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________________ आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [१२६ विमला-बीर ! ( सुग्रीव ! ) शीघ्रता-वश तुम्हें नृपचरित ( राजनीति ) का परित्याग भी नहीं करना चाहिये । दक्षिणायन के प्रति त्वरित गमन करने वाले ( तुम्हारे पिता ) सूर्य का भी प्रताप मृदु हो जाता है ।।३०॥ शत्रुजिगीषया केवलमियमधीरतावलम्ब्यत इत्याशङ्कय निराकरोतिकि अइराएण इमा अमग्गसमरसुहचिन्तिप्रकहाहि का। पहरिसपणामिप्रमुही गोतक्खलणविमण व्व वे जअलच्छी ॥३१॥ [किमतिरागेणेयममार्गसमरसूखचिन्तितकथाभिः कृता । प्रहर्षप्रणामितमुखी गोत्रस्खलनविमना इव ते जयलक्ष्मीः ॥] कि वितर्के । राग इच्छा द्वेषो वा। तथा च ते त्वया इयं जयलक्ष्मीरतिरागेणात्यन्तयुद्धेच्छया शत्रावतिद्वेषेण वा निमित्तेन अमार्गेणावर्त्मना यदा यत्कर्तुन युज्यते तदा तदौद्धत्यकरणरूपेण समरसुखाय चिन्तिताभिर्बुद्धिविषयीकृताभिरिदानीमाचरिताहंकारप्रकाशरूपाभिः कथाभिः करणभूताभिर्गोत्रस्खलनेन विमना विमनस्का या कामिनी तादृशीव कृता सा यथा समीपमागच्छन्त्यपि नायकस्य प्रतीपनायिकायामत्यनुरागेणामार्गे आगन्तुकनायिकासांनिध्यादस्थाने सुरतसङ्ग्रामसुखात् पूर्वोत्पन्नाच्चिन्तिताभिस्तत्कथाभिः यद्वा अमार्गेण परस्त्रीविषयकत्वादवम॑ना यत्सुरतसुखं तेन चिन्तितकथाभिर्जातं गोत्रस्खलनं श्रुत्वा नायकदर्शनात्प्रणामितमुखी व्रीडया मुखनमनात् पुन याति तथेयमपि प्रहर्षेण भवदौद्धत्योत्साहरूपेण प्रणामितमवनतीकृतं मुखमुपक्रमो यस्यास्तथाभूता स्वल्पदिनसाध्यतया निकटवर्तिन्यपि नागमिष्यतीत्यर्थः । तस्माद्यदि जयश्रीरुद्देश्या तदासामेकमौद्धत्यं नाचरणीयमिति भावः ॥३१॥ विमला-जैसे कोई नायक परस्त्री में अत्यन्त अनुराग के कारण अनुचित मार्ग द्वारा लब्ध सुरत-सुख की बात मन में बसी रहने से अकस्मात् उस परकीया का नाम मुंह से निकाल कर समीप आती अभीष्ट नायिका को खिन्न कर अपने प्रहर्ष से अवनतमुखी बना देता है और वह फिर उस ( नायक ) के पास नहीं आती है उसी प्रकार तुमने [ अतिरागेण ] युद्ध की इच्छा से अथवा शत्रु के प्रति अत्यन्त द्वेष से क्यों अनुचित प्रकार से समरसुख के लिये औद्धत्य प्रकट कर (निकट आयी हुई ) जयलक्ष्मी को खिन्न और औद्धत्य एवम् उत्साहरूप प्रहर्ष से अवनतमुखी कर दिया ( वह अब तुमसे क्यों मिलेगी ?)॥३१॥ औद्धत्य मात्रेकरसता संप्रति न युज्यत इत्याह मा रज्जह रहस रिचा चन्वस्स वि दाव कुमुश्रवणणिप्फण्णो । दूरं णिवलिअगुणो एक्करसस्स कमलेसु विद्दाह जसो ॥३२॥ ६ से० ब० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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