SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 673
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५६ ] सेतुबन्धम् [पञ्चदश आगे का भाग नीचे की ओर झुक गया था, अतएव पिछला भाग उन्नत हो गया था ॥४८-५०॥ अथ रामस्य मातलिमेलनमाह तो रामो मानडिणा पढमदराभासणुभमुहपसण्णमहो। तिअसबहुमाण गरुअं दूरअरोणामिआणणेण पणमित्रो ॥५१॥ [ ततो रामो मातलिना प्रथमदराभाषणोन्मुखप्रसन्नमुखः । त्रिदशबहुमानगुरुकं दूरतरावनमिताननेन प्रणतः।। ] तत आगमनानन्तरं दूरतरमतिदूरमत एवावनम्रीकृतं मुखं येनेत्यादर उक्तः । तादृशेन मातलिना रामः प्रणतो नमस्कृतः । त्रिदशानामिन्द्रादीनां बहुमानेन सत्कारेण गुरुकमतिशयितं यथा स्यात् । रामः कीदृक् । प्राथमिके कुशल प्रश्नादिरूपे किंचिदाभाषणे उन्मुखं सत्प्रसन्नं मुखं यस्य स इति प्रतीतत्वमुक्तम् ।।५१।। विमला-आगमन के बाद इन्द्रादि के सत्कार के कारण अत्यन्त आदरपूर्वक मातलि ने अति दूर से ही सिर झुकाकर राम को प्रणाम किया और राम कुशलप्रश्नादि के लिए उन्मुख हो प्रसन्नमुख हुये ।।१।। अथ कवचदानमाह देइ अ रहपुञ्जइ उहकर विखवणपाअडिअवित्थारम् । कवअंतिहुअणवइणो अब्भन्तरलग्गणिम्महन्तपरिमलम् ।।५२।। [ ददाति च रथपुञ्जितमुभयकरक्षेपणप्रकटितविस्तारम् । कवचं त्रिभुवनपतेरभ्यन्तरलग्ननिर्यत्परिमलम् ॥] त्रिभुवनपतेरिन्द्रस्य । त्रिभुवनपतये रामायेति वा । चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। कवचं ददाति च । मातलिरित्यर्थात् । किंभूतम् । रथे पुञ्जितम् । तत्रैव स्थापितत्वादिति महत्त्वमुक्तम् । अथोत्थापने सति उभय कराभ्यां क्षेपणेन पार्श्वयोर्बाहुद्वयस्थानोत्थापनेन प्रकटितो विस्तारो यस्य । हृदयोत्थापनाभिव्यञ्जनादुभयकरस्थानयोः क्षेपणेन वा। एवम्-अभ्यन्तरे लग्नः सन्नियंन्नितस्ततः प्रसर्पन् परिमलः श्रीखण्डादेयंत्र तमिति तत्कालोत्तारितत्वमुक्तम् ।। ५२।। विमला-मातलि ने इन्द्र का कवच उठाकर राम को दिया, जो रथ में समेट कर रखा गया था। उसकी दोनों बाहों को पकड़ कर जब उठाया तब उसके विस्तार का पता लगा और ( इन्द्र के शरीर से तत्काल उतारे जाने के कारण ) उसके भीतर की तरफ लगे हुये श्रीखण्डादि का सौरभ चारो ओर फैल गया ॥५२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001887
Book TitleSetubandhmahakavyam
Original Sutra AuthorPravarsen
AuthorRamnath Tripathi Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year2002
Total Pages738
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy