पड़ी वह वहीं जमी रह गयी, झड़ी-बही नहीं, अतएव वह स्थूल मधुकोष ( छत्राकार मधु का उत्पत्तिस्थान ) के तुल्य शोभित थी ॥५५॥ अथैषां गजमुखे पङ्कीभावमाहरणपरिसक्कणविहला रइकिरणाहअकिलिन्तमणुलिश्रणषणा। णिव्वाअन्ति गइन्दा सीपरसंवलिरेणुकद्दमित्रमुहा ॥५६॥ [ रणपरिसर्पणविह्वला रविकिरणाहतक्लाम्यन्मुकुलितनयनाः। निर्वान्ति गजेन्द्राः शीकरसंवलितरेणुकर्दमितमुखाः ॥] रणे परिसर्पणेन भ्रमणेन विह्वलाः । अत एव रविकिरणराहताः स्पृष्टाः सन्तः क्लाम्यन्तोऽथ च मुकूलितनयना मुद्रिताक्षा गजेन्द्रा निर्वान्ति सुखिता भवन्ति । अत्र बीजमाह-शीकरसंवलितै रेणुभिः कर्द मितमुखाः संतापे सति निजोदरजलावसेकादाननलग्न रेणुपङ्केन शैत्योत्पत्तेरिति भावः ॥५६॥ । विमला-रण में भ्रमण करते-करते गज यों ही विह्वल थे, सूर्य की किरणों से आहत होने पर और अधिक विह्वल हो निमीलितनेत्र थे, उस समय उन पर जो धूल पड़ी उसने श्रमजन्य स्वेदशीकरों से युक्त होकर मुख को पङ्किल कर दिया, अतएव ( शीतलता उत्पन्न हो जाने से ) गज सुखी हुये ॥५६॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] अथैषां मूले विरलत्वमाह - मूलाहोकराला सोणिश्रसोत्तविहन्तरालपसरिआ । एक्क्मेण सम संबज्झन्ति उअर महिलउप्पीडा ॥५७॥ [ मूलाभोगकरालाः शोणितस्रोतो निवहान्तरालप्रसृताः । एकैकक्रमेण समं संबध्यन्ते उपरि महीरजउत्पीडाः ॥ ] महीरजसामुत्पीडा उपरि एकैकक्रमेण परस्परेण सममेकदेव संबध्यन्ते मिलन्ति । किंभूताः । शोणित (प्रवाह) निवहस्यान्तरालेषु प्रसृता उत्थिताः । अत एव - मूलभोगे मूलस्थाने कराला विरलाः । अयमर्थः - यत्र यत्र न शोणितप्रवाहस्तत्र तत्रोत्थिता अन्यत्र शोणितसत्त्वान्नोत्थिता इति मूले विरला अपि नभसि गत्वा मिथो मिश्रिताः ।। ५७ ।। रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् विमला - धूलराशि, जहाँ जहाँ शोणितप्रवाह नहीं थे वहाँ वहाँ उठी, अन्यत्र शोणित होने से नहीं, अतः मूल भाग में विरल होने पर भी ऊपर आकाश में जाकर सब धूलराशियां परस्पर मिलकर घनी हो गयीं ॥ ५७ ॥ [ ५७७ अथैषां नभसि खण्डखण्डीभावमाह जिव्वालेऊण णहे गअसुक्कारिअवलन्तधअवडतणुइम् । पवणो कड्ढइ विसमं छाश्रावहपट्ठधूसरं रमलेहम् ||५८ || [ निर्वाल्य नभसि गजसूत्कृतवलध्वजपटतनुकाम् । पवनः कर्षति विषमं छायापथपृष्ठधूसरां रजोलेखाम् ॥ ] पवनो रजोलेखां नभसि निर्वाल्य पृथक्कृत्य विषमं यथा स्यादेवं कर्षति । धाराक्रमेण स्थाने स्थाने प्रापयतीत्यर्थः । किंभूताम् । गजानां सूत्कृर्तरूर्ध्वश्वसितैर्वलतस्तिर्यग्व्रजन्तो ये ध्वजपटास्तत्समीपे तद्वत्तनुकां कृशाम् । तदुपरि च्छायापथो नभस्थितं सुरगजवर्त्म तत्पृष्ठवद्धसराम् । तथा चोपरि स्थितत्वेन धूसरत्वेन कृश - दीर्घत्वेन च पताकापटच्छायापथाभ्यामुपमा ॥ ५८|| विमला —-गजों ने सूंड ऊपर उठा कर जो साँस छोड़ी उससे चञ्चल ध्वज - पट के समीप रजरेखा उसी ( ध्वजपट ) के समान कृश थी एवं नभस्थित ऐरावतगज के मार्ग पृष्ठ के समान धूसर थी, आकाश में उस ( रजरेखा ) को पवन ने खण्ड-खण्ड कर विभिन्न स्थानों पर पहुँचा दिया || ५८ || अथैषां गजदृष्टिरोधकतामाह संरम्भइ दिट्ठवहं गआण महिमुहपहाविआण रणमुहे । मारुकम्पिज्जन्तो वअणन्भासम्म मुहवडो व्व महिरो ||५|| [ संरुणद्धि दृष्टिपथं गजानामभि नुखप्रधावितानां रणमुखे । मारुतकम्प्यमानो वदनाभ्याशे मुखपट इव महीरजः ॥ ] ३७ से० ब० Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश महीरजः कर्तृ रणमुखेऽभिमुखप्रधावितानां गजानां दृष्टिपथं संरुणद्धि । पुरो द्रष्टुं न ददातीत्यर्थः । अत एव कियन्तः शत्रवो जीवन्तीति भावः । किंभूतः । मारुतेन कम्प्यमानः प्रसार्यमाणः । अतएव वदनस्याभ्याशे निकटे मुखपट इव मुखाच्छादकपट इव । सोऽपि क्रुद्ध गजस्य मुखे दीयमानस्तदृष्टिपथं रुणद्धीत्युत्प्रेक्षा ।।५।। विमला-वायु द्वारा इधर-उधर प्रसारित होता महीरज, रण में अभिमुख दौड़ते गजों के मुख के निकट मुख-पट-सा गजों को देखने नहीं दे रहा था (अतएव कितने वीर शत्रु गजों के द्वारा मारे जाने से बच जाते थे)। विमर्श-ऋद्ध गज को नियन्त्रित करने के लिये उसके मुख पर एक वस्त्र लगा दिया जाता है, जिसे मुखपट कहते हैं। वह भी गज के दृष्टिपथ को अवरुद्ध करता है ॥५६॥ अथ द्वाभ्यामेषां क्रमेण प्रशान्तिमाह णवरि अभडवच्छत्थलवणग्गणिराप्रपत्थिउच्छलिप्राए । रुहिरणई अ महिरमो उम्मूलिपकूलपात्रवो व्व णिसुद्धो॥६०॥ [अनन्तरं च भटवक्षःस्थलव्रणमार्गनिरायतप्रस्थितोच्छ्वलितया। रुधिरनद्या च महीरज उन्मूलितकूलपादप इव निपातितम् ॥ ] रजोवृद्ध यनन्तरं च भटानां वक्षःस्थलेषु व्रणमार्गेभ्यो व्रणस्थानेभ्यो निरायतं दीर्घ यथा स्यादेवं प्रस्थितोच्छ्वलितया रुधिरनद्या महीरजो निपातितम् । मूले विच्छेदान्नाशितमित्यर्थः । कि( भूत )मिव । उन्मूलितस्य कुलस्य पादप इव । अन्ययाप्युच्छ्वलितया नद्या कूलमून्मूल्य वृक्षः पात्यते इत्युत्प्रेक्षा। वक्षःक्षतेन शौर्यमुक्तम् ॥६०॥ विमला-(पूर्वोक्त प्रकार से ) रज के बढ़ने के अनन्तर वीरों के वक्षःस्थल के व्रणस्थानों से जो लम्बी रुधिरनदी चल कर उमड़ी उससे रज उन्मूलित कूलवृक्ष-सा नष्ट कर दिया गया ॥६०॥ अर्थषां क्रमेणातिकार्यमाह पलहुणीहारणिहं संघाइअकमलणालतन्तुच्छाअम् । घोलइ दरवोच्छिण्णं मारुअभिण्णतलिणअिं रअसेसम् ॥६१॥ १. 'रजोऽयं रजसा साधं स्त्रीपुष्पगुणधूलिषु' इत्यजयकोषाद्रजशब्दस्याकारान्तस्य पुंलिङ्गत्वम्, एवं च 'कर्तृ' इति सामान्ये नपुंसकत्वे बोध्यम् । यहाँ 'रजः' धूलिवाची अकारान्त पुंल्लिङ्ग 'रज' प्रातिपदिक का प्रथमैकवचनान्त है। अतएव उसका विशेषण भी पुंल्लिग है। 'रजोऽयं रजसा साधं स्त्रीपुष्पगुणधूलिषु'--अजयकोष । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५७६ [प्रलघुकनीहारनिभं संघटितकमलनालतन्तुच्छायम् । घूर्णते दरव्यवच्छिन्नं मारुतभिन्नतडिनस्थितं रजःशेषम् ।।] रजःशेष रुधिरैरवशेषितं रजः प्रथमं दरव्यवच्छिन्नं रुधिरसंपर्केण मूलविच्छेदादीषत्पृथक्पृथ ग्भूतं तदनु मारुतेन भिन्न खण्डखण्डीकृतमतस्तडिन स्थितं विरलस्थित सत् घूर्णते । दिशि दिशि गच्छतीत्यर्थः । कीदृशम् । खण्डखण्डीभावेऽपि प्रलघुका बिन्दुरूपा ये नीहारास्तन्निभम् । वर्तुलाकारत्वात् पश्चात्संघटिता नालभङ्गादुत्पादिता ये कमलनालानां तन्तवस्तेषामिव च्छाया यस्य तथाभूतम् । वर्तुलाकारस्यैव खण्डस्य मारुतेन पुनः शतशो विच्छिद्य किंचिद्वयवहितस्थितदीर्घनानासूत्रसदृशीकृतत्वादिति । प्रथमं किंचिद्वयवच्छिन्नस्थितं, तदनु हिमबिन्दुवत् खण्डखण्डीभूतं पश्चादनेक बिसतन्तुवदूधिस्तिर्यक्क्रमेण कृशीभूय प्रसृतमित्यर्थः । पाण्डुरत्वेन हिमतन्तुभ्यां तौल्यम् ॥६१।। विमला-रुधिर से बचा-खचा रज पहिले ( रुधिर सम्पर्क से मूलविच्छेद के कारण ) थोड़ा पृथक् हुआ, तदनन्तर वायु से खण्ड-खण्ड किये जाने के कारण विरल, अतएव हिम बिन्दु के समान शोभित हुआ और तत्पश्चात् अनेक बिसतन्तुओं के समान कृश हो इधर-उधर फैल गया ।। ६१।। अथ गजानां पतनमाह रुम्भन्तुज्जु अमग्गं धराहरन्तरबलन्तणइसोत्तणिहम् । बलइ वलन्तध अवडं पडिप्रगइन्दणिवहन्तरालेसु बलम् ॥६२।। [ रुध्यमानर्जुकमार्ग धराधरान्तरवलन्नदीस्रोतोनिभम् । वलति वलध्वजपटं पतितगजेन्द्रनिवहान्तरालेषु बलम् ।।] पतितस्य गजेन्द्रनिवहस्यान्तरालेषु शून्यावकाशेषु बल (झूर्ण)द्ध्वजपटं सद्वलं चलति घूर्णते । किंभूतम् । रुध्यमानः ऋजुमार्गों यस्य तत् । तथा च पतितगजावरुद्धः संमुखमार्गत्वादवकाशेन गन्तुं बलस्य भ्रमणम् । तत एव पताकानामपीत्यर्थः । अत एव धराधराणामन्तरे वलद्वक्रीभवद्यन्नदोस्रोतस्तन्निभम् । यथा पर्वतावरुद्धपथतया संमुखमपहाय पर्वतयोरन्तरेण चलितुं नदीप्रवाहो वक्रीभवति तथेदमपीति । पर्वतर्गजानां, स्रोतसा बलस्य तौल्यादुपमा ॥६२।। विमला-गिरे हुये गजों से सामने का सरल मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण सेना अपनी पताकाओं को मोड़ती हुई स्वयं भी दो पतित गजों की पंक्तियों के बीच से जाने के लिये उसी प्रकार मुड़ गयी, जिस प्रकार पर्वत से सामने का मार्ग अवरुद्ध हो जाने पर नदी का प्रवाह दो पर्वतों के बीच वाले रिक्त प्रदेश से जाने के लिये मुड़ पड़ता है ॥६२।। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] सेतुबन्धम् [त्रयोदश अथ कपीनां पतनमाहदूसहसहिप्पहरा दुवोज्झविलग्गसमरणिवूढभरा। ओच्छण्ण दुग्गमपहा कअदुक्करपेसणा पडन्ति पवङ्गा ।।६३॥ [ दुःसहसोढप्रहारा दुर्वहविलग्नसमरनिव्यूंढभराः । अवक्षुण्णदुर्गमपथाः कृतदुष्करप्रेषणाः पतन्ति प्लवङ्गाः ॥] दुःसहाः सन्तः सोढा: प्रहारा यैः । एवम् -दुर्वहस्य दुःखनिर्वाहनीयस्य विल. ग्नस्योपगतस्य समरस्य नियूंढो निर्वाहितो भरो यैः । शत्रूणां जयात् । एवमअवक्षुण्ण आक्रान्तो दुर्गमः परागम्यः पन्था यैः। अथ च कृतं निष्पादितं दुष्करमसाध्यं प्रेषणं राजाज्ञा यः । एवंभूता अपि प्लवङ्गाः पतन्ति म्रियन्त इति रणस्य घोरत्वमुक्तम् ।।६३॥ विमला-यद्यपि वानरों ने दुःसह प्रहारों को झेल लिया था, भूतपूर्व अनेक दुर्वह संग्रामों के उत्तरदायित्व का निर्वाह भी किया था, दुर्गम पथ को आक्रान्त भी कर लिया था तथा राजा सुग्रीव की दुष्कर आज्ञा को निष्पन्न भी कर लिया था तथापि वे ( इस घोर रण में ) गिर रहे थे ।।६३।। अथ युद्धसमृद्धिमाहबन्धुवहबद्धवेरं सहस्सपूरणकबन्धजणिआमोअम् । वड्ढइ भडदिण्णरसं भुजपव्वलपहुअवीरपडणं जुज्झम् ।।६४॥ [ बन्धुवधबद्ध वैरं सहस्रपूरणकबन्धजनितामोदम् । वर्धते भटदत्तरसं भुजप्रबलप्रभूतवीरपतनं युद्धम् ॥] बन्धूनां पितृभ्रातृपितृव्यादीनां वधेन बद्धं वैरं यत्र । एवम्-सहस्रस्य पूरा यस्मात्तेन चरमेण क बन्धेन जनित आमोदो नर्तनं यत्र । सहस्रशूरपतने एक कबन्धो नत्यतीति प्रसिद्धिः । एवम्-भटेभ्यो दत्तो रस: प्रीतिर्येन । एवम्भुजाभ्यां प्रबलानां प्रभूतानामसंख्यानां वीराणां पतनं यत्र । तादृशं युद्धं वर्धते प्रकर्ष गच्छतीत्यर्थः ॥६४॥ विमला-युद्ध में बन्धुओं का वध होने से वैर बंध गया ( दृढतर हो गया ) सहस्र शूरों का पतन होने पर कबन्ध ( विना सिर का धड़ ) ने नृत्य कर आमो उत्पन्न कर दिया, उस (युद्ध ) ने वीरों को लड़ने का उत्साह दिया, भुजावं से असंख्य वीरों का उसमें पतन हुआ। इस प्रकार वह ( युद्ध) अपने चरा उत्कर्ष पर पहुँच चुका था ॥६४।। अथ शिवानां संभारमाह मणिबनधागअपुजिप्रसंणाहच्छेअवलअविण्णावेढम् । णेउं ण चएइ सिआ मूलुच्छिष्णगरु किसिम रस्स भुजम् ॥६५॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ मणिबन्धागत पुजित संनाहच्छेदवलयदत्तावेष्टम् नेतुं न शक्नोति शिवा मूलोच्छिन्नगुरुकं निशिचरस्य भुजम् ॥ ] शिवा सृगाली मूलात्स्कन्धादुच्छिन्नं कृतमत एव गुरुकं निशिचरस्य भुजं नेतुमन्यत्र प्रापयितुं न शक्नोति । किंभूतम् । मणिबन्धे करमूले आगतः सन् पुञ्जितो यः संनाहच्छेदवलयो वलयाकृतिः संनाहच्छेदस्तेन दत्तमावेष्टं चतुर्दिक्षु वर्तनं यत्र । स्कन्धे खड्गपातात् संनाहसहितस्य भुजस्य छेदे संनाहः संसृत्य करमूलमागत्य वर्तुलीभूय स्थित इत्यामूल च्छेदादेव गुरुकस्य भुजस्य संनाहेनातिगुरुत्वादुतोलयितुं न पारयतीत्यर्थः ॥ ६५ ॥ | विमला - निशाचरों की भुजायें स्कन्ध प्रदेश से कट कर गिरी थीं, अतएव स्वभावत: ही भारी थीं; दूसरे संनाहसहित कट कर गिरने से संनाह ( कवच ) सरक कर [ मणिबन्ध ] कलाई पर आकर पुञ्जित हो स्थित था, अतएव वे अत्यन्त भारी हो गयी थीं; अत: सियारेन - वृन्द एक-एक करके एक-एक भुजा को उठा कर अथवा घसीट कर अन्यत्र नहीं ले जा पाता था || ६५|| अथ रुधिरसरित्प्रवाहमाह - आवत्तन्तरवलिआ रुहिरणिहाएस पासबद्ध फेणा । ओल्लन्तपम्हगरुआ प्रत्थानन्ति पडिऊण चमरुपीडा ॥ ६६ ॥ [ आवर्तान्तरवलिता रुधिरनिघातेषु पार्श्वबद्धफेनाः । आर्द्रायमाणपक्ष्मगुरुका अस्तायन्ते पतित्वा चामरोत्पीडाः ॥ ] चामराणामुत्पीडाः रुधिरनिघातेषु पतित्वा आवर्तान्तरे रुधिरभ्रमिमध्ये afear भ्रमिताः सन्तोऽस्तायन्ते मज्जन्ति । अत्र हेतुमाह - किंभूताः । रुधिरसंपकायमाणैः पक्ष्मभिः केशैर्गुरुका यतः । एवं पार्श्वे प्रान्ते बद्धा लग्नाः फेना यत्र । 'चमरचामरोऽपि चे 'ति शब्दभेदः || ६६॥ विमला— रुधिर के सम्पर्क से चँवरों के केश आर्द्र हो गये और उनके पार्श्व - भागों में फेन लग गये, अतएव भारी हो जाने से वे रुधिर में गिर कर उसकी भँवर में चक्कर काटते हुए डूब गये || ६६।। अथ गजानां वैक्लव्यमाह - [ ५८१ उद्धमुहमुक्कणाआ पुग्वद्धभरोसिअन्तपच्छिमभाऊ । कुम्भे पवअसिलाह अखुप्पन्तुद्धङ्कुसे धुणन्ति गइ दा ॥ ६७ ॥ [ ऊर्ध्वमुखमुक्तनादाः पूर्वार्ध भराव सीदत्पश्चिमभागाः । कुम्भान्प्लवगशिलाहतनिखायमानोर्ध्वाङ्कुशान्धुन्वन्ति गजेन्द्राः ॥ ] गजेन्द्राः प्लवगैः शिलाभिराहतस्ताडितः सन् निखायमानोऽन्तः प्रवेशित ऊर्ध्वं उपरिवर्ती ऊर्ध्वदण्डो वा अङ्कुशो यत्र तान् कुम्भाम् धुन्वन्ति चालयन्ति । कुम्भे Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश पूर्वारोपित एवाङ्कुशः शिलाभिघातेन मग्नः । तदुद्धारार्थमिति भावः । पीडावशेन वा । अत एव किभूताः। ऊर्ध्वमुखाः सन्तो मुक्तनादाः कृतचीत्काराः । अथ चपूर्वार्धस्योत्तोलितस्कन्धभागस्य भरेणावसीदन् यन्त्रित: पश्चिमभागोऽधःस्थितनितम्बप्रदेशो येषामिति जातिरलंकारः ॥६७॥ विमला-कुम्भस्थल पर पहिले से आरोपित होने के कारण अकुश का दण्ड ऊपर को था, उस समय वानरों के द्वारा शिलाओं से ताडित कर अङ्कुश कुम्भस्थल के भीतर अधिक दूर तक धंसा दिया गया, अतएव ( उसे निकालने के लिये अथवा पीडावश ) गजेन्द्र ऊर्ध्वमुख हो चीत्कार करते हुये कुम्भस्थल को हिला-हिला कर झकझोर रहे थे और ऊपर उठाये गये स्कन्ध भाग के भार से नीचे स्थित नितम्ब प्रदेश अत्यन्त पीडित हो रहा था ।।६७।। अथ राक्षसानामपयानमाह अह पवअभरुभन्ता पहरुज्ज अति असभङ्गदाणसमु इमा। जाआ रक्खसजोहा पढमग्गअदुक्करं पडिवहाहिमहा ।।६८॥ [ अथ प्लवगभरोभ्रान्ताः प्रहारऋजुकत्रिदशभङ्गदानसमुचिताः । जाता राक्षसयोधाः प्रथमोद्गतदुष्करं प्रतिपथाभिमुखाः ।।] अथ गजवैकल्यानन्तरं राक्षसयोधाः प्रतिपथाभिमुखाः प्रतीपगमनोन्मुखा जाताः। प्रथममुद्गतमुपस्थितमत एव दुष्करं यथा स्यात् । राक्षसानां युधि पलायनमिदं प्रथममेवोपस्थितमिति लज्जावशादिति भावः । किं भूताः । प्लवगानां भरेणाधिक्येनो भ्रान्ता दिशि दिशि गच्छन्तः । प्लवगानाक्रान्तदेशालाभादिति भावः । एवम्प्रहारे युद्धे ऋजुका निष्कपटा अकपटयोधिनो ये त्रिदशास्तेषां भङ्गदाने समुचिता योग्या: । तज्जेतार इत्यर्थः ॥६॥ विमला-निष्कपट युद्ध करने वाले देवों को युद्ध में जीतने वाले राक्षस, वानरों के अधिक्य से ( वानररहित प्रदेश न पाने के कारण ) प्रत्येक दिशा में जाते हुये पलायनोन्मुख हो गये, यद्यपि यह पलायन प्रथम वार होने के कारण ( लज्जावश ) दुष्कर हो रहा था ॥६८॥ अथ परावत्तिमाह भग्गोणि अत्तिप्रगअं भमिश्र ठाणपरिवत्तियोभग्गरहम् । एक्कपअलि अजोहं मण्डलिदिण्णतुरअं णिसाअरसेण्णम् ॥ [भग्नापनिवर्तितगजं भ्रमितं स्थानपरिवर्तितावभग्नरथम् । एकपदवलितयोधं मण्डलीदत्ततुरगं निशाचरसैन्यम् ॥] निशाचरसैन्यं भ्रमितम् । युद्धाय पुनः परावृत्तमित्यर्थः। कीदशम् । भग्नाः पलायिताः सन्तोऽपनिवर्तिता युद्धसंमुखीकृता गजा यत्र । एवम्-स्थाने परिवर्तिता Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५८३ युद्धाय भ्रामिता अवभग्ना विमुखा रथा यत्र । एवम्--एकपदेनकोपक्रमेण वलिता वक्रीभूता योधाः पत्तयो यत्र । तथा-मण्डल्यां गतिविशेषे दत्ता: प्रेरितास्तुरगा यत्र । मण्डलीगत्येव परावर्तिताश्वमित्यर्थः । तेन हस्त्यश्वरथपादातरूपचतुरङ्गबलपरावृत्तिरुक्ता । केचित्तु भ्रमितं पश्चाद्गतमिति व्याख्याय पलायनपरतयैव स्कन्धकमिदं व्याचक्षते । एतदनुसारेणानिमानिममपि तथेति स्फुटत्वान्न व्याख्यातम् ॥६६॥ विमला-( लज्जा का हेतु होने से पलायन का अनौचित्य सोच कर ) निशाचर सेना युद्ध के लिये पुन : घूम पड़ी। भागे हुये गजों को युद्ध सम्मुख कर दिया, विमुख हुये रथों को युद्ध के लिये घुमा दिया, पैदल सैनिक एकमुख मुड़ गये तथा घोड़ों को मण्डली ( गतिविशेष ) से लौटा दिया ।।६।। अथ पुनः पलायनमाह अमरिसविस्थक्कन्ता वि दलाअन्ति भमिऊण गलिआमरिसा। ईसिविअत्तच्छूडा णिन्भीप्रल्लीणवाणरा रअणि ॥७॥ [ अमर्षवितिष्ठमाना वि(अपि)पलायन्ते भ्रमित्वा गलितामर्षाः । ईषद्विवृत्तक्षिप्ता निर्भीतालीनवानरा रजनीचराः ।।] निर्भीता अत एवालीनाः संगता वानरा येषां ते रजनीचरा युद्धाय ईषद्विवृत्ताः परावृत्ता अथ क्षिप्ताः प्रेरिता: सन्तः। कपिभिरित्यर्थात् । पुनरपि भ्रमित्वा परावृत्य पलायन्ते । किंभूताः । प्रथमममर्षेण वितिष्ठमाना विलम्बिता अनन्तरं गलितामर्षा ईर्ष्याशून्याः । प्राणकातरत्वादिति भावः ।।७।। विमला-रजनीचर युद्ध के लिये थोड़ा लौटे और ईष्यावश कुछ समय तक अड़े भी, किन्तु निर्भक वानरों के भिड़ने पर दब कर ईर्ष्याशून्य हो वे पुनः भाग खड़े हुये ॥७०॥ अथ पलायनावस्थामाह -- रहसंदाणिअतुर अं तुरङ्गमोरथलक्खलिअपाइक्कम् । पाइक्काबलि अगअं गअभज्जन्तरहसंकुलं वलइ बलम् ॥७१॥ [ रथसंदानिततुरगं तुरङ्गमोरःस्थलस्खलितपदातिकम् । पदात्यावलितगजं गजभज्यमानरथसंकुलं वलति बलम् ।।] निशाचराणां बलं वलति घूर्णते । किंभूतम् । रथैः संदानिता मिलितास्तुरगा यत्र । एवम् --तुरङ्गमाणामुरःस्थलात्स्खलिता घटिताः पदातयो यत्र । पदातिभिरावलिताः पृष्ठे तुरङ्गमातिक्रमादुपरुद्धा गजा यत्र तत् । गजैर्भज्यमाना ये रथास्तैः संकुलमेकीभूतम् । गजै रथा रथैरश्ववारास्तैः पत्तय: पत्तिभिश्च गजा उपर्युपरि पतित्वातिक्रान्ता इति चतुरङ्गबलविपर्यास उक्तः ।।७१।। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश विमला-निशाचरों की सेना में वह भगदड़ मची कि रथ ( सवारसहित ) घोड़ों पर गिर कर घोड़ों को तथा घोड़ों ने अपने उरस्थल से पैदल सैनिकों को तितर-वितर एवम् अतिक्रान्त कर दिया, पैदल सैनिकों ने ( पीछे घोड़ों के अतिक्रमण से ) गजों को उपरुद्ध कर दिया और गजों ने रथों को भग्न कर दिया ॥७१॥ अथ कपीनां विश्राममाह - ससइ विसमुद्धकम्पं गरुमाअन्तभु अलम्बिओभग्गदुमम् । विहलोसरिअपडिभडं सण्णोवाहिअणिसाअरं पवनबलम् ॥७२॥ [ श्वसिति विषमोर्ध्वकम्पं गुरुकायमाणभुजलम्बितावभग्नद्रुमम् । विह्वलापसृतप्रतिभटं सन्नापवाहितनिशाचरं प्लवगबलम् ।। ] विषमस्तिर्यक्त्वादूर्ध्वः कम्पो यस्य तत्प्लवगबलं श्वसिति मारणीयापयानेन विश्रामश्वासं त्यजति । तत एव शिरःप्रभृत्यङ्गकम्प इत्यर्थः । किंभूतम् । विपक्षापयाने सति श्रमज्ञानाज्जडीभावेन गुरुकायमाणाभ्यां भुजाभ्यां लम्बिता अधः संसृता अवभग्ना विपक्षाभिघातेन च विशीर्णशाखापत्रा द्रुमा यस्य । एवम्-विह्वलाः सन्तोऽपसृताः पलायिताः प्रतिभटा यस्य । एवम्-सन्ना अवसन्ना अपवाहिताः पातिता निशाचरा येन तत्तथा। कियन्तो मारिताः कियन्तः पलायिता इत्यर्थः ॥७२॥ विमला-शत्रु (निशाचर ) के भाग जाने पर ( थकान का अनुभव होने से ) भारी मालूम पड़ती भुजाओं से वानरों के ( अस्त्ररूप ) वृक्ष नीचे सरक गये जो ( शत्रुओं पर अभिघात करने से ) शाखाओं और पत्तों से रहित हो चुके थे, प्रतिद्वन्द्वी विह्वल हो भाग चुके थे, कितने मारे भी गये और कितने निशाचर भाग चुके थे, तब वानरों की सेना ने ( विश्राम की ) साँस ली, जिससे सिर आदि अङ्गों में कम्पन उत्पन्न हो गया ।।७२।। अथ रक्षसां पुनः परावृत्तीच्छामाहअक्खण्डिअसोडीरा पवआणि अपढममाणभङ्गावसरा । भग्गा वि भमन्ति पूणो णीसेसं रक्खसा ण गेलन्ति भयम् ॥७३॥ [ अखण्डितशौण्डीर्याः प्लवगानीतप्रथममानभङ्गावसराः । - भग्ना अपि भ्रमन्ति पुननिःशेष राक्षसा न गृह्णन्ति भयम् ॥] यतोऽखण्डितशौण्डीर्या अखण्डिताहंकारा अतो भग्ना अपि राक्षसाः पुनर्धमन्ति । युद्धाय निवर्तितुमित्यर्थात् । किंभूताः। प्लवगै रानीत उपस्थापितः हि प्रथमस्य मानभङ्गस्यावसरः समयो येषां ते। प्रथमोऽवसरो वा। अन्यदा कदापि येषां मानभङ्गो न जात इत्यर्थः। अत एवासह्यतया निवर्तन मिति भावः । यतो भ्रमन्ति तत एव ज्ञायते नि:शेष भयं न गृहन्ति । अन्यथा पलायनमेव कुयु रिति भावः ॥७३॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५८५ विमला-वानरों के द्वारा राक्षसों के मानभङ्ग का यह प्रथम अवसर उपस्थित किया गया था, कभी उनका अहङ्कार खण्डित नहीं हुआ था। अतएव ( यह पलायन असह्य होने से ) निशाचर पुनः युद्ध के लिये घूम पड़े। उनके घूम पड़ने से ही यह ज्ञात हुआ कि वे बिल्कुल ही भय नहीं खाते ।।७३।। अथ चतुर्भिः कुलकेन पलायनमेवैषामाह तह वि अ दरपरिवत्तिभचक्कल इज्जन्तगरुअचक्करहवहम् । विस्थक्कन्तपहाविअसमत्थसंठावणाविढ़त्तरणजसम् ॥७४॥ याणरपरंमुहोणामिअद्धमोडिलिलाडवाणसिअरम् । परसेण्णकल अलाहित्थपडिणिअत्तन्तगअविओलारोहम् ॥७ ॥ चलवाणराणधाविअवालधरिज्जन्तणिच्चलट् ठिअतुरअम् । णिहभडपडिअसारहिपवङ्गर्भसिमतुरङ्गहोरन्तरहम् ॥७६॥ धारामगणिवाइअबलपडिहअविरलबाणपिनअमग्गम् । भग्गं गलन्तपहरणसुण्ण इअोहप्रभु मिसाअरसेण्णम् ॥७७॥ ( 'अन्त्यकुलअम् ) [ तथापि च दरपरिवर्तितचक्रायमाणगुरुकचक्ररथपथम् । वितिष्ठमानप्रधावितसमर्थसंस्थापनार्जितरणयशः वानरपराङ्मुखावनामितार्धमोटितललाटपट्टनिशिचरम् । परसैन्यकलकलोद्विग्नप्रतिनिवर्तमानगजविलोलारोहम् ॥ चलवानरानुधावितवालध्रियमाणनिश्चलस्थिततुरगम् । निहतभटपतितसारथिप्लवङ्गभीषिततुरङ्गह्रियमाणरथम् ।। धारामार्गनिपातितबलप्रतिहतविरलवानरोन्नीतमार्गम् । भग्नं गलत्प्रहरणशून्यीकृतोभयभुजं निशाचरसैन्यम् ॥ ] (अन्त्यकुलकम् ) यद्यपि युद्धाय साकाङ्क्ष तथापि निशाचरसैन्यं भग्नमित्य ग्रिमचतुर्थेनान्वयः । कपीनामुग्रतया पलायितमित्यर्थः । दरपरिवर्तितः किंचिद् भ्रामितोऽत एव चक्रायमाणश्चक्राकृतिर्गुरुकचक्रस्य रथस्य पन्था यत्र । परावृत्त्यै रथभ्रामणे तिर्यक् चलिततच्चकोल्लिखितः पन्था अपि चक्राकृतिरभूदित्यर्थः । अत एव घर्षणसंपादकत्वेन गुरुकेति चक्र विशेषणमिति वयम् । संप्रदायस्तु-'दरपरिवर्तितान्यत एव चक्रायमाणानि गुरूणि चक्राणि येषां तादृशानां रथानां पन्था यत्र' इत्याह । एवं वितिष्ठमानयुद्धार्थमवस्थितैः, अथ च पलायितानां परावर्तनाय प्रधावितरितस्ततो गच्छद्भिः १. अयं पाठः सटीकपुस्तके नास्ति । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश यत्र । समर्थे: संस्थापनाय माभैरित्यादि समाश्वासनवाक्येनार्जितं रणे यशो यत्र । एवं रणाय परानाश्वासयामास तेनैव यशो लब्धमित्यर्थः । यद्वा - वितिष्ठमानैः प्रधावितानां पलायितानां समस्तानां संस्थापनायेत्यन्वयः । किंभूतं सैन्यम् । वानरैः पराङ्मुखीकृत्यावनामिता:, अत एवार्धमोटितं ललाटपट्ट येषां तथाभूता निशिचरा तत्पलायनादन्यतो मुखानां निशाचराणां पृष्ठतो गत्वा कपिभिर्धृतस्य शिरसः स्वाभिमुखीकरणाय यदावर्तनं तत्प्रतिबन्धादेव ललाटस्यार्धमोटितत्वमित्यर्थः । एवम् - जयोत्साहजनितेन वानरसैन्यकलकलेनोद्विग्नेभ्यस्त्रस्तेभ्यस्तत एव प्रतिनिवर्तमानेभ्यः पलायमानेभ्यो गजेभ्यो विलोलाश्चञ्चलाः । पतिता इति यावत् । आरोहा हस्तिपका यत्र । गजानामुद्वृत्तगत्या हस्तिपकानां पतनमित्यर्थः । एवम् — चलैर्वानरैरनुधाविताः पृष्ठतोऽनुगताः, अत एव वाले सरे पुच्छके बा ध्रियमाणाः सन्तो निश्चलस्थितास्तुरगा यत्र । कपिभिर्धृतत्वेन प्रतिरुद्धगतित्वात् । एवम् - निहतो भटो रथी यस्य पतितः सारथिर्यस्य तादृश एव प्लवङ्गेन भीषितैः कोलाहलादिना त्रासितैस्तुरङ्गैह्रियमाणा रथा यत्र । पलायिताश्वपृष्ठलग्नाः शून्या एव रथा गच्छन्तीत्यर्थः । धारामार्गे संग्रामे निपातितं यद्बलं करितुरगादि तेन हेतुना प्रतिहता विच्छिन्ना अत एव विरलाः स्थाने स्थाने प्रवृत्ताः सन्तो वानरैरुनीता ऊहिता मार्गा यस्या गन्तॄणां हतत्वेन धाराकारत्वाभावाद्वर्त्मनो विरलत्वमत एवात्र संचारचिह्नमनेन गता इत्यादि कवि (पि) तर्कप्रसक्तिरित्यर्थः । एवम् - गलद्भिः प्रहरणैरस्त्रैः शून्यीकृता उभये भुजा यस्य तादृशम् । भयेनास्त्रमपि स्खलितं त्यक्तं चेत्यर्थः ॥७४-७७।। विमला — निशाचर -सेना युद्ध के लिये साकाङ्क्ष होने पर भी पुनः भाग खड़ी हुई । लौटाने के लिये जो घुमाया तो भारी पहिये के टेढ़े चलने से लीक द्वारा रथ का मार्ग भी चक्राकार हो गया । युद्धार्थ खड़े रहने वाले समर्थ ( राक्षसवीरों ने) दौड़-दौड़कर भागने वालों को लौटाने के लिए आश्वासन देते हुए यश प्राप्त किया । मुँह मोड़ कर भागते हुए राक्षसों के पीछे पहुँच कर वानरों ने सिर पकड़ कर अपने सामने करने के लिये जो घुमाया तो घुमाने से ही उनके ललाट अधटुटे हो गये । वानरों के कलकल से त्रस्त हो भागते हुए गजों से उनके हाथीवान गिर गये । चञ्चल वानरों ने भागते हुए घोड़ों के पीछे पहुँच कर उनकी पूँछ पकड़ कर उन्हें खड़ा कर दिया । कोलाहलादि से वानरों के द्वारा त्रस्त किये गये घोड़े, रथी के मर जाने तथा सारथि के गिर जाने से खाली रथ को खींचे ले जा रहे थे । युद्ध में मर कर गिरी हुई सेना का मार्ग विच्छिन्न हो गया, थोड़ी-थोड़ी दूर पर कहीं-कहीं वह मालूम पड़ता, अतएव वानर तर्क -बल से उसका अनुमान लगाते थे ! ( भय से ) वीरों की दोनों भुजायें अस्त्रों के गिर जाने के कारण सूनी थीं ||७४-७७।। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५८७ अथैषां परावृत्तिमाह अह हिप्रमच्छरलहुआ एक्कक्कमचक्खुरक्खणाहिअहिअआ । हिअआवडिअदहमुहा वलिजा पडिमुक्करण मना रअणिभरा ॥७८।। [ अथ हृतमत्सरलघुका एककक्रमचक्षूरक्षणाहितहृदयाः। हृदयापतितदशमुखा वलिताः प्रतिमुक्तरणभया रजनीचराः ।।] अथ पलायनानन्तरं रजनीचरा हृदये आपतितो दशमुखो येषां तथाभूताः, अत एव प्रतिमुक्तरणभयाः सन्तो वलिता पूणिताः । युद्धं त्यक्त्वा गन्तव्यं तदा दशमुखो मारयिष्यतीति युद्धमेव वरमिति भीतिमुत्सृज्य पुनर्युद्धाय परावृत्ता इत्यर्थः । किंभूताः । हृतमत्सरत्वेन मात्सर्यशून्यत्वेन लघुका निःसाराः । मात्सर्ये सति पलायनमेव स्यादिति भावः । एवम्-एकैकक्रमेण परस्परं चक्षुषां रक्षणे आ हितान्यपितानि हृदयानि यस्ते । चक्षुः संमुखे लज्जया परस्परं त्यक्तुमपारयन्त इति सहैव परावृत्ता इति भावः ।।७८॥ विमला-राक्षस ( पलायन के समय ) अभिमान नष्ट होने से निःसार थे तथा उनका हृदय एक-दूसरे की ओर लज्जा से दृष्टिपात न कर सकने के कारण आँख बचाने में ही लगा हुआ था, हृदय में रावण का ध्यान आ जाने पर (उसके द्वारा मार डाले जाने के भय से ) युद्ध का भय छोड़ कर एक साथ ही लड़ने के लिये वे घूम पड़े ॥७८॥ अथैषां पुनः पौरुषमाह वोच्छिण्णसंधिअजसा होन्ति णिअत्तसमुहविअसोडीरा। कइबलदुप्परिअल्ला सिढिलि अपडिवण्णरणधुरा रअणिअरा ॥७९॥ [व्यवच्छिन्नसंहितयशसो भवन्ति निवृत्तसंमुखस्थापितशौण्डीर्याः। कपिबलदुष्परिकलनीयाः शिथिलितप्रतिपन्नरणधुरा रजनीचराः ॥] शिथिलिता त्यक्ता अथ प्रतिपन्ना स्वीकृता रणधुरा यस्ते रजनीचरा भवन्ति । कीदृशाः । प्रथमं व्यवच्छिन्नं त्रुटितमनन्तरं संहितं सूत्रबद्योजितं यशो यस्ते तथा । एवम्-निवृत्त मपगतं पश्चात्संमुखे स्थापितं शौण्डीर्य महंकारो यैः । एवम्-कपिबलैर्दुष्परिकलनीया दुराधर्षाः । तथा च-यशःशौण्डीयं दुर्धर्षत्वं च भङ्गादपगतम्, युद्धाय परावृत्त्य पुनरागतमित्यर्थः ।।७।। विमला-रजनीचरों ने शिथिल किये गये रण के उत्तरदायित्व को पुनः स्वीकार किया, टूटे हुए यश को ( सूत्रवत् ) पुनः जोड़ लिया तथा हटे हुए अहंकार को पुनः स्थापित किया, अतएव वे कपिसेना के द्वारा दुराधर्ष हो गये ।।६।। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् ८८ ] अथ पुनर्युद्धमाह 7 तो भङ्गलज्जिआणं परिवढिप्रपसरहरिसिआण अ गरुत्रम् । रअणिरवाणराणं वरिआनारिअभडं पवट्टइ जुज्झम् ॥८०॥ [ ततो भङ्गलज्जितानां परिवर्धित प्रसरहर्षितानां च गुरुकम् । रजनीचरवानराणां वृताकारितभटं प्रवर्तते युद्धम् ॥ ] ततस्तदनन्तरं भङ्गेन लज्जितानां रजनीचराणां परिवधितेन प्रसरेण हर्षितानां च वानराणां गुरुकं युद्धं प्रवर्तते । किंभूतम् । वृतोऽमुकेन समं मया योद्धव्यमिति स्वीकृतः सन्नाकारितो आहूतो भटो यत्र तदिति संप्रदायः । वस्तुतस्तु—भङ्गेन हेतुना मया पराजितमिति रक्षसा कातरेण समं मम युद्धमभूदिति कपीनां [च] लज्जेत्यर्थः । परावृत्तिलक्षणेन च परिवर्धितप्रसरेणोभयेषामपि हर्ष इत्युभयमप्यु - भयविशेषणमिति न द्वन्द्वानुपपत्तिरिति वयम् ||८०|| विमला - भागने से लज्जित वानरों तथा ( विजयी होने के कारण ) बढ़े हुये प्रसार के कारण हर्षित वानरों ने परस्पर अपना-अपना जोड़ा चुन कर उन्हें चुनौती दी और उनका महान् युद्ध पुनः प्रारम्भ हो गया ॥ ८० ॥ [ त्रयोदश अथ सुग्रीवप्रजङ्घयोर्द्वन्द्वयुद्धमाह सुग्गीवेण पअङ्को सत्तच्छअपाअवेण दिष्णरणसुहो । वणगदाण सुरहिणा वच्छुच्छ लिअकुसुमट्टहासेण हओ ||८१|| [ सुग्रीवेण प्रजङ्घः सप्तच्छदपादपेन दत्तरणसुखः । वनगजदानसुरभिणा वक्ष उच्छ्वलितकुसुमाट्टहासेन हतः ॥ ] सुग्रीवेण सेनामुखे पतितत्वाच्चिरं कृतयुद्धत्वाच्च दत्तरणसुखः प्रजङ्घो नाम राक्षसः सप्तच्छदपादपेन करणीभूतेन हतस्ताडितः । पादपेन किंभूतेन । वनगजानां सुरभिणा । एतेन मत्तगजगण्डकण्डूयन सहत्वेन महत्त्वमुक्तम् । दानवद्वा । एवम् - वक्षसः । प्रजङ्घस्येत्यर्थात् । वक्षसि उच्छ्वलितानि कुसुमान्येवाट्टहासो यस्य तेन । साधु ताडितोऽयं मत्प्रहारसहो न भवतीति वृक्षोपहासविषयोऽभूदित्युत्प्रेक्षा ॥ ८१ ॥ विमला — प्रजङ्घ नामक रजनीचर ने ( सामने आकर घोर युद्ध करने से ) रण का सुख दिया, किन्तु सुग्रीव ने वनगजों के ( कपोलघर्षण के कारण ) मदजल से सुरभित सप्तच्छद ( छतिवन ) वृक्ष से उसे प्रताड़ित कर गिरा दिया, उस समय प्रजङ्घ के वक्ष:स्थल पर गिरकर पड़े हुये फूलों से यह प्रतीत हुआ कि मानों वह वृक्ष ( अपना प्रहार प्रजङ्घ से सह्य न होने पर ) अट्टहास कर रहा था ॥ ८१ ॥ द्विविदाशनिप्रभयोस्तदाह दिविग्रहअस्स समरे सुरहि उरपडिअसरसचन्दणगन्धम् । असहिस्स जीअं अग्धा अन्तसु हिओणि मिल्लस्स गनम् ॥ ६२ ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५८६ [द्विविदाहतस्य समरे सुरभिमुरःपतितसरसचन्दनगन्धम् । __अशनिप्रभस्य जीव आजिघ्रत्सुखितावनिमीलतो गतः ॥] समरे द्विविदेनाहतस्य । चन्दनेनेत्यर्थात् । अशनिप्रभस्य रक्षसो जीवो गतः । किंभूतस्य । सुरभिमुरसि पतितस्य सरसचन्दनस्य गन्धमाजिघ्रतः सतः सुखितस्य, अत एवावनिमीलतो मुद्रितनयनस्य । तथा च-मूर्छापूर्वकमरणजन्यदृष्टिमुद्रणं चन्दनगन्धाघ्राणसुखहेतुकत्वेनोत्प्रेक्षितम् ।।८२॥ विमला-द्विविद ( वानर ) ने अशनिप्रभ ( रजनीचर ) को चन्दनपादप से मार गिराया और उसका जीव चला गया। उस समय मानों हृदय पर गिरे हुए सरस चन्दन की सुगन्ध को सूघते हुए उसने अपनी आँखें मूद लीं ।।२।। मैन्दवज्रमुष्टयोस्तदाहहन्तूण वज्जमुठि हसइ मइन्दो वि मुठिधाअणि सद्धम् । पाहियदि ठिणिग्गअज लणसिहाअम्बफुडिअलोअणजुगलम्।।८३॥ [ हत्वा वज्रमुष्टि हसति मैन्दोऽपि मुष्टिघातनिपातितम् । उद्विग्नदृष्टिनिर्गतज्वलनशिखाताम्रस्फुटितलोचनयुगलम् ॥] वज्रमुष्टि राक्षसं हत्वा मैन्दोऽपि द्विविदभ्राता हसति । हठादेव मृत इत्याशयात् । किंभूतम् । मुष्टिधातेन निपातितम् । एवम्-उद्विग्नाभ्यां दृष्टिभ्यां निर्गता या ज्वलनशिखा क्रोधात् तया आताम्र सत स्फुटितं मुष्टिघातादेव बहिर्भूतं स्फुरितं दीप्तं वा लोचनयुगलं यस्य तम् ।।८३॥ विमला-मुक्के के प्रहार से गिराये गये, उद्विग्न नेत्रों से निकलीं अग्निशिखा से लाल एवम् उद्दीप्त नेत्र वाले वज्रमुष्टि ( रजनीचर ) की मार कर मैन्द ( द्विविद का भाई ) भी हँसा ॥३॥ सुषेणविद्युन्मालिनोस्तदाहकुविएण विज्जुमाली चिरजुज्झअहरिसिम्रो सुसेणेण कओ। चलणजुअलावलम्बिअणक्खुक्खित्तखुडिओहअभुअप्फडिहो ॥४॥ [ कुपितेन विद्युन्माली चिरयुद्धहर्षितः सुषेणेन कृतः । चरणयुगलावलम्बितनखोत्क्षिप्तखण्डितोभयभुजपरिघः ॥] सुग्रीवश्वशुरेण वानरवैद्येन सुषेणेन कुपितेन सता विद्युन्माली नाम राक्षसश्चरणयुगलेनावलम्बितौ भूमाववष्टब्धौ अथ पूर्व निपातानियमात् करद्वयनखैः खण्डितावुत्पाटितावथोत्क्षिप्तौ क्वचित्प्रेरितावुभयभुजपरिघौ यस्य तादृक् कृतः । भूमौ पद्भ्यामवष्टभ्य नखैरुकृत्त्य भुजद्वयमन्यतः क्षिप्तमित्यर्थः ॥४॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश विमला - विद्युन्माली ( रजनीचर ) चिरयुद्ध से हर्षित हुआ तो सुषेण ( सुग्रीव का ससुर और वानरवैद्य ) ने कुपित होकर उसकी परिघ - ( लोहदण्ड ) - तुल्य भुजाओं को दोनों पैरों से पृथिवी पर दबा कर नखों से चीर-फाड़ कर अलग फेंक दिया ॥ ८४ ॥ नलतपनयोस्तदाह सहिअपहरं णलेण वि तवणस्स तलाहिघाअमोडिकण्ठम् । मिहिअ देहम्मि सिरं देहो प्रद्धणिमिओ महिअलम्मि कओ ॥८५॥ [ सोढप्रहारं नलेनापि तपनस्य तलाभिघातमोटितकण्ठम् । निहितं देहे शिरो देहोऽर्धनिवेशितो महीतले कृतः ॥ ] नापि तपनस्य रक्षसः शिरः कर्म तलाभिघातेन चपेटप्रहारेण मोटितकण्ठ सनिहितं स्थापितम् । तथा चपेटप्रहारः कृतो यथा तदीयं शिरस्तदीयकबन्ध एव प्रविष्टमित्यर्थः । सोढप्रहारं यथा स्यात्तपनकृतप्रहारं सोवेत्यर्थः । न केवलं शिर एव तथा कृतम् । अपि तु तदीयदेहोऽपि महीतलेऽर्ध निवेशितः कृतः तथा च एकेनैव प्रहारेण शिरः कबन्धे प्रविष्टम्, कबन्धोऽप्यर्धेन भूमौ प्रविष्ट इत्यर्थः ॥८५॥ विमला---नल ने भी तपन ( रजनीचर ) के किये गये प्रहार को सह लिया और चपेटे के एक ही प्रहार से उसके सिर को उसके देह में घुसेड़ दिया एवं शरीर भी भूतल में आधा निविष्ट कर दिया ||८५|| हनुमज्जम्बुमालिनोस्तदाह हन्तूण जम्बुमालि झत्ति विहिणो विओपवण्णसुप्रो । सअलतलगाढताडण भिण्णुच्छ लिअ सिर मेअसित्तदसदिसम् ॥८६॥ [ हत्वा जम्बुमालिनं झटिति विभिन्नोऽतिक्रान्तः पवनसुतः । सकलतलगाढताडनभिन्नोच्छलितशिरोमेदः सिक्त दशदिक ॥ ] पवनसुतो जम्बुमालिनं हत्वा झटिति विभिन्नस्तस्मादेव राक्षसात्पृथग्भूतः सन्नतिक्रान्तो दूरं गतः । कीदृक् । सकलतलेन संपूर्णचपेटेन गाढताडनाद्भिन्नः स्फुटितैरथोच्छलितैः शिरोमेदोभिः सिक्ता दशदिशो तेन स तथा । [ चन्द्रिकायां] तलताडनेन यावच्छिरोमेदः समुच्छलति तावदेव तत्संपर्कभिया दूरमुत्प्लुत्य गत इति वेगोत्कर्ष उक्तः ॥ ८३॥ विमला - पवनसुत ने जम्बुमाली ( राक्षस ) को ऐसा चपेट मारा कि प्रबल प्रहार से उसका सिर फूट गया और सिर की चर्बी ( गूदा ) उछल कर बाहर free आयी, अतएव उसके सम्पर्क से बचने के लिये वे ( हनुमान् ) फुर्ती से उस राक्षस से अलग हो दूर हट गये ||१६|| Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वास: ] अथ मेघनादाङ्गदयोर्द्वादशभिस्तदाह श्रह गेहइ इभूमि इन्दइवालितणआण रणसोडीरम् । हिएकमेक्कपरिअण सहस्थ पडिवण्णसंसअतुला रोहम् ॥८७॥ [ अथ गृह्णात्यतिभूमिमिन्द्रजिद्वालितनययो रणशौण्डीर्यम् । निहतै के परिजन स्वहस्तप्रतिपन्नसंशय तुलारोहम " ] [ ५६१ अथ जम्बुमालिबधानन्तरमिन्द्रजिदङ्गदयो रणे शौण्डीर्य महंकारचातुर्यं वातिभूमिमुत्कर्षकाष्ठां गृह्णाति । द्वयोरपि तुल्यबलत्वात्तुल्यं वर्धते इत्यर्थः । कीदृशम् । निहता एकैकस्य परस्परस्य । एकैके वा तयोरेव ये परिजनास्तैर्हेतुभूतेः स्वहस्तेन स्वकृत्या प्रतिपन्नः स्वीकृत: संशयरूपतुलायामारोह आरोहणं यस्मात् । ताभ्यामेवेत्यर्थात् । तादृशम् । परस्परकृत्या परस्परपरिजनक्षयं दृष्ट्वा अनयोः को जयेदेवंरूपः संशयो रणशौण्डीर्यादिति भावः । कस्य शौण्डीर्यं महदिति संशयविषयत्वं शौण्डीर्यस्यैवेति केचित् । निहता एकैकपरिजना यस्मात्तथाभूतं च तत् स्वहस्तेत्यादिक्रमेण कर्मधारयो वा ॥ ८७॥ विमला - हनुमान् के द्वारा जम्बुमाली का वध होने के अनन्तर इन्द्रजित् ( रावणपुत्र ) और अङ्गद का रणकौशल उत्कर्ष की चरमसीमा पर पहुँच गया । दोनों ने एक-दूसरे के परिजनों का संहार कर अपनी कृति से संशय की तुला पर चढ़ना स्वीकार किया- दोनों में कौन जीतेगा, यह संशयास्पद हो गया ॥ ८७॥ बाणन्धआरिअदिसं धणुमण्डलपरिगअं विसेसेइ परम् । आलोइ उक्ख आणि अमुक्क पडतेहि गिरिसहस्से हि कई ||८८ || [ बाणान्धकारितदिशं धनुर्मण्डलपरिगतं विशेषयति परम् । आलोकितोत्खातानीतमुक्तपतगिरिसहस्र: कपिः ॥ ] कपिरङ्गदः परमिन्द्रजितं प्रथममालोकितैरथोत्खातैरथानीतै रथ मुक्त रथ पतद्धिगिरिसहस्रं विशेषयत्यतिक्रामति । स्वापेक्षया न्यूनं करोतीति वा । यद्वा आलोकितादिक्रियाणां युगपद्वृत्त्या क्षिप्रकारित्वमुक्तम् । परं किंभूतम् । बाणैराच्छादितत्वेनान्धकारिता दिशो येन तम् । नत्वङ्गदाच्छादक मित्याशयः । एवम् - धनुर्मण्डलेन परिगतं मण्डलाकारेण धनुषा संगतमित्यर्थः ॥ ८८ ॥ विमला - मण्डलाकार धनुष से युक्त मेघनाद बाणों से दिशाओं को आच्छादित कर अन्धकारमय बना देता था तो अङ्गद एक ही क्षण देखे गये, उखाड़े गये, लाये गये, डाले गये, गिरते हुए सहस्रों पर्वतों से अतिक्रान्त कर देते थे ||55|| विडन्ति कुसुमम्भिर मिलिम्रवलन्तविडवोवऊढमहुमरा । विवइण्ण फललहुआ धुतमज्झक्खुडिमपल्लवा दुमणिवहा ॥८६॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] सेतुबन्धम् [त्रयोदशः [निपतन्ति कुसुमनिर्भरमिलितवलद्विटपोपगूढमधुकराः । विकीर्णफललघवो धुतमध्योत्खण्डितपल्लवा द्रुमनिवहाः ॥ ] द्रमाणां निवहा निपतन्ति । मेघनादोपरीत्यर्थात् । कीदृशाः । कुसुमै निर्भरा व्याप्ताः अथ मिलिता मूलभागमन कृत्वाक्षेपणात्परस्परं संबद्धाः, अत एव वलन्तो वक्रीभवन्तो ये विटपास्तेषूपगूढाः पृथक्पतन भिया मिश्रीभूय स्थिता मधुकरा येषु ते । एवम्-विकीर्णं रितस्ततः फललघवः । विकीर्णफलाः सन्तो लघव इति वा । एवम्-धुताः सन्तो मध्ये अन्तरा देशे उत्खण्डिता: पल्लवा येषां ते । इन्द्रजित्पर्यन्तं सफलपल्लवा न गच्छन्तीत्यर्थः ।।८।। विमला-मेघनाद के ऊपर वृक्षों के समूह गिरते थे, जो कुसुम से व्याप्त थे तथा ( मूलभाग को आगे कर डाले जाने से ) जिनकी शाखायें परस्पर मिलकर वक्र हो रही थीं, अतएव ( गिरने के भय से ) भौंरे उन पर एक में सटे हुये थे, फलों के टूट कर बिखर जाने से जो ( वृक्ष ) हल्के हो गये थे तथा मध्यवर्ती रिक्त प्रदेश में झकझोर से झड़कर उनके पल्लव नीचे जमा हो गये थे ।।६।। वालितणअंण पावइ गअणे गुप्पइ दुमेहि सरसंघाओ। छिज्जन्ति अद्धवत्थे एन्ता दहमुहसुअंण लवन्ति दुमा ॥१०॥ [ वालितनयं न प्राप्नोति गगने गोप्यते द्रुमैः शरसंघातः । छिद्यन्तेऽर्धपथे आयान्तो दशमुखसुतं न लवन्ते द्रुमाः ॥] मेघनादस्य शरसंघातो वालितनयं न प्राप्नोति । तावद्रं न गच्छतीत्यर्थः । किंतु गगनेऽन्तर इवाङ्गदक्षिप्तैर्दु मैर्गोप्यते तिरोधीयते व्याकुलीभवति वा । अत एव तेऽपि द्रुमा दशमुखसुतं न लवन्ते । तावत्पर्यन्तं न गच्छन्ति । किंतु आयान्तः सन्तोऽर्धपथ एव विच्छिद्यन्ते । तैरेव शररित्यर्थात् । तथा च द्वयोरपि तुल्य क्रियत्वमुक्तम् ॥१०॥ विमला-इन्द्रजित् के बाण वालितनय ( अङ्गद) तक पहुँच नहीं पाते थे, क्योंकि अङ्गद द्वारा डाले गये वृक्षों से वे आकाश में ही तिरोहित हो जाते थे, साथ ही इधर अङ्गद के वृक्ष भी (इन्द्रजित के उन्हीं बाणों से) इन्द्रजित् की ओर आते हुये, आधे मार्ग में ही खण्ड-खण्ड हो जाते थे और इन्द्रजित् तक नहीं पहुँच पाते थे ॥१०॥ विक्खित्तलोद्धकुसुमं सरदलि उद्धाअमाणचन्दणगन्धम् । उद्घअमन्दाररअं सरसलवङ्गन्दलगम्भि होइ णहम् ॥६॥ [ विक्षिप्तलोध्रकुसुमं शरदलितोयिमानचन्दनगन्धम् । उद्ध तमन्दाररजः सरसलवङ्गदलभितं भवति नभः ॥] नभो भवति । कीदृशम् । विक्षिप्तानि लोध्रस्य कुसुमानि यत्र । एवम्-इन्द्र Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वास: ] रामसेतुप्रदीप- विमलासमन्वितम् [ ५६३ जितः शरेण दलितानां चन्दनानामूर्ध्वायमान ऊर्ध्व प्रसारी उद्धावमानो वा गन्धो यत्र । दलने सति सौरभोद्गमात् । तथा उद्भूतानि मन्दारस्य देवतरो रजांसि यत्र । पुष्पाणामित्यर्थात् । एवम् - सरसैर्लवङ्गस्य दलैर्गर्भितं व्याप्तम् । अङ्गदस्यैतान्यस्त्राणीति भावः ॥ ६१ ॥ विमला - अङ्गद के द्वारा अस्त्ररूप में प्रयुक्त विविध वृक्ष इन्द्रजित के बाणों से fusa हो रहे थे । लोध के कुसुम आकाश में बिखर गये, दलित चन्दनों की गन्ध ऊपर आकाश में फैल गई, मन्दार के पुष्पों के पराग ऊपर आकाश में फैल गये एवं लवङ्ग के पत्तों से आकाश व्याप्त हो गया ॥ ६१ ॥ 1 इअ तं समपsिहत्थं वारंवारवलदिण्णसाहुक्कारम् । इन्दइवालिश्राणं परं पमाणं गअं पि वड्ढइ जुज्झम् ||१२|| दुमकुसुम मज्झणिग्गप्रसरपुङ्खालग्ग णिज्जमानमहुअरम् विवावारोवसिट्ठिऔहआविग्ग सेण्ण विम्हअदिट्ठम् ॥६३॥ दहमुहतण अविसज्जिअसर भरिअणहङ्गणुप्पइअवालिसुअम् । वालिस अरोसपेसिअसाल सिलासेलरुद्ध दहमुहतणअम् णिसिअरसरणिद्दारिश्रवाण र देहरु हिरारुण दिसाहोअम् वाणरपहरपअत्ति' रक्ख सरु हिरोहरू द्दमिअ भूमिअलम् ||५|| रिउसूलदूमिप्रोहीरमाणवालिसु अदिष्णवाणरसोअम् ॥ ६४॥ 1 1 सेलाहिधामुच्छिअदह मुहतण अभग्रभिष्ण र अणिअरबलम् ॥९६॥ तारातणअविसेसिअरश्रणिअरपद्मत्तपवअसेण्णकलअलम् 1 112011 मन्दोरिअ मिअवाणरपरिश्रोसम्हलर क्खसलोअम् भुअपडिअणि फल फलिहभङ्गहेला हसन्तवाणर जोहम् उरभिण्णसिलाअल मेहणाअमुक्कट्टहासपण्डुरिअणहम् ॥ ६८ ॥ t ( आइकुलअम्रे ) [ इति 1 तत्समप्रतिहस्तं वारंवारबलदत्तसाधुकारम् । इन्द्रजिद्वालिसुतयोः परं प्रमाणं गतमपि वर्धते युद्धम् ॥ द्रुमकुसुममध्यनिर्गतशरपुङ्खालग्ननीयमानमधुकरम् निर्व्यापारापसृतस्थितोभयाविग्न सैन्य विस्मयदृष्टम् दशमुखतनय विसृष्ट शरभृतनभोङ्गणोत्पतितवालिसुतम् । वालिसुतरोषप्रेषितशालशिलाशैलरुद्ध दशमुखतनयम् 11 11 १. ' रक्खस देहरुहिरो' इति सटीकपुस्तकपाठः । २. अयं पाठो लिखित पुस्तके नोपलभ्यते । ३० से० ब० Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] सेतुबन्धम् [त्रयोदश निशिचरशरनिर्दारितवानरदेहरुधिरारुणदिशाभोगम् । वानरप्रहारप्रवर्तितराक्षसरुधिरोधकर्दमितभूमितलम् ॥ रिपुशुलदुःखितावह्रियमाणवालिसुतदत्तवानरशोकम् । शैलाभिघातमूच्छितदशमुखतनयभयभिन्नरजनीचरबलम् ।। तारातनयविशेषितरजनीचरप्रवृत्तप्लवगसैन्यकलकलम् । मन्दोदरीसुतदुःखितवानरपरितोषमुखरराक्षसलोकम् ॥ भुजपतितनिष्फलपरिघभङ्गहेलाहसद्वानरयोधम् उरोभिन्नशिलातलमेघनादमुक्ताट्टहासपाण्डुरितनभः ॥] (आदिकुलकम् ) इति वक्ष्यमाणप्रकारेण इन्द्रजिद्वालिसुतयोस्तद्युद्धं परं प्रमाणमुत्कर्षकाष्ठां गतमपि वर्धते । पूर्वपूर्वतोऽप्युत्कृष्टं भवतीत्यर्थः । किंभूतम् । समः प्रतिहस्तः परप्रहारनिवारणादिरूपा प्रतिक्रिया प्रतिपक्षो वा यत्र । एवम्-वारंवारं बलाभ्यां दत्तः साधुकारो यत्र । स्वस्वपक्षव्यापारोत्कर्षादित्यनेन सह सप्तभिरादिकुलकम् । किंभूतं युद्धम् । अस्त्रीकृतवृक्षस्य कुसुमानां मध्येन निर्गतैरिन्द्रजितः शरैः पुङ्खवालग्नाः सन्तो नीयमाना मधुकरा यत्र । मधुसंबन्धेन मधुपा अपि पुढे लग्ना गच्छन्तीत्यर्थः । एवम्-अपूर्वयुद्ध दर्शनीय निर्व्यापाराभ्यां युद्धभूम्यस्त्रगतागतमार्गयोस्त्यागाय चापसृतस्थिताभ्यां पार्श्वयोः पश्चाद्वर्तिभ्यामुभयोराविग्नाभ्यां स्वस्वप्रभुमरणशङ्क योद्विग्नाभ्यां सैन्याभ्यां विस्मयेन दृष्टम् । उभयमिति सैन्यविशेषणं वा । 'एज्जमाण' इति पाठे शराणां पुङ्खालग्नाः सन्तो ज्ञायमाना मधुकरा यत्रेत्यर्थः । एवम्-दशमुखतनयेन विसृष्टः शरै तात्पूरितान्नभोङ्गणादुत्पतितः प्रहारवारणायोवंगतो वालिसुतो यत्र । एवम्-वालिसुतेन रोषतः प्रेषितैः शालो वृक्षः शिलाः शैलाश्च ते रुद्धो न तु प्रतिहतः । प्रतिक्रियासत्त्वात् । दशमुखतनयो यत्र तत् । एवम्-निशिचरस्येन्द्रजितः शरैर्निर्दारितो वानर स्याङ्गदस्य यो देहस्तस्य रुधिरैररुणस्ताम्रो दशानां दिशामाभोगो विस्तारो यस्मात् । एवम्-वानरस्याङ्ग. दस्य प्रहारः प्रवर्तितेनोत्पादितेन राक्षसस्येन्द्रजितो [देहस्य] रुधिरोघेन कर्दमितं भूमितलं यस्मात्तत् । एवम्-रिपोरिन्द्रजितः शूलेन दुःखितः सन्नवह्रियमाणोऽवपात्यमानो यो वालिसुतस्तेन दत्तो बानरेभ्यः शोको यत्र । तन्मरण संदेहात् । एवम्-शैलाभिघातान्मूच्छितेन दशमुखतनयेन हेतुना भयेन भिन्नं पृथग्भूतं पलायितं रजनीचरबलं यस्मात्तत् । एतन्मूर्च्छया वानरप्रसरशङ्कावशादिति भावः । एवम्-तारातनयेनाङ्गदेन विशेषितोऽतिक्रान्तो यो रजनीचरः शक्रजित्तेन हेतुना जातानन्दत्वात् प्रवृत्त उत्पन्नः प्लवगसैन्यस्य कलकलो यत्र तत् । एवम् Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५६५ मन्दोदरीसुतेन दुःखितो व्याकुलो यो बानरोऽङ्गदस्तेन हेतुना परितोषान्मुखराः कृतकोलाहला राक्षसलोका यत्र । अङ्गदेन यदा मेघनादः परिभूयते तदा प्लवङ्गानाम्, यदा च मेवनादेनाङ्गदः तदा निशाचराणां मुहम हुरानन्दकोलाहलोऽभूदित्यर्थः ।एवं भुजयोः । अर्थादङ्गदस्य । पतितः सन्निष्फल: । अनभिभावकत्वात् । यः परिघो मेघनादस्य तद्भलेन' द्विधाभावेन सानन्दत्वाद्धेलया हसन्तो वानरयोधा यत्र । भुजयोः किमपि नाभूत् प्रत्युत परिघ एव भग्न इत्याशयः । एवम्-उरसि भिन्नं स्फुटितं शिलातलमङ्गदमुक्तं यस्य तेन मेघनादेन वितया मुक्तो योऽट्टहासस्तेन पाण्डुरितं नभो यस्मात्तत् ।।६२-६८।। विमला-अङ्गद और इन्द्रजित दोनों एक-दूसरे के प्रहारों का निवारण समान रूप से करते, अतएव दोनों की सेनायें दोनों को साधुवाद देती थीं । अङ्गद जिन वृक्षों का प्रयोग अस्त्र रूप में करते, उनके पुष्पों के बीच से इन्द्रजित के शर निकलते अतएव शरों के पुच्छभाग में ( मधु के साथ-साथ ) लगे हुये भौं रे बाहर पहुँच जाते थे। ( अपूर्व युद्ध को देखने के लिये ) दोनों सेनाओं ने युद्धव्यापार बन्द कर दिया और ( अस्त्रों के जाने के मार्ग को छोड़ कर ) दूर हट कर वे खड़ी हुई एवम् ( अपने अपने स्वामी की मरणशङ्का से ) घबरा कर विस्मय से देख रही थीं। कभी दशमुखतनय ( इन्द्रजित ) के छोड़े गये बाणों से आकाश भर जाता और अङ्गद (प्रहार बचाने के लिये ) ऊपर की ओर उछल कर चले जाते एवं कभी वालितनय (अङ्गद) के द्वारा क्रोध से प्रेषित शालवक्षों, शिलाओं तथा शैलों से इन्द्रजित आच्छादित हो जाता था। इस प्रकार इन्द्रजित के बाणों से विदीर्ण अङ्गद के देह के रुधिर से दशो दिशायें लाल हो गयीं तो अङ्गद के भी प्रहारों ने इन्द्रजित के शरीर से वह रुधिरप्रवाह बहाया कि भूमितल पङ्किल हो गया। इन्द्रजित के शूल से दुःखित एवम् अवपतित होते हुये अङ्गद ने वानरों को शोक दिया तो अङ्गदकृत शैलप्रहार से इन्द्रजित भी मूच्छित हो गया और ( अङ्गद के भय से ) निशाचर सेना पृथक हो भाग खड़ी हुई। कभी अङ्गद ने इन्द्रजित को अतिक्रान्त कर दिया तो ( हर्ष से ) वानर सेना ने कलकल निनाद किया और कभी इन्द्रजित ने अङ्गद को व्याकुल कर दिया तो प्रसन्नता से राक्षससेना ने कोलाहल किया। कभी मेघनाद ने अङ्गद ' की भुजाओं पर परिघ ( लौहदण्ड ) से प्रहार किया किन्तु भुजाओं का कुछ नहीं हुआ, उल्टे परिघ ही भग्न एवं निष्फल हो गया तो वानरों ने तिरस्कारपूर्वक इन्द्रजित की हँसी उड़ायी और कभी अङ्गद ने इन्द्रनित की छाती पर शिला से प्रहार किया किन्तु वह निष्फल एवं भग्न हो गयी तो इन्द्रजित के किये गये अट्टहास से नभ पाण्डुर वर्ण का हो गया। इस प्रकार इन्द्रजित और अङ्गद Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश का युद्ध उत्कर्ष की सीमा पर पहुँच कर भी उत्तरोत्तर उत्कृष्ट होता गया ।।६२ - ६८ ।। अथेन्द्रजित्पराजयेनाश्वासं विच्छिनत्ति अह इन्दइम्मि वालितणएण समराणुराश्रभग्गुच्छाहे । हिश्रोत्ति हसन्ति कई माआइ ठिअ त्ति हरिसिआ रअणिमरा ॥६६॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकव्वे तेरहो आससओ । -**** [ अथेन्द्रजिति वालितनयेन समरानुरागभग्नोत्साहे । निहत इति हसन्ति कपयो मायया स्थित इति हर्षिता रजनीचराः ॥ इति श्रीप्रवरसेन विरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये त्रयोदश आश्वास: । ***** अथ द्वन्द्वयुद्धानन्तरं वालितनयेनेन्द्रजिति समरानुरागे भग्न उत्साहो यस्थ तथाभूते सति तिरोभवन्निन्द्रजिन्निहतो मृत इति कृत्वा कपयो हसन्ति, मायय स्थित इति कृत्वा रजनीचरा हर्षिताः । तत्त्वज्ञत्वादिति भावः ॥ ६६ ॥ द्वन्द्वसंग्रामदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य शिखा पूर्णा त्रयोदशी || विमा द्वन्द्व युद्ध के अनन्तर वालितनय ( अङ्गद ) के द्वारा जब इन्द्रजि समरानुराग के प्रति हतोत्साह कर दिया गया तब वह ( इन्द्रजित ) तिरोहि हो गया और 'अङ्ग द के द्वारा मारा गया' ऐसा समझ कर वानर ( प्रसन्नता से हँसे एवं राक्षस भी ( वास्तविकता जानने से ) 'वह ( इन्द्रजित ) माया ( कपट से अन्तर्हित है' इस आशय से प्रसन्न हुये ॥ ६६ ॥ इस प्रकार श्री प्रवरसेन विरचित कालिदासकृत दशमुखवध - महाकाव्य में त्रयोदश आश्वास की 'विमला ' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई । -***** Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश आश्वासः अथ रामव्यापारमाह अह निष्फल गनदिश्रसो जदिच्छिआ संपन्तदहमुहलम्भो । जूरइ लङ्काहिमहो अलप्साअन्तहत रक्खसो रहुणा हो ।। १ ।। [ अथ निष्फलगतदिवसो यदृच्छया संपद्यमानदशमुखलम्भः । खिद्यते लङ्काभिमुखोऽलसायमानहतराक्षसो रघुनाथः ॥ ] अथेन्द्रजित्तिरोधानोत्तरं रघुनाथः खिद्यते । अत्र हेतुमाह — कीदृक् । निष्फलो गतो दिवसो यस्य स तथा । अकृतरावणवधत्वात् । तदेवाह — यदृच्छया स्वेच्छया संपद्यमानो दशमुखस्य लम्भः प्राप्तिर्यस्य । अत एव लङ्काभिमुखः । रावणागमसावाङ्ङ्क्षत्वात् । एवम् - अलसायमानो मन्दं मन्दमस्त्रं व्यापारयन् सन् ह्ता राक्षसा येन तथाभूतः । अप्रतिपक्षबुद्ध्यानास्थावशा (व) दिति भावः || १ || विमला - इन्द्रजित के तिरोहित हो जाने के अनन्तर राम को इस बात का खेद हुआ कि ( रावण का वध न हो सकने से ) दिन व्यर्थ चला गया । संयोग से रावण मिल ही जाय - ऐसा सोच कर ( रावण के आगमन की आकाङ्क्षा से ) राम ने लङ्का की ओर मुँह करके देखा और सम्मुख स्थित राक्षसों को ( असली शत्रु तो रावण है, ये नहीं - इस बुद्धि से ) मन्द मन्द अस्त्र चला कर मारा || १॥ अथ रामस्य पुनः शरतिति (त्य ) क्षामाह - एएस सुहणिसण्णो ग णीइ समरं दसाणणो त्ति गणेन्तो । इच्छइ दिण्णा आसे रअणिरेसु पडिमचि सरणिवहे ।। २ ॥ [ एतेषु सुखनिषण्णो न निरैति समरं दशानन इति गणयन् 1 इच्छति दत्तायासान् रजनीचरेषु प्रतिमोक्तुं शरनिवहान् ॥ ] एतेषु रजनीचरेषु सुखनिषण्णः कृताध्यवसायो दशाननः समरं प्रति न निरैति निर्गच्छतीति विचारयन् सन् रजनीचरेषु शरनिवहान् प्रतिमोक्तुमिच्छति । रघुनाथ इत्यर्थात् । किंभूतान् । दत्त आयासो यैस्तान् । परेष्वित्यर्थात् । तथा च - एताव्रत्कालपर्यन्तमनास्थया शरानौज्झत् । अथास्थयेति भावः ॥ २॥ विमला – इन रजनीचरों के रहते हुये, सुख से बैठा हुआ रावण युद्ध को नहीं निकल रहा है - यह सोचकर राम ने शत्रुओं को पीडा देने वाले बाणों को छोड़ने की इच्छा की ॥ २ ॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश अथ शराणां त्यागमाहदिम्मि पत्थिअम्मि अ प्रायडिमम्मि अ परे सरणिसुम्भन्ते । समरम्मि विसूरन्ता मोहुक्करिसिप्रदुमा भमन्ति पवङ्गा ।। ३ ॥ [ दृष्टे प्रस्थिते चापतिते च परे शरनिपात्यमाने । समरे खिद्यमाना मोघोत्कृष्टद्रुमा भ्रमन्ति प्लवङ्गाः ॥] निजव्यूहस्थ एव दृष्टे परे शत्रौ रणाभिमुखं प्रस्थिते च पलायिते वा परे आपतिते निकटमागते च परे रामस्य शरैनिपात्यमाने सति प्रतिभटाभावात् खिद्यमाना अथ च मारणीयाभाबान्मोघं निष्फलं मोघा वा उत्कृष्टा उत्तोलिता द्रुमा यस्तादृशाः प्लवङ्गाः समरे तद्भूमौ भ्रमन्ति घूर्णन्ते । रामेणैव सर्वस्मिन् हते हन्तव्यगवेषणयेति भाव: ॥३॥ विमला-जो अपने व्यूह में ही स्थित दिखायी पड़ा अथवा संग्राम की ओर आ रहा था अथवा निकट आ चुका था, उन सभी राक्षसों पर राम के द्वारा शर छोड़े जाने पर समर में ( राक्षसों का अभाव देख कर ) खेद करते हुये वानर व्यर्थ (प्रहारार्थ ) वृक्षों को उठाये हुये ( राक्षसों की खोज में ) घूम रहे थे ॥३॥ अथैषां दभिर्वेगोत्कर्षमाह भेत्तूण तुरिअमुक्के अणुलोमपहाविए सिलासंघाए । पढमं साहन्ति परं विहडिअवाणरमणोरहा रामसरा ॥ ४॥ [ भित्त्वा त्वरितमुक्ताननुलोमप्रधाविताशिलासंघातान् । प्रथमं साधयन्ति परं विघटितवानरमनोरथा रामशराः ।।] रामशराः प्रथमं परं शत्रु साधयन्ति नाशयन्ति । किं कृत्वा । त्वरितं यथा स्यात्तथा मुक्तान्, अथानुलोमं शरगन्तव्य दिगभिमुखं प्रधावितान् शिलासंघातान् भित्त्वा विदार्य । कपिभिर्यद्यपि त्वरया मुक्ताः शिलास्तथापि पश्चान्मुक्ता अपि शरा अन्तरैव ता निर्भिद्य परान्विदारयन्तीत्यर्थः । अत एव पश्चाद्विघटितो वानराणां मनोरथो मम शिलाभिरेते हन्यन्तामित्यभिलाषो यस्ते । तथा च शिलाविदारणशत्रुमारणानन्तरमेव कपयो जानन्ति रामेण शरो मुक्त इति तदानीं मनोरथो भज्यत इति रामस्य क्षिप्रकारित्वमुक्तम् । प्रथमं त्वरितं मुक्तार निति केचित् ॥४॥ विमला-यद्यपि वानरों ने शिलाओं को शीघ्रता से छोड़ा और वे अनुकूल दिशा में ( शत्रुओं की ओर ) वेग से जा रही थीं, इसी मध्य उनके पश्चात् छोड़े गये राम के बाणों ने बीच में ही उन्हें छिन्न-भिन्न कर पहिले ही शत्रुओं को विदीर्ण कर दिया और वानरों का अभिलाष ( यह कि हमारी शिलाओं से ही निशाचर मारे जाय) भग्न कर दिया ।। ४ ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [५६६ पुनस्तमेवाह छिज्जइ करेण सम पवए णल्लि अइ रक्खसाण पहरणम् । पावइ तुरिअविमुक्कं अणहं ण अ रक्खसं पवनपहरणम् ॥ ५॥ [ छिद्यते करेण समं प्लवगे नालीयते राक्षसानां प्रहरणम् । प्राप्नोति त्वरितविमुक्तमनघं न च राक्षसं प्लवङ्गप्रहरणम् ।।] राक्षसानां प्रहरणं शरादि करेण समं छिद्यते। रामशरैरित्यर्थात् । अत एव प्लवगे नालीयते न संबध्यते स्वयमेव नष्टत्वात् । तथा च राक्षसानामिति बहुत्वेन स्थाने स्थाने रक्षोभिः प्रथम संहितमपि शरादि यावत् क्षिप्यते तावदेव तद् दृष्ट्वा रामेण संधाय मुच्यमानैः शरैश्छिन्नमिति तत्तत्सधानोत्तरसंभावितप्रेरणापूर्वसूक्ष्मक्षण एव रामेण संधाय मुक्ता: शरास्तावद् दूरं गत्वा कृतकृत्या बभूवुः । अथ च प्लवग इत्येकवचनेन एक एव रामो यावत्तेषु बहुषु नाना शरान्व्यापारयति स्म, तावत्तेषामेकेनापि शरो न व्यापारयितुं पारित इति भावः । एवं च रामापेक्षया त्वरितं प्रथमतो विमुक्तं प्लवगानां प्रहरणं शिलादि अनघमविद्धं राक्षसं न प्राप्नोतीति पश्चान्मुक्तरामशरनिकृत्ते राक्षसादौ प्रथममुक्तं शिलादि पतितमित्युभ यथापि रामस्य लघुहस्तत्वमुक्तम् । करेणेत्यत्र 'शिलाहि' इति पाठे शिलाभिः समं तुल्यं छिद्यत इत्यर्थः । तथा च यथा कपिभिः प्रथममुक्तापि शिला पश्चान्मुक्तरामशरण संनिधावेव छिन्ना, तथा शिलामुक्तिसमकालमुक्तमपि राक्षसानामस्त्रमितो व्यवधान एव ततः संनिधौ छिन्नमित्यतो लघुहस्तत्वमुक्तम् ॥५॥ विमला-राम इतनी शीघ्रता से बाण चला रहे थे कि किसी एक वानर पर विभिन्न स्थानों से अनेक राक्षसों ने प्रहारार्थ अस्त्र चलाना चाहा, इतने में ही राम के छोड़े गये उतने ही बाणों ने स्थान-स्थान पर पहुँच कर राक्षसों की भुजा के साथ-साथ अस्त्र को भी छिन्न-भिन्न कर दिया और उस वानर तक अस्त्र जा ही नहीं सका; एवम् इधर राक्षसों को मारने के लिये वानरों ने शीघ्रता से शिला आदि जो अस्त्र फेंके उनको कोई ऐसा राक्षस न मिल पाया जो राम के बाण से विद्ध न हो चुका हो ॥ ५।। तमेवाहभिषणे वच्छम्मि सिला गिरिसिहरं छिपगपाडिअसिरहाणे । णिवडइ सराहिसंधिअपरक्कमेहि वएहि रोसविमुक्कम् ।। ६ ।। [भिन्ने वक्षसि शिला गिरिशिखरं छिन्नपातितशिरःस्थाने । निपतति शराभिसंहितपराक्रमैः प्लवगै रोषविमुक्तम् ॥] कपिभिः प्रथमं मुक्ता शिला पश्चान्मुक्तरामशरंभिन्ने राक्षसानां वक्षसि पतति । एवम्-रामशरैरेव छिन्नस्य सतः पातितस्य शिरसः स्थाने राक्षसाना Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश मेव गले प्लवर्ग रोषेण विमुक्तमपि गिरिशिखरं पतति । तथा च तत्तत्स्थान एव लक्ष्ये शिलादीनां पतनाद्वक्षोभेदन शिरश्छेदनादपि वीरो न पतित इति लघुहस्तत्वमेवोक्तम् । किंभूतैः । रामस्य शरेणाभिसंहितो वश्वितः पराक्रमो येषां तैः । शत्रुमारणस्य तत एव सिद्धत्वात् । अत एवोक्तम् — निपतति, न तु किंचिदपि करोतीति भावः ॥६॥ विमला - ( कपिवृन्द के द्वारा शत्रु के वक्ष को लक्ष्य बनाकर छोड़ी गयी ) शिला ( बाद में छोड़े गये राम के शरों से ) विदीर्ण वक्ष:स्थल पर गिरी । इसी प्रकार कपियों के द्वारा रोषपूर्वक छोड़े गये पर्वतशिखर राम के शरों से काट कर गिराये गये सिरों के स्थान पर गिरे । इस प्रकार ( राम के शरों से ही शत्रुओं को मारने का कार्य सम्पन्न हो जाने से ) कपियों का पराक्रम राम के शरों से धोखा खा गया ॥ ६ ॥ तमेवाह सइ संधि च्चि सरो रहुणाहस्स सइ चक्कलइअं च धणुम् । श्रच्छिज्जइ अ सराह असइ पल्हत्थन्त रक्खससिरेहि मही ॥ ७ ॥ [ सदा संहित एव शरो रघुनाथस्य चक्रीकृतं च धनुः । आच्छाद्यते च शराहत पर्यस्य द्राक्ष सशिरोभिर्मही ॥ ] रघुनाथस्य शरः सदा संहित एव पतंजि ( प्रत्यञ्चि ) का रोपित एव, धनुश्च सदा चक्रीकृतं चक्राकारमेव शराणामादानसंधानविमोक्षाणां शैत्र्यादित्थंभूतमेव दृश्यत इत्यर्थः । एवं शरैराहतानि स्पृष्टानि सन्ति पर्यस्यन्तीतस्ततः पतन्ति यानि राक्षसशिरांसि तैर्मही आच्छाद्यते व्याप्यत इत्यर्थः ॥७॥ विमला - राम के बाण सदा प्रत्यञ्चा पर चढ़े हुये और ( प्रत्यश्वा खींचने से ) धनुष सदा चक्राकार ही दिखायी देता था एवं राम के शरों से आहत, अतएव इधर-उधर गिरते हुये राक्षसों के सिरों से पृथिवी पट गयी ॥ ७ ॥ तमेवाह— विसमा लग्गहुअवा विसहररे' अवि अबिलम् हपडिच्छन्दा | दीसन्ति बाणमग्गा रक्खसदेहेसु से ण दीसन्ति सरा ॥ ८ ॥ [ विषमालग्नहुतवहा विषधर रेचित बिलमुख प्रतिच्छन्दा । दृश्यन्ते बाणमार्गा राक्षसदेहेष्वस्य न दृश्यन्ते शराः ॥ ] राक्षसदेहेषु बाणानां मार्गा निर्गमपथाः परं दृश्यन्ते, न पुनरस्य रामस्य शरा इत्यन्वयः । क्षिप्रगतत्वादिति भावः । किंभूताः । विषमं स्थाने स्थाने आलग्नो १. 'रेइअ' इति पाठो लिखितसटीकपुस्तक उपलभ्यते । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६०१ हुतवहो येषु ते। एतेन शराणामाग्नेयत्वमुक्तम् । एवम्-विष धरैः सर्प रेचितानां शून्यीकृतानां बिलमुखानां विवराणां प्रतिच्छन्दाः प्रतिरूपाः । तान्यपि दीर्घाणि क्वचित्क्वचिल्लग्न विषानलानीति शराणामपि सर्पसमानशीलत्वेन घातकत्वमुक्तम् ॥८॥ विमला-राम के बाण ( वेग से जाने के कारण) दिखायी नहीं दिये, केवल राक्षसों के शरीर में उनके (आर-पार) निकलने के मार्ग ही दिखायी देते थे, जो (बाणों के आग्नेय होने के कारण ) स्थान-स्थान पर अनल से संपृक्त होने के कारण विषधर सौ से शून्य किये गये बिलमुख विवर के समान हो रहे थे ॥ ८॥ पुनस्तदेवाहउक्करिसन्तस्स करे पत्थन्तस्स हिअए रसन्तस्स मुहे । दोसन्ति णवर पडिआ णिबद्धसिरपडणसूइ रामशरा ॥ ९ ॥ [ उत्कर्षतः करे प्रार्थयमानस्य हृदये रसतो मुखे । दृश्यन्ते केवलं पतिता निबद्धशिरःपतनसूचिता रामशराः ॥] रामशरा उत्कर्षतः शरानाकर्षतः परस्य कर एव, प्रार्थयमानस्य कपिरयमित्थं मारणीय इति प्रतिसंदधानस्य हृदय एव, रसतश्छिन्धि ताडयेत्यादि शब्दं कुर्वाणस्य मुख एव, केवलं पतिता दृश्यन्ते, न तु गृह्यमाणा गच्छन्तो वा । तथा च रक्षोभिः कपिव्यापादनाय कायिको मानसो वाचिको वा पदा य एव व्यापारः कृतस्तदा तमेव प्रतिरुद्धवन्त इति रामशराणां मन्त्रमयदेवताधिष्ठान (त्व)मुक्तम् । किं भूताः । निबद्धानां व्यूहे संयोजितानां वीराणां शिरःपतनेन सूचिताः प्रकाशिताः। तथा च व्यूहतिवीरशिरःपतनैरनेन यथा रामशरो गत इति केवलमनुमीयते, दृश्यते पुनर्लक्ष्यकरादिस्थानलग्न एवेति रामस्य कृतहस्तत्वमुक्तम् । यदा-निबद्धं शिरस्त्राणादिसंबद्धं यच्छिरस्तत्पतने सूचिताः सुष्ठ योग्या इति स्वरूपनिर्वचन मिति वयम् । संप्रदायस्तु निबद्धं कबन्धसंगतं यच्छिरस्तत्पतनेन सूचिता इति व्याचष्टे ॥६।। विमला-राम के बाण, बाण खींचते हुये शत्रु के हाथ पर ही, (किसी बानर को ) मारने के लिये सोचते हुए शत्रु के हृदय पर ही, उत्तेजक वचन बोलते हुये शत्रु के मुख पर ही केवल पतित दिखायी दे रहे थे और व्यूह में संयुक्त किये गये वीरों के सिरों के गिरने से ही सूचित होते थे ( उन्हें धनुष पर चढ़ाते, छोड़े जाते तथा लक्ष्य पर लगते हुये कोई नहीं देख पाता था ) ।।६।। तमेवाहजो जत्थ च्चिस विठ्ठो सुओ हि जस्स विलिओ विणिणामो। चलिओ अ जो जहि चिअ तस्स तहि चेन विडिप्रा रामसरा ।१॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] सेतुबन्धम् [ यो यत्रैव दृष्टः श्रुतो यत्र यस्य विगलितोऽपि निनादः । चलितश्च यो यत्रैव तस्य तत्रैव निपतिता रामशराः ॥ ] यो वीरो यत्रैव दृष्ट:, तथा तस्य वीरस्य यत्रैव विगलितोऽभ्युत्थितोऽपि निनादः श्रुतः, तथा यश्च वीरो यत्रैव चलितः, तस्य कृते तत्रैव रामशरा निपतिता इति क्रमेण दृष्टवेधित्वं शब्दवेधित्वमश्रुतादृष्टवेधित्वं च शराणां सूचितम् ||१०|| | चतुर्दश विमला - जो जहाँ पर दिखायी पड़ा, जिसका जहाँ पर मुख से निकला निनाद ( शब्द ) सुनायी पड़ा तथा जो जहाँ से चला उसके लिये वहीं राम के बाण जा गिरे ॥१०॥ तमेवाह अहस्थिभडतुरङ्गा दोहा दीसन्ति तम्मि रक्ख ससेण्णे । श्रग्गवखन्धपत्ता कूलं भेत्तूण णिग्गओ रामसरा ।।११।। [ हतहस्तिभटतुरङ्गा दीर्घा दृश्यन्ते तस्मिन् राक्षससैन्ये । अग्रस्कन्धप्रवृत्ताः कूलं भित्त्वा निर्गता रामशराः ॥ ] तत्र राक्षससैन्ये अग्रस्कन्धेन सेनामुखेन प्रवृत्ताः प्रविष्टाः कूलं पश्चाद्भागं भित्त्वा निर्गता रामशरा हता हस्तिनो भटास्तुरङ्गाश्च यैस्तथाभूताः सन्तो दीर्घा धाराकारा दृश्यन्ते । एकैकपृष्ठलग्नाः परे परे गच्छन्तीत्यर्थः । यद्वा दीर्घाकारेण हतं हस्त्यादि पतितं दृष्ट्वा सेनाया मुखे प्रविश्य पश्चान्निर्गता धारावाहिनो रामशरा इत्यनुमित्या विषयीक्रियन्त इत्यर्थः । दृशेरुपलब्धिपरत्वादित्या शयः ।। ११ ।। विमला - राम के [ दीर्घ ] धाराप्रवाह बाण हाथी, घोड़े, भट को मार कर राक्षसेना के अग्रभाग में प्रविष्ट होकर पिछले भाग तक के वीरों को छिन्न-भिन्न कर निकले हुये दिखायी दिये ||११|| तमेवाह जं चित्र उअलद्धभअं काहिइ समअं पडाइअव्वारम्भम् । तं रामसराहिहअं दिट्ठ णवर पडिअं णिसा अरसेण्णम् ॥ १२ ॥ [ यदेवोपलब्धभयं करिष्यति समं पलायितव्यारम्भम् । तद्रामशराभिहतं दृष्टं केवलं पतितं निशाचरसैन्यम् ॥ ] तन्निशाचरसैन्यं रामशरैरभिहतं सत्केवलं पतितं दृष्टम् । तत्किम् । यदेव उपलब्धभयं सत्सममेकदैव पलायितव्ये पलायते । भावे तव्यः । आरम्भमुद्यमं करिष्यति । तथा च - शूराः पलायितान्न निघ्नन्तीति पुराणश्रुत्या पलायनोद्यमपूर्वकाल एव रामेण हतमिति भावः ॥१२॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः । रामसेतप्रदीप-विमलासमन्वितम [ . विमला-राक्षससेना भय खाकर पलायन आरम्भ करे, उससे पहिले ही राम के बाणों से अभिहत हो गिरी दिखायी पड़ी ॥१२॥ पुनस्तमेवाहइअ तं बाणविकत्त पडन्तसमकालदिसिरसंघाअम् । सूअसारणावसेसं खणण रक्खस बलं कअं रहबइणा ॥१३॥ [ इति तद्बाणोत्कृत्तं पतत्समकालदृष्टशिरःसंघातम् । शुकसारणावशेष क्षणेन राक्षसबलं कृतं रघुपतिना ॥ ] इत्यनेन प्रकारेण बाणरुत्कृत्तं तद्राक्षसबलं रघुपतिना शुकसारणावशेषौ यत्र तथाभूतं क्षणेन कृतम् । पूर्वपरिचितत्वात्कृपया शुकसारणावेव रक्षितौ । परे सर्वे एव हता इत्यर्थः । किंभूतम् । पतन् सन् समकालमेकदैव दृष्ट: शिरःसंघातो यत्रेति रामस्य लघुहस्तत्वमुक्तम् । अत एव क्षणेनेत्युक्तम् ।।१३।। विमला-इस प्रकार राम ने क्षण भर में ( पूर्वपरिचित होने के कारण ) शुक और सारण को छोड़ कर सारी निशाचरसेना बाणों से काट कर गिरा दी, उस समय सेना में एक साथ गिरते हुये सिर ही सिर दिखायी दिये।।१३॥ अथ संध्यामाह-- ताव अ सलोहिसारुणरक्खस बलणिव्विसेससंशातिमिरो। परमत्थो चिरस्स व णिवाओ गलिअरक्खसभनो दिअहो ।।१४।। [ तावच्च सलोहितारुणराक्षसबलनिविशेषसंध्यातिमिरः । परमार्थश्चिरस्येव निर्वाणो गलितराक्षसभयो दिवसः ॥] तावदेव गलितं राक्षसानां भयं यत्र । निशि तेषां बलवत्त्वात् । तथाभूतः सन् दिवसो निर्वाणोऽपगतः । किंभूत इव । चिरस्य चिरकालस्य परमार्थस्तत्त्वस्वरूपमिव । तथा च दिवसो न गतः किंतु चिरकालो गत इत्येक एव दिवसो निकटवतिसीतावियोगदुःखातिशयहेतुत्वादलब्धरावणत्वाच्च (रो)रामस्य चिरकालत्वेनोत्प्रेक्षितः । पुनः कीदृक् । सलोहितं क्षतजन्यशोणितसहितम् । अत एवारुणं यद्राक्षसबलं तन्निविशेषं तत्तुल्यं संध्याकालीनं तिमिरं यत्र तदिति लौहित्येन संध्यारागशोणितयोः, श्यामत्वेन तिमिरराक्षसबलयोः साम्यम् ॥१४॥ विमला-तब तक दिन बीत गया और राक्षसों को भय नहीं रह गया । वह दिन क्या गया, मानों ( सीता के वियोग-दुःख के आधिक्य तथा रावण की अप्राप्ति से ) राम का चिरकाल ही बीत गया-राम को वह एक दिन का समय १. 'लगितं' इति पुस्तकान्तरे । 'गलित' इति यथाश्रुतपाठे 'राक्षसानाम्' इति कर्तरि षष्ठी। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश बहुत भारी लगा । उस समय रुधिर से अरुण राक्षससेना के समान ही लाली से युक्त सन्ध्यातिमिर दिखायी पड़ा ।।१४।। अथ पुनर्मेघनादागमनमाह- अह उग्गाहिप्रचाओ एक्को वालिसुअमोडितर हुप्पइओ । संचरइ मेहणात्र णित्र अच्छवि मेलिअन्धप्रारम्मि नहे ||१५|| [ अथोद्ग्राहितचाप एको वालिसुतमोटितरथोत्पतितः । संचरति मेघनादो निजकच्छविमेलितान्धकारे नभसि ॥ ] अथ संध्यागमानन्तरमेको मेघनादो नभसि संचरति । कीदृशे । निजककान्त्या 'मिलितं श्यामत्वादेकीकृतमन्धकारं मायाकल्पितं यत्र तत्र । स कीदृक् । उद्ग्राहि उत्तोलितचापो येन तादृक् । एवम् -- वालिसुतेन मोटिताद्भग्नाद्रथादुत्पतितः । - कृतोत्फाल इत्यर्थः ॥ १५ ॥ । विमला- – सन्ध्या आगमन के अनन्तर मेघनाद ने धनुष उठा कर, अङ्गद के द्वारा भग्न किये गये रथ में ऊपर की ओर उछल कर आकाश में संचार किया, उस समय उसकी ( श्याम ) कान्ति और अन्धकार, दोनों मिलकर एकाकार हो गये ||१५|| अथ रामलक्ष्मणयोर्बन्धनोपक्रममाह तो निट्ठविप्रणिसिअरा इन्दइणा गरुअवेर मूलाहारा । समअं चित्र सच्चविआ अद्दिट्ठेण विहिणेव्व दहरहतणआ || १६॥ [ ततो निष्ठापितनिशिचराविन्द्रजिता गुरुकवैरमूलाधारौ । सममेव सत्यापितावदृष्टेन विधिनेव दशरथतनयौ ॥ ] तत आगमनानन्तरमदृष्टेनालक्षितेनेन्द्रजिता दशरथतनयौ सममेकदैव सत्यापितो नागपाशलक्ष्यत्वेन व्यवस्थापितौ । किंभूतेनेव । विधिनेव । विधिरदृष्टं विधाता वा तेनेव । तदायत्तत्त्वादित्युत्प्रेक्षा । तावप्यदृष्टावस्मदाद्यप्रत्यक्षौ भवतः । दशरथतनयो किभूतो । निष्ठापिता नाशिता निशिचरा याभ्यां तौ । अत एव खरादिनाशकत्वाद्गुरुकस्य वैरस्य मूलाधारौ ॥१६॥ विमला- - तदनन्तर राम और लक्ष्मण, जिन्होंने निशिचरों का विनाश किया था, अतएव जो महान् वैर के मूल आधार थे, अलक्षित मेघनाद के द्वारा क्या, मानों भाग्य के ही द्वारा नागपाश के लक्ष्य बनाये जाने के लिये निश्चित किये गये ॥ १६ ॥ अथ नागपाशत्यागमाह मुअ अ सम्भु दिग्णे ताण भुअङ्गमुहणिग्गआणलजी हे । से सहिअरक्स वो सत्यपलम्बिओह अभप्राण सरे ॥ १७॥ - Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६०५ [ मुञ्चति च स्वयंभूदत्तांस्तयोर्भुजङ्गमुखनिर्गतानलजिह्वान् । निःशेषनिहतराक्षसविश्वस्तप्रलम्बितोभयभुजयोः शरान् ॥ ] स मेघनादस्तयो रामलक्ष्मणयोः कृते स्वयंभुवा ब्रह्मणा दत्तान् शरान् मुञ्चति च । किंभूतान् । भुजङ्गानां मुखेभ्यो निर्गता विषानलविशिष्टा जिह्वा येषु तान् । बस्तुतस्तु भुजङ्गरूपेभ्यो मुखेभ्यो निर्गता विषानला एव जिह्वा येषां तानित्यर्थः । तयोः किं भूतयोः । निःशेषनिहतराक्षसत्वाद्विश्वस्तं यथा स्यादेवं प्रलम्बितावुभयभुजौ ययोः । मारणीयाभावेन शरादिव्यापारकरणाभावादिति लम्बमानत्वेन नागपाशबन्धनसौकर्यमुक्तम् ॥१७॥ विमला-समस्त राक्षसों का विनाश कर चुकने के कारण राम और लक्ष्मण की भुजायें निश्चिन्त नीचे लटकी हुई थीं ( अतएव नागपाश में बाँधना सुकर होने से ) मेघनाद ने उन दोनों पर ब्रह्मा के दिये हुये, भुजङ्गरूप मुख से निकली विषानलरूप जीभ वाले बाणों को छोड़ा ॥१७॥ अथ बन्धनमाहतो भिण्णङ्ग अदेसा णिहारिअबीअबाहुपाअडिअमुहा । राहवदेहम्मि ठिा तिप्रसंदाणि अभुआ भुअङ्गमबाणा ॥१८॥ [ ततो भिन्नाङ्गददेशा निर्दारितद्वितीयबाहुप्रकटितमुखाः। राघवदेहे स्थितास्त्रिकसंदानितभुजा भुजङ्गमबाणाः ॥] ततस्त्यागानन्तरं भुजङ्गमा एव बाणास्त्रिके । तयोरेवेत्यर्थात् । संदानिती बद्धों भुजौ यस्तथाभूताः सन्तो राघवयोर्देहे स्थिताः । किंभूताः । एकस्य भुजस्य भिन्नो विद्धोऽङ्गददेशः कफोण्युपरि देशो यस्ते । पुनर्निर्दारितद्वितीयबाही प्रकटितमुखा एकबाहुमध्येन प्रविश्यात्यक्ततन्मिश्रितद्वितीयबाहौ बहिर्भूतमुखा इत्यर्थः ।।१८॥ विमला-तदनन्तर वे बाण राम और लक्ष्मण के शरीर पर स्थित हुये । उन बाणों के मुख उन ( राम और लक्ष्मण ) के कुहनी के ऊपर वाले भाग को बेधते हुये दूसरी भुजा को विदीर्ण कर उस पार निकल गये तथा उनकी भुजायें बाणों से कटि प्रदेश पर बाँध दी गयीं ॥१८॥ एतत्पृष्ठलग्नापरशराणां निर्गममाहणिद्धोआपसणीला णिन्ति विसाणलफुलिङ्गपज्जलिअमुहा । धणुसंधाणविमक्का अउवणाराविन्भमा भुअइन्दा ॥१६॥ [निधौंतायसनीला निर्यान्ति विषानलस्फुलिङ्गप्रज्वलितमुखाः। धनुःसंधानविमुक्ता अपूर्वनाराचविभ्रमा भुजगेन्द्राः ॥ ] इन्द्रजिता धनुःसंधाने सति विमुक्ता भुजगेन्द्रा नियन्ति । किंभूताः । निधौंतं Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश दाहोत्तरं जले क्षिप्तं यदायसं लौहं तद्वन्नीलाः । एवम् - विषानलस्फुलिङ्गः प्रज्व लितं दीप्तं मुखं येषां ते । अत एवापूर्वनाराचानामाग्नेयादीनामिव विभ्रमो विलासो येषाम् । यद्वा - विशिष्टभ्रमो येभ्यस्ते । सर्पः परमार्थशरो न भवतीति भावः ||१६|| विमला - मेघनाद ने पुन: दूसरे भुजगरूप बाणों को धनुष पर चढ़ा कर छोड़ा। वे उस समय आग में तपाने के बाद जल में छोड़े गये लोहे के समान नील तथा विषाग्नि की चिनगारियों से दीप्तमुख हो धनुष से निकले अतः उन्हें देख कर अपूर्व (आग्नेय) बाणों का भ्रम होता था || १६|| अथैषां पतनमाह — णिवडन्ति विज्जुमुहला तारसमम्भहिलोहलट्ठिच्छाआ । कसणजलओअराहि व रक्खसमाअन्ध अरिअणहाहि सरा ॥२०॥ [ निपतन्ति विद्युन्मुखरास्तालसमभ्यधिकलौहयष्टिच्छायाः । कृष्णजलदोदरादिव राक्षसमायान्धकारितनभसः शराः ।। ] राक्षस माययान्धकारितान्नभसो विद्युत इव मुखराः शब्दायमानाः शरा भुजङ्ग - रूपा निपतन्ति । राघवयोर्देह इत्यर्थात् । कृष्णो जलद उदरे येषां तस्मादिवेति नभोविशेषणम्, तमसो जलदेनौपम्यात् । अत एव विषाग्निकपिशत्वेन शराणां विद्युद्भिः साम्यम् । विद्युन्मेघान्निपततीति प्रकृतोऽर्थः । नीलमेघानामुदरादिवेति संमुख एवोपमा, तमोविशिष्टनभसो मेघेन तुल्यत्वादिति वा । शराः किंभूताः । तालवृक्षात्समभ्यधिका महत्यो या लोहयष्टयस्तच्छाया कान्तिर्येषां ते । अग्निमुखत्वेऽपि श्यामत्वाद्दीर्घत्वाच्चेति भावः ॥२०॥ विमला - राक्षस ( मेघनाद ) की माया से अन्धकारपूर्ण कर दिये गये आकाश से, काले बादल के भीतर से विद्युत् के समान शब्द करते हुये, ताड़वृक्ष से भी अधिक बड़े लौहदण्ड की कान्ति वाले वे भुजारूप बाण राम और लक्ष्मण के शरीर पर गिरने लगे ||२०|| अथैषां नानारूपतामाह पढमं रविबिम्बणिहा पलउक्कासंणिहा हुद्ध पडन्ता । भिन्दन्ता होन्ति सरा दरणिभिण्णभमिया भुप्रासु भुअङ्गा ॥ २१ ॥ [ प्रथमं रविबिम्बनिभाः प्रलयोल्कासंनिभा नभोऽर्धपतन्तः । भिन्दन्तो भवन्ति शरा दरनिभिन्न भ्रमणशीला भुजासु भुजङ्गाः ॥ ] ते शराः प्रथमं नभः शिखरे दृश्यमानाः सन्तो रविविम्बतुल्या भवन्ति । विषाग्निमयत्वे सति गगनमूलवर्तित्वात् । अथ नभसोऽर्धात्पतन्तः सन्तः प्रलयो - -काभिः संनिभा मुखेनाग्निमयत्वे सति भोगेन दण्डायमानत्वात् । अथ । भुजा Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६०७ वित्यर्थात् । भिन्दन्तो दशन्तः सन्तः शरा मुखस्य भुजनिविष्टत्वेनाग्नेरप्रकाशे सति ऋजुकृतदेहत्वात् । अथ तयोर्भुजासु दर ईषन्निभिन्नं दष्टं यैस्तथाभूताः कृतकिचिदंशाः । अथ च भ्रमणशीला भोगेन वलयाकाराः सन्तो भुजङ्गा भवन्तीति सर्वत्र संबध्यते । तथा च वस्तुतस्ते (न) भजङ्गा एव, किं तु सांनिध्यक्रमेणावयवप्रकाशक्रमेण मायया वा तथा तथा प्रतिभासन्त इत्यर्थः ॥२१॥ विमला-वे भुजङ्गरूप बाण पहिले नभ के अग्रभाग में रविबिम्बतुल्य, तदनन्तर आधे आकाश से गिरते हुये प्रलयकालीन उल्का के सदृश, तदनन्तर ( भुजाओं का ) भेदन करते हुये भुजाओं में थोड़े-सा प्रविष्ट होकर [भ्रमणशील ] शरीर से वलायकार हो गये ।।२१।। अथ वानरादिचेष्टामाहबज्झन्ति दहरहसुआ दरभग्गमणोरहा किलिम्मन्ति सुरा। अद्दिमेहणाआ उण्णामिअपव्वा भमन्ति पवङ्गः ॥२२॥ [ बध्येते दशरथसुतौ दरभग्नमनोरथाः क्लाम्यन्ति सुराः । अदृष्टमेघनादा उन्नामितपर्वता भ्रमन्ति प्लवङ्गाः ॥] दशरथसुतौ बध्येते । नागपाशैरित्यर्थात् । तयोर्नारायणरूपत्वेन अल्पभग्नो रावणवधरूपो मनोरथो येषां तथाभूताः सन्तः सुराः क्लाम्यन्ति । किमकस्माज्जातमिति सचिन्तत्वात् । एवम्--न दृष्टो मेघनादो पैस्तादृशाः प्लवङ्गा उत्थापितपर्वताः सन्तो भ्रमन्ति दिशि दिशि गच्छन्ति । केनेदं कृतमिति जिज्ञासयेत्यर्थः ॥२२॥ विमला-राम और लक्ष्मण नागपाश से बाँध लिये गये, अतएव देवता ( राम के द्वारा रावणवधरूप ) मनोरथ के भग्न हो जाने से व्याकुल हो गये तथा वानर भी मेघनाद को देख न पाने के कारण पर्वत को उठाये हुये इधरउधर घूमते रहे ॥२२॥ अथैषामवस्थामाहरसइ णहम्मि णिसि अरो भिमभिण्णहिअ दिसासु कइबलम् । भिज्जन्तो वि ण मिज्जइ रिउदसणादिण्णलोअणो दासरही ।।२३।। [ रसति नभसि निशिचरो भिन्नमभिन्नहृदयं दिक्षु कपिबलम् । भिद्यमानोऽपि न भिद्यते रिपुदर्शनदत्तलोचनो दाशरथिः ।।] नभसि निशिचरो मेघनादो रसति शब्दायते । तयोर्बन्धनादास्फोटनमाचरतीत्यर्थः । अभिन्न हृदयमपराङ्मुखचित्तं कपिबलं दिक्षु भिन्नं तदनुसंधानाय घृणितम् । दाशरथी रामो भिद्यमानोऽपि नागपाशः खण्डयमानोऽपि न भिद्यते न पराङ्मुखचित्तो भवति। शौर्य सत्त्वात् । कीदक । रिपोरिन्द्रजितो दर्शने दत्ते लोचने येन स तथा । दाशरथिरिति लक्ष्मणसाधारण्याय जातिपरमिति केचित् ॥२३॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश विमला - ( राम-लक्ष्मण के बँध जाने के कारण हुई प्रसन्नता से ) मेघनाद आकाश में शब्द कर रहा था, कपिसेना हतोत्साह न हो उस मेघनाथ को खोजने के लिये घूम रही थी और राम नागपाश से बँधने पर भी मेघनाद को देखने में नेत्र लगाये पराङ्मुखचित्त नहीं हो रहे थे ॥२३॥ अथ सर्पाणामङ्गेषु प्रसरणमाह रोसाणलपज्जलिअं जलन्तवडवामुहाणल पडिच्छन्दम् । अङ्गेसु लद्धपसरा हिअअं से णवर परिहरन्ति भुङ्गा ||२४|| [ रोषानलप्रज्वलितं ज्वलद्वडवामुखानलप्रतिच्छन्दम् । अङ्गेषु लब्धप्रसरा हृदयमस्य केवलं परिहरन्ति भुजङ्गाः ॥ ] अस्य रामस्याङ्गेषु लब्धप्रसरा व्याप्ता भुजङ्गा रोषानलेन प्रज्वलितं यतस्तत एव केवलं हृदयं परिहरन्ति । तापभीत्या तत्र परं न गच्छन्तीत्यर्थः । किंभूतम् । ज्वलतो वडवामुखानलस्य प्रतिच्छन्दं समम् ॥२४॥ विमला - वे भुजङ्गरूप बाण राम के सभी अङ्गों पर तो व्याप्त हुये किन्तु हृदय पर नहीं गये, क्योंकि वह रोषाग्नि से प्रज्वलित होने के कारण ज्वलित वडवानल के तुल्य हो रहा था || २४|| अथ तद्भुजानामवस्थामाह ताण भुअङ्गपरिगआ दुबख पहुव्यन्तविअडभोगावेढा । जाओ थिरणिक्कम्पा मलअन डुप्पण्णचन्दणदुम व्व भुआ ॥ २५ ॥ [ तयोर्भुजङ्गपरिगता दुःखप्रभवद्विकटभोगावेष्टाः । जाताः स्थिरनिष्कम्पा मलयतटोत्पन्नचन्दनद्रुमा इव भुजाः ॥ ] तयोर्भुजा भुजङ्गः परिगताः सन्तः स्थिरनिष्कम्पा जाता: । के इव । मलयतटोत्पन्नचन्दनवृक्षा इव । ते सर्पवेष्टिताः स्थिरनिष्कम्पा एवेत्याशयः । किंभूताः । दुःखेन प्रभवद्विकटभोगैरावेष्टनं येषां ते । महत्त्वाज्झटिति वेष्टयितुं न पारयन्ती - त्यर्थः । चन्दनमप्येवमेवेति भावः || २५।। विमला - ( महान् होने के कारण ) बड़ी कठिनाई के साथ भुजङ्गबाणों द्वारा शरीर को आवेष्टित किये जाते ही राम के भुज उस समय भुजङ्गवेष्टित मलय-तटोत्पन्न चन्दन वृक्ष के समान स्थिर एवं निष्कम्प हो गये ||२५|| अथ तयोरवस्थामाह तह पडिवण्णधणुसरा सरणिभिज्जन्तणिच्चलभु अप्फलिहा । द ट्ठो ठमेत्तल विखप्रणिष्फलरोसलहुआ कआ रहुतणना १. ' प्रतरण' इति पाठः । ॥२६॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६०१ [ तथा प्रतिपन्नधनुःशरैः शरनिभिद्यमाननिश्चलभुजपरिघौ । दष्टौष्ठमात्रलक्षितनिष्फलरोषलघुको कृतौ रघुतनयौ ॥ ] रघुतनयो शरैनिभिद्यमानत्वा निश्चलौ भुजपरिघौ ययोस्तथाभूतौ कृतौ। इन्द्रजितेत्यर्थात् । किंभूतौ । तथा पूर्ववदेव प्रतिपन्नं धृतं धनुःशरं याभ्यां तो। करस्थितधनुःशरावित्यर्थः । एवमुत्तरौष्ठेन दष्टो योधरौष्ठस्तन्मात्रेण न तु व्यवसायेन लक्षितो ज्ञातोऽथ च निष्फल: प्रतिक्रिया विरहाद्यो रोषस्तेन हेतुना लघु अक्षमत्वेन ज्ञायमानावित्यर्थः ॥२६॥ विमला-उस समय राम और लक्ष्मण के परिघाकार भुजों को मेघनाद ने ( भुजङ्गरूप ) शरों से आवेष्टित कर निश्चल कर दिया, हाथ में धनुष-बाण ज्यों का त्यों रह गया । वे (प्रतिक्रिया न कर सकने के कारण ) निष्फल रोष से ओठ काटते, अतएव कुछ कर सकने में असमर्थ ज्ञात होते थे ॥२६॥ अथ शोणितनिर्गमनमाह-- सरणिभिण्णसरीरा जाआमालोअमग्गिअव्वावअवा। दरदिठ्ठपत्तणन्तरणिहित्तसंखाअलोहिया रहुतगआ॥२७॥ [ शरनिभिन्नशरीरी जातावालोकमागितव्यावयवी। दरदृष्टपत्रणान्तरनिहितसंस्श्यानलोहितौ रघुतनयो ।] शरैनिभिन्न शरीरौ रघुतनयो आलोकाय दर्शनाय मागितव्या अन्वेषणीया अवयवा ययोस्तौ जातौ। सर्पावृतत्वात् । आलोकेन दीपादिना तमःप्रागल्भ्यादिति केचित् । एवम्--किंचिद्दष्टं पत्रणा पुङ्खस्तदन्तरे तन्मध्ये निहितं स्थितं संस्त्यानं घनीभूतं लोहितं ययोस्तौ । क्षतादीषदवकाशे शरणागत्य पुङ्ख स्वल्पतया पतनाभावेन रुधिरं घनीभूतमित्यर्थः ॥२७॥ विमला-राम और लक्ष्मण का शरीर ( भुजङ्गरूप) शरों से आवेष्टित हो गया, अतएव कोई अवयव दृष्टिपथ में नहीं आता था। विद्धस्थान से थोड़ा-थोड़ा रुधिर बाणों से होता हुआ आकर पुच्छभाग में जमा हुआ दिखाई देता था ॥२७॥ अथ तयोर्जडीभावमाह-- सरसीविओरुजुपलं संकोलिमविहलणिच्चलअिचलणम् । णिअलिअदेहावअवं संचरिअव्वं पि रहुसुमाण अवहनम् ॥२८॥ [ शरस्यूतोरुयुगलं संकीलितविह्वलनिचलस्थितचरणम् । निगलितदेहावय संचरितव्यमपि रघुसुतयोरपहतम् ॥] ३६ से० ब० Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१०] सेतुबन्धम [चतुर्दश रघुसुतयोः संचरितव्यं संचरणमप्यपहतम् । सर्पाक्रान्तत्वात्स्पन्दोऽपि नादित्यर्थः । शरैः स्यूतमूरुयुगलं यत्र संकीलितत्वेन विह्वलौ, अथ च निश्चल स्थिती चरणौ यत्र । एवम्--निगलिता देहावयवा यत्र । तद्यथा स्यादिति सर्व क्रिया. विशेषणम् ॥२८॥ विमला-सर्परूप बाणों से उनकी जाँघे जकड़ उठीं । चरण स्तम्भित, विह्वल एवं निश्चल स्थित हो गये और उनका चलना-फिरना बन्द हो गया एवं क्रमशः शरीर के सभी अवयव निगडित हो गये ॥२८॥ अथ धनुःपतनमाह-- तो सुरहिपएहि समं पडि विहलन्तपढमसंठिअबाणम् । अद्दिरिउविसज्जिअसरपहरङ्कुसिअवामहत्थाहि धणुम् ।।२६।। [ ततः सुरहृदयः समं पतितं विघटमानप्रथमसंस्थितबाणम् । अदृष्टरिपुविसृष्टशरप्रहाराङ्कुशितवामहस्ताद्धनुः ततो जडीभावानन्तरमदृष्टेन रिपुणा विसृष्टो यः शरस्तत्प्रहारेणाङ्कुशितादकुशाकारेण वक्रीकृताद्वामहस्ताद्धनुः पतितम् । रामलक्ष्मणयोरित्यर्थात् । सुराणां हृदयैः समम् । सुराणामपि हृदयं पतितं तेऽप्यचेतना जाता इत्यर्थः। सहोक्तिरलंकारः । धनुः कीदृशम् । विघटमानः प्रथमसंस्थितो बाणो यत्र तत् । शरोऽपि पतित इत्यर्थः ॥२६॥ विमला-तदनन्तर अदृष्ट शत्र (मेघनाद ) के द्वारा छोड़े गये बाणों के प्रहारों से उनका वाम हस्त अङ्कुशाकार वक्र हो गया, अतएव सुरों के हृदयों के साथ-साथ उनका धनुष भी गिर गया और पहिले से उस पर चढ़ा हुआ बाण भी अलग जा गिरा ॥२६॥ अथ दिवि देवस्त्रीणामाक्रन्दमाह-- उद्धाइयो प्र सहसा विवलाअविमाणसडिमपच्छिदेसे । सुरवहुविसमक्कन्दो एक्कम हाहअरसन्ततन्तिच्छाओ॥३०॥ [ उद्धावितश्च सहसा विपलायितविमानतडिमपश्चिमदेशे। सुरवधूविषमाक्रन्द एकमुखाहतरसत्तन्त्रीच्छायः ॥] सुरवधूनां विषम आक्रन्द उद्धावित उत्थितश्च । कुत्र। विपलायितानां विमानानां तडिमस्य पश्चिमदेशे पश्चाद्भागे। रामावस्थादर्शनार्थ विमानप्रवेशद्वारदेशादधःपश्यन्तीनां युद्ध दिदृक्षया दिवि स्थितानां देवस्त्रीणां रामधनुःपाते सत्याक्रन्दोऽभवदित्यर्थः । आक्रन्दः कीदक । एकमुखमेकदैवाहतानामत एव रसन्तीनां तन्त्रीणामिव छाया यस्येति तन्त्रीध्वनितुल्यमाधुर्यमित्यर्थः ॥३०॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६११ विमला-राम का धनुष गिरते ही भागते हुये विमानों के पीछे वाले भाग में सुरवधुओं का क्रन्दन हुआ, जो एक साथ ही आहत तन्त्रियों ( वीणा के तार ) की ध्वनि के तुल्य था ॥३०॥ अथ रामपतनमाह-- तो पडिओ रहुणाहो भजन्तो तिहुवण स्स प्रासाबन्धम् । सीहणहङ्कुसपहनो तुङ्ग पासण्णपाअवं व वणगो ॥३१॥ [ ततः पतितो रघुनाथो भञ्जस्त्रिभुवनस्याशाबन्धम् । सिंहनखाङ्कुशप्रहतस्तुङ्गमासन्नपादपमिव वनगजः ।।] ततस्तदाक्रन्दानन्तरं रघुनाथः पतितः। भूमावित्यर्थात् । त्रिभुवनस्याशाबन्धं रामेण रावणो हन्तव्य एवंभूतं भञ्जन्खण्डयन् । रामे पतिते आशाबन्धोऽपि गत इत्यर्थः । वनगज इव । यथा सिंहनखाङ्कुशेन प्रहतो विद्धो वनगजस्तुङ्गमासन्नं पार्श्वस्थं पादपं भञ्जयन् पततीत्यर्थः । अत्र वनगजेन रामस्य, पादपेनाशाबन्धस्य, नखाङ्कुशेन शरस्य च तुल्यत्वादुपमा ।।३२।। विमला-तदनन्तर राम त्रिभुवन के आशाबन्ध को ( अपने पतन से) भङ्ग करते हुये ठीक उसी प्रकार गिर गये जिस प्रकार सिंह के नखाङ कुशों से विद्ध वन गज समीपस्थ तुङ्गपादप को भग्न करता हुआ गिरता है ॥३१।। अथ लक्ष्मणपतनमाह-- पडिमस्स अ रहुवइणो पडिओ अणुमग्गरं सुमित्तातणमो। उद्धबिस्स पणओ पह्नत्थस्स व दुमस्स छाआणिवहो ॥३२।। [पतितस्य च रघुपतेः पतितोऽनुमाग सुमित्रातनयः । ऊवस्थितस्य प्रणतः पर्यस्तस्येव द्रुमस्य छायानिवहः॥] पतितस्य रघुपतेरनुमार्ग पश्चात्सुमित्रातनयो लक्ष्मणः प्रणतो नम्रः सन् व्याप्यो वा पतितः । छायानिवह इव । यथा-ऊर्ध्वस्थितस्य तुङ्गस्य द्रुमस्य पर्यस्तस्य पतितस्य सतोऽनुमार्ग पश्चात्प्रणयो नम्रश्छायानिवहः पतति, तस्यैवेत्यर्थात् । यथा वृक्षात् पतति तच्छाया पततीत्यर्थेन रामस्य वृक्षण, लक्ष्मणस्य तच्छाय या तौल्येन लक्ष्मणजीवनस्य रामजीवनाधीनत्वमुक्तम् ॥३२॥ विमला-जिस प्रकार तुङ्ग द्रुम के पतित होने पर उसकी छाया नम्र हो गिर जाती है उसी प्रकार राम के गिरने पर लक्ष्मण भी गिर गये ॥३२॥ सुराणां तयोदर्शनमाहघरणिपडिएसु तेसु अ णिवण्णन्तसम होणअभरुव्वत्ता । उत्ताणएक्कचक्का सुराण तंसतडिमा चिरं आसि रहा ॥३३॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश [ धरणिपतितयोस्तयोश्च निर्वर्ण्य मानसं मुखावनतभरोद्वृत्ताः । उत्तानितैकचक्राः सुराणां तिर्यक्तडिमाश्चिरमासन्थाः ॥ ] तयोः रामलक्ष्मणयोर्धरणिपतितयोश्च सतोः सुराणां रथा निर्वर्ण्यमाने रामलक्ष्मणौ जीवतो न वेति निरूप्यमाणे सति संमुखीभूयावनतानामधोमुखानाम् । अर्थात्सुराणाम् । भरेण उद्वृत्ता नतोन्नताश्चिरमासन् । यद्दिशमाश्रित्य रामलक्ष्मणदर्शनं चक्रुस्तद्दिशि गौरवेण नता अत एवापरदिशि समुन्नता बभूवुरित्यर्थः । अतस्तत्रैवोत्तानितमूर्ध्वगतमेकं चक्रं येषां ते । अत एव तिर्यक्कडिमास्तिर्यग्गतपार्श्वभित्तय इत्यर्थः ||३३|| विमला - पृथिवी पर पड़े राम और लक्ष्मण को देखते हुये संमुख हो अधोमुख सुरों के भार से उनके रथ चिरकाल तक एक ओर झुके और दूसरी ओर उठे रहे, अतएव उनके एक-एक चक्र भी ऊपर को उठ गये तथा बगल की दीवारें तिरछी हो गयीं ॥ ३३ ॥ अथ त्रैलोक्यशोकमाह हिअपडणे व्व मूढं रइपडणे व्व सहसा तमम्मि णिवडित्रम् । रामपडणम्मि जाअं सिरपडणे व्व गअजीविअं तेल्लोक्कम् ||३४|| [ हृदयपतन इव मूढं रविपतन इव सहसा तमसि निपतितम् । रामपतने जातं शिरःपतन इव गतजीवितं त्रैलोक्यम् ॥ ] रामपतने सति त्रैलोक्यं जातम् । कीदृशम् । यथा हृदयं मनस्तत्पतने तदपगमे सति मूढं भवति तथैव मूढमज्ञम् । किं कर्तव्यमिति ज्ञानविरहात् । एवम् - रविपतने रवेरस्तमने यथा सहसा तमसि निपतति तथैव तमस मूर्च्छायां निपतितं गुरुतरशोकात् । एवम् । यथा शिरःपतने सति गतजीवितं प्राणशून्यं भवति तथैव गतजीवितं मृतमिवेत्यर्थः । रामरूपरक्षकाभावादिति भावः || ३४॥ विमला —- त्रैलोक्य राम का पतन होने पर उसी प्रकार मूढ ( अज्ञ ) हो गया जिस प्रकार हृदय के अपगत होने पर मूढ़ हो जाता है, तथा उसी प्रकार तम (मूर्च्छा ) में पड़ गया जिस प्रकार सूर्य के अस्तंगत होने पर तम (अन्धकार) में पड़ता है एवं तथैव मृत-सा हो गया जिस प्रकार सिर का पतन होने पर जीवनशून्य हो जाता है | ||३४|| अथ कपीनां राघवपरतामाह— अह रामपरित्ताणं सुण्णदिसामुहपलोअणणिरुच्छाहम् । भअणिच्चलपुञ्जइअं ण मुअइ पडिअं पि राहवं कइसेण्णम् ||३५॥ शून्यदिङ्मुखप्रलोकननिरुत्साहम् । [ अथ रामपरित्राणं भयनिश्चलपुञ्जितं न मुञ्चति पतितमपि राघवं कपिसैन्यम् ॥ ] Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६१३ कपिसैन्यं कर्तृ पतितमपि राघवं न मुञ्चति । शूरत्वात्स्वामिभक्तित्वाच्च । किंभूतं सैन्यम् । रामात् परित्राणं यस्य तत् । एवम् -रामेण विना शून्यानां दिङ्मुखानां प्रलोकनेन निरुत्साहम् । एवम्-भयेन रामविपत्तिजनुषा शत्रुतो वा निश्चलं सत्पुञ्जितं वतुलीभूतम् । अन्यत्रापि प्रतिकर्तव्योपस्थिती सर्वे संभूय विचारयन्तीति ध्वनिः ॥३५॥ विमला-कपिसेना, जिसके परित्राण राम ही थे, (राम के विना) शून्य दिशाओं को देख कर निरुत्साह, भय से निश्चल एवं सामूहिक रूप से एकत्र हो, भूमि पर पड़े हुये राम को भी छोड़ नहीं रही थी-चारो ओर स्थित थी ॥३५॥ अथ कपीनां निश्चेष्टतामाहदोणं भग्गुच्छाहं उविग्गमणं विसाअपेल्लि अहिअअम् । राहववि इण्णण अणं पालेक्खग व संठिअं कइसेण्णम् ॥३६॥ [दीनं भग्नोत्साहमुद्विग्नमनो विषादप्रेरितहृदयम् । राघववितीर्णनयनमालेख्यगतमिव संस्थितं कपिसैन्यम् ॥] कपिसैन्यमालेख्यं चित्रं तदगतमिव संस्थितम् । यथा चित्रलिखितं निश्चलमचेतनं च भवति तथेत्यर्थः । तदेवाह-कीदृशम् । विषादेन प्रेरितं नानाशङ्कायामारोपितं हृदयं यस्य । एवम्--राघवयोवतीर्णे अर्पिते नयने तदित्यपरं निगदव्याख्यातम् ॥३६॥ विमला-वानरों का हृदय विषाद के कारण नाना शङ्काओं में पड़ गया। वे दीन, भग्नोत्साह एवम् उद्विग्नमन हो राम लक्ष्मण पर नेत्र गड़ाये हुये चित्र. लिखित-से स्थित रहे ।।३६।। अथ रामस्य मुखप्रसादमाह-- पडिअस्स वि रहुवइणो वीसन्तो वेइ पवअवइसंलावम् । अविसाअमहग्धविमो सास अधीरधरिओ मुहस्स पसाओ॥३७॥ [ पतितस्यापि रघुपतेर्दू श्यमानो ददाति प्लवगपतिसंलापम् । अविषादमहाघितः शाश्वतधैर्यधृतो मुखस्य प्रसादः ॥] पतितस्यापि रघुपतेमुखस्य प्रसादो दृश्यमानः सन् । अर्थात्सुग्रीवेण । प्लवगपतये सुग्रीवायैव संलापमाश्वासवाक्यं ददाति । कीदृक् । भविषादेनानुद्वेगेन महाघितो दुर्लभः । एवम्-- शाश्वतेन सार्वदिकेन धैर्येण धृतः । तथा च तस्यानुद्वेगधैर्य मुखप्रसादैर्जीवच्छूरचिह्न: सर्व एवाश्वस्तचित्ता बभूवुरित्यर्थः ॥३७॥ विमला-भूमि पर पतित होते हुए भी राम के मुख की प्रसन्नता, जो Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४] सेतुबन्धम् [चतुर्दश विषाद से शून्य एवं शाश्वत धैर्य से युक्त थी,-को देख कर सुग्रीव आश्वस्त हुये ( अतएव सभी आश्वस्त हुये ) ॥३७॥ अथ पुनः सुग्रीवस्येन्द्रजिद्दर्शनमाह णवरि अविहीसणजलाहअच्छिणा वाणराहिवेण णहअरो। पासम्मि धणुसहाओ दिट्ठो कापेसणो दसाणणतणो ॥३८॥ [ अनन्तरं च विभीषणजलाहताक्षेण वानराधिपेन नभश्चरः । पार्वे धनुःसहायो दृष्टः कृतप्रेषणो दशाननतनयः॥] अथ समाश्वासानन्तरं वानराधिपेन दशाननस्य तनयः पार्वे निकटे नभश्चरो गगन'चारी दृष्टः । की दक् । धनु सहायो धनुर्धरः । एवम्-कृता प्रेषणा रावणाज्ञा येन तादक । सुग्रीवेण कीदशेन । विभीषणस्य राक्षसमायाहरमन्त्रेणाभिमन्त्रितं यज्जलं तेनाहते स्पृष्टे क्षालिते अक्षिणी यस्य तेन । तथा च-तत एव मायाहरणादिव्यदृष्टिना दृष्ट इति भावः ॥३८॥ विमला-विभीषण के ( अभिमन्त्रित ) जल से नेत्रों को धोकर सुग्रीव ने रावण की आज्ञा का पालन कर चुकने वाले मेघनाद को आकाश में थोड़ी ही दूर पर धनुष धारण किये हुए चलते देखा ॥३८॥ अथ सुग्रीवपौरुषमाह तो रोसतुलिअपव्व प्रसहसुद्धाइअपहा विओ सुग्गीयो। लङ्क भअविवला अहिलेऊण णवरं ठिओ रमणिअरम् ॥३६।। [ततो रोषतलितपर्वतसहसोद्धावितप्रधावितः सुग्रीवः। लङ्कां भयविपलायितमभिलीय केवलं स्थितो रजनीचरम् ।।] ततस्तद्दर्शनानन्तरं सुग्रीवो रजनीचरमिन्द्रजितं लङ्कामभिलीय प्रापय्य केवलं स्थितः । किंभूतः । रोषेण तुलितपर्वत उत्तोलितगिरिः सन् सहसा उदावितः कृतोत्फालः, तदनु प्रधावितः कृतवेगः । तं किंभूतम् । भयेन विपलायितम् । तथा च-तं दृष्ट्वा उत्प्लुत्य तथा विद्रावयामास यथेन्द्रजित्प्रमुखाः सर्वेऽपि लङ्का प्रविष्टा इत्यर्थः ।। ३६॥ विमला-मेघनाद को देखते ही सुग्रीव क्रोध से पर्वत उठाकर ऊपर की ओर उछले और वेग से दौड़े। भय से मेघनाद जो भागा तो उसे लङ्का में घुसा कर ही दम लिया ॥३६॥ अथ रावणोत्साहमाहइन्दइणा विणिवेइअराहवणिहणसुहिमओ णिसाअरणाहो। आसाइअजण असुप्रासमागमोवाणिव्वुओ ऊससिओ ॥४०॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ इन्द्रजिता विनिवेदितराघवनिधनसुखितो निशाचरनाथः । आसादितजनकसुतासमागमोपायनिर्वृत उच्छ्वसितः ॥ ] इन्द्रजिता विनिवेदितेन रामलक्ष्मणौ हत्वागतोऽस्मीत्येवं कथितेन राघवयोनिधनेन सुखितो निशाचरनाथ रावण आसादितेन लब्धेन जनकसुतासमागमो पायेन निर्वृतः सुखितः समुच्छ्वसितो दीर्घश्वासं कृतवान् | रामनिधनमेव तदुपाय इति भावः ॥ ४० ॥ विमला - इन्द्रजित् के द्वारा बताये गये राघव के निधन से सुखित रावण ने जनकसुता की प्राप्ति का उपाय मिल जाने से सुख की साँस ली ||४०|| अथ सीताया मूच्छितरामदर्शनमाह अह णिसिश्ररोहि दहम्हवणाणि अविट्ठसरसखण वे हब्बा | मुक्कक्कन्दविसंठुलदरविलविअमुच्छित्रा कआ जणअसुआ |॥४१॥ [ अथ निशिचरीभिर्दशमुखवचनानीत दृष्टस रसक्षणवैधव्या । मुक्ताक्रन्दविसंष्ठुलदरविलपितमूच्छिता कृता जनकसुता ॥ ] [ ६१५ अथ रावणोत्साहानन्तरं निशिचरीभिर्जनकसुता मुक्त आक्रन्दो यया सा मुक्ताक्रन्दा, अत एव विसंष्ठुला विह्वला, अत एव दरविलपिता किञ्चिद्विलापवती सती मूच्छिता कृता । अत्र हेतुमाह- कीदृशी । दशमुखवचनेन आनीतया सत्या दृष्टं ज्ञातं सरसं तात्कालिकं क्षणं व्याप्य वैधव्यं यया सा । सर्वत्र कर्मधारयः । तथा च - रावणवाचा ताभिरानीय रामपतनं दर्शिता सती तां तामवस्थां प्रापदित्यर्थः । मुक्तानन्दं विसंष्ठुलेन दरविलपितेन मूच्छितेति केचित् । तात्त्विकमपि रामपतनं मायामस्तक वच्छब्दमात्रेण न प्रत्येष्यतीति रणशिरसि तद्दर्शयितुं सीतासमानायिता रावणेनेति रामायणवार्ता | गरुडागमनेन तदैव प्रतीकारो वृत्त इति क्षणं वैधव्यमुक्तम् ||४१ || विमला -- तदनन्तर रावण की आज्ञा से निशाचरियों ने सीता को लाकर राम का पतन दिखाया और उन्हें इस अवस्था में कर दिया कि वे तात्कालिक क्षण भर का वैधव्य देख कर चिल्लाती, विह्वल होती, किंचित् विलाप करतीकरती मूच्छित हो गयीं ॥४१॥ अथ रामस्य प्रलापमाह- तो गमोहुम्मिल्लो पेच्छन्तो राहवो सुमित्तातणअम् । परिदेविउ उत्तो तक्खण पम्भट्ठसल सोनादुक्खो ॥४२॥ [ ततो गतमोहोन्मील: प्रेक्षमाणो राघवः सुमित्रातनयम् । परिदेवितुं प्रवृत्तस्तत्क्षणप्रभ्रष्टसकलसीतादुःखः ।। ] Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश ततः सीतादर्शनानन्तरं राघवः परिदेवनं प्रलापं कर्तुं प्रवृत्तः । किंभूतः । गतेन मोहेन मूर्च्छ या उन्मीला नयनोन्मीलनं यस्य तथाभूतः सन् सुमित्वातनयं प्रेक्ष्यमाणः । ज्ञानानन्तरं तस्मिन्नेव दृष्टि: पतितेति स्नेहातिशय उक्तः । अत एव तत्क्षणे प्रभ्रष्टं विस्मृतं सकलं सीतादुःखं येनेति ततोऽप्यधिक: पक्षपात उक्तः ॥४२॥ विमला-सीता द्वारा राम का दर्शन होने के अनन्तर मूर्छा चली जाने से राम के नेत्र खुल गये और नेत्र खुलते ही (स्नेहातिशय के कारण ) लक्ष्मण की ओर देखते हुये उस समय सीता के सकल दुःख को भूल कर विलाप करने लगे ॥४२॥ अथ लक्ष्मणोत्कर्षपरं प्रलापवाक्यमाह-- जस्स सअलं तिहअणं प्रारुहइ घणुम्मि संसअं आरूढे । सो वि हओ सोमित्ती णस्थि जए जंण एइ विहिपरिणामो ॥४३।। [ यस्य सकलं त्रिभुवनमारोहति धनुषि संशयमारूढे । सोऽपि हतः सौमित्रिर्नास्ति जगति यं नैति विधिपरिणामः ॥] सोऽपि सौमित्रिर्लक्ष्मणो हतः । यस्य धनुषि आरूढे सज्जे सति सकलं त्रिभुवनं संशयमारोहति । स्थास्यति न वेति संदेहविषयीभवतीत्यर्थः । अर्थान्तरं न्यस्यति-जगति स नास्ति यं विधेरदृष्टस्य परिणामो नैति नागच्छति । तथा च--सर्वमप्य दृष्टवश्यम्, अत एव परैरपरिभाव्योऽप्ययं हत इति भावः ॥४३॥ विमला-जिसका धनुष उठने पर त्रिभुवन की स्थिति सन्देह में पड़ जाती थी वही लक्ष्मण ( आज ) खो गया। संसार में कौन ऐसा है, जिसे भाग्य का परिणाम नहीं भुगतना पड़ता ॥४३।। अथात्मगर्हणापरं तद्वाक्यमाह अहवा अं कअकज्जो मज्झ कए मुक्कजीविओ सोमित्ती। णिप्फलवू ढभु अभरो णवर मए च्चेअ लहुइओ अप्पाणो ॥४४॥ [ अथवायं कृतकार्यो मम कृते मुक्तजीवितः सौमित्रिः । निष्फलव्यूढभुजभरः केवलं मयैव लघकृत आत्मा ।। ] __ अथवायं सौमित्रिर्मम कृते मन्निमित्तं मुक्तजीवितो यतस्तत एव कृतकार्यः, एवंविधकीर्तिरेव महत्कार्यम् । तथा सति मरणेऽपि न क्षतिरिति भावः । केवलं मयवात्मा लघूकृतः । कुत' इत्यत आह-आत्मा कीदृक् । निष्फलं यथा भवति तथा व्यूढी धृतौ भुजावेव भरौ भारी येन स तथा। तथा च-लक्ष्मण रक्षाबन्ध्यत्वाद्भारत्वमेव भुजयोर्न तु सफलत्वमिति भावः ॥४४।।। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६१७ विमला-अथवा मेरे लिये जीवन देकर यह लक्ष्मण तो कृत-कृत्य हो गया। केवल ( इसकी रक्षा न कर सकने के कारण ) निष्फल भुजाओं का भार ढोते हये मैंने ही अपने को तुच्छ सिद्ध किया ॥४४॥ अथ सुग्रीवं प्रति रामस्य वचनमाहअह जम्पइ सुग्गीवं महुरं उच्छाहदाविअपरिच्छेप्रम् । वअणं सहसोवस्थिअमरणावत्थाववठ्ठविअगम्भीरम् ॥४५॥ [ अथ जल्पति सुग्रीवं मधुरमुत्साहशितपरिच्छेदम् । वचनं सहसोपस्थितमरणावस्थाव्यवस्थापितगाम्भीर्यम् ॥] अथ परिदेवनोत्तरं स रामः सुग्रीवं प्रति वचनं जल्पति । कीदृक् । मधुरमिष्टम् । उत्साहेन दशितः परिच्छेदो लक्ष्मणेन सहानुमरणे निश्चयो यत्र । वक्तव्यभागपरिच्छेद इति वा । एवम् -सहसोपस्थितायां मरणावस्थायां व्यवस्थापितं स्थिरीकृतं गाम्भीर्यमकातरत्वं यत्र तत् । मधुरत्वादि क्रियाविशेषणं वा ॥४५॥ विमला-तदनन्तर राम ने सुग्रोव से (वक्ष्यमाण) मधुर वचन कहा, जिसमें उत्साह के साथ-साथ लक्ष्मण के साथ मरने का निश्चय भी दिखायी देता था तथा सहसा मरणावस्था के उपस्थित होने पर भी गाम्भीर्य व्यवस्थित था ॥४५॥ सुग्रीवादिप्रशंसापरं तद्वाक्यस्वरूपमाहणिवूढं धीर तुमे इमो वि उअहुत्तभुप्रबलो कइलोप्रो। कम्म इमेण वि क जणिव डिअजसदुक्करं मारुहणा ॥४६।। [ निव्यूढं धीर त्वयायमप्युपभुक्तभुजबल: कपिलोकः । कर्मानेनापि कृतं जगन्निर्वलितयशो दुष्करं मारुतिना ॥] हे धीर ! त्वया नियूढं प्रत्युपकारः कृतः। अजमपि कपिलोक उपभुक्तभुजबलः । सेतुबन्धादिना व्यापारितभुजबलः । अनेनापि मारुतिना कर्म कृतम् । कीदृक् । जगतो निर्वलितं पृथग्भूतं यशो यत्र तत् । दूरतरविलक्षणयशोनिधानम् । अथ च दुष्करं समुद्रलङ्घनादिरूपत्वाद् । अथवा जगद्विलक्षणयशोभिर्महत्तरैरपि दुष्करमित्यर्थः । तथा च भवतां श्रमो मया ज्ञात हति भावः ॥४६॥ विमला-धीर ! ( मुझे यह ज्ञात है कि ) तुमने प्रत्युपकार किया, वानरों ने अपने भुजबल का उपभोग किया तथा इस पवनसुत ने भी वह दुष्कर कर्म किया, जिसका यश संसार से पृथक् है ।।४६।। विभीषणं प्रत्यनुशयपरं तदाह आबद्धबन्धुवेरं जं मे ण णिआ विभोसणं रामसिरी। दुक्खेण एण अ महं अविहाविबाणवेप्रणरसं हिअअम् ॥४७॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश [ आबद्धबन्धुवरं यन्मया न नीता विभीषणं राजश्रीः । दुःखेनैतेन च ममाविभावितबाणवेदनारसं हृदयम् ।।] आबद्धं बन्धुना रावणेन समं वरं येन । मदर्थमित्यर्थात । एतादृशं विभीषणं प्रति मया राज्ञो रावणस्य श्रीलङ्का प्रभुता यन्नानीता न प्रापिता। अयं राजा न कृत इत्यर्थः। एतेन दुःखेन मम हृदयमविभावितोऽपरिज्ञातो बाणवेदनारसो येन तथाभूतम् । अस्तीत्यध्याहारः । तथा च रावणभयादनेन लङ्कां( ङ्कायां ) न गन्तव्यमन्यत्र स्थानमस्य नास्त्येवेति मरण दुःखादपि महदुःखमिति भावः ॥४७॥ विमला-किन्तु ( मेरे लिये ) जिसने अपने बन्धु से वैर किया उस विभीषण को लङ्का की राजश्री न प्राप्त करा सका, इस बात से मेरे हृदय को जितना दुःख है उतना बाणों से विद्ध होने पर भी नहीं हुआ ॥४७॥ अथ सुग्रीव विसर्जनपरं तदाह ता वच्चसु मा मुज्झसु तुरिअं तेणेअ सेउबन्धेण तुमम् । पेच्छसु बन्धववग्गं दुक्खं कालस्स जाणिउं परिणामम् ॥४८॥ [ तावद्वज मा मुह्य त्वरितं तेनैव सेतुबन्धेन त्वम् । प्रेक्षस्व बान्धववर्ग दुःखं कालस्य ज्ञात्वा परिणामम् ।।] तावदिति वाक्योपसंहारे । हे सुग्रीव ! यावद्भवन्तोऽपि नाभिभूतास्तावत्त्वं तेनैव सेतुबन्धेन त्वरितं व्रज गृहाय गच्छ मा मुह्य । मोहं मा कुरुष्वेत्यर्थः । अथ वान्धववर्ग प्रेक्षस्व । कुल इत्यत आह-किं कृत्वा । कालस्य परिणामं दुःखं दुखहेतुं ज्ञात्वा । तथा च यत्र ममैवेयमवस्था, तत्र भवतां का गतिरिति भावः ॥४८।। विमला-सुग्रीव ! समय का परिवर्तन ही दुःख का हेतु होता है-ऐसा जान कर तुम सेतुमार्ग से शीघ्र घर चले जाओ, मोह मत करो और बान्धववर्ग को देखो-इनके योगक्षेम की चिन्ता करो ।।४८॥ अथ सप्तभिः सुग्रीवोक्तिमाह तो तिव्वरोसलङ्घिअविहुप्राणणदुक्खधरि अबाहुप्पीडो। रहुवइणो पडिवअणं भणइ अदाऊण वाणरे पवअवई ॥४६॥ [ ततस्तीवरोषलचितविधुताननदुःखधृतबाष्पोत्पीडः । रघुपतेः प्रतिवचनं भणत्यदत्त्वा वानारान्प्लवगपतिः ॥] ततो रामवचनादुत्तरं प्लवगपतिर्वानरान्भणति । किं कृत्वा । रघुपतेः कृते प्रतिवचनं प्रत्युत्तरमदत्त्वा । अयुक्तत्वादत एवातिरोषत्वाद्वा। किंभूतः । तीव्ररोषण लङ्घितमतिक्रान्तमत एव विधूतं कम्पितं यदाननं तेन दुःखेन धृतो बाष्पोत्पीडो येन स तथा । रामदुःखादुदश्रुरित्यर्थः ॥४६॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६१६ विमला-तदनन्तर सुग्रीव का मुख तीव्र रोष से अतिक्रान्त, अतएव कम्पित हो गया और आँसू को बड़ी कठिनाई से रोक सका, अतएव राम को विना उत्तर दिये उसने वानरों से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ।।४६।। बच्चह लक्खणसहिणवपल्लवरइअवीरसअणत्थरणम् । पावेह वाणर उरि अविहाविबाणवे प्रणं रहुणाहम् ॥५०॥ [व्रजत लक्ष्मणसहितं नवपल्लवरचितवीरशयनास्तरणम् । प्रापयता वानरपुरीमविभावितबाणवेदनं रघुनाथम् । ] हे वानराः ! यूयं व्रजत । लक्ष्मणसहितं रघुनाथं वानरपुरी किष्किन्धां प्रापयत । किंभूतम् । नवपल्लव रचितं वीरशयने आस्तरणं यस्य तम् । अत एवाविभावितापरिज्ञाता बाणवेदना यत्र तद्यथा स्यादिति क्रियाविशेषणम् । नवपल्लवादिकोमलोपचारेण बाणवेदना परिहर्तव्येति भावः ।।५०॥ विमला-वानरों ! तुम सब लक्ष्मणसहित रघुनाथ को किष्किन्धापुरी पहुंचा दो और वहाँ वीरशय्या पर नव-( कोमल )-पल्लव बिछा कर उनकी बाण वेदना दूर करो ॥५॥ अह पि विज्जपडणाइरित्तसंपाअगहिमपविद्धधणम् । प्रद्धोहरिआसाइअवलि अभुअक्खित्तमोडिअगाविहलम् ॥५१॥ खन्धद्धन्तोवाहिअकरजुअलोलुग्गचन्वहासक्खग्गम् अक्कतचलणताडिअदलिअरहाहोमुहोसरन्तपहरणम् ॥५२॥ भग्गपुरिल्लविसंठुलभु अजुअलुक्खुडिनसेसणिप्फल बाहुम् । वज्जणिहहरणिवन्तविण्णवढमुट्ठिभिण्णवच्छवन्तम् ॥५३।। भअणिमवालिअड्ढिाडि अक्केक्कविसरन्तपब्बिद्धसिरम् । णिप्फलसोप्रासंधिमणक्खुक्खुडिअहिअरं करेमि दहमुहम् ॥५४॥ ( अन्त्यकुलअम् [ अहमपि विद्युत्पतनातिरिक्तसंपातगृहीतप्रवृद्धधनुषम् । अर्धावहृतासादितवलितभुजाक्षिप्तमोटितगदाविह्वलम् ।। स्कन्धार्धान्तापवाहितकरयुगलावरुग्णचन्द्रहासखड्गम् । आक्रान्तचरणताडितदलितरथाधोमुखापसरत्प्रहरणम् ॥ भग्नपुरोगविसंष्ठुलभुजयुगलोत्खण्डितशेषनिष्फलबाहुम् । वज्रनिभहस्तनिपतहत्तदृढमुष्टिभिन्नवक्षोर्धान्तम् ॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् 1 भुजनिर्वालितकृष्टखण्डितै कै कविसरत्प्रवृद्धशिरसम् निष्फल सीतासंहितनखोत्खण्डितहृदयं करोमि दशमुखम् ॥ ] ( अन्त्य कुलकम् ) `६२० ] अहमपि दशमुखमीदृशं करोमीति चतुर्थस्कन्धकेनान्वयादन्त्य कुलकम् । कीदृशम् । विद्युत्पतनादप्यतिरिक्त नालक्ष्यत्वादिनोत्कटेन संपातेनोत्फालेन गृहीतमा च्छिन्नं प्रवृद्धं महद्धनुर्यस्य तम् । प्रथममुत्प्लुत्य तद्धनुर्ग्रहीष्यामीत्यर्थः । अथ रावणेनेत्यर्थात् । अर्धभावतया मदुपर्यवपातितयाथ तदैव मयासादितया करेण धृतया तदनु वलितादामोटय वक्रीकृताद्रावणस्य भुजादाक्षिप्तयातिक्रम्य गृहीतया पश्चान्मोटितया भग्नया गदया विह्वलम् । धनुर्ग्रहणानन्तरं तेन मदुपरि गदा क्षेप्तव्या, सापि मयान्तरिक्ष एवातिक्रम्य ग्रहीतव्या, ततोऽस्त्राभावाद्वयाकुल एव स्यादित्यर्थः । पुनः किंभूतम् । अर्थान्ममैव । स्कन्धस्यार्धान्तेऽपवाहितः पातितः सन् मयैव करयुगले नाव रुग्णे गृहीत्वा भग्नश्चन्द्रहासनामा खड्गो ग्रस्य तम् । गदाभङ्गानन्तरं तेन मयि खड्गः पातनीयः सोऽपि मया भञ्जनीय इत्यर्थः । एवम् अर्थान्मयैव | आक्रान्तादधिष्ठितादथ चरणैस्ताडितादत एव दलितात्स्फुटितात्तस्यैव रथादधोमुखं सदपसरद्भूमौ पतत् प्रहरणमस्त्रसमुदायो यस्य तम् । तस्य खड्गादिशून्यतायां सत्यामुत्प्लुत्य मया यदाहत्या तद्रथो भञ्जनीयः, तदनु ततोऽप्यस्त्राणि पतिष्यन्ती· त्यर्थः । एवम् - मयैव । तस्येत्यर्थात् । भग्नाः पुरोगामिनः पुरोवर्तिनः । अर्थाद्दश । हस्तैर्विष्ठुलो विकलः सन्ममैव भुजयुगलेनोत्खण्डिताः शेषाः पश्चाद्वर्तिनो निष्फलाः कार्याजनकत्वाद्दश बाहवो यस्य तम् । अथ विरथस्य तस्य पुरः पुरोवर्तनो दश, पश्चात्पश्वाद्वर्तिनोऽपि दश एवं विंशतिरपि बाहवो मया भुजाभ्यामुत्पाटनीया इत्यर्थः । यद्वा - मयैव प्रथमं भग्नमत एव पुरोवर्ति सत्, विसंष्ठुलं यद्भुजयुगलं तेनैव हेतुना तत्प्रतिबद्धत्वेनोत्खण्डितास्त्रुटिताः शेषा निष्फला बाहवो यस्य तम् । मुख्यबाहुद्वयभञ्जनात्तदन्विताः परेऽप्यष्टादश भञ्जिताः स्युरित्यर्थः । एवम् वज्रनिभस्य हस्तस्य निपतन्सन्दत्तोऽर्पितो यो दृढो मुष्टिस्तेन भिन्नो वक्षसोऽर्धान्तो यस्य । तथा च बाहुभङ्गानन्तरं मुष्ट्या तस्य वक्षो विदारयिष्यामीत्यर्थः । एवम्—भुजाभ्यां निर्वालितानि धृत्वा पृथक्कृतानि तदनु आकृ- [ष्टान्याकृ]ष्टानि पश्चात्खण्डितानि सन्ति एकैकं प्रत्येकं विसरन्ति भूमौ पतन्ति प्रवृद्धान्युपचितानि शिरांसि यस्य तम् । वक्षोविदारणानन्तरं प्रत्येकं तस्य मस्तकानि विच्छिद्य विच्छिद्य भूमौ पातयिष्यामीत्यर्थः । अथ कार्यानिष्पत्त्या निष्फलं यथा स्यादेवं सीताविषये संहितमासञ्जितमत एव नखैरुत्खण्डितमभ्यन्तरादप्युत्खातं हृदयं यस्य तथाभूतम् । शिरः खण्डनानन्तरं सीतायामासक्त्यपराधात्तदन्तः स्थितमपि तन्मनो रुखाय बहिः करिष्यामीत्यर्थः ॥ ५४ ॥ विमला - मैं ( सुग्रीव) भी रावण को ऐसा कर दूं कि सब से पहिले विद्युद्वेग से 1 | चतुर्दश Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ६२१ भी अधिक वेग से ऊपर की ओर उछल कर उसके विशाल धनुष को ग्रहण करूंगा। मेरे द्वारा धनुष छीने जाने पर वह मेरे ऊपर अर्धभाग से गदा गिरायेगा तो मैं उसकी गदा हाथ से पकड़ लूंगा और उसकी भुजा को ऐंठ कर उससे गदा छीन कर तोड़ डालूंगा, एवं वह विह्वल हो जायगा। गदा तोड़ देने पर वह मेरे अर्धस्कन्ध प्रदेश पर खड्ग से वार करेगा तो उसके चन्द्रहास नामक खड्ग को हाथ से पकड़ कर तोड़ दूंगा। उसके रथ को आक्रान्त कर चरणप्रहारों से तोड़ दूंगा, अतएव उससे भी उसके अस्त्र अधोमुख हो गिर जायँगे। भुजयुगल से मैं उसकी आगे की दस भुजाओं को भग्न करके पीछे वाली निष्फल दस भुजाओं को भी उखाड़ फेकूँगा एवं वज्रसदृश अपने हाथ की मूंठ से उसके वक्ष को विदीर्ण करूंगा। उसके बड़े बड़े एक-एक सिर को भुजाओं से पकड़-पकड़, खींच-खींच कर खण्डित कर पृथिवी पर गिरा दूंगा, तदनन्तर सीता में व्यर्थ आसक्त उसके हृदय को नखों से निकाल बाहर करूंगा ।।५१-५४॥ इअ अज्जं चेअमए णिहअम्मि दसाणणे णिआ किक्किन्धम् । अणुमरिहिइ व मरन्तं वच्छिहि व जिअन्तराहवं जणअसुआ॥५५॥ [ इत्यद्यैव मया निहते दशानने नीता किष्किन्धाम् । अनुमरिष्यति वा नियमाणं द्रक्ष्यति वा जीवद्राघवं जनकसुता ॥] इत्यनेन प्रकारेणाद्यैव वा मया दशानने निहते सति किष्किन्धां नीता सती जनकसुता जीवन्तं राघवं द्रक्ष्यति वा। अथ तथाभूतमेव म्रियमाणमनुमरिष्यति वा । तथा च--इतः सीताया नयने रामस्य जीवने मरणे वा पक्षद्वयेऽपि सीतालाभ इत्युभयथापि मम प्रत्युपकारसिद्धिः स्यादथ नयनं न चेत्तदा कस्यामपि दशायां तस्य तल्लाभो न स्यादिति महदनिष्टम् ।।५।। विमला-इस प्रकार मेरे द्वारा आज ही रावण के निहत होने पर सीता या तो किष्किन्धा पहुँचकर जीवित राम को देखेंगीअथवा उनके मर जाने पर वे ( सीता ) भी मर जायेंगी ॥५५॥ अथ रामस्य गरुडाह्वानमाहविसहरबाण त्ति इमे विहीसणेण विणिवारिए सुग्गीए । प्राढत्तो चिन्तेउ मन्तं हिपएण गारुडं रहुणाहो ॥५६॥ [ विषधरबाणा इतीमे विभीषणेन विनिवारिते सुग्रीवे । आरब्धश्चिन्तयितु मन्त्रं हृदयेन गारुडं रघुनाथः ॥] इमे विषधराः सास्तद्रूपा बाणास्तथा च किं करिष्यन्तीति कृत्वा विभीषणेन सुग्रीवे विनिवारिते सति । राघवयोः किष्किन्धां प्रेषणादित्यर्थात् । रघुनाथो रामस्तत्प्रतिकाराय गारुडं मन्त्रं हृदयेन चिन्तयितुमारब्धः ॥५६।। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश विमला - ये विषधर - ( सर्प ) - रूप बाण हैं ( वानर इसका उपचार क्या करेंगे ) इस प्रकार कहकर विभीषण ने सुग्रीव को मना किया ( कि राम को किष्किन्धा न भेजें ) । तब श्रीराम ने ( प्रतीकारार्थ ) गरुड़मन्त्र को हृदय में जपना आरम्भ किया ।। ५६ ।। अथ गरुडागमनमाह - णवरि अ सहसुच्छिष्पन्त साअरद्धन्तधुव्वमाण सुवेलम् । जाअं खरवा ग्राहअ किरन्तरक्खसकलेवरं धरणिअलम् ||५७ ॥ [ अनन्तरं च सहसोत्क्षिप्यमाणसागरार्धान्तधूयमानसुवेलम् । जातं खरवाताहतकीर्यमाणराक्षसकलेवरं धरणीतलम् || ] मन्त्रचिन्तनानन्तरं च धरणीतलं महीतलं जातम् । कीदृशम् । सहसा उत्क्षि'प्यमाणेन । पक्षपातैरित्यर्थात् । सागरस्यार्धान्तेन सुवेलसंनिहितभागेन दोधूयमानः कम्प्यमानो धाव्यमानः क्षाल्यमानो वा सुवेलो यत्र तादृशम् । एवम् — खरेण तीक्ष्णेन पक्षयोरेव वातेन कीर्यमाणमितस्ततः प्रेर्यमाणं राक्षसानां कलेवरं यत्र तत् । विरोधित्वादित्याशयः ।। ५७ ।। विमला —- तदनन्तर भूतल का यह दृश्य स्वरूप हो गया कि आधा समुद्र उछल पड़ा और उसके जल से सुवेलगिरि धुल गया तथा प्रचण्ड वायु से राक्षसों का कलेवर इधर-उधर विकीर्ण होने लगा ।। ५७ । अथ गरुडदर्शनमाह पेच्छइ अ कण पेहुण बहलुज्जोअपडिसारिअमहातिमिरम् । पिछमनुप्रपमहं थिरपित्थिणिहित्तमहमहा सण मग्गम् ||१८|| दुवारवासवा उघा अविमुक्के क्कपिञ्छपा अडवच्छम् । रामो पाअलच्छि अकण्ठवलन्त ठिओरअधरं गरुडम् ॥५६॥ ( जुग्गअम् ) [ प्रेक्षते च कनकपिच्छब हलोद्योत प्रतिसारित महातिमिरम् । नवपिच्छमृदुकपक्ष्माणं स्थिरपृष्ठ निहितमधुमथनासनमार्गम् ॥ दुर्वारवासवायुधघातविमुक्तैकपक्षप्रकटवक्षसम् पातालावितकण्ठवलत्स्थितोरगधरं रामः रामो गरुडं प्रेक्षते चेत्युत्तरस्कन्धकेन संदानितकम् । कीदृशम् । कनकमयानां 'पिच्छानां बहलोद्दयोतेन प्रतिसारितं महातिमिरं येन तम् । सुवर्णमयगरुत्तेजसा `तमो नाशयन्तमित्यर्थः । एवम् - नवपिच्छत्वान्नूतनपक्षत्वान्मृदुक पक्ष्माणं मृदुलोमा - गरुडम् ॥ ] ( युग्मकम् ) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६२३ I ग्रम् । एवम् - स्थिरपृष्ठे निहितो मधुमथनासनस्य मार्गः स्थानं यत्र तम् । तद्वाहनत्वादिति भावः । किंभूतम् । दुर्वारस्य वासवायुधस्य वज्रस्य घातेन विमुक्तस्त्रुटितो य एक: पक्षस्तेन प्रकटं वक्षो यस्य तम् । पक्षाभावेनावरणाभावादिति भावः । एवम् - पातालादश्चित आकृष्टः सन् कण्ठे वलन् वक्रीभूय स्थितो य उरगस्तद्धारकम् । पातालादेव तदानीमागमनाच्चञ्च्वाकृष्टसर्पेण वेष्टितकण्ठमित्यर्थः ॥ ५८-५६ ॥ विमला - राम ने देखा कि गरुड़ आ रहा है, उसने सुवर्णमय पंख के तेज से तम का विनाश कर दिया है, नूतन पंख होने से उसने लोमाग्र मृदु हैं तथा स्थिरपृष्ठ पर विष्णु के बैठने का स्थान निहित है, दुर्वार वज्र के प्रहार से एक पंख टूट जाने के कारण उसका वक्ष प्रकट है तथा ( उस समय पताल से आने के कारण ) चोंच से आकृष्ट, अतएव वक्र होते हुये सर्प से उसका कण्ठ वेष्टित है ||५८-५६ ।। अथ नागपाशत्यागमाह तो कअरामपणा मे गरुडे ओवइअसमुहसं ठिअ दिट्ठे । दो वि मुक्कसरीरा ण विणज्जइ ते कहि गआ सरणिवहा ।। ६०॥ कृतरामप्रणामे गरुडेऽवपतितसंमुख संस्थितदृष्टे । [ ततः द्वयोरपि मुक्तशरीरा न विज्ञायते ते कुत्र गता शरनिवहाः ॥ ] ततो रामस्य तद्दर्शनानन्तरं दूरादेव कृतप्रणामे गरुडेऽवपतितेनाकाशादवतरणेन संमुखसंस्थिते दृष्टे सति द्वयोरपि रामलक्ष्मणयोर्मुक्तं त्यक्तं शरीरं यैस्तथाभूताः सन्तः शरनिवहाः कुत्र गता इति न विज्ञायते । रामसंमुखगतं गरुडं दृष्ट्वा हठादेव सर्पाः पलायिता इति भावः ॥६०॥ विमला - तदनन्तर गरुड़ ने दूर से ही राम को प्रणाम किया और वह नीचे उतर कर राम के सम्मुख स्थित हुआ । गरुड़ को देखते ही वे ( भुजगरूप ) बाण राम के शरीर को छोड़ कर न मालूम कहाँ चले गये ||६० ॥ अथ गरुडालिङ्गनमाह यह सरबन्धविमुक्st विणप्रातणओवऊहणक्ख अरहिओ । अप्पा हिअत्थमन्तो जाओ गअगरुडदारुणो रहुणा हो ।। ६१ ।। [ अथ शरबन्धविमुक्तो विनतातनयोपगूहनक्षतरहितः । अध्यापितास्त्रमन्त्रो जातो गतगरुडदारुणो रघुनाथः ॥ ] are गरुडसांनिध्यानन्तरं शरबन्धाद्विमुक्तो रघुनाथो गतेन गरुडेन हेतुना दारुणो दुःसहो जातः । तस्मिन्सति तदासक्तत्वादिति भावः । कीदृक् । विनतातनयस्योपगूहनादालिङ्गनात्क्षतै रहितः शून्यः । एवम् - गरुडेनाध्यापित उपदिटोsस्त्रमन्त्रो गारुडो यस्मै सः । गरुडेनालिङ्गय सर्पभयाभावायोपदिष्टनिजमन्त्रः प्रबलोऽभूदित्यर्थः ॥ ६१॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४] सेतुबन्धम् [चतुर्दश विमला-गरुड़ के आगमन के अनन्तर राम (लक्ष्मण सहित ) नागपाश से विमुक्त हो गये और गरुड़ भी ( अपने स्थान को ) चला गया। जाते समय गरुड के आलिङ्गन से शरीर के क्षत ठीक हो गये और गरुड़ ने ( सदा के लिये सर्पभय को दूर करने के लिये ) अपना मन्त्र राम को बताया, अतएव वे ( पहिलेसे भी ) प्रबल हो गये ।।६१।। अथ धूम्राक्षस्य युद्धोद्योगमाह-- अह सरबन्धविमुक्के सोऊण णिसाअराहियो रहुगाहे। प्राअअगरुडासङ्गो धम्मक्खम्मि सअलं णिमेइ रणभरम ॥६२।। [अथ शरबन्धविमुक्ती श्रुत्वा निशाचराधिपो रघुनाथी । आगतगरुडाशङ्को धूम्राक्षे सकलं नियोजयति रणभरम् ।।] अथ गरुडगमनोत्तरं शरबन्धाद्वि मुक्तौ रघुनाथौ श्रुत्वा निशाचराधिपः सकलं रणभरं धूम्राक्षे नियोजयतीति । कीदक । आगता गरुडादाशङ्का यस्य । गरुड एवास्मान् हन्तुमागत इत्येवंरूपतदाशङ्कावानित्यर्थः । आगताद्गरुडादिति वा ।।६२॥ विमला-गरुड के जाने के बाद राम लक्ष्मण को नागपाश से विमुक्त सुनकर रावण को यह शङ्का हो गयी कि गरुड़ आया था और तब उसने युद्ध का पूर्ण उत्तरदायित्व धूम्राक्ष पर डाल दिया ॥६२।। अथ धूम्राक्षस्य प्रयाणमाह सो रोसेण रहेण व उच्छाहेण व णिसापरबलेण समम् । णीइ भुव पहरिसं वहमानो विक्कम व वेरावन्धम् ॥६३॥ [ स रोषेण रथेनेवोत्साहेनेव निशाचरबलेन समम् । निरैति मुजमिव प्रहर्ष वहमानो विक्रममिव वैराबन्धम् ॥] स धूम्राक्षो रणाय निरैति । रथेनेव रोषेण समम् । यथा रथेन सह निर्गच्छति तथा रोषेणापि सहेत्यर्थः । एवम्-उत्साहेन सह यथा तथा निशाचरबलेनापि सहेत्यर्थः। किंभूतः । यथा भुजं तथा प्रहर्षमानन्दमपि । एवम्-यथा विक्रम तथा वैराबन्धमपि वहमान इति सर्वत्र सहोपमा ॥६३।। विमला-वह ( धूम्राक्ष ) भुज के साथ-साथ प्रहर्ष को तथा विक्रम के साथसाथ वैर के आग्रह को वहन किये हुये, रथ के साथ-साथ रोष से, उत्साह के साथ-साथ निशाचरसैन्य के सहित, युद्ध के लिये निकल पड़ा ॥६३॥ अथ हनूमद्धम्राक्षसैन्ययोः सांमुख्यमाह तो सो रक्खसणिवहो सह धुम्मक्खेण साअरद्धन्तणिहो। वडवामुहाणलस्स व संचरणपहम्मि मारुअसुअस्स ठिमो ॥१४॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६२५ [ततः स राक्षसनिवहः सह धूम्राक्षेण सागरार्धान्तनिभः। वडवामुखानलस्येव संचरणपथे मारुतसुतस्य स्थितः ।। ] ततो धूम्राक्षनिर्गमनानन्तरं सागरस्यार्धान्त एकदेशस्तन्निभो बहुलत्वान्नीलत्वाच्च तत्तुल्यो राक्षसनिवहो धूम्राक्षेण समं तेजस्वित्वात्कपिशत्वाच्च वडवामुखानलस्येव मारुतसुतस्य संचरणपथे सम्मुखे स्थितः । तथा च सागरार्धान्ततुल्यत्वेन राक्षसनिवहस्य भक्ष्यत्वम्, वडवानलत्वेनोत्प्रेक्षया हनूमतो भक्षकत्वं प्रतियते ॥६४।। विमला-तदनन्तर समुद्र के एकभाग-सा राक्षससमूह धूम्राक्ष के साथ, वडवानल से हनुमान् के सम्मुख स्थित हो गया ॥६४॥ अर्थतयोयुद्ध माह अह दारुणावसाणे कारक्खससेण्णवइअरम्मि पत्ते। संभारिअक्खणिहणो ओत्थरइ सरेहि मारुई धुम्मक्खो ॥६५॥ [ अथ दारुणावसाने कपिराक्षससैन्यव्यतिकरे प्रवृत्ते । संस्मृताक्षनिधनोऽवस्तृणाति शरैर्मारुतिं धूम्राक्षः॥] अथ सांमुख्यानन्तरं क्षयहेतुत्वाद्दारुणमवसानं यस्य तादृशि कपिराक्षससैन्ययोर्व्यतिकरे युद्धरूपे प्रवृत्ते सति धूम्राक्षः शरैर्मारुतिमवस्तृणाति आच्छादयति । किंभूतः । संस्मृतमक्षस्य भ्रातुनिधनं मरणं येन तादृक् । लङ्कादाहसमयेऽक्षोऽनेनैव हत इति क्रोधादिति भावः ॥६५॥ विमला-तदनन्तर वानरों और राक्षसों में भयावह परिणाम वाले युद्ध के प्रारम्भ होने पर धूम्राक्ष ने ( हनुमान के द्वारा भ्राता अक्ष का निधन हुआ सोच कर ) बाणों से हनुमान को आच्छादित कर दिया ॥६॥ अथ धूम्राक्षरथभङ्गमाह तो तस्स सरणिधाए रोमन्तरलग्गणिप्फले धुअमाणो। प्रक्कमणमोडिअरहो हिअधम्मक्खधनुसंठिओ हसइ कई ॥६६॥ [ ततस्तस्य शरनिघातान् रोमान्तरलग्ननिष्फलान्धुन्वानः । आक्रमणमोटितरथो हृतम्राक्षधनुःसंस्थितो हसति कपिः ॥] ततः शरवृष्टयनन्तरमाक्रमणेनोत्प्लुत्यारोहणेन मोटितो भग्नो रथो येन । धूम्राक्षस्येत्यर्थात् । स कपिहनूमान् हृतमाच्छिद्य गृहीतं यद्धूम्राक्षस्य धनुस्तत्र संस्थितः हसति । धूम्राक्ष लक्ष्यीकृत्येत्यर्थात् । मर्कटस्वभावोऽयमिति भावः । कि कुर्वन् । तस्य धूम्राक्षस्य शरनिघातान् रोमान्तरेषु लग्नान् सतो निष्फलानकिचित्क रत्वाद्धन्वानो देहोत्ोपणादिना दिशि दिशि क्षिपन ॥६६॥ । विमला-हनुमान् तदनन्तर उछल कर उस ( धूम्राक्ष ) के रथ पर चढ़गये ४० से० ब० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६] सेतुबन्धम् [चतुर्दश और उसे तोड़-ताड़ डाला एवं धूम्राक्ष के धनुष को छीनकर उस पर बैठे-बैठे रोम-रोम के मध्य में लगे हुये निष्फल बाणों को ( देह हिला-हिला कर ) इधरउधर फेंकते हुये, (धूमाक्ष पर ) हँसे ।।६६।। अथ हनूमद्देहदाढर्थमाह-- भग्गो भुअम्मि फलिहो बच्छुच्छलि अलिअंण वढें मुसलम् । घुम्मक्खरोसमुक्कं पवअस्स जहिं तहिं विराइ पहरणम् ॥६७॥ [ भग्नो भुजे परिघो वक्षउच्छ्वलितदलितं न दृष्टं मुसलम् । धूम्राक्षरोषमुक्तं प्लवगस्य यत्र तत्र विशीर्यति प्रहरणम् ॥] हनूमतो भुजे परेषां परिघो भग्नो द्विधाभूतः । वक्षस उच्छ्वलितं सद्दलितं द्विधाभूतं मुसलमपि न दृष्टम् । कुत्र गतमित्यर्थः । एवम्-धूम्राक्षेणापि रोषण मुक्त प्रहरणं परिघादि प्लवगस्य यत्रैव तत्रैव देहे विशीर्यति खण्डखण्डीभवति । पतितं सदित्यर्थात् । एतेन वज्रदेहत्वमुक्तम् ।।६७।। विमला-हनुमान् के भुज पर धूम्राक्ष का परिघ गिरते ही स्वयं दो टूक हो जाता, वक्ष पर मुसल उछल कर दो टूक हो जाता और कहाँ चला जाता, इसका पता ही नहीं चलता, यहाँ तक कि धूम्राक्ष क्रोधपूर्वक जो भी अस्त्र छोड़ता, वह हनुमान् के शरीर पर जहाँ ही गिरता वहीं खण्ड-खण्ड हो जाता था ॥६७॥ अथ युग्मकेन धूम्राक्षमरणमाह तो दीहवामकरपलपरिवण्णावेढणोणअगलुद्देसम् । सम्भन्तजीवणिग्गमवच्छन्भन्तरभमन्तसीहणिणाअम् ॥६॥ खणवावारिविसंतुलगलन्तपहरणपलम्बिनोहमहत्थम् । कुणइ पभजणतणओ उठिमुक्कजीवि धुम्मक्खम् ॥६६॥ ( जुग्गमम् ) [ ततो दीर्घवामकरतलप्रतिपन्नावेष्टनावनलगलोद्देशम् । रुध्यमानजीवनिर्गमवक्षोभ्यन्तरभ्रमत्सिहनिनादम् ॥ क्षणव्यापारिविसंष्ठुलगलत्प्रहरणप्रलम्बितोभयहस्तम् । करोति प्रभञ्जनतनय ऊध्वोत्थितमुक्तजीवितं धूम्राक्षम् ॥] (युग्मकम् ) ततः परिघादिप्रहारानन्तरं प्रभञ्जनतनयो हनूमान् धूम्राक्षमूर्ध्वमुत्थितं गतं सन् मुक्त त्यक्त जीवितं येन तादृशं करोतीत्युत्तरस्कन्धकेनान्वयः। किंभूतम् । दीर्घेण वामकरतलेन प्रतिपन्नमङ्गीकृतं यदावेष्टनमामोट्य ग्रहणं तेनावनतो गलो शो यस्य तम् । वामबाहुनावेष्ट्यामोट्य गले धृतमित्यर्थः। अथ कण्ठस्य मोटितत्वा Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् ६२७ 1 दुध्यमानो जीवनिर्गमस्तेन हेतुना वक्षोभ्यन्तरे भ्रमन् सिंहनिनादो यस्य तम् प्राणावस्थित्या सिंहनादो घूर्णतीत्यर्थः । पुनः किभूतम् । गलामोटने सति क्षणं व्यापारिणी प्रतिक्रियानिमित्तं हनूमत्करादिनिर्मोचनाय कृतप्रयत्नौ सन्तो विसंष्ठुलो बिह्वली । अत एव गलत्प्रहरणो पतदस्त्री सन्तौ प्रलम्बितावुभयहस्तौ यस्य तम् । निर्याणपीडया करयोरवशीभावेन पतदस्त्रत्वं लम्बमानत्वं चेत्यर्थः ।। ६८-६६ ।। विमला -- तदनन्तर हनुमान् ने दीर्घ वामबाहु से धूम्राक्ष को आवेष्टित कर करतल से गला पकड़ लिया, अतएव साँस बन्द हो जाने से उसका सिंहनाद वक्ष के भीतर ही घुमड़ता रह गया। उसके दोनों हाथों ने हनुमान् के हाथ को छोड़ाने के लिये थोड़ी देर प्रयत्न अवश्य किया, किन्तु वे भी ( मृत्युपीडा से ) विह्वल हो अधोमुख लटक गये और गृहीत अस्त्र गिर गये । अन्तत: धूम्राक्ष ऊपर की ओर उठा और मर गया ।।६८-६६ ।। अथाकम्पन प्रयाणमाह अह पडिए धुम्मक्खे हअसेसम्मि अ गए जिसाअरसेण्णे । दहमुहसमुहाणत्तं जिन्तं पेच्छइ अकम्पणं पवणसुप्रो ||७० ॥ [ अथ पतिते धूम्राक्षे हतशेषे च गते निशाचरसैन्ये । दशमुखसंमुखाज्ञतं निर्यन्तं प्रेक्षतेऽकम्पनं पवनसुतः ॥ ] अथ पूर्वोक्तप्रकारानन्तरं धूम्राक्षे पतिते निशाचरसैन्ये च हतशेषे हतावशिष्टे स्वल्पे सति दशमुखेन संमुखे आज्ञप्तम् । युद्धायेत्यर्थात् । निर्यन्तं लङ्कातो बहिर्भवन्तमकम्पनं नाम रावणपुत्रं पवनसुतः प्रेक्षते, न तु प्रसह्यातिक्रामति । तथा सति निकटवर्तिनीं लङ्कामेव प्रविशेदित्याशयः ॥ ७० ॥ विमला - जब धूम्राक्ष मारा गया और मारने से बचे हुये थोड़े-से राक्षस रह गये तब रावण ने सामने अकम्पननामक अपने पुत्र को लड़ने की आज्ञा दी और उसे लङ्का से निकलते हुये, हनुमान् ने देखा ॥ ७० ॥ अथाकम्पनपतन माह तं पि विष्णोरस्थलवी सत्यो हरिअणि ट्ठिभाउहणिवहम् । श्रोसुम्भइ हणुमन्तो एक्केक्कक्खु डिप्रविष्वण्णव अवम् ॥७१।। [ तमपि वितीर्णोरःस्थल विश्वस्तावहुतनिष्ठितायुधनिवहम् । हनूमाने खण्डितविप्रकीर्णावयवम् ॥ ] अवपातयति तमपि । निकटागतमित्यर्थात् । हनूमानवपातयति । अकम्पनं मारयामासेत्यर्थः । किंभूतम् । वितीर्णं प्रहारायाग्रे कृत्वा दत्तं यदुरः स्थलम् । हनूमतेत्यर्थात् । तत्र विश्वस्तमक्षोभं यथा स्यादेवमवहृतः पातितः । अकम्पनेनेत्यर्थात् । अत एव -- Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ ] सेतुबन्धम् [ चतुर्दश निष्ठितः शतखण्डीभूय विनष्ट आयुधनिवहो यस्य तम् । हनूमता प्रहरेत्युक्त्वा पुरः कृते वक्षसि वज्रमयत्वादकम्पन प्रहितान्यस्त्राणि खण्डखण्डीभूतानीत्यर्थः । अथैकैकं प्रत्येकं खण्डिताः सन्तो विप्रकीर्णा हनूमतैव दिशि दिशि क्षिप्ता अवयवाः कर चरणादयो यस्य तम् ॥७१॥ विमला - अकम्पन के निकट आने पर हनुमान् ने उसके आगे प्रहारहेतु अपना वक्ष:स्थल फैला दिया और उसने बड़ी सावधानी और स्थिरता से प्रहार भी किया, किन्तु सभी अस्त्र सैकड़ों खण्ड होकर विनष्ट हो गये । उसके शरीर के एक-एक अवयव को खण्डित कर चारों ओर फेंकते हुए हनुमान् ने उसे विनष्ट किया ॥७१॥ अथ नीलप्रहस्तयोर्युद्धमाह - अह बहमुहसंविट्ठो हणुमन्ताघाद्मसमतुलग्गफिडिओ । पडिओ नीलस्स मुद्दे अलद्धसमरसुहदूमिप्रस्स पहस्थो ॥७२॥ [ अथ दशमुखसंदिष्टो हनूमदाघातसमतुलाग्रस्फेटितः । पतितो नीलस्य मुखेऽलब्धसमरसुखदुःखितस्य प्रहस्तः ॥ ] अथाकम्पनवधानन्तरं युद्धाय दशमुखेन संदिष्टो हनूमत्कृतादाघातात्समतुलाग्रेण काकतालीयसंवादसाम्येन देवात्स्फेटितो बहिर्भूतः प्रहस्तो नाम राक्षसोऽप्राप्तसमरसुखत्वादुःखितस्य नीलस्य मुखे संमुखे पतितः । हनुमता हन्तुमारब्धोऽपि दैवादपक्रान्तो नीलस्याग्रं प्राप्तवानित्यर्थः ॥ ७२ ॥ विमला - अकम्पन का वध होने पर रावण का सन्देश पाकर प्रहस्त सामने आया । वह हनुमान् के आघात से काकतालीयन्यायेन संयोग से बच कर भागा, किन्तु नील, जिसे समर का सुख अभी तक न मिलने का दुःख था, — के सामने पड़ गया ।। ७२ ।। अथ नीलोरसि प्रहारमाह वरि अ पत्थाणे चिचअ बाणो कालाअसो पहत्थविमुक्को । पडिओ गोलस उरे वणपडिभिण्णरुहिरुग्गमेण पिसुणिओ ॥७३॥ [ अनन्तरं च प्रस्थान एव बाणः कालायसः प्रहस्तविमुक्तः । पतितो नीलस्योरसि व्रणप्रतिभिन्नरुधिरोद्गमेन पिशुनितः ॥ ] सांमुख्यानन्तरं च प्रस्थान एव प्रहस्तं प्रति नीलस्य प्रयाणसमय एव प्रहस्तेन विमुक्ताः कालायसो द्रवीकृतत्वेन श्यामलौहघटितो बाणो नीलस्योरसि पतितः । यदैव नीलस्तदतिक्रमाय प्रस्थितस्तदेव प्रहस्तमुक्तो बाणस्तदुरसि पतित इत्यर्थः । अथ स बाणो व्रणात्प्रतिभिन्नस्य रुधिरस्योद्गमेनोच्छलनेन पिशुनित: क्षिप्रगमनस्वान्नीलरुधिरोद्गमेन सूचितः । अनुमापित इति यावत् ॥७३॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६२६ विमला सामने प्रहस्त के आ पड़ने पर नील ज्यों ही उसे अतिक्रान्त करने चला त्यों ही नील के वक्ष पर प्रहस्त का चलाया बाण पड़ा, जो श्याम लौह को गला कर बनाया गया था तथा विद्धस्थान से रुधिर निकलने पर ही जिसके चलाये जाने का ज्ञान होता था ।।७३।। अथ नीलस्य कल्पद्रुमक्षेपमाहवेवत्तिअविडवं मअइ कई वि सुरहस्थिपरिमलसुरहिम् । गइमग्गलग्गभमलं पडिसोत्तपसारिअंसुअं कप्पदुमम् ॥७४॥ [ वेगापवर्तितविटपं मुञ्चति कपिरपि सुरहस्तिपरिमलसुरभिम् । गतिमार्गलग्नभ्रमरं प्रतिस्रोतःप्रसारितांशुकं कल्पद्रुमम् ।।] कपिरपि कल्पद्रुमं मुञ्चति । प्रहस्तं प्रतीत्यर्थात् । किंभूतम् । वेगेनापतितानि पश्चादभिमुखीकृतानि विटपानि यस्य तम । वेगोत्कर्षेण प्रतिकूलीकृतवायूत्कर्षादिति भावः । एवम्-सुरहस्तिनामैरावतादीनां परिमलेन कटकण्ड्यनादिविमर्दरूपसंबन्धेन सुरभिम् । मदसंबन्धादिति तदुपमर्दसहत्वेन महत्त्वं दृढत्वमप्युक्तम् । एवम्गतिमार्गे लग्ना अनुगामिनो भ्रमरा यस्येति विश्लिष्टभ्रमरैरप्यलभ्यत्वेनाप्युत्कृष्टजवत्वम् । एवम्-प्रतिस्रोतसा पश्चाद्वर्त्मना प्रसारितमंशुकं वस्त्रं यस्य । वेगमारुतेनेत्यर्थात् । अनेनापि तदेवोक्तम् ।।७४।। विमला-कपि ने भी प्रहस्त की ओर ऐरावत गज के कपोलघर्षण से उसके मद की सुगन्ध से सुगन्धित कल्पवृक्ष को इतने वेग से डाला कि (लुब्ध ) भौंरे भी ( उसे न पा सकने के कारण ) गमन' मार्ग में ही पीछे लगे रहे तथा उसका वस्त्र ( वायु द्वारा ) पीछे की ओर को प्रसारित तथा उसकी शाखायें पीछे की ओर अभिमुख हो गयी थीं ॥७४॥ अथैतद्वक्षस्य मुक्तावर्षणमाहवालन्तजलहरस्स व तो से प्रासारजललवस्थवअणिहो। आगममग्गम्मि ठिओ धुअविडवक्खलिममोत्तिमाफलणिवहो।।७।। [ व्यतिक्रामज्जलधरस्येव ततोऽस्यासारजललवस्तबकनिभः ।। आगममार्गे स्थितो धुतविटपस्खलितमुक्ताफलनिवहः ।।] ततस्त्यागानन्तरमस्य नीलक्षिप्तकल्पवृक्षस्यागममार्गे संचरणपथे धुतेभ्यः कम्पितेभ्यो विटपेभ्यः स्खलितो मुक्ताफलनिवहः स्थितः । अस्य किंभूतस्य । व्यतिका. मतो नभसि गच्छतो जलधरस्येव । फलनिवहः कीदृक् । आसारो वृष्टिस्तज्जलस्य लवो बिन्दुस्तत्समूहनिभः । तथा च जलधरप्रायस्य कल्पद्रुमस्य वृष्टिजलबिन्दुप्राया मुक्ता: पतिता इत्यर्थः ।।७।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३०] सेतुबन्धम [ चतुर्दश विमला-आकाश में जाते हुये जलधरसदृश, नील द्वारा फेंके गये कल्पवृक्ष के संचारपथ पर वृष्टि के जलबिन्दुसमूहसदृश कम्पित शाखाओं से मुक्तायें गिरी ।।७५॥ अथ प्रहस्तोरसि तवृक्षभङ्गमाह तो तस्स भुअविमुक्को भग्गो वभरिबमोत्तिमप्फलवअरो। भज्जन्तविडवधिअलिअसिसुनावीअपहररुधिरम्मि उरे ॥७६॥ [ ततस्तस्य पुजविमुक्तो भग्नो व्रणभृतमौक्तिकफलप्रकरः । भज्यमानविटपविगलितसितांशुकापीतप्रहाररुधिरे उरसि ॥] ततस्तदनन्तरं नीलभुजेन विमुक्तः क्षिप्तः। कल्पद्रुम इत्यर्थात् । तस्य प्रहस्तस्योरसि भग्नो विशीर्णः । इत्युरसः प्रहारस्य च दाढर्घ मुक्तम् । किंभूतः। व्रणेषु तज्जनितक्षतेषु भृतो व्याप्तो मौक्तिकफलप्रकरो यस्य स तथा । उरसि कीदशे। भज्यमानेभ्यो विटपेभ्यो विगलितानि यानि सितांशुकानि तत्स्थितवस्त्राणि तेरापीतानि संसृज्य शोषितानि प्रहारजन्यरुधिराणि यत्रेति विशेषणाभ्यां क्षतमुक्तापतनवस्त्रभ्रंशनरपि प्रहारोत्कर्ष उक्तः ।।७।। विमला-नील के भुज द्वारा छोड़ा गया वह कल्पद्रुम प्रहस्त के (दृढ) वक्ष पर इतने वेग से गिरा कि वह ( वक्ष से टकरा कर) भग्न हो गया मोर वक्ष पर हुये क्षत (घाव ) पर मुक्ता की राशि व्याप्त हो गयीं एवं टूटी हुई शाखाओं से गिरे हुये श्वेत वस्त्रों से प्रहारजन्य रुधिर सोख लिया गया ॥७६॥ अथ नीलस्य शीघ्रक्रियतामाहसमवश्वेइ सरे थएइ समरं कई दुमेहि णहमलम् । सम तेण विमुक्को चउद्दिसं पाअडो सिलासंघाओ॥७७॥ [ समं वञ्चयति शरान्स्थगयति समं कपिर्दुमैनभस्तलम् । समकं तेन विमुक्तश्चतुर्दिशं प्रकटः शिलासंघातः ॥] कपिर्नीलः सममेकदैव सत्प्रेषिताशरान् वञ्चयति । उत्पतनावपतनादिना वारयतीत्यर्थः । एवम्-एकदैव द्रुमैनभस्तलं स्थगयत्याच्छादयसि । एवम्-एकदैव तेन कपिना विमुक्तः शिलासमूहश्चतुर्दिशं प्रकटः । सर्वत्र पततीत्यर्थः । तथा च शरान् वञ्चयन्नेव द्रुमान् क्षिप्तवांस्तदैव च शिला इति कृतहस्तत्वमुक्तम् ॥७७॥ विमला-प्रहस्त के शरों से अपने को बचाने के साथ ही साथ, नील ने वृनों से गगनतल को आच्छादित कर दिया तथा उसी के साथ-साथ चारो ओर शिलासमूह भी फेंका ॥७॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् अप नभसि नीलास्त्रखण्डनमाहविप्रलन्तदुमच्छेा सरघाअवलन्तविप्रलिमसिलाणिवहा । बीसन्ति दलिअपवनवोच्छिज्जन्तोसरा णहमलद्देसा ॥७॥ [विगलद्रुमच्छेदाः शरघातदलद्विगलितशिलानिवहाः । दृश्यन्ते दलितपर्वतव्यवच्छिद्यमाननिर्झरा नभस्तलोद्देशाः ॥] नभस्तलप्रदेशा दृश्यन्ते । कीदृशाः । विगलन्तो द्रुमाणां छेदाः प्रहस्तशरप्रहारकृताः खण्डा' यस्मात् । एवम्-तस्यैव शरघातेन दलन्तः सन्तो विगलिताः पतिता नीलक्षिप्तशिलानिवहा' यस्मात् । एवम्-तस्यैव शरेण दलितानां पर्वतानां व्यवच्छिद्यमाना निर्झरा यत्र ते । पर्वतेषु द्विधाभूतेषु निर्झरा अपि द्विखण्डीभूता इत्यर्थः । पर्वतेषु शतखण्डेषु पृथग्भूता इति ॥७॥ विमला-गगनतल के प्रदेश इस रूप में दिखायी दिये कि उन से वृक्षों के खण्ड गिर रहे थे तथा प्रहस्त के बाणप्रहार से विदीर्ण होता शिलासमूह अवपतित हो रहा था एवं पर्वतों के विशीर्ण हो जाने से उनके निर्भर भी सैकड़ों खण्डों में विभक्त हो रहे थे ॥७॥ नीलस्यावस्थामाहगिरिधाउरअक्सउरो अंसविपल्हत्थबहलकेलरणिवहो। संशाअवविच्छरिमो सजलो क्व घणो णहम्मि दोसइ गीलो ॥७९॥ [गिरिधातुरजःकलुषोंऽसविपर्यस्तबहलकेसरनिवहः । संध्यातपविच्छुरितः सजल इव धनो नभसि दृश्यते नीलः॥] नभसि नीलो दृश्यते । सर्वरित्यर्थात् । कीदृशः । क्षिप्यमाणगिरीणां गैरिकरजोभिः कलुषः कर्बुरितः। स्वतो नीलत्वात् । एवम्-अंसे स्कन्धमूले विपर्यस्तो नित्यं नमनोन्नमनादिना विसंष्ठुल: केसराणां स्कन्धवालानां निवहो यस्य स तथा । क इव । संध्यातपेन संध्याकालीनरविकिरणेन विच्छुरितः संबद्धः । अरुणीकृत इति यावत् । एवंभूतः सजलो घन इव । तथा च-जलसंबन्धेन श्यामतया मेघेन नीलस्य, रक्ततया संध्यारागेण गैरिकरजसा तौल्यादुपमा ॥७९॥ विमला-और नील ( वानर ) भी गगन में इस रूप में दिखायी पड़ा कि पर्वतों के गेरू की धूल से वह (स्वयं नील वर्ण का होने के कारण ) भूरा हो गया और कन्धे पर उसके केसर ( गरदन के बाल ) अस्त-व्यस्त हो गये, अतएव वह सन्ध्याकालीन सूर्यकिरणों से लाल कर दिये गये सजल (नील) मेघ के समान शोभित हुआ ॥७॥ १. अन्यपदार्थस्यकवचनान्तत्वं चिन्त्यम् । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२] ... सेतुबन्धम् [ चतुर्दश अथ नीलेन प्रहस्तधनुर्ग्रहणमाह णवरि अ गणद्धन्ते ओवडणविसत्तधणुणिअत्तस्थिमिओ। तह धरिओ विअ दीसइ पढमविमुक्केहि सरसमूहेहि कई ॥८॥ [अनन्तरं च गगनार्धान्तेऽवपतनाक्षिप्तधनुनिवृत्तस्तिमितः । तथा धृत इव दृश्यते प्रथमविमुक्तैः शरसमूहैः कपिः ॥] कपिर्नीलः प्रहस्तेन प्रथमं विमुक्त : शरसमूहैस्तथा धृत इव दृश्यते। किंभूतः । गगनस्यार्धान्ते उपर्येकदेशेऽवपतनेनोधिोगमनेनाक्षिप्तमतिक्रम्य गृहीतं धनुर्येन तथाभूतः सन्निवृत्तो यत एवावपतितस्तत्रैव गतः सन् स्तिमितः स्थिरीभूतः । तथा च -- प्रथम प्रहस्तेन शरा विमुक्तास्तदुत्तरमवपत्य प्रहस्तधनुर्गहीत्वा निवृत्य पूर्वस्थान स्थितो नीलः स्तिमितोऽपि शरैः पृष्ठगामिभिधुत इव लक्षितो न तु धृत इत्यवफालोत्फालयोः क्षिप्रता सूचिता ॥८॥ विमला-कपि ( नील ) गगन के एक देश में स्थित था, त्यों ही प्रहस्त ने अपने बाण छोड़े, किन्तु इतने में ही नील नीचे आकर अतिक्रान्त कर उसका धनुष लेकर पुनः उछल कर अपने पूर्व स्थान पर जाकर निश्चल हो गया। तब कहीं प्रहस्त के वे बाण उसका अनुगमन करते हुए उस तक पहुँच सके, अतएव वह उन बाणों से धर लिया गया-सा दिखाई पड़ा ( जबकि वस्तुतः धरा नहीं गया था ) ।।८।। अथ प्रहस्तस्य मुसलक्षेपमाह अह णिसिअरेण मुसलं णोलस्स ललाटवट्टपच्चुप्फलिप्रम् । मज्झम्मि धरेन्तरवं समुहागअतुरिअवञ्चिअं पडिवण्णम् ॥१॥ [ अथ निशिचरेण मुसलं नीलस्य ललाटपट्टप्रत्युत्फलितम् । मध्ये ध्रियमाणरवं संमुखागतत्वरितवञ्चितं प्रतिपन्नम् ॥] अथ धनुःशून्यतानन्तरं निशिचरेण स्वेनैव क्षिप्तं मुसलं नीलस्य ललाटपट्टात्प्रत्युत्फलितं यत एव गतं तत्रैवागतं सन् मध्ये प्रतिपन्नम् । हस्तेनोत्प्लुत्य गृहीतमित्यर्थः । घ्रियमाणरवं ससिंहनादं यथा स्यात् । कीदृशम् । संमुखागतं त्वरितमेव वञ्चितम् । ललाटभेदनाभावात् । तथा च-प्रत्युत्फलेनोत्कर्षेण प्रहारललाटयोढियं प्रकर्षः। यद्वा-मध्ये स्वयमुत्प्लुत्य पुरो गत्वा मध्यवर्मनि धतमिति प्रथमजातमुसलोच्छलनादपि प्रहस्तोत्फालस्य शीघ्रत्वमित्याशयः ॥१॥ विमला-धनुषरहित होने पर निशिचर ( प्रहस्त ) ने नील की ओर मुसल १. 'कीदृशम्' इति पदं 'ध्रियमाणरवम्' इत्यतः प्राग्भवेत । Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६३३ फेंका, किन्तु बह नील के सम्मुख आकर तुरन्त ( ललाटभेदन न कर सकने से ) वञ्चित हो गया और ललाट से टकरा कर जहाँ से गया था वहीं को वापस आ रहा था कि नील ने सिंहनाद कर उसे बीच मार्ग में ही कूद कर हाथ से पकड़ लिया ॥८॥ अथ नीलेन शिलाग्रहणमाहगेण्हइ अ जलणतणो सुवेलसिहरद्धलग्गमेहच्छाअम् । विप्रडपहत्थोरत्थलसमबित्थारकढिणत्तणं कसणसिलम् ॥८२॥ [ गृह्णाति च ज्वलनतनयः सुवेलशिखराधलग्नमेघच्छायाम् । विकटप्रहस्तोरःस्थलसमविस्तारकठिनत्वां कृष्णशिलाम् ॥ ] च पुनर्बलनतनयो नीलः कृष्णशिलां गृह्णाति । किंभूताम् । विकटं विस्तीर्ण यत्प्रहस्तस्योरःस्थलं तत्समे विस्तारकठिनत्वे यस्यास्तामिति तदभिभवसौकर्याय । एवम्-सुवेल शिखरस्यार्धान्ते उपरिदेशे लग्नस्य मेघस्येव छाया कान्तिर्यस्यास्तामिति । यथा सुवेलशिखरोपरिभागे मेघस्तिष्ठति तथा नीलहस्तोपरि शिलापीति सुवेलेन नीलस्य, शिखरेण भुजस्य, तदूर्ध्वभागेन करस्य, मेघेन' शिलायास्तुल्यत्वम् ।।८२॥ विमला-ज्वलनतनय ( नील ) ने प्रहस्त के विस्तीर्ण उरःस्थल के समान ही विस्तीर्ण एवं दृढ कृष्ण शिला ग्रहण की, जो सुवेल शिखर के ऊपरी भाग पर मेघ के समान, उसके हाथ में स्थित हुई ॥२॥ अथ नीलोत्फालमाहदूरसमुप्पइएण अ णीलेण सिलाअलोत्थ अम्मि विणपरे । जाओ णहम्मि दिअसो तक्खणबद्धतिमिरा महिनलम्मि णिसा॥८३॥ [ दूरसमुत्पतितेन च नीलेन' शिलातलावस्तृते दिनकरे । जातो नभसि दिवसस्तत्क्षणबद्धतिमिरा महीतले निशा ॥] दूरं समुत्पतितेन कृतोत्फालेन' च नीलेन दिनकरे शिलातलेनावस्तृते छन्ने सति नभसि दिवसो जातः, तत्क्षणे बद्धं संबद्धं तिमिरं यया सा निशा महीतले जातेत्यर्थात् । शिलया रविरश्मीनां व्यवहितत्वादधः प्रसरणाभावादत एवोध्वं प्रसरणादिवस इति भावः ॥३॥ विमला-नील ने ऊपर आकाश की ओर जो छलांग लगाई तो उस कृष्ण१. 'नीलस्य' इति भवेत् । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ ] सेतुबन्धम् [ त्रयोदश शिला से सूर्य की किरणें नीचे नहीं आ सकीं, अतएव आकाश में तो दिन रहा किन्तु भूतल पर अँधेरी रात हो गई || ८३॥ अथ प्रहस्तवधेनाश्वासं विच्छिनत्ति अह गोलस्स पहत्थो रणाणुराएण सहिअगाढप्पहरो । घाम्रब्भन्तरभिष्णो गलन्तजीश्ररुहिरो गओ धरणिअलम् ||८४ ॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकवे चउद्दहो आसासओ ॥ [ अथ नीलस्य प्रहस्तो रणानुरागेण सोढगाढ प्रहारः । घाताभ्यन्तरभिन्नो गलज्जीवरुधिरो गतो धरणितलम् ॥ ] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये चतुर्दश आश्वासः । अथ शिलोत्थापनानन्तरं प्रहस्तो धरणितलं गतः । पतित इत्यर्थः । कीदृक् । रणानुरागेण संग्रामप्रीत्या नीलस्य सोढः प्रतीष्टो गाढः प्रहारो येन । शिलाकृत इत्यर्थात् । तथाभूतः । अत एव घातेन शिलाभिघातेनाभ्यन्तरे भिन्नश्च र्णो बहिः क्षताभावात् । तत एव च गलद्वहिर्भवज्जीवः प्राणस्तद्रूपं रुधिरं यस्य तादृक् । अभिघाते सति रुधिर निर्गमस्यौचित्याज्जीव एव रुधिरत्वेन रूपितो यतो जीव एव रुधिरमतो यागादावशस्त्रहतस्य छागादेरुत्तरकालं खण्डनेऽपि रुधिरनिर्गमाभाव:, सजीवस्यैव तन्निर्गमादिति भावः ||६४|| रक्षोविक्षोभदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य शिखा पूर्णा चतुर्दशी || -Hotte विमला - तदनन्तर नील के शिलाकृत कठिन प्रहार को संग्रामानुराग के कारण प्रहस्त ने सह तो लिया किन्तु उसका भीतरी भाग चूर-चूर हो गया और जीवरूप रुधिर निकलने से वह पृथिवी पर गिर गया || ८४॥ इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में चतुर्दश आश्वास की 'विमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश आश्वासः अथ रावणस्य प्रयाणमाहअह णिहअस्मि पहत्थे बन्धुवहामरिसणिन्तबाहुप्पीडो। चलिओ सिहिपच्चग्गअहंकारभरेन्तवसदिसो बहवअणो ।। १॥ [अथ निहते प्रहस्ते बन्धुवधामर्षनिर्यद्बाष्पोत्पीडः । चलितः शिखिप्रत्युद्गतहुँकारभ्रियमाणदशदिग्दशवदनः ॥] अथ शिलापतनानन्तरं प्रहस्ते निहते सति दशवदनश्चलितः । रणायेत्यर्थात् । कीदृक । बन्धूनां वधेनामर्षान्निर्यन्बहिर्गच्छन्बाष्पोत्पीडो यस्य सः । इति यात्रासमये रोदनादमङ्गलमुक्तम् । पुनः कीदृक् । शिखिना वह्निना प्रत्युद्गतः संगतः क्रोधशोकहेतुकत्वाद्यो हुंकारस्तेन गम्भीरतया भ्रियमाणाः पूर्यमाणा दश दिशो येन स तथा ॥१॥ विमला-नील द्वारा शिलापात से प्रहस्त के मारे जाने पर बन्धुओं के वध से उत्पन्न अमर्ष के कारण अश्रुधारा बहाता, ( क्रोध-शोक के ) अनल से मिश्रित हुंकार के दसों दिशाओं को भरता हुआ रावण युद्ध के लिए चल पड़ा ॥१॥ अर्थतस्य हास्यमाहतह कुविएण पहसिकं करालमुहकन्दराभरेन्तदशदिशम् । जह से भअतुहिक्को भवणक्खम्भेसु परिमणो वि णिलुक्को ॥२॥ [ ततः कुपितेन प्रहसितं करालसुखकन्दराघ्रियमाणदशदिशम् । यथास्य भयतूष्णीको भवनस्तम्भेषु परिजनोऽपि निलुकितः॥] करालानि व्याप्तस्वात्सच्छिद्राणि मुखान्येव कन्दरास्ताभिभ्रियमाणाः पूर्यमाणा दश दिशो यत्र तयात्तदशमुखव्याप्तदशदिग्यथा स्यादेवं कुपितेन रावणेन तथा प्रहसितं हास्यं कृतं यथा भयेन तुष्णीको मौनी अस्य रावणस्य परिजनोऽपि भवनस्तम्भेषु निलुकितः । निलीन इत्यर्थः । ऋद्धस्य दृष्टिपथो वर्जनीय इत्याशयादितिः भावः ॥२॥ विमला-तदनन्तर कुपित रावण अपने बाये हुए मुखरूप कन्दराओं से दसों दिशाओं को व्याप्त कर ऐसा जोर से हंसा कि उसके परिजन भी भय से. मौन हो घर के खम्भों की आड़ में छिप गये ॥२॥ अर्थतस्य रथारोहणमाह तो रक्खसपरिवारं णिपामभरोणमन्तपछिमतस्मिम् । सारहिणा सामन्तं चलतरङ्गमष रहं आरूढो॥३॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश [ ततो राक्षसपरिवारं निजपादभरावनमत्पश्चिमत्तडिमम् । सारथिना रुध्यमानं चटुलतुरङ्गमध्वजं रथमारूढः ॥ ] ततो हास्यानन्तरं स रथमारूढः । किंभूतम् । राक्षसाः परिवारा: परिचारका यत्र तम् । तैः परिवृतमिति वा । एवम्-निजपादयोर्भरेणावनमदधोगच्छत्पश्चिम तडिमं भित्तिर्यस्य तम् । पश्चाद्भागेनैवारोहणसंप्रदायात्सारथिगौरवेण तेजस्वितया वा चटुलाश्चञ्चलास्तुरङ्गमा अत एव ध्वजश्च यत्र तम् । अत एव रुध्यमानम् । क्वचिदप्युड्डीय मा गच्छेदिति तुरगवल्गाकर्षणादिना स्थाप्यमानम् ।।३।। विमला-हँसने के बाद राक्षस-परिजनों से पारवृत रथ पर वह ( रावण) सवार हुआ। ( पिछले भाग में बैठने से ) उसके पैरों के भार से पिछली दीवार अवनत हो गई एवं घोड़े और ध्वज चंचल हो उठे, अतएव सारथि ने ( रास खींच कर ) रथ को रोका ॥३॥ अथ कपीनां रावण ज्ञानमाहहुंकारेण सहाए खुहिअमहाकल प्रलेण लङ्कामझे । तुरसेण्णकल अलेण अ णाओ चलिओ ति वाण रेहि दहमुहो।॥ ४॥ [ हुँकारेण सभायां क्षुभितमहाकलकलेन लङ्कामध्ये। पूर्ण सैन्यकलकलेन च ज्ञातश्चलित इति वानरैर्दशमुखः ॥] दशमुखः सभायां तिष्ठितीति वानरैः क्रोधजन्यहुंकारेण ज्ञातः । तथा-क्षुभिसानाम् । नगरीयाणामित्यर्थात् । महाकोलाहलेन लङ्कामध्ये आगत इति ज्ञातः। पश्चात्पूर्णस्य च तुरङ्गतापन्नस्य सैन्यस्य कलकलेन रणरणकसमुत्थेन लङ्कातो युद्धाय चलित इति ज्ञातः ॥४॥ . विमला-वानरों ने रावण की क्रोधजन्य हुँकार सुनकर जान लिया कि वह सभा में स्थित है, क्षुभित नगरवासियों के महाकोलाहल से समझ लिया कि अब वह लङ्का के बीच में आ गया तथा पूर्ण सैन्य के कल-कल निनाद से जान लिया कि अब वह लङ्का से युद्धार्थ चल पड़ा है ॥४॥ अर्थतस्य नगरान्निर्गममाह णवरि अ मुहणिवहोवरि दुक्खपत्तधवलाअवत्तच्छाओ। णिग्गन्तूण पुरीओ भजइ भग्गरणमच्छरं कइसेण्णम् ॥ ५॥ [ अनन्तरं च मुखनिवहोपरि दुःखप्रभूतधवलातपत्रच्छायः । निर्गम्य पुरीतो भनक्ति भग्नरणमत्सरं कपिसैन्यम् ॥] अथ प्रस्थानानन्तरं स रावणः पुरीतो निर्गम्य बहिर्गत्वा कपिसैन्यं भनक्ति भञ्जयति पराङ्मुखीकरोति । किंभूतम् । मुखनिबहस्योपरि दुःखेन प्रभूता संमिता Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६३७ धवलातपत्रस्य च्छाया यस्य स तथा । क्रोधेन मुखानामुत्फुल्लतया महत्त्वोत्कर्षात् । सैन्यं किंभूतम् । भग्नो रणाय मत्सरोऽभ्यसूया यस्य तम् ||५|| विमला - ( क्रोध से दसो मुखों के उत्फुल्ल होने से विस्तार बढ़ जाने के कारण ) श्वेत छत्र उस पर कठिनाई से छाया कर सका ( मुखमण्डल की अपेक्षा छत्र का विस्तार लघुतर सिद्ध हुआ ) । इस प्रकार पुरी से निकल कर रावण ने वानरों के रणाहंकार को भग्न कर उन्हें पराङ्मुख कर दिया || ५ || अथ कपीनां पलायनमाह तो मुहमेत्तवलन्ता पच्छिमकेसर सडणहअग्गक्खन्धा । भग्गाणु मग्गलग्गा पेच्छन्ति दसाणणं पवंगमणिवहा ।। ६ ।। [ ततो मुखमात्रवलमानाः पश्चिमकेशरसटाहताग्रस्कन्धाः । भग्नानु मार्गलग्नाः प्रेक्षन्ते दशाननं प्लवङ्गमनिवहाः ॥ ] ततो रावणागमनानन्तरं भग्नानां पलायितानामनुमार्गं लग्नाः पञ्चाद्‌गच्छन्तःप्लवङ्गमनिवहा दशाननं प्रेक्षन्ते । पुरोगता व्यवहिता एव पश्चाद्गतानां तु रावणकृतोपरिपातशङ्कित्वादिति भावः । किंभूताः । मुखमात्रेण वलमानाः पश्चादभिमुखा न तु चरणैरत एव पश्चिमाः पश्चादभिमुख्यः स्कन्धसंनिहितपश्चाद्भागवृत्तयो वा याः केसरसटास्ताभिराहताः स्पृष्टा अग्रस्कन्धा अग्रप्रदेशा येषां ते । सिंहावलोकितन्याये प्रेक्षणान्मुखस्य परिवृत्तत्वेन सटानामपि परिवृत्तत्वादित्याशयः ॥६॥ विमला - रावण के आने पर वानरों का झुण्ड ऐसा भगा कि पीछे वाले वानर ( कही रावण पीछे आता न हो, इस शंका से ) बिना रुके केवल मुँह पीछे घुमाकर देख लिया करते, उस समय स्कन्ध के पश्चाद्भाग वाली सटा ( गरदन के बाल ) कन्धे के अग्रभाग को छूती थी ॥६॥ अथ नीलस्तान्परावर्तयतीत्याह तो ते भिण्णपट्टे वहवप्रणक्कन्तदिष्ण विविअपए । परहट्ठजहा भणिए भणइ समुप्पण्णरणभए जलणसुओ || ७ || [ ततस्तान्भिन्नप्रवृत्तान्दशवदनाक्रान्तदत्तविद्रवितपदान् । प्रभ्रष्टयथाभणितान्भणति समुत्पन्नरणभयाज्ज्वलनसुतः ॥ ] ततस्तेषां पलायनोत्तरं तान्समुत्पन्नसमरभयान्कपी ज्वलनसुतो नीलो भणति । किंभूतान् । प्रथमं भिन्नानितस्ततो गतानथ प्रवृत्तानेकीभूतान् । यद्वा -- प्रथमं भिन्नापलायितानथ प्रवृत्तानपकीर्तिभिया परावृत्य संभूयस्थितान् । एवम् — दशवदनाक्रान्ततया दत्तं भूमावपितं विद्रवितं शीघ्र विसंष्ठुलं वा पदं यैस्तान् । एवम् - प्रभ्रष्टं प्रस्मृतं यथाभणितं यैस्तान् विस्मृतयुद्धप्रतिज्ञावचनात् इति ॥ ७॥ विमला - वानरों को युद्ध से भय उत्पन्न हो गया, अतएव पूर्वोक्त युद्ध की Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८] सेतुबन्धम् [पञ्चदश प्रतिज्ञा भूल गयी तथा रावण से आक्रान्त होने के कारण पृथिवी पर शीघ्र पग रख वे भगे, किन्तु ( अपकीति के ) भय से एक जगह इकट्ठा हो गये। उस समय ज्वलनसुत ( नील ) ने वानरों से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥७॥ अथ नीलस्य परावर्तनवाक्यमाह मा मञ्चह समरधुरं एस समक्खित्तमलअसिहरद्धन्तो। जस्स कएण पडाहतं चिअ वो हरइ जीविसं पवअबई ॥८॥ [मा मुञ्चत समरधुरामेष समुत्क्षिप्तमलयशिखरार्धान्तः। यस्य कृतेन पलायध्वं तदेव वो हरति जीवितं प्लवगपतिः ॥] हे कपयः ! समरस्य धुरां भारं मा मुञ्चत । कुत इत्यत आह-एष प्लवगपतिः समुत्थापितमलयैकदेश: सन् । युष्मान् हन्तुमित्यर्थात् । यस्य जीवितस्य कृतेन निमित्तेन पलायध्वं तदेव वो युष्माकं जीवितं हरति । हरिष्यतीत्यर्थः । 'वर्तमानसामीप्ये लट्'। तथा च-पलायने मरणापकीर्ती युद्धे तु मरणे कीर्तिस्वगौं, इतरथा तु कीतिर्लक्ष्मीश्चेति युद्धमेव सम्यगिति भावः ॥८॥ विमला-तुम सब युद्ध-भार का त्याग मत करो। जिस जीवन को बचाने के लिए युद्ध से भाग रहे हो, तुम्हारे उसी जीवन को वानरपति ( सुग्रीव) मलयशिखर उठा कर हर लेगा ।।८।। अथ रावणस्य रामदर्शनमाहसीआहिमहिएण प्र अह सो ति वसाणणेण सारहिसिट्ठो। ण वि तह रामो ति चिरं जह तीअ पिनो ति सबहुमाणं दिलो ।। [ सोताहितहृदयेन चाथ स इति दशाननेन सारथिशिष्टः। नापि तथा राम इति चिरं यथा तस्या प्रिय इति सबहुमानं दृष्टः ।।] अथ नीलवचनोत्तरं दशाननेन सोऽयं राम इति सारथिना शिष्टः कथितो रामस्तथा मत्प्रतिपक्षः कृतसमुद्रबन्धनादिपुरुषार्थ इति कृत्वापि तथा न दृष्टो यथा तस्याः सीतायाः प्रियः स्वामी प्रेमपात्रं च तदुपभोगभाजनं चेति कृत्वा सबहुमानं सादरम् । सश्लाघमिति यावत् । चिरं दृष्टः । कीदृगस्य लावण्यं किं वा पौरुषमिति जिज्ञासावशादिति भावः । अत्र बीजमाह-किंमतेन । सीतायामाहितचित्तेन । तथा चाहमियतापि श्रमेण सीतां न लभे, अयं त्वनायासेन व लब्धवानिति धन्योsयमिति तात्पर्यम् ॥६॥ विमला-सारथि ने रावण से बताया कि यही राम है। सीता में हृदय के अनुरक्त होने के कारण रावण ने राम को शत्रुभाव से उतना नहीं, जितना कि सीता का प्रिय होने के कारण चिरकाल तक सादर देखा ॥६॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् अथ रावणापयानमाह वह रामसराहिअओ पवएहि परंमुहोहसिज्जन्तर हो । छिण्णपडिआमवत्तो लङ्काहिमुहो गयो णिसारणाहो ॥१०॥ [ अथ रामशराभिहतः प्लवगैः पराङ्मुखोपहस्यमानरथः । छिन्नपतितातपत्रो लङ्काभिमुखो गतो निशाचरनाथः ॥ ] अथ रामदर्शनानन्तरं रामशरेणाभिहतो निशाचरनाथो लङ्काभिमुखः सन् गतः । लङ्कां प्रविष्ट इत्यर्थ: । प्लवगैः पराङ्मुखत्वात्पश्चादुपगम्य करतलादिभिरुपहस्यमानो रथो यस्य । एवं छिन्नं सत्पतितमातपत्रं यस्य स तथा ॥ १० ॥ 1 विमला - तदनन्तर रावण राम के बाणों से घायल होकर लङ्का की ओर मुँह कर भाग गया तथा उसका छत्र कट कर गिर गया । उस समय उसके रथ के पीछे वानर ( ताली बजा-बजा कर ) उसका उपहास कर रहे थे ॥१०॥ अथ कुम्भकर्णप्रबोधनमाह [ ६३६ तो तेण लघुइनजसं पत्तविणासेण मुक्कसोडीरपअम् । पडिबोहणं अमाले सुहोवसुत्तस्स कुम्भअण्णस्स कनम् ||११|| [ ततस्तेन लघूकृतयशः प्राप्तविनाशेन मुक्तशौटीर्यपदम् । प्रतिबोधनमकाले सुखोपसुप्तस्य कुम्भकर्णस्य कृतम् ॥ ] ततो लङ्काप्रवेशानन्तरं प्राप्तविनाशेन तेन रावणेन अकाले व्यवस्थितजागरणसमयं विनैव सुखोपसुप्तस्य कुम्भकर्णस्य प्रतिबोधनं कृतम् । किभूतम् । लघूकृतं यशो येन स्वाक्षमता प्रकाशनात् । तथा — मुक्तं शौटीर्येणाहंकारेण पदं स्थानं यतः परसापेक्षत्वात्तत्क्रियाविशेषणं वा ॥ ११ ॥ विमला - शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होने वाले रावण ने लङ्का में पहुँच कर सुख से सोए हुए कुम्भकर्ण को असमय में ही जगाया, जिससे ( अपनी अक्षमता प्रकट कर ) उसने अपने यश को लघु किया तथा अहङ्कार को छोड़ दिया ॥११॥ अथ कुम्भकर्णप्रयाणमाह सोविअ जम्भाअन्तो अमालपडिबोह गरुइ असिद्धन्तो । णोइ हसिऊण सुइरं लहुअं सोऊण रामवहसंवेसम् ||१२|| [ सोऽपि च जृम्भायमाणोऽकाल प्रतिबोधगुरूकृतशिरोर्धान्तः । निरैति हसित्वा सुचिरं लघुकं श्रुत्वा रामवधसंदेशम् ॥ ] अकाले प्रतिबोधेन जागरेण गुरूकृतः स्तम्भितः शिरोर्धान्तो मस्तक रूपक देशो यस्य तथाभूतः सन् जृम्भायमाणः स कुम्भकर्णोऽपि रामवधरूपं संदेशमभीष्टवचनं श्रुत्वा यतो लघुकमीषत्करमतः सुचिरं हसित्वा निरैति । निर्गच्छतीत्यर्थः ॥ १२ ॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० ] सेतुबन्धम् [ पश्चदश विमला - अकाल में जागने से उस ( कुम्भकर्ण ) का माथा भारी हो गया, अत एव जम्हाई लेता हुआ कुम्भकर्ण रामवध की एक छोटी ( किन्तु अभीष्ट ) बात सुन कर चिरकाल तक हँसा और तब ( युद्धार्थ ) निकला ||१२|| अथैतस्य देहमहत्त्वमाह प्रोच्छुण्णरइरहवहो जाओ देहस्स से कण अपाआरो । ऊरुपएसालग्गो दरखलिओ व्व तवणिज्जराअपरिअरो ।। १३ ॥ [ आक्रान्तरविरथपथो जातो देहस्यास्य कनकप्राकारः । ऊरुप्रदेशालग्नो दरस्खलित इव तपनीयरागपरिकरः ॥ ] अस्य कुम्भकर्णस्य देहस्य ऊरुप्रदेशालग्नः कनकप्राकारो दरस्खलितस्त्रिकरूपस्वस्थानात्किचिदधोपसृत ऊरुलग्नत्वात्तपनीयस्य सुवर्णस्य रागो रञ्जनं यत्र स सुवर्णघटितः परिकर इव जातः । परिकरो मेखलावत्त्रिके निबध्यत इति समाचारः । स तु सुप्तोत्थितस्य शिथिलीभवत्येवेति ध्वनिः । कीदृक्प्राकारः । आक्रान्तो रविरथस्य पन्था येन स तावदुच्च इत्युत्प्रेक्षा ॥ १३॥ विमला - रविरथ के पथ को आक्रान्त करने वाला कनकप्राकार, इस ( कुम्भकर्ण ) के देह के जांघ प्रदेश तक ही ( ऊँचा ) लगा, मानों वह उस ( कुम्भकर्ण ) का सुवर्णनिर्मित परिकर था, जो ( सोकर उठने पर ) अपने स्थान ( कटिप्रदेश ) से नीचे खिसक कर जाँघ पर रुक गया था ॥१३॥ अथास्य प्राकारलङ्घनमाह लङ्घिअपाआरस्स अ तो से विवलाअमाणमअरप (क्क) ग्गाहा । जाणुष्पमाणसलिला जाओ फडिहागआ समुद्दद्धन्ता ॥ १४॥ [ लङ्घितप्राकारस्य च ततोऽस्य विपलायमानमकरप्रग्राहाः ॥ जानुप्रमाणसलिला जाताः परिखागताः समुद्रार्धान्ताः ॥ ] ततः सांनिध्यानन्तरं लङ्घितप्राकारस्यास्य कुम्भकर्णस्य जानुदघ्नसलिलाः सन्तः समुद्र क देशाः परिखागताः परिखाप्रविष्टा जाता: । प्राकारसंनिहितभूमेः कुम्भकर्ण - चरणयन्त्रितत्वेनावनमनात्समुद्रस्योन्नमनम् । तत एव तज्जलस्य नीचगामितया परिखायां संक्रम इति भावः । तथापि परिखाजलस्य जानुप्रमाणत्वमित्यस्य महत्त्व - मुक्तम् । किंभूताः । विपलायमानाः क्षोभादितस्ततो गामिनो मकरप्रग्राहा यत्र ते । प्रग्राहो जलसिंहः ।। १४॥ विमला - प्राकार लाँघ कर कुम्भकर्ण के चलने पर ( चरणभार से पृथिवी के दब जाने से ) समुद्र के एक भाग का जल उछल कर परिखा ( खाई ) में चला गया, मकर - जलसिंहादि जन्तु क्षुब्ध हो इधर-उधर भागने लगे । ( इस प्रकार परिखा के जल में वृद्धि होने पर भी ) वह कुम्भकर्ण के जानुपर्यन्त ही रहा || १४ || Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६४१ अथ कपीनां पलायनमाह तो तं पेच्छन्त च्चिअ पच्छाहत्ता णिअत्तरणवावारा। हत्थपडन्तधराहरविसमक्कन्ता पडाइमा कइणिवहा ॥१५॥ [ ततस्तं पश्यन्त एब पश्चादभिमुखा निवृत्तरणव्यापाराः।। हस्तपतद्धरविषमाक्रान्ताः पलायिताः कपिनिवहाः ॥] ततः प्राकारलङ्घनानन्तरं तं कुम्भकर्णं पश्यन्त एव पश्चादभिमुखाः सन्तः कपिनिवहाः पलायिताः । किंभूताः । निवृत्तयुद्धव्यापाराः । एवम् हस्तात्पतद्धराधरेण विषममाकान्ता भीत्या सम्यग्धर्तमसामर्थ्येन यन्त्रिताः ॥१५॥ विमला-तदनन्तर उस ( कुम्भकर्ण) को देखते ही वानर हाथ से गिरते हुये पर्वत से बुरी तरह आक्रान्त होने के कारण युद्ध क्रिया बन्द कर मुंह मोड़ कर भाग चले ॥१५॥ अथामुष्य युद्धमाहअह सेलेहि तरूहि अफलिहेहि अ मोग्गरेहि हन्तूण दढम् । दढदण्डाउहमग्गणमुसलेहि खणेण वाणरबलं सअलम् ॥१६॥ तो पवआइ गआई तुरप्राइ अ रक्खसाइ लोहिममत्तो। रग्मसराघाअधुओ णिअअबले परबले पत्तो खत्तम् ॥१७॥ [अथ शैलैस्तरुभिश्च परिघेश्च मुद्गरैर्हत्वा 'दृढम् । दृढदण्डायुधमार्गणमुसलैः क्षणेन वानरबलं सकलम् ।। ततः प्लवगान्गजांस्तुरगांश्च राक्षसांल्लोहितमत्तः। रामशराघातधुतो निजकबले परबले प्रवृत्तः खादितुम् ॥] अथ कपिभङ्गोत्तरं शैलादिभिदं दं दण्डरूपमायुधं मार्गणो बाणो मुसलं चैतत्पर्यन्तै रस्त्रः क्षणेन सकलं वानरबलं दृढं यथा स्यात्तथा हत्वेति परस्कन्धकेन संदानितम् । स कुम्भकर्णो रामशराघातेन धुतः कम्पितः सन् क्रोधात् । निजकबले परबले च प्लवगादीन् खादितु भोक्तु प्रवृत्तः । एषामेव लोहित रुधिरैर्मत्तो यतः । युग्मकम् ।।१६-१७।। विमला-तदनन्तर शैल, वृक्ष, परिघ, मुद्गर, दृढ दण्डरूप आयुध, बाण, मुसल आदि से वानर सेना को अच्छी तरह मार कर वह (कुम्भकर्ण) राम के शरों के प्रहारों से कम्पित हो, अपनी सेना तथा शत्रुसेना में वानरों, गजों, घोड़ों तथा राक्षसों को, उन्हीं के रुधिर से मत्त होने के कारण खाने लगा ।।१६-१७॥ अथ कुम्भकर्णभुजच्छेदमाहचिरजुनिअस्स तो से दोएह वि रामधणुणिग्गअसराहिहा। पढमं धरणी भुआ पच्छा छेअरुहिरोज्झरा पल्हत्था ॥१८॥ ४१ से० ब० Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ] [ पञ्चदश सेतुबन्धम् [ चिरयोधितस्य ततोऽस्य द्वावपि रामधनुर्निर्गतशराभिहतौ । प्रथमं धरण्यां भुजौ पश्चाच्छेद रुधिरनिर्झराः पर्यस्ताः ॥ ] ततः सैन्यक्षयानन्तरं चिरं योधितस्य । कपिभिरित्यर्थात् । अस्य कुम्भकर्णस्य रामधनुर्निर्गतेन शरेणाभिहतो छिन्नो द्वावपि भुजौ धरण्यां प्रथमं पर्यस्तौ पतितो, पश्चात् छेदरुधिराणां निर्झराः पर्यस्ता विकीर्णा इति रुधिराणां प्रतिरोधत्यागेन प्रथमं भुवि पतनार्हत्वेऽपि भुजयो: प्राथमिकं पतनं प्रहारस्यातिशयं तयोगौरवं वा सूचयति ॥ १८ ॥ विमला - तदनन्तर कुम्भकर्ण जब वानरों के साथ चिरकाल तक युद्ध कर चुका तब राम के धनुष से छूटे हुये बाणों से उसकी दोनों भुजायें कट कर पृथिवी पर पहिले गिरी और उसके पश्चात् छिन्नस्थान से रुधिर के निर्झर पृथिवी पर विकीर्ण हुये ॥ १८ ॥ अथानयोः पतनस्थानमाह एक्को रुद्धणइमुहो अणुवेलं णिवडिओ सुवेलो व्व भुओ । साअरलद्धत्थामो बीओ से बोअसेउबन्ध व्व ठिश्रो ॥१६॥ [एको रुद्धनदीमुखोऽनुवेलं निपतितः सुवेल इव भुजः । सागरलब्धस्थामा द्वितीयो द्वितीयसेतुबन्ध इव स्थितः ॥ ] एको भुजः समुद्रस्य वेलामनु सुवेल इव स्थितः । यथा वेलायां सुवेल स्तिष्ठति तथेत्यर्थः । तत्समानरूपत्वात् । कीदृक् । रुद्धं नदीनां मुखं समुद्रप्रवेशस्थानं येन सः । तथा समुद्रोऽपि रुद्धपर दिग्वर्तिनदीमुख इति साम्यम् । एवं सागरे लब्धं स्थाम स्थैर्यं येन तथाभूतः सन् द्वितीयो बाहुद्वितीयसेतुबन्ध इव स्थितस्तत्समानाकारत्वात्प्रथमो विद्यत एवेति भावः ॥ १६॥ विमला -- उस ( कुम्भकर्ण ) का एक भुज समुद्र के समीप सुवेल के समान स्थित हुआ, जिससे नदियों के समुद्र में प्रवेश करने का स्थान रुँध गया तथा दूसरा, सागर में स्थैर्य प्राप्त कर द्वितीय सेतुबन्ध के समान स्थित हुआ ||१६|| अथ कुम्भकर्णशिरश्छेदमाह - अण्णकट्टिए तो से चक्कलिप्रसिहिसिहेण रणमुहे । रहुवइसरेण तुङ्ग चक्केण व राहुणो सिरं उक्खुडिअम् ॥ २०॥ [ आकर्णकृष्टेन च ततोऽस्य चक्रलितशिखिशिखेन रणमुखे । रघुपतिशरेण तुङ्गं चक्रेणेव राहोः शिर उत्खण्डितम् ॥ ] ततो भुजपतनानन्तरमाकर्णकृष्टेन रघुपतिशरेण अस्य कुम्भकर्णस्य तुङ्गमुच्चं शिरो मस्तकमुत्खण्डितम् । कीदृशेन । चक्रलिता चक्राकारा शिखिनः शिखा यत्र तेन । आग्नेयत्वात्तद्रूपतेजोमयत्वाद्वा । राहोः शिर इव । यथा राहोस्तुङ्गं शिरश्वक्रित शिखिशिखेन चक्रेणोत्खण्डितमित्यर्थः ॥२०॥ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६४३ विमला - भुजद्वय के गिरने के अनन्तर कान तक खींचे गये, चक्राकार अग्नि की लपटों वाले राम के बाण ने कुम्भकर्ण के तुङ्ग सिर को उसी प्रकार खण्डित कर दिया, जिस प्रकार चक्र ने राहु के सिर को काट गिराया था ||२०|| अथ शिरःपतनमाह - गअणुण्ण एण तेण 只 पवणभरेन्तमुहकन्दरामुहलेण । छिणपडिएन वि कओ चउत्तुङ्गसिहरुगमो व तिऊडो ||२१|| [ गगनोन्नतेन तेन च पवनभ्रियमाणमुखकन्दरा मुखरेण । छिन्नपतितेनापि कृतश्चतुर्थ तुङ्गशिखरोद्गम इव त्रिकूट: ॥ ] पुनर्गगनं व्याप्योन्नतेन च्छिन्नपतितेनापि तेन शिरसा त्रिकूट: सुवेलश्चतुर्थस्य तुङ्गस्य शिखरस्योद्गम उत्पत्तिर्यत्र तथाभूत इव कृतः । त्रयाणां विद्यमानत्वाच्चतुर्थं तदेव शिरो जातमित्युत्प्रेक्षा । किंभूतेन । पवनेन श्रियमाणा पूर्यमाणा या मुखमेव कन्दरा तथा मुखरेण शब्दायमानेनेत्यवकाशातिशयादस्य महत्त्वमुक्तम् । शिखरमपि तादृशकन्दरा मुखरमिति साम्यम् ||२१|| विमला - कट कर गिरे हुये भी गगन तक ऊंचे उस ( कुम्भकर्ण के ) सिर ने, वायु द्वारा मुखरूप कन्दरा के पूरित होने से शब्दायमान होने के कारण मानों सुवेल पर्वत को उद्गत चतुर्थ उन्नत शिखर वाला कर दिया ॥ २१ ॥ अथ कबन्धपतनमाह पडिए कुम्भप्रण्णे दूरपलाश्रदर भग्गपक्कग्गाहो। देहभरन्तुच्छङ्गो पब्बालेइ वडवागृहं मनरहरो ॥२२॥ [ पतिते च कुम्भकर्णे दूरपलायितदरभग्नप्रग्राहः । देहभ्रियमाणोत्सङ्गः प्लावयते वडवामुखं मकरगृहः ॥ ] च पुनः कुम्भकर्णे पतिते सति मकाराणां गृहं यत्र स समुद्रो वडवामुखं वडवाग्नि प्लावयति व्याप्नोति । कीदृशः । दूरं पलायितः सन् भग्नः क्षोणिक्षोभसंभूतः परस्परसंघट्टा देहाभिघाताद्वा अन्यथा संस्थितावयवः प्रगाहो जलसिंहो यत्र स तथा पक्कग्गाहो देशी वा । अत्र हेतुमाह - देहेन कबन्धेन श्रियमाणः पूर्यमाण उत्सङ्गो यस्य तत्रैव पतितत्वादिति वडवानलप्लावनेन (?) तदा ह्यस्यापि जलस्यादाहादाधिक्यं ते च समुद्रशोभाधिक्यात्कबन्धस्य महत्त्वमुक्तम् ॥ २२ ॥ विमला — कुम्भकर्ण के गिरने पर उसके देह ( कबन्ध ) से समुद्र का उत्सङ्ग भर गया, अत एव दूर भागते हुये जलसिंहों के शरीरावमव आपस में टकराने से कुछ भग्न हो गये और समुद्र ने वडवानल को चारो ओर फैला दिया ||२२|| अथ रावणस्य रोषमाह - तो कुम्भण्णणिहणं सोऊण दसाणको पहत्थग्भहिअम् । रोसा अवरज्जन्तं पुणो वि हसिऊण घुणइ महसंघाअम् ||२३| Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश [ ततः कुम्भकर्णनिधनं श्रुत्वा दशाननः प्रहस्ताभ्यधिकम् । रोषातपरज्यमानं पुनरपि हसित्वा धुनोति सुखसंघातम् ।।] ततस्तत्पतनानन्तरं प्रहस्तनिधनादप्यधिक दुःखदत्वात्कुम्भकर्णस्य निधनं श्रत्वा दशाननः पुनरपि मुखसंघातं धुनोति । विषादेन' चालयतीत्यर्थः। किंभूतम् । रोषरूपेणातपेन तीक्ष्णत्वात् रज्यमानमरुणीक्रियमाणम् ।।२३।। विमला-प्रहस्त के निधन से भी अधिक दुःखद कुम्भकर्ण का निधन सुन कर रावण हँसा, तदनन्तर क्रोध से मुखसमूह को लाल कर (विषाद से ) पुनः कॅपाने लगा ।।२३।। अथ पुनरपि रावणप्रयाणमाहणिन्तस्स अ तं वेल अमरिसपरिवढिअस्स भवणुच्छङ्ग । खम्मन्तरवित्थारा ते चिअ वच्छत्थलस्स से ण पहुत्ता ॥२४॥ [ नियंतश्च तद्वेलायाममर्षपरिवधितस्य भवनोत्सङ्गे। स्तम्भान्तरविस्तारास्त एव वक्षःस्थलस्यास्य न प्रभूताः ।।] भवनस्योत्सङ्गे यैरेव पूर्वं गतागतं कृतं त एव स्तम्भयोरन्तरस्य मध्यस्य विस्तारा अवकाशास्तस्यां वेलायां निर्यतो युद्धाय प्रस्थितस्य वास्य रावणस्य वक्षःस्थलस्य न प्रभूता न परिमिताः । किंभूताः । (?) स्वल्पपरिमाणा बभूवुरित्यर्थः । अत्र हेतुमाह-किभूतस्य । · अमर्षेण परिवधितस्योत्फुल्लस्य । तथा च वक्षः स्थलोत्फुल्लतया स्तम्भान्तरेण हठानिर्गमनाभावादमङ्गलं सूचितम् ॥२४॥ विमला-भवन के भीतर खम्भों के बीच के जिन अवकाशों से रावण पहिले आया-जाया करता था, वे ही उस समय युद्ध के लिये प्रस्थित रावण के अमर्षपरिवर्धित वक्षःस्थल के लिये पर्याप्त न हो सके-छोटे पड़ गये, अतएव वह कठिनाई से निकल सका ॥२४॥ अथेन्द्रजिद्विज्ञप्तिमाहदरणिग्गअस्स णवरि अ उग्घाडिअवच्छभरिप्रभवणुच्छङ्गो। . जाणुपडिउटिओ से जम्पइ हसिऊण मेहणाओ त्ति सुओ॥२५॥ [ दरनिर्गतस्यानन्तरं च उद्घाटितवक्षोभृतभवनोत्सङ्गः । जानुपतितोत्थितोऽस्य जल्पति हसित्वा मेघनाद इति सुतः ॥] गृहान्तःस्तम्भद्वयगमनान्तरं दरनिर्गतस्य ततः किंचिद्बहिर्भूतस्यास्य रावणस्य मेघनादः सुतो जानुभ्यां पतितः सन्नुत्थितः । पूर्वकायेनेत्यर्थात् । हसित्वा क्रोधादिति वक्ष्यमाणं जल्पति । कि भूतः । उद्घाटितेनोत्थितत्वात्प्रकाशितेन वक्षसा भृतो व्याप्तो भवनोत्सङ्गो येन स तथा । युद्धरसोत्फुल्लत्वात् । अत एव हृदयोत्साहव्यजनाय तदुद्धाटन मिति भावः ॥२५॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ६४५ विमला-तदनन्तर रावण थोड़ा जब बाहर हुआ तब उसका पुत्र मेघनाद हँस कर ( युद्ध रस से उत्फुल्ल ) अपने खोले हुये वक्षःस्थल से भवन के भीतरी भाग को व्याप्त करता हुआ ( वक्ष्यमाण वचन ) बोला ॥२५।। चतुभिविज्ञप्तिवाक्यस्वरूपमाहणिम्माविअम्मि कज्जे साहसगरुए वि अप्पण च्चिअ गुरुणा । पुत्तेण पुत्तसरिसं पुत्तफरिसं १ पाविओ होइ पिना ॥२६॥ [ निर्मितेऽपि कार्ये साहसगुरुकेऽपि आत्मनैव गुरुणा। पुत्रेण पुत्रसदशं पूत्रस्पर्श न प्रापितो भवति पिता॥] साहस विषयत्वेन गुरुके लोकरादृते । साहसेनापि गुरुकेऽसाध्ये इति वा। तादृशेऽपि कार्ये गुरुणा पित्रा आत्मनव निर्मिते निर्वाहिते सति पुत्रेण पिता पुत्र. सदृशं पुत्रस्पर्श पुत्रजन्मसुखतुल्यं पुत्रस्पर्शसुखं प्रापितो न भवति तादृशपुत्रस्य पुत्रत्वाभावात्तत्स्पर्शन सुखानुत्पत्तेरिति भावः ॥२६॥ विमला-साहस से भी न सिद्ध होने योग्य महान कार्य को यदि पिता स्वयं सम्पन्न करता है तो पुत्र उस पिता को पुत्रजन्म-सुखतुल्य पुत्रस्पर्श का सुख नहीं प्राप्त कराता है ॥२६॥ स्वोत्कर्षपरं तदेवाहकीस ममम्मि धरेन्ते माणसमेत्तस्स बहरहसुनस्स कए। इअ णोसि प्रप्पण च्चिअ लहुअन्तो अम्ह रक्खसउलस्स जसम् ॥२७॥ [किमिति मयि ध्रियमाणे मानुषमात्रस्य दशरथसुतस्य कृते । इति निरैषि आत्मनैव लघूकुर्वन्मम राक्षसकुलस्य यशः ।।] हे तात ! मयि ध्रियमाणे जीवति सति मानुषमात्रस्य न तु देवादेर्दशरथसुतस्य कृते इत्यनेन प्रकारान्तरेण आत्मनैव कि मिति निरषि युद्धाय निर्गच्छसीत्यर्थः । मामेवादिशेति भावः । किं कुर्वन् । मम किमपरं राक्षसकुलस्य च यशो लघूकुर्वन् । एतेऽयोग्या एवेति रावणः स्वयमेव प्रस्थितोऽभूदिति लोकप्रसिद्धिः स्यादिति भावः ॥२७॥ विमला-मेरे जीवित रहते मानुषमात्र दशरथसुत के लिये इस प्रकार आप स्वयं क्यों जा रहे हैं ? ऐसा करके मेरे ही नहीं, राक्षसकुल के यश को भी आप लघु कर रहे हैं ( लोग यही कहेंगे कि सारे निशिचरों के अयोग्य होने से रावण को स्वयं युद्ध के लिये जाना पड़ा) ॥२७॥ रावणोत्कर्षपरं तदाहउपखअभुअंगरअणं णिसुढिअणदणवणं पलोटिअसेलम् । अप्पाणं व ण प्राणसि समं समस्थस्स तिहुमणस्स भरसहम् ॥२८॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश [ उत्खातभुजङ्गरत्नं निपातितनन्दनवनं प्रलोटितशैलम् । आत्मानं वा न जानासि समं समस्तस्य त्रिभुवनस्य भरसहम् ।।] हे तात ! त्वमात्मानं वा न जानासि स्वं न परिचिनोषि । यदप्रतियोगिना मानुषेण समं युयुत्सुरसीति भावः । किंभूतम् । सममेकदैव समस्तस्य त्रिभुवनस्य भरसहम् । त्रैलोक्यमप्येकत्र भवति तथापि त्वया समं न पारयतीत्यर्थः । तदेवोपपादयति-पुनः किंभूतम् । उत्खातमुत्पादितं भुजंगस्य शेषादे. फणारत्नं येनेति पातालस्य, विच्छिच निपातितं नन्दनवनं येनेति स्वर्गस्य, प्रलोठितः परिवर्तितः कलासः शैलो येनेति मत्यंस्य, परिभावकत्वमुक्तम् ॥२८॥ विमला-शेषनाग के रत्नों को आपने खींच कर बाहर निकाला, नन्दनवन को नष्ट-भ्रष्ट किया, कैलास गिरि को उलट-पुलट दिया। ज्ञात होता है कि समस्त त्रिभुवन-भार को एक समय में ही सहने वाले आप अपने को नहीं जानते हैं ( इसी से एक मनुष्य से युद्ध करने की इच्छा करते हैं ) ॥२८॥ रामेण समुद्रो बद्ध इति महत्त्वमाशङ्कम तत्प्रतिक्षेपपरं तदाहकि णिहणेमि रणमुहे सरेक्सोसविपसापरं रहणाहम् । ओ सत्त विभज्नं चित्र वलन्सबरवामुहे मलेमि समुद्दे ॥२६॥ [किं निहन्मि रपमुखे शरकशोषितसागरं रघुनाथम् । उत सप्ताप्यच वलदडवामुखान्मृद्गामि समुद्रान् ।।] . शरैरेक: शोषितः सागरी येम तं रधुनाथं किं रणमुखे निहन्मि मारयामि । उत पक्षान्तरे अद्यैव सप्तापि समुद्रान् मृद्गामि व्याकुलयामि । किंभूतान् । वलद्दिशि दिशि गच्छदडवामुखमौर्वानलो येषु तानिति क्षोभाधिक्यमुक्तम् । एकसमुद्राभिभावका. द्रामादुभयपक्षणाप्यहमधिकः स्यामिति भावः । शरैकेन शोषित इति वा ॥२६॥ विमला-बाणों से एक समुद्र को सुखाने वाले रघुनाथ को युद्ध में मार अथवा चारो ओर फैले हुये बडवानल वाले सातो सागरों को इसी समय व्याकुल करूं ॥२६॥ अथ युग्मकेनेन्द्रजितो रथारोहणमाहइन विष्णविदहमुहो पच्छिमसारहिकरविअसीसक्को। प्राबद्धकव प्रमन्थरपअविक्कमभरणमन्तकिस्थ अतरिमम् ॥३०॥ धअसिहर ठिअजलहरमुच्चन्तासणिपडिप्फलिअसूरकरम् । समरतुरिओ विलग्गइ रहं सुआसण्णरामधणुणिग्धोसो ॥३१॥ ( जुग्गअम्) Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ इति विज्ञापितदशमुखः पश्चिमसारथिकरस्थायिशीर्षकः । 11 आबद्धकवचमन्थरपदविक्रमभरनमद्विस्तृततडिमम् ध्वजशिखरस्थितजलधरमुच्यमानाशनिप्रतिफलितसूरकरम् । समरत्वरितो विलसति रथं श्रुतासन्नरामधनुनिर्घोषः ॥ ] ( युग्मकम् ) इत्यनेन प्रकारेण विज्ञापितो दशमुखो येन स मेघनादः समरत्वरितः सन् रथं विलसति आरोहति इत्यर्थः । इत्यग्रिमस्कन्धकेन समन्वयः । किंभूतः । पश्चि मेन पश्चाद्वर्तिना सारथिना करे स्थापितं शीर्षकं शिरस्त्राणं यस्य स तथा । रथं किभूतम् । आ ईषद्बद्धो यः कवचः तेन मन्थरयोर्यन्त्रणाद् गुरूकृत्योः पादयोर्विक्रमादुत्तरोहणाद्भरेण गौरवेण नमदधोगच्छद्विस्तृत तडिमं पश्चाद्वर्तिभित्तिभागो यस्य तम् । तथा च कवचं यथा तथा परिधायापि शीर्षकं न गृहीतवानिति त्वरातिशय उक्तः । पुनः किभूतम् । ध्वजानां शिखरेषु स्थितैर्जलधरैमुच्यमानेष्वशनिषु प्रतिफलिता: संक्रान्ताः सुरस्य करा यत्र तम् । इति वज्रषु रविकरसंघट्टादुद्योत प्रकर्षेण afseeपनम् । एतत्सर्वं मायाकल्पितमिति भावः । समरत्वराहेतुमाह — किभूतः । श्रुत आसन्नस्य निकटवर्तिनो रामस्य धनुर्निर्घोषो येन । इति रणोत्साह उक्तः ||३१|| - [ ६४७ विमला - रावण से इस प्रकार (पूर्वोक्त) निवेदन कर निकटवर्ती राम के धनुष का निर्घोष सुनते ही मेघनाद समर के लिये उतावला हो रथारूढ हुआ। जल्दी में उसने शिरस्त्राण नहीं ग्रहण किया, बाद में ( सेवक द्वारा लाकर दिये गये ) उसको पीछे बैठे हुये सारथि ने अपने हाथ में ले लिया । कबच को भी भलीभांति नहीं ( थोड़ा ही ) बाँध कर धारण किया, अतएव मन्थर पद को उठाकर रखने से दबकर रथ का पिछला भाग झुक गया एवं ध्वजशिखरों पर स्थित जलधरों से मुक्त किये गये वज्रों में सूर्य की किरणें संक्रान्त हो गयीं ॥। ३०-३१।। अथामुष्य प्रस्थानमाह इअ वारिअदहवणो दहवअणाणप्तिविलइउक्तिभरो। णीइ रहं आरूढो रक्खसपरिवारिथ्रो दसाणणतणो ||३२|| [ इति वारितदशवदनो दशवदनाज्ञप्तिविलगितोक्षिप्तभरः । निरेति रथमारूढो राक्षसपरिवारितो दशाननतनयः ॥ ] इत्यनेन प्रकारेण वारितदशवदनो राक्षसः परिवारितो वेष्टितश्च दशाननतनयो रथमारूढः सन् निरेति । रणाय निर्गच्छतीत्यर्थः । किंभूतः । दशवदनस्याज्ञया विलगित योजितसन्नुत्क्षिप्त उत्थापितो भरः संग्रामरूपो येन स तथा । अन्यत्रापि समर्थेन केनचिदर्पितं भारादि समुत्थाप्यते इति ध्वनिः ||३२|| Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८] सेतुबन्धम् [पञ्चदश विमला-इस प्रकार रावण को रणगमन से रोक कर मेघनाद ने रावण की आज्ञा से योजित युद्धभार को स्वयं उठा लिया एवं राक्षसों को साथ लेकर रथारूढ हो युद्ध के लिये वह निकल पड़ा ॥३२॥ अथ रथवेगमाह जो दहमुहरंगदारे तुरिअपहाविअरहस्स जो णअरिमुहे। खोहेन्तस्स कइबलं सो च्चिअ वेओ असे पअत्तहलहलो ॥३३॥ [ यो दशमुखानद्वारे त्वरितप्रधावितरथस्य यो नगरीमुखे । क्षोभयतः कपिबलं स एव वेगश्चास्य प्रवृत्तहलहलः ॥] त्वरितं प्रधावितो रथो यस्य तथाभूतस्यास्य मेघनादस्य यो वेगो रथकृत एव दशमुखस्याग्रवर्तिनि द्वारे। मूलस्थान इत्यर्थः । यश्च नगरीमुखे लङ्काया गोपुरे । मध्य इत्यर्थः। कपिबलं क्षोभयतो विमर्दयतश्च तस्य स एव वेगो जात इत्यर्थात् । तथा च परेषां यथा यथा पुरः समागमनं तथा तथा शत्रुसांनिध्येन वेगशैथिल्यं भवति । मेघनादस्य तु पितुरुत्साहनाय तदने चरमकाष्ठापन्न एव जवोत्कर्ष आसी. दथ पर्यन्ते संग्रामशिरसि तथैव स्थित इति रणोत्साहः सूचितः । वेगः कीदृक् । प्रवृत्तो हलहलः क्षोभविशेषो यस्माद्विपक्षाणामित्यर्थात् । शब्दोऽयं देशी ॥३३॥ ..विमला-मेघनाद के, शीघ्रता से दौड़ते हुये रथ का जो वेग रावण के अग्रवर्ती द्वार पर तथा लङ्का के नगरद्वार पर था, कपिसेना को भुन्ध करते समय भी उसका वही वेग था, जिससे शत्रुपक्ष में हलहल (क्षोभविशेष ) प्रारम्भ हो गया ॥३३॥ अथ नीलादिभिरस्य प्रतिक्षेपमाहअह रामबद्धलक्खो पढमुद्धाइअपवंगमक्खविअबलो। वाणरजोहेहि समं जलणसुएण वरिओ वसाणणतणओ ॥३४॥ [ अथ रामबद्धलक्ष्यः प्रथमोशवितप्लवङ्गमक्षपितबलः । वानरयोधैः समं ज्वलनसुतेन वृतो दशाननतनयः ।। ] अथ समरभूमिगमनोत्तरं रामे बद्धं लक्ष्यं शरलक्ष्यता येन तथाभूतो दशाननतनयस्तत एव वानरयोधैर्हनूमदादिभिः समं ज्वलनसुतेन नीलेन वृतः । पुरो गत्वा प्रतीष्ट इत्यर्थः । कीदृक् । प्रथमोद्धावितमग्रेकृतवेगमत एव प्लवङ्गमैः क्षपितं नाशितं बलं यस्य स तथा । ये पुरः समागतास्ते कपिभिर्हता इत्यर्थः ॥३४॥ विमला-संग्रामभूमि में पहुंच कर मेघनाद ने ज्यों ही राम को अपने शर का लक्ष्य बनाया त्यों ही वानरयोद्धाओं के साथ नील ने उसे घेर लिया और उसके जो वीर आगे दौड़कर आये, उन्हीं को वानरों ने विनष्ट कर दिया ॥३४॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६४६ अथ सर्वैरेकदा युद्धमाहणीलेण गण्डसेलं दिविएण दुमं सिलाअलं मारुइणा। दारेइ सरेहि समं णलेण मुक्कं अ मलअसिहरक्खण्डम् ।।३५॥ [ नोलेन गण्डशैलं द्विविदेन द्रुमं शिलातलं मारुतिना । दारयति शरैः समं नलेन मुक्तं च मलयशिखरखण्डम् ॥ ] नीलादिभिर्मुक्तं गण्डशैलादिकं सममेकदैव शरैर्दारयति मेघनाद इत्यर्थादिति निगदव्याख्याताम् । गण्डौलो गिरेः स्थूलोपलः ॥३५॥ विमला-नील ने गण्डशैल (भारी पत्थर ), द्विविद ने द्रुम, हनुमान ने शिला तथा नल ने मलय शिखर का खण्ड एक साथ मेघनाद पर डाला, किन्तु मेघनाद ने उन सबको बाणों से विदीर्ण कर दिया ॥३॥ अथ विभीषणमन्त्रणमाह तो भग्गपवअसेण्णं णि उम्भिलाहुत्तसच्चविप्रपत्थाणम् । वारेह मेहणा विभीसणेण भणिओ सुमित्तातणओ ॥३६।। - [ ततो भग्नप्लवगसैन्यं निकुम्भिलाभिमुखसत्यापितप्रस्थानम् । वारयत मेघनादं विभीषणेन भणितः सुमित्रातनयः ॥] . ततो युद्धानन्तरं भग्नं प्लवगानां सैन्यं येन । एवम्-निकुम्भिला नाम यज्ञस्थानं तदभिमुखं सत्यापितं स्थिरीकृतं प्रस्थानं येन । यष्टुमित्यर्थात् । तं मेघनादं वारयत । यथा तत्र न याति तथाचरतेति विभीषणेन सुमित्रातनयो लक्ष्मणो भणितः । तत्र गत्वा तृतीयवेलायामस्यां ब्रह्मणो वरं लब्ध्वा दुर्जय: स्यादिति भावः ॥३६॥ विमला-तदनन्तर वानरसेना को भग्न कर मेघनाद ने जब निकुम्भिला नामक यक्षस्थान की ओर जाने का निश्चय किया तब विभीषण ने लक्ष्मण से कहा कि उसे रोक लीजिये, अन्यथा यज्ञ करने से ब्रह्मा से वर पाकर वह दुर्जेय हो जायेगा ॥३६॥ अथ मेघनादपतनमाहतो मात्राहि सरेहि अ सेलेहि प्र जुजिसअस्स रक्खससरिसम् । सोमित्तिणा णिसुद्ध पिआमहत्थेण मेहणाअस्स सिरम् ॥३७।। [ततो मायाभिः शरैश्च शल्यैश्च युद्धस्य राक्षससदृशम् । सौमित्त्रिणा निपातितं पितामहास्त्रेण मेघनादस्य शिरः ॥] ततो विभीषणमन्त्रणानन्तरं मायाभिर्मेघवृष्टिजलपातादिभिः शरैः शल्यश्च राक्षससदृशं तद्योगं यथा स्यात् । अत्युत्कटमित्यर्थः। तथा युद्धस्य कृतयुद्धस्म । कर्तरि क्तः । मेघनादस्य शिरः सौमित्रिणा ब्रह्मास्त्रेण निपातितम् ॥३७॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५०] सेतुबन्धम् [पञ्चदश विमला-विभीषण की मन्त्रणा पाने पर माया से, शरों से तथा शल्यों से राक्षसोचित युद्ध करने वाले मेघनाद के शिर को लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र से काट कर गिरा दिया ॥३७॥ अथ रावणरोदनमाहसोऊण इन्दइवहं म अइ सरोसं दसाणणो बाहजलम् । अब्भुत्तियदीवाणं णिवडइ तुप्पं व तक्खणं सहआसम् ॥३८॥ [ श्रुत्वा इन्द्रजिद्वधं मुञ्चति सरोषं दशाननो बाष्पजलम् । अभ्युत्तेजितदीपानां निर्बलति घृतमिव तत्क्षणं सहुताशम् ॥] इन्द्रजितो वधं श्रुत्वा दशाननः सरोष बाष्पजलं मुञ्चति । तच्च निर्बलति पृथग्भूय पततीत्यर्थः । किमिव । घृतमिव यथाभ्युत्तेजितानां दीपानां घृतं सहुताशं दीपरश्मिसंपकिं सन्निर्बलति द्रवीभवति इति दीपदशाननयो रश्मिरोषयोधूतबाष्पयोस्तौल्यादुपमा । तथा च तदानीमुत्तेजितदीपवद्दशाननोऽभूदिति भावः ॥३८॥ विमला-मेघनाद का वध सुन कर सरोष रावण रोने लगा और उसके भासू, अभ्युत्तेजित दीपों के रश्मिसहित घृत के समान (पृथ्वी पर ) टपकने लगे ॥३०॥ अब रावणस्य रोषविषादावाहणिहए अमेहणाए परिपत्तन्तेण तक्खणे चिन विहिणा। रोसविसाएहि समं हत्थेहि व होहि माहदो बहवअणो ॥३९॥ [निहते च मेघनादे परिवर्तमानेन तत्क्षणमेव विधिना। रोषविषादाभ्यां समं हस्ताभ्यामिव द्वाभ्यामाहतो दशवदनः ॥ च पुनर्मेघनादे निहते सति तत्क्षणमेव परिवर्तमानेन विरुद्धवृत्तिना विधिनादृष्टेन विधात्रा च द्वाभ्यां हस्ताभ्यामिव रोषविषादाभ्यां दशवदन आहतस्ताडितः । तथा च विधेरपि इन्द्रजितो भीतिः स्थिता, हते च तस्मिन् रावणवधेऽपि साध्यवसायत्वात्प्रतिकूलत्वं जातमिति रावणरोषविषादौ विधिहस्तत्वेनोत्प्रेक्ष्य तत्ताडनमुक्तम्, तेन विधिताडितो न जीवतीति ध्वनितम । प्रकृते रोषविषादयोरेव युद्धहेतुत्वेन मृत्युहेतुत्वमित्याशयः । अन्येनापि रिपुर्हस्ताभ्यां ताडयत इति ध्वनिः । यद्वा विधेरपि मेघनादजीवनपर्यन्तमेवानुकूल्यं स्थितम् , हते च तस्मिन् प्रातिकूल्यं जातम्, अतस्तथा कृतवानिति भावः ॥३६॥ विमला-मेघनाद के मारे जाने पर तत्काल ही ( निर्भय ) विधाता ने प्रतिकूल होकर रोषविषाद से क्या, मानों दोनों हाथों से एक साथ रावण को प्रताडित किया ॥३६।। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६५१ अथ पुनरपि रावणप्रयाणमाहणोसेसणिह अबन्धू तो सो एक्को वि बहुभुआदुप्पेच्छों । भीषणमुहसंघाओ रक्खसलोओ व्व णिग्गओ दहवअणो॥४०॥ [ निःशेषनिहतबन्धुस्ततः स एकोऽपि बहुभुजादुष्प्रेक्ष्यः । भीषणमुखसंघातो राक्षसलोक इव निर्गतो दशवदनः ॥] ततो रोषविषादानन्तरं निःशेषं निहतो बन्धुर्यस्य स हतसकलराक्षसतया एकोऽप्यसहायोऽपि दशवदनो राक्षसलोक इव राक्षसपुञ्ज इव निर्गतो रणायेत्यर्थात् । पुजवे हेतुमाह-कीदृक् । बह्वीभिर्भुजाभिर्दुष्प्रेक्ष्यः । एवम्-भीषणो भयानको मुखानां समूहो यस्य तथा। तथा च द्विभुजैकमुखत्वेन प्रसिद्धलोकवलक्षण्याद्रोषादुत्फुल्लतया विंशतावपि बाहुषु दशस्वपि मुखेषु कोटिकोटिबुद्धिर्भवतीत्युत्प्रेक्षा मत्यंलोकादिवद्राक्षसलोकः ॥४०॥ विमला-सकल राक्षसों के मारे जाने पर असहाय होकर भी राषण युद्ध के लिये चला। भयानक मुखसमूह तथा बीस भुजाएं रोष से उत्फुल्ल होने के कारण सहस्रों की संख्या में प्रतीत हुई, अतएव मानों वह एक ही रावण राक्षसों का लोक था इसलिए उसकी ओर देखना भी कठिन हो गया ॥४०॥ भयामुष्य रथारोहणमाह-- गरि अ पवणपणोल्लिअकसणपलामावरन्धआरिअसूरम् । परिणअमत्तेराव गमअपब्वालिमतुरंगकेसरभारम् ॥४१॥ चक्कमलमइलिओअरधअवस्पुसिअससिविम्वपच्छिमभाअम् । ... घणअगाभगुग्गअसिहिजालालखिरं रहं प्रारूढो ॥४२॥ (जुग्गअम् ) [ अनन्तरं च पवनप्रणोदितकृष्णपताकादरान्धकारितसूरम् । परिणतमत्तैरावणमदप्लाविततुरङ्गकेसरभारम् चक्रमलमलिनितोदरध्वजपटप्रोञ्छितशशिबिम्बपश्चिमभागम् । धनदगदाभङ्गोद्गतशिखिज्वालाकलुषितं रथमारूढः ॥] (युग्मकम् ) निर्गमनानन्तरं स रथमारूढ इत्युत्तरस्कन्धकेन संदानितकम् । किंभूतम् । पवनेन प्रणोदिताश्चालिता याः कृष्णपताकास्ताभिरन्धकारितोऽन्धकारविशिष्ट इव कृतः सूरो येन तम् । पवनोत्थापितत्वेन पताका एव सूर्यबिम्बलग्नाः श्यामतया सूर्योऽप्यन्धकारालिङ्गित इति बुद्धि जनयन्तीति भावः । अत एवोत्पातादयोऽत्र सूचिताः । नीलपताकानां बाहुल्येन सूर्यस्य छन्नतया रविरप्यन्धकारच्छन्न इति Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२] सेतुबन्धम् [पञ्चदश बुद्धिर्वा । एवम्-परिणतः परिवृत्य कृताघातो यो मत्तैरावणस्तस्य मदै: प्लावितस्तुरङ्गाणां केसरभारो यत्रेति पूर्वपूर्वमपि बहुयुद्धसहत्वमुक्तम् । पुनः किंभूतम् । चक्राणां मलेन मलि नितं घर्षणे सति संक्रान्तेन श्यामीकृतमुदरं यस्य तथाभूतः सन् तदानीं ध्वजपटेन प्रोञ्छितः शशिबिम्बस्य पश्चिमस्तलवतिभागो येन तथाभूतम् । चन्द्रे चक्रमलसंबन्धादुत्पन्ना श्यामिका पताकया प्रोच्छयापसार्यते येनेति गगन चारित्वमुच्चत्वं च सूचितम् । एवम्--धनदस्य गदाया भङ्गादुद्गताभिः शिखिज्वालाभिः कलुषितमीषद्दाहाद्ध म्रीकृतम् । पूर्व युद्धे सति कुबेरस्य गदा तत्र प्रहारेण भग्ना ततोऽग्निरुत्थितस्तेन कलुषमिति बहुयुद्धसहत्वमुक्तम् । युग्मकम् ॥४१-४२॥ विमला-इसके बाद वह जिस रथ पर सवार हुआ वह ऐसा तुङ्ग एवं विशाल था कि उसकी काली-काली पताकायें वायु के संचार से फहरती हुई, ( सूर्यबिम्ब में लग कर ) अपनी श्यामता से सूर्य को अन्धकाराच्छादित करने लगी तथा उसके घोड़ों के केसर (गर्दन के बाल ), (पूर्वकाल में इन्द्र से युद्ध होने पर ) घूम कर आघात करने से मत्त ऐरावत के मदजल से ( अब तक ) मार्द्र बने हुये थे। उसके पहियों के मल से शशिबिम्ब का तलवर्ती भाग मलिन कर दिया गया, अतएव उसकी कालिमा को पताका पोंछ कर दूर कर रही थी, एवं पूर्वकाल में युद्ध होने पर कुवेर की गदा उस पर प्रहार करने से टूट गयी थी, उससे उत्पन्न अग्निज्वाला से (कुछ जल कर ) वह ( रथ ) धूम्रवर्ण का हो चुका था ।।४१-४२॥ अथ निशिचरीणामुढेगप्रकाशमाहबठ्ठण अ तं णिन्तं पीआ मङ्गलमणाहि रमणिपरीहि । अत्तो च्चिअ उप्पण्णा तेहिं च्चिन लोअणेहि बाहत्थवआ ॥४३॥ [दृष्ट्वा च तं निर्यान्तं पीता मङ्गलमनोभी रजनीचरीभिः । अत एवोत्पन्नास्ताभ्यामेव लोचनाभ्यां बाष्पस्तबकाः ॥] च पुनस्तं निर्यान्तं दृष्ट्वा मङ्गलचित्ताभिनिशाचरीभिर्याभ्यामेव लोचनाभ्यामुत्पन्ना बाष्पस्तबकास्ताभ्यामेव पीताः । निहतसकलबन्धुत्वेन रावणः स्वयमेव रणाय गच्छतीति शोच्यबुद्धया निर्गता अप्यश्रुबिन्दवो यात्रायाममङ्गलानि मा भवन्त्विति पुनरन्तर्नीता इत्यर्थः ।।४३॥ विमला-उस रावण को (सकल राक्षसों के हत हो जाने पर युद्ध के लिये अकेला जाता ) देख कर ( शोक से ) निशाचरियों ने मङ्गल-कामना से आंसुओं को उन्हीं नेत्रों से पी लिया, जिनसे वे निकले थे ॥४३।। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वासः ] अथ रावणस्य कपिसैन्य दर्शनमाह तो तेण करअल ठिअसे लोज्झ रसलिल णिव्वरिअवच्छअडम् । दिट्ठीहि अ बाणेहि प्र तुलिअं जाइ लहुअं पवंगमसेण्णम् ||४४ || [ ततस्तेन करतलस्थितशैलनिर्झरसलिलनिर्वृ'तवक्षःस्थलम् । दृष्टिभिश्च बाणैश्च तुलितं याति लघुतां प्लवङ्गमसैन्यम् ॥ ] ततो युद्धक्षेत्रगमनानन्तरं तेन रावणेन दृष्टिभिश्च वाणैश्च तुलितं प्लवङ्गमसैन्य लघुतां याति । प्रथमं दर्शनेनेव ज्ञातं कपिबलमिदं मदुपमदं न सहिष्यते, चरमं शरत्यागे निर्धारितमिति तुलितपदार्थः । सांमुख्ये सति क्षुब्धं शरत्यागे सति क्षुब्धतरमभूदिति लघुतापदार्थः । किंभूतम् । करतल स्थितस्य शैलस्य निर्झरसलिलेन निर्वृतं शीतलितं वक्षःस्थलं यस्य तत् । तथा च रावणदर्शनादुत्तप्ते हृदि क्षोभोद्गतकरकं येन पर्वतपरिवृत्त्या निर्झरपातेन शैत्यमभूदत एव दृष्ट्या तुलितमिति भावः । अन्यदपि तुलायामारोपितं सत्त्वशून्यतया लघुतामेव गच्छतीति ध्वनिः । ' बाणेहि व' इति पाठे बाणैरिव यथा बाणैस्तुलितं लघुतां याति दृष्टिभिरपीति सहोपमा ॥ ४४ ॥ [ ६५३ विमला - युद्ध क्षेत्र में पहुँचने के अनन्तर रावण ने वानरों की सेना को दृष्टि की तुला पर तौला तो वह हल्की हो सिद्ध हुई, क्योंकि देखने मात्र से ही सारे वानरों का हृदय उत्तप्त हो गया, जो कि हाथ पर स्थित पर्वतों के उलट जाने से उनके झरनों के जल से शीतल हुआ । तदनन्तर जब बाणों से तौला तब मौर भी हल्की सिद्ध हुई, क्योंकि शरत्याग करने पर वे सब वानर क्षुब्धतर हो गये ||४४|| अथ विभीषणदर्शनमाह पासावडिअम्मि वि से विहोसणे पवअसेण्णकअपरिवारे । दोणो त्ति सोमरो त्ति अ श्रमरिसरससंधिश्रो वि उल्ललइ सरो ।। ४५ ।। [ पार्श्वपतितेऽप्यस्य विभीषणे प्लवगसैन्यकृतपरिवारे । दीन इति सोदर इति चामर्षरससंधितोऽप्युल्ललति शरः ॥ ] अस्य रावणस्य पाश्वपतितेऽप्यस्य विभीषणे अमर्षरसेन संहितोऽपि शर: दीन इति सोदरोऽयमिति हेतोरुल्ललति वे (व्य ) द्धुं न स्थिरीभवतीत्यर्थं इति रोषकरुणभावयोः संधिरित्यग्रे कृपया न विद्ध इति भावः । किंभूते । प्लवगसैन्येन कृतः परिवारो वेष्टनं यस्य । यद्वा प्लवगसैन्यं कृतः परिवारः परिजनो येन तस्मिन्नित्यर्थः ॥ ४५॥ विमला - वानर सेना से परिवृत विभीषण रावण के पार्श्व भाग में आ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश पड़ा तो भी 'यह दीन है तथा सगा भाई है' ऐसा सोचकर धनुष पर चढ़ा हुआ भी उसका बाण ( करुणा से ) चञ्चल हो गया-बेधने के लिये स्थिर नहीं हुआ ॥४॥ अथ लक्ष्मणस्य शक्तिवेधमाहविसहिअपढमप्पहरो णवरि अ रोसेण संधिउन्भरबाणो। इन्दासणीअ व दुमो सत्तीअ उरम्मि लक्खणो णिम्भिण्णो ॥४६॥ [विसोढप्रथमप्रहारोऽनन्तरं च रोषेण संधितोद्भटबाणः । इन्द्राशन्येव द्रुमः शक्त्योरसि लक्ष्मणो निभिन्नः ॥] विसोढः प्रथमप्रहारो येन । रिपोरित्यर्थात् । अनन्तरं च रोषेण संधित उद्भूतो बाणो येन तथाभूतो लक्ष्मण : शक्त्या उरसि निभिन्न स्ताडितः । रावणेनेत्यर्थात् । एकं रावणप्रहारं सोढवा यावद्वाणं लक्ष्मणः संदधाति तावदेव शक्त्या निभिन्न इत्यर्थः । द्रुम इव । यथा इन्द्राशन्या वज्रण द्रुमो निर्भिद्यते तथेत्यर्थः ॥४६॥ विमला-रावण का प्रथम प्रहार सहने के बाद लक्ष्मण ने ज्यों ही बाण 'धनुष पर चढ़ाया त्यों ही रावण ने, इन्द्र के वज्र से ताड़ित वृक्ष के समान, लक्ष्मण को हृदय में शक्ति ( बाणविशेष ) का प्रहार कर गिरा दिया ॥४६।। अथ लक्ष्मणस्य विशल्यकरणमाह सो वि अ पवणसुआणिअधराहरोसहिविषण्णजीअम्भ हो। तह संघिअचावसरा णिसाम्ररेहि सह जुज्झि आढत्तो ॥४७॥ [ सोऽपि च पवनसुतानीतधराधरौषधिवितीर्णजीवाभ्यधिकः । तथा संधितचापशरो निशाचरैः सह योद्धमारब्धः ॥] सोऽपि च लक्ष्मणः पवनसुतेनानीतस्य धराधरस्य औषध्या वितीर्णेन प्रत्यानीय दत्तेन जीवेन प्राणपञ्चकेनाभ्यधिको नूतनसृष्टया श्रमराहित्येन परमतेजस्वी सन् निशाचरैः सह योद्धमारब्धः। कीदृक् । तथा पूर्ववदेव संधितं चापशरं येन स तथेति क्षतजन्यधातुवैषम्याभाव उक्तः ॥४७।। विमला-पवनसुत ने पर्वत लाकर उसकी ओषधि से लक्ष्मण को जीवन दिया, अतएव वे पहले से भी अधिक पराक्रम से धनुष पर बाण चढ़ाये और पूर्ववत् निशाचरों से युद्ध करने लगे ॥४७॥ अथ त्रिभिरादिकुलकेनेन्द्ररथागमनमाह अह रामो वि णिअच्छइ तुरखुरप्पहरविहलजलहरवठ्ठम् । ठि अवज्जहरालम्बिप्रकणअद्धअक्खम्भगिम्महन्तपरिमलम् ॥४८॥ वामभुमहि अपग्गहमालिभरणमिनदीहरधुरादण्डम् । भिज्जन्तमेहसीहरतण्णाओणअणिसण्णचामरपम्हम् ॥४६॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६५५ ससिणिहसतुसारोल्लिअरविअरवसुआअषप्रवडसिहवन्तम् । उण्णअपच्छिमतडिमं णिवडन्तं खपवई व सग्गाहि रहम् ॥५०॥ (आदिकुलअम् ) [ अथ रामोऽपि निर्ध्यायति तुरगखुरप्रहारविह्वलजलधरपृष्ठम् । स्थितवज्रधरालम्बितकनकध्वजस्तम्भनिर्यत्परिमलम् वामभुजगृहीतप्रग्रहमातलिभरनमितदीर्घधुरादण्डम् भिद्यमानमेघशीकरार्द्रावनतनिषण्णचामरपक्ष्माणम् शशिनिघर्षतुषाराद्रितरविकरशुष्कध्वजपटशिखार्धान्तम् । उन्नतपश्चिमतडिमं निपतन्तं खगपतिमिव स्वर्गाद्रथम् ।। ] (आदिकुलकम् ) अथ लक्ष्मणविशल्यतानन्तरं रामोऽपि स्वर्गानिपतितं रथं निर्ध्यायति पश्यतीति तृतीयस्कन्धकेन सहान्वयः । किंभूतम्। तुरगाणां खुरप्रहारेण विह्वलानि स्थाने स्थाने खण्डितानि जलधराणां पृष्ठानि यस्मात्तम् । एवम्-स्थितेन वज्रधरेणालम्बितात्पृष्ठेनावष्टब्धात्कनकध्वजस्तम्भान्निर्यन्परितः प्रसर्पन्परिमलः सौरभं यत्र । इन्द्रदेहस्थितपारिजातादिसंबन्धात् । किंभूतम् । वामभुजेन गृहीतः प्रग्रहो वल्गा येन स तस्य मातलेरिन्द्रसुतस्य भरेण नामितो दीधुरादण्डो यत्र तम् । अतःपतनेन मातलेरपि तदुपरि नमनादिति भावः । एवम्-भिद्यमानस्य द्विधाभूतस्य वर्मवर्तिनो मेघस्य शीकरैरम्बुकर्णराज़्ण्यत एवावनतानि सन्ति निषण्णानि मिथो मिलितानि चामराणां पक्ष्माणि यत्रेत्यलंकृतत्वमुक्तम् । किंभूतम् । शशिनो निघर्षे सति तदीयतुषारराीकृतः पश्चात्तदधोतिनो रबेः करैः शुष्को ध्वजपटस्य शिखाग्रं तदर्धान्तो यत्र तमिति तावदुरादागमनमुक्तम् । एवम्-उन्नतं पश्चिमतडिमं यस्य । अग्रभागेणाधःपतने पश्चाद्भागस्योत्थितत्वादिति भावः। खगपतिमिव । यथा गरुडः स्वर्गादधो गच्छतीत्यर्थः । आदिकुलकम् ॥४८-५०॥ विमला-लक्ष्मण के स्वस्थ होने के बाद राम ने स्वर्ग से गरुड के समान नीचे उतरते हुए ( इन्द्र के ) रथ को देखा। उसके घोड़ों के खुरप्रहार से ( मार्गवर्ती ) जलधरों के पृष्ठभाग स्थान-स्थान पर खण्डित हो गये थे। उसके कनकध्वज स्तम्भ का सहारा लिए इन्द्र स्थित थे, अतः उस ध्वजस्तम्भ से सौरभ चारों ओर फैल रहा था। सारथि मातलि बायें हाथ से रास पकड़े था, जिस (सारथि) के भार से दीर्घ धुरादण्ड झका हुआ था। (मार्गवर्ती ) मेघों के भिद्यमान होने से उनके अम्बुकणों से चँवर के बाल आर्द्र होकर झुके तथा परस्पर संश्लिष्ट थे । उसके ध्वजपट का अग्रभाग चन्द्रमा का निघर्षण होने से उसके तुषारों से आर्द्र कर दिया गया था, किन्तु वह सूर्य की किरणों से ( पुनः) सूख गया था। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश आगे का भाग नीचे की ओर झुक गया था, अतएव पिछला भाग उन्नत हो गया था ॥४८-५०॥ अथ रामस्य मातलिमेलनमाह तो रामो मानडिणा पढमदराभासणुभमुहपसण्णमहो। तिअसबहुमाण गरुअं दूरअरोणामिआणणेण पणमित्रो ॥५१॥ [ ततो रामो मातलिना प्रथमदराभाषणोन्मुखप्रसन्नमुखः । त्रिदशबहुमानगुरुकं दूरतरावनमिताननेन प्रणतः।। ] तत आगमनानन्तरं दूरतरमतिदूरमत एवावनम्रीकृतं मुखं येनेत्यादर उक्तः । तादृशेन मातलिना रामः प्रणतो नमस्कृतः । त्रिदशानामिन्द्रादीनां बहुमानेन सत्कारेण गुरुकमतिशयितं यथा स्यात् । रामः कीदृक् । प्राथमिके कुशल प्रश्नादिरूपे किंचिदाभाषणे उन्मुखं सत्प्रसन्नं मुखं यस्य स इति प्रतीतत्वमुक्तम् ।।५१।। विमला-आगमन के बाद इन्द्रादि के सत्कार के कारण अत्यन्त आदरपूर्वक मातलि ने अति दूर से ही सिर झुकाकर राम को प्रणाम किया और राम कुशलप्रश्नादि के लिए उन्मुख हो प्रसन्नमुख हुये ।।१।। अथ कवचदानमाह देइ अ रहपुञ्जइ उहकर विखवणपाअडिअवित्थारम् । कवअंतिहुअणवइणो अब्भन्तरलग्गणिम्महन्तपरिमलम् ।।५२।। [ ददाति च रथपुञ्जितमुभयकरक्षेपणप्रकटितविस्तारम् । कवचं त्रिभुवनपतेरभ्यन्तरलग्ननिर्यत्परिमलम् ॥] त्रिभुवनपतेरिन्द्रस्य । त्रिभुवनपतये रामायेति वा । चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। कवचं ददाति च । मातलिरित्यर्थात् । किंभूतम् । रथे पुञ्जितम् । तत्रैव स्थापितत्वादिति महत्त्वमुक्तम् । अथोत्थापने सति उभय कराभ्यां क्षेपणेन पार्श्वयोर्बाहुद्वयस्थानोत्थापनेन प्रकटितो विस्तारो यस्य । हृदयोत्थापनाभिव्यञ्जनादुभयकरस्थानयोः क्षेपणेन वा। एवम्-अभ्यन्तरे लग्नः सन्नियंन्नितस्ततः प्रसर्पन् परिमलः श्रीखण्डादेयंत्र तमिति तत्कालोत्तारितत्वमुक्तम् ।। ५२।। विमला-मातलि ने इन्द्र का कवच उठाकर राम को दिया, जो रथ में समेट कर रखा गया था। उसकी दोनों बाहों को पकड़ कर जब उठाया तब उसके विस्तार का पता लगा और ( इन्द्र के शरीर से तत्काल उतारे जाने के कारण ) उसके भीतर की तरफ लगे हुये श्रीखण्डादि का सौरभ चारो ओर फैल गया ॥५२॥ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् आश्वास: ] अथ कवचपरिधानमाह - तं च कवअं सुराहिव सम्बङ्गपत्तलो अणसुहप्फरिसम् । सीआविरहोलुग्गे जाअं थोअसिटिलं रहुवइस्स उरे ।। ५३ ।। [ तच्च कवचं सुराधिपसर्वाङ्गप्रभूतलोचन सुखस्पर्शम् । सीताविरहावरुग्णे जातं स्तोकशिथिलं रघुपतेरुरसि ॥ ] तच्च कवचं सीताया विरहेणावरुग्णे दुर्बले रघुपतेरुरसि स्तोकमीषत् शिथिलं जातम् । दौर्बल्यादेव किंचिदवकाशादिति रामस्येन्द्रतुल्य देहत्वमुक्तम् । किंभूतम् । सुराधिपस्य सहस्राक्षस्य सर्वाङ्गेषु प्रभूतानां व्याप्तानां लोचनानां सुखस्पर्शम् | नयनस्य कठिन स्पर्शासहत्वेन तत्तत्स्थानेषु कोमलीकृतत्वादिति भावः ॥ ५३ ॥ | विमला - इन्द्र के सर्वाङ्गों में व्याप्त लोचनों के लिये उन उन स्थानों पर कोमल किया गया वह कवच सीता के विरह से दुर्बल राम के हृदय पर थोड़ा-सा ढीला हुआ ||५३|| अथ कवचबन्धनमाह - [ ६५७ महिअल मोइण्णेण श्र सुरवइहत्यपरिमाससइदुल्ल लिअम् । श्रारूढस्त रहं से कवअं सव्वङ्गिअं कअं माअडिणा || ५४ ॥ [ महीतलमवतीर्णेन च सुरपतिहस्त परिमर्ष सदादुर्ललितम् । आरूढस्य रथमस्य कवचं सर्वाङ्गिकं कृतं मातलिना ॥ ] महीतलमवतीर्णेन समागतेन च मातलिन । कवचं रथमारूढस्यास्य रामस्म सर्वाङ्गिकं सर्वाङ्गव्यापि कृतं च । रथारोहणानन्तरं कवचपरीधानमिति क्तार्थः । किंभूतम् । सुरपतेर्हस्ताभ्यां परिमर्षेण रजोमार्जनादिना व्यापारेण दुर्ललितं स्नेहपात्रीकृतम् । उज्ज्वलीकरणादिति रामे तत्पक्षपात उक्तः ॥ ५४ ॥ विमला - राम जब रथ पर सवार हो चुके तब भूमि पर उतर कर मातलि ने उस कवच को राम के सकल अङ्गों पर ठीक से स्थित किया, जिस ( कवच ) की धूल आदि को इन्द्र स्वयम् अपने हाथों से साफ किया करता था, भतएव उसका स्नेहपात्र था || ५४ ॥ अथ रामे लक्ष्मणविज्ञप्ति प्रस्तौति - तो णीलरविसुग्राहि समल्लिओ राहवं सुमितातणो । भाइ धरणी तक्खणविलइअधणुगम्भिणं णिमेऊण करम् ॥५५॥ : [ ततो नीलरविसुताभ्यां समन्वितो राघवं सुमित्रातनयः । भति धरण्यां तत्क्षणविलगितधनुर्गभितं निवेश्य करम् ॥ ] ततो रामस्य कवचपरिधानोत्तरं नीलसुग्रीवाभ्यां समन्वितः सुमित्रातनयो ४२ से० ब० Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८] सेतुबन्धम् [पञ्चदश धरण्यां करं निवेश्य राघवं भणति । किंभूतं करम् । तत्क्षणे विलगितेन गृहीतेन धनुषा गर्भितम् । पूर्णाभ्यन्तरमित्यर्थः । मुष्टिना धृतत्वादिति भावः ।।५५॥ विमला--कवच-धारण का कार्य कर चुकने पर राम से, नील-सुग्रीवसमन्वित लक्ष्मण ने तत्काल गृहीत धनुष से गर्भित हाथ को भूमि पर रख कर ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥५५॥ त्रिभिर्विज्ञप्तिवाक्यमाह वीसमउ तुम्ह चावं अडणिमुहप्फिडिअसिढिलजीआबन्धम् । अइरा पेच्छ विराअं ममम्मि गोले व्व रविसुए व्व दहमुम् ।।५६।। [विश्राम्यतु तव चापमटनिमुखस्फेटितशिथिलज्याबन्धम् । अचिरात्पश्य विशीर्ण मयि नीले वा रविसुते वा दशमुखम् ॥ ] हे राम ! तव चापम् अटनिमुखस्फेटित उत्तारितः सन शिथिलोऽस्तब्धो ज्याबन्धो यत्र तथा सत् विश्राम्यतु सुखीभवतु । प्रान्तादुत्तार्य धनुष्येव ज्या निवेश्यत इति संप्रदायः । तर्हि रावणस्य का वार्तेत्यत आह-मयि नीले वा रविसुते वा सति विशीर्ण विशकलितप्रत्येकावयवं दशमुखं पश्य । समर्थे सेवके सति प्रभुणा न युध्यत इति भावः ।।५६।। विमला--धनुष की डोरी अटनि ( अग्रभाग, जहाँ डोरी बांधने के लिये गड्ढा बना होता है) से उतार दी जाय और इस प्रकार शिथिल डोरी वाला होकर मापका धनुष विश्राम करे। मेरे या नील के या सुग्रीव के रहते, छिन्न-भिन्न रावण को आप देखें ॥५६॥ तव योग्योऽपि नायमित्याहगुरुअम्मि कुणसु कोवं लहुए दहमुहवहम्मि मुअसु अमरिसम् । तुङ्गं तटं गिसुम्मइ ण अ गइवप्पं समलि व्व वणगो ॥५७।। [ गुरौ कुरुष्व कोपं लघौ दशमुखवधे मुञ्चामर्षम् । तुङ्गं तटं निपातयति न च नदीवप्रं समस्थली वा वनगजः ।।] हे राम ! गुरावस्मदाद्यसाध्ये कोपं स्वव्यापाराय कुरुष्व । लघौ सुकरत्वादस्मदादिसाध्ये दशमुखवधेऽमर्ष मुञ्च। अपकर्षहेतुत्वादन्यथासिद्धत्वादिति भावः । अर्थान्तरं न्यस्यति-बनगजस्तुङ्गमुच्चं तट पर्वतादेनिपातयति न च नदीवप्रं वेलादिरूपं समस्थली समभूमि वा निपातयतीत्यर्थस्तेषामनुच्चत्वेन बुद्धयानारोहा दिति भावः ।।५७।। विमला-कोई ऐसा महान शत्रु हो जो हम सब के लिये असाध्य हो, उस पर आप क्रोध करें। दशमुख का वध तो बहुत छोटा-सा काम है, इसके लिये Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास : ] रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६५६ आप अमर्ष न करें । वनगज ( पर्वतादि के ) तुङ्ग तट को ही गिराता है, नदीतट अथवा समभूमि को नहीं ||५७|| स्वयं सामर्थ्यऽपि प्रभुणा परिजन एव भारो निधीयत इति दृष्टान्तयन्नाहपज्जसस्स समत्थं दहिउ अद्धच्छिपेच्छिएण वितिउरम् । रहुब कि व्व ण सुव्वद्द आणत्ती तिणम्रणस्स तिनसेहि कमा ।।५८ ॥ [ पर्याप्तस्य समस्तं दग्धुमर्धाक्षिप्रेक्षितेनापि त्रिपुरम् । रघुपते किंवा न शृणोषि आज्ञप्तिस्त्रिनयनस्य त्रिदशैः कृता ॥ ] हे रघुपते ! किंवा न शृणोषि न श्रुतवानसि त्रिनयनस्याज्ञप्तिराज्ञा त्रिदशैः कृता । त्रिपुरवध इत्यर्थात् । किंभूतस्य । अर्धाङ्क्षिप्रेक्षितेनापि कटाक्षमात्रेण समस्तं त्रिपुरं दग्धुं पर्याप्तस्य समर्थस्य । तथा चेतरासाध्यमेव प्रभुणा साध्यत इति भावः ॥५५॥ विमला - रघुपते ! क्या आपने नहीं सुना है कि देवताओं ने ( स्वयं वध करना शोभोत्पादक नहीं होगा - यही सोच कर ) त्रिपुर का वध करने के लिये त्रिनयन (शिव) को आज्ञा दी थी, क्योंकि वे (शिव) कटाक्ष मात्र से त्रिपुर को भस्म करने में समर्थ थे ( तब देवताओं को क्या पड़ी थी कि स्वयं छोटा काम करते ) ।।५८ || अथ रामस्य प्रत्युत्तरमाह तो दहवअणालोझणरोसुग्ग असे प्रलङ्गि अणिलाडगडो । पुलइअणीलर विसुओ पणअं पडिभणइ लक्खणं रहुणाहो || ५६ ॥ [ ततो दशवदनालोकनरोषोद्गतस्वेदलङ्घितललाटतटः । प्रलोकितनीलरविसुतः प्रणतं प्रतिभणति लक्ष्मणं रघुनाथः ॥ ] ततो लक्ष्मणवचनोत्तरमवलोकितनीलसुग्रीवः सन् प्रणतं लक्ष्मणं रघुनाथः प्रतिभणति । किंभूतः । दशवदनालोकनाद्रोषेणोद्गतः स्वेदैर्लङ्घितमतिक्रान्तं ललाटतट यस्य (?) तीर्ष्याक्ता ॥५६॥ विमला- - लक्ष्मण के कह चुकने के बाद राम, जिनका ललाट रावण को देख कर क्रोधजन्य स्वेद से अतिक्रान्त था, ने नील-सुग्रीव की ओर देखकर, प्रणत लक्ष्मण से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ।। ५६ ।। प्रत्युत्तरवाक्य माह निव्वढजविप्राणं आसङ्घइ तुम्ह ववसिअं मह हिअअम् । कि उण भरो व्व होहिइ सअ अणिट्ठविप्रदहमुद्रो मज्झ भुओ ॥ ६०॥ ―― Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६०] सेतुबन्धम् [पञ्चदश [निव्यूं ढजल्पितानामध्यवस्यति युष्माकं व्यवसितं मम हृदयम् । किं पुनर्भर इव भविष्यति स्वयमनिष्ठापितदशमुखो मम भुजः।।] मम हृदयं कर्तृ नियूंढजल्पितानां निर्वाहितस्वप्रतिज्ञानां युष्माकं व्यवसितं कर्म अध्यवस्यति । सिद्धत्वेन जानातीत्यर्थः । किं पुनः किं तु स्वयमात्मनानिष्ठापितदशमुखो भवद्भिरेव नाशितत्वादविनाशितरावणः सन्नेष मम भुजो भर इव भविष्यति । अकृतैवंविधकार्यत्वादुद्वहने गुरुरेव स्यादिति मयैव हन्तव्य इति भावः ॥६॥ विमला-मेरा हृदय जानता है कि तुम सब अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने वाले हो तथा तुम लोगों का व्यवसित कर्म सिद्ध हुआ ही समझा जाना चाहिये तथापि यदि मैं स्वयं दशमुख का वध नहीं करता हूँ ( उसे तुम लोगों से सम्पन्न कराता हूँ ) तो मेरा भुज भार सा होगा ॥६०॥ पुनस्तदेवाहकुम्भस्स पहत्थस्स अ दूसह णिहणेण इन्दइस्स अ समरे। दसकण्ठं मुहवडिअं केसरिणो वणग व मा हरह महम् ॥६॥ [कुम्भस्य प्रहस्तस्य च तुष्यत निधनेनेन्द्रजितश्च समरे । दशकण्ठं मुखपतितं केसरिणो वनगजमिव मा हरत मम ॥] हे सुग्रीव ! नील ! लक्ष्मण ! यथासंख्यं समरे कुम्भस्य प्रहस्तस्य चेन्द्रजित निधनेन यूयं तुष्यत । कृतस्वस्वकार्यत्वात् । मम केसरिणो मुखपतितं संमुखगतं वनगजमिव दशकण्ठं मा हरत मा आच्छिद्य गृहीत । तथा सत्याक्षिप्तगजः सिंह इवाहमकृतार्थ एव स्यामित्युत्प्रेक्षया व्यज्यते । केसरिणो वनगज मिवेति क्रमादुपमा वा ॥६॥ विमला-सुग्रीव ! नील ! लक्ष्मण ! तुम सब क्रमशः कुम्भ, प्रहस्त और इन्द्रजित् का वध तो कर ही चुके हो,इतने से ही सन्तुष्ट हो जाओ । केसरी-जैसे मेरे मुंह में पड़ गये वनगज-जैसे रावण को मुझसे मत छीनो ॥६॥ अथ रावणस्य शरत्यागमाहताण अ कहं पअत्तं वोच्छिन्दन्तस्स दहमुहस्स रणमुहे। उम्मलिउं पअत्तो प्रग्गक्खन्धम्मि कइबलं सरणिवहो ॥६२।। [ तेषां च कथां प्रवृत्तां व्यवच्छिन्दतो दशमुखस्य रणमुखे । उन्मूलयितुं प्रवृत्तोऽग्रस्कन्धे कपिबलं शरनिवहः ॥ ] च पुनर्दशमुखस्य शरनिवहो रणमुखेऽग्रस्कन्धे सैन्याने। स्थितमित्यर्थात् । कपिबलमुन्मूलपितुं प्रवृत्तः । अभवदित्यर्थात् । अत एव तेषां रामादीनामित्थं प्रवृत्तां कथा व्यवच्छिन्दतो विघटयतः । आकस्मिकरावणशरत्यागेन' सर्वे संभ्रान्ता बभूवुरित्यर्थः॥६२॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६६१ विमला - संग्राम में ( सहसा ) सेना के पड़े और वे वानरों की सेना के उन्मूलन में अकस्मात् बाण छोड़े जाने से सब घबड़ा गये, अतएव ) रामादि की परस्पर चल रही बात चीत रावण के द्वारा विघटित कर दी गयी ॥६२॥ अग्रभाग पर प्रवृत्त हो गये । रावण के बाण आ ( रावण के द्वारा अथ रामरावणयोर्युद्धमाह तो दोन्हवि समसारं बाणवह फिडिप्रतिअसपेक्खिज्जन्तम् । एक्कअरमरणगरुअं जाअं रामस्स वहमुहस्स अ जज्झम् ||६३॥ [ ततो द्वयोरपि समसारं बाणपथस्फेटितत्रिदशप्रेक्ष्यमाणम् । एकतरमरणगुरुकं जातं रामस्य दशमुखस्य च युद्धम् ॥ ] ततो रावणशरपातानन्तरं रामस्य दशमुखस्य च द्वयोरपि युद्धं जातम् । रामेण रावणः प्रतीष्ट इत्यर्थः । किंभूतम् । समसारं समबलम् । एवम् — बाणपथस्फेटितबाणपातभिया बहिर्भूतस्थिता ये त्रिदशास्तैः प्रेक्ष्यमाणम् । आकाशादित्यर्थात् । एवम् — एकतरस्य मरणेन गुरुकं सातिशयम् ॥ ६३ ॥ विमला - रावण के बाणों के छूटते ही राम और रावण का वह महान् युद्ध प्रारम्भ हो गया, जिसमें दोनों के समबल होने से दो में से एक का मरण होने पर ही समाप्त होने की आशा की जा सकती थी, अतएव देवता लोग बाणों के पथ से दूर हट कर संग्राम देखने लगे ॥६३॥ अथ रामोरसि बाण प्रहारमाह तो कढिऊण चावं कुण्डलमणि किरणघडिअजी आबन्धम् । मुक्को रामस्स उरे पढमं हअबन्धुणा दहमुहेण सरो ॥ ६४ ॥ [ ततः कृष्ट्वा चापं कुण्डलमणिकिरणघटितज्याबन्धम् । मुक्तो रामस्योरसि प्रथमं हतबन्धुना दशमुखेन शरः ॥ ] ततो युद्धारम्भानन्तरं यतो हतसकलपुत्र भ्रातादिबन्धुनात एव पीडितत्वात्प्रथमं दशमुखेन रामस्योरसि शरो मुक्तः । किं कृत्वा । कुण्डलमणिकिरणैर्घटितः संबद्धो ज्याबन्धो यत्र तद्यथा स्यादेवं चापं कृष्ट्वा । आकर्णमित्यर्थः । चापविशेषणं वा कुण्डलेत्यादि ॥ ६४ ॥ विमला - तदनन्तर रावण ने धनुष पर बाण रख कर धनुष को इतना ( कान तक ) खींचा कि उसकी डोरी कुण्डलमणि की किरणों से युक्त हो गयी और राम के हृदय को लक्ष्य बना कर बाण छोड़ दिया ।। ६४॥ अथ रामक्षोभमाह -- अपडिएण तेण सह धीरो वि परिकम्पिश्रो रहणाहो । अप्पाणणिग्विसेसं सम्रलं जह णेण कम्पिअं तेल्लोक्कम् ॥ ६५ ॥ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ ] सेतुबन्धम् [ वेगपतितेन तेन च तथा धीरोऽपि परिकम्पितो रघुनाथः । कम्पितं त्रैलोक्यम् ॥ ] यथानेन आत्मनिर्विशेषं सकलं वेगात्पतितेन तेन च शरेण धीरोऽपि रघुनाथस्तथा कम्पितो यथानेन रचुनायेनात्मनिविशेषं सदृशं यथा स्यादेवं सकलं त्रैलोक्यं कम्पितम् । रामविपत्तिशङ्कि - त्वादिति भावः । वस्तुतस्तु आत्मनो निर्विशेषमभिन्नमात्मस्वरूपं त्रैलोक्यं कम्पितम् । रामस्य विष्णुरूपत्वेन सर्वस्यापि तदात्मकत्वात्स्वकम्पे स्वाभिन्नकम्पो युज्यत एव । विश्वम्भरत्वेन वा तत्कम्पे त्रैलोक्यकम्प इति वयम् ||६५।। विमला - वेग से पतित उस बाण से धीर होते हुये भी राम ऐसे काँप उठे कि ( उनकी विपत्ति के भय से ) उन्हीं के समान हो तीनों लोक काँप गया ।। ६५ ।। अथ रामशरत्यागमाह रहुणाहस्स वि बाणो अणुपरिवाडिघडि अफ डि अकेऊरम् । दहवअणभुअणिहाअं तालवणक्खन्धपरिश्रएण अइगो || ६६ ॥ [ रघुनाथस्यापि बाणोऽनुपरिपाटिघटितस्फुटितकेयूरम् । दशवदनभुजनिघातं तालवनस्कन्धपरिचयेनातिगतः ॥ ] [ पञ्चदश रघुनाथस्यापि बाणस्तालवन स्कन्धेषु यः परिचयोऽभ्यासस्तेन दशवदनस्य भुजसमूहमतिगतोऽतिक्रम्य गतः । पुरा सप्ततालानेकदैवाभिनत्तद्रीत्यैव रावणस्य विशतिमपि बाहून्भित्त्वा गत इत्यर्थः । किंभूतम् । अनुपरिपाट्यानुक्रमेण घटिता एकाभिमुख्येन स्थिताः अथ च स्फुटिता बाणेनैव विद्धाः केयूरा येषु ( यस्मिन् ) तमित्यङ्गदस्थान एव भुजानभिनदित्याशयः ॥ ६६॥ विमला - राम के भी बाण को सात ताड़वृक्षों के तनों को एक साथ भेदने का अभ्यास पहिले हो चुका था, अतएव वह अनुक्रम से स्थित केयूरों को वेधता हुआ रावण की बीसों भुजाओं का एक साथ भेदन कर पार निकल गया ।। ६६ ।। अथ रावणस्य बाणत्यागे लाघवमाह अण्णं संधिअबाणं रहसाट्ठिअणिराअवट्ठ अष्णम् । समअं रक्खसवइणो अण्णं सरलहुइप्रोअरं होइ धणुम् ||६७ || [ अन्यत्संधितबाणं रभसाकृष्ट निरायतपृष्ठमन्यत् । समं राक्षसपतेरन्यल्लघुकृतोदरं भवति धनुः ॥ ] राक्षसपतेर्धनुः सममेकदैव भवति । कीदृशम् । संतितबाणं सत् अन्यत् अन्यावस्थं समकोटिद्वयत्वात् । रभसेनाकृष्टत्वान्निरायत पृष्ठमुत्थापितपृष्ठं सदन्यत् कोटिद्वयनमनात् । शरैर्लघूकृतोदरं शरत्यागेन तुच्छोदरं सत् अन्यद्विकटोदरत्वात् । इति संधानाकर्षण त्यागानामेककालिकत्वेन शिक्षाकौशलमुक्तम् ॥६७॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६६३ विमला-रावण का धनुष एक ही समय में बाणों के चढ़ाने, खींचने और छोड़ने से एक ही समय में विभिन्न रूप का दिखायी पड़ता था। बाण चढ़ाने पर ( दोनों किनारे के भाग सम होने से ) अन्य अवस्था में, वेग से खींचने पर ( दोनों किनारे के भागों के झुकने से ) पृष्ठभाग उभर आने पर अन्य अवस्था में, बाण छोड़ने पर उदर (भीतरी भाग ) के लघु होने से अन्य अवस्था में अवस्थित हो जाता था ।।६७।। अथ रामस्यापि तदाहसइसंधिप्रणिन्तसरं अवङ्गदेससइलग्गजीवाबन्धम् । दीसइ सहमुक्कसरं सइमण्डलिअविअडोअरं रामघणुम् ॥६॥ [ सदासंधितनिर्यच्छरमपाङ्गदेशसदालग्नज्याबन्धम् । दृश्यते सदामुक्तशरं सदामण्डलितविकटोदरं रामधनुः ॥] रामधनुर्दश्यते । कीदृशम् । सदा संधिताः सन्तो निर्यान्तः शरा यस्मादिति संधानसम कालमेव निर्गमनमुक्तम् । यद्वा-सदासंधितशरं सदानिर्यच्छरमिति व्यवस्थाद्वयकथनम् । एवम्-अपाङ्गदेशे सदालग्नज्याबन्धं सदैवाकर्णकृष्टमित्यर्थः । एवम्-सदामुक्तशरमसंधानदशायामेव शरशून्यमित्यर्थः । एवम्-सदामण्डलितं मण्डलाकारं सद्विकटोदरं तुच्छोदरं त्यक्तशरत्वात् । यद्वा-सदा मण्डलितोदरं सदा विकटोदरं चेत्यर्थः। तथा च प्रेक्षकेषु येन धनुषा यावस्था प्रतिपन्ना तदृष्टिस्तामेवाग्रहीदिति हस्तलाघवमुक्तम् ।।६८।। विमला-(प्रत्येक प्रेक्षक की दृष्टि ने एक साथ राम के धनुष की विभिन्न अवस्था को देखा, क्योंकि ) उन' (राम) का धनुष सदा बाण से युक्त रहता, उससे सदा बाण निकलते रहते, उसकी डोरी सदा नेत्र के कोने तक पहुंची रहती, उससे सदा बाण छूटते रहते, उसका भीतरी भाग सदा मण्डलाकार रहता और सदा लघु रहता ।।६८॥ अथोभयसाधारणं कौशलमाहवामो पसारिमच्चिअ दाहिणहत्थो अवङ्गदेसणिवडियो। चावेसु अ तह णिमिआ ताणं दीसन्ति अन्तरालेसु सरा ॥६६॥ [ वामः प्रसारित एव दक्षिणहस्तोऽपाङ्गदेशनिपतितः । चापयोश्च तथा नियोजितास्तयोदृश्यतेऽन्तरालेषु शराः॥] तयो रामरावणयोरुभयोरपि वामो हस्तः प्रसारित एव दण्डाकार एव दृश्यते, उत्थापितधनुष्ट्वात् । दक्षिणस्तु अपाङ्ग देशे निपतित एव, कृष्टधनुष्ट्वात् । तथा चापयोश्च नियोजिता: संधिताः सन्त: शरा अन्तरालेषु लक्ष्यलक्षकयोस्तयोरेव Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४] सेतुबन्धम् [पञ्चदश मध्येषु दृश्यन्ते, धारावाहित्वात् । तथा च कदा गृहीताः कदा त्यक्ता इति न ज्ञायत इति भावः ॥६६॥ विमला-राम और रावण दोनों के बायें हाथ ( दण्डाकार ) फैले हुये, दाहिने हाथ दायें नेत्र के कोने के पास स्थित तथा धनुष पर नियोजित बाण दोनों के मध्यदेश में दिखायी देते थे ॥६६॥ अथ रामस्य रावणशराभिघातमाह दहमुहविसज्जिएण अ सरेण सीमाविमोप्रसइसंतत्तम् । हिअ अमुक्कधीरं णिहाअभिण्णं पि राहवेण ण णाअम् ।।७०॥ [ दशमुखविसृष्टेन च शरेण सीतावियोगसदासंतप्तम् ।। हृदयममुक्तधेयं निघातभिन्नमपि राघवेण न ज्ञातम् ।।] दशमुखत्यक्तेन च शरेण निघातः संघट्टविशेषस्तेन भिन्नमपि ताडितमपि हृदयं राघवेण न ज्ञातम् । सीतावियोगेन संतप्तं यतः । संतापेनव बधिरीकृतत्वादिति भावः । न हि प्रौढविषमूच्छितमपि जनं विषान्तरं मूच्छंयतीत्याशयः । अत एव ममुक्तधैर्यम् । धैर्यविशिष्टमित्यर्थः ।।७०॥ विमला-रावण के छोड़े गये बाण के प्रहार-विशेष से ताड़ित होने पर भी सीता के वियोग से सदा सन्तप्त होने के कारण हृदय के ताड़ित होने की पीडा का अनुभव राम को नहीं हुआ, अतएव उनके हृदय ने धैर्य नहीं छोड़ा ॥७॥ अथ रावणस्य रामशराभिघातमाहरहुणाहपेसिएण अ सरेण समुहागमस्स रक्खसवइणो। भिण्णो पिडालवट्टो ण अ से फुडभिउडिविरअणा विद्दविआ॥७१॥ [ रघुनाथप्रेषितेन च शरेण संमुखागतस्य राक्षसपतेः। भिन्नं ललाटपृष्ठं न चास्य स्फुटभ्रुकुटिविरचना विद्राविता ॥] ............."रावणस्य ललाटपृष्ठं भिन्नं दारितम् । न चास्य ललाटपृष्ठस्य पूर्वकाल एव क्रोधादुत्पन्ना स्फुटा भृकुटिविरचना विद्राविता त्याजिता। ललाटभेदेऽपि भ्रुकु टिसत्त्वेन वीररसोत्कर्षः ॥७१॥ विमला-रघुनाथ के छोड़े गये बाण से, सम्मुख आये हुये रावण का मलाट विद्ध हो गया, किन्तु (क्रोध से उत्पन्न ) भ्रूभङ्गिमा ज्यों की त्यों ही बनी रही ॥७१। १. अत्र टीकाग्रन्थः कियांस्त्रुटितः प्रतिभाति । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६६५ अथ रावणस्य मू माह तो से मुच्छाविहलो लोहिअगीसन्दभरिअलोअणणिवहो । वारंवारपअट्टो भमिओ बाहुसिहरेसु मुहसंघाओ ॥७२॥ [ ततोऽस्य मूर्छाविह्वलो लोहितनिःस्यन्दभृतलोचननिवहः । वारंवारप्रवृत्तो भ्रमितो बाहुशिखरेषु मुखसंघातः ॥] ततः शराभिघातानन्तरमस्य रावणस्य मुखसंघातो बाहूनां शिखरेषु स्कन्धेषु वारंवारं प्रवृत्त उत्थायोत्थाय निपतितः सन् भ्रमितो धूणितः। तथा च-प्रहारदाढयं मुक्तम् । किंभूतः । मुर्छया विह्वलोऽसंवतः । एवम्-लोहितस्य निःस्यन्देन व्याप्तलोचनसमूहः । तेषामधोवर्तितत्वादिति भावः ॥७२।। विमला-राम के बाणों के अभिघात से रावण का सिर-समूह मूर्छा से विह्वल हो गया, उसके नेत्र रुधिरप्रवाह से भर गये एवं वह (सिरसमूह ) उसके कन्धों पर बार-बार गिरता-उठता चञ्चल होने लगा ।।७२।। पुनरपि रावणशरत्यागमाह तो गअमोहुम्मिल्लो णअणहुआसणपइत्तपत्तणपम्हम् । मुअइ सरोसाअड्ढि अबिइअमुहावङ्गमिलिअपुङ्ख बाणम् ॥७३॥ [ ततो गतमोहोन्मीलो नयनहुताशनप्रदीप्तपत्रणापक्ष्माणम् । मुञ्चति सरोषाकृष्टद्वितीयमुखापाङ्गमिलितपुङ्ख बाणम् ।।] ततो मूर्छानन्तरं गतमोहत्वादुन्मीला नयनोन्मीलनं यस्य स उन्मीलित. नयनो रावणो बाणं मुञ्चति । किंभूतम् । रक्षःस्वाभाव्यादमर्षोद्भूतेन नयनहुताशनेन प्रदीप्तानि किचिज्ज्वलितानि पत्रणा पुङ्खस्तस्य पक्ष्माण्यग्राणि यत्र तम् । एवम्-सरोषाकृष्टत्वात् द्वितीयमुखस्य पुरोवति मुखपृष्ठवति मुखस्यापाने मिलितः पुङ्खो यस्येत्याकर्षणोत्कर्षेण क्रोधोत्कर्षः सूचितः ॥७३।। विमला-तदनन्तर मूर्छा के जाने पर रावण के नेत्र खुले और उसने जो बाण छोड़ा, सरोष खींचे जाने से उसका पुच्छ भाग दूसरे मुख के नेत्र के कोने पर पहुँच गया, अतएव पुच्छ का अग्रभाग नेत्राग्नि से कुछ जल गया ॥७३॥ पुनरपि रामशरत्यागमाह तो सो ख आणलणिहो किरणसहस्सेहि णिन्भरेन्तवसदिसो। रहुवइसरराहुमुहे पन्थद्धे सूरमण्डलो व णि उड्डो॥७४॥ [ ततः स क्षयानलनिभः किरणसहस्र निध्रियमाणदशदिक् । रघुपतिशरराहुमुखे पथ्यर्धे सूरमण्डलमिव निमग्नः ॥] Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश ततस्त्यागानन्तरं स रावणबाणः अर्धे पथि रघुपतिक्षिप्तः शर एव राहुस्तन्मुखे सूर्य मण्डल मिव निमग्नः । राहुणा भानुरिव रामशरेण कवलीकृत इत्यर्थः । सूर्यसाम्यमाह-कीदृक् । क्षयानलतुल्यः । आग्नेयत्वात् । एवम्-किरणसहस्र निध्रियमाणाः पूर्यमाणा दशदिशो येन स तथा। रविरप्येवमेवेत्यर्थ: ।।४।। _ विमला-तदनन्तर रावण का वह बाण प्रलयानलसदृश एवं सहस्र किरणों से दसो दिशाओं को व्याप्त करने वाले सूर्यमण्डल के समान आधे मार्ग में राम के शररूप राहु के मुख में पड़ गया और अदृश्य हो गया ।।७४।। अथ रामस्य चरमबाणसंधानमाहरहुणाहो वि सधीरं उक्करिसेण अग्गहत्थेऊण सरम् । पासण्ण लाइनव्वं पेच्छइ पेच्छइ फुल्लकमलाअरं व्व दहमुहम् ।।७।। [ रघुनाथोऽपि सधैर्यमुत्कृष्याग्रहस्तेन शरम् । आसन्न लवितव्यं प्रेक्षते फुल्लकमलाकरमिव दशमुखम् ॥] .. रघुनाथोऽपि सधैर्य यथा स्यादेवं हस्ताग्रेण शरमुत्कृष्य तूणादाकृष्य आसन्ने निकटे एव लवितव्यं छेदनीयं फुल्लकमलानामाकरं शर इव दशमुखं प्रेक्षते । अत्र नानाकमलतुल्यनानामुखसत्त्वादाकरत्वेन रावणस्योत्प्रेक्षा। मालिकोऽप्याकरे फुल्लपुष्पाणि प्रथमं पश्यति पश्चादवचिनोति इति तन्मुखानां पश्चाच्छेदनीयत्वं गम्यते ॥७॥ विमला-राम ने भी धैर्यपूर्वक हाथ के अग्रभाग द्वारा तरकस से बाण खींच कर विकसित कमलसमूह-से दसो मुंह को इसलिये पहिले देखा, क्योंकि देखने के बाद तुरन्त ही उसे छिन्न भिन्न करना था ।।७५।। अथ शरसंधानमाह रामो संधेइ सरं विभीसणन्तेण बलइ रक्खसलच्छी। दहमुहविणासपिसुणं फुरइ अ सीताइ तक्खणं वामच्छम् ।।७६।। [ रामः संदधाति शरं विभीषणान्तेन वलति राक्षसलक्ष्मीः । दशमुखविनाशपिशुनं स्फुरति च सीतायास्तत्क्षणं वामाक्षि ॥] रामः शरं धनुषि संदधाति । तथा सति रावणवधनिर्णयाद्राक्षसानां लक्ष्मी रामपक्षीयत्वेन' भयाभावापचितत्वाच्च विभीषणस्यान्तेन पार्श्वन वलति वक्रीभवति । तमाश्रयितुमुपक्रमत इत्यर्थः । अन्योऽपि भीतो भयहेतुपक्षीयमाश्रयत इति ध्वनिः । च पुनस्तत्क्षणमेव दशमुख विनाशसूचकं सत् सीताया वामाक्षि स्फुरति वेपते । स्त्रीणां वामाक्षिस्पन्दोऽभीष्टसूचक इति भावः ॥७६।। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६६७ विमला-राम ने ज्यों ही शर-सन्धान किया, तत्काल ही राजलक्ष्मी ( भयभीत होकर ) विभीषण के आश्रित होने का उपक्रम करने लगी एवं रावणविनाशसूचक सीता का वाम नेत्र फड़कने लगा ॥७६॥ अथ रावणरयापशकुनमाहवामं णिसिमरणअणं रहुवइणो दाहिणं च फन्दइ णप्रणम् । बन्धुवहरज्जपिसुणं पप्फुरइ विहीसणस्स लोअणजअलम् ॥७७॥ [वामं निशिचरनयनं रघुपतेर्दक्षिणं च स्पन्दते नयनम् । बन्धुवधराज्यपिशुनं प्रस्फुरति विभीषणस्य लोचनयुगलम् ॥] .. निशिचरस्यास्य रावणस्य वामं नयनं स्पन्दते । मरणसूचकत्वात् । रघुपतेश्च दक्षिणं नयनं स्पन्दते। अभीष्टभार्यालाभकथकत्वात् । विभीषणस्य लोचनयुगलं प्रस्फुरति वेपते । रावणरूपबन्धुवधानिष्टसूचकत्वेन वामम्, निजराज्यलाभरूपाभीष्टसूचकत्वेन दक्षिणमित्यर्थः ॥७७॥ विमला-रावण का ( मरण सूचक ) वामनेत्र और राम का ( भार्यालाभसूचक ) दाहिना नेत्र फड़क उठा एवं विभीषण के बन्धुवध और राज्य-प्राप्ति के सूचक बायां और दायाँ-दोनों नेत्र फड़क उठे ।।७७॥ अथ रामस्य धनुराकर्षणमाहवच्छभरन्तुच्छङ्ग संधिअवाणे घणुम्मि कड्ढिज्जन्ते। रामसरपत्तणेहि व उप्पुसिआ सुरवहूण बाहत्थबआ ॥७॥ [ वक्षोभ्रियमाणोत्सङ्गे संहितबाणे धनुषि कृष्यमाणे । रामशरपत्रणैरिव उत्प्रोञ्छिताः सुरवधूनां बाष्पस्तबकाः ॥] वक्षसा हृदयेन भ्रियमाणः पूर्यमाण उत्सङ्गो यस्य । इत्याकर्णकृष्टत्वं चापस्य, हृदयस्योत्साहोत्फुल्लत्वं च । हृदयं परिपूर्य प्रहारः कृत इति लोकप्रसिद्धिरप्युक्ता । तादृशे संहितबाणे धनुषि कृष्यमाणे सति । रामेणेत्यर्थात् । सुरवधूनां बाष्पस्तबका रामशरस्य पत्रणं पुङ्खवर्तिपक्षास्तैरिव उत्प्रोञ्छिता मार्जिताः। रामशराकर्षणसमकालमेव सुरबन्दीनामानन्दाश्रुप्रमार्जनं जातमित्यस्य संहितरामशरपक्षप्रोञ्छनहेतुकत्वमुत्प्रेक्षितम् । अन्यत्रापि अश्रु वस्त्रादिश्लक्ष्णद्रव्येण प्रोञ्छयत इति ध्वनिः ॥७॥ विमला-राम ने बाण चढ़ाकर धनुष को इतना खींचा कि वक्ष से अङ्क पूरित हो गया। उस समय सुरवधुओं के आँसू को मानों राम के बाण के पुच्छभाग में लगे हुये पंखों ने पोंछ दिया ॥७॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८] सेतुबन्धम् [पञ्चदश अथ रावणस्य शिरश्छेदमाह णवरि अ सो रहुवइणा वारं वारेण चन्दहासच्छिण्णो । एक्केण सरेण लुओ एक्कमहो दहमुहस्स महसंघाप्रो ।।७६॥ [अनन्तरं च स रघुपतिना वारं वारं चन्द्रहासच्छिन्नः । एकेन शरेण लून एकमुखो दशमुखस्य मुखसंघातः ॥] धनुराकर्षणानन्तरं च रघुपतिना दशमुखस्य मुखसमूह एकेन शरेण एक मुखमुपक्रमो यस्य स एकोपक्रमः सन् लूनः । एकदैव च्छिन्न इत्यर्थः । कीदृक् । वारं वारं शिवाराधनसमये चन्द्रहासेन रावणखड्गेन छिन्नोऽपि । तथा च य एव क्रमिकच्छेदेन पुनः पुनरुत्तिष्ठति स एव रामशरेण एकदा खण्डित इति पुनरनुस्थानं व्यज्यते । रामेणव पूर्व भूयो भूयश्चन्द्रहासेन क्रमशश्छिन्नत्वादुत्थित इति तदानीमेकदैव शरेण छिन्नत्वानोत्थित इति केचित् ॥७॥ विमला-धनुष खींचने के बाद राम ने एक ही बाण से रावण के दसो शिरों को एक साथ इसलिये काटा । क्योंकि ( शिवाराधन के समय ) चन्द्रहास ( रावण के खड्ग ) से बार-बार (कम से ) काटे जाने पर वे पुनः उठ खड़े हुये थे ।।७।। अथ रावणपतनमाह अविहत्तकण्ठगाओ छिन्नो वि दसाणणस्स होइ भअप्ररो। धरणिअलुत्तिण्णस्स व णिमअच्छेअपडिउठ्ठिनो मुहणिवहो ।।८०॥ [ अविभक्तकण्ठगुरुकश्छिन्नोऽपि दशाननस्य भवति भयङ्करः। धरणीतलोत्तीर्णस्येव निजकच्छेदप्रत्युत्थितो मुखनिवहः ॥] धरणितल उत्तीर्णस्य भूमिपतितस्य दशाननस्य छिन्नोऽपि । मुखनिवहो भवकरो भवति। कीदृक् । अविभक्तकण्ठः सन् गुरुकः । कण्ठविभागाभावेनादरस्थानं जीवितत्वभ्रमादित्यर्थः। उत्प्रेक्षते-निजकच्छेदेभ्यः प्रत्युत्थित इव पूर्ववत्पुनरुत्पन्न इव । अतोऽप्यभिनवोत्पत्तिभ्रमेण सर्वेषामाशङ्काविषय इति भावः । छेदेऽपि कबन्धलग्नस्यैव भूमौ पतनमिति प्रहारलाघवमुक्तम् ॥८०॥ विमला-रावण का भूमिपतित सिरसमूह कटा हुआ होने पर भी कण्ठ से सम्बद्ध होने के कारण (जीवित होने के भ्रम से ) आदरणीय एवं भयंकर लग रहा था, मानों अपने काटे गये स्थान पर वह पूर्ववत् पुनः उत्पन्न हो गया था ।1८०॥ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६६६ अथ रावणजीवनिष्क्रमणमाहतस्स हअस्स रणमहे रक्लसणाहस्स अहिमुहं अप्पाणो। दसहि वि मुहेहि सम सिहाकरालो व्व हुअवहो णिक्कन्तो ।।८१॥ [ तस्य हतस्य रणमुखे राक्षसनाथस्याभिमुखमात्मा। दशभिरपि मुखैः समं शिखाकराल इव हुतवहो निष्क्रान्तः ॥] रणमुखे हतस्य च तस्य राक्षसनाथस्यात्मा दशभिरपि मुखैः सममेकदैव अभिमुखं संमुखं निष्क्रान्तः । शरीराबहिर्भूत इत्यर्थः । शिखाभिः करालः सच्छिद्रो दन्तुरो वा हुतवह इव । तेजोमयत्वाद्दशधा विभक्तस्य जीवस्य बहुशिखवह्नित्वे. नोत्प्रेक्षा ॥१॥ विमला-युद्ध में हत राक्षसनाथ (रावण ) की ( तेजोमय ) आत्मा दसमुखरूप दस मार्गों से दस भागों में विभक्त होकर (बहुत शिखा ) लपटों से कराल अग्नि-सी शरीर से बाहर हुई ॥१॥ अथ रामस्य युद्धोपसंहारमाह अह णिहम्मि वहमहे ऊससिम्मि अ समन्तओ तेल्लोके । वअणम्मि अ उप्पुसिमा भिउडी ओआरिवं अ रामेण षणम् ॥२॥ [अथ निहते दशमुखे उच्छ्वसिते च समन्ततस्त्रलोक्ये । वदने चोत्प्रोञ्छिताभ्र कुटिरवतारितं च रामेण धनुः॥] अथ जीवोत्क्रमणानन्तरं दशमुखे निहते मृते त्रैलोक्ये च समन्ततः सर्वत उच्छ्वसिते सजीवे ऊर्ध्वश्वासविशिष्टे वा यन्त्रणाभावादुत्थिते आनन्दादुत्फुल्लो वा रामेण वदने भ्रुकुटिरुत्प्रोञ्छिता निवर्तिता, धनुश्च अवतारितम्, संहितज्यं कृतमित्यर्थः । कृतकार्यत्वादिति भावः ।।२।। विमला-तदनन्तर रावण के मरने पर जब समस्त त्रैलोक्य आनन्द से उत्फुल्ल हो गया तब राम ने धनुष उतार दिया और मुख पर भ्रूभङ्गिमा समाप्त कर दी ।।८२॥ अथ रावणशोभामाहणिद्दअबन्धुप्पित्था जाणन्ती विक्कम णिसाअरवइणो। मान त्ति परिगणेन्ती ण मुअइ णिग्रहं पि रावणं राअसिरी ॥३॥ [ निर्दयबन्धद्विग्ना जानती विक्रमं निशाचरपतेः। मायेति परिगणयन्ती न मुञ्चति निहतमपि रावणं राजश्रीः॥] निशाचरपतेविक्रमं जानती सती तन्मरणं माया इति परिगणयन्ती विचारयन्ती राजलक्ष्मीनिहतमपि रावणं न मुञ्चति । मृतोऽपि. रावणो राजशोभया न Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश त्यक्त इति भावः। तत्र तत्पराक्रमाध्यवसायेन मायाबुद्धिहेतुकत्वमुत्प्रेक्षितम् । राजश्रीः किंभूता। उपेक्ष्य गतत्वेन दयाशून्यो बन्धुर्द शमुखो यस्य सा निर्दयबन्धुः । अत एवोद्विग्ना व्याकुलचित्तापि । “णिग्गअबन्धुप्पित्थेति' सम्यक्पाठः । निर्गतबन्धुस्वादुद्विग्नेत्यर्थः ॥३॥ विमला-(उपेक्षा कर चले गये) निर्दय रावण से उद्विग्म होने पर भी राजलक्ष्मी ने मरे हुये भी रावण को, उसके मरण को मायामात्र समझ कर नहीं छोड़ा ।।८३॥ अथ विभीषणरोदनमाहताहे विभीसणस्स वि अन्तोहिअम्मि बन्धुणेहुप्पण्णो। दासरहिणो वि पुरनो मुक्को च्चिअ लोअणेहि बाहत्थवओ ।।४।। [ तदा विभीषणस्याप्यन्तर्ह दये बन्धुस्नेहोत्पन्नः। दाशरथेरपि पुरतो मुक्त एव लोचनाभ्यां बाष्पस्तबकः ।।] तदा दाशरथेरपि पुरतो विभीषणस्यापि लोचनाभ्यां बाष्पस्तबको मुक्त एव । यद्यपि मोक्तुं न युज्यते तथापीत्येवकारार्थः । तत्र हेतुमाह-कीदृक् । अन्तर्ह दये हृदयाभ्यन्तरे रावणरूपबन्धुस्नेहादुत्पन्नस्तथा च बाहुल्याद्धतु न पारित इति भावः ।।४।। विमला-उस समय विभीषण के भी हृदय के भीतर बन्धु ( रावण ) के प्रति स्नेह उत्पन्न हो गया और राम के सामने भी नेत्रों से आँसू (रोकने पर भी) गिर ही पड़े ॥४॥ अथ विभीषणप्रलापमाह-- णिहमम्मि अ वहवप्रणे विहीसणो णिन्दिआमरत्तण सहो । परिदेविउ' पउत्तो मरणसमन्भहिअदुक्खदिण्णासासो ॥८॥ [ निहते च दशवदने विभीषणो निन्दितामरत्वशब्दः । परिदेवितुं प्रवृत्तो मरणसमभ्यधिकदुःखदत्तायासः ।।] विभीषणः परिदेवितुं परिदेवनं कर्तुं प्रवृत्तश्च । कीदृक् । दशवदने निहते सति निन्दितोऽमरत्वशब्दो येन स तथा। अमरजेतुरपि रावणस्य चेन्मरणं तदामरत्वेनापि किम् । अमरत्वं कुत्र वेत्याशयः । एवं निजमरणात्समभ्यधिकेन दुःखादपि महता रावणमरणदुःखेन दत्त आयासः क्लेशो यस्मै स तथा ॥८॥ विमला-रावण के मरने पर विभीषण को अपने मरण से भी अधिक दुःख ने क्लेश दिया और उस ( विभीषण ) ने अमरत्व शब्द की निन्दा की-अमर Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् ६७१ विजेता भी यदि मर सकता है तो अमरत्व का मूल्य ही क्या रह गया? तदनन्तर बह विलाप करने लगा ॥८॥ त्रिभिः प्रलापवचनमाह जो च्चिन जे उण जम दिट्ठो इच्छासुहं तुमे जमलोसो। दीसिहिसि कह ण पत्थिव इहि तं चेअ सेसजणसामण्णम् ॥८६॥ [ य एव जित्वा यमं दृष्ट इच्छासुखं त्वया यमलोकः । द्रक्ष्यसि कथं नु पार्थिव इदानीं तमेव शेषजनसामान्यम् ॥] हे पार्थिव रावण ! यमं जित्वा य एव यमलोकस्त्वया इच्छासुखं स्वेच्छया दृष्ट: । परिभ्रम्येत्यर्थः । इदानीं मृत्यो सति तमेव यमलोकं शेषजनैः प्राकृतजन: सामान्यं साधारण्यं यथा स्यात्तया कथं नु द्रक्ष्यसि । यमशासनीयस्वेनेत्यर्थः ॥८६॥ विमला-हे भूप ( रावण )! यम को जीत कर तुमने जिस यमलोक को स्वेच्छा से (घूम-घूम कर ) देखा था, सम्प्रति उसी को ( यम से शासित ) माधारणजन के समान कैसे देखोगे ? ॥८६।। एक्केण रक्खसाहिव पुव्वं प्रवहीरिओवएसेण वि ते । समणिहणेण रणमुहे पडिमक्कं णवर कुम्भ अण्णेण तुहम् ॥१७॥ [ एकेन राक्षसाधिप पूर्वमवधीरितोपदेशेनापि ते । समनिधनेन रणमुखे प्रतिमुक्तं केवलं कुम्भकर्णेन तव ।।] हे राक्षसाधिप ! एकेन केवलं कुम्भकर्णेन तव प्रतिमुक्तं भरणपोषणाद्युपकारस्य प्रतिमोचनं कृतम् । प्रत्युपकारित्वादित्यर्थः । भ्रातृत्वाविशेषेऽपि न मयेति भावः । किंभूतेन । ते तव अवधीरित उपदेशो येन । पूर्व प्रतिक्षिप्तभवदाज्ञेनापि स्वतन्त्र. स्वात् । प्रतिमोचने हेतुमाह-पुनः किंभूतेन । रणमुखे भवन्मरणेन समं निधनं यस्य तेन । संप्रति भवता सह भवदथं त्यक्तजीवितेनेत्यर्थः ।।८७॥ विमला-राक्षसाधिप ! यद्यपि कुम्भकर्ण ने पहिले तुम्हारी आज्ञा की अवहेलना अवश्य की थी तथापि सम्प्रति तुम्हारे साथ तुम्हारे ही लिये जीवन देकर केवल कुम्भकर्ण ने ( दुःख है कि मैंने नहीं ) तुम्हारे-जैसे भाई के किये गये उपकारों का बदला चुकाया ।।८७॥ पत्थिव तुमं मुअन्तो समसुहदुक्खेहि बान्धवेहि अमुक्कम् । जइ हं धम्मपहाणो धम्मपहागाण को गणिज्जउ पुरओ ।।८।। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२] सेतुबन्धम् [पञ्चदश [ पार्थिव त्वां मुञ्चन्समसुखदुःखैर्बान्धवैरमुक्तम् । यद्यहं धर्मप्रधानोऽधर्मप्रधानानां को गण्यतां पुरतः ॥] हे पार्थिव ! समानसुखदुःखैबर्बान्धवैः कुम्भकर्णादिभिरमुक्तं त्वां मुञ्चन् त्वया समं परलोकमगच्छन्नहं यदि धर्मप्रधानो धार्मिकः, तदाधर्मप्रधानानां मध्ये कः पुरतः प्रथमं गण्यताम् । न कोऽपीत्यर्थः । तथा चाहमेवादधर्मिकाणां प्रथमगण्य इति भावः ।।८।। विमला-पार्थिव ! सुख-दुःख के साथी ( कुम्भकर्णादि ) बान्धवों ने तुम्हें नहीं छोड़ा-वे भी तुम्हारे ही साथ परलोक गये । एक मैंने ही तुम्हें छोड़ासाथ परलोक नहीं गया। इस पर भी यदि मैं धर्मप्रधान कहा जाऊँ तो अधर्मप्रधानों में सर्वप्रथम किसकी गणना होगी ? ॥८॥ अथ द्वाभ्यां रामं प्रति तद्वचनमाह आहासइ अ रहुवई मरणसमोग्भहियरुद्धबाहुप्पीडगे। बन्धुवहागअदुक्खो गिम्हुम्हासुखणइमुहो व्व महिहरो॥८६॥ [ आभाषते च रघुपति मरणसमभ्यधिकरुद्धबाष्पोत्पीडः । बन्धुवधागतदुःखो ग्रीष्मोष्मशुष्कनदीमुख इव महीधरः ।।] रघुपतिमाभाषते च। किंभूतः । मरणादपि समभ्यधिकं यथा स्यादेवं रुद्धो बाष्पोत्पीडो येन यस्य वा स तथा । वचनसौष्ठवाय कृतं संतापजनितमुखशोषेण वा जातमश्रुनिरोधं मरणादप्यधिकं मन्यमान इत्यर्थः । एवम्-बन्धूनां रावणादीनां वधेनागतदुःखः । क इव । ग्रीष्मोष्मणा शुष्क नदीमुखं यस्य तादृशो महीधर इव । तथा च प्रथमपक्षे नदीमुख शोषबाष्पनिरोधयोमहीधर विभीषणयोः, द्वितीयपक्षे त्वधिकात् ग्रीष्मोष्मसंतापयोस्तौल्यादुपमा ॥८६॥ विमला-विभीषण को रावण के मारे जाने का ऐसा सन्ताप हुआ कि उससे उस ( विभीषण ) के आंसू निरुद्ध हो गये, जिसे उसने अपने मरण से भी अधिक समझा । इस प्रकार ग्रीष्म के सन्ताप से सूखे हुये नदीमुख वाले पर्वत के समान उ स ( विभीषण ) ने राम से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ॥८६॥ पहु वीसज्जेहि महं ता दहमुहकुम्भअण्णचलणणिवडियो। पच्छा परलोअगअं छिवामि सीसम्मि मेहणाअं अ सुनम् ।।६०॥ [ प्रभो विसृज मां तावद्दशमुखकुम्भकर्णचरणनिपतितः । पश्चात्परलोकगतं स्पृशामि शीर्षे मेघनादं च सुतम् ॥] Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ६७३ हे प्रभो राम ! मां विसृज आज्ञापय । तावत्तदा प्रथमं दशमुखकुम्भकर्णयोश्चरणेषु निपतितः सन् पश्चात्परलोकगतं मृतं मेघनादं च शीर्षे स्पृशामि । परामशामीत्यर्थः । तावद्विसृज यावदेतावत्करोमीति वा ॥१०॥ विमला-प्रभो ! मुझे अनुज्ञा दें कि मैं प्रथम रावण और कुम्भकर्ण के चरणों को शिरसा प्रणाम करू', तत्पश्चात् मृत मेघनाद के सिर को अपने हाथ से स्पर्श करूं ॥६॥ अथ रावणादिसंस्कारमाहमहिअलपडिनविसंतुलहीसणविलावजाप्राणुअम्पेण । रामेण वि पवणसुओ आणत्तो रक्खसाहिवइसक्कारे ॥११॥ [ महीतलपतितविसंष्ठुलविभीषणविलापजातानुकम्पेन । रामेणापि पवनसुत आज्ञप्तो राक्षसाधिपतिसंस्कारे ॥] महीतले पतितस्य विसंष्ठुलस्य विपर्यस्तकरचरणादेविभीषणस्य विलापाज्जातानुकम्पेन रामेणापि राक्षसाधिपतेः संस्कारे दाहादौ पवनसुतो हनूमान् आज्ञप्तो नियुक्त इत्यर्थः ॥६॥ विमला-भूतल पर पड़े विह्वल विभीषण के विलाप से अनुकम्पा उत्पन्न होने के कारण राम ने भी रावण के दाहादि संस्कार के लिए हनुमान को नियुक्त किया ॥६॥ अथ सुग्रीवसाहाय्योपसंहारमाहणिहमम्मि अवहवअणे आसंघन्तेण जणअतणालम्भम् । सुग्गीवेण वि दिठो पञ्चुबअरस्स सासरस्स व अन्तो॥२॥ [निहते च दशवदनेऽध्यवस्यता जनकतनयालम्भम् । सुग्रीवेणापि दृष्टः प्रत्युपकारस्य सागरस्येवान्तः ॥] च पुनर्दशवदने निहते सति जनकतनयायाः सीताया लम्भं प्राप्तिमध्यवस्यता स्थिरीकुर्वता सुग्रीवेणापि सागरस्येव प्रत्युपकारस्य अन्तो दृष्टः। यथा सागरस्य पारो दृष्टस्तथा सीतोद्धाररूपप्रत्युपकारस्य निर्वाहरूपः पर्यन्तो दृष्ट इति सहोपमा । दुस्तरत्वेन सागरतुल्यस्य प्रत्युपकारस्य पारो दृष्ट इति साधोपमा वा ॥१२॥ विमला-दशमुख के मारे जाने पर सीता के उद्धार का निश्चय करते हुये सुग्रीव ने जैसे ( दुस्तर ) सागर का पार देखा था वैसे ही (सीतोद्धाररूप) प्रत्युपकार का अन्त ( निर्वाह ) देखा ॥१२॥ ४३ से० ब० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश अथ सरथमातलिविसर्जनमाह काऊण अ सुरकज्ज रहुवइवीसज्जिएण कहअणपुरओ। जलहरगुप्पन्तधओ सग्गाहिमुहो रहे कओ माअडिणा ॥३॥ [कृत्वा च सुरकार्य रघुपतिविसृष्टेन कपिजनपुरतः । जलधरव्याकुलायमानध्वजः स्वर्गाभिमुखो रथः कृतो मातलिना ॥] सुराणां रावणवधरूपं कार्य कृत्वा कपिजनानां पुरतो रघुपतिविसृष्टेनाशप्तेन मातलिना च रथः स्वर्गाभिमुखः कृतः। ऊध्वं प्रेरित इत्यर्थः । किंमतः । जलधरेषु व्याकुलायमानो ध्वजो यस्य स तथा । ऊर्ध्वतो यन्त्रणात्तिर्यग्भावा. दिति भावः ॥१३॥ विमला-(रावणवधरूप ) देवताओं का कार्य कर राम ने मातलि को ( इन्द्र के पास जाने की) आज्ञा दी और कपिजन के सामने राम की आज्ञा पाकर मातलि ने रथ को स्वर्ग की ओर ऊपर को प्रेरित किया, जिस ( रथ ) का ध्वज ( ऊपर से अवरोध उत्पन्न करने वाले ) बादलों में व्याकुल-सा हो रहा था ।।६३॥ अथ रामस्यायोध्यासमागमेनाश्वासकमुपसंहरति घेत्तूग जणअतण कञ्चणठि व णअवहम्मि विसुद्धम् । पत्तो पुरि रहुवई काउं भरहस्स सप्फलं अणुराअम् ।।६४॥ [ गृहीत्वा जनकतनयां काञ्चनयष्टिमिव हुतवहे विशुद्धाम् । प्राप्तः पुरी रघुपतिः कर्तुं भरतस्य सफलमनुरागम् ॥] रघुपतिः पुरीमयोध्यां प्राप्तः । किं कृत्वा । जनकतनयां गृहीत्वा । सीतया सहे. त्यर्थः । किंभूताम् । काञ्चनयष्टिमिब हुतवहे वह्नौ विशुद्धामुत्तीर्णाम् । यथा वह्नौ प्रवेशिता काञ्चनयष्टिरधिकरोचिष्मती भवति, तथा रक्षोगृहनिवासजन्यपरीवादमार्जनाय वह्नौ परिक्षिप्ता सीताप्यधिक रोचिष्मती वृत्तेति निर्दोषत्वमुक्तम् । किमर्थम् । भरतस्य भक्तिरूपमनुरागं सफलं कर्तुम् । रामसिंहासनानवरोहणादिरूपायास्तद्भक्ते रामसमागम एव फल मित्याशयः । यद्वा-भरतस्य कृते स्वीयं स्नेहरूपमनुरागं सफलं कर्तुमित्यर्थः । समाप्ती सफलत्वोत्कीर्तनेन शुभसूचनरूपं मङ्गलमप्युक्तम् ॥६४॥ विमला-काञ्चनयष्टि के समान अग्नि में विशुद्ध ( निर्दोष ) सिद्ध हुई सीता को साथ लेकर राम, भरत के ( राम का सिंहासनारोहणरूप ) अनुराग को सफल करने के लिये अयोध्यापुरी पहुँचे ॥१४॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः ] अत्र ग्रन्थसमाप्तिमाह एत्थ समप्पइ एअं सीमालम्भेण जनिअरामन्भुअमम् । रावणवह त्ति कव्वं अणुरामङ्कः समत्यजणणिव्वेसम् ॥६५॥ इअ सिरिपवरसेणविरइए कालिदासकए दहमुहवहे महाकाव्ये पश्व (न्द) रहो आसासओ परिसमत्तो रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ अत्र समाप्यते एतत्सीतालम्भेन जनितरामाभ्युदयम् । रावणबध इति काव्यमनुरागाङ्कं समस्तजननिर्देषम् ॥ ] इति श्रीप्रवरसेनविरचिते कालिदासकृते दशमुखवधे महाकाव्ये पञ्चदश माश्वासः परिसमाप्तः एतद्रावणवध इति नाम काव्यमत्र समाप्यते । कविनेत्यर्थात् । कर्म कर्तरि वा । एतदेव स्कन्धकं तत्समाप्तिस्थानमित्यर्थः । किंभूतम् । सीताया लम्भेन प्राप्त्या जनितो रामस्याभ्युदयो यत्र वर्णितत्वेनेत्यर्थः । पुनः कीदृक् । सीतां प्रति रामानुरागस्य सेतुबन्धरावणवधादिरूपोऽङ्कचिह्न यत्र तद्गतज्ञापकत्वात् । अथ च अनुरागपदरूपोऽङ्कः प्रत्याश्वासकान्तेऽसाधारणं चिह्न यस्येत्यर्थः । एवं समस्तजनस्य द्वेषशून्यं सीताराम संबन्धित्वेनानुरक्तसर्वजन मित्यर्थः ||१५|| सीतासं प्राप्तिदशया रामदासप्रकाशिता । रामसेतुप्रदीपस्य पूर्णा पञ्चदशी शिखा ॥ सेतुग्रन्थसमुद्रादर्था मणयो भयाकृष्टाः । उपदेश सहकृतेन्द्रियपटुभिः प्राज्ञः परीक्ष्यन्ताम् ॥ चतुर्भूत रिशीतांशु ( १६५२ ) भिरभिगणिते साहसाङ्कस्य वर्षे वर्षे जल्लादीन्द्र क्षितिमुकुटमणेरप्यनन्तागमा (४०) भ्याम् । पञ्चम्यां शुक्लपक्षे नभसि गुरुदिने रामदासेन राज्ञा विज्ञेनापूरितोऽयं तिथितुलितशिखो राम सेतुप्रदीपः ॥ सूर्याचन्द्रमसोरुदञ्चति कथा यावत्तथा दीप्यते यावत्कौस्तुभ कान्तिजालजटिला वैकुण्ठवक्षःस्थली । [ ६७५ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् [पञ्चदश गङ्गावीचिभिरञ्चितो हरजटाजूट: समुज्जृम्भते यावत्तावदकब्बरेण जगती राजन्वती वर्तताम् ।। इति श्रीश्रीमनिखिलमहीमहेन्द्रमुकुटमणिमयूखमञ्जरीपिञ्जरीकृत. कमलसकलसार्वभौमशिरोमणिश्रीमदकब्बरजल्लालदीन्द्रकृपाकटाक्षवीक्षितभानुभक्तिपरायणहृदयहर्म्यनिवासित. नारायणमहाराजाधिराजश्रीरामदासविरचितो रामसेतुप्रदीपो नाम ग्रन्थः परिपूर्णः ।। विमला-यह रावणवध नामक काव्य यहाँ समाप्त हुआ। इसमें सीता को प्राप्त करने से राम का जो अभ्युदय प्रकट हुमा उसी का वर्णन है । इसमें सीता के प्रति राम के अनुराग का (सूचक सेतुबन्ध-रावणवधादिरूप ) चिह्न तो है ही, प्रत्येक आश्वास के अन्त में इसका (असाधारण) चिह्न यह भी है कि 'अनुराग' शब्द प्रयुक्त हुमा है। ( सीता और राम से सम्बन्धित होने के कारण) यह काव्य समस्त जन के द्वेष का नहीं, अनुराग का पात्र है ( अतः पाठकों से आशा की जाती है कि वे भी इसे पढ़ कर सीताराम में तथा इस कान्य में अनुरक्त होंगे )men इस प्रकार श्रीप्रवरसेनविरचित कालिदासकृत दशमुखवध महाकाव्य में पन्द्रहवें आश्वास की 'बिमला' हिन्दी व्याख्या समाप्त हुई। -* * समाप्तश्चायं ग्रन्थः Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका [ सेतुबन्ध महाकाव्य मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध होने के कारण सुगमतया सर्वजनसंवेद्य नहीं है, अतः पाठकों के सुगमतया बोध हेतु प्रकृत श्लोकानुक्रमणिका में मूल श्लोकों का संस्कृत रूपान्तरण भी दे दिया गया है । ] आश्वा • श्लोका० पृष्ठाङ्काः श्लोकांशाः संस्कृतरूपTo अ अंसस्थापित महीधरा अतिकायस्यापि कवचे अट्ठविमहिहरा अइकाअस्स वि कवए अइरवरूढ व्व लआ अइरा अ दच्छिहि अइरा अ दे रहुसुओ reअत्थपडिणिअत्ता अक्कन्डघणुभरोणअ अक्खfusaसोडीरा अग्गखन्धाafsi अङ्कानअरअणिअरं अङ्कागमं सहिज्जइ referred fr अञ्जणराएण सइ अट्टन्त सलिल विहो अट्टन्ति असणाई अट्ठिलपडन्तमहिहर अट्ठअस मुद्दसीहर अहिओ वि पिणं अणखणलद्धसुहे असोइ ण इच्छ अणुअमुणेअव्व roj संधिअari rovi सहिअणपुरओ अण्णा आगमण दिसे अचिरप्ररूदेव लता अचिराच्च द्रक्ष्यसि अचिराच्च ते रघुसुतो अकृतार्थप्रतिनिवृत्ताः आक्रान्तधनुर्भरावनत अखण्डितशौण्डीर्याः अग्रस्कन्धापतितं अङ्कागतरजनीचरं अङ्कागतं सह्य अयमितपक्ष्मणवेणों अञ्जनरागेण सदा शुष्यत्सलिलनिवहः आवर्तन्तेऽहनानि अस्थित पतन्महीधर अस्थित समुद्रशीकर अन्यहृदयोऽपि प्रियाणा अनुनयक्षणलब्ध सुखे अनुशोचितुं नेच्छति अनुभूत ज्ञातव्यान् अन्यत्संधित बाणं अन्यत्सखीजन पुरतो अज्ञातागमनदिशः ६ १२ ३ ११ ११ ३ ५ १३ १२ १२ ११ ११ ε ५ ७ £ ११ १० a axxo w ११ ४ १५ १० ६ ८३ ५६ २६ ६३ १२६ २३ १८ ७३ ६२ ७० २३ ४१ ८२ ७३ ३२ १६ २४ १६ ६६ ११७ २४ ६७ ७५ ३० २३६ ५३० ६३ ४५० ४६५ ८६ १५५ ५८४ ५४६ ५३५ ૪૪૭ ४५६ ३८४ १८३ ५६५ २५३ ३५१ ४४४ ४२६ ४६ १ १२५ ६६२ ४२६ ३५४ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ सेतुबन्धम् आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ४५१ ३ ४१६८ ३ ४४ १०० ३६७ ७ २२ २५४ ७ ६२ । २७८ ४०१ ६ ५२ ३६६ २८० ७ २३ २५५ ३६१ २०४ ११ २६ ४५० श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० अण्णेण समारद्धं अन्येन समारब्धं अण्णेन्ति मङ्गलाई अनुगच्छन्ति मङ्गला अण्णो अण्णस्स मणो अन्यदन्यस्य मनो अत्थणिअम्बपरिणए अस्तनितम्बपरिणते अथमिअसेलमग्गा अस्तमितशैलमार्गा अत्थमिआण महिहराण अस्तमितानां महीधराणां अत्थसिहरम्मि दीसइ अस्तशिखरे दृश्यते अत्था व वहन्तं अस्तायमानमिव अत्थाअन्तवणाल अस्तायमानवनस्थली अत्थानन्ति सरोसा अस्तायन्ते सरोषाः अगिअपणोल्लिअ अदृष्टगजप्रणोदित अद्दिट्ठदिसाणिवहं जाअं अदृष्टदिनिवहं जातं अद्दिटलज्जणिज्जो अदृष्टलज्जनीयो अद्धच्छिण्णरविअरे अर्धच्छिन्नरविकरा अद्धस्थपिमदिणअरो अर्धास्तमितदिनकर अद्धत्थमिअविसण्ठुल अर्धास्तमितविसंष्ठुल अद्भुक्खित्तपसि ढिले अर्घोत्क्षिप्तप्रशिथिला अद्ध ट्ठिअसेउवहं होइ अर्धोरिक्षप्तसेतुपथं अद्धेअद्धप्फुडिआ अर्धार्धस्फुटिता अपरिट्ठिअमूलअलं अपरिस्थितमूलतलं अप्पत्तदिणअराई अप्राप्तदिनकराण्यातप अप्परिफुडणीसासा अपरिस्फुटनिःश्वासा अप्पालिए धनुम्मि आस्फालिते धनुषि अप्फुण्णविदुमवणे आक्रान्तविद्रुमवना अब्भत्थणं ण गेलइ अभ्यर्थनां न गृह्णाति अन्भुट ठणतुरिआणं अभ्युत्थानत्वरितानां अमरिसवित्थक्कन्ता अमर्षवितिष्ठमाना अमिलिअसाअरसलिला अमिलितसागरसलिला अरई थोरूसासा अरतिः स्थूलोच्छवासा अरुणक्कन्तविअलिब अरुणाक्रान्तविगलितं अरुणपडिवोहिआए अरुणप्रतिबोधिताया ८ ५२ ३५९ ३६६ २७४ २१२ ३०६ २२७ १६८ ३७१ ४६५ ५१६ ४४६ ४२७ ३२७ १२ : Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ૬૭ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० - आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ११८ ५०२ १०. ७० ४२६ ११ १०६ ४८६ ११ .. २ ४२४ ४.१ ११ ८८ ४७८ . ७९ ४३२ . ४२७ १५ ५४ १०७ ३१० १२ ८६ १५८० अरुणाअम्बच्छाए भरुणाअम्बअच्छाओ अल छिवइ विलक्खो अलअन्धआरिअमुही अलअपडिलग्गगन्धं अवमाणिअरामकहं अवरदिसावित्थिण्णो अवरिगलिओ विसाओ अवलम्बइ णलघडिए अवलम्बिज्जउ धीरं अवसाइअदिण्णसुहो अवहीरणा ण किज्जइ अवहोआसम्मि महं अवि पूरइ पाआलं अविसज्जिअणिक्कन्ते अविहत्तकण्ठगरुओ अव्वोच्छिण्णपसरिओ अन्वोच्छिण्ण विसज्जि असुरबन्दिसाहारणं असुरोवडणविह्रिअ अह पि विज्जुपडणा अह इन्दइम्मि वालि अह उग्गाहिअचाओ अह कड्ढिउं पउत्तो अह गमिअणिसासम अह गेण्हइ अइभूमि अह जअदुप्परिअल्ले अह जणिअभिउडिभङ्गं अह जम्पइ सुग्गीवं अह जलणिहिम्मि अह णअणेसु पहरिसं अह णल विइण्णणअणो । अरुणाताम्रच्छाये अरुणाताम्रच्छायो अलकं स्पृशति विलक्षः अलकान्धकारितमुखी अलकप्रतिलग्नगन्धं अवमानितरामकथं अपरदिशाविस्तीर्णो अपरिगलितो विषादो अवलम्बते नलघटिता अवलम्ब्यतां धैर्य अप्रसादितदत्तसुखः अवधीरणा न क्रियते उभयावकाशे मम अपि पूर्यते पातालं अविसजितनिष्क्रान्ते अविभक्तकण्ठगुरुक अव्यवच्छिन्नप्रसरितो अव्यवच्छिन्नविसृष्ट असुरबन्दिसाधारण असुरावपतनविघटित अहमपि विद्युत्पतना अथेन्द्रजिति वालि अथोग्राहितचाप अथ क्रष्टुं प्रवृत्तो अथ गमितनिशासमयं अथ गृह्णात्यतिभूमि अथ जगदुष्परिकल अथ जनितभृकुटीभङ्गं अथ जल्पति सुग्ग्रीवं अथ जलनिधावधिक अथ नयनयोः प्रहर्ष अथ नलवितीर्णनयनो १७ . २९ x Remix 2.02 1 m Gw2. ६.४ १५६ १८ १५ ५९१ १९९ १५४ ६१७ १४७ ४५ ८ १३ २९० Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सेतुबन्धम् श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १० १ ३९३ ४ ४९ १३८ १६० १४ ३३२ १४ ६३२ १५ १४ ८ ४१ ८१ १ ८४ २८ ११ ५२ अह णि अअमहिहरेषु अह णिक्कारणगहिरं अह णिग्गअमिलिएहिं अह णिग्गओ जलन्तं अह णिप्फलगअदिअसो अह णिम्मिअसेउवहं अह णिसिअरीहि दहमुह अह णिसिअरेण मुसलं अह णिहअम्मि पहत्थे अह णीलस्स पहत्थो अह णेण सुहप्फरिसे अह ते विक्कमणिहसं अह तेहि तीअ पुरओ अथ थोरतुङ्गविअडो अह दहमुहसंदिट्ठो अह दारुणावसाणे अह पडिए धुम्मक्खे अह पडिवण्णविरोहे अह पढ़मवअणणिहुरं अह पवमभरुब्भन्ता अह पेच्छइ रहुतणओ अह पेच्छन्ति पवङ्गा अह बहुविहसंठावण मह भअचलिएरावण अह मउ पि भरसहं अह रामपरित्ताणं अह रामबद्धलक्खो अह रामसराहिअओ अह रामो वि णिअच्छइ अह व महण्णवहुत्त अह व सुवेलालग्गं ७२ अथ निजकमहीधरेष्विव अथ निष्कारणगृहीतं अथ निर्गममिलिताभ्या अथ निर्गतो ज्वलद्दर अथ निष्फलगतदिवसो अथ निर्मितसेतुपथं अथ निशिचरीभिदेशमुख अथ निशिचरेण अथ निहते प्रशस्ते अथ नीलस्य प्रहस्तो अथानेन सुखस्पर्श अथ ते विक्रमनिकषं अथ तस्तस्याः पुरत अथ स्थूलतुङ्गविकटो अथ दशमुखसन्दिष्टो अथ दारुणावसाने अथ पतिते धूम्राक्षे अथ प्रतिपन्नविरोधे अथ प्रथमवचननिभृतं अथ प्लवगभरोभ्रान्ता अथ पश्यति रघुतनय अथ प्रेक्षन्ते प्लवङ्गाः अथ बहुविधसंस्थापन अथ भयचलित रावण अथ मृदुमपि भरसहं अथ रामपरित्राणं अथ रामबद्धलक्ष्यः अथ रामशराभिहतः अथ रामोऽपि निर्ध्या अथवा महार्णवाभि अथवा सुवेलालग्नां २४४ ४६२ ३२८ ६२८ ६२५ ८ . १३ १ १३ २ ६८ १ ५८२ ४८ ३३८ १९४ ६१२ ५८ ४ ६२ १०८ १११ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ६८१ श्लोकांशाः अहवा अंकअकज्जो अह वामभुअप्फालण अह वेएण पवंगा अह समरन्तरिअसुहो अह सरबन्धविमुक्के अह सरबन्धविमुक्को भह ससिजणिआमोए अह सेलेसहि तरूहि अ अह हिअमच्छरलहुआ अहिआणं तोसहरे अहिणवणिद्धालोआ अहिणवराआरद्धा अहिधावन्तपवङ्ग अहिलीअ परमुहीहिं अहिसारणं ण गेल्इ ८८ -- संस्कृतरूपा० आश्वा• श्लोका० पृष्ठाङ्काः अथवाऽयं कृतकार्यो १४ अथ वामभुजास्फालन ५ २२ १५७ अथ वेगेन प्लवङ्गा अथ समरान्तरितसुखो ५१२ अथ शरबन्धविमुक्तो ६२४ अथ शरबन्धविमुक्तो अथ शशिजनितामोदे ४२२ अथ शैलैस्तरुभिश्च ६४१ अथ हृतमत्सरलघुका अहितानां तोषहरे अभिनवस्निग्धालोका १८ अभिनवराजारब्धा अभिधावत्प्लवङ्ग अभिलीय पराङ्मुखीभिः २ अभिसारणं न गृह्णाति १० आ आकर्णकृष्टेन च १५ २० ६४२ आताम्ररविकराहत आदिवराहेणाऽपि १६८ आपृच्छयमानगृहीताः आपूरयति रसन् १७३ आरब्धाश्च तुलयितु आबद्धबन्धुवरं यन् आमुञ्चति महति ११८ आमोचिपातालो यस्य ३८२ आरभ्यमाणे सकल ३२४ आरोहतीव दिवसमुखे ३७७ आरूढोदधिसलिला ३५२ आरूढो निरैति रथ ५४१ आलीनश्च रघुपति १६२ आलोकिता न दृष्टाः २४१ ४२५ F आअण्णकड् ढिएण अ माअम्बरविअराहम आइवराहेण वि जे आउच्छमाणगहिआ आऊरेइ रसन्तो आढत्ता अ तुले आबद्धबन्धुवेरं जं आमुअइ महइ सअणं आमोइअपाआलो जस्स आरम्भन्ते सअलो आरुहइ व दिवसमुहे आरूढोअहिसलिले आरूढो णीइ रहं आलीणो अ रहुवई आलोइआ ण दिट्ठा م له Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ श्लोकांशाः आलोइए विसण्णा आलोएइ अ विञ्झं आवत्तन्तरवलिआ आवत्तभमिरमहिहर आवत्तमण्डलोअर आवत्तविवरभमिरो narrari चिअ आवेअसमुक्खित्तं तो आसण्णजज्जविमणं आसण्णम्मि पविरलं आसीवसमणि अम्बा आहासइ अ णिसिअरे आहासइ अरहुवई आहासइ सुग्गीवो आहि समराअमणा इअ अज्जं चेअ मए sr अस्थिर सामत्थे इ खोहन्ति वंगा इअ जाहे णिवडन्ता इअ जाहे भणन्तं इअ जा समरसभो इअ लवअणहरिसिअं इअ णिअमिअसुग्गीचो इतं समपsिहत्थं इअ ताण तं विअम्भइ इअ दारकअत्थम्भं इअ दाविअपाआलं इअ पडिसारिअचन्दे अपहसिअ असरे इअ रामपेम्मकित्तण इअ वम्महजग्गाविअ सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा० आलोकिते विषण्णो आलोकते च विन्ध्यं आवर्तान्तरवलिता आवर्त भ्रमणशील आवर्तमण्डलोदर आवर्तविवर भ्रमणशीलो आपातभयङ्करमेव न आवेगसमुत्क्षिप्तं ततो आसन्न युद्धविमनसं आसन्ने प्रविरलं आशीविषमण्याताम्रा आभाषते च निशिचरा आभाषते च रघुपति आभाषते सुग्रीवो आहितसमरागमना इ इत्यद्यैव मया निहते इत्यस्थिर सामर्थ्य इति क्षोभयन्ति प्लवङ्गाः इति यदा निपतन्तः इति यदा प्रभण्यमानं इति यावत्समरसतृष्णः इति नलवचन हर्षितं इति नियमितसुग्रीवो इति तत्सम प्रतिहस्तं इति तेषां (तयोर्वा) तद्वि इति द्वारकृतस्तम्भं इति दर्शितपातालं इति प्रतिसारितचन्द्रे इति प्रहसितकुमुदसरसि इति रामप्रेमकीर्तन इति मन्मथजागरित आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ११ ५३ ४६२ १ ५४ ४० १३ ६६. ७ ६८ ७ ६६ ६६ ७५ ७२ ५ ११ ११ ११ १० ७ ११ १५ ३ १४ ३ 6. ८ ३ १२ ८ ४ १३ १३ १९ ५ ११ १ ११ १० ४६ २६ ३८ ३४ Tr २ 9 ५५ ५३ w ६४ १ ५१ ६८ २७ ३७ ६२ ܕܕ ६३ ८० ३४ १३३ ५६ ५८१ २०१ २८१ १७६ ४७२ ४७१ ४६० જન્મ २६३ ४५३ ६७२ 199 ८७ ६२१ १.६ २७६ २८४ १०५ ५३४ २६७ १३२ ५६३ ५५९ ५४६ १८६ ४३५ ७ ४६८ ४१६ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ६८३ श्लोकांशाः आश्वा० श्लोका. पृष्ठाङ्काः - ३२ * इअ वारिअदहवअणो इअ विष्णविअदहमुहो इअ सअलमहिअलक्ख इच्छाइ व धणरिद्धि इन्दइणा विणिवेइअ संस्कृतरूपा० इति वारितदशवदनो इति विज्ञापितदशमुखः इति सकलमहीतलो इच्छयेव धनऋद्धि इन्द्रजिता विनिवेदित ११ ४३ ईसरअभिण्णपाडल ईसामच्छरगरुए ईसिजलपेसिअच्छं ईष द्रजोभिन्नपाटल ईमित्सरगुरुकान् ईषज्जलप्रेक्षिताक्षं ४४३ २ ३६ » १४ ९ ६४५ ७ " उअहिं अलङ्घणिज्ज उअहिस्स जसेण जसं उइअमिअङ्क च णहं उक्करिसन्तस्स करे उक्खअगिरिविवरो उक्खअणिसुद्धसेलो उक्खअदुमं व सेलं उक्खअभुअंगरअणं उक्खित्तमहावत्ता उक्खित्तविमुक्काई उक्खिपन्तणिराआ उक्खिप्पन्ति जं दिसासु उग्गाहिइ राम तुम उच्छलिओअहिभरिए उसु मुएसु सोरं उण्णामिमिव णहं उत्तचिअदुमणिवहा उत्तिण्णा अ पवङ्गा उत्थद्धि अदुमणिवहा उत्थम्भिअमअरहरो उद्धप्फुडिअणइमुहा उदधिमलङ्घनीयं उदधेर्यशसा यशो उदितमृगाक्षं च नभो उत्कर्षतः करे उत्खात गिरिविवरा उत्खातनिपातितशैलो उत्खात द्रुममिव शैलं उत्खातभुजङ्गरत्नं उत्क्षिप्तमहावर्ता उत्क्षिप्त विमुक्तानि उत्क्षिप्यमाणनिरा उत्क्षिप्यन्ते यद्दिशा उद्गास्यति राम त्वां उच्छलितोदधिभृता उत्तिष्ठ मुञ्च शोकं उन्नामित मिव नभो उत्तम्भितद्रुमनिवहा उत्तीर्णाश्च प्लवङ्गाः उत्थापितद्रुमनिवहाः उत्तम्भितमकरगृहो ऊर्ध्वस्फुटितनदीमुखा १२६२ २१९ ॥ ११ १२४ ० M " " " . ३०८ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ श्लोकांशाः उद्ध मुहमुक्कणाआ उद्धरिअधरणिविअडं उद्घाइओ अ सहसा उद्घोवअत्तबिम्बे उपो अहि असुर हिगन्ध उब्भडहरिणकलङ्को उम्मिल्लन्ती चिअ से उम्मुहसारङ्गअणं उम्मू आिण खुडिआ उम्मून्ति पगा उव्वत्ति अकरिमअरा उव्वत्तोअरधवला उब्वेल्लइ व णिराअं एवं तुह एआरिससुर एम वि सिरीअ दिट्ठा ree सुहणिसण एकेक्कमवोच्छिष्णं एक्कक्क मावन्ता एक्कसिहरे समप्पइ एक्क्म्म वलन्तो एक्क्केण असेलं एक्केण रक्खसाहिव एक्को रुद्धइमुहो एत्तो वसइत्ति दिसा एत्थ समप्पइ एअं ओहि महिवेढो ओक्खण्डे road ओच्छुण्ण रइरहवहो सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा ० ऊर्ध्वमुखमुक्तनादाः उद्धृतधरणीविकट उद्धावितश्च सहसा ऊर्ध्वापवृत्तविम्बे उत्पतनावनतमही उत्प्लुतसुरभिगन्ध उद्भटहरिणकलङ्की उन्मीलन्त्येवास्य उन्मुखसारङ्गगण उन्मूलितानां खण्डिता उन्मूलयन्ति प्लवगा उद्वतितकरिमकराः उत्तोरधवला उद्वेल्ल्यत इव निरा ए एवं तवैतादृशसुर एवमपि श्रिया दृष्टकाः एतेषु सुखनिषण्णो एकैक क्रमव्यवच्छिन्नं एक क्रमव्यावन्तो एक शिखरे समाप्यते एकैकस्मिन्वलन_ एकैकेन च शैलं एकेन राक्षसाधिप एको रुद्धनदीमुखो इतो वसतीति दिक् अत्र समाप्यते एतत् ओ अवगाहितमहीवेष्टं अवखण्डयितव्य दृढः आक्रान्तरविरथपथो आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ६७ ५८१ ३५३ ६१० ४०१ २.२ २१६ १५१ ९ १४ १० ६ ५ १२ ६ ६ ३ १४ १२ ७ ५ w xxxx ६ १५ १५ ५ १५ १ १० १५ २९ ३० १८ २४ ४८ ९ २४ ८२ ८ १ ४९ २६ ५६ ४१ १५ દ્ २ १९ ३० ८३ ४५ ५४ ८७ १९ ६ ९५ ४ २९ १३ ५१४ २३६ २३५ २१३ २५६ १०४ २१२ १९७ १०२ ५९७ ५११ २५८ ३८४ १६९ २१९ ६७१ ६४२ १४९ ६७५ ८ ४०६ ૬૪ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ६८५ संस्कृतरूपा० - आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १०९ २८३ ا س م 305 ش س १११ م س २२ श्लोकांशाः ओ जमलक्खम्भेहिं ओज्झरमज्जणसुहि ओधूसरिअधअवडो ओभग्गरक्खसदुमं ओलुग्गप्फरिसाणं ओवअणोसुद्धरहं ओवइआ असरहसं ओवग्गइ अहिमाणं ओवग्गउ तुम्ह जसो ओवट्ठकोमलाई ओ विरएमि णहअले ओ ससिकराहनुम्मिल ओ साअरोअरन्भन्त ओसुम्मन्तजलहरं उत युगलस्तम्भाभ्या निर्झरमज्जनसुखिता अवधूसरितध्वजपट: उत भग्नराक्षसद्रुमां अवरुग्णस्पर्शानां अवपतनावपातित अवपतिताश्च सरभसं अवक्रामत्यभिमानं अवक्रामतु युष्माकं अववर्षकोमलानि उत विरचयामि उत शशिकराहतो उत सागरोदराभ्यन्त अवपात्यमानजलधरं mx 19 Nur ० mr ८ م M २०४ ४ २९ १२८ ३ ११८२ २५ ३५२ २४ ४४८. م م م ه » س س س س २१ ५६० ५२१ ت २ م م कअकज्जे तालसमे कइआ णु विरहविर कइमुक्कचुण्णिअट्ठि कइवच्छत्थलपरिणअ कइवररसुद्धाइ कअपरिपेल्लिाणं कडअवलन्तरविरह कढिअमूलणिरन्तर कड्ढिज्जन्ति समन्ता कण्टइअणू मिअङ्गी कमलाण दिअसविगमे कम्पइ महेन्दसेलो कम्पिज्जन्तधराहर करवारिकइलोओ करिमअराण खुहिम कसणमणिच्छाआ कृतकार्यास्ताल कदा नु विरहविर कपिमुक्तचूणिनस्थित कपिवक्षःस्थलपरिणत कपिवररभसोद्धावित कटकप्रतिप्रेरितानां कटकवलद्रविरथं कृष्टमूलनिरन्तर कृष्यन्ते समन्ताद् कण्टकितगोपिताङ्गी कमलानां दिवसविगमे कम्पते महेन्द्र शैलो कम्प्यमानधराधर करवारितकपिलोकः करिमकराणां क्षुभित कृपणमणिच्छाया م م ३५८ २२१ २१८ م २६ م م १. ११ ३९८ २०१ ६ ३८ २१० १२१ ३१४ २ २८६६ ه १८ ه Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ सेतुबन्धम् श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ४३० ४ ३५ १३१ ४६ १२ ११ ८३ २६ ५४२ ४४९ १५ १२ ९३ ३१ ६७४ ५१७ ५२ कहं वि समुहाणिअङ्क कथमपि संमुखानीता कह इर सकज्जकु ला कथं किल स्वकार्य कह तम्मि वि लाइज्जइ कथं तस्मिन्नपि कह वि ठवेइ दहमुहो कथमपि स्थापयति कह वि ठवेन्ति पवङ्गा कथमपि स्थापयन्ति कह वि पडिबद्धकवओ कथमपि प्रतिबद्ध कह विरहप्पडिऊला कथं विरहप्रतिकूला काअरपडिमुक्कधुरं कातरप्रतिमुक्तधुरं काऊण अ सुरकज्ज कृत्वा च सुरकार्य काऊण ससिअमन्थर कृत्वा श्वसितमन्थर कालन्तरजीअहरं कालान्तरजीवहरं कालन्तरपरिहत्तं कालान्तरपरिभुक्तं काहिइ पिसं समुद्दो करिष्यति प्रियं समुद्रो कि अइराएण इमा किमतिरामेणेयम किं अप्पणा परिअणो किमात्मना परिजनः कि उण दुष्परिअल्ला किं पुनर्दुष्परिकल किं उत्तरउ णिरन्तर किंमुत्तरतु निरन्तर कि एअ त्ति पलत्त किमेतदिति प्रलपितं कि णिहणेमि रणमुहे किं निहन्मि रणमुखे कि ति समाससिअव्वे । किमिति समाश्वसित किं पम्हट म्हि अहं किं प्रस्मृतवानस्म्यहं किं भुअविवरपहोलि किं भुजविवरप्रघूर्णन किं व आणह किं वा न जानीतैतत् किमु जीअन्तीअ तुमे किमु जीवन्त्या त्वया किरणासणि रहुसुए किरणाशनि रघुसुते कीस ममम्मि धरेन्ते किमिति मयि ध्रिय कुम्भस्स पहत्थस्स कुम्भस्य प्रहस्तस्य कुम्भोवग्गणणिवडिअ कुम्भावक्रमणनिपतित कुविएण विज्जुमाली कुपितेन विद्युन्माली कुविओहरिअणिसा कुपितावहृतनिशा के च्चिरमेत्तं व ठिई कियच्चिरमात्रं वा (७ १५ ११ ६ २९ ९५ १२ १२९ १३० १२६ २९४ ४७४ ६४६ ४८। १९५ ४४८ ८३ ४९२ ११ १२० ९१ १५ ६१ ६६० ६६ ५८९ ५७६ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः केलास दिवसारं केसरिचलणतलाहअ खणणिच्चलणीसासं खगपरिअत्तमिइन्दा खणमूलाबढाए णिग्व बणमेलिआपविद्धो खवावारिविसंठुल arifornerst aoriमाधिम्मो खन्धद्धन्तोवाहि खविण पव्वभणिवहो खविणो वारणलोओ खिoणं चावम्मि करं festusअमुणाल खुहिअजल सिठसारो खुहिम मुद्दस्थ मिआ खुसि मुद्दाहमुहा खुहिअसमुदुप्पइआ बुहिम अहिविच्छूटा खोति खुहिअणिहुअं गअणअलम्मि खेल अणम्मि उअहि गणस्स अ पडिबिम्बं अणुण्णएण तेण अणे विज्जुणिहाओ अमलिअतमालवणं गन्धावद्धमहुअरा गमिआ कलम्बवाआ गम्भीरवणा होए श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरू कैलास दृष्टसारं केसरिचरणतलाहत ख क्षणनिश्चल निःश्वासं क्षणपरिवृत्तमृगेन्द्राः क्षणमूलाबद्धया निर्वर्ण्य क्षणमेलितापविद्धः क्षणव्यापारिविसंष्ठुल क्षण संहितमेघतटानि क्षणसम्मानितधर्मो स्कन्धार्धान्तापवाहित क्षपितः पर्वतनिवहो क्षपितो वानरलोको खिन्नं चापे करं खण्डितोत्पाटितमृणाला क्षुभितजल शिष्टसारो क्षुभितसमुद्रास्तमिता: क्षुभितमुद्राभिमुखा क्षुभिज समुद्रोत्पतिता क्षुभितोदधिविक्षिप्ता क्षोभयन्ति क्षुभितनिभृत ग गगनतले शैलसंघट्ट गगने उदधिसलिलं गगनस्येव प्रतिबिम्बं गगनोन्नतेन तेन गगने विद्युन्निघातः गजमृदिततमालवनं गन्धाबद्धमधुकरा गमिताः कदम्बवाताः गम्भीरव्रणाभोगौ ६८७ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ७३ २३० ३७ ३५८ ११ १२ १ ७ १४ ६ १२ १४ ¿ ८ ३ ८ 19 ८ ८ १५ ५ ६ ९ ५७ ८५ rr ११ ६९ ८७ २७ ५२ २० १४ १० ३० २८ ४८ ५४ ५१ १० १२ ४७ ५८ २ २१ ३२ ३६ ८५ १५ ३ ४६४ ५४२ ३५ २४९ ६२६ २३८ ५१५ ६१९ २९३ २९० ८२ २५ १६० ३०७ २७२ १७२ २.८ २८९ २६४ ३१२ ४८ ६४३ १६२ ३५७ ३८५. १५ १९१ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ श्लोकांशाः गरु उव्वहमाणो गरुडेण व जलणणिहं गलइ सरसं पि कुसुमं गहिअजल मे हप्पेल्लि गहिअरिवार गिरिणिवहेहि रसन्तं गिरिणिव्वलिअपडन्ता गिरिधाउरअक्खउरो गिरिपेल्लिअरहकड्ढण गिरिसंखोहविमुक्का गुडिअगुडिज्जन्तभडं गुरुअम्म कुण गुरुअम्म विपक्खेि गुरुभर से साहित्फण गेहइ अ जलण गेहइ अ सो अणाभर गेलइ गहिअत्थामं घडमाणेहि अ सम घण विवद्विअतिमिरा घरमणिमऊहभिण्णो घेत्तूण जणअतणअं घोलइ गअणिअत्तं घोलन्ति णिम्मलाओ चक्क मलभइलिओ चडुलं पि थिईअ चडुलवडाआणिवहां चडुलेहि णिप्पअम्पा चन्दअरेण ओसे चन्दअ व्व मेहमइलिए सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा० गुरुमुद्वहमानो गरुडेनेव ज्वलननिभं गलति सरसमपि गृहीतजलमेघप्रेरित गृहीतशिरोदष्टवानर गिरिनिवहै रसदुत्खाय गिरिनिर्वलितपतन्त गिरिधातुरजः कलुषो गिरिप्रेरितरथकर्षण गिरिसंक्षोभविमुक्ताः गुटितगुटघमानभट गुरी कुरुष्व कोपं गुरावपि प्रतिपक्षे गुरुभरशेषाहिफण गृह्णाति च ज्वलन गृह्णाति च सोऽनादर गृह्णाणि गृहीतस्थामं घ घटमानैश्च समं घन विटपस्थिततिमिरा गृहमणिमयूखभिन्नो गृहीत जनकतनयां घूर्णते गतापनिवृत्तं घूर्णन्ते निर्मला : च चक्रमलमलिनितो चटुलमपि स्थित्या चटुलपताकानिवहः चटुलैर्निष्प्रकम्पा चन्द्रकरेण प्रदोषे चन्द्र इव मेघमलिनिते आश्वा० श्लोका ० ६ ε १३ ७ ७ १४ १३ ८ १२ १५ ३ ९ १४ ५ १२ ८ १० १० 05 १५ ५ १ १५ २ १२ १० ३ ४१ ५२ १५ ३० २८ ४४ ७९ २७ ३ ८७ ५७ ३५ १४ ८२ २३ २९ ५० २७ 2222220 ५२ ९४ ८८ ५३ ४२ १८ ८४ ७८ ६२ ४८ पृष्ठाङ्काः १६२ ७३ २१८ ३४६ ५६४ २५७ २६६ ६३१ ५.६३ २८५ ५४३ ६५८ ९५ ३४५ ६३३ १५८ ५१५ ३०८ ૪૧ ४१७ ६७४ १७५ ३९ ६५१ ५९ ५४२ २३३ ૪૨૪ १०४ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ६८६ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः २७ ८१ २३ ४३३ १४२ ३२ 2 ५. चन्दणपाअवलग्गे चन्दाअवधवलाओ चन्दुज्जोएण मओ चलणेहिं महुविरोहे चलणोणअणिहुअस्स चलवाणराणुधाविम चलिअं अ तुलिअपव्वअ चलिअंच वाणरवलं चलिओ अ चरणपहओ चिन्ताहअप्पहं मिव चिन्तिअलद्धत्थं वि चिन्तिज्जउ दाव इमं चिन्तइ ससइ जूरइ चिन्तेढ अ पउत्तो चिन्तेउ पि ण लम्भइ चिरालकलिआणं चिरालपडिणिउत्तं चिरजुज्झिअस्स तो चिरपरूढसे आल चुण्णिअगरुअपडि ३८ ५७३ ३१ ३९ चन्दनपादपलग्नान् चन्द्रातपधवला: चन्द्रोद्योतेन मदो चरणाभ्यां मधुविरोधे चरणावनतनिभृतस्य चलवानरानुधावित चलितं च तुलितपर्वत चलितं च वानरबलं चलितश्च चरणप्रहतो चिन्ताहतप्रभमिव । चिन्तितलब्धार्थमिव चिन्त्यतां तावदियं चिन्तयति श्वसिति चिन्तयितु च प्रवृत्त चिन्तयितुमपि न चिरकालकांक्षितानां चिरकालप्रतिनिवृत्तं चिरयोधितस्य ततो चिरप्ररूढ़वाल चूर्णितगुरुकप्रतिभटः م ه م ه ه ه م س م م س ه م م س ه ه ه ه ११ __ ३ १२१ ८ ४९३ ८१ २२ १८ ३१ ६७ ३४ ه م छिज्जइ करेण समर्थ छिज्जइ झिण्णावि तणू छिण्णविवइण्णभोआ छुन्दन्ति जत्थ वन्थे छिद्यते करेण समं क्षीयते क्षीणापि तनु छिन्नविप्रकीर्णभोगा: क्षुदन्ति यत्र पथो ५९९ २७ १७२ و م १४ १२ १२ २१ 4. जं चिअ उअलद्धभअं जं चिअ कामिणिसत्थं जं जं आणेइ गिरि जं तणुअम्मि वि विरहे जं बहुपव्वअजणि ४४ से० ब० यदेवोपलब्धभयं य एव कामिनीसार्थः यं यमानयति गिरि यत्तनुकेऽपि विरहे यद्बहुपर्वतजनिते ६०२ ५१२ ३०४ ४७७ ३०३ 4. ८६ ३६ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. सेतुबन्धम् श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ३ १२ ८३ १२७ २८ ८१ . . . . . » » » » » ९ ९ ४ ८७ ७७ ४६ ३८३ ३८६ ३८१ १३७ ३८२ १३९ १३३ १२१ ३८ १९ r ३६४ १७९ जं साहसं ण कीरइ यत्साहसं न क्रियते जं साहन्ति समत्था यत्साधयन्ति समस्ताः जणि पडिवक्खभ जनितं प्रतिपक्षभयं जस्थ अ गमेन्ति णिइं यत्र च गमयन्ति निद्रा जत्थ अ भमिरमहुअरं यत्र च भ्रमणशील जत्थ अमिआण यत्र च मृगाणां जत्य अ सिहरावडि यत्र च शिखरापतितं जत्थ परमत्थगरुआ यत्र परमार्थगुरवो जत्थ भमन्ति णहं यत्र भ्रमन्ति नखांकुश जत्थ महं पडिउत्थो यत्र मम पर्युषितो जम्पइ अ किरण जल्पति च किरण जम्पइ रिच्छाहिवई जल्पति ऋक्षाधिपति जम्मि समत्त व्व दिसा यस्मिन्समाप्ता इव जरढविसोसहिवेढिअ जरठविषौषधिवेष्टित जलइ जलन्तजलअरं ज्वलति ज्वलज्जल जलइ वलवाणलो विअ ज्वलति वडवानल इव जलओवट्ठविमुक्का जलदाववृष्टविमुक्ता जलणणिवहम्मि सलिलं ज्वलननिवहे सलिलं जलणुत्थङ्घिअमूला ज्वलनोत्तम्भितमूला जलतण्णाअघडन्ता जलाईघटमाना जलपब्भारपलोट्टिम जलप्राग्भारप्रलुठित जलपव्वाडिअमुक्का जलप्लावितमुक्ताः जलवद्वत्थमिएसु अ जलपृष्ठास्तमितेषु जलसंखोहालग्गं जलसंक्षोभालग्न जलहरणिद्दाअन्तं जलधरनिर्दावान्तं जस्स विलग्गन्ति यस्य विलगन्ति जस्स सअलं तिहुअणं यस्य सकलं त्रिभुवनं जस्स सिहरं विवज्जद यस्य शिखरं विपद्यते जस्स सिहरेसु बहुसो यस्य शिखरेषु बहुशो जह जह अच्चासण्णो यथा यथात्यासन्न r x xur x ७७ ३४ ५ ७४ १८५ २०८ १८३ १८१ ३ २१९ vrx , १८६ १६७ २६५ १४ ४३ २२८ ९ ७४ ३८० ३२१ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ३२३ १२ १३ ५१ ३ ५५१ ३१० ५०६ ४४२ १२ ११ १२ १० १४ ९४ ११ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० जह जह णिम्माविज्जइ यथा यथा निर्मीयते जह जह णिसा समप्पइ यथा यथा निशा जह जह पिआइ रुभइ यथा यथा प्रियया जह हिअएहिं ववसि यथा हृदयव्यवसितं जागं महिहरमहिलं जातं महीधरमथितं जा समल्लिभन्ते जातं समालीयमाने गा अण्णेण हसन्तो यावदन्त्येन हसन जामाइ तं मुहुत्तं जातानि तन्मुहूर्त जामा णिसाअरपुरी जाता निशाचरपुरी जाआ फुडवित्थारा जाताः स्फुटविस्तारा जाए परलोभगए जाते परलोकगते जाणइ सिणेहभणि जानकि स्नेहभणितं जाणा लच्छीम समं जाता लक्ष्म्या समं जालालोअविमुहिलं ज्वालालोकविमुग्धं जाव अ महोअडिअहे यावच्च महोदधितटे जाहे सेउणिबद्धं यदा सेतुनिबद्ध जीअगरईहि अज्ज जीवगुर्वीभिरद्यापी जुत्ता कुम्भस्स रहे युक्ताः कुम्भस्य रथे जे चिरआलपरूढा ये चिरकालप्ररूढाः जेण भरभिण्णवसुहं येन भरभिन्नवसुध जो च्चिअ जेउण जमं य एव जित्वा यमं जो जत्थ च्चिअ दिठ्ठो यो यत्रैव दृष्टः जो दहमुहग्गदारे यो दशमुखानद्वारे जो दोसइ धरणिहरो यो दृश्यते धरणीधरो जो लचिज्जइ रइणा यो लङ्घयते रविणा जोहाइ व्व मिअy ज्योत्स्नयेन मृगार्ड्स ८१ ११९ १०७ ५३९ ३३. ४७५ ४९२ ३३६ १७४ n n n n 3 ३२२ ८ ८ २ १२ १०५ ७७ १७ ६५ ५८ . . ८,२-- ५३८ ३८५ ६७१ ६.१ ६४८ २४७ * १८७ झिज्जन्तजलालोइअ झीणपुलआइअङ्गी क्षीयमाणजलालोकित क्षीणपुलकाचिताङ्गयपूर्व ट त्रुट्यन्तोऽपि सशब्दं १२ ६ ३७ ६३ ५२० २२५ टुट्टन्ता वि ससई Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ सेतुबन्धम् श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ५९ ठा दवग्गिभीआ ठाणे वि ठिइपहुत्तं स्थानं दवाग्निभीता स्थानेऽपि स्थितिप्रभूतं १४३ ५३ ११ ५६ ४६३ १४३ ११ १२३ ४६४ १३ १३ १० १३ १९ ७८ ४३१ १. ६ ३४ ३७ ४०९ २०६ ४१२ णइसहस्सपडिउम्बण नदीसहस्रपरिचुम्बन . ण कओ बाहविमुक्खो न कृतो वाष्पविमोक्षो णज्जइ विहीसण तुहं ज्ञायते बिभीषण तव णट्टारम्भक्खुहिमा नृत्यारम्भक्षुभिता णत्थि णिहम्मइ रामो नास्ति निहन्यते रामो ण पडड पडिए वि न पतति पनि ति ण पडिक्खन्ति अवसरं न प्रतीक्षन्तेऽवसर ण पिअइ दिण्णं पि न पिबति दत्तमपि पमह अ जस्स फुड नमत च यस्य स्फुट णमह अवढिमतुङ्गं नमतावधिततुङ्ग णवकमलोअरअम्बं नवकमलोदराताम्र णवपल्लवसच्छामा नवपल्लवसच्छाया णवर करालेइ ससी केवलं करालयति शशी णवरि अ अच्छालोआ अनन्तरं चाच्छालोका णवरि अकइहिमआई अनन्तरं च कपिहृदयानि णवरि अ गअणद्धन्ते अनन्तरं च गगनार्धान्ते णवरि अ जहासमत्थि अनन्तरं च यथासमर्थित णवरि अणं खेआलस अनन्तरं चैनं खेदालस णवरि अ दिणअरबिम्ब __ अनन्तरं च दिनकरबिम्बं णवरि अ पत्थाणे अनन्तरं च प्रस्थान णवरि अपवणपणो भनन्तरं च पवनप्रणो णवरि म पसारिअङ्गी __ अनन्तरं च प्रसारिताङ्गी णवरि अ भडवच्छत्थल अनन्तरं च भटवक्षः णवरि अ मलअगुहा अनन्तरं च मलयगुहा णवरि म महिमल अनन्तरं च महीतल णवरि अ मुक्ककलअलं मनन्तरं च मुक्तकलकलं णवरि अ मुहणिवहो । अनन्तरं च मुखनिवहो ४.८ ११३ ६३२ १४ १ २८ ४५० १० ४०० ६२८ १५ ११ ५७८ १२ १५ ८१ ५ १५२ २४४ ५४१ ६३६ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः वरि लङ्कादिट्ठो raft अ विहीण वरि अ सरणिभिण्णो वरि अ ससिअर वरि अ सहसुच्छिप्प णवरि अ सो रहुवइणा णवर सुमित्तातणओ ण वि तह पवआविद्धा हमलं व गहसोहिअं हलवेअपहावि हलसमुट्ठिएहि हणीले वहमाणं सिरि अलमील अणिसारसारं णिअअविसाणलपअ णिअवत्थाहि वि मे णिउणहसिआणुविद्धं णिज्जन्ति चिरपअत्ता णिज्जि असेस कलअलो णि अबन्धुप्पित्था णि असंदट्ठाहर णिद्दलिअमणिअडाणं गिद्धोआसणीला णिन्तस्स अ तं वेलं णिन्दs मिअङ्ककिरणे froफणसुहालो भिच्छिओअहिरवं णिम्मल सलिलब्भन्तर निम्माएइ अमरिसं जिम्माओ त्ति मुणिज्जइ णिम्माविम्मि कज्जे श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा० अनन्तरं च लङ्कादृष्टो अनन्तरं च विभीषण अनन्तरं शरनिभिन्नो अनन्तरं च शशिकर अनन्तरं च सहसोत्क्षिप्य अनन्तरं च स रघुपतिना अनन्तरं सुमित्रातनयो नापि तथा प्लवगाविद्धा नभस्तलमिव ग्रहशोभितं नभस्तल वेगप्रधावित नभस्तलसमुत्थितः नभोनीलान्वहमान नमः श्रियं सजलनील ज्ञातनिशाचरसारं निजकविषानल निजकावस्थाया अपि निपुण हसितानुविद्धं नीयन्ते चिरप्रवृत्तानि निर्जिताशेष कलकलः निर्दय बन्धूद्विग्ना निर्दय संदष्टाधर निर्दलितमणितटानां नितायसनीला निर्यतश्च तद्वेलाया निन्दति मृगाङ्ककिरणा निष्पन्नसुखालोकं निर्भत्सतोदधिरवं निर्मलसलिलाभ्यन्तर निर्मापयत्यमषं निर्मित इति ज्ञायते निर्मितेऽपि कार्ये ६६३ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ५५ १४१ ६१४ १६३ ४०९ ४ १४ १० १४ १५ ४ ७ ६ ६ १२ ६ 19 १२ २ ११ ३ १२ १५ ११ १२ १४ १५ २ ७ १२ ८ १५ ३८ ३४ ३६ ५७ ७९ १५ ५५ ७२ ९१ ७३ ३५ ४९ ३४ २५ ૪ १५ २४ ४० ८३ ६३ ७५ १९ २४ ५ १२ १४ १५ ६६ ५३ २६ ६२२ ६६८ १२० २७३ ३७८ २४० ५३७ ३५७ ३६७ ५१८ ६३ १९७ ४४२ ८९ ५२१ ६६९ ४६६ ५३८ ६०५ ६४४ १४९ ५५ १२० २५० ५३४ ३०९ ६४५ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ सेतुबन्धम् आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १४ २०६६ १८४ ४६८ १३ ५८ ५७७ १३ १४ १२ ४६ ६१७ ६५९ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा णिवडन्तम्मि ण दिट्ठो निपतति न दृष्टो णिवडन्ति कुसुमणिभर निपतन्ति कुसुमनिर्भर णिवडन्ति तुङ्गसिहरा निपतन्ति तुङ्ग शिखराः णिवडन्ति विज्जुमुहला निपतन्ति विद्युन्मुखरा णिव्वडिअतुङ्गसिहरा निर्वलिततुङ्गशिखरा णिव्वडिअधूमणिवहो निर्वलितधूमनिवह णिव्वणिज्जइ रूअं निर्वण्यते रूपमरुण णिवण्णेऊण अणं विर्वर्ण्य चैतत्ततो णिव्वण्णेऊण चिरं निर्वर्ण्य चिरं प्लवगा णिव्वालेऊण णहे निर्वाल्य नभसि णिव्वुभइ पलअभरो निरुह्यते प्रलयभर णिव्वुब्भइ सोडीरं निर्वाह्यते शौण्डीर्य निव्वूढं धीर तुमे नियूढं धीर त्वया णिवूढजम्पिआणं नियूंढजल्पिताना णिवूढरुहिरपण्डुर नियूंढरुधिरपाण्डुर णिवूढविसत्थवआ नियूँढविषस्तबका णिसिअरकअग्गहाणि निशाचरकचग्रहा णिसिअरसरणिद्दारि निशिचरशरनिर्दारित णिसुढिअदिसागइन्दै निपातितदिग्गजेन्द्र णिसुढिज्जन्तमुअंगं निपात्यमानभुजङ्ग णिहअम्मि अ दहवभणे निहते च दशवदने णिहमम्मि अ दहवअणे निहते च दशवदने णिहालक्खिअजोहे निहतालक्षितयोधे णिहउक्खअसुरलोअं निहतोत्खातसुरलोकं णिहउव्वत्तजलअरं निहतोद्वत्तजलचरं णिहए अ मेहणाए निहते च मेघनादे णिहण न्ति गएहिं गए निघ्नन्ति गर्गजां णीलेण गण्डसेलं नोलेन गण्डशैलं णीसरिएरावणदन्त निःसृतैरावण दन्त णीसेसणिहअबन्धू नि:शेषनिहतबन्धु णेअ तुमे मोत्तव्वं नैव त्वया मोक्तव्यं १३६५ १०९ ४८१ ० . १ १५ १२ १५ ३५ ५८ ४० ३० ६४ ५३ ६५१ १२८. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः च्छइ णिव्वूढभरो तं अवलम्बसु धीरं तं कालस्स णिसम्मउ तं च कवअं सुराहिव तं च हिरण्णक्खस्स तं तिसबन्दिमोक्खं तं दइआहिणाणं तं पि विइण्णोरत्थल तं पुल अम्मि पेच्छइ तं पेक्ख हिलिं तं पेच्छइ मलओ तं बन्धसुधीर तुमं तं मह मग्गालग्गा तं माआणिअम्मविअं तं सुणमन्तबिम्बो तडपब्भारभरन्ता तरि णहु णवर इमं तलपsिहअसा अरअं तस्स अ मग्गालगा तस्स परुिद्ध से सं तस्स हअस्स रणमुहे तह अ पुरिल्लणिवाइभ तह कुविएण पहसिअं तह जीवलज्जिआए तह णिमिअ चिचअ तह तंसि गआ मोहं तह पडिवण्णधणुसरा तह पढमं विअ मुक्को तहपरिसं ठिअसेलं तह वि अदरपरिवत्ति श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा ० नेच्छति निर्व्यूढभ त तदवलम्बस्व धैयं तत्कालस्य निषीदतुं तच्च कवचं सुराधिप तच्च हिरण्याक्षस्यापि तं त्रिदशवन्दिमोक्षं तद्दयिताभिज्ञानं तमपि वितीर्णोरःस्थल तां प्रलोकिते पश्य तत्प्रेक्षस्व महीविकटं तत्पश्यत मलय एव ततो बधान धीर त्वं तन्मम मार्गालग्ना तन्मायानिमितं रिपु तिर्यगुन्नमद् बिम्बो तटप्राग्भारभ्रिय तरितुं न खलु केवल तलप्रतिहतसागरक तस्य च मार्गालग्ना तस्य प्रतिरुद्ध शेषं तस्य हतस्य रणमुखे तथा च पुरोगनिपातित ततः कुपितेन प्रहसितं तथा जीवलज्जितया तथा नियोजितैव दृष्टि तथा त्वमसि गता तथा प्रतिपन्नधनुः तथा प्रथममेव मुक्तो तथापरिसंस्थितशैलं तथापि च दशपरिवर्तित ६६५ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १३ ११९ * ११ ६ १५ ४ १ १४ ११ ८ ८ is द ८ ११ १० १ ३ ९ ११ १५ १३ १५ ११ ११ ११ १४ ५ १० १३ १३१ १७ ५३ २२ १२ ४२ ७१ १०. २१ २३ १७ २६ ३५ ४८ ५८ ७ २१ ३३ १७ ८१ २ ११६ ६५ ९७ २६ ३० ३९ ७४ ४९७ १९८ ६५७ १२३ १३ ३३ ६२७ ४४० २९४ २९५ २९२ २९६ ४५३ ४१५ ४२ ८० ३५० १६३ ४४३ ६६९ ५५० ६३५ ४९० ४६७ ४८२ ६०८ २९८ ४११ ५८५ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ श्लोकांशाः तह स गओ अभूमि ताण अकं अत्तं ताण भुअङ्गपरिगआ तामरसआअम्बं सरेषु तारातणअविसेसिअ ताव अ अत्थणिअम्बं ताव अ आसण ठअ ता वच्चसु मा मुज्झसु ताव अ रक्खसणाहो ताव अ तमालकसणो ताव अ दरदलिउप्पल ताव अ सलोहिअरुण ताव अ सहसुप्पण्णा ता सव्वे च्चि समअं ता सोइ रहुतणओ ताहे णिसुद्धसेसा ता विभीसणस वि तिसगआण वहन्तं तिअसगआण वहन्तं तिव्ववजरढाअवाहअ तिसरस्स समुक्खित्तो तिहुअणमूलाहारं तीअ णवपल्लवेण व तीरपवित्तमुहलकल तुङ्गअडोज्झरमुहले तुङ्गत्तणपज्जन्ते तुङ्गमणितोरणा व तुङ्गरअसिहरुग्गमेहि तुज्झ भुआसु णिसणी तुम्ह चिच एस भरो तुरिआउच्छिअकामिणि सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा० तथा स गतोऽतिभूमि तेषां च कथां प्रवृत्तां तयोर्भुजङ्गपरिगता तामरसरजआताभ्रं तारातनयविशेषित तावच्चास्तनितम्बं तावच्चासन्न स्थित तावद्व्रज मा मुह्य तावच्च राक्षसनाथः तावदेव तमालकृष्णं तावच्च दरदलितोत्पल तावच्च सलोहितारुण तावच्च सहसोत्पन्ना तवत्सर्व एव समं तावच्छोचते रघुतनय तदा निपातितशेषा तदा विभीषणस्याप्यन्त त्रिदशगजानां वहन्तं त्रिदशगजानां वहन्तं तीव्रजरठात पाहत त्रिशिरसः समुत्क्षिप्तो त्रिभुवनमूलाधारं तया नवपल्लवेनेव तीरप्रवृत्तमुखरकल तुङ्गतनिर्झरमुख तुङ्गत्वपर्याप्तान्_ तुङ्गमणितोरणानीव तुङ्गरजतशिखरोद्गमैः तव भुजयोनिषण्णो युष्माकमेवैष भर: त्वरिता पृष्टकामिनि आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ११ २१ ४४६ १५ ६२ ६६० ६०८ ३५५ ५९३ ५०४ ३९५ ६१८ ५२२ ४०४ ५०२ ६०३ १३९ १३८ १०० २८४ ६७० ३७२ ३७३ ३६० ५२९ ४७८ ४८७ ३८७ ३९१ ३७१ ५२३ ३६१ १२५ १४ ९ १३ १२ १० ૧૪ १२ १० १२ १४ ४ m ८ १५ ६ ९ १२ ११ ११ ९ ६ १२ ९ ४ ३ १२ २५ ३१ ९७ ६ ५ ४८ ४१ २५ १ १४ ५१ ४८ ४३ २ ८४ ५८ ६१ 2*ནཱམ; ४१ ५६ ८१ १०९ ८८ ६६ ५७ ४४ ४२ २५ ६ ६४ ८० ५३३ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः तु वाणुक्खअहिअं हाइओवि सुइरं वे विरला सप्पुरिसा तो अहिओamer तो अमरिसमेलाविअ तो आसामिसुहिए तो उनअसिहर मिलिअं तो उग्गाहिअसोसं तो उघाडिअमूलो तो एक्कहिअअगुणिअं तो एक्काअअवेअं तो कण धाउअम्बो तो अरामपणामे तो कढिऊण चावं तो कह वि लद्धसण्णा तो कुम्भअण्णणणं तो अमोहुम्मिल्लो तो गमोहुम्मिल्लो तो गमणवेअमारुअ तो घोत्लिउं पउत्ता तो चिरविओअणुओ तो जम्पइ रहुतणओ तो जम्पिउं पउत्ता अलाव तो तो निट्टविअणिसिअरा तो णीलर विसुआहिं तो तं दट्ठूण पुणो तो तं पेच्छन्त चिअ तो तं मरणनिमित्ते तो तं महिअलणिविअं श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा तव बाणोत्खातनिहतं तृषितोऽपि सुचिरं ते विरलाः सत्पुरुषा ततो गृहीतोपदेशा ततोऽमर्षमेलित तत आश्वासितसुखिते तत उदयशिखरमिलितं तत उद्ग्राहितशोकं तत उद्घाटितमूल: तत एक हृदयगुणितं तत एकागतवेग ततः कनकधात्वाताम्रः ततः कृतरामप्रणामे ततः कृष्ट्वा चापं ततः कथमपि लब्ध ततः कुम्भकर्णनिधनं ततो गतमोहोन्मील: ततो गतमोहोन्मीलो ततो गमनवेगमारुत ततो ग्रहीतुं प्रवृत्ता ततश्चि रवियोग तनुकः ततो जल्पति रघुतनयः ततो जल्पितुं प्रवृत्ता ततो नभस्तलावपततः ततो निष्ठापित निशिचरा ततो नीलरविसुताभ्यां ततस्तद्दृष्ट्वा पुन ततस्तं पश्यन्त एव ततस्तां मरणनिमित्ते ततस्तन्महीतलनिवेशितं ६६७ आश्वा ० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ११ १३ ११ ११ ११ १० ११ 2 ३ ११ १२ ८ २ १४ १५ ११ १५ ૧૪ १५ * ७ ५ ४ ११ १४ १५ ११ १५ ११ १२ ८५ ३९ ९ १०० ३६ १३६ ३५ ३३ ३७ ३१ ९७ २९ ६० ६४ ७१ २३ ४२ ७३ ५२ ७१ २१ ५८ १०२ ५३ १६ ५५ ११३ १५ ११८ ३० ४७७ ܟ: ८१ ४८३ ४५३ ५०० ४०९ ४५२ ७१ ४५१ १४८ २९८ ६२३ ६६१ ४७० ६४३ ६१५ ६६५ १४० २८२ १५७ १४३ ૪=૪ १४० ६०४ ६५७ ४८६ ६४१ ४९१ ५१६ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ सेतुबन्धम् आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १२ ७६ ५४० ७६ ६३० ० १४ १४ ७५ ११ १३४ ४९९ ६१८ १५ १५ ५६ ६५९ श्लोकांशाः तो तं वलन्तविअडं तो तरुण सिप्पिसंपुड तो तस्स भुअविमुक्को तो तस्स सरणिव्वाए तो ताण हसच्छा तो तिअडावअणेहि तो तिव्वरोसलचिअ तो ते कइमाअङ्गे तो तेण करअलट्ठिअ तो तेण लघुइअजसं तो ते भिण्णपअट्ट तो दप्पमुहपसाओ तो दहवअणालोअण तो दीहवामकरअल तो दोण्ह वि समसारं तो पडिओ रहुणाहो तो पवअबलाहि फुडं तो पवआइ गआई तो पाअडदोव्वल्लं तो फुडसदुद्धाइअ तो फुडिअवेणिबन्धण तो भग्गपवअसेण्णं तो भङ्गलज्जिआणं तो भिण्णङ्गअदेसा तो भुअरहसाअढि तो महुमअमुच्चन्ता तो माआहि सरेहि तो मुहमेत्तवलन्ता तो रक्खसपरिवारं तो रामो माअडिणा तो रोसतुलिअपव्व संस्कृतरूपा० ततस्तद्वलद्विकटं ततस्तरुणशुक्तिसंपुट ततस्तस्य भुजविमुक्तो ततस्तस्य शरनिघातान् ततस्तेषां हतच्छायं ततस्त्रिजटावचनैरपि ततस्तीवरोषलचित ततस्तान्क पिमातङ्गान् ततस्तेन करतलस्थित ततस्तेन लघूकृतयशः ततस्तान्भिन्नप्रवृत्तान ततो दर्पमुखप्रसाद ततो दशवदनालोकन ततो दीर्घवामकरतल ततो द्वयोरपि समसारं ततः पतितो रघुनाथो तत: प्लवगबलात्स्फुटं तत: प्लवगान्गजान् तत: प्रकटदौर्बल्यं ततः स्फुटशब्दोद्धावित ततः स्फुटितवेणीबन्धन ततो भग्नप्लवगसैन्यं ततो भङ्गलज्जितानां ततो भिन्नाङ्गददेशा ततो भुजरभसाकृष्ट ततो मधुमदमुच्य ततो मायाभिः शरश्च ततो मुखमालवलमानाः ततो राक्षसपरिवारं ततो रामो मातलिना ततो रोषतुलितपर्वत ६४१ १३५ १३ K ६०५ K १६१ ५२३ १५ ६३५ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः तो वअपरिणामोणअ तो विलविअणि फन्द तो संचालिअसेलं तो संधतेण सरं तो सा भमन्तमारुअ तो साहसणिमाणं तो सुअरामागमणो तो सुरहिएहि समं तो से चिरमज्झत्थे तो से तमालणीलं तो से मुच्छाविहलो तो सेलसारगरुअं तो सेविहा तो सेविस मुव्वति तो सो खआणलणिहो तो हरिवइजसवन्थो तो हरिसपढमतुलिए परिणाहोत् थिमिओअहिसच्छाया थोअमउआअअट्ठिन आअह तिमिराइ अइ कुसुअं व माणं दक्खिण्णमेतदिण्णो दट्ठव्वचडुलणअणं दट्ठूण अ णं दुमिअहिअ दट्ठूण अ तं णिन्तं सदाणि अमूला वलन्ति दन्दरुहिरलग्गे जस्स दन्तेसु बलिअलग्गा श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा० ततो वयःपरिणामावनत ततो विलपितनिःस्पन्दां ततः सञ्चालितशैलं ततः संदधता शरं ततः सा भ्रमन्मारुत तत साहस निर्माण ततः श्रुतरामागमनः ततः सुरहृदयैः समं ततोऽस्य चिरमध्यस्थे ततोऽस्य तमालनीलं ततोऽस्य मूर्छाविह्वलो ततः शैलसागरगुरुक ततस्तस्य वियोग ततोऽस्य विषमोद्वर्तित ततः स क्षयानल निभः ततो हरिपतियशःपथो ततो हर्ष प्रथमतुलितां थ द दयते कुसुममिव मानं दाक्षिण्यमात्रदत्तो द्रष्टव्यचटुलनयना दृष्ट्वा चैनां दूनहृदय दृष्ट्वा च तं निर्यान्तं दृढ़सन्दानितमूला दनुजेन्द्ररुधिरलग्ने दन्तेषु बलितलग्नाः आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ૪ १७ १२१ ११ ८७ ४७७ ६ २३ २१ ५ २४ १५८ ११ ५ १० १४ १ ५ १५ १२ ५ ११ १५ ११ ८ स्तनपरिणाहावस्थगिते स्तिमितोदधिसच्छाया स्तोकमुकुलायतस्थित ११ स्तोकाहततिमिराणि ९ १ ६ १३ ११ ११ ११ १५ ६ ८ १११ १७ ४ २९ ૪૪ १४ ७२ २६ ३ ६ ७४ १६ २० ५९ ६१ ४२ ६२ ૪૪ १३ ४६ ५१ ४३ ४९ २ ४६ ४ ક १५५ ३६४. १०. ३ ९५. २६ २१५ १४८ BE U ३२९ ४५६ ३७४ ५७० ૪૪૧ ४५८ ४६१ ६५२ २१६ ३०६ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० श्लोकांशाः दप्पं न सहन्ति भुआ दरघfsorसेरबन्धा दरssढविद्दुमवणा दरणिग्गअस्स णवरि दरदाविअपाआलं दरalabarest दरडिसिप्पिसंपुड दर मिलिअचन्दकिरणा दरिअरक्खसामोअअं दलिअम हिवेढसि ढिला दहआकरे हे धरिआ दहमुहतणअविसज्जिअ दहमुहविसज्जिएण अ दाऊण गलिअवाहं दादाविभिणकुम्भा दिअसेण वणगएण दिट्ठति ण सहिअं दिट्ठम्मि पत्अिम्मि दिट्ठास मए सिविणे दिट्ठी अ मे दहमुहो दिणमणिमोहप्फुरिअं दिण्णमहिअम्पगरुअं दिप्पन्तदुरालोआ दिविआहअस्स समरे दी भग्गुच्छाहं दीवन्ति दो वि सरिसा दीसइ म तिमिरमिलिमो दीसइ अ तिमिररेइभ दीसइ कइणिवदुक्ख अ दीस कडअल्लीणो ates जुअक्खअम्मि ates दूरुप्प अं सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा० दर्पं न सहन्ते भुजाः दरघटित सेतुबन्धा दरदग्धविद्रुमवना दरनिर्गतस्यानन्तरं दरदर्शितपातालं दरधौतकेसरसटा: दरस्फुटित शुक्तिसंपुट दरमिलितचन्द्रकिरणा दृप्तराक्षसामोदकं दलितमहीवेष्ट शिथिला दयिताकराभ्यां धृताः दशमुखतनयविसृष्ट दशमुख विसृष्टेन च दत्त्वा गलितबाष्पां दंष्ट्राविभिन्नकुम्भाः दिवसेन वनगजेनेव दृष्टेति न श्रद्धितं दृष्टे प्रस्थिते चाप दृष्टासि मया स्वप्ने दुष्टश्च मे दशमुखो दिनमणिमयूखस्फुरित दत्त महीकम्पगुरुकं दीप्यमानदुरालोका द्विविदाहतस्य समरे दीनं भग्नोत्साह दृश्येते द्वावपि सदृशौ दृश्यते च तिमिरमिलितः दृश्यते च तिमिररेचित दृश्यते कपिनिवहोत्खात् दृश्यते कटकालीन दृश्यते युगक्षय इव दृश्यते दूरोत्पतित आश्वा• श्लोका० पृष्ठाङ्काः ३८ ३७ ८ ७ १५ १० १२ १३ १५ १२ ७ १ १४ ११ ११ १ १२ ४ १३ ૪ १० १० १२ ५२ २५ ६४ २० २१ ३७ ४४ ३६ ५२ ૨૪ ७० २८ २५ १४ ३८ ३ १२९ १३० १८ ५७ ८ ८२ ३६ १२ ३१ ५ ७२ ६० ३२ २६ ९७ ३०२ २७१ ६४४ २२५ २५३ ६१ ४१० ३६३ : ५२७ ५९३ ६६४ ५१५ २५५ ३९९ ३० ५९८ ४९६ ४६७ १७ ५२६ ११७ ५८८ ६१३ ३९८ ४०७ ५०४ २३० ३८८ ४०८ २०३ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः दीस पवणविण्वन्त दीसइ मअउलेहि दीसइ रमणिअरबलं दोसs वारं वारं दीस विदुमअम्बं दीसह वि वलाअन्तो दीसइ समोसिअन्ती दीसइ से महावह सन्तं अहिरामं दीसन्ति खुहिअसा अर दीसन्ति अउलणिहे दीसन्ति जोइसव दीसन्ति दरुत्तिण्णा दीसन्ति दिट्ठमहणा दीसन्ति धाउअम्बा दीसन्ति पवअवलिया दीसन्ति भिण्णसलिले दीसन्ति विrsधवला दहं रक्खसवणा दीहरसिहरालग्ग दीहा वलन्तविअडा दुक्खेण गोउराई दुच्चिन्ति आवसेसं दुण्णिमिअवामचलणं दुत्तारत्तणगरुइं थिर दुत्तारम्मिसमुद्दे दुमकुसुम मज्झणिग्गअ दुमभङ्गक लुसिआई दुव्वाश्वासवाउह दूरपरि पेल्लि अदिसं दूरसमुप्पइएण अ श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा दृश्यते पवनविधूय दृश्यते मृगकु दृश्यते रजनीचरबलं दृश्यते वारं वारं दृश्यते विद्रुमाता दृश्यतेऽपि पलायमानो दृश्यते समवसीदन्ती दृश्यते सेतुमहापथ दृश्यमानमभिरामं दृश्यन्ते क्षुभितसागर दृश्यन्ते गजकुल निभे दृश्यन्ते ज्योतिः पथे दृश्यन्ते दरोत्तीर्णा दृश्यन्ते दृष्टमथना: दृश्येते धातुताम्रौ दृश्यन्ते प्लवगवलिता दृश्यन्ते भिन्नसलिले दृश्यन्ते विकटधवला: दोघं राक्षसपतिना दीर्घशिखरा लग्नं दीर्घा वलद्विका दुःखेन गोपुराणि दुश्चिन्तितापदेशं दुनियोजितवामचरणं दुस्तारत्वगुर्वी स्थिर दुस्तारे समुद्रे द्रुमकुसुम मध्य निर्गत द्रुमभङ्गकलुषितानि दुर्वा वासवायुध दूरपरिप्रेरितदिशं दूरसमुत्पतितेन च आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ८६ ३२६ ६५ ३५६ ५२ ५७४ ३१ २५९ ३९६ ३८६ ८ ८ १३ ७ ८ ८ २ ८ १० ९ ८ ६ ६ ८ ११ ७. १२ ११ १२ ६ ४ १३ = १४ ९ १४ ८ ८६ ७ ८४ a ९० ४७ ७५ ५७ ४६ ९६ ४६ ७२ ११ २ २८ १२ ९० २० १६ १० ४४ ९३ ތ ५९ ७०१ ४ ८३ २८७ ३२६ ५४ ३२९ ४१५ ३५० १७५ १६९ ३३२ २१५ ३२० २८९ ४३५ ३५३ २४९ ५४५ ४४५ ५०९ १९४ १३६ ५९३ २८८ ६२२ ३४० ६३३ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ सेतुबन्धम् श्लोकांशाः आश्वा० श्लोका• पृष्ठाखाः २६२ १६४ १३ १५ ५.