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________________ माश्वासः 1 रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ४७७ ताया नामापि न ग्राह्यमिति त्यक्ष्यतीत्यर्थः । यद्वा - कथां निवर्तयिष्यति सत्पुरुषेषु त्वाम् असच्चरितासु मामुदाहृत्य कथां संपादयिष्यतीत्यर्थः । 'महं' इति पाठे मम गलितं महिलास्वभावं संस्मृत्येत्यन्वयः || ८४ ॥ " विमला - राम ! लोग तुम्हारे ( शौर्यादि ) गुणों का आदर कर एवं तुम्हें पौरुषमय मानकर तुम्हारी स्तुति ( प्रशंसा ) करेंगे और आप के मरने पर मेरा जो मरण नहीं हुआ, अतः मुझ असच्चरित्रा को याद कर ( नाम लेने योग्य भी न समझकर ) मेरी चर्चा करना छोड़ देंगे ॥ ८४ ॥ तुह वाणुक्ख अणिहमं दच्छिम्मि दहकण्ठमुहणिहाअंति कआ । मह भामधे अवलिया विवराहुत्ता मणोरहा पल्हत्या ॥८५॥ [ तव बाणोत्खातनिहतं द्रक्ष्यामि दशकण्ठमुखनिघातमिति कृताः । मम भागधेयवलिता विपराङ्मुखा मनोरथाः पर्यस्ताः ॥ ] तत बाणेनोत्खातमुत्खण्डितमत एवं निहतं निपातितं दशकण्ठस्य मुखनिघातं द्रक्ष्यामीति कृता मम मनोरथा भागधेयेन दुरदृष्टेन वलिताः प्रतिहताः । अत एव विपराङ्मुखा विपरीताः सन्तः पर्यस्ता विशीर्णाः । रामशरलूनं रावणशिरो द्रष्टव्यमेव रूपतायां रावणशरलूनं रामशिरो दृष्टमतो वैपरीत्यमिति भावः ॥८५॥ विमला - आप ( राम ) के द्वारा उत्खण्डित एवं निपातित रावण के सिरों को देखूंगी, यह मनोरथ जो मैंने किया था, विपरीत ( आप का हो रावण के द्वारा मरण होने से ) परिवर्तित हो गया एवम् उसे दुर्दैव ने पूरा नहीं होने दिया ।। ८५ ।। जं तणु अम्मि वि विरहे पेमाबन्धेण सङ्कइ जणस्स जणो । पेच्छन्तीए प्र तारिसं मज्झ फलम् ॥ ८६ ॥ प्रेमाबन्धेन शङ्कते जनस्य जनः । पश्यन्त्याश्च तादृशं मम फलम् ॥ ] तं जाअं णवर इमं [ यत्तनुकेऽपि विरहे तज्जातं केवलमिदं जनोऽल्पेऽपि विरहे प्रेमाबन्धेन स्नेहवशेन जनस्य यच्छङ्कते तत्तादृशं फलमिदं शिरः पश्यन्त्याः केवलं ममैव जातम् । तथा च विश्लेषेणादर्शनाज्जनो जनस्य मरणमाशङ्कते तदा शङ्कामात्रं मम । लून शिरोदर्शनेन प्रत्यक्षमेव तज्जातमिति भावः ||८६ ॥ विमला - लोग तनिक भी विरह होने पर स्नेहवश अपने प्रिय के मरण की शङ्का कर बैठते हैं, किन्तु उनकी शङ्का केवल शङ्का ही रहती है और वही शङ्का आप के सिर को देखती हुई केवल मुझे फलित हुई ।। ८६ ।। अथ सीतां प्रति समाश्वासनपरं त्रिजटावाक्यं प्रस्तौति तो विलविश्रणिष्कन्दं गलन्तहिश्रअपरिसुण्गलो जण अलम् । महुरं आसासन्ती हत्थुष्णामिअमुही भणइ णं तिजडा ॥ ८७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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