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________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६५५ ससिणिहसतुसारोल्लिअरविअरवसुआअषप्रवडसिहवन्तम् । उण्णअपच्छिमतडिमं णिवडन्तं खपवई व सग्गाहि रहम् ॥५०॥ (आदिकुलअम् ) [ अथ रामोऽपि निर्ध्यायति तुरगखुरप्रहारविह्वलजलधरपृष्ठम् । स्थितवज्रधरालम्बितकनकध्वजस्तम्भनिर्यत्परिमलम् वामभुजगृहीतप्रग्रहमातलिभरनमितदीर्घधुरादण्डम् भिद्यमानमेघशीकरार्द्रावनतनिषण्णचामरपक्ष्माणम् शशिनिघर्षतुषाराद्रितरविकरशुष्कध्वजपटशिखार्धान्तम् । उन्नतपश्चिमतडिमं निपतन्तं खगपतिमिव स्वर्गाद्रथम् ।। ] (आदिकुलकम् ) अथ लक्ष्मणविशल्यतानन्तरं रामोऽपि स्वर्गानिपतितं रथं निर्ध्यायति पश्यतीति तृतीयस्कन्धकेन सहान्वयः । किंभूतम्। तुरगाणां खुरप्रहारेण विह्वलानि स्थाने स्थाने खण्डितानि जलधराणां पृष्ठानि यस्मात्तम् । एवम्-स्थितेन वज्रधरेणालम्बितात्पृष्ठेनावष्टब्धात्कनकध्वजस्तम्भान्निर्यन्परितः प्रसर्पन्परिमलः सौरभं यत्र । इन्द्रदेहस्थितपारिजातादिसंबन्धात् । किंभूतम् । वामभुजेन गृहीतः प्रग्रहो वल्गा येन स तस्य मातलेरिन्द्रसुतस्य भरेण नामितो दीधुरादण्डो यत्र तम् । अतःपतनेन मातलेरपि तदुपरि नमनादिति भावः । एवम्-भिद्यमानस्य द्विधाभूतस्य वर्मवर्तिनो मेघस्य शीकरैरम्बुकर्णराज़्ण्यत एवावनतानि सन्ति निषण्णानि मिथो मिलितानि चामराणां पक्ष्माणि यत्रेत्यलंकृतत्वमुक्तम् । किंभूतम् । शशिनो निघर्षे सति तदीयतुषारराीकृतः पश्चात्तदधोतिनो रबेः करैः शुष्को ध्वजपटस्य शिखाग्रं तदर्धान्तो यत्र तमिति तावदुरादागमनमुक्तम् । एवम्-उन्नतं पश्चिमतडिमं यस्य । अग्रभागेणाधःपतने पश्चाद्भागस्योत्थितत्वादिति भावः। खगपतिमिव । यथा गरुडः स्वर्गादधो गच्छतीत्यर्थः । आदिकुलकम् ॥४८-५०॥ विमला-लक्ष्मण के स्वस्थ होने के बाद राम ने स्वर्ग से गरुड के समान नीचे उतरते हुए ( इन्द्र के ) रथ को देखा। उसके घोड़ों के खुरप्रहार से ( मार्गवर्ती ) जलधरों के पृष्ठभाग स्थान-स्थान पर खण्डित हो गये थे। उसके कनकध्वज स्तम्भ का सहारा लिए इन्द्र स्थित थे, अतः उस ध्वजस्तम्भ से सौरभ चारों ओर फैल रहा था। सारथि मातलि बायें हाथ से रास पकड़े था, जिस (सारथि) के भार से दीर्घ धुरादण्ड झका हुआ था। (मार्गवर्ती ) मेघों के भिद्यमान होने से उनके अम्बुकणों से चँवर के बाल आर्द्र होकर झुके तथा परस्पर संश्लिष्ट थे । उसके ध्वजपट का अग्रभाग चन्द्रमा का निघर्षण होने से उसके तुषारों से आर्द्र कर दिया गया था, किन्तु वह सूर्य की किरणों से ( पुनः) सूख गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
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