६ १९ दूराइद्ध णिअत्ता दुराइद्धणिअत्ते समुहा । दूरुद्धाइअसिहरं जल दूरोणअणक्खत्त अरुण दूरोवाहिअमूलं रवि दूसहमिअङ्कदंसण दूसहसहिअप्पहरा देइ अ रहपुञ्जइ देह रसं रिउपहरो देइ विलासवईणं सुहे देइ समत्तच्छा देहच्छविणिव्वलिए देहपरिणाहविअडे संस्कृतरूपा० दूराविद्धनिवृत्ता दूराविद्ध निवृत्ते संमुखा दूरोद्धावितशिखरं दूरावनतनक्षत्रमरुण दूरापवाहितमूलं दुःसहमृगाङ्कदर्शन दुःसहसोढ़प्रहारा ददाति च रथपुजित ददाति रसं रिपुप्रहारो ददाति विलासवतीनां ददाति समाप्तच्छायां देहच्छविनिर्वलिता देहपरिणाहविकटे ५८. १५ ५२ १. ४३२ ३२२ ११ ११ ४५ १२ १२ ४४१ १५ ३१ ६४६ م ه ७८ ७ ९ ६७ ३ ६११ २८० ३३९ २२० धअसिहरअिजल धणुवावारस्स रणे धरणिधरणे भुअ धरणिपडिएसु तेसु धरणिहरभारवेल्लिम धरणिहरेअव्वसहं धरणिहरेण अ चलि धरिअं वेओअत्तं धरिआ भुएहि सेला धारामग्गणिवाइ धारेन्ति जहस्सधुरं धावइ वेअपहाविअ धीरं परिरक्खन्ता धीरं व जलसमूह धीरं हरइ विसाओ धीराहि सारगरु धीरेण णिसाआमा ध्वजशिखरस्थितजल धनुर्व्यापारस्य रणे धरणिधरणे भुजा धरणिपतितयोस्तयो धरणिधरभारप्रेरित धरणिधर्तव्यसहं धरणिधरेण च चलितं धृतं वेगापवृत्तं धृता भुजैः शैलाः धारामार्गनिपातित धारयन्ति यशसो धावति वेगप्रधावित धैर्य परिरक्षन्तो धैर्यमिव जलसमूह धेयं हरति विषादो धीरात्सारगुरुकमल धैर्येण निशायामा م لہ سلم سلم عم عرس ७ १३ १३ ६ २६३ २७४ ५८५ ५१२ २४१ ५८ ७७ ४६ ९३ २ ४ ४ ५ १४ २३ ४५ ७ ५७ १२४ १३६ १५० Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ७०३ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ८ १५० ५ ८४ १८७ श्लोकांशाः धीरेत्ति संठविज्जइ धुअपब्वअसिहर धुअमेहमहुअराओ धुभवणराइकरअलं धुअविज्जुपिङ्गलाई धूमाअन्ति च्चि से धूमाइ जलइ विहडइ धूमाइ धूमकलुसे संस्कृतरूपा० धीरेति संस्थाप्यते धुतपर्वतशिखर धुतमेघमधुकरा धुतवनराजिकरतला धुतविद्युत्पिङ्गलानि धूमायन्त इवास्य धूमायते ज्वलति धूमायते धूमकलुषे ५२ १६ २९१ १८१ ५५१ ४४९ . १८८ r ४ २७ १२६ ४४० u १६३ . पअलम्भब्भहिअजवा पइमाहप्पणिसण्णा पइलम्भेण पओसो परखपरिरक्वणुट्ठिभ पङ् कुत्तरन्तलजिअ पच्चक्खा हि परोक्खं पच्छाअन्तस्स वि से पच्छा अ हित्यहिअआ पज्जत्तकमलगन्धो पज्जत्तरअणगब्भे पज्जत्तसलिलधोए पज्जत्तस्स समत्थं पडइ णु णहअल पडमाणिआहि सुइरं पणअपडिभङ्गविमणो पडिअस्स अ रहुवइणो पडिअस्स वि रहुवइणो पडिआ अ हत्थसिढि पडिए अ कुम्भअण्णे पडिगअगन्धपसारिअ पडिरुद्धन्तस्स वि से पडिवक्खस्स अ पदलम्भाभ्याधिकजवा पतिमाहात्म्यनिषण्णा पतिलम्भेन प्रदोषो पक्षपरिरक्षणोत्थित पङ्कोत्तीर्णलचित प्रत्यक्षास्परोक्षं कथ प्रच्छादयतोऽप्यस्य पश्चाच्च त्रस्तहृदया पर्याप्तकमलगन्धो पर्याप्तरत्नगर्भान् पर्याप्तस लिलधौते पर्याप्तस्य समस्तं पतति नु नभस्तल प्रथमानीताभिः सुचिरं प्रणयप्रतिभङ्गविमनाः पतितस्य च रघुपतेः पतितस्यापि रघुपते पतिता च हस्तशिथि पतिते च कुम्भकर्णे प्रतिगजगन्धप्रसारित प्रतिरुन्धतोऽप्यस्य प्रतिपक्षस्य च १ २५ ३११ ५५८ १५४ ५ १६ ३२ ६११ १४ ३७ ६१३ ५४ . १५ २२ ur ६४३ m " १०१ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ सेतुबन्धम् आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १३७ ३३ ६ ६ १४ ६१ ४४ २१ २२३ २१४ ६.६ . १०३ ३३५ ३८ ४१ ४८१ ११ १२ ९४ ९८ ५४९ ८४ २७ M श्लोकांशाः पडिवत्तिमेत्तसारं पडिवहपत्थिअसलिला पडिसन्तकण्णआलं पडिसमइ णहणिबद्धो पढमं रविबिम्बणिहा पढम विष मारुइणा पत्ता अ दहमुहाणि पत्ता अ फुडिअमणि पत्ता असीअराहम पत्तिहि अमरिसभरि पत्थन्ति आअरोसा पत्थाणच्चिअ पढमं पत्थिव तुमं मुअन्तो परघोलन्तक्खलिअं परिअम्भिकं उवगए परिणामदरुम्भिल्लं परिदेविउं पउत्ता परिमलिअदुमकुसुमा परिवड्ढइ विण्णाणं परिवड्ढन्तुच्छाहो पलहुअणीहारणिहं पल्हत्यन्ति वलन्ता पवअक्कन्तविमुक्कं पवअक्खोहिअमहिअल पवअबलेहिं राअसंजान पवअभुअगलत्थल्लिआ पवअभुमणोल्लिआणि पवआ करअलधरिए पवआहिवइविइण्णा पवएहि अणिरवेक्खं पवओवऊढकड्ढिअ संस्कृतरूपा० प्रतिपत्तिमात्रसारं प्रतिपथप्रस्थितसलिला प्रतिशान्तकर्णताल प्रतिशाम्यति नभो प्रथमं रतिबिम्बनिभाः प्रथममेव मारुतिना प्राप्ताश्च दशमुखानीत प्राप्ताश्च स्फुटितमणि प्राप्ताश्च शीकराहत प्रतीह्यमर्षभरितं प्रार्थयन्ते जातरोषाः प्रस्थान एव प्रथम पार्थिव त्वां मुञ्चन् परिघूर्णमानस्खलितं परिजृम्भितमुपगते परिणामदरोन्मील परिदेवितु प्रवृत्ता परिमृदितद्रुमकुसुमा परिवर्धते विज्ञानं परिवर्धमानोत्साहो प्रलघुकनीहारनिभं पर्यस्यन्ति वलमाना प्लवगाक्रान्तविमुक्त प्लवगक्षोभितमहीतल प्लवगबले रागसंजात प्लवगभुजगलहसिता प्लवगभुजनोदिता प्लवगा: करतल प्लवगाधिपतिवितीर्णा प्लवगैश्च निरपेक्षं प्लवगोपगूढकृष्ट ४१६ ७४ ४७२ ४१४ १२ Ita ६१ ५७८ १९ २५२ २३४ २०० x - २०७ r २३९ ६ ६ १९ ७५ ३९ २३१ २११ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशा : पवणन्दोलिअचन्दण पवनभरन्तदरिमुहं पवणसुअसितुरिअं पवणा अम्पिअसिहरा पवणा अपल्हस्था पवणुगा हिअजल पव्वअवडनाइद्धो जो पव्वअसिहरु च्छित्तं पसिढिल के सकलाओो पहरासाइअहरिसं पहरुज्जअपाइक्कं वीसज्जेहि महं पाअवसिहरुत्तिणो पाअवा अ पासल्ल पालभरिअमूलं पालमिलिअमूलो पाभालोअरगहिरे पासल्लन्ति महिहरा पासल्लपडिअवणगभ पासल्लागअसरिअं पासाअअं वहन्तं पासावडिअम्मि वि से पिअअमकण्ठोल इअं पिअअमवच्छे वणे पिअअम विओइआणं पिअअमवियोअदुक्खं freeमस हत्यपेसिअ पिपासाहि freतो पिहुलणिअम्बलक्ख पीणत्तणदुग्गेज्झ जस्स ४५ से० ब० श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा० पवनान्दोलितचन्दन पवनप्रियमाणदरीमुखं पवनसुत शिष्टत्वरित पवनाकम्पितशिखरा पवनातपर्यस्ता दरीषु पवनोद्ग्राहितजल पर्वत पतनाविद्धो य पर्वतशिखरोत्क्षिप्तं प्रशिथिल केशकलाप प्रहारासादितहर्षः प्रहारऋजुकपदाति प्रभो विसृज मां पादपशिखरोत्तीर्णा पादपाश्च पावयित पातालभृतमूलं पाताल मिलितमूलो पातालोदरगभीरे पावयन्ते महीधरा पार्श्वपतितवनगज पार्श्वगतसरितममुक्त पार्श्वगतं वहन्तं पार्श्वपतितेऽप्यस्य प्रियतमकण्ठावलगितं प्रियतमवक्षःसु व्रणा प्रियतमवियोजितानां प्रियतमवियोगदुःखं प्रियतमस्वहस्तप्रेषित प्रियपार्श्वान्निवृत्त: पृथुनितम्बतल पीनवदुर्ग्राह्यं यस्य अश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ९ ३४९ ७ २६७ ११ ४८६ १० ४१७ ३९० ९ ५ १२ १३ १२ १५ ६ ८ २ ረ ९ & १५ १२ १० ९ १२ १३ १० २० ४६ १.६ ५१ ९४ ३४ ४७ ९ ५ ४७ ९६ ९० ५७ ६२ 7 ८० १५ ४५ ६९ ५९ ૪૧ ४८ ६० ७१ ७०५ ९ ४० ६७ ५० ६९ ३०६ २४८ ५०९ ५७२ ५४८ ६७२ २२१ २२४ ३४१ ३२३ ५७ २१४ ३१७ ३४० ३७२ ६५३ ५२५ ४२१ ३७८ ५०५ ४५५ ४२५ १०४ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ श्लोकांशाः पीणपओ हरलग्गं पुण्णणइसोत्तसंहि पुरिससरिसं तुह इमं पुल उभे आअम्ब पुव्वावरोअहिगआ पुसिओ णु णिरवसेसं पुहवीअ होहि प पेच्छइ अ कणअपेहुण पेच्छ असरसोहरिअ पेच्छन्ताण समुद्द पेच्छन्ति अ वोलन्ता पेच्छन्ति अ सइसठिअ पेल्लिज्जन्ति दढअरं फडजीआरवमुहलं फsिहकिरणणिव फिडिआ सुरसंखोहा फुट्टन्तविदुमवणं फुरमाणजल पिंगल फेणकुसुमन्तरुत्तिष्ण फेणविस मंगराअं बज्झन्ति दहरहसुआ बन्धर णलो पि तक्खण बन्धवणेभहिओ बन्धुवहबद्धवेरं बलइ अमिअकुविओो बलम्म वितमणिवहे बहु मण्णइ बच्छअडं बहुलुद्धअघाउरअं सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा ० पीनपयोधरलग्नं पुण्य नदी स्रोतः संनिभः पुरुषसदृशं तवेदं पुलको दाताम्र पूर्वापरोदधिगता प्रोञ्छितो नू निरव पृथिव्या भविष्यति प्रेक्षते च कनकपिच्छ पश्यति च सरभसा पश्यतां समुद्रं चटुलो प्रेक्षन्ते च व्यतिक्रामन्त. प्रेक्षन्ते च सदासंस्थित प्रेर्यन्ते दृढतरं यत्र फ स्फुटजीवारवमुखरं स्फटिक किरण निवहै स्फेटिताः सुरसंक्षोभा स्फुटद्विमवनं स्फुरज्ज्वलनपिङ्गल फेन कुसुमान्तरोत्तीर्ण फेनविषमाङ्गरागां ब बध्येते दशरथसुतौ बध्नाति नलोऽपि बान्धवस्नेहाभ्यधिको बन्धुवधबद्धवैरं बलति अनकुपितो बहलेsपि तमोनिव बहु मन्यते वक्षस्त बहुलोद्धतधातुरज आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १ २४ ११ ८ १० ११ १४ ११ २ ८ ११ ८ ९ ४ ७ १४ 15 ३ १३ १० १० ११ ४ ३६ १०५ ५ ९५ ४२ ७८ ५८ ६१ ४३ ९८ ३९ ६० २७ ४६ ६४ * * * * ૪૦ २५ १६ ६४ २२ ३८ २८ ६४ ६३ ४० ४ ४ २१ ७० ४८५ १५५ ३३१ ४.२ ४७४ ६२२ ४६६ ७४ ३३३ ४५५ ३१३ १६० ३६५ १४५ १६६ २०३ २५१ ४६ ६०७ ३०२ ९१ ५८० ४२२ ४११ ४३७ ११४ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः बाणिहाउच्छित्ता arrन्धरिअदिसं बालाअवं व एतं बामलं पितो से fassaferम्भीरे बोलन्ति अ पेच्छन्ता भग्गदुमभङ्ग भरिओ भग्गपुरिल्लविसंठुल भग्गारामविओलं दलिउ भग्गोणिअत्तिअगअं भग्गो भुअम्मि फलिहो भाइ पवंगपुरओ भइ पवणाणुसारी भमइ समुक्खित्तकरं भमर भरोवत्ताइ भमररुअदिण्णसण्णं भमिओ अ तह धरा भमिरुभडकल्लोलं भरइ व दूराइद्धो भाअपडिओ वि वित्थ भिज्जइ उरो ण हिअअं भिज्जड महित्ति व भिण्णगिरिधाउअम्बा भिण्णघडन्तावत्तो भिण्णघडिज्जन्त घडं भिण्णतमदुद्दिण भिण्णमिलिअं पि भिण्ण सिलाअल सिहरा श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरू बाणनिघातोत्क्षिप्ता बाणान्धकारितदिशं बालातपमिवायद् बाष्पमलिनमपि द्वितीयोदधिगम्भीरे व्यतिक्रामन्ति च भ भग्नद्रुमभग्नभृत भग्नपुरोगविसंष्ठल भग्नारामविलोलां भग्नापनिवर्तितगजं भग्नो भुजे परिघो भणति प्लवंग पुरतो भ्रमति पवनानुसारी भ्रमति समुत्क्षिप्तकरं भ्रमरभरापवृत्तानि भ्रमरुतदत्त संज्ञ भ्रमितश्च तथा धरा भ्रमणशीलोद्भटक नियत इव दूराविद्धो भागपतितोऽपि विस्तृत भिद्यते उरो न हृदयं frani मही इतीव भिन्नगिरिधात्वाताम्रा आश्वा० भिन्नघटमानावर्त भिन्नघटयमानघटं भिन्नतमो दुर्दिनानि भिन्नमीलितमपि भिन्न शिलातल शिखराणि ५ १३ ३ १ १२ १ ६ १४ १२ १३ ૧૪ ८ १२ ७ १० १ ८ ५ १३ १३ ५ ८ १३ १० ७ श्लोका० पृष्ठाङ्काः ६१ ८८ ३४ ४३ ८० ५७ ७०७ ९५ ५३ ६९ ६९ ६७ १९ ७४ ५० १६ २८ ३१ ३ ६२ ९ ३६ २० ३७ ४ २४ ४४ २४ १४ १७७ ५९१ ९५ ३४ ५४० ४२ २४२ ६१९ ५३५ ५८२ ६२६ २९३ ५३७ २६९ ४०० २३ २९९ ४९ ३१४ ५.४ ५६७ १५६ १६५ २८५ ५६१ ४१२ २५५ २५० Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् मारवा० श्लोका० पृष्ठाखाः १४६ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० भिण्णुक्खित्तपरम्मुह भिन्नोत्क्षिप्तपराङमुख भिण्णुब्बूढजलभरा भिन्नोद्वयूढजलचरा भिण्णे वच्छम्मि सिला भिन्ने वक्षसि शिला भीअणिसण्णजलअरं भीतनिषण्णजलचरं भुमणस्स व महुमहणं भुवनस्येव मधुमथनं भुअणिब्वालिअकति भुजनिर्वालितकृष्ट भुजपडिअणिप्फल भुजपतितनिष्फल भुवइन्दलोअणाणं भुजगेन्द्रलोचनानां भेतूण तुरिअमुक्के भित्त्वा त्वरितमुक्ता १७३ ५९९ २७१ ३३८ ६१९ १४ १३ ५ १४ ५४ ९८ ७१ ४ ७१ १८२ ५९८ १० ४३ ४१३ २१५ २९१ ११० ६ २ ६२ १९० मंसलचिक्खिल्लणिहं मअरन्दगरुअवक्खं मइरा मुद्धमिअंको मउलेन्ति दिसाहोआ मझकरालाइ जहि मज्झक्खुडिउम्मूलिम मणिपहम्मसामोम मणिबन्धागअपुज्जिम मणिवाल तीरला मन्दरदढपरिमळं पल मन्दरपहरच्छलिए मन्दरमेहक्खोहिम मम्महधणुणिग्योसो मरगअमणिप्पहाहम मरणम्मि बन्धवाणं मलअचन्दणलाहरे मलअसुवेलालग्गो मलउच्छंगगएण वि मलउच्छंगपउत्तो मलिआ मलमणिअम्बा मांसलकर्दमनिभं हस्त मकरन्दगुरुकपक्षं मदिरा मुग्धमृगाको मुकुलामन्ते दिगाभोगा मध्यकरालानि यत्र मध्यखण्डितोन्मूलित मणिप्रहर्मश्यामोदकं मणिबन्धागतपुञ्जित मणिपालयं तीरलता मन्दर दृढ़परिमृष्टं मन्दरप्रहारोच्छलिता मन्दरमेघक्षोभित मन्मथधनुनिघोषः मरकतमणिप्रभाव मरणे बान्धवानां मलयचन्दनलता मलयसुवेलालग्नः मलयोत्सङ्गगतेनापि मलयोत्तसङ्गप्रवृत्त मदिता मलयनितम्बा २ १ २ ११ ३५ २९ २२ ५५ ७० २४ ६१ ४६३ २६४ r ३२६ m ३२५ ४८३ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा० श्लोकांशाः आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १३ १५ ९१ ६७३ سلم عمر ३२. ३२१ ४ २१ १२३ १३७ ८६ १५८६३८ १२९ १८ ४७९ मसिणिअसिहरुच्छंगो मसृणितशिखरोत्सङ्गो महणासामविमुक्क मघनायासविमुक्त महिअलपडिअविसं महीतलपतित महिमलमोइण्णेण अ महीतलमवतीर्णेन महिहरपहरक्खोहिम महीधरप्रहारक्षोभित महिहरपहरुच्छित्ता महीधरप्रहारोक्षिप्ता महुमहहत्पम्मि मए मधुमथनहस्ते मया मामामोहम्मि गए सुए। मायामोहे गते श्रुते माणेण परिट्ठविआ मानेन परिस्थापिता मा मुञ्चह समरधुरं मा मुञ्चत समरधुरा मा रज्जह रहस चिय मा रज्यत रभस एव मा रुमसु पुससु मा रोदीः प्रोञ्छ मारुअमोडिअविडवं मारुतमोटितविटपं मा सासअसोडीरं मा शाश्वातशोटीयं मा सोइज्जउ दुहिया मा शोच्यतां दुःखिता मिलिअणिसावर मिलितनिशाचर मिलिअसमुद्दद्धन्ते मिलितसमुद्रार्धान्ता मीणउलाइ अविभ मीनकुलान्यपि च मुअइ अ किलिन्त मुञ्चति च क्लाम्यत् मुमइअ सअम्भुदिपणे मुञ्चति च स्वयम्भू मुअइ भरेइ णु मुञ्चति बिभर्ति नु मुक्कसमुदुच्छंगा मुक्तसमुद्रोत्सङ्गाः मुक्कसलिला जल मुक्तसलिला जल मुच्छाविअजुवइजणो मूच्छितयुवतिजनो मुत्तालमं तिअस मुक्तालयं त्रिदश मुहपुञ्जिअग्गिणिवहा मुखपुञ्जिताग्निनिव मुहलघणविप्पइण्णं मुखरघनविप्रकीर्ण मूढहिअआइ दटुं मूढ़हृदयया द्रष्टु मूलाहोअकराला मूलाभोगकरालाः मूले वहलुग्धाओ मूले बहलोद्धातं ११ १ ६ १२ ९८ ३२ ६५ २५ ४८२ ३५५ २२६ ५१४ २६ १२ ३८ ५ २ ११ १३ ७२ ५ ७३ ५७ १८२ ५० ४७१ ५७७ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्का: - - १० २८ मेल विअसव्वदिसं मोडिअपम्वाअदुमे मोडिअविदुमविडवा मोत्ताघडन्तकुसुमं मोत्तूण अ रहुणाह सेतुबन्धम संस्कृतरूपा० मेलितसर्वदिगा मोटितप्रवानद्रुमा मोटितविद्रुमविटपा मुक्ताघटमानकुसुमं मुक्त्वा च रघुनाथं ५ ४९ ८ ६ ११ १२५ ३७४ १७१ २८६ ४९५ १२५ ३०७ ३४ १. ५५८ ५५४ ५६ रअणच्छविविमल रत्नच्छविविमल रअणच्छविहुम्वन्तं रत्नच्छविधाव्यमानं रमणाअरपरभाए रत्नाकरपरभागे रअणिमरबद्धलक्खो रजनीचरबद्धलक्ष्यो रअणिअरोरत्थल रजनीचरोरःस्थल १३ रअणिआसु दुरुग्गज रजनीकासु दूरोद्गत रअणीसु उव्वहन्तं रजनीदहन्तमे रइअरकेसरणिवहं रविकरकेसरनिवहं रइणा वि अणुच्छण्णा रविणाप्यनुत्क्षुण्णा रक्खसवहदुब्वोज्झो राक्षसवधदुर्घात्यः रक्खिज्जइ तेल्लोक्क रक्ष्यते त्रैलोक्यं रणपरिसक्कणविहला रणपरिमर्पणविह्वला रणरहसपत्थिआणं रणरभसप्रस्थिताना १२ रणसण्णापडि उद्धा रणसंज्ञाप्रतिबुद्धा १२ रम्म अन्दराअच्छ रम्यचन्द्ररागच्छदं रविरहतुरंगमाणं वाआ रविरथतुरङ्गमाणां रसइ गिरिघाअभिण्णो रसति गिरिघातभिन्न रसइ णहम्मि णिसिअरो रसति नभसि निशिचरो १४ रसइ रसाअलं दलइ रसति रसातलं दलति रसणिवाओरत्थल रसनि तोर:स्थल रहसंघट्टस्खलियं रभसङ्घट्टस्खलितं रहसंदाणिअतुर रथसंदानिततुरगं रहसपलित्तुच्छलिओ रभसप्रदीप्तोच्छलितो ५ रहसल्लिअन्तगन्वि __ रभसाल्लीयमानगवित १२ ७२ ४६ ५२४ ३६५ ३५३ २६. २७७ ६७ ७१ ५८३ १८. ५३६ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ७१ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाखाः २७५ १२१ ६६२ १८५ N४ 0 0 श्लोकांशाः रहसविसज्जिएक्क रहुणाहपेसिएण अ रहुणाहस्स वि दिट्ठी रहणाहस्स वि बाणो रहुणाहो वि सधीरं रामसराणलपवित्र रामस्स रावणस्स अ रामो संधेइ सरं राहवपत्थिज्जन्तो रिउगअभिण्णु क्खित्ता रिउणअरि ति सरोसं रिउपहरणपरिओसिम रिउवलमज्झणिराया रिउसूलदूमियोहीर रुन्दावत्तपहोलिर रुम्भवन्तीण पिअअमे रुम्भन्तुज्जुअमग्गं रोसपुसिाहराणं रोसस्स दासरहिणो रोसाणलपज्जलिदं रोसेण चिरप्परूढे संस्कृतरूपा० रभसविसृष्टके . रघुनाथप्रेषितेन च रघुनाथस्यापि दृष्टि रघुनाथस्यापि बाणो रघुनाथोऽपि सधैर्य रामशरानलप्रतापित रामस्य रावणस्य च रामः संदधाति शरं राघवप्रार्थ्यमान रिपुगजभिन्नोरिक्षप्ता रिपुनगरीति सरोषं रिपुप्रहरणपरितोषित रिपुबलमध्यनिरायता रिपुशूलदुःखितावह्रिय स्थूलावतंप्रघूर्णमान रुन्धतीनां प्रियतमान रुध्यमानजुकमार्ग रोषप्रोग्छिताधराणां रोषस्य दाशरथे रोषानलप्रज्वलितं रोषेण चिरप्ररूढ़े ५५७ ३९४ १० ३ १३ ११ mar पर १२ m xxxxxx In Vor morU ५. १० १३ IN १२ ६१ ५३१ ११ ७ ११२ ४८ ४८८ २६४ १४ लक्खिज्जन्त बिसावा लक्खिज्जन्ति समुद्दे लड़ावेढणतुरिओ लङ्घिअपाआरस्स अ लद्धगलन्तासायं लद्धासाएणं चिरं लवणजलसीहराब लहुइअकोत्थुहविरह लक्ष्यमाणविषादा लक्ष्यन्ते समुद्रे लङ्कावेष्टनत्वरित लचितप्राकारस्य च लब्धगलदास्वाद लब्धास्वादेन चिरं लवणजलशीकराहत लघुकृतकौस्तुभविरह १० ४ ५८ ६३ ४२० १४५ १९१ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सेतुबन्धम् भाश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः श्लोकांशाः लहुइअपेसणहरिसि लोअणबइअरलग्गं लोअणवत्तन्तरिए संस्कृतरूपा० लकुकृतप्रेषणहर्षित लोचनव्यतिकरलग्नं लोचनपत्रान्तरितान ३२३ ६ ६८ ४८४ २२८ م ११ ४४ ४५७ ४२ ९९ س ت ७८ ३१ م २०६ २६४ م م ० mu م م २८७ م م ५२८ म ४१९ वअणं समुन्वहन्ति वच्चइ अचडुलकेसर वच्चह लक्खणसहिम वच्चन्ता अइभूमि वच्छम्भरन्तुच्छङ्गे वन्धुत्थविअकडआ वज्जभ धरणिहरा वडवामुहसंतावे भिण्ण वड्ढइ पवअकलअलो वणगअगन्धारोसिस वणगअगन्धुत्तिण्णा वणविवरेसु करालं वम्महपरव्वसाइं रामा वलमाणम्मि महुमहे वलमाणुव्वत्तन्तो एक्कं ववसाअरइपओसो ववसाअसप्पिवासा ववसिअणिवेइअत्थो वहइ पवंगमलोओ वहइ पवंगमलोओ वहइ व महिअलभरिओ वहइ विवलाअणि वाणरपरंमुहोणामि वाणरपहरुक्वडिआ वाणररहसविसज्जि वाणरवेनाइद्धा वदनं समुद्वहन्ती व्रजति च चटुलकेसर व्रजत लक्ष्मणसहितं व्रजन्तोऽतिभूमि वक्षोभ्रियमाणोत्सङ्गे वक्षउत्तम्भितक टका व्रजभयं धरणिधरा वड़वामुखसन्तापाद् वर्धते प्लवगकलकलो वनगजगन्धारोषित वनगजगन्धोत्तीर्णाः व्रणविवरेषु करालं मन्मथपरवशानि वलमाने मधुमथने वलमानोद्वर्तमान व्यवसाय रविप्रदोषो व्यवसायपिपासाः व्यवसायनिवेदितार्थः वहति प्लवंगमलोकः वहति प्लवंगमलोकः वहतीव महीतलभृतो वहति विपलायमाननिद्रं वानरपराङ्मुखावना वानरप्रहारोत्खण्डिता वानररभसविसजित वानरवेगाविद्धाः م م ३८८ م م १ ३ १४ २१ س ८८ १४२ ه م २३७ ه १० ३० ४०७ ه १३ १३ १३ ७ ७५ ३३ ५४ १० ५२२ ५०५ ५६५ ५७५ २४८ . Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकांशाः वामं णिसिअ णअणं वामभुअग हिअपग्गह वामो पसारिअ चिम वालितणअं ण पावइ वालिवदिसारं वाहं ण धरे मुहं वाहुद्ध तुज्झ उरे विभडगिरिकसंहि विअडाहरन्तरानं विअलन्तदुमच्छेआ विमलन्तोज्झरलहुआ विअलिअणिअअच्छाब विअलिअलज्जालहुवं fares धवलाभम्बं विअसन्तरअक्खजरं विकसित मालणीलं विक्खित्तलोद्धकुसुमं बिच्छड अण्णनिहा बिच्छूढो अहिस लिनं वित्थ असर कमलसिरे fares से बन्धो विमल अरसा लेण विरहम्मि तुज्झ धरिअ विवरं ति परिरिज्जइ विवला अन्तभुग विसमपरिसं ठिहि विसमम्मि वि अवि विसमा लग्गदुअवहा विसमुग्गाहिमहरं विस मुल्ला लिअपरिमले श्लोकानुक्रमणिका संस्कृतरूपा वामं निशिचरनयनं वामभुजगृहीत प्रग्रह वामः प्रसारित एव बालितनयं न प्राप्नोति बाविधदुष्टसारं बाष्पं न धारयति बाष्पोष्णं तवोरसि विकटगिरिकूट संनिभ विकटाधरान्तरालं निगलद्दु मच्छेदाः निगलन्निर्झरलघुकाः : विगलितनिजकच्छायं विगलितलज्जालघुक विकसति धवलाताम्र विकसद्रजः कलुषं विकसितत मालनीलां विक्षिप्तलोधकुसुमं विच्छदितचूर्णनिभा विक्षिप्तोदधिसलिलं विस्तृतसर: कमल श्चिरस : विस्तीर्यते सेतुबन्धो विमर्दितरसातलेनापि विरहे तव धृतं द्रक्ष्यामि विवरमिति परिहियते विपलायमानभुजंग विषमपरिसंस्थित विषमेऽप्य विषण्णो विषमालग्न हुतवहा विषमोद्ग्रा हितमधुरं विषमोल्ललितपरि ७१३ आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १५ ६६७ १५ ६५४ १५ ६६३ ५९२ ४९६ १३ ११ १ ११ १२ ४ १४ ७ १० ११ १० ६ १ १३ १० ६ ८ ८ ९ ११ १० १४ ११ ७७ ४९ ६९ ९० १२८ ८२ ७६ ७ ११ ७८ २१ ५३ १२७ २० ११ ६३ ६ १ ४६ ८ ४४ ७१ ७ ७७ ५५ ६० ५५ ३६ ८ ७ ६८ ४७५ ४७३ ५३९ ११८ ६३१ २५४ ४१८ ४१६ ४०२ १९५ ४५ ५६२ ४१६ ३४२ ३०५ ३१६ ३४१ ४७३ ४१९ ११० ३७० ९६ ६०० ४३८ ३७७ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ श्लोकांशाः विसमेण पअइविसमं विसमोसरिअशिला विसरिअविओअदुक्खं विसवेओ व्व पसरिओ विसहरबाण त्ति इमे विसहिअलग्ग पहरा विसहिअस्वग्ग पहरा विसहिअपठमप्पहरो विसहिअवज्जप्पहरा विहन्तं पि समत्था विहडन्तधरणिबन्धो विहडन्तरायणिअलं विहडन्तो उउडवलं विलव्वत्तभुअंगा विण वेलं व महि विन्ति चलिअविवे बिणन्ति बिहुव्वन्ता विन्ति विब्बन्ता विहुलपवाल किसल बीईपडिऊलाहअ बीसमउ तुम्ह चावं वीसम्भवढिबरसं वेrपडिएण तेण antविद्धवलन्ता उक्खदुमणिव वेक्खलिउद्धाइब der गहिअसेलं artasaण अ भोवत्तिअविडवं वेरारणिपज्जतिओ सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा ० विषमेण प्रकृतिविषमं विषमापसृतशिला विस्मृत वियोग दुःखं विषवेग इव प्रसृतो विषधरबाणा इतीमे विसोढ़खड्गप्रहारा विसोढ़खड्गप्रहारा विसोढ़प्रथम प्रहारो विसोवज्रप्रहारा विघटमानमपि समर्था बिघटमानधरणिबन्ध विघट्टमान रागनिगढ़ विघटमानोष्ठपुटदसं विह्वलो वृत्तभुजङ्गा विधुनोति वेलामिव विधुन्वन्ति चलितविटपा विधूनयन्ति विधूयमाना विधूनयन्ति विधूयमानाः विद्युतप्रवालकिसलयं वीचिप्रतिकूल हत विश्राम्यतु तव चाप विश्वम्भवधितरस वेगपतितेन तेन वेगाfवद्धवलन्तो वेगोत्खातमनिवहां वेगोरखण्डितोद्धावित वेगेन गृहीतशे जं वेगाव पतितानां वेगापवर्तित बिटपं वैरारणिप्रज्वलित आश्वा• श्लोका० पृष्ठाङ्काः ८ ८ ११ ५ १४ १३ १३ १५ ६ ४ १० ४ ७ १३ ८ ७ ८ १५ १२ १५ 19 ७ ६ १४ १ ८९ ६७ ५८ ५० ५६ ३८ ४३ ४६ ૪ ७ २४ ६ ६० १७ ५ ३५ ३५ २७ ७० ५६ १३ ६५ २६ ६२ ३५ ९६ २६ ७४ ५१ ३२८ ३१७ ४६४ १७१ ६२१ ५६८ ५७० ६५४ २०७ ८४ ११६ ४०४ ११६ १७६ २५१ ५५२ २०८ ३०१ २५६ ३१७ ६५८ ५०७ ६६१ २५८ २४० २६१ २४३ २०५ ६२६ ३८ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ७१५. श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः vv - ५8 ३१२ ४५ वेलाअडसंबद्धा वेलालाणणिअलिओ वेवइ जस्स सविडि वेवइ पडिओ बि भुमो वेवइ पेम्मणिअलिब वेवन्ति णिण्णमाणं वेवन्ति विहुअमच्छा वेविर पोहराणं वोच्छिब्जन्तकलअलं वोच्छिण्णसंधिअजसा वोलन्तजलहरस्स व बोलीणो मअरहरो बेलातटसम्बद्धा वेलालाननिगड़ितो वेपते यस्य सवीडं वेपते पतितोऽपि वेपते प्रेम निगडितं वेपन्ते निम्नगानां वेपन्ते विधुतमत्स्याः वेपन शालिपयोधराणां व्यवच्छिद्यमानकलकलं व्यवच्छिन्नसंहितयशसो व्यतिक्रामज्जलधर व्यतिक्रान्तो मकरगृहो ५ ४८ १७० ५६. १७६ १६६. - २३६ - - २८६ 0 0 ११ १२ १४ ५०० - 6 ७ १२ ३२ २४९ १७५१० - १०. संकन्ताहरराअं संबउलधवलकमले संखोहभिण्णम हिमल संखोहिअकमलसरो संखोहिअमअरहरो संखोहिअमहिवेढो संचरइ वाणरबलं संचालिअणिक्कम्पा संचालेइ णिसम्बं संचालेइ समुद्दो संझाअवमुच्चन्तं संझाराअत्थइमा संणज्झन्ति कुउरिसा संणज्झन्ति समत्था संदेहेषु हसिज्जा संपत्थिना अ संभम ३३३ २२६ संक्रान्ताधररागं शङ्खकुलधवलकमले संक्षोभभिन्नमहीतल संक्षोभितकमलसराः संक्षोभितमकरगृहः संक्षोभितमहीवेष्ट: सञ्चरति वानरबलं सञ्चालितनिष्कम्पा सञ्चालयति नितम्बं सञ्चालयति समुद्रो सन्ध्यातपमुच्यमानं सन्ध्यारागस्थगिता सन्न ह्यन्ति कुपुरुषाः सन्नह्यन्ति समर्था सन्देहेषु हस्यते सम्प्रस्थिताश्च संभ्रम Ans - . ४०३ ४०३ ५१८ १२ ३३ 2 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ सेतुबन्धम् श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः १०६८ ५७७ ४२५ २४. ४६३ ९३ * १m: " rms ७ १२२ ३०३ संमीलइ कुमुअवणं संरुम्भइ दिट् ठवहं सअणेसु पणअकलहे समरंग विद्दुम सअल महिवेढविअंडो समला निसाअरपुरी समलुज्जोइअवसुहे साइसंघिअणिन्तसरं सइ संधिओ च्चिम सग्गं अपारिजा सत्ताआण गन्धो स पुरिसपाअडवहं समझ पवअविमुक्के समयं वच्चेइ सरे समरतुरिअस्स सुक समरतुरिओ विसूरइ समुहपडन्त विअड समुहमिलि वि जाहो समुहमिलिएक्कमेक्के समुहालोमण विडिअं सरघाअरुहिरकुसुमो सरणिभिण्णसरीरा सरमुहविसमप्फलिआ सरविक्किणण्णमहि सरवेअगलत्थल्लिम सरसीविओरजुअलं सरहिहत्थमलाहन सरहो वि दरिमुहग्गम सरिआ सरन्तपबहा सम्मीलति कुमुदवन संरुणद्धि दृष्टिपथं शयनेषु प्रणयकलहे सतरङ्गक विद्रुम सकलमहीवेष्टविकटः सकला निशाचरपुरी सकलोद्योतितवसुधे सदासन्धितनिर्यच्छर सदा संहित एव स्वर्गमपारिजातं सप्तच्छदानां गन्धो सत्पुरुषप्रकटपथं समकं प्लवगविमुक्तान् समं वञ्चयति शरान् समरत्वरितस्य सुकृतं समरत्वरितः विद्यते सम्मुखपतद्विकट सम्मुखमिलितमपि सम्मुख मिलितकैक सम्मुखालोकनवीडितां शरघातरुधिरकुसुम शरनिर्भिन्नशरीरो शरमुख विषमफलिता शरविकीर्णमहीधराः शरवेगगलहस्तित शरस्यूतोरुयुगल सारथिहस्ततलाहत शरभोऽपि दरीमुखोद्गत सरितः सरत्प्रवाहा ५१९ ७ ५१ २७० ४८७ १०८ ४६१ ६ १४ ७ २७ १६३ ६०९ १५६ ६०९ ४ ६ ९ ५० ११७ २१७ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० आश्वा• श्लोका० पृष्ठाङ्काः २६ ६४ २४६ ६९ rm""- ४६९ ११५ ७२ ५८४ ६५५ ५. २२ ३४३ ४२८ » सरिसंकुलं महुमह सरित्संकुलं मधुमथन २ सलिलत्यमिअमहिहरो सलिलास्तमितमहीधरः सलिलदरधोअकुसुमं सलिलदरधौतकुसुमां सव्वङ्गणिमण्णाअ वि सर्वाङ्गनिषण्णाया अपि सव्वस्स अ एस गई सर्वस्व चैषा गतिर्न ११ ससइ विसमुद्धकम्प श्वसिति विषमोर्ध्वकम्पं ससिणिहसतुसारोल्लिम शशिनिघर्षतुषारादित १५ ससिपुरओ पसरिअसं शशिपुरतः प्रसृतकं ९ ससि बिम्बपासनिहसण शशिबिम्बपाश्र्वनिघर्ष ससिमऊहपडिपेल्ल शशिमयूखपरिप्रेरण सहइ पहरेसु दप्पो सहते प्रहारेषु दर्पो सहवढि सहिं विज सहवधितां सखीमिव सहसालोअविरावं सहसालोकविशीणं ११ सहिअपहरं णलेण सोढ़प्रहारं नलेना १३ सहिअम्मि रामविरहे सोढ़े रामविरहे ११ सहिअलहत्याहि मुहं सखीजनहस्तान्मुखं सहिआ रक्खसवसही सोढ़ा राक्षसवसति ११ सहिओ तुज्झ विओमओ सोढ़स्तव वियोगो साअरदसणहित्था सागरदर्शन त्रस्ता साअरलद्धत्थाहं णिमेन्ति सागरलन्धस्थाचं साणलसरणिद्दारिम सानलशरनिर्दारित सास इ विमुक्कमाणो शास्यते विमुक्तमानो साहइ से संतावं शास्त्यस्य संतापं साहसु ज चिम शाधि यैव प्रथम साहेइ रिउ व जसं साधयति रिपुमिव सिद्धअणो भएण मुञ्चइ सिद्धजनो भयेन मुञ्चति सिप्पिउडमउलिमच्छि शुक्तिपुटमुकुलिताक्षीं सिहराइ गिआइ णहं शिखराणि नीतानि सिहराम भुअसि रेहिं शिखराणां भुजशिरोभिः ६ ७० ८५ ११४ ४०१ ४२९ ७४ १०४ ४७५ ४० ३०३ १८७ १०३ ४८४ ४९ ६५ २२२ २२३ ६० Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्लोकांशाः सिहरालीणमिअङ्क सिहिणा अविज्जन्ते सीओविओअदुक्ख सीमा हिमहिअएण सीहा सहन्ति बन्धं सुअसणारवतुरिया विहि सुग्गीवेण अङ्गो सुद्धसहावेण फुडं सुर असुहद्धम उलिअं सुरगअणिहस्स रद्दणो सुरपहरणघाअसहं सुरबहूण हिअअट्ठि सुरसमर दिट्ठसारो सुरसमरुच्चच्छन्दा सुहसंमाणिअणिद्दो सेलणिअम्बालग्गा सेलहरुव्विआइअ सेलसिलाहआ समुद्दो सेला सिहरसंखोहिअ सेलाइञ्छणपडिआ सेलुद्धरणारोसिअ सेलुम्मूलन संभम सेलेसु सेलतुङ्गा सेलोज्झरेहिं गभणे सेवन्ति तीरबड्ढिअ सेससिर अणघट्टि सोअइ अ णं हुवई सोऊन इन्दइवहं सोऊण समुत्तिणं सेतुबन्धम् संस्कृतरूपा० शिखरालीनमृगाङ्क शिखिना प्रताप्यमाने सीतावियोगदुःखं सीताहितहृदयेन सिंहाः सहन्ते बन्धे श्रुतसंज्ञारवत्वरिताः सुग्रीवस्यापि हृदयं सुग्रीवेण प्रजङ्घः शुद्धस्वभावेन स्फुटं सुरतसुखार्धमुकुलितं सुरगजनिभस्य रवेः सुरप्रहरणघातसहं सुरवधूनां हृदयस्थित सुरसमरदृष्टसारो सुरसमरोच्छन्दा: सुखसंमानितनिद्र शैलनितम्बालग्नाः शैलप्रहारोद्वेदित शैलशिला हताः समुद्रो शैलशिखरसंक्षोभित शैलातिक्रमपतिता: शैलोद्धरणारोषित शैलोन्मूलन संभ्रम शैलेषु शैलतुङ्गा शेल निर्झरैगंगने सेवन्ते तीरवर्धित शेषशिरोरत्नघट्टित शोचति चैनं रघुपति श्रुत्वा इन्द्रजिद्वधं श्रुत्वा समुत्तीर्ण आश्वा० श्लोका० पृष्ठाङ्काः ५ १२ १५ ३ १२ १ १३ ૪ १० १० १२ ९ १२ १२ १ ६ १३ ७ ७ ८ ६ ८ ६ १३ १ ९ १ १५ ८ ११ ७५ २३ ९ २२ ४९ ४६ ८१ ६१ ६१ ६३ ४० ५५ ५३ २१ ५५ २६ ६० ४३ ९४ ६६ ६८ ८८ m ३६ ६ १ ९ ४१ ३८ १०४ ३४३ १८४ ५१३ ६३८ ८८ ५२६ ३५ ५८८ १४४ ४२१ ३९५ ५३२ ३५९ ५२८ ५२७ १९ २२० ५६२ २७६ २६५ ३३१ २२९ ३ ७ २३८ ५६७ ४४ ३४२ ३३ ६५० ३३५ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका ७१६ श्लोकांशाः संस्कृतरूपा० भारवा० श्लोका० पृष्ठाकाः ४० ५१ १६२ ११ ६३ सो करअलजलिगओ सो जलिऊण णहमले सोडीरेण पावो सो मुच्छिउठ्ठिआए सो रोषण रहेण व सो वि अ जम्भाअन्तो सो वि अपवणसुआ सोसिअदुमा रइवहा सोहइ विसुद्धकिरणो सोह व्व लक्खणमुहं स करतलाञ्जलिगतो स ज्वलिता नभस्तले शौण्डीर्येण प्रताप ततो मूर्छितोत्थितायाः स रोषेण रथेनेव सोऽपि च जृम्भायमाणो सोऽपि च पवनसुता शोषितद्रुमा रविपथा शोभते विशुद्धकिरणो शोभेव लक्ष्मणमुखं ६२४ १४ १५ ६५४ १ २२ १० १ ४८ ३६ १२ १५२ १३१ UV १३२ ५९० ५८९ ८३ हंसउलसद्दमुहलं हमहत्थिभडतुरङ्गा हणुमन्ताइसएणं हत्थिगमवरिअरारं हत्थेण वाहगरुइअ हन्तु विमग्गमाणो हन्तूण जम्बुमालि हन्तूण वज्जमुर्दिछ हरिअवणराइ पिस हरिणा बलिमहिहरणे हरि अक ढिअमुक्का हरिसणिराउण्णामिअ हरिसपरिआम्भएण हिअअपडणे व्ब हिमपडनौरथइआई हिमसीअले वहन्तं हीरन्तमहिहरा हिं हुंकारेण सहाए हंसकुलशब्दमुखरम् हतहस्तिभटतुरङ्गा हनुमदतिशयितेन हस्तिगतवृत्तराम हस्तेन बाष्पगुरुकृत हन्तु विमृग्यन् हत्वा जम्बुमालिनं हत्वा वज्रमुष्टि हरितवनराजिपिशु हरिणा बलिमहीहरणे हरिभुजकृष्टमुक्ता हर्षनिरायतोन्नामित हर्षपरिजृम्भितेन हृदयपतन इव हिमतपनावस्थगितानि हिमशीतलान्वहन्तं ह्रियमाणमहीधरराभि हुंकारेण सभायां ७२ ११९ १४ ३४ ६१२ ३७६ २३५ ६३६ १५ ४ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतुबन्धम् श्लोकांशाः हुअवहपडित्तगोविन हुअवहभरिअणिअम्बा होइ अपाअडदोहा होइ कमलाअराणं होइ णहलवणसहं होइ णिरामअलम्बो होइ थिमिमम्मि होत्तं लइ रामसिरं होन्ति गरुआ वि होन्ति पवणाहबाई . संस्कृतरूपा० हुतवहप्रदीप्तगोपित हुतवहभृतनितम्बा भवत्यप्रकटदीर्घा भवति कमलाकराणां भवति नभोलङ्घनसहं भवति निरायतलम्बो भवति स्तिमिते भवद्यदि रामशिर भवन्ति गुरुका अपि भवन्ति पवनाहतानि आश्वा० श्लोका• पृष्ठाङ्काः १८६ ५ ६४ १७८ १. २१ ४०२ ५१२ १० ३८ ४१० ४१४ ५ ७८ १८५ ११ १३२ ४९८ ६ ७६ २३२ ५०५ * * .. " १२ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन आर्यासप्तशती। श्रीविश्वेश्वरपण्डितविरचिता / ग्रन्थकर्तृकृतव्याख्यासंवलिता। सम्पादक-पण्डित विष्णुप्रसाद भण्डारी।। उदारराघवम् / कविमल्ल-मल्लाचार्यप्रणीत 'विषमबोधाख्य' संस्कृत टीका सहित।सम्पादक-डा० सुधाकर मालवीय काव्यमञ्जूषा / रत्नावलीगद्यकाव्य-कामकन्दलानाटक-श्रीकालिकामदाक्रान्ताशतक धर्माधिकारीवंशवर्णन श्रीरेणुकास्तोत्रनाम्नांग्रन्थरत्नानांसंग्रहः काव्येन्दुप्रकाशः। कामराजदीक्षितप्रणीतः / सं०- श्रीबाबूलाल शुक्ल शास्त्री हिन्दी-दशरूपकम्।धनञ्जयकृतम् / धनिककृतम् ‘दशरूपकावलोक' टीका सहित / उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत ।व्याख्याकार-डॉ० सुधाकर मालवीय पण्डितराज जगन्नाथ ग्रन्थावली / विमर्शमयी बालक्रीड़ा' हिन्दी व्याख्या सहित। व्याख्याकार-आचार्य मधुसूदन शास्त्री।प्रथम भाग प्राणाभरणम्-जगदाभरणम् / पण्डित जगन्नाथ विरचित / 'बालक्रीड़ा' हिन्दी व्याख्या विभूषित।व्याख्याकार-आचार्य मधुसूदन शास्त्री भागवतचम्पू। श्रीमदभिनवकालिदासविरचित / भाषा टीका सहित अनु. श्रीहरिदत्त शास्त्री / सम्पादक श्रीनिवास शर्मा मेघदूतम् / सान्वय'इन्दुकला' संस्कृत-हिन्दी व्याख्या, टिप्पणी (नोट्स) सहित। व्याख्याकार-श्री वैद्यनाथ झा। वरदराजस्तवः। श्रीमदप्ययदीक्षितेन्द्रविरचितः / तेनैव विरचितया संस्कृतव्याख्यया समुद्भासितः। डा० ओमप्रकाश पांडेय कृत हिन्दी टीका एवं विस्तृत भूमिका सहित विद्वद्विभूति / (संस्कृत के 18 महान् विद्वानों की जीवनी) श्रीरामचन्द्र झा शिशुपालवधम्।म० म० कोलाचल-मल्लिनाथ-सूरिकृतया सर्वकषा'ख्यया व्याख्यया समुल्लसितम्। सम्पादक-पण्डित दुर्गाप्रसाद एवं पण्डित शिवदत्त सुवृत्ततिलकम् ।महाकविक्षेमेन्द्रकृतम्।'प्रकाश' हिन्दी टीका सहित / पण्डित ब्रजमोहन झा सुर्जनचरितमहाकाव्यम्। महाकवि चन्द्रशेखरविरचितम्। चन्द्रधर शर्मा कृत हिन्दी टीका सहित हर्षचरितम् / महाकविवाणभट्टविरचित। श्रीशङ्करविरचित 'सङ्केत' संस्कृत व्याख्या एवं 'कमलेश्वरी' हिन्दी व्याख्या सहित। व्याख्याकार-डॉ० बालगोविन्द झा फोन : 333458 अपरञ्च पुस्तक-प्राप्तिस्थानम् (सहयोगी संस्था) चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस के. 37/99, गोपाल मन्दिर लेन, गोलघर (मैदागिन) के पास __पो. बा. नं. 1008, वाराणसी-२२१ 001 (भारत) E-mail : cssoffice@satyam.net.in Jain Educa For private & Personal use only | ISBN: 81-218-0089-7 Price Rs. 300.